सुशांत सुप्रिय की कहानी - पाँचवीं दिशा

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पाँचवीं दिशा ---------------- सुशांत सुप्रिय हम सब पिता को एक अंतर्मुखी व्यक्ति के रूप में जानते थे। दादाजी की मौत के बाद खेती-बाड़ी का दा...

पाँचवीं दिशा

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सुशांत सुप्रिय

हम सब पिता को एक अंतर्मुखी व्यक्ति के रूप में जानते थे। दादाजी की मौत के बाद खेती-बाड़ी का दायित्व उनके कंधों पर आ गया था। लेकिन शायद वे अपने वर्तमान जीवन से ख़ुश नहीं थे। मुझे अक्सर लगता कि शायद वे कुछ और ही करना चाहते थे। शायद उनके जीवन का लक्ष्य कुछ और ही था। माँ पिता से ज़्यादा दुनियादार महिला थीं। खेती-बाड़ी की देख-रेख का काम माँ और मामा ने सँभाल लिया। इसलिए घर की गाड़ी बिना लड़खड़ाए चलती रही।

तब मैं चौदह साल का था और गाँव की पाठशाला में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। एक दिन पिता ने घर में घोषणा की कि वे एक ' हॉट एयर बैलून ' बनाएँगे और उसमें बैठ कर ऊपर आकाश में जाएँगे। घर-परिवार और गाँव में जब लोगों ने यह सुना तो वे तरह-तरह की बातें करने लगे। किसी ने कहा कि उनका दिमाग़ खिसक गया है। किसी ने गाँव के ओझा को बुला कर उनका इलाज करवाने की बात की। माँ ने भी इसे पिता की सनक बताया और उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहा , किंतु पिता अपनी बात पर क़ायम रहे।

नियत दिन पिता अपने ग़ुब्बारे के साथ गाँव के बाहर के मैदान में

पहुँचे। आधा गाँव उनके पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गया था। माँ रो रही थी। पिता ने माँ का हाथ पकड़ कर कुछ कहा। फिर वे मेरी ओर मुड़े।

" बेटा , माँ का ख़याल रखना।" उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। " मैंने अपने तकिये के नीचे तुम्हारे लिए एक चिट्ठी छोड़ी है। उसे पढ़ कर तुम सब समझ जाओगे। " प्यार से मेरा माथा चूमते हुए वे बोले। उनका आशीष पाने के बाद भी मेरा गला रुँध गया था। मैं बहुत मुश्किल से अपने आँसुओं को रोक पा रहा

था।

" पिताजी, आप किस ओर जाएँगे? " मैंने भर्राई आवाज़ में पूछा। वे कह सकते थे -- जिस ओर हवा ले जाएगी। लेकिन उन्होंने कहा--" मैं चारों दिशाओं में से किसी ओर नहीं जाऊँगा। न पूरब की ओर, न पश्चिम की ओर , न उत्तर की ओर , न दक्षिण की ओर। अपने जाने की दिशा मैं ख़ुद तय करूँगा। "

उस दिन हवा ज़रूर बंद रही होगी , क्योंकि उनका ग़ुब्बारा सीधा ऊपर की ओर उठा , मैदान के ठीक ऊपर -- एक पाँचवीं दिशा में।

ऊपर उठता हुआ वह ग़ुब्बारा लगातार छोटा होता जा रहा था। छोटा, और छोटा। जब वह दिखने और ओझल होने की सीमा-रेखा पर पहुँचा तो एक आश्चर्यजनक बात हुई। ओझल होने की बजाए वह हॉट-एयर बैलून जैसे वहीं स्थित हो गया। बीच आकाश में टँग-सा गया।

हम सब शाम होने तक ग़ुब्बारे के ओझल हो जाने की प्रतीक्षा करते रहे। अँधेरा होने पर हम घर लौट आए।

मैं दौड़ कर पिता के कमरे में गया और उनके तकिये के नीचे से मैंने अपने नाम लिखा उनका पत्र उठा लिया। पिता ने उस पत्र में लिखा था-- " बेटा, पहले-पहल जो भी लीक से हट कर कुछ करना चाहता है , लोग उसे सनकी और पागल कहते हैं। लेकिन अपने सपने को साकार करना आदमी के अपने हाथ में होता है। दिशा को यह तय नहीं करने दो कि वह तुम्हें किधर ले जाएगी। अपने जीवन की दिशा तुम ख़ुद तय करो। ज़रूरी नहीं कि जिधर सब जा रहे हों वह दिशा तुम्हारे लिए भी सही

हो ...।"

उस रात मुझे नींद नहीं आई। सुबह होते ही मैं गाँव के बाहर मैदान की ओर भागा। वह अब भी वहीं था -- पिता का ग़ुब्बारा। दिखने और ओझल होने की सीमा-रेखा पर टँगा हुआ। घोर आश्चर्य। दरअसल पिता कहीं नहीं गए थे। वे वहीं मौजूद थे -- अपने ग़ुब्बारे के साथ जुड़ी बड़ी-सी टोकरी में बैठे हुए। बहुत ऊपर से हमें देखते हुए।

दिन बीतने लगे। पिता का ग़ुब्बारा वहीं मौजूद रहा। अधर में टँगा हुआ। दसवें दिन मामा और गाँव के बड़े-बुज़ुर्गों ने शहर से एक हेलिकॉप्टर का बंदोबस्त किया। माँ, मामा, मैं और गाँव के सरपंच उसमें सवार हो कर ग़ुब्बारे की दिशा में उड़ चले। हम वहाँ पहुँच कर पिता को समझा-बुझा कर नीचे ले आना चाहते थे। किंतु तब हमारे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही जब हमने पाया कि जितना हम पिता के हॉट-एयर बैलून की ओर उड़ते चले जाते , वह ग़ुब्बारा हमसे उतना ही दूर होता चला

जाता। हेलिकॉप्टर और ग़ुब्बारे की दूरी निरंतर उतनी ही बनी रहती , जितनी पहले

थी। यह क्या पहेली थी ? हेलिकॉप्टर का ईंधन ख़त्म होने लगा। हार कर हम लोग

वापस लौट आए।

इस घटना के कुछ दिन बाद माँ और मामा ने मैदान में एक महायज्ञ करवाया ताकि पिता को ' दुष्टात्माओं ' से मुक्ति मिल सके , उन्हें सद्बुद्धि मिले और वे वापस लौट आएँ। किंतु पिता का ग़ुब्बारा अपनी जगह यथावत् टिका रहा।

एक महीना बीत गया। पिता के बारे में मेरी चिन्ता बढ़ने लगी। वे अपने साथ जो खाने-पीने का सामान ले कर गए थे, अब तो वह भी ख़त्म हो गया

होगा। वे क्या खाते होंगे, क्या पीते होंगे-- मैं सोचता रहता। कई बार मैं इस उम्मीद में रात में चुपके से घर से बाहर निकल कर मैदान में चला जाता कि शायद रात्रि के घुप्प अंधकार में वे नीचे उतर आएँगे। कई बार मुझे लगा भी कि पिता जैसी कोई आकृति मैदान में मौजूद है और ग़ुब्बारे जैसी कोई चीज़ बहुत नीचे मैदान पर मँडरा रही है। किंतु घने अँधेरे में केवल तारों की रोशनी में निश्चित रूप से कुछ भी कह पाना नामुमकिन था। तो क्या पिता रात के अँधेरे में खाने-पीने के सामान और ईंधन की तलाश में नीचे ज़मीन पर उतर आते थे ? या वह मेरा भ्रम था ?

फिर सर्दियाँ आ गईं। दोपहर तक धुँध छाई रहती। जब धुँध छँटती तो पिता का ग़ुब्बारा दूर आकाश में लटका हुआ नज़र आता। तब मुझे उनकी कमी बहुत शिद्दत से खलती। मुझे लोक-कथाएँ सुनाने वाला अब कोई नहीं था। पशु-पक्षियों, मछलियों और पेड़-पौधों की बारीकियाँ बताने वाला अब कोई नहीं था।

गाँव में लोग उनके बारे में तरह-तरह की बातें करते। कोई कहता -- शायद पिता को सपने में किसी देवी-देवता ने दर्शन दिया होगा। शायद वे सशरीर स्वर्ग-लोक जाना चाहते थे। कोई कहता -- दुनिया से डर कर वे यहाँ से भाग खड़े

हुए। कोई कहता -- बेकार बैठे-बैठे उनका दिमाग़ ख़राब हो गया था।

अक्सर मैं सोचता -- यदि पिता ऊपर बीमार हो गए तो उनका ख़याल कौन रखेगा ? ऊपर तो एक भयावह ख़ालीपन होगा। सर्दी, गर्मी, आँधी, बरसात में वे ऊपर अकेले कैसे रहते होंगे? क्या उन्हें कभी हमारी याद नहीं आती होगी?

पिता को ऊपर ग़ुब्बारे में गए लगभग एक साल हो गया था। हम लोग उन्हें भूलने-से लगे थे। घर में केवल मैं ही था जो कभी-कभी उनकी याद आने पर रात में तकिये में मुँह छिपा कर रो लेता था।

अचानक एक दिन गाँव के बाहर के मैदान में हवा में से कुछ पर्चे गिरने लगे। मैं भी दौड़ कर वहाँ पहुँचा। उन पर्चों में लिखे अक्षरों को मैं पहचान गया। यह पिता के हाथ की लिखावट थी। उन पर्चों को ले कर हम सब सरपंच जी के पास गए। उन पर्चों में पिता ने चेतावनी दी थी कि गाँव के बग़ल से गुज़रती तीस्ता नदी में तीसरे दिन बाढ़ आने वाली थी। पिता ने सब को गाँव से दूर किसी ऊँची जगह पर चले जाने की सलाह दी थी।

पंचायत की बैठक में कई लोगों ने इस बात को बकवास क़रार दिया। लेकिन सरपंच जी और अधिकांश पंचों की राय पर अधिकतर लोग दूसरे ही दिन गाँव के बाहर के मैदान में इकट्ठा हो गए जो कि ऊँची जगह पर था। जैसा पिता ने कहा था , वैसा ही हुआ। नदी में तीसरे दिन ही भयानक बाढ़ आ गई। लेकिन पिता की भविष्यवाणी की वजह से जान-माल का ज़्यादा नुक़सान नहीं हुआ।

फिर तो यह एक सिलसिला-सा बन गया। जब भी गाँव को किसी प्राकृतिक आपदा से ख़तरा होता, पिता की लिखावट वाला पर्चा मैदान में पहले से गिरा मिल जाता। इस पूर्व-चेतावनी से हम सब आपदाओं के प्रकोप से बच जाते। हमारा गाँव समुद्र के किनारे नदी के मुहाने के पास था। कई बार हम समुद्री चक्रवात के कोप से पिता की भविष्यवाणी की वजह से बच पाए। कई बार उन्होंने हमें पहले ही टिड्डी दलों के आने के बारे में सचेत कर दिया। इस तरह वे हम सब के लिए हवा में लटकी ईश्वर की आँख-से हो गए।

ये १९७० के दशक के शुरुआती साल थे। उस समय भारत ने 'इनसैट' श्रृंखला के उपग्रह नहीं छोड़े थे , जो मौसम सम्बन्धी जानकारियाँ हमें दे पाते। तब घर-घर में टेलीविज़न भी नहीं था। मौसम की पूर्व-सूचना दे पाने का काम बेहद कठिन था।

हम सब हैरान होते कि पिता यह सब समय से पहले ही कैसे जान जाते होंगे? मेरे मन के किसी कोने में अब भी एक उम्मीद बची थी कि शायद एक दिन पिता वापस लौट आएँगे। किंतु ऐसा नहीं हुआ। वे हमारे लिए होकर भी नहीं थे। नहीं हो कर भी थे।

वर्ष बीतते गए। गाँव की पाठशाला से पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी नौकरी लग गई। फिर मेरी शादी हो गई। मेरे घर बेटे ने जन्म लिया। माँ मेरे साथ ही शहर में रहने चली आई। किंतु हम सब साल में एक बार गाँव ज़रूर जाते। पिता का ग़ुब्बारा तब भी हमें दिखने और ओझल होने की सीमा-रेखा पर वैसे ही स्थित नज़र आता। गाँव में कई लोग यह दावा करते कि उन्होंने रात के अँधेरे में पिता जैसी आकृति वाले किसी व्यक्ति को गाँव की गलियों में भटकते हुए देखा है। क्या पिता रात्रि के अंधकार में ग़ुब्बारे के लिए ईंधन और खाने-पीने के सामान की खोज में वाक़ई नीचे उतर आते थे ? या इसका कोई और कारण था ? यह एक रहस्य ही बना रहा। किंतु पिता अब भी अपने भविष्यवाणी वाले पर्चों से गाँव के निवासियों का कल्याण करने के काम में लगे हुए

थे। मैं निरंतर पिता की सकुशलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता रहता।

इसी तरह कई वर्ष और गुज़र गए। मेरा बेटा अब बड़ा हो गया था और माँ अब बूढ़ी हो गई थीं। उन्हीं दिनों एक रात मुझे सपने में पिता दिखे। सपने में वे बहुत थके हुए , बूढ़े और बीमार लग रहे थे। जैसे वे आकाश की क़ब्र में लेटे हुए हों।

सपने में पिता को इस स्थिति में देख कर मैं भीतर तक विचलित हो

गया। मुझे लगा -- अब निर्णय लेने का समय आ गया था। वे मेरे पिता थे। मैं उनके लिए हमेशा से कुछ करना चाहता था। मैं उन्हें सदा के लिए इस तरह अधर में लटकते हुए नहीं देख सकता था। मैं उन्हें इस नियति से छुटकारा दिलाना चाहता था।

मैंने एक हॉट-एयर बैलून बनाया। उसमें मैंने गाँव के लोगों के अँगूठे लगवा कर और हस्ताक्षर करवा कर एक धन्यवाद-पत्र टाँग दिया। फिर मैंने उस ग़ुब्बारे को मैदान में उसी जगह से ऊपर उड़ा दिया जहाँ से वर्षों पहले पिता ग़ुब्बारे में बैठ कर ऊपर चले गए थे।

मेरा उड़ाया ग़ुब्बारा भी न पूरब दिशा की ओर गया , न पश्चिम की

ओर , न उत्तर की ओर , न ही दक्षिण की ओर। संयोग से शायद उस दिन भी हवा बंद थी और मेरा उड़ाया ग़ुब्बारा भी मैदान के ठीक ऊपर उठता चला गया, एक पाँचवीं दिशा में।

ग़ुब्बारे के साथ बाँधे गए पिता के नाम भेजे धन्यवाद-पत्र में मैंने लिखा था-- " पापा, आपने अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभा दी। लोग आपके अहसानमंद हैं। अब मेरी बारी है। मैंने मौसम-विज्ञान में डिग्री हासिल कर ली थी। अब मैं इसी इलाक़े में मौसम-विभाग का अधिकारी नियुक्त हो गया हूँ। अब मैं उपग्रह की मदद से यही काम करूँगा। अब आप स्वतंत्र हैं। अब यह दायित्व मुझे निभाने दें। "

उस रात मुझे गहरी नींद आई। नींद में पिता आए। उनके चेहरे पर संतोष का भाव था। वे प्यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रहे थे।

अगली सुबह मैं मैदान में गया। मेरे हाथ में दूरबीन थी। मैंने आकाश में दूर-दूर तक देखा। पिता का ग़ुब्बारा कहीं नहीं था। आकाश और दिनों की अपेक्षा ज़्यादा नीला लग रहा था। धूप और दिनों की अपेक्षा ज़्यादा गुनगुनी लग रही थी।

पिता को भेजे पत्र में मैंने यह भी लिखा था -- " आपका पोता बड़ा हो गया है। वह डॉक्टर नहीं बनना चाहता। वह इंजीनियर नहीं बनना चाहता। वह वक़ील नहीं बनना चाहता। वह एम. बी. ए. करके किसी बहु-राष्ट्रीय कम्पनी में काम करके लाखों रुपए का वेतन नहीं लेना चाहता। वह इन चारों में से किसी दिशा में नहीं जाना चाहता। उसका सपना अंतरिक्ष-यात्राएँ करने का है। वह यूनिवर्सिटी में एस्ट्रो-फ़िज़िक्स की पढ़ाई कर रहा है... एक पाँचवीं दिशा में जाने के लिए।"

पिता का ग़ुब्बारा फिर कभी किसी को नज़र नहीं आया। मेरा मानना है कि वे जहाँ कहीं भी हैं , उनकी आत्मा को अब शांति मिल गई है।

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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय

मार्फ़त श्री एच. बी . सिन्हा

5174, श्यामलाल बिल्डिंग ,

बसंत रोड, ( निकट पहाड़गंज ) ,

नई दिल्ली - 110055

ई-मेल: sushant1968@gmail.com

  

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रचनाकार: सुशांत सुप्रिय की कहानी - पाँचवीं दिशा
सुशांत सुप्रिय की कहानी - पाँचवीं दिशा
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