देविका रानी स्मरण -------------- देविका रानी का शुमार भारतीय सिनेमा की अग्रणी नायिकाओं के तौर पर होता है। बीस के दशक में रिलीज एक द्विभाषी...
देविका रानी स्मरण
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देविका रानी का शुमार भारतीय सिनेमा की अग्रणी नायिकाओं के तौर पर होता है। बीस के दशक में रिलीज एक द्विभाषी फिल्म से सिनेमा का रूख किया था। उसे उस समय के जाने माने निर्माता हिमांशु राय ने एक विदेशी कंपनी के साथ मिलकर बनाई थी। उस समय देविका लंदन में कला की शिक्षा ले रही थी। देविका की हिमांशु से पहली मुलाकात वहीं हुई। देविका का सिनेमा रुझान देखते हुए हिमांशु ने उन्हें काम करने का न्योता दिया। देविका ने उस फिल्म में मंच सज्जा की। किंतु उनके नाम को नामों की सूचि में नहीं स्थान मिला। इसके बाद दोनों एक साथ जर्मनी में एक तकनीकी प्रशिक्षण लेने गए। उस दौरान देविका ने अभिनय-वेशभूषा-मेक अप आदि को मन लगा कर सीखा। देविका-हिमांशु में बेहतरीन तालमेल हुआ करता था। दोनों ने फिल्म निर्माण को समर्पित एक टीम बनाई। जिसके बाद ‘कर्मा’ का निर्माण हुआ। देविका-हिमांशु ने इसमें लीड भूमिकाएं अदा की थी। फिल्म को समकालीन आलोचकों ने काफी महत्त्व दिया। ब्रिटेन के समाचार पत्रों में उसकी बेहतरीन समीक्षाएं लिखी गयीं। फिल्म की कामयाबी ने दोनों को आपसी रिश्ते मजबूत करने का बेहतरीन अवसर दिया। इस समझ से दोनों का विवाह बेहतरीन निर्णय रहा। स्वदेश वापसी के उपरांत इस जोडी ने ‘बांबे टाकीज’ की सफल स्थापना की। इस ख्वाब को शायद उन्होंने जर्मनी में देखा होगा। देविका इस फिल्म कंपनी का चेहरा बनी जबकि इसकी संचालन का कार्यभार हिमांशु राय के जिम्मे था। जिस किस्म से देविका की जिंदगी चल रही थी,उस प्रकाश में उनका सिनेमा में आना महज तक़दीर का खेल कहा जा सकता है। ब्रिटेन में कला व संगीत की शिक्षा लेने वाली युवती का फिल्मकार हिमांशु राय से मुलाकात होना संयोग था। हिमांशु को देविका की प्रतिभा को नवाजते हुए फिल्मों में काम करने का आफर दिया। दोनों ने एक साथ फिल्में की। पहली फिल्म ‘कर्म’ रिलीज हो जाने बाद वो स्वदेश चले आए थे।
आप जब भी मुंबई के नाना चौक पर आएं तो बांबे टाकीज का इतिहास झांकता मिलेगा। जहां कभी विशाल स्टुडियो प्रांगण हुआ करता था,वहां गगनचुंबी बहुमंजिला इमारतें खडी हैं। इसके मुहाने पर पुरानी-बेकार गाडियों का अंबार एक गराज की शक्ल अख्तियार कर चुका है। एक नायिका के रूप में देविका रानी का नाम हांलाकि कभी बहुत मशहुर हुआ करता था,फिर भी उस समय के निशान आज नहीं मिलते। जानता हूं कि किसी ने भूलाया नहीं दिया,लेकिन वो फिर भी यादों के कारवां से बाहर रहीं। एक कडवा घूंट जिसे बीते जमाने के कलाकारों को ना चाहते हुए पीना पडा है। भूले-बिसरे लोगों के नाम किसी पुरस्कारों के माध्यम से मिला करते हैं। देविका रानी का किस्सा इससे जुदा नहीं था। सिनेमा के बदलते तेवर ने उन्हें इससे अलग होने को बाध्य किया था। भारतीय सिनेमा की प्रथम नायिकाओं में शुमार देविका के संयास को पदमश्री व दादासाहेब फाल्के पुरस्कारों कुछ समय के लिए जरूर तोडा,लेकिन सिनेमा की दुनिया में महज हवा के झोंके थे। उनके योगदान को मुडकर देखें तो सिनेमा को एक कला का सम्मान अता करने को भुलाया नहीं जा सकता। फिल्मों को एलिट लोगों में लोकप्रिय बनाने की महान क्षमता भी उनमें थी। भारतीय सिनेमा के पुराने चलन में बदलाव इस मायने में भी आया कि देविका के बाद सम्मानित परिवारों की लडकियां फिल्मों में आने लगी। रविन्द्रनाथ ठाकुर की करीबी रिश्तेदार व भारत के प्रथम सर्जन जनरल की बेटी का फिल्मों में आना क्रांतिकारी था । स्टुडियो की पहली फिल्म के बाद देविका के सह-अभिनेता नजमुल हसन को बाहर होना पडा। टाकीज की अगली महत्वकांक्षी फिल्म ‘अछूत कन्या’ के लिए उपयुक्त अभिनेता की तालाश अशोक कुमार पर जाकर ठहरी। सामाजिक असमानता-जातिवाद-प्रेम तत्वों को समेटे यह फिल्म भारतीय सिनेमा में गुणवत्ता की मिसाल थी। ऊंचे जाति के युवा का दलित युवती से प्रेम की कहानी थी। उस जमाने में इस किस्म की फिल्में बिल्कुल नहीं बनती थी। सामाजिक विसंगतियों के ऊपर गंभीर व आवश्यक विमर्श शुरु हो गया था। कहा जा सकता है कि अपने समय से आगे थी। सिनेमा के सफर में मील का पत्थर। भारतीय नारी की स्थिति को दर्शाने वाली फिल्मों का सफर देविका ने जारी रखा। इस दरम्यान जीवन प्रभात-निर्मला-दुर्गा का निर्माण हुआ।
बांबे टाकीज को शोहरत की बुलंदियों तक लाने के लिए ‘अछूत कन्या’ की सराहना करनी होगी। सामाजिक विसंगतियों पर चोट करनी वाली इस फिल्म बरसों पुरानी होकर भी प्रासंगिक है। फिल्म को सरस्वती देवी के गानों से भी ख्याति मिली। परंपरा के मुताबिक देविका-अशोक कुमार ने गीतों को आवाज दी। दलित युवती की समृति में स्थापित मंदिर का यहां साहसी प्रसंग आया था। फ्लैशबेक माध्यम से उस लडकी की कहानी को बताया गया। दलित किशोरी कस्तुरी (देविका रानी) ब्राह्मण किशोर प्रताप (अशोक कुमार) जातिवादी पुर्वाग्रहों से दूर एक साथ गीत गाते रहते हैं। शायद इसलिए भी क्योंकि प्रताप व कस्तुरी के पिता आपस में दोस्त थे। कस्तुरी के पिता दुखिया ने कभी मोहन (प्रताप के पिता) की जान बचाई थी। वे दोस्ती के ऊपर जातिगत मानसिकताओं को तिलांजली देकर जी रहे थे। कस्तुरी-प्रताप में भी एक दूसरे को लेकर प्रेम का भाव है। लेकिन क्या जातिगत पूर्वाग्रहों से ग्रसित समाज इस ‘पाप’ को स्वीकार करेगा? पूरे समाज में केवल दुखिया तथा मोहन को इन किशोरों की चिंता थी। लेकिन उन्हें समाज का समर्थन नहीं मिलने वाला था। दलित युवती से बेटे की नजदिकियां मां को स्वीकार नहीं। कस्तुरी के उदार माता-पिता जातिवादी भेदभाव से दुखी होकर भी असहाय हैं। उधर प्रताप का रिश्ता अपनी ही जाति की मीरा से तय हो जाता है। प्रताप-कस्तुरी को धर्म के ठेकेदारों ने अलग करने की कसम खा रखी थी। इसी दरम्यान सख्त रूप से बीमार दुखिया को इलाज खातिर अपने घर लाने की गलती मोहन बाबू से हो गयी। क्या ऊंची जाति का कुनबा इसे सहन करेगा? मोहन बाबू को मारपीट कर घर में आग लगा दी जाती है। भलमनसाहत वाले लोग दोनों को किसी तरह वहां से बचा लेते हैं। मामले की जांच के लिए पुलिस गांव पहुंचती है। क्या पुलिस दोषियों को सजा देगी? एक मुश्किल बात थी। प्रताप- मीरा का रिश्ता एक बेमेल परिणाम निकला। दूसरा कस्तुरी में संभावना तलाश रहा था। कस्तुरी का रिश्ता तय हो गया। क्या प्रताप कस्तुरी व खुद को इस भंवर से निकाल सकेगा? वो कस्तुरी को साथ गांव छोड देने का प्रस्ताव देता है। पीडा देखिए कि प्रताप व कस्तुरी जैसे प्रेम कहानियों का आगे सुखद समापन हो…वर्त्तमान कुरबान हो गया। कस्तुरी का त्याग प्रताप में भी अपने वर्त्तमान (मीरा) को अपना लेने का भाव डाल गया। क्या कस्तुरी-प्रताप का त्याग जातिगत विषमताओं को समाप्त कर सका? जवाब हम सबको पता है।
देविका रानी की एक अन्य फिल्म ‘कर्म’ की प्रशंसा में तब के एक नामी अखबार ने लिखा कि फिल्म भारतीय सिनेमा के परंपरा में मील का पत्थर होगी। भारतीय सिनेमा को क्षमताओं को समझने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास। एक चुंबन एवं उससे उपजे चिरकालिक विवाद के अलावा फिल्म में बहुत कुछ था। यह द्विभाषी प्रस्तुती अंग्रेजी व हिन्दी में रिलीज हुई थी। एक नायिका के तौर पर देविका की पहली फिल्म थी। हिमांशु राय ने कर्म के बाद अभिनय को छोड निर्माण में विशेषता बना ली। हिमांशु राय के सिलसिले में फिल्म को दुर्लभ भी कहा जा सकता है। आज के ग्लोबल सिनेमा में जहां अंतर-सांस्कृतिक एवं अंतराष्ट्रीय पैमाने की फिल्में बन रही, ऐसे वक्त में तीस दशक की ओर मुडकर देखना लाजिमी हो जाता है। बीता जमाना आज को चुनौती देता दिखाई देता है। शांतिनिकेतन व ब्रिटेन में तालीम हासिल करने वाले हिमांशु हमारे सिनेमा को विश्व स्तर पर ले जाने का नेक मकसद ले कर चल रहे थे। इसकी कामयाबी ‘कर्म’ में फलीभूत हुई। निर्माण के ज्यादतर पहलू तकनीकी रूप से संपन्न विदेशी तकनीशियन देख रहे थे। मेहनत के फल को आप बेहतरीन समीक्षाओं में देख सकते हैं। समकालीन भारतीय परिवेश से प्रेरित होकर भी विश्व स्तर की अपील वाली एक फिल्म बनी थी। महलों व महाराजाओं में भारत की विलासिता झलक रही थी। राज पाठ की भव्यता के बीच एक प्रेम कहानी को आकार दिया गया। कर्म में आस्था को इसका मर्म रखा गया, एशियाई लोगों के लिए यह आकर्षण का बिंदु बना। हालांकि हिमांशु स्वदेश में फिल्म सफल होगी? को लेकर घबराए हुए थे। बांबे में रिलीज होकर दिल्ली व मद्रास में भी लगी। फिल्म को सकारात्मक अपनत्व मिला। फिर भी ब्रिटेन की तुलना में यह कम था। हमने फिल्म की कहानी को पसंद किया। दो राजशी घरानों के वारिसों के बीच उभरते प्यार की दास्तान यह थी। लंदन व भारत में फिल्मायी गयी इस फिल्म में भारतीय राजाओं व उनके भव्य महलों की छटा देखने को मिली थी। भारतीय रेल व केंद्रीय प्रचार संस्था फिर राजशी राज्यों व उन पावन मंदिरों के संचालकों को धन्यवाद कहना चाहिए।
समकालीन भारतीय परिवेश से प्रेरित होकर भी विश्व स्तर की अपील वाली एक फिल्म बनी थी। महलों व महाराजओं में भारत की विलासिता झलक रही थी। राज पाठ की भव्यता के बीच एक प्रेम कहानी को आकार दिया गया। कर्म में आस्था को इसका मर्म रखा गया, एशियाई लोगों के लिए यह आकर्षण का बिंदु बना। हालांकि हिमांशु स्वदेश में फिल्म सफल होगी? को लेकर घबराए हुए थे। बांबे में रिलीज होकर दिल्ली व मद्रास में भी लगी। फिल्म को सकारात्मक अपनत्व मिला। फिर भी ब्रिटेन की तुलना में यह कम था। हमने फिल्म की कहानी को पसंद किया। दो राजशी घरानों के वारिसों के बीच उभरते प्यार की दास्तान यह थी। लंदन व भारत में फिल्मायी गयी इस फिल्म में भारतीय राजाओं व उनके भव्य महलों की छटा देखने को मिली थी। भारतीय रेल व केंद्रीय प्रचार संस्था फिर राजशी राज्यों व उन पावन मंदिरों के संचालकों को धन्यवाद कहना चाहिए। सीतापुर की राजकुमारी ( देविका रानी) व जयनगर के राजकुमार (हिमांशु राय) की प्रेम कहानी में धर्म-आस्था-आखेट का रोचक तत्व शामिल था। सांप-सपेरों की रुचिकर दुनिया को भी कहानी का हिस्सा बनाया गया। सांप के जहर से मृत्यु की रेखा पर पहुंचे राजकुमार को बचाने वाली राजकुमारी की कहानी। प्रेम व आस्था तथा जीवन की जीत में विश्वास बनाने वाली दास्तान।
एक संपन्न बंगाली परिवार से ताल्लुक रखने वाली देविका का आज के विशाखापटनम से गहरा नाता था। वो इसी शहर के एक बंगाली परिवार से थी। देविका का जन्म एम एन चौधरी व लीला जी के परिवार में हुआ थ। स्कूल की पढाई पूरी होने बाद संगीत व रंगमंच की शिक्षा लेने ब्रिटेन के नामी रंगमंच एकेडमी ‘रंगमंच की रायल अकादमी’ एवं ‘संगीत की रायल अकादमी’ में दाखिला लिया। फिर आगे जाकर वास्तुकला व डिजायनिंग की भी तालीम हासिल की। इ्सी दरम्यान उनकी मुलाकात पटकथा लेखक निरंजन पाल से हुई। निरंजन ने देविका के लिए बहुत सी फिल्मों की पटकथाएं लिखीं। बांबे टाकीज के महान स्वपन को निरंजन पाल व फिल्मकार फ्रांज ओस्टेन के योगदानों ने भी पूरा किया। हिमांशु-देविका की इस कंपनी ने हिन्दी सिनेमा को इन दोनों के अतिरिक्त अशोक कुमार-मधुबाला-दिलीप कुमार सरीखा कलाकार दिया। हिमांशु राय के निधन उपरांत बांबे टाकीज के मालिकाना हक़ की लडाई को बडे हिम्मत से लडा। फिर भी फिल्मिस्तान के उदय को रोक नहीं सकी। समय के साथ बांबे टाकीज का नाम इतिहास के पन्नों तक सिमट गया। यही वो वक्त था जब पेंटर स्वेतलाव रोरिक़ उनकी जिंदगी में आए। सिनेमा से दूरी बनने लगी …क्योंकि शायद जीवन की प्राथमिकताएं बदल चुकी थी। वो बंबई को छोड पति के शहर बेंगलोर आ गयी, बाक़ी जिंदगी वो यहीं रही।
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सैयद एस. तौहीद
(देविका रानी का चित्र - साभार विकिपीडिया)
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