बलिदान ------------ सुशान्त सुप्रिय मेरे परदादा बड़े ज़मींदार थे। वे कई गाँवों के स्वामी थे। उन्होंने कई मंदिर बनवाए थे। कई कुएँ और तालाब खु...
बलिदान
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सुशान्त सुप्रिय
मेरे परदादा बड़े ज़मींदार थे। वे कई गाँवों के स्वामी थे। उन्होंने कई मंदिर बनवाए थे।
कई कुएँ और तालाब खुदवाए थे। कई-कई कोस तक उनका राज चलता था। वे अपनी वीरता के लिए भी विख्यात थे। एक बार ' लाट साहब ' के साथ जब वे घने जंगल में शिकार पर गए थे तब एक खूँखार नरभक्षी बाघ ने पीछे से ' लाट साहब ' पर अचानक हमला कर दिया था। तब परदादा जी ने अकेले ही बाघ से मल्ल-युद्ध किया। हालाँकि इस दौरान वे घायल भी हो गए पर इसकी परवाह न करते हुए उन्होंने बाघ के मुँह में अपने हाथ डाल कर उसका जबड़ा फाड़ दिया था और उस बाघ को मार डाला था। परदादाजी की वीरता से अंग्रेज़ बहादुर बहुत ख़ुश हुआ था। अपनी जान बचाने के एवज़ में ' लाट साहब ' ने उन्हें ' रायबहादुर ' की उपाधि भी दी थी।
हालाँकि आज जो सच्ची घटना मैं आपको बताने जा रहा हूँ उसका सीधे तौर पर इस सबसे कुछ लेना-देना नहीं है। हमारे गाँव चैनपुर के बगल में एक और गाँव था--- धरहरवा। वहाँ साल में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता था। हमारे गाँव और आस-पास के सभी गाँवों के लोग उस मेले की प्रतीक्षा साल भर करते थे। मेले वाले दिन सब लोग नहा-धो कर तैयार हो जाते और जल-पान करके मेला देखने निकल पड़ते। हमारे गाँव में से जो कोई मेला देखने नहीं जा पाता उसे बहुत बदक़िस्मत माना जाता। हमारे गाँव चैनपुर और धरहरवा गाँव के बीच भैरवी नदी बहती थी। साल भर तो वह रिबन जैसी एक पतली धारा भर होती थी। पर बारिश के मौसम में कभी-कभी यह नदी प्रचण्ड रूप धारण कर लेती थी। तब कई छोटी-छोटी सहायक नदियों और नालों का पानी भी इसमें आ मिलता था। बाढ़ के ऐसे मौसम में भैरवी नदी सब कुछ निगल जाने को आतुर रहती थी। यह कहानी भैरवी नदी में आई ऐसी ही भयावह बाढ़ से जुड़ी है।
यह बात तब की है जब मेरी परदादी के पेट में मेरे दादाजी थे। उस बार जब धरहरवा गाँव में मेला लगने वाला था तो मेरी परदादी ने परदादाजी से कहा कि इस बार वह भी मेला देखने जाएँगी। यह सुन कर परदादा जी मुश्किल में फँस गए।
वैसे तो कई-कई कोस तक किसी भी बात के लिए उनका हुक्म अंतिम शब्द माना जाता था पर वे मेरी परदादी से बहुत प्यार करते थे। उन्होंने परदादी जी को मनाना चाहा कि ऐसी अवस्था में उनका मेला देखने जाना उचित नहीं होगा। पर परदादी थीं कि टस-से-मस नहीं हुईं। परदादाजी प्रकाण्ड विद्वान् भी थे। उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। किन्तु उनकी सारी विद्वत्ता परदादी जी के आगे धरी-की-धरी रह गई। वे किसी भी भाषा में परदादी जी को नहीं मना पाए। परदादी जी की देखा-देखी या शायद उनकी शह पर घर-परिवार की सारी औरतों ने मेला देखने जाने की ज़िद ठान ली।
हार कर परदादाजी और घर के अन्य पुरुषों को घर की औरतों की बात माननी पड़ी।
पुराना ज़माना था। ज़मींदार साहब की घर की औरतों के लिए पालकी वाले बुलाए गए। भैरवी नदी के इस किनारे पर एक बड़ी-सी नाव का बंदोबस्त किया गया। लेकिन उस सुबह नदी में अचानक कहीं से बह कर बहुत ज़्यादा पानी आ गया था। नदी चौड़ी, गहरी और तेज़ हो गई थी। बाढ़ जैसी स्थिति की वजह से उसने ख़तरनाक रूप ले लिया था। पर मेला भी साल में एक ही बार लगता था। अंत में घर के सब लोग , कुछ नौकर-नौकरानियाँ , पालकियाँ और पालकी वाले भी उस डगमगाती नाव पर सवार हुए। राम-राम करते हुए किसी तरह नदी पार की गई। इस तरह नदी के उस पार उतर कर सब लोग धरहरवा गाँव में मेला देखने पहुँचे।
मेला पूरे शराब पर था। चारो ओर धूम मची हुई थी। तरह-तरह के खेल-तमाशे थे। नट और नटनियों के ऐसे करतब थे कि आदमी दाँतों तले उँगली दबा ले।
एक ओर गाय , भैंसें , और बैल बिक ़रहे थे। दूसरी ओर हाथी और घोड़े बेचे और खरीदे
जा रहे थे। दूसरे इलाक़ों के ज़मींदार लोग भी मेले में पहुँचे हुए थे। कहीं ढाके का मलमल बिक रहा था तो कहीं कन्नौज का इत्र बेचा जा रहा था। कहीं बरेली का सुरमा बिक रहा था तो कहीं फ़िरोज़ाबाद की चूड़ियाँ बिक रही थीं। ख़ूब रौनक़ लगी हुई थी।
सूरज जब पश्चिमी क्षितिज की ओर खिसकने लगा तो मेला भी उठने लगा।
दुकानदार अँधेरा होने से पहले सामान समेट कर वापस लौट जाना चाहते थे। परदादाजी ने ख़ास अरबी घोड़ा ख़रीदा। घर-परिवार की औरतों ने भी अपने-अपने मन का बहुत कुछ ख़रीदा। परदादाजी तीन भाई थे। वे सबसे बड़े थे। उनके बाद मँझले परदादाजी थे। फिर छोटे परदादाजी थे। शाम ढलने लगी थी। सब लोग उस बड़ी-सी नाव पर सवार हो गए। नदी का पानी पूरे उफान पर था। हालात और ख़राब हो गए थे।
दूर-दूर तक नदी का दूसरा किनारा नज़र नहीं आ रहा था। मल्लाहों ने परदादाजी से विनती की कि इस बाढ़ में नाव से नदी पार करना बड़े जोख़िम का काम था। पर परदादाजी के हुक्म के आगे उनकी क्या बिसात थी। सब लोग उस डगमगाती नाव में सवार हो गए। परदादाजी ने अपने अरबी घोड़े को भी नाव पर चढ़ा दिया। घर-परिवार की सभी औरतें, नौकर-चाकर , पालकियाँ और पालकी वाले--सब नाव पर आ गए।
नदी किसी राक्षसी की तरह मुँह बाएँ हुए थी। उफनती नदी में वह नाव किसी खिलौने-सी डगमगाती जा रही थी। नदी के बीच में पहुँच कर नाव एक ओर झुक कर डूबने लगी। औरतों ने रोना-चीख़ना शुरू कर दिया। मल्लाहों ने चिल्ला कर परदादाजी से कहा कि नाव पर बहुत ज़्यादा भार था। उन्होंने कहा कि नाव को हल्का करने के लिए कुछ सामान नदी में फेंकना पड़ेगा।
परदादाजी ने सामान से भरे कुछ बोरे नदी में फिंकवा दिए। नाव कुछ देर के लिए सम्भली पर बाढ़ के पानी के प्रचण्ड वेग से एक बार फिर संतुलन खो कर एक ओर झुकने लगी। फिर से चीख़-पुकार मच गई। अब और सामान नदी में फेंक दिया गया। पर नाव थी कि सम्भलने का नाम ही नहीं ले रही थी और एक ओर झुकती जा रही थी। मल्लाह लगातार भार हल्का करने के लिए चिल्ला रहे थे।
आख़िर परदादाजी ने दिल पर पत्थर रख कर अपने अरबी घोड़े को उफनती धाराओं के हवाले कर दिया। उन्हें देख कर लगा जैसे वे अपने जिगर का टुकड़ा क्रुद्ध भैरवी मैया के हवाले कर रहे हों। नाव ने फिर कुछ दूरी तय की। लेकिन कुछ ही देर बाद वह दोबारा भयानक हिचकोले खाने लगी। नाव को चारों ओर से इतने झटके लग रहे थे कि नाव में बैठी परदादीजी की तबीयत ख़राब होने लगी थी। जब नाव ज़्यादा झुकने लगी तो मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे। परदादाजी के मना करने के बावजूद अबकी बार कुछ नौकर-चाकर और पालकी वाले जिन्हें तैरना आता था, नदी में कूद गए। नाव उफनती धारा में तिनके-सी बहती चली जा रही थी। मल्लाह नियंत्रण खोते जा रहे थे।
अंत में नाव में केवल चार मल्लाह, घर-परिवार के सदस्य और कुछ नौकरानियाँ ही बचे रह गए। लग रहा था जैसे उस दिन सभी उसी नदी में जल-समाधि लेने वाले थे। सब की नसों में प्रलय का शोर था। शिराओं में भँवर बन रहे थे। साँसें चक्रवात में बदल गई थीं। परदादाजी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। उनकी बुद्धि के सूर्य को जैसे ग्रहण लग गया था। मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे थे।
परदादाजी , मँझले परदादाजी और छोटे परदादाजी -- तीनों अच्छे तैराक थे। लेकिन बाढ़ से उफनती सब कुछ लील लेने वाली प्रलयंकारी नदी में तैरना किसी शांत तालाब में तैरने से बिलकुल उलट था। एक बार फिर फ़ैसले की घड़ी आ पहुँची। किसी ने सलाह दी कि नौकरानियाें को नदी में धकेल दिया जाए। लेकिन तीनों परदादाओं ने यह सलाह देने वाले को ही डाँट दिया। बल्कि पहले छोटे परदादा , फिर मँझले परदादा परदादाजी से गले लगे और उनके लाख रोकने के बावजूद दोनों उस बाढ़ से हहराती , उफनती नदी में कूद गए। घर की औरतें रोने-बिलखने लगीं। लेकिन नाव थोड़ी सीधी हो गई।
अब दूसरा किनारा दिखने लगा था। लगा जैसे नाव किसी तरह उस पार पहुँच जाएगी। तभी बाढ़ के पानी का समूचा वेग लिए कुछ तेज लहरें आईं और नाव को बुरी तरह झकझोरने लगीं। उस झटके से चार में से दो मल्लाह उफनती नदी में गिर कर बह गए। नाव अब बुरी तरह डगमगा रही थी। दोनों मल्लाह पूरी कोशिश कर रहे थे पर नाव एक ओर झुक कर बेक़ाबू हुई जा रही थी। दोनों मल्लाह फिर चिल्लाने लगे थे। किनारा अब थोड़ी ही दूर था लेकिन नाव लगातार एक ओर झुकती चली जा रही थी। वह किसी भी पल पलट कर डूब सकती थी।
औरतें एक बार फिर डर कर चीख़ने लगी थीं। दोनों मल्लाह भी चिल्ला रहे थे। और उसी पल परदादाजी ने आकाश की ओर देख कर शायद कुल-देवता को प्रणाम किया और नदी की उफनती धारा में कूद गए। औरतें एक बार फिर विलाप करने लगीं।
परदादाजी के नदी में कूदते ही एक ओर लगभग पूरी झुक गई नाव कुछ सीधी हो गई। औरतों के विलाप और भैरवी नदी की उफनती धारा के शोर के बीच ही दोनों मल्लाह किसी तरह उस नाव को किनारे पर ले आए।
परदादाजी किनारे कभी नहीं पहुँच पाए। मँझले परदादा और छोटे परदादा का भी कुछ पता नहीं चला। उस शाम नाव से नदी में कूदने वाले हर आदमी को भैरवी नदी की उफनती धाराओं ने साबुत निगल लिया।
तीनों परदादाओं और अन्य सभी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। बाढ़ और मातम के बीच उसी रात परदादी ने दादाजी को जन्म दिया , वर्षों बाद जिन्हें आज़ाद भारत की सरकार ने स्वाधीनता-संग्राम में उनके योगदान के लिए शॉल और ताम्र-पत्र दे कर सम्मानित किया।
लेकिन इस बलिदान से जुड़ी असली बात तो मैं आपको बताना भूल ही गया। बाढ़ के उस क़हर की त्रासद घटना के बाद से आज तक , पिछले नब्बे सालों में भैरवी नदी में फिर कभी कोई डूब कर नहीं मरा है। इलाक़े के लोगों का कहना है कि हर डूबते हुए आदमी को बचाने के लिए नदी के गर्भ से कई जोड़ी हाथ निकल आते हैं जो हर डूबते हुए आदमी को सुरक्षित किनारे तक पहुँचा जाते हैं। इलाक़े के लोगों का मानना है कि परदादाजी, मँझले परदादाजी , छोटे परदादाजी और नौकरों-चाकरों की रूहें आज भी उस नदी में डूब रहे हर आदमी की हिफाज़त करती हैं।
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
५१७४, श्यामलाल बिल्डिंग ,
बसंत रोड, ( निकट पहाड़गंज ) , नई दिल्ली - ११००५५
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
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