माघ मास में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला पर्व घुगुतिया कुमाऊँ का महत्वपूर्ण और आम जन जीवन से जुड़ा अनेक परम्पराओं, मान्यताओं से बंधा हु...
माघ मास में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला पर्व घुगुतिया कुमाऊँ का महत्वपूर्ण और आम जन जीवन से जुड़ा अनेक परम्पराओं, मान्यताओं से बंधा हुआ त्यौहार है। इसके आते ही जहां पूरे कुमाऊँ में हर्ष और उल्लास का वातावरण बन जाता है वहीं जगह-जगह पर लगने वाले मेले, होने वाले लोक उत्सव लोगों को अपनी परम्परागत पृष्ठभूमि-संस्कृति का स्मरण कराते हैं।यह त्यौहार सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश या मकर संक्रान्ति के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इसको उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में सर्वलोकप्रिय घुगुतिया के अतिरिक्त पुस्योड़िया, मकरैण, मकरैणी, उतरैणी, उतरैण, घोल्डा, ध्वौला, चुन्यात्यार, खिचड़ी, संगराद आदि विभिन्न नामों से मनाया जाता हैं ।चुन्यातार,मकरैण कहने के पीछे इस दिन सूर्य का धनुराशि से मकर राशि में प्रवेश करना रहा होगा। कुमाऊँ में बहने वाली नदी सरयू इसके मनाने के दिन का निर्धारण करती है अर्थात सरयू के पूर्वी भाग में रहने वाले इसका आयोजन पौष मास की अन्तिम तिथि को करते हैं वहीं सरयू से पश्चिम में रहने वाले इसका आयोजन माघ मास की प्रथम तिथि को करते हैं। पर दोनों ही क्षेत्रों के निवासी उत्सव के प्रमुख पदार्थ को उत्सव की पूर्व सन्ध्या को तल कर तैयार करते हैं और अगले दिन प्रातःकाल कौवों को आमन्त्रित कर खिलाते हैं। प्रचलित कुमाऊँनी भाब्द घुगुत या घुघुत का अर्थ होता है फाख्ता नामक पक्षी। पर इस उत्सव में बनने वाले घुगुते हिन्दी के अंक चार की तरह के होते हैं। जिनको गुड़ युक्त आटे से तलकर बनाया जाता है इसके अतिरिक्त कुछ लोग आधुनिक निमित्त्त पदार्थ व पूड़ी, पुवे, बड़े आदि भी बनाते हैं।फिर इन पदाथरें को माला में घर के सदस्यों की संख्यानुसार पिरोया जाता है और बनाने के अगले दिन प्रातःकाल बच्चे इन मालाओं को गले में डाल कर जोर-जोर से गाते हैं।इस बुलावे पर कौवे भी बड़ी संख्या में आ जाते हैं जिनके घुगुतो-बड़ों को कौवा पहले खाता है वह भाग्यशाली समझा जाता है।
यह लोक पर्व आजकल के भागमभाग के जीवन पाश्चात्य शैली के अन्धानुकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के मध्य अपने आपको लोक से, लोक की परम्पराओं, संस्कृति ,बोली- भाषा, गीतों, प्रचलित कहावतों ,कथाओं से जोड़ने का महत्वपूर्ण माध्यम है।लोहड़ी के अगले दिन जब पूरा उत्तर भारत मकर संक्रान्ति मना रहा होता है तब यहां की मान्यताओं के अनुसार यह त्यौहार मनाया जाता है।यहां के अन्य त्यौहारों की भांति इस त्यौहार को लेकर भी कई कहानियां लोक में प्रचलित हैं पर अधिकांश का केन्द्र घुघुतिया राजा और कौवा है।
प्रथम प्रचलित लोक कथा के अनुसार- बहुत पहले कुमाऊँ में चन्द्रवंश का शासन था।उसके राजा कल्याणचन्द के कोई सन्तान नहीं थी।राजा ने मकर संक्रान्ति को बागेश्वर जाकर सरयू और गोमती के संगम पर स्नान कर बागनाथ की पुत्र प्राप्ति के लिए पूजा-अर्चना की।परिणामस्वरूप राजा को मकरसंक्रान्ति के दिन पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।जिसका नाम निर्भयचन्द रखा गया।पर प्यार से उसकी मां उसे घुगुति कहकर बुलाती।उसके गले में सोने के तार से गुंथी एक मोतियों की माला थी, जिसको देखकर वह बहुत प्रसन्न होता। जब कभी घुगुति रोता या रूठता तो तो मां उसे खुश करने के लिए गाती-
काले कौवा काले
घुगुति की माला खाले।
जब कभी घुगुति की मां के मुँह से ऐसा सुनकर इधर-उधर से कौवे आ जाते,तो राजकुमार बड़ा प्रसन्न होता।जिनको उसकी मां तरह-तरह के पकवान खिलाती।इस तरह से कौवों और घुगुति में मित्रता हो गई और एक-दूसरे का मनोरंजन होने लगा ।
राजा के दरबार में एक दुष्ट मंत्री की दृष्टि राज्य पर थी और वह राजा की इकलौती सन्तान घुगुति को मारकर राज्य हड़पना चाहता था।उसे उचित अवसर की प्रतीक्षा थी।एक दिन घुगुति जब खेल रहा था राजा का का मंत्री घुगुति को उठाकर दूर जंगल में ले गया।ऐसा देखकर उसके मित्र कौवे इकटठे हो गये और चिल्लाने लगे राजकुमार ने अपनी माला उतारकर हाथ में ले रखी थी उनमें से किसी कौवे ने घुघुति से माला लेकर राजमहल तक पहुंचायी।कौवों का शोर व घुघुति की माला कौवे के द्वारा लेकर इधर-उधर बेचैनी से लेकर घूमते देखकर राजा व उसके मंत्री समझ गये कि घुगुति की जान खतरे में है सब कौवे के पीछे भागे ।कौवा जाकर उस पेड़ के ऊपर बैठ गया जिसके नीचे घुगुति बेहोश पड़ा था इस प्रकार कौवों की सहायता से घुघुति की जान बच गयी और दोषी मंत्री व उसके साथियों को दण्ड मिल गया।
तब से घुघुति का माता उस दिन (मकर संक्रान्ति) हर वर्ष पकवान बना कौवों को खिलाने लगी।समय के साथ-साथ मान्यता का क्षेत्र बढ़ा आरै पूरे उत्तराखण्ड में फैल गई।तब से मकर संका्रन्ति के दिन लोग आटे से घुघुति बना-बना कर कौवों को खिलाने लगे।हालांकि गाने की परम्परा कम होती जा रही है फिर भी बच्चे प्रातः काल को घुगुति दिखाते हुए जोर-जोर से गाते हैं-
काले कौवा काले
घुगुति की माला खाले।
काले कौवे आ,
लगड़ बड़ा खा।
काले कौवा का का,
पूसै रोटी माघै खा।
लै कौवा बड़ो,
मै के दे सुनाक घड़ो।
ले कौवा ढाल
मैं के दे सुनाक थाल।
लै कौवा पुरी
मैंके दे सुनाकि छुरी।1।
इसी प्रकार से एक दूसरी कथा लोक प्रचलित है- कि प्राचीन काल में कुमाऊँ में एक घुघुतिया नाम का राजा हुआ। जो ज्योतिषियों पर बहुत विश्वास करता था।एक दिन राजा ने सोचा कि सब कुछ तो पूछा जा चुका है क्यों न अपनी मृत्यु का पता लगाया जाये।ऐसा सोचकर उसने राज्य के सभी बड़े ज्योतिषियों को बुलाया और जानना चाहा परन्तु ज्योतिषियों ने एक स्वर से राजा से ऐसा जानने को मना किया। पर राजा तो हर हाल में जानना चाहता था। अतः विवश होकर ज्योतिषियों ने राजा के जन्म, ,ग्रह, नक्षत्रों की गणना कर बताया कि मकर संक्रांति के दिन कौवे के चोंच मारने से राजा की मुत्यु होगी।
ऐसा सुनते ही राजा बेचैन हो गया।उसकी रातों की नीद उड़ गयी। आखिरकार सबकी सहमति से निश्चय हुआ कि मकर संक्रान्ति के दिन आटे के डिकरे बनाकर कौवों को खिलाया जाये तो यह मृत्यु योग टल सकता है।जब कौवे दिन भर पकवान खाने में व्यस्त रहेंगे तो उन्हें चोंच मारने का न ध्यान रहेगा और न कोई राजमहल की ओर आएगा।इसके बाद राज्य भर में सभी ने अपने घरों में आटे के घुघुते-पकवान बनाये और घरों के बच्चे प्रातः काल ही छतों पर माला रखकर आवाज देने लगे-
काले कव्वा काले,
घुघुति की माला खाले।
इस तरह से कौवे दिन भर घुघुतियों को ही खाने में व्यस्त रह गये। राजमहल की ओर कोई कौवा न जा सका और राजा की मृत्यु का योग टल गया। कहते हैं तभी से यह पर्व धूमधाम से मनाया जाने लगा।
उपरोक्त विवेचित मूल्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।ग्रामीण क्षेत्रों में तो आज भी इसकी बड़ी प्रतीक्षा होती है।पूरे उत्तराखण्ड में मनाया जाने वाला यह पर्व लोक जनमानस को अपनी लोक में प्रचलित मान्यताओं-विश्वासों से जोड़ता दिखायी देता है।एक दुःखद पहलू यह भी है कि नयी पीढ़ी-बच्चे इस पर्व के मनाने के कारण, इतिहास, मान्यताओं व विश्वास के सम्बन्ध में कुछ नहीं बतला पाती।शायद इसके के लिए हम सब हमारी शिक्षा पद्धति खान-पान रहन सहन में बदलाव आधुनिकता का चढ़ता भूत व तेजी से पहाड़ से पलायन उत्तरदायी है।
सन्दर्भः-1-उत्तराखण्ड के लोकोत्सव एवं पर्वौत्सव पृष्ठ संख्या-83
हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर उ.प्र.-242401
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