10 ग़ज़लें (1) कभी होता है मुश्किल झूठ से खुद को बचाना भी कभी सच को बचा सकता है इक झूठा फ़साना भी कभी इक...
10 ग़ज़लें
(1)
कभी होता है मुश्किल झूठ से खुद को बचाना भी
कभी सच को बचा सकता है इक झूठा फ़साना भी
कभी इक ज़ख़्म दे जाता है ऐसी कैफ़ीयत हमको
हमें लगता है गोया लाज़िमी हो मुस्कुराना भी
मेरी जानिब है तेरा खूबसूरत रुख मगर ज़ालिम
लगा रखा है तूने ज़िन्दगी! मुझ पर निशाना भी
पड़े हैं आज भी महफ़ूज़ फ़ुर्सत के वे सारे पल
कभी जिनको तेरे ही साथ चाहा था बिताना भी
सुखा देता है दरिया को किसी की प्यास का सपना
कभी इक प्यास से मुम्किन है इक दरिया बहाना भी
(2)
मुझे किस कैफ़ीयत में ख़्वाहिशों ने डाल रखा है
मुसल्सल बस तुझे पाने का सपना पाल रखा है
सफ़र तन्हा किसी भी मुफ़्लिसी से कम नहीं होता
फ़क़त तेरे तसव्वुर ने मुझे खुशहाल रखा है
ये आलम बेखुदी का ज़िन्दगी को कौन है देता
हमारी प्यास को किसने नदी में ढाल रखा है
हमारी सोच में बाज़ार का होना है मजबूरी
हमें मालूम है ऊपर हमारे जाल रखा है
तुम्हारी राह तकते नींद में हम बुझ गये होंगे
दिया तो मुद्दतों से दिल में हमने बाल रखा हैे
(3)
मैं झुक जाता तो बेशक मसअला आसान हो जाता
मेरे किर्दार का लेकिन बहुत नुक़्सान हो जाता
अगर इंकार कर देता तू इक झूठी गवाही से
तो सच की जीत हो जाती, तेरा एहसान हो जाता
मिटा देता अगर हस्ती तू सच के रूबरू अपनी
तेरे हिस्से का वो लम्हा तेरी पहचान हो जाता
न रहता ठोकरों में यूँ कि जैसे राह में पत्थर
पिघल जाता तो ऐ कम्बख़्त, तू इंसान हो जाता
तेरे हिस्से में आ जाती मेरे हिस्से की तनहाई
मगर अपनी ही नज़रों में मैं बेईमान हो जाता
(4)
प्यास के सैलाब में दरिया किनारा है कहाँ
डूबते को एक तिनके का सहारा है कहाँ
चोट लगती थी उसे तो दर्द ले लेते थे हम
हम समझते थे जिसे अपना, हमारा है कहाँ
क्यों सराबों से उलझ कर प्यास से मरते रहे
कह के हमको आपने पानी, पुकारा है कहाँ
जिसने जितना कर लिया तय अपने हिस्से का सफ़र
उस सफ़र की इब्तिदा फिर से दुबारा है कहाँ
जिस तरह मिट्टी में गल कर बीज पौधा बन गया
ख़्वाब बोया था कभी, क़िस्मत का मारा है कहाँ
(5)
झुका इतना कि फिर मैं रेंग कर उस पार जा पाया
गुज़र कर तंग सूराखों से आखिरकार जा पाया
अँधेरे चीर कर मैं इक मुहब्बत के उजाले तक
गिरा कर नफ़रतों की हर बड़ी दीवार जा पाया
यहाँ हर आदमी मुश्किल में है मेयार को लेकर
उसूलों ही को कोई बेच कर बाज़ार जा पाया
ये मक़्तल है यहाँ सर की कोई क़ीमत नहीं होती
यहाँ से सर बचा कर कौन दावेदार जा पाया
हक़ीक़त में सितारे तोड़ना मुम्किन नहीं होता
फ़सानों में ही इस हद तक कोई किरदार जा पाया
(6)
किसी सूरत भी हो मुम्किन, हुनर से या दुआओं से
न बुझने दो मुहब्बत के चराग़ों को हवाओं से
वफ़ा, इंसानियत, ईमान, सच, मज़्हब- किसी की भी
हिफ़ाज़त हो नहीं पायी सियासत के खुदाओं से
बड़ा हो कर बहुत अच्छा है दानिशमंद हो जाना
मगर मासूमियत को खो न देना बद्दुआओं से
जिन्हें सुन कर बना लेता हूँ तस्वीरें मैं शब्दों की
मुझे आती हैं आवाज़ें न जाने किन खलाओं से
मुहब्बत, आर्ज़ू, सपने, जुदाई, जुस्तजू, धोखे
बना है आदमी मिल कर इन्हीं सारी खताओं से
(7)
निकलते वक़्त वो घर से बहुत तनहा निकलता है
मगर उस जिस्म से फिर धूप में साया निकलता है
मुझे रह-रह के क्यूं लगता है, मेरे साथ है कोई
सराबों के सफ़र में क्या कभी दर्या निकलता है
हमारे दुख में हँसता है, खुशी को देख कर रोता
हमारे साथ उसका कोई तो रिश्ता निकलता है
ज़रूरत खींच लाती है मुझे फिर-फिर तेरे दर तक
तेरे ही शह्र से हो कर मेरा रस्ता निकलता है
पुरानी दास्तानों से गुज़रने पर लगा कुछ यूँ
कि जैसे ठूँठ में फिर से हरा पत्ता निकलता है
(8)
अगर तू चाहता है हर समुंदर पार हो जाना
तो अपनी प्यास का बेइंतिहा विस्तार हो जाना
हमारे जिस्म का, हर सोच का, तहज़ीब तक का भी
बहुत तक्लीफ़ देता है फ़क़त बाज़ार हो जाना
हमारे आपसी रिश्ते ज़रूरत की बुनावट हैं
ग़लतफ़हमी है इनसे पैरहन तैयार हो जाना
जो अपने खास हैं, जिन पर बहुत उम्मीद होती है
बहुत मुम्किन है उनका वक़्त पर मक्कार हो जाना
हमें अपना समझकर जो हमारा दुःख उठाते हैं
क्यों उन के दुःख में आता है हमें लाचार हो जाना
(9)
खयालों में बिना दीवारो-दर का एक घर तो है
अगरचे ख़्वाब है लेकिन किसी उम्मीद पर तो है
उधर सारे समुंदर और दरिया हैं, इधर प्यासे
इधर वह क्यों नहीं जिसकी ज़रूरत है, उधर तो है
वहाँ कुछ फूल खिलते हैं यहाँ खुशबू नहीं आती
हवाओं में कहीं सहमा हुआ-सा एक डर तो है
उठा सो कर तो मैंने खुद को खुशबू से घिरा पाया
भले ही ख़्वाब झूठे हों मगर उनका असर तो है
कहाँ मालूम है, किस रास्ते चल कर मिले मंज़िल
खुशी की बात इतनी है, मुसल्सल इक सफ़र तो है
(10)
ज़िन्दगी से लफ़्ज़ जो मुझको मिले उपहार में
मैं वही लौटा रहा हूँ बाँध कर अश्आर में
प्यार में ताक़त तो है पर एक कमज़ोरी भी है
जान कर भी लोग खा जाते हैं धोखा प्यार में
जिस्म की नंगी नुमाइश छोड, ऐसा रोल कर
माँ दिखाई दे हमें, औरत! तेरे किरदार में
हाथ फैलाना ज़रूरत में किसी के सामने
बस यही हिम्मत नहीं होती किसी खुद्दार में
घर की दहलीज़ों के भीतर जो हवा महफ़ूज़ थी
हो गयी रुस्वा निकल आयी वो जब बाज़ार में
कृष्ण सुकुमार
153-ए/8, सोलानी कुंज,
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान,
रुड़की-247 667 (उत्तराखण्ड)
kya bat.....umda
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़लें
जवाब देंहटाएंbahut khoob sir ji sabhi gazalen achchhi lagi badhai sweekarena
जवाब देंहटाएंgazalen achchhi lagi badhai sweekaren
जवाब देंहटाएंbahut khoob sir ji sabhi gazalen achchhi lagi badhai sweekarena
जवाब देंहटाएंसुन्दर ! बधाई............................
जवाब देंहटाएंतिल-ख़ुशी से आस्मां सा दूर हूँ II
ताड़-ग़म सीने में ढो-ढो चूर हूँ II
पूछ मत मेरी मियादे ज़िन्दगी ,
यूँ समझ ले इक खुला काफ़ूर हूँ II
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
http://www.drhiralalprajapati.com/2014/04/524.html
आप सभी का हार्दिक आभार!
जवाब देंहटाएंकृष्ण सुकुमार
waah sir achchhi gazalen hui hain badhai ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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