आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की ध्वन्यात्मक (स्वनिमिक) व्यवस्था प्रोफेसर महावीर सरन जैन (1) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की केन्द्रवर्ती भाषाओं...
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की ध्वन्यात्मक (स्वनिमिक) व्यवस्था
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(1) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की केन्द्रवर्ती भाषाओं में अपभ्रंश की स्वनिमिक अभिरचनाएँ एवं प्रमुख स्वर तथा व्यंजन सुरक्षित हैं। सीमावर्ती आर्य भाषाओं में भिन्न ध्वन्यात्मक/स्वनिक विशेषताओं का भी विकास हुआ है। इनमें निम्न विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं -
(क) असमिया को छोड़कर शेष समस्त आधुनिक भारतीय भाषाओं में कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग एवं पवर्ग व्यंजनों का उच्चारण पाँच उच्चारण-स्थानों से होता है। इनके परम्परागत नाम निम्नलिखित हैं – (1) ओष्ठ्य (2) दन्त्य (3) मूर्द्धन्य (4) तालव्य (5) कंठ्य । असमिया को छोड़कर सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में इन वर्गों के व्यंजनों के उच्चारण-स्थानों के 5 भेदों की स्थिति मिलती है। यह अवश्य है कि कुछ भाषाओं में दन्त्य कहलाने वाली ध्वनियों का उच्चारण दन्त्य के आगे के भाग से होता है। इसी प्रकार मूर्द्धा स्थान में भिन्नता मिलती है। कुछ भाषाओं में जिव्हा उलटकर तालू के सबसे अधिक मूर्द्धन्य भाग का स्पर्श करती है जबकि अन्य भाषाओं में वह मूर्द्धन्य भाग के पूर्ववर्ती भाग का ही स्पर्श कर पाती है। इसी प्रकार कंठ्य ध्वनियाँ का उच्चारण-स्थान कंठ्य न होकर कोमल तालु हो गया है।
तालव्य ध्वनियों का उच्चारण-प्रयत्न अधिकांश भाषाओं में स्पर्श के स्थान पर स्पर्श-संघर्षी हो गया है। सभी भाषाओं में प्रत्येक वर्ग की व्यंजन ध्वनियों के (1) अघोष अल्पप्राण (2) अघोष महाप्राण (3) सघोष अल्पप्राण एवं (4) सघोष महाप्राण रूप मिलते हैं। असमिया ऐसी भाषा है जिसमें दन्त्य एवं मूर्धन्य व्यंजनों का भेदक वैषम्य समाप्त हो गया है। इनका उच्चारण-स्थान दन्त्य एवं मूर्द्धा से न होकर वर्त्स्य से होता है। इस प्रकार आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में केवल असमिया ही ऐसी भाषा है जिसमें मूर्द्धन्य व्यंजन ध्वनियाँ नहीं हैं। असमिया की एक अन्य विशेषता यह है कि उसमें वर्त्स्य-संघर्षी के दो स्वनिम मिलते हैं (1) अघोष (2) सघोष। संस्कृत में ह ध्वनि का उच्चारण स्थान कंठ्य था। हिन्दी आदि भाषाओं में इसे अभी भी कंठ्य ध्वनि कहा जाता है किन्तु इसका उच्चारण स्थान कोमल तालु हो गया है। असमिया में ह ध्वनि के दोनों रूप मिलते हैं। कोमल तालु से भी ध्वनि बोली जाती है और कंठ्य स्थान से भी एवं दोनों का स्वनिमिक महत्व है। असमिया में अग्र लघु इ तथा अग्र दीर्घ ई एवं पश्च लघु उ तथा पश्च दीर्घ ऊ भेदक नहीं हैं। इस कारण अग्र एवं पश्च स्वरों में दीर्घता का स्वनिमिक महत्व समाप्त हो गया है। अन्य भाषाओं में 10 स्वर स्वनिम हैं, असमिया में स्वर स्वनिमों की संख्या 8 है। असमिया में स्वर-संयोगों एवं संध्यक्षरों की बहुलता है। बांग्ला में स्वर स्वनिमों की संख्या 10 ही है। बांग्ला की विशेषता यह है कि ह्रस्व ‘अ’ का उच्चारण-प्रयत्न हिन्दी की भाँति अर्द्ध-विवृत्त न होकर अर्द्ध-संवृत्तोन्मुखी है तथा हिन्दी के मध्य स्थान की अपेक्षा पश्चोन्मुखी है।
(ख) मराठी की स्वनिम-व्यवस्था हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की भाँति ही है केवल एक अन्तर को छोड़कर। मराठी में चवर्गीय ध्वनियों का विकास दो रूपों में हुआ है। वे दो स्थानों से बोली जाती हैं। वर्त्स्य उच्चारण-स्थान से तथा वर्त्स्य-कोमलतालु उच्चारण-स्थान से भी। मराठी में भी चवर्गीय ध्वनियों का उच्चारण-प्रयत्न हिन्दी की भाँति स्पर्श न होकर स्पर्श-संघर्षी है। स्वरों की अनुनासिकता का लोप हो गया है।
(ग) हिन्दी जैसी केन्द्रवर्ती आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में पूर्ववर्ती भारतीय आर्य भाषाओं की परम्परानुरूप महाप्राण व्यंजन ध्वनियों का व्यवहार होता है। किन्तु अन्य सीमावर्ती आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में सघोष महाप्राण व्यंजनों (घ्, झ्, ढ्, ध्) एवं हकार का भिन्न भिन्न रूपों में उच्चारण होता है। इस दृष्टि से डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी पूर्वी बांग्ला में कण्ठनालीय स्पर्श के साथ साथ विशिष्ट स्वर विन्यास का व्यवहार होना मानते हैं। बांग्ला में हिन्दी के घ्, झ्, ढ्, ध् के उच्चारण में सघोषत्व सरसराहट (murmured) में बदल जाता है। पंजाबी की स्वनिमिक-व्यवस्था की विशिष्टता यह है कि उसमें अनुतान के तीन स्तर हैं – (1) उच्च (2) मध्य (3) निम्न। शब्द की आरम्भिक स्थिति में सघोष महाप्राण व्यंजन का उच्चारण निम्न अनुतान से होता है जिसके कारण व्यंजन का सघोषत्व एवं महाप्राणत्व ठीक से सुनाई नहीं देता। इसका कारण यह होता है कि इनके उच्चारण के समय फेफड़ों से आगत वायु-प्रवाह में आंशिक रुकावट होती है। भाषाविज्ञान में इन्हें “tenuis consonant” कहते हैं। गुजराती में इन व्यंजनों का जब स्वर-मध्य स्थिति में उच्चारण होता है तो इनके उच्चारण के समय फेफड़ों से आगत वायु-प्रवाह में आंशिक रुकावट होती है अर्थात इनका उच्चारण टेनियस रूप में होता है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी गुजराती में होने वाले इस प्रकार के उच्चारण को अपभ्रंश काल की देन मानते हैं।
(दे. भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, पृष्ठ 122-132)
(घ) सिंधी एवं लहंदा में अंतः स्फोटात्मक व्यंजन ध्वनियों का विकास हुआ है। इनका उच्चारण फेफड़ों से निर्गत वायु को रोककर नहीं अपितु बाहर की वायु को श्वास नली की ओर धकेलने की स्थिति में किया जाता है।
(ङ) पंजाबी में विकसित तान (अनुतान) तथा सघोष महाप्राण व्यंजनों के उच्चारण के सम्बन्ध में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने डॉ. सिद्धेश्वर के मत का उल्लेख किया है कि श्रुति की दृष्टि से पंजाबी में सघोष महाप्राण व्यंजनों में कुछ स्थितियों में महाप्राणता सुनायी नहीं पड़ती तथा परवर्ती अक्षर के स्वर के साथ श्वास का कुछ भाग संलग्न रहता है जो उसके स्वर-विन्यास की एक विशिष्टता मानी जा सकती है।
(दे. भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, पृष्ठ 127-128)
(2) ‘ऋ’ का उच्चारण पालि युग में ही समाप्त हो गया था। इसका उच्चारण आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में ‘र’, ‘रि’ एवम् ‘रु’ रूप में होता है।आज भी ‘रि’ में ‘र्’ के बाद का इ स्वर का उच्चारण जिव्हा के अग्र भाग की अपेक्षा मध्योन्मुखी होता है। यह इ स्वनिम का उपस्वन है।
(3) ‘ष्’ का मूर्धन्य उच्चारण किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में नहीं होता।
(4) अपभ्रंश के ‘ए’ एवं ‘ओ’ के ह्रस्व उच्चारण आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में सुरक्षित हैं। इसी कारण ‘ए’, ‘ऐ’, ‘ओ’, ‘औ’ का उच्चारण संध्यक्षर के अतिरिक्त मूल स्वरों के रूप में होने लगा है।
(5) हिन्दी, उर्दू, सिन्धी, पंजाबी, ओड़िया आदि में मूर्धन्य उत्क्षिप्त ‘ड़’ एवम् ‘ढ़’ ध्वनियाँ विकसित हो गई हैं।
(6) मध्य भारतीय आर्य भाषा काल में जिन शब्दों में समीकरण के कारण एक व्यंजन का द्वित्व रूप हो गया था, अपभ्रंश के परवर्ती युग में उनमें एक व्यंजन शेष रह गया तथा उसके पूर्ववर्ती अक्षर के ह्रस्व स्वर का दीर्घीकरण हो गया। सिन्धी, पंजाबी एवं हिन्दी की हरियाणवी एवं खड़ी बोली के अतिरिक्त सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में यह प्रवृत्ति सुरक्षित है। यथा –
कर्म > कम्म > कम्मु > काम
(7) अपभ्रंश में अन्त्य स्वर के ह्रस्वीकरण की प्रवृत्ति मिलती है।
‘‘पासणाह चरिउ’’ से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं –
महिला > महिल 1। 10। 12 | जंघा > जंघ 3। 2। 8। |
गम्भीर > गहिर 3। 14। 2। | पुंडरीक > पुंडरिय 17 । 21 । 2। |
(देखें - पासणाहचरिउ, सम्पादक - प्रफुल्लकुमार मोदी (सन् 1965)।
काश्मीरी / कश्मीरी, सिंधी और कोंकणी के अतिरिक्त अन्य भारतीय आर्य भाषाओं में यह प्रवृत्ति मिलती है। हिन्दी में अकारान्त शब्दों को प्रायः व्यंजनान्त रूप में उच्चरित किया जाता है।
(देखें – डॉ. महावीर सरन जैन – परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन, पृष्ठ 20-22)
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान
123, हरि एन्कलेव, बुलन्द शहर – 203 001
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(U. S. A.)
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