पुस्तक समीक्षा अनन्त आलोक खामोशी को शब्द देती कविताएं घटनाएं बोलती नही हैं। पूछती भी नहीं , वे तो केवल घटित होती हैं और कर देती हैं अपन...
पुस्तक समीक्षा अनन्त आलोक
खामोशी को शब्द देती कविताएं
घटनाएं बोलती नही हैं। पूछती भी नहीं, वे तो केवल घटित होती हैं और कर देती हैं अपना काम। अच्छा या फिर बुरा। हाँ इनके घटित होने से पूर्व एक खामोशी अवश्य होती है , जो अनजानी होती है। इस खामोशी को कोई वैज्ञानिक , कोई भविष्य दृष्टा जान नहीं पाता, समझ नहीं पाता। इसका केवल आभास होता है। उसी आभास को शब्द दिए हैं लेखक एवं कवि श्रीकांत अकेला ने अपने काव्य संग्रह 'अनजानी खामोशी ' में। यहाँ समीक्षित पुस्तक श्रीकांत अकेला का दूसरा काव्य संग्रह है। शीर्षक कविता में कवि अनजानी खामोशी को मुखरित करवाते हुए कहलवाता है ''फिर नष्ट होंगे घरोंदे/ आहत होगी संवेदना/ जंगल मिट्टी हरियाली भी/ और छा जाएगी एक अनजानी खामोशी।''
कवियों के बारे में एक कहावत आम प्रचलित है 'जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुचे कवि।' कवि मन घोर निराशा में भी आशा की एक किरण खोज ही लेता है। पड़ोसी देश से हालांकि हमारे संबंध आरम्भ से ही अच्छे नहीं रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तो कड़वाहट कम होने के बजाय और बढ़ी है। कवि ह्रदय ऐसे में भी संबंधों की मधुरता की आशा करता है। एक बानगी देखिए ''काश ! / सरहद पार से/ तुम लाते/ सद्भावना के फूल/ और हम निभाते/ अतिथि देवो भवः की / अपनी मौलिक परंपरा।'' इस कविता में कवि अपनी संस्कृति और परंपराओं पर भी गर्व का अनुभव करता है।
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ये प्रकृति का नियम है। लेकिन दुख उस समय होता है जब हम कोई मुकाम पा लेने के बाद खुशी में या सफलता के नशे में इतना मदहोश हो जाते हैं कि अपने मूल को ही भूल जाते हैं। आज यह बात आम हो गई है। संतान सफलता पाने के बाद अपने माता पिता को भूलती जा रही है या दुत्कार रही है। यह भाग्य की विड़ंबना नहीं, हमारी संस्कृति का ह्रास है। इसी पर फटकार लगाते हुए कवि 'बेशर्म फूल' कविता में कहता है। ''अकस्मात ही नहीं/ खिलता है कोई सुन्दर फूल/पहले बीज या / किसी टहनी को /सड़ने का दर्द झेलना पड़ता है/ फिर गुंचे की गोद में खिलता है पुष्प/ सिसकता है गुंचा पर/ मुस्कुराता है बेशर्म फूल।''
कवि श्रीकांत अकेला प्रत्येक विषय पर लेखनी चलाते हैं, विशेषकर समसामयिक विषयों पर इनकी दृष्टि और भी पैनी है। हिन्द में हिन्दी की दुर्दशा पर वे आह्वान करते हुए कहते हैं ''हिन्द की आवाज बनकर / हिन्द को सम्मान दो / हो सके ये पुण्य करके/ राष्ट्र को पहचान दो।
राजनीतिक हलचल से कवि मन कैसे विलग रह सकता है। समकालीन स्थिति पर 'चाय पॉलिटिक्स' में कवि कहता है ''चाय की चुस्कियां बढ़ाती हैं नजदीकियां/ चाय पीना पिलाना यही परंपरा परंपरिक है।/ सत्य भी।''
अन्ना के आंदोलन ने सब को एक बार फिर गाँधी का स्मरण करवा दिया। इस घटना से शायद ही कोई प्रभावित हुए बिना रहा हो। 'मुक्ति बंधन' कविता में कवि कहता है '' देखो एक बार फिर/ संभाली है कमान / एक फकीर ने/ जिससे जुड़ गई वो / तमाम भावनाएं , विचार।''
गांव में शिक्षा की लौ से जहाँ कई घर रौशन हुए हैं। वहीं असंख्य घरों में आग भी लगी है। और इसकी जद में आए वहाँ के बुजुर्ग। गाँव में रोशन हुई संतानें अपने हिस्से की रोशनी सहित शहरों को पलायन कर रही हैं और शेष रह जाते हैं, बूढ़े माँ- बाप। इसे शिक्षा की सबसे बड़ी हानि कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। 'चिट्ठी ' कविता में इस बात को कवि कुछ यूँ बयां करता है ''आंखें भर जाती होंगी/ जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर खड़े/ बूढ़े मां- बाप की जो सिर्फ राह तकते हैं/ चिट्ठी की क्योंकि/ उस गांव में है तो सिर्फ चन्द बुजुर्ग ही/ या यूं कहें बुजुर्गों का एक गाँव।''
कवि स्वतन्त्र पत्रकार भी है अतः स्वभाविक है इसकी छाप उनकी दृष्टि पर तो है ही , कलम की नोक पर भी बेबाक झलकती है। वास्तव में यही रचनाधर्मिता भी है। मुक्बिोध ने कहा था सृजन के खतरे तो उठाने ही होंगे। पिछले कुछ समय में दिल्ली और अन्य शहरों में हुई बलात्कार की बर्बरतापूर्ण घटनाएं, असामाजिक तत्वों द्वारा खून खराबा और पड़ोसी देश की हमारे सैनिकों के सिर कलम करने की अक्षम्य घटनाओं पर शासन प्रशासन के मौन को कवि यूँ तोड़ता है ''जैसिका, आरूषि, दामिनि/ या फिर निर्भया का सच हो/ सिर कटी हों लाश या चीन की घुसपैठ/... सिंहासन पर अब सिंह नहीं/ सिर्फ स्वार्थी सत्तालोलुप / गीदड़ बैठते हैं।'' उत्तारखंड त्रास्दी से क्षुब्ध कवि देवाधिदेव महादेव से प्रश्न करता हैं '' हे महादेव ये क्या !/ तुम्हारी अराधना का ये फल! / ये भयंकर प्रलय कैसी ? / निर्दोष स्त्री पुरूष , बच्चे/ मूक पशु, पक्षी / मनमोहक फिजाएं / सब खा गए !'
संग्रह की 81 कविताओं में अखबार, पीत पत्रकारिता, सिसकियां, सच्चा प्रेम, शब्द बाण, एवं सिंहासन पर हों सिंह जैसी भी अच्छी कविताएं हैं। संग्रह में कवि कहीं कहीं यति गति और लय की पाबंदी में छन्दानुशासन का पालन करता हुआ प्रतीत होता है तो कहीं भाव प्रधान छन्दमुक्त वातावरण में अबाध गति से बहता चला जाता है। कुछ कविताओं में दोहराव एवं विरोधाभास दोष के अतिरिक्त शब्दों के चयन में त्रुटि हुई है जो स्वसंपादन एवं सतत् अध्ययन से दूर होगी। कुल मिलाकर पुस्तक संग्रहणीय बन पड़ी है।
पुस्तक ः अनजानी खामोशी (काव्य संग्रह)
कवि ः श्रीकांत अकेला
प्रकाशक ः हिमालिनी प्रकाशन , भुड्डी चौक शिमला रोड़
देहरादून उत्तराखण्ड
मूल्य ः 150 रू
समीक्षक ः अनन्त आलोक
जिला सिरमौर , हि0 प्र0 173022
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