( बाल कहानी) आधी-अधूरी कहानी -राम नरेश उज्ज्वल पानी बरस रहा था। मैं उसे बहुत ध्यान से देख रहा था। पानी की रिमझिम बूँदें बहुत अच्छी ल...
(बाल कहानी)
आधी-अधूरी कहानी
-राम नरेश उज्ज्वल
पानी बरस रहा था। मैं उसे बहुत ध्यान से देख रहा था। पानी की रिमझिम बूँदें बहुत अच्छी लग रही थीं। मैं वहीं खड़ा था। हलकी-हलकी बौछारें मेरी तरफ भी आ रही थीं। पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदें आँगन में गिरतीं, तो बताशे बन जाते। मन उन्हें पकड़ने के लिए ललचाया। मैंने बरामदे से ही अपनी हथेली बाहर की ओर निकाली। ठंडी-ठंडी बूँदें बड़ी मजेदार लग रही थीं। मैंने सोचा-‘क्यों न एक कविता या फिर एक कहानी बरसात पर लिखी जाये।'
मैंने मेज और कुर्सी कमरे से उठाकर बरामदे में रखी और कागज कलम लेने दौड़ पड़ा। जल्दी ही सारी तैयारी पूरी हो गयी। मैं अपने गाल पर हाथ रखकर सोचने लगा। पहले मैंने कविता लिखना शुरू किया। एक लाइन...दो लाइन........तीन लाइन....और फिर दिमाग खाली। चौथी लाइन के लिए बहुत माथा-पच्ची की। कभी अगर बनती भी तो बकवास लगती। मैंने ‘पैड' से पन्ना फाड़ कर उसके कम से कम दस-बारह टुकड़े किये और आँगन में फेंक दिए। टुकड़े पानी में तैरने लगे।
‘‘भैया चलो खाना खाओ। मैं खाऊँगी।'' मुनिया आकर बोली।
‘‘तू खा ले। मैं बाद में खाऊँग।''मैंने कहा, फिर सोचने लगा।
कुछ देर बाद वह मुझे हिलाते हुए बोली-‘‘ चलो ना भैया।''
उसके हिलाने से पेन इधर-उधर चल गया। कुछ अक्षर भी कट गये। मैंने हाथ उठा कर खीझते हुए कहा-‘‘ भाग यहाँ से नहीं तो.........।'' वह तनमन-तनमन दौड़ कर भाग गयी।
कुछ देर सोचने के बाद ‘‘हाँ, अब मैं कहानी लिखूँगा। कविता में तो बड़े झंझट हैं।'' और फिर मैं कुर्सी पर सिर टिका कर ऊपर की ओर देखता हुआ सोचने लगा। दिमाग में कुछ कुलबुलाया। मैंने लिखना शुरू किया-‘‘ एक था वीरू उसके पास बहुत-सी बकरियाँ थीं। वह रोज उन्हें चराने के लिए जंगल जाता। जंगल में वह पेड़ों पर खेलता। वहाँ कुछ फलों के पेड़ भी थे, जिनमें से वह फल तोड़ कर खाता। चिलवल (चिलविल) के पेड़ से जब उसके फल हवा में झरते तो वह उसे उठा कर छीलता और उसके बीज खा लेता।''
‘‘भैया....... मम्मी बुला रही हैं।'' मुनिया दूर से चीखते हुए आकर मेज से सट गयी।
मैंने पूछा-‘‘क्या काम है ?''
‘‘खाना खाने के लिए।'' वह बोली।
‘‘खाना,खाना ,खाना, मैं तो परेशान हो गया। चल भाग यहाँ से मुझे नहीं खाना।'' फिर वही उलझन। हाँ, ‘‘जंगल में वीरू इसी प्रकार उछलता-कूदता रोज बकरियाँ चराने आता और चला जाता। एक दिन की बात है। शाम होने वाली थी। वह बकरियों को इकट्ठा कर रहा था। तभी अचानक जोरदार काली आँधी आ गयी। चारों तरफ अँधेरा छा गया। बादल गरजने लगे। वह डर के मारे थर थर काँपने लगा। पेड़ हरहराने लगे। उसे लगा वह उड़ जायेगा। उसने एक पेड़ को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसी से चिपका रहा। तभी अर्र......।''
‘‘तझे खाना नहीं खाना।'' मम्मी ने कहा और पेन छीन क रमेज पर पटक दिया। मैं एकदम से चौंक गया था। ‘‘चल उठ। खाना खा पहले। फिर लिखना।''
‘‘रूको मम्मी......।'' मैंने कहा।
‘‘रूको-उको कुछ नहीं।'' मम्मी ने मेरी बात काटी और हाथ पकड़ कर मुझे अपने साथ ले गइंर्। मुनिया यह सब देख कर खीं-खीं कर खिलखिलाने लगी।
खाना खाने के बाद मैंने लिखना शुरू किया-‘‘वीरू चौंक गया। बगल वाले पेड़ की एक डाल टूट कर नीचे गिर गयी थी। वीरू बाल-बाल बच गया। वह डर कर वहाँ से हट गया था।''
‘‘भैया कहानी सुनाओ।'' मुनिया बोली।
‘‘तू फिर आ गयी'' मैंने घूरते हुए कहा और जैसे ही फिर लिखने को हुआ।
‘‘अच्छा टाफी दिला दो भैया।'' वह बोली।
‘‘टाफी की बच्ची'' कहते हुए मैंने उसकी पीठ पर ‘थप्प' से मारा। उस पर कुछ असर ही नहीं हुआ। वह खिलखिलाती , दाँत दिखाती हुई चली गयी। मैंने फिर लिखने की कोशिश की-‘‘आँधी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। काफी अँधेरा हो गया था। उधर वीरू के माँ-बाप भी परेशान हो रहे थे।घर में और कोई था भी नहीं, जिसे वीरू की खोज-खबर के लिए भेजा जा सके। माँ तो बलर-बलर आँसू बहाये ही जा रही थी। एक तरफ भगवान बरस रहे थे, एक तरफ माँ की आँखें। बाप ने समझाया कि पानी थमने दो। मैं अभी जाकर पता करता हूँ। लेकिन वह नहीं मानी। अन्त में बाप बरसते हुए पानी में निकल पड़ा।''
‘‘भैया....।'' मुनिया बिल्कुल मेरे पास आकर जोर से चीखी। मैं चौंक गया। मुनिया चाय का कप लिये थी, मेरा हाथ उससे टकराया। आधी चाय मेरे ऊपर और आधी फर्श पर गिर गयी। मैं जल भी गया था। गुस्सा कर मुनिया को एक चाँटा रसीद किया और समझाया-‘‘खबरदार जो आइंदा से फिर मुझे तंग किया। उठाकर पटक दूँगा। कोई बचाने नहीं आयेगा।' फिर जोर से कहा-‘‘समझी...।''
वह चुपचाप गाल पर हाथ रखकर सहला रही थी। तभी मम्मी को आती देख, वह रोने लगी। मैंने जल्दी से उसके मुंह पर हाथ रखते हुए उसे गोद उठाकर कहा-‘‘ चुप हो जा मुनिया, तू बड़ी अच्छी है। मै तुझे टाफी दूँगा।
कहानी, कविताएँ भी सुनाऊँगा। चुप हो जा।''
मुनिया बोली-‘‘ फिर कभी मारोगे और डाँटोगे तो नही ।''
मम्मी पास आ गयी थीं। मैंने मजबूरी में धीमे से कहा-‘‘ नही।''
मम्मी बोलीं-‘‘ क्या हुआ मुनिया ?'' फिर मेरी ओर देखते हुए ‘‘चाय कैसे ढरकी?''
मैंने मुनिया को दुलराते हुए जल्दी से कहा-‘‘कुछ नहीं मम्मी, कुछ नहीं हुआ मुनिया को। ऐ...मुझसे ही कप फिसल गया था।''
‘‘तू बोल मुनिया।'' मम्मी ने जोर से कहा।
मुनिया बोली-‘‘वह........मैं......मैं.....मैं ..ना... कुछ नहीं ...मैं भैया के साथ खेल रही हूँ।''
मम्मी गईं, तो मेरे प्राणों में प्राण आये। मुनिया को मैंने जाकर टाफी, बिस्किट दिलवाया। फिर कहानी पूरी करने में जुट गया-‘‘इधर वीरू भी बहुत परेशान था। जंगल से तरह- तरह की डरावनी आवाजें आ रही थीं। वह धीरे-धीरे....।''
‘‘उज्ज्वल, अरे ओ उज्ज्वल।'' मम्मी ने आवाज लगाई।
सिर पर हाथ रख कर ‘‘ओफ्फो....।''
‘‘यहाँ आना जरा।'' मम्मी बोलीं।
मैं कहानी छोड़ कर मम्मी के पास गया। पानी बंद हो चुका था। मुनिया आँगन में ‘छप-छिप-छप' कर रही थी। जब मैं मम्मी के पास था, तो मुझे मुनिया की आवाज सुनाई पड़ रही थी। वह कह रही थी-‘‘एक....'' फिर कुछ देर बाद ‘‘दो......।''
मैं मम्मी के पास से लौटा, तो मेज पर मेरी कहानी नहीं थी। मैंने इधर-उधर ढूँढा। मेज के नीचे भी देखा। मुनिया भी नहीं थी। मुझे कुछ शंका हुई। मुनिया की आवाज फिर सुनाई पड़ी-‘‘ती....न..।'' मैंने एक बार फिर इधर-उधर नजर दौड़ाई। पानी दो दिन से लगातार बरस रहा था। इसलिए चबूतरे के बराबर पानी भर गया था। मुनिया चबूतरे पर बैठी थी। जब मैं उसके पास पहुँचा वह फिर बोली-‘‘चा....र....।''
हवा धीरे-धीरे बह रही थी। मुनिया नाव तैराने में मस्त थी। तीन नावें तो जा चुकी थीं, किन्तु चौथी नाव धीरे-धीरे हिलती-डुलती हुई जा रही थी। मैंने गौर किया, तो पाया, उस पर लिखा ‘वीरू' शब्द साफ-साफ झलक रहा था। अब तक यह नाव भी दूर निकल गयी थी। मुनिया पाँचवी नाव की तैयारी में जुटी थी। मेरी कहानी का तो सत्यानाश हो ही चुका था। मैं काफी देर तक उसे देखता रहा। फिर पाँचवी नाव तैराने के बाद मैंने उसे गोद उठा कर कहा-‘‘वीरू नहीं मुनिया।'' फिर उसे दुलराते हुए मैं उन नावों कोे देखने लगा, जो पूरी मस्ती के साथ इधर-उधर तैर रही थीं।
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राम नरेश ‘उज्ज्वल'
मुंशी खेड़ा,
पो0-अमौसी एयरपोर्ट,
लखनऊ-226009.
pyari si muniya ki tarah bahut pyari kahaani hai
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