मुक्ति शिष्य का दिल टूट गया था । वह उदास था । इतना उदास न हुआ था कि कविता करने लगता। न इतना उदास हुआ था कि आत्महत्या कर लेता। न इतना उदास...
मुक्ति
शिष्य का दिल टूट गया था। वह उदास था। इतना उदास न हुआ था कि कविता करने लगता। न इतना उदास हुआ था कि आत्महत्या कर लेता। न इतना उदास हुआ था कि उदासी में ही मुक्ति दिखाई देने लगती। वह कम से अधिक और अधिक से कम उदास था। ऐसे नाजुक क्षणों में वह गुरु के पास सलाह लेने आया। गुरु ध्यानमग्न थे। आंखें बंद थीं। चेला उनकी आंखें खुलने की प्रतीक्षा करने लगा। पर गुरु की आंखें अपने देश की तकदीर जैसी हो गयी थीं। उनके खुलने की प्रतीक्षा करते-करते शिष्य की उदासी ऊब और गुस्से में बदल गयी। चेले की इच्छा हुई कि पास पड़ी खड़ाऊं और गुरु के गंजे सिर की पारस्परिक तालमेल से जो आवाज पैदा होती है उससे गुरु का ध्यान आकर्षित किया जाये। पर चेला चूंकि गुरु का सम्मान करता था इसलिए उसने खड़ाऊं उठाकर अपने सिर पर मार ली। गुरु का ध्यान टूटा आंखें खुली : देखा, शिष्य उदास है। गुरु के अधरों पर मुस्कान तैरने लगी। गुरु और शिष्य के बीच इस तरह संवाद हुए-
गुरु-‘‘चेला, क्यों उदास हो’
चेला-‘‘गुरुदेव, बहुत खोजने पर भी मुझे नौकरी नहीं मिली, कोई काम धन्धा नहीं है, बेकारी है, दुःख है।’’
गुरु-‘‘तुम्हें नौकरी मिल जायेगी शिष्य, पर एक शर्त है।’’
चेला-‘‘मैं हर शर्त मानने के लिए तैयार हूं। कहें तो किसी की हत्या कर दूं,
कहें तो किसी कुआंरी लड़की के साथ बलात्कार करूं, कहें तो गोलियों से लोगों को भुन डालूं।’’
गुरु-‘‘नहीं-नहीं चेला इतने साधारण और सहज काम करने के लिए मैं तुमसे न कहूंगा, ये काम तो देश में स्वतः हो रहे हैं।’’
चेला-‘‘फिर क्या करूं देव’
गुरु-‘‘तुम नौकरी की तलाश बंद कर दो तो तुम्हें नौकरी मिल जायेगी।’’
चेला-‘‘ये कैसे गुरुदेव’
गुरु-‘‘तुमने सुना है खोजे से भगवान नहीं मिलता, आजकल नौकरी और भगवान का एक जैसा हाल है। बल्कि भगवान तो फिर भी मिल जाते हैं, नौकरी का हाल उससे भी बुरा है।’’
चेला-‘‘पर बिना खोजे नौकरी कैसे मिल सकती है’
तब गुरु ने चेले की जिज्ञासा का इस प्रकार समाधान किया-
‘‘किसी शहर में एक शरीफ आदमी रहता था। शरीफ आदमियों की तरह यह शरीफ आदमी भी बेकार था। इसलिए परेशान था। शरीफ आदमी ने नौकरी बहुत खोजी पर न मिली। एक दिन वह तंग आ गया। उसकी समझ में नौकरी न मिल पाने का रहस्य आ गया। उसे ज्ञान प्राप्त हो गया। वह किसी वृक्ष के नीचे नहीं, बस स्टाप के नीचे खड़ा था। उसे लगा, नौकरी न मिल पाने का कारण शराफत है। उसने अपने कंधों के ऊपर से शराफत की चादर उतारी और सबकी नजरें बचाकर उसे बस स्टाप पर रखने लगा कि आवाज आई-‘नहीं-नहीं ये मेरी विनती है कि चादर मेरे ऊपर न रखो। यदि यहां चादर रख दी गयी तो भविष्य में यहां कभी कोई बस न रुकेगी। कोई यात्री न आयेगा।’ शरीफ आदमी परेशान हो गया। यह बस स्टाप का रुदन था। तब शरीफ आदमी न आंख बचाकर चादर एक लंगड़े भिखारी के कंधों पर डालनी चाही, लेकिन आश्चर्य कि लंगड़ा भिखारी वैसाखियां छोड़कर पी.टी.ऊषा की रफ्तार से भाग खड़ा हुआ। तब शरीफ आदमी ने शराफत की चादर एक कुत्ते पर डालनी चाही, पर कुत्ते ने हाथ जोड़कर कहा, ‘मुझे कुत्ता ही रहने दो, यह क्या कर रहे हो कोई रोटी का टुकड़ा न देगा। कोई ढेला तक न मारेगा। कोई कुत्ता तक न कहेगा।’ तब शरीफ आदमी ने तय किया कि वह चादर किसी साधु-संत को दे देगा। वह मंदिर गया। वह चादर देखते ही पुजारीगण भाग खड़े हुए। भक्त रह गये। भक्तों ने जब समस्या सुनी तो एक चालाक भक्त ने सुझाया कि चादर किसी मरते हुए आदमी पर डाल दी जाय। इस तरह शरीफ आदमी को शराफत की चादर से छुट्टी मिल गयी। और अब वह शरीफ आदमी केवल आदमी रह गया। उसने नौकरी की तलाशा छोड़कर स्वयं दूसरों को नौकरी दिलाने की एजेंसी खोल ली। वह लोगों को विदेश भिजवाने लगा। और संक्षेप में आज उसके पास विदेशी कारें और बंगले हैं। वह गर्मियों में यूरोप और जाड़े में सऊदी अरब जाता है। इसलिए ऐ चेले नौकरी खोजना छोड़ दे।’’
‘‘और अपनी चादर का क्या करूं’
‘‘अरे क्या तुम्हारे पास भी चादर है’ गुरुदेव ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘हां गुरुदेव, है। इसी कारण मैंने खड़ाऊं अपने सिर पर मारी, नहीं तो आपका सिर भी मौजूद था।’’
यह सुनने के बाद गुरुदेव गंभीर हो गये और बोले-‘‘तुमने जरूर घटिया किस्म के विश्वविद्यालय से डिग्री ली है। जरूर तुम्हारे अध्यापक निम्नकोटि के विद्वान रहे होंगे। जरूर तुम किसी संस्कारहीन परिवार में पैदा होंगे। अवश्य ही तुम्होर मित्र तुम्हो जैसे होेंगे।’’
शिष्य ने इस सारे सत्यों का एक-एक करके स्वीकार कर लिया। लेकिन गुरुदेव के चरणों में सिर रख दिया और बोला, ‘‘गुरुदेव अब मेरी आंखें आपने खोल दी है। इस चादर से मेरा पीछा छुड़ाओ नहीं तो मैं कहीं का न रहूंगा।
‘‘गुरु ने कहा, काम कठिन है। इसलिए कि आज कोई इस चादर को बेमोल की बात तो छोड़ दो...करोड़ों देने पर भी नहीं लेगा।’’
‘‘तब क्या करूं गुरूदेव’
तब गुरूदेव ने शिष्य को जैसा बताया शिष्य ने वैसा किया जिसका विवरण इस प्रकार है-
चेला चादरों के विक्रेता के पास गया और चाहा कि विक्रेता इस चादर को दूसरी चादर में छिपाकर किसी को बेच डाले। विक्रेता ने कहा कि दूसरी चादरों में यह चादर नहीं मिल सकती। बल्कि यह चादर अगर उसने दूकान में रख ली तो दुकान उजड़ जायेगा। ग्राहक आना बंद हो जायेंगे। गल्ला खाली हो जायेगा।
तब शिष्य को गुरुदेव ने देश की सबसे बड़ी संस्था के सामने अपना मामला पेश करने की सलाह दी। सर्वोच्च संस्था तक पहुंचना आसान न था। उसने इस काम में प्रेस का सहारा लेना चाहा। अखबार के दफ्तरों के चेलाा जब अपनी चादर लेकर घुसा तो भगदड़ मच गयी। एक वरिष्ठ सम्पादक ने कहा, ‘‘चादर बाहर रखकर आओ तो बात करो। यहां इसे लाना वर्जीत है।’’
चेले ने चादर बाहर रखी और अखबार के दफ्तर में घुसा। वहां उससे इस प्रकार के सवाल-जवाब हुए-
‘‘यह चादर तुम्हें कैसे मिली’
‘‘यह एक दुःख भरी कहानी है।’’
‘‘तुम्हारी कहानी में कोई ‘स्कैण्डल’ बनाता है’
‘‘नहीं।’’
‘‘तुम इस चादर से क्यों पीछा छुड़ाना चाहते हो’
‘‘जिन्दा रहना चाहता हूं।’’
‘‘यह चादर तुमसे कोई दूसरा लेने पर क्यों तैयार नहीं है’
‘‘सब जिन्दा रहना चाहते हैं,’’
‘‘तुम्हारे अतिरिक्त भी किसी के पास ये चादर है’
‘‘सारे हमारे साथ के बीमार मर गये।’’
‘‘अच्छा तो तुम कवि हो’
‘‘यह दावा तो नहीं कर सकता।’’
‘‘तुम देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था के सामने क्या कहना चाहते हो’
‘‘यही कि वे मेरी चादर ले लें। मेरी जान बचे।’’
‘‘तुमने अपना मामला सर्वोच्च न्यायालय में क्यों नहीं रखा’
‘‘वकील नहीं मिले।’’
‘‘क्यों, क्या फीस दे रहे थे’
‘‘फीस तो बहुत दे रहा था।’’
‘‘फिर क्या बात थी’
‘‘चादर को देखते ही वकील उछलकर दूर भाग जाते थे।’’
‘‘फिर’
‘‘फिर क्या, जब वकील ही न मिले तो न्यायमूर्ति ने केस सुनने से हंसकर इनकार कर दिया।’’
‘‘तुम्हें क्या आशा है तुम्हें सर्वोच्च संवैधानिक संस्था के सामने पहुंच सकते हो’
‘‘हां, पहुंच सकता हूं, पर वहां जनप्रतिनिधियों का होना भी आवश्यक है।’’
‘‘क्या तुम्हारा ऐसा ही अनुभव है’
‘‘हां, पुलिसवाले तो मुझे थाने के सामने से गुजरने नहीं देते।’’
‘‘यदि सर्वोच्च संस्था ने तुम्हारी चादर न ली तोे क्या करोगे’
‘‘आत्महत्या कर लूंगा।’’
‘‘तब तुम्हारी लाश के साथ क्या होगा’
‘‘कोई उसके पास न आयेगा...जबकि मेरी लाश पर चादर पड़ी होगी।’’
‘‘कब तक तुम्हारी लाश पर चादर पड़ी रहेगी’
‘‘जब तक कोई उठा न लेगा।’’
‘‘क्या कभी कोई उठायेगा’
‘‘मैं तो ऐसा ही समझता हूं।’’
‘‘गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में तो तुम्हारा नाम आ गया होगा’
‘‘नहीं, वे लोग किसी ऐसी चादर के अस्तित्व को नहीं मानते।’’
आखिरकार चेला चादर लेकर एक विशाल और विराट भवन के सामने पहुंचा। वहां पुलिस का पहरा था। थाना-कचहरी थे। हाथी-घोड़े थे। तलवारें-बंदूकें थीं। तोपगाड़ियां और विमानभेदी तोपे थीं। चेला चादर लिये जैसे ही वहां पहुंचा, सिपाही संतरी चौंक गये।
‘‘तुम यहां क्यों आ गये हो...जल्दी-से-जल्दी से चले जाओ।’’
‘‘मैं अपनी चादर सर्वोच्च संस्था को सौंपने आया हूं।’’
‘‘तुम्हारे पास अंदर जाने की अनुमति है’
‘‘नहीं है।’’
‘‘तब हम तुम्हें नहीं जाने देंगे।’’
‘‘तब यह चादर मैं तुम ही लोगोें को सौंपकर चला जाऊंगा।’’
यह सुनते ही सिपाहियों ने उसे ससम्मान अंदर जाने दिया। अन्दर स्वागत कक्ष में एक बूढ़े, खूसट किस्म के स्वागताधिकारी बैठे थे। उन्होंने चेले को आते देखा तो बोले, ‘‘किससे मिलना है।
‘‘तमाम जन-प्रतिनिधियो सें।’’
‘‘अगर मैंने तुम्हारा पास बना दिया तो नौकरी से हाथ धोने पड़ेंगे।’’
‘‘क्यों’
‘‘तुम्हारे पास ये जो चादर है न यह आतंकवाद की बाप है। इतना बड़ा विस्फोटक पदार्थ लेकर तुम अंदर नहीं जा सकते।’’
‘‘तब तुम ही इसे ले लो।’’
‘‘नहीं-नहीं, मेरे ऊपर दया करो। रिटायरमेंट के कुछ ही साल बाकी हैं।’’
‘‘तब मुझे अंदर जाने दो।’’
चेला अंदर पहुंचा तो लगा भिंडी बाजार में आ गया हो। वह हैरत से आंखें फाड़े इधर-उधर देखता रहा। धीरे-धीरे चीजें स्पष्ट होने लगीं। कुछ देर बाद सदस्यों ने उसे देखा। सबसे पहलेि शासक दल के सदस्य अपनी-अपनी मेजों के नीचे घुस गए। फिर विरोधी गुट के सदस्यों में एक गुट ने जल्दी-जल्दी अपनी चादरें ओढ़ लीं। एक दूसरे विरोधी गुट ने बाहर भाग जाना ही ठीक समझा। वामपंथी गुट ने अपने सामने कागज की दीवार खड़ी कर ली। पूरा भवन शांत था। कोई अपनी सीटों पर नहीं था। चेला जहां चाहता जाकर बैठ सकता था। लेकिन चेला जानता था कि कुर्सी पर बैठ जाने से कुछ नहीं होता। वह धीरे-धीरे चलता आगे बढ़ और बोला, ‘‘आप सब सुरक्षित हैं। मैं अपनी चादर न तो सरकार पर डालना चाहता हूं और न विपक्ष पर। न तो मैं दक्षिणपंथियों को चुनौती दे रहा हूं न वामपंथियों को। मैं तो हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना कर रहा हू कि मेरी सहायता करें।’’ धीरे-धीरे सदस्य मेजों के नीचे से बाहर निकलने लगे।
चेले ने कहा, ‘‘मैं तो अपनी चादर आप लोगों को सौंपने आया था। आप सबको यह भार मिलकर उठाना पड़ेगा।’’ सब सदस्यों ने एक साथ इनकार कर दिया। कहा, ‘‘हमसे यह न हो सकेगा। या तो देश का भार हमसे उठावा लो या इस चादर का।’’
तब कुछ सदस्यों ने कहा कि यह जो भवन में सत्य-वत्य जैसा कुछ लिखा है उस पर अपनी चादर डाल दो। चेले की आंखें इस कदर चौंधिया गई थीं कि वह पूरा वाक्य न पढ़ सका। पर उसे लगा, मुक्ति की यही जगह है। फिर उसने आव देखा न ताव चादर उसी सत्य पर डाल दी। एक जोर का विस्फोट हुआ। पीतल की जिस बड़ी प्लेट पर वह वाक्य लिखा था और पत्थर, जिस पर वह जड़ा था, दोनों टुकड़े-टुकड़े हो गए। भवन में एक पल स्तब्धता रही। फिर अचानक हंसी-खुशी के झरने फूट पड़े।
वाह ! :)
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