वे --------- सुशांत सुप्रिय रेलगाड़ी के इस डिब्बे में वे चार हैं, जबकि मैं अकेला। वे हट्टे-कट्टे हैं , जबकि मैं कमज़ोर-सा। वे लम्बे-तगड़े ...
वे
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सुशांत सुप्रिय
रेलगाड़ी के इस डिब्बे में वे चार हैं, जबकि मैं अकेला। वे हट्टे-कट्टे हैं , जबकि मैं कमज़ोर-सा। वे लम्बे-तगड़े हैं, जबकि मैं औसत क़द-काठी का। जल्दबाज़ी में शायद मैं ग़लत डिब्बे में चढ़ गया हूँ। मुझे इस समय यहाँ इन लोगों के बीच नहीं होना चाहिए -- मेरे भीतर कहीं कोई मुझे चेतावनी दे रहा है।
देश के कई हिस्सों में दंगे हो रहे हैं। हालाँकि हमारा इलाक़ा अभी इससे अछूता है पर कौन जाने कब कहाँ क्या हो जाए। अगले एक घंटे तक मुझे इनसे सावधान रहना होगा। तब तक जब तक मेरा स्टेशन नहीं आ जाता।
मैं चोर-निगाहों से उन चारों की तरफ़ देखता हूँ। दो की लम्बी दाढ़ी है। चारों ने हरा कुर्ता- पायजामा और जाली वाली सफ़ेद टोपी पहन रखी है। वे चारों मुझे घूर क्यों रहे हैं? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं? कहीं उनके इरादे ख़तरनाक तो नहीं ?
भय की एक महीन गंध हवा में घुली हुई है। मैं उसे न सूँघना चाहूँ तो भी वह मेरी नासिकाओं में आ घुसती है और फिर दिमाग़ तक पैग़ाम पहुँच जाता है जिससे मैं अशांत हो उठता हूँ। किसी अनहोनी, किसी अनिष्ट का मनहूस साया मुझ पर पड़ने लगता है और बेचैनी मेरे भीतर पंख फड़फड़ाने लगती है।
देश के कई शहरों में आतंकवादियों ने बम-विस्फोट कर दिए हैं जिनमें कई लोग मारे गए हैं। इसके बाद कई जगह अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ दंगे शुरू हो गए हैं। पथराव, आगज़नी , और लूट-मार के बाद कई जगह कर्फ़्यू लगाना पड़ा है। मैं चैन से जीना चाहता हूं लेकिन ' चैन ' आज एक दुर्लभ वस्तु बन गया है। दुर्लभ और अप्राप्य। नरभक्षी जानवरों-सी शंकाएँ मुझे चीरने-फाड़ने लगी हैं।
एक बार फिर मेरी निगाह उन चारों से मिलती है। उनके धूप-विहीन चेहरों पर उगी ऊष्मा-रहित आँखें मेरी ओर ही देख रही हैं। वे लोग हमसे कितने अलग हैं। हम सूरज की पूजा करते हैं जबकि उनको चाँद प्यारा है। हम बाएँ से दाईं ओर लिखते हैं जबकि वे लोग इसके ठीक उल्टे दाएँ से बाईं ओर लिखते हैं। हमारे सबसे पवित्र स्थल इसी देश में हैं जबकि उनके इस देश से बाहर हैं। उनकी नाक, उनके चेहरे की बनावट, उनकी क़द-काठी, उनका रूप-रंग -- सब हमसे कितना अलग है।
वे मुझे घूर क्यों रहे हैं ? कहीं वे चारों आतंकवादी तो नहीं ? कहीं उनके बैग में ए. के. ४७ और बम तो नहीं ? ठण्ड की शाम में भी मुझे पसीना आ रहा है। बदन में कँपकँपी-सी महसूस हो रही है। एक तीखी लाल मिर्च मेरी आँखों में घुस गई है। प्यास के मारे मेरा गला सूखा जा रहा है। जीभ तालू से चिपक कर रह गई है। मैं चीख़ना चाहूँ तो भी गले से आवाज़ नहीं निकलेगी। मेरी बग़लें पसीने से भींग गई हैं। माथे से गंगा-जमुना-सरस्वती बह निकली है ं। क्या आज मैंने बी. पी. की गोली नहीं खाई ? मेरे माथे की नसों में इतना तनाव क्यों भर गया है? मेरी आँखों के सामने यह अँधेरा क्यों छा रहा है ? क्या मुझे चक्कर आ रहा है? मुझे साँस लेने में तकलीफ़ क्यों हो रही है ? मेरे सीने पर यह भारी पत्थर किसने रख दिया है...
अरे, वह दाढ़ी वाला शख़्स उठ कर मेरी ओर क्यों बढ़ा आ रहा है... क्या वह मुझे छुरा मार देगा... हे भगवान् , डिब्बे में कोई पुलिसवाला भी नहीं है ... आज मैं नहीं बचूँगा... इनकी गोलियों और बमों का निवाला बन जाऊँगा... इनके छुरों का ग्रास बन जाऊँगा... दीवार पर टँगी फ्रेम्ड फ़ोटो बन जाऊँगा... अतीत और इतिहास बन जाऊँगा... तो यूँ मरना था मुझे... दंगाइयों के हाथों... भरी जवानी में... रेलगाड़ी के ख़ाली डिब्बे में ... अकारण... पर अभी मेरी उम्र ही क्या है... मेरे बाद मेरे बीवी-बच्चों का क्या होगा... नहीं-नहीं... रुको... मेरे पास मत आओ... मैं अभी नहीं मरना चाहता... तुम्हें तुम्हारे ख़ुदा का वास्ता , मेरी जान बख़्श दो...ओह, मेरे ज़हन में ये मक्खियाँ क्यों भिनभिना रही हैं ...
" भाईजान, क्या आपकी तबीयत ख़राब है? इतनी ठण्ड में भी आपको पसीना आ रहा है! आप तो काँप भी रहे हैं। लगता है , आपको डॉक्टर की ज़रूरत है। आप घबराइए नहीं। हौसला रखिए। हम आपके साथ हैं। अल्लाह सब ठीक करेगा।" वह आदमी मेरी चेतना के मुहाने पर दस्तक दे रहा है।
वह कोई नेक आदमी लगता है...अब उस आदमी की शक्ल १९६५ के हिंद-पाक युद्ध के हीरो अब्दुल हमीद की शक्ल में बदल रही है... नहीं-नहीं , अब उसकी शक्ल हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अबुल कलाम में तब्दील हो गई है ... अरे, अब उसकी शक्ल मशहूर ग़ज़ल-गायक ग़ुलाम अली जैसी जानी-पहचानी लग रही है... अब वह शख़्स ग़ुलाम अली के अंदाज़ में गा रहा है--
ये बातें झूठी बातें हैं
ये लोगों ने फैलाई हैं ...
आह, ये सिर-दर्द... ओह, ये अँधेरा...
गाड़ी रुक चुकी है... शायद स्टेशन आ चुका है... वे लोग मुझे सहारा दे कर गाड़ी से उतार रहे हैं... अब वे मुझे कहीं ले जा रहे हैं... अब मैं अस्पताल में हूँ... उन्होंने मुझसे नंबर ले कर फ़ोन करके मेरी पत्नी सुमी को बुला लिया है... नहीं-नहीं, मैं ग़लत था... वे अच्छे लोग हैं... इंसानियत अभी ज़िंदा है...
" इनका बी. पी. बहुत हाई हो गया था। मैडम, आप इन चारों का शुक्रिया अदा करें कि ये लोग आपके हसबेंड को समय से यहाँ ले आए। दवा देने से बी. पी. अब कंट्रोल में है। अब आप इन्हें घर ले जा सकती हैं। इन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा आराम करने दें।" डॉक्टर सुमी से कह रहे हैं।
अब मैं पहले से ठीक हूँ। पत्नी और वे चारों मुझे अस्पताल से बाहर ले कर आ रहे हैं। हम टैक्सी में बैठ गए हैं।
" भाई साहब, मैं आप सब की अहसानमंद हूँ। मैं आप सब का शुक्रिया कैसे अदा करूँ? आप सब की वजह से ही आज इनकी जान...।" सुमी की आँखों में कृतज्ञता के आँसू हैं।
" कैसी बात करती हो, बहन ! हमने जो किया, इंसानियत के नाते किया। अपने भाई के लिए किया। अल्लाह की यही मर्ज़ी थी। "
मैं बेहद शर्मिंदा हूँ। अपना सारा काम-काज छोड़ कर वे चारों मेरी मदद करते रहे। हम सब एक ही माँ की संतानें हैं। हम एक इंसान की दो आँखें हैं। हम एक ही मुल्क़ के बाशिंदे हैं। हमारा ख़ून-पसीना एक है। वे ग़ैर नहीं, हममें से एक हैं...
" ख़ुदा हाफ़िज़ , भाई। अपना ख़याल रखिए।"
" ख़ुदा हाफ़िज़। "
टैक्सी चल पड़ी है। दूर जाती हुई उन चारों की पीठ बड़ी जानी-पहचानी-सी लग रही है। जैसे उनकी पीठ मेरे पिता की पीठ हो। जैसे उनकी पीठ मेरे भाई की पीठ हो। ऐसा लग रहा है जैसे मैं उन्हें बरसों से जानता था।
टैक्सी मेरे घर की ओर जा रही है। बाहर आकाश में सितारे टिमटिमा रहे हैं।
देर से उगने वाला चाँद भी अब आसमान में ऊपर चढ़ कर चमक रहा है और मेरी राह रोशन कर रहा है।
और सुमी मेरा माथा सहलाते हुए कह रही है: " वे इंसान नहीं, फ़रिश्ते थे..."
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
मार्फ़त श्री एच. बी. सिन्हा
५१७४, श्यामलाल बिल्डिंग ,
बसंत रोड , ( निकट पहाड़गंज ) ,
नई दिल्ली - ११००५५
ई-मेल: sushant1968@gmail. Com
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