ज-1 वे लोग अत्यंत व्यस्त रहते हुए भी इसका ध्यान रखते थे कि उस आदमी, जिसको वे ‘ज’ कहा करते थे, को क्या परेशानी है या किस हद तक बढ़ी हुई है ...
ज-1
वे लोग अत्यंत व्यस्त रहते हुए भी इसका ध्यान रखते थे कि उस आदमी, जिसको वे ‘ज’ कहा करते थे, को क्या परेशानी है या किस हद तक बढ़ी हुई है कि उसका इलाज कहां और कैसे हो सकता है। ‘ज’ के प्रति सहानुभूति दर्शाए बिना ही उनके सब काम जैसे तैसे चल सकते थे, लेकिन इसके बाद भी अगर वे ‘ज’ से हमदर्दी रखते थे तो कारण किसी बहुत मोटे और महान शब्द के पीडे छिपा हुआ था।
उन लोगों ने ‘ज’ को जब-जब जो-जो बीमारियां बतायीं तब-तब त्यों-त्यों ‘ज’ ने उन्हें स्वीकार किया। चूंकि मर्ज बताने वाले भी वही थे और इलाज करने वाले भी वही, इसलिए मामला काफी सुलझा हुआ था, इतना कि जब उन्होंने ‘ज’ से कहा कि उसका चेहरा बिगड़ गया है और उसका इलाज जरूरी है तो उन्हें ये बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि ‘ज’ इस बात से इनकार कर देगा। ‘ज’ ने उनसे कहा कि मेरे चेहरे में कई दोष हो सकते हैं, मसलन मैं दूर तक देख सकने वाली आंखें और खतरा सूंघ लेने वाली नाक रखता हूं, लेकिन इससे भी भयंकर रोग मेरे पेट में है। पहले उसका इलाज जरूरी है। उन लागों के लिए यह खतरे और आश्चर्य की बात थी कि ‘ज’ अपने मर्ज को पहचानने लगा है। इन लोगों ने ‘ज’ से कहा कि डॉक्टर ही मर्ज पहचान सकता है, मरीज नहीं इसलिए ‘ज’ को वह मर्ज है कि जो वे कहते हैं न कि वह जो ‘ज’ कहता है। इसलिए इस मामले में बहस की इतनी ही गुंजाइश थी कि बहस होती और ‘ज’ हार जाता।
वे ‘ज’ के चेहरे की चीर-फाड़ करके उसे सुन्दर बनाना शुरू ही करने वाले थे कि ‘ज’ ने कहा मेरे दर्द मेरे पेट में है।
वे बोले, ‘‘तुम्हारे पेट के दर्द के बारे में कितने लोगों को मालूम है या कितने लोग तुम्हें देखकर समझ सकते हैं कि तुम्हारे पेट में दर्द होगा’
‘ज’ ने कहा, ‘‘कोई नहीं। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि मेरे पेट में दर्द ही नहीं है।’’
उन लोगों ने कहा, ‘‘और तुम्हारे चेहरे को देखकर हर आदमी कह सकता है कि इसकी मरम्मत की जरूरत है।’’
उन्होेंने ‘ज’ के चेहरे की मरम्मत शुरू कर दी। उसके मोटे होंठों को पतला कर दिया गया। उसकी आंखों की नशीला बना दिया गया। इसके गाल सेब की तरह सुर्ख कर दिए गए। उसका रंग चमचमा दिया गया। इस बीच वह दोनों हाथों से अपना पेट पकड़े कराहता, चीखता और रोता रहा, लेकिन वे जानते थे बुखार की दवा कुनैन ही होती है और एक बार कड़वी चीज निगल जाने की आदत पड़ जाना हमेशा के लिए अच्छा होता है। उन लोगों ने ‘ज’ की घिनौनी और गंदी नाक की प्लास्टिक सर्जरी करने के लिए जब नाक काटी तो ऐसे निशान मिले जिनसे अंदाजा लगाया गया कि ‘ज’ की नाक भी वह नाक नहीं है जो थी। यानी नकली है। ‘ज’ संबंधी पुराने कागजों को उलटने-पलटने के बाद डाक्टरों ने ‘ज’ से कहा कि पिछले बीसियों सालों में तुम्हारी नाक इतनी बार काटी और जोड़ी और काटी और जोड़ी गयी है कि तुम्हारी असली नाक क्या अेर कैसी थी ये किसी को नहीं मालूम।
‘ज’ ने कराहते हुए कहा, ‘‘लेकिन मेरा पेट वहीं है और दर्द भी वही।’’
मंत्रालय
उसके दिल में धुकधुकी मची थी। वह एकटक बिजली के सामने लगे हण्डे को देख रहा था, क्योंकि उसे बताया गया था कि मंत्रीजी के आते ही हण्डा जल उठता है।
कुछ देर पहले वह बीड़ी जलाने बाह गैलरी में गया था। चपरासी से माचिस मांगी थी और जब यह पता चला कि वह भी बनारस का है तो चपरासी ने उसे बहुत कुछ बताया था। यह भी बताया था कि मंत्री पीछे वाले रास्ते से आकर अपने कमरे में बैठ जाते हैं। वे इस तरफ से नहीं आते जिधर से सब लोग आते हैं।
सामने लगा बिजली का हण्डा अचानक भक से जल उठा। बेहद तेज और तीखी रोशनी से वह कोशिश करते रहने के बावजूद अपनी आंखें खुली न रख सका।
एक सूटधारी व्यक्ति उसके पास आया और बोला-‘‘मुंशी लाल’
और वह सेकेंड के पचासवें हिस्से में खड़ा हो गया।
उसने अपने साथ आने का इशारा किया और एक दरवाजे में घुस गया। उसे इतना तो मालूम था कि अंदर घुसने से पहले ‘में आई कम इन सर’ पूछ लेना जरूरी है उसने चपरासी दोस्त उसे ढकेलते हुए बोला, ‘‘जाओ, जाओ यहां सब ऐसे ही जाते हैं।’’ वह भरभरा का अंदर घुस गया।
उसने, सामने एक महान् भव्य मूर्ति बड़ी सी मेज के पीछे बैठी थी। कालीन ने उसके पैर पकड़ लिए। उसने हाथ जोड़े। मूर्ति कुछ नहीं बोली। कुछ देर बाद दीवर से आवाज आयी, ‘‘मंत्रीजी से क्यों मिलना चाहते हो’
अब वह समझा, ये मंत्री जी नहीं उनके पिछलगुए वगैरा हैं।
उसने कहा, ‘‘जी नौकरी के बारे में सर।’’
‘‘मंत्रीजी क्या नौकरी दिलाने की मशीन है’
‘‘जी वो नौकरी तो है, मतलब थी सर, लेकिन सर, बिना कारण के निकाल दिया।’’
‘‘तो तुम मंत्रीजी से कारण मालूम करना चाहते हो,’’
वह सटपटा गया। ये तो बड़ा जबर आदमी है। पार पाना मुश्किल है।
उसने अपनी पूरी फाइल मूर्ति की ओर बढ़ा दी।
मूर्ति फाइल में इस तरह लीन हो गयी जैसे जीवन का प्रत्येक रहस्य उसमें लिखा हो। पर जल्दी ही मूर्ति ने फाइल बंद कर दी। घंटी बजाई। सूटधारी आया। मूर्ति बोली, ‘ओ. के।’
सूटधारी ने उसे अपने आने का इशारा किया। सूटधारी एक दरवाजे में घुसा । फिर शायद उसी से निकला। फिर शायद उसी में घुसा। फिर शायद उसी से निकला और उसने अगले दरवाजे में घुसने से पहले टाई ठीक की तो वह समझ गया कि मंत्रीजी का यही कमरा है। वे दोनों अंदर घुसे। वह प्रार्थना वाली मुद्रा में खड़ा हो गया। मंत्रीजी मुर्रा भैंस की तरह काले और विशालकाय थे। सूटधारी चला गया। अचानक एक महीन जनानी आवाज आयी, ‘‘तुम्हारा नाम ही मुंशीलाल है’
अरे बाप रे बाप, उसने सोचा, इतने मोटे आदमी की इतनी महीन आवाज।
वह अच्छा खासा कांप रहा था। उसे लगा, लालू में जुबान ही नहीं है। फिर वह पूरा जोर लगाकर बोला, ‘‘जी सर।’’
उसने आंखें उठायीं, मंत्री जी अपनी संपीली आंखों से उसे घूर रहे थे। फिर आवाज आयी ‘‘तुम ही पेशाबखानों पर लिखे मूत्रालय में से बड़े ‘ऊ’ की मात्रा मिटा कर ‘म’ पर बिंदी रख देते हो’ उसको लगा, दिल उछलकर उसके हलक में आ गया हो। वह कांपती आवाज में बोला, ‘‘जी नहीं सर।’’
‘‘तुम मुत्रालय कभी नहीं गए’
‘‘गया हूं सर।’’
‘‘तो तुमने ऐसा कभी नहीं किया’
‘‘जी नहीं सर।’’
‘‘लेकिन तुमने अपने प्रार्थनापत्र में माननीय मंत्रीजी महोदय के स्थान पर माननीय मूत्रीजी महोदय लिखा है।’’
‘‘ये कैसे हो सकता है सर।’’ उसके दिमाग चक्कर खाने लगा।
‘‘नहीं, तुमने लिखा है।’’
‘‘मुझे मंत्रालय और मूत्रालय से क्या मतलब सर।’’ मैं तो अपनी नौकरी के लिए आया था।’’
उसके बाद घंटी बजी और वह पुलिस की हिरासत में बाहर निकाला गया।
उसके ऊपर पता नहीं कितने दफा लगे थे। उसकी हथकड़ियों की रस्सी पकड़े गैलरी में इंस्पेक्टर झूमता चला जा रहा था। पिछले कुछ मिनटों की मानसिक कबड्डी के कारण उसे वास्तव में पेशाब लग आया था। पर उसे मालूम था कि गिरफ्तार होने के बाद हर काम पुलिस से पूछकर करना चाहिए। उसने इंस्पेक्टर से पूछना चाहा, ‘मृत्...’
वाक्य पूरा भी नहीं होने पाया था कि इंस्पेक्टर गिद्ध की तरह उस पर झपट पड़ा, ‘‘साला चिढ़ाता है।’’ एक भारी भरकर झापड़ उसके गाल पर पड़ा और वह गैलरी में गिर पड़ा। उसकी आंखों के सामने कई सूरज नाच गए। और धीरे-धीरे उसका पाजामा, फिर कुर्ता और फिर गैलरी में बिछा कालीन भीगना शुरू हुआ।
तिल
एक समय ऐसा आया कि तिल में से तेल निकालना बन्द हो गया। तेली बड़ा परेशान हुआ । उसने सोचा अगर ऐसा ही होता रहा तो उसका कारोबार चल चुका। वह किसान के पास गया। उसने कहा, ‘‘कुछ करो, तिल में से तेल नहीं निकलता।’’
किसान बोला, ‘‘कहां से तेल निकलेगा। हद होती है। सैकड़ों सालों से तेल निकाल रहे हो।’’
तेली ने कहा, ‘‘यह तो अपना धंधा है।’’
किसान ने कहा, ‘‘तिल होशियार हो गये हैं।’’
तेली बोला, ‘‘होशियार नहीं, तुम न तो खेत में खाद डालते हो, न ठीक से पानी लगाते हो। मैं चाहे जितना जोर क्यों न लगाऊं, तेल ही नहीं निकलता।’’
किसान ने कहा, ‘‘न हल है, न बैल, न खाद है, न पानी। तिल पैदा हो जाते हैं, यही बहुत है।’’
यह सुनकर तेली निराश नहीं हुआ। वह घर आया। तिल का बोरा खोला और उसे धूप में डाल दिया। फिर उन्हें कढ़ाव में डालकर खूब गरम करने लगा। उसने तिलों से कहा मैं तुम्हें जलाकर कोयला कर दूंगा।’’ लेकिन फिर तुरंत उसने तिलों को आग पर से उतार लिया और उन पर ठंडे पानी के छींटे मारे। फिर कोल्हू में डालकर पेरना शुरू किया और फिर तेल निकलने लगा।
वीरता
जैसा कि अक्सर होता है। यानि राजा जालिम था। वह जनता पर बड़ा अन्याय करता था और जनता अन्याय सहती थी, क्योंकि जनता को न्याय के बारे में कुछ नहीं मालूम था।
राजा को ऐसे ही सिपाही रखने का शौक था जो बेहद वफ़ादार हों। बेहद वफ़ादार सिपाही रखने का शौक उन्हीं को होता है जो बुनियादी तौर पर जालिम और कमीने होते हैं। राजा को हमेंशा ये डर लगा रहता था कि उसके सिपाही उसके वफ़ादार नहीं हैं और वह अपने सिपाहियों की वफ़ादारी का लगातार इम्तिहान लिया करता था। एक दिन उसने अपने एक सिपाही से कहा कि अपना एक हाथ काट डालो। सिपाही ने हाथ काट डाला। राजा बड़ा खुश हुआ और उसे वीरता का बहुत बड़ा इनाम दिया।
फिर एक दिन उसने एक दूसरे सिपाही से कहा कि अपनी टांग काट डालो। सिपाही ने ऐसा ही किया और वीरता दिखाने का इनाम पाया। इसी तरह राजा अपने सिपाहियों के अंग कटवा-कटवाकर उन्हें वीरता का इनाम देता रहा।
एक दिन राजा ने देश के सबसे वीर सैनिक से कहा कि तुम वास्तव में कोई ऐसा बहादुरी का काम करो जिसे और कोई न कर सकता हो। वीर सैनिक ने तलवार निकाली, आगे बढ़ा और राजा का सिर उड़ा दिया।
पहचान
राजा ने हुक्म दिया कि उसके राज में सब लोग अपनी आंखें बन्द रखेंगे ताकि उन्हें शान्ति मिलती रहे। लोगों ने ऐसा हीे किया, क्योंकि राजा की आज्ञा मानना जनता के लिए अनिवार्य है। जनता आंखें बंद किये-किये सारा काम करती थी और आश्चर्य की बात यह कि काम पहले की तुलना में बहुत अधिक और अच्छा हो रहा था। फिर हुक्म निकला कि लोग अपने-अपने कानों में पिघला हुआ सीसा डलवा लें। क्योंकि सुनना जीवित रहने के लिए बिलकुल जरूरी नहीं है। लोगों ने ऐसा ही किया और उत्पादन आश्चर्य जनक तरीके से बढ़ गया।
फिर हुक्म ये निकला कि लोग अपने-अपने होंठ सिलवा लें, क्योंकि बोलना उत्पादन में सदा से बाधक रहा है। लोगों ने काफी सस्ती दरों पर होंठ सिलवा लिए और फिर उन्हें पता कि अब वे खा भी नहीं सकते हैं। लेकिन खाना भी काम करने के लिए आवश्यक नहीं माना गया। फिर उन्हें कई तरह की चीजें कटवाने और जुड़वाने के हुक्म मिलते रहे और वे वैसा ही करवाते रहे। राज रात दिन प्रगति करता रहा।
फिर एक दिन खैराती, रामू और छिद्दू ने सोचा कि लाओं आंखें खोलकर तो देखें। अब तक अपना राज स्वर्ग हो गया होगा। उन तीनों ने आंखें खोली तो उन सबको अपने सामने राजा दिखाई दिया। वे एक दूसरे को न देख सके।
चार हाथ
एक मिल मालिक के दिमाग में अजीब-अजीब ख्याल आया करते थे जैसे सारा संसार मिल हो जाएगा, सारे लोग मजदूर और वह उनका मालिक या मिल में और चीजों की तरह आदमी भी बनने लगेंगे, तब मजदूरी भी नहीं देनी पड़ेगी, बगैरा-बगैरा। एक दिन उसके दिमाग में ख्याल आया कि अगर मजदूरों के चार हाथ हों तो काम कितनी तेजी से हो और मुनाफा कितना ज्यादा। लेकिन यह काम करेगा कौन उसने सोचा, वैज्ञानिक करेंगे ये हैं किस मर्ज की दवा उसने यह काम करने के लिए बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख्वाहों पर नौकर रखा और वे नौकर हो गए। कई साल तक शोध और प्रयोग करने के बाद वैज्ञानिकों ने कहा कि ऐसा असम्भव है कि आदमी के चार हाथ हो जाएं। मिल मालिक वैज्ञानिकों से नाराज हो गया। उसने उन्हें नौकरी से निकाल दिया और अपने-आप इस काम को पूरा करने के लिए जुट गया।
उसने कटे हुए हाथ मंगवाये और अपने मजदूरों के फिट करवाने चाहे, पर ऐसा नहीं हो सका। फिर उसने मजदूरों की लकड़ी के हाथ लगवाने चाहे, पर उनसे काम नहीं हो सका। फिर उसने लोहह के हाथ फिट करवा दिए, पर मजदूर मर गए।
आखिर एक दिन बात उसकी समझ में आ गई। उसने मजदूरी आधी कर दी और दुगुने मजदूर नौकर रख लिए।
कातिक
बड़े साहब के दफ्तर के सामने मुलाकातियों की अच्छी खासी भीड़ लगी हुई थी। चूंकि साहब बहुत बड़े थे इसलिए मुलाकाती भी काफी बड़े थे। वे चार-चार करके अंदर जा रहे थे और फिर किसी दूसरे दरवाजे से बाहर निकल रहे थे क्योंकि अन्दर गया आदमी इधर नहीं आता था। मुलाकातियों में एक अधेड़ उम्र की फेशनपरस्त औरत भी थी जो बार-बार अपनी साड़ी को खिसका-खिसका कर घड़ी देख रही थी। अचानक चार आदमियों की टोली अंदर ले जायी गयी और उन्हें एक कमरे में बैठा दिया गया। एक फैशनी आदमी कुत्ते का पट्टा पकड़े फैशनी लोगों के बीच आया और बोला, ‘‘ साहब उन्हीं लोगों से मिलेंगे जिन्हें सूंघ कर यह कुत्ता दुम हिलायेगा। जिन पर ये कुत्ता भौंक देगा उन लोगों को साहब से नहीं मिलने दिया जायेगा।’’
इस बात पर चारों लोग खुश हो गये। और बोले,‘‘हम लोग कुत्ते पाले हुए हैं। हमारे कुत्तें हमें सूंघते रहते हैं। हमारे जिस्मों से ऐसी खुशबू आती है जिसे कुत्ते पसंद करते हैं।’’
फैशनी आदमी ने कुत्ते का पट्टा खोल दिया। कुत्ता इन तीनों भद्र पुरुषों और एक भद्र महिला की तरफ झपटा। कुत्ते को अपनी तरफ आता देखकर ये चारों अपने चारों हाथों पर खड़े हो गये। कुत्ते ने चारों को देखा। तीनों पुरुषों को सूंघकर भौंकने लगा और महिला को सूंघकर दुम हिलाने लगा।
महिला चारों हाथों पैरों से चलती हुई आगे-आगे और कुत्ता उसे सूंघता हुआ पीछे-पीछे साहब के कमरे के अंदर चले गये।
वे तीनों भद्र पुरुष चारों हाथों पैरों पर टिके-टिके चीखने लगे, ‘‘हमारे साथ धोखा हुआ। हमें नहीं बताया गया था कि ये कौन सा महीना है।’’
ऊपर का आसमान
जोरावर सिंह ने पड़ोस के देश को शांतिदूत अर्थात् कबूतर भेजने का निश्चय किया। क्योंकि कम खर्च और नये तरीके से शांति संदेश भेजने का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता इसलिए जोरावर सिंह अगले दिन बाजार गये। शांति दूत बन सकने लायक कबूतरों का अकेला जोड़ा बिक गया था और एक आदमी उसे घर की तरफ दिए जा रहा था। जोरावर सिंह ने उस आदमी से कहा, ‘‘तुम ये कबूतर मुझे दे दो।’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘क्यों मैं इन्हें पकाने ले जा रहा हूं।’’
जोरावर सिंह के मुंह में पानी भर आया। पर वे बोले, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती शांतिदूत से अपना पेट भरोगे। लाओ तुम मेरे हाथ ये कबूतर उतने ही पैसे पर बेच दो जितने में खरीदे हों।’’
आदमी ने कहा, ‘‘खरीदे कहां हैं कबूतर वाले ने ऐसे ही दे दिए। उसने कहा, अब इन सालों का क्या करना है। ले जाओ, पकाकर खा लेना।’’
जोरावर सिंह कबूतर ले आये और अनजाने में उनकी वैसा ही सेवा करने लगे जैसी कुर्बानी के बकरे की होती है।
एक दिन ऐसा आया जब पड़ोस के देश को शांतिदूत भेज देना उन्हें बहुत जरूरी लगा और उन्होंने कबूतरों की चोंच में जैतून की टहनी पकड़ाने की कोशिश की लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि कबूतरों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। जोरावर सिंह क्रियेटिव किस्म के आदमी थे। एक-एक करके घर की सब चीजें कबूतरों की चोंच में ठूंसने का प्रयास करते रहे। आखिर तंग आकर वे कबूतरों के सामने थ्री नाट थी्र ले गये और कबूतरों ने झपट कर उसे पकड़ लिया। थ्री नाट थ्री खाली थी। और खाली चीज देना अपशगुन माना जाता है इसलिए जोरावर सिंह ने उसमें कारतूस भर दिये। थ्री नाट थ्री लेकर कबूतर खुशी-खुशी उड़े। कबूतरों ने ऊपर पहुंचते-पहुंचते फायरिंग शुरू कर दी। चिनगारियों और धुएं से ऊपर का आसमान लाल और काला हो गया।
साझा
हालांकि उसे खेती की हर बारीकी के बारे में मालूम था, लेकिन फिर भी डरा दिये जाने के कारण वह अकेला खेती करने का साहस न जुटा पाता था।
इससे पहले वह शेर, चीते और मगरमच्छ के साथ साझे की खेती कर चुका था, जब उससे हाथी ने कहा कि अब वह उसके साथ साझे की खेती करे। किसान ने उसको बताया कि साझे में उसका कभी गुजारा नहीं होता और अकेले वह खेती कर नहीं सकता। इसलिए वह खेती करेगा ही नहीं। हाथी ने उसे बहुत देर तक पट्टी पढ़ाई और यह भी कहा कि उसके हाथ साझे की खेती करने से यह लाभ होगा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर खेतों को नुकसान नहीं पहुंचा सकेंगे और खेती की अच्छी रखवाली हो जाएगी।
किसान किसी न किसी तरह तैयार हो गया और उसने हाथी से मिलकर गन्ना बोया।
हाथी पूरे जंगल में घूमकर डुग्गी पीट आया कि गन्ने में इसका साझा है। इसलिए कोई जानवर खेत को नुकशान न पहुंचाये नहीं तो अच्छा न होगा।
किसान फसल की सेवा करता रहा और समय पर जब गन्ने तैयार हो गये तो वह हाथी को खेत पर बुला लाया। किसान चाहता था कि फसल आधी-आधी बांट ली जाये। जब उसने हाथी से यह बात कही तो हाथी काफी बिगड़ा।
हाथी ने कहा, ‘‘अपने और पराये की बात मत करो। यह छोटी बात है। हम दोनों ने मिलकर मेहनत की थी हम दोनों उसके स्वामी हैं। आओ, हम मिलकर गन्ने खायें।’’
किसान के कुछ कहने से पहले ही हाथी ने बढ़कर अपनी सूंड़ से एक गन्ना तोड़ लिया और आदमी से कहा, ‘‘आओ खायें।’’
गन्ने का एक छोर हाथी की सूड़ में था और दूसरा आदमी में मुंह में। गन्ने के साथ-साथ आदमी हाथी के मुंह की तरफ खिंचने लगा तो उसने गन्ना छोड़ दिया।
हाथी ने कहा, ‘‘देखों, हमने एक गन्ना खा लिया।’’
इसी तरह हाथी और आदमी के बीच साझे की खेती बंट गयी।
ज-3
‘ज’ के पेट में बेहताशा गालियां भरी हुई थीं। लेकिन वे ज़बान पर नहीं आती थीं। ‘ज’ रात-दिन किसी ऐसे आदमी को तलाश में घूमता था जो उसकी ज़बान खोल सके। लेकिन कोई उसकी ज़बान न खोल सका कि वह गालियां बक सके। सब लोगों ने उससे कहा यही कहा कि धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान सिखा पढ़ा सकते हैं।, गालियां नहीं।
‘ज’ ने सबको एक ही जवाब दिया, ‘‘मैं तो सिर्फ गालियां बकना चाहता हूं।’’
‘ज’ के पेट में गालियों का अम्बार बढ़ता गया। वह बेचैन होकर रात-दिन घूमने लगा। आखिर एक दिन किसी ने उससे कहा कि जबान के डाक्टर के पास जाओ। वह तुम्हारी समस्या सुलझा सकता है।
ज़बान का डाक्टर उन दिनों अपने-आपको ‘घोड़ा डॉक्टर’ कहा करता था और गधों का इलाज करता था। ‘ज’ उसके पास पहुंचा। डॉक्टर ने ‘ज’को देखा और बताया कि वह गालियां कभी नहीं बक सकता।
‘ज’ ने बहुत परेशान होकर पूछा, ‘‘क्यों’
डॉक्टर ने जवाब दिया, ‘‘इसलिए कि तुम्हारे हाथ बंधे हुए हैं।’’
‘ज’ ने वास्तव में महसूस किया कि उसके दोनों हाथ नमस्ते करने वाली मुद्रा में जकड़े हुए हैं। ‘ज’ ने झटका देकर हाथ छुड़ा लिए तो उसके मुंह से गालियां फूलों की तरह झड़ने लगीं।
असग़र वजाहत की लघु कथाएँ पढ़ते हुए सआदत हसन मंटो के 'स्याह हाशिये' की बेसाख़्ता याद हो आई.सलाम.'ज' माने जनता.
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