शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 की सार्थकता पर सवाल ?. ************************************** प्राविधान -(१). बालक को न तो फेल किया जाएगा न किसी ...
शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 की सार्थकता पर सवाल ?.
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प्राविधान -(१). बालक को न तो फेल किया जाएगा न किसी कक्षा में रोका जाएगा और न ही उसका नाम ही काटा जाएगा.( कक्षा 1 से 8 तक ).
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यह ध्यान देने वाली बात है कि जब बच्चे को न तो फेल किया जाएगा और न ही उसका नाम काटा जाएगा तो बच्चों में भेद-भाव और अरुचि की स्थिति सी बन जाएगी पढ़ाई के प्रति. जब बच्चे यह देखेंगे कि उनका ही एक साथी जिसने न तो पढ़ाई की और न ही किसी परीक्षा में बैठा , फिर भी उन्हीं के साथ कक्षा को वह भी पास कर गया . तब वे भी उसी के अनुरूप व्यवहार करना शुरू कर देंगे. वह भी जब मर्जी होगी विद्यालय आएँगे या नहीं आएँगे . क्योंकि वे यह जानते हैं कि पढ़ें न पढ़े, स्कूल जाएँ न जाएँ, परीक्षा दें न दें पास तो वह हो ही जाएँगे . कारण मानव (बाल मन भी) स्वभाव है कि जब किसी आसान से रास्ते से मंजिल मिल सकती है तो परिश्रम या कठिनाई का रास्ता कोई क्यों अपनाए ?. इसका दूरगामी प्रभाव यह होगा कि बच्चा प्राथमिक शिक्षा या उससे भी आगे की किसी शिक्षा स्तर की डिग्री तो पा जाएगा किन्तु किसी काम का न रहेगा .
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बच्चे ही देश के भविष्य हैं. जब वे ही बेकार होंगे तो देश का क्या हाल होगा ? कहने की जरूरत नहीं .
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नाम न काटने और फेल न करने की प्रक्रिया विगत कई वर्षों से अमल में लायी जा रही है. अब इसके परिणाम भी मिलने शुरू हो गये हैं . आपने देखा होगा कि कुछ बच्चे कक्षा 8 या कक्षा 10 तक पास कर चुके हैं किन्तु उनको ठीक से पुस्तक तक पढ़ने नहीं आती . पहले ऐसा नहीं था . जब तक बच्चे कक्षानुरूप ज्ञान नहीं पा लेते थे , उन्हें पास नहीं किया जाता था . उस समय के कम पढ़े लिखे लोग भी अच्छी जानकारी रखते थे . उनको कक्षानुरूप ज्ञान था . किन्तु आज ऐसा नहीं है आज उनको पास करना जरूरी है चाहे कुछ आए न आए. क्यों ? कानून है भाई . एक तो कड़वी लौकी , दूजे चढ़ी नीम . एक तो शिक्षा का स्तर माशा अल्लाह , उपर से यह कानून . खुदा ही जाने क्या होने वाला है ?.
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हमारे नीति नियन्ताओं के मन में क्या है?.
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कहीं ये तो नहीं कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले गरीब घरों के बच्चों को मजदूर बनाया जाए ?
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आठवीं कक्षा पास करने के बाद ये बच्चे जब आगे की कक्षाओं को पास नहीं कर पाएँगे तो पढ़ाई ही छोड़ देंगे. नौकरियों में अमीर घर के बच्चों से मुकाबले का तो सवाल ही नहीं पैदा होता. फिर मजदूर बनना ही इनकी नियति होगी. इस पर गहन चिंतन-मनन की आवश्यकता है .
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प्राविधान -(२). बच्चे को उनकी उम्र के अनुसार की कक्षा में सीधे प्रवेश दिया जाएगा . बाद में उनको विशेष शिक्षा देकर कक्षा के अनुरूप ज्ञान दिया जाएगा जिससे कि वे कक्षा के अन्य बच्चों के बराबर ज्ञानवान हो जाएँ .
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कहने का अर्थ यह कि यदि बच्चा 14 वर्ष का है तो उसे सीधे कक्षा 8 में प्रवेश दिया जाएगा. फिर उसको विशेष शिक्षा देकर कक्षा के अन्य बच्चों के बराबर ज्ञानवान कर दिया जाएगा.
सोचने और समझने की बात है कि जिस कक्षा 8 स्तर की शिक्षा प्राप्त करने में अन्य बच्चों ने अपने 8 वर्ष खर्च कर दिए, उतनी ही शिक्षा या ज्ञान एक वर्ष कहें तो मात्र 8 महीने (यदि सितम्बर माह में प्रवेश दिया गया हो ) या फिर 5 ही महीने ( यदि दिसम्बर माह में प्रवेश दिया गया हो ) में ही उसे किस प्रकार और कैसी विशेष शिक्षा दी जा सकती है ? समझ से परे है .
इसीलिए इस नियम /कानून की प्रासंगिकता पर ही संशय है . जो हो ही नहीं सकता (आम परिस्थिति में) . वैसा नियम/कानून बनाने से पहले गुण-दोष, सम्भावित परिणाम आदि पर गहन विचार- विमर्श की आवश्यकता थी .
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अगर कोई यह कहने की हिम्मत रखता हो कि वो ऐसा कर सकता है तो मैं उसे चुनौती देता हूँ . कि वो एक 13/14 वर्ष के अनपढ़ बच्चे को 5 माह में कक्षा 8 के स्तर की शिक्षा देकर दिखाए. ध्यान रहे कि वो बच्चा विद्यालय आए न आए , पढ़े न पढ़े उसकी मर्जी . आप उस बच्चे को बिना ज्ञान प्राप्त कराए ही सर्टीफिकेट देने को बाध्य होंगे . शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 में यह प्राविधान है कि किसी भी बच्चे को न तो फेल किया जाएगा और न ही किसी कक्षा में रोका जाएगा . ऐसी स्थिति कहाँ तक ठीक है इसका आकलन करना जरूरी है .
प्राविधान-(३). भय मुक्त , तनाव मुक्त शिक्षा , जिसमें बालक को न तो मारा , डराया , धमकाया जाएगा और यहाँ तक की डाँटा भी न जाएगा .
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आइए विचार करें कि यदि बच्चे को उसका नाम कटने का भय न रहे .
समय से विद्यालय न पहुँचने पर किसी प्रकार के दण्ड या सजा का कोई भय न हो .
विद्यालय में शरारत करने पर किसी दण्ड या सजा का भय न रहे .
किसी प्रकार की उच्श्रृंखलता या अवज्ञा करने पर किसी का कोई भय न हो .
चोरी करने पर भी किसी प्रकार के दण्ड का कोई भय न हो .
आपस में मार- पीट , गाली- गलौज करने पर कोई भय न हो किसी सजा का अर्थात कोई रोक न हो .
बदतमीजी से बात करने पर कोई रोक न रहे.
किशोरावस्था में विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण के फलस्वरूप कुछ ऊटपटांग करने पर किसी तरह का कोई भय न रहे.
अनुशासन तोड़ने पर भी कोई भय न हो.
ऐसी अनेक परिस्थितियाँ हैं जिनके प्रति यदि बालकों को कोई भय न हो तो क्या होगा ?
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यदि उपरोक्त प्रकार के भय न रहें , बच्चों को बता दिया जाय, जागरूक किया जाय कि तुम जो चाहे करो तुम्हें किसी से भी डरने की जरूरत नहीं . तो क्या होगा ?. और ये बातें उनको बतानी पड़ेंगी . जब ये बातें शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 में निहित हैं तो ये बातें स्वतः उनकी जानकारी में आनी ही चाहिएँ और जब भी ऐसा होगा तो कोई भी अध्यापक उनको कुछ भी नहीं सिखा, पढ़ा सकता.
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बिना शासन के अनुशासन की कल्पना भी नहीं की जा सकती .
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और शिक्षा तो बिना अनुशासन के सम्भव ही नहीं है . विद्यालय सिर्फ किताबी ज्ञान देने का कारखाना नहीं है. विद्यालय बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ- साथ संस्कार और अनुशासन में रहना सिखाता है. विद्यालय बच्चे के दुर्गुणों को दूर कर उसकी बहुमुखी प्रतिभा का विकास करता है . उसे समाज में सलीके से रहने की कला सिखाता है . विद्यालय बच्चे को योग्य नागरिक बनने में बहुत मदद करता है . और इन सबके लिए अनुशासन जरूरी है .
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आइए विद्यालय की एक कक्षा का दृश्य बताते हैं आपको-> एक अध्यापक कक्षा के 40 बच्चों को एक कक्ष में पढ़ा रहे हैं . जैसे ही अध्यापक मुड़कर श्यामपट्ट पर कुछ लिखना शुरू करते हैं कि एक बच्चा अपने साथ के दूसरे बच्चे का सिर पास की दीवाल पर जोर से टकरा देता है जिससे कि उसका सिर फट जाता है . पढ़ाई ठप्प. अध्यापक घायल बच्चे को अस्पताल पहुँचाते हैं . घायल बच्चे के परिजन अस्पताल पहुँच जाते हैं. फिर अस्पताल से विद्यालय . अध्यापक और पूरे स्टाफ को बुरा भला कहते हैं. जिस बच्चे ने धक्का दिया था उसे विद्यालय द्वारा सजा दिए जाने की माँग करते हैं. जब अध्यापकों द्वारा यह बताया जाता है कि बच्चों को न मारने का कानून है वे उसे कोई सजा नहीं दे सकते. बात तब और बिगड़ जाती है. वे खुद ही उस बच्चे को मारना- पीटना चाहते हैं. अध्यापक उस बच्चे को घर भगा देते हैं. जिससे कि वो उनकी मार से बच जाए.किसी तरह विद्यालय में मामला शान्त होता है. किन्तु दोनों के घरवालों में शाम को जमकर मार- पीट हो जाती है. बात बहुत बढ़ जाती है.
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ध्यान से देखेंगे तो इतना सब हुआ इस नामुराद कानून की वजह से. अगर धक्का देने वाले बच्चे को विद्यालय प्रशासन कुछ बाल सुलभ सजा दे देता तो बात सम्भल जाती.
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अब आगे --> आपमें से तो बहुतों को शायद यह मालूम भी न हो कि जो पढ़ाता नहीं वो ही बच्चों को मारता भी नहीं . जो पढ़ाता है वही मारता है . उसके भय से बच्चे पढ़ते हैं . आगे चलकर वही बच्चे बड़े-बड़े पदों पर वैज्ञानिक,इंजीनियर आदि बन जाते हैं . आप लीजिएगा तो सौ में नब्बे लोगों के विचार यही होंगे कि अपने गुरू जी के दण्ड के भय से उन्होंने अपनी कई बुराइयाँ त्याग दिया. और आज वे इस उच्च पद पर आसीन हैं तो सिर्फ गुरूजी की सजा से बचने के लिए या दण्ड के भय से वे अपनी बुराइयाँ त्याग कर आज यहाँ तक पहुँचे हैं . *************************************
अब विचार करते हैं कि आखिर ऐसा कानून बनने की वजह क्या है?
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आपने समाचार पत्रों आदि में पढ़ा होगा कि कुछ एक अध्यापकों द्वारा कहीं- कहीं बच्चों को सजा के रूप में अमानवीय यातनाएँ दी गयीं. जिनसे बच्चों को बचाने के लिए इस तरह का कानून अस्तित्व में आया.
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यह तो ऐसा हुआ कि अगर अस्पताल में मरीज मर जाए तो अस्पताल बन्द कर दिया जाय या मरीज को अस्पताल में ही दाखिल न कराया जाय अथवा डाक्टरों पर ही इलाज करने की पाबन्दी लगा दी जाय.
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जहाँ समस्या हो इलाज वहाँ करना जरूरी है. किन्तु बिना रोग के दवा देना तो स्वस्थ आदमी को बीमार बनाने जैसा है.
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मैं ये नहीं कहता कि बच्चों में भय इतनी हो कि वे विद्यालय ही न आएँ. उसकी एक सीमा निर्धारित अवश्य होनी चाहिए कि भय किस स्तर तक इनको दिया जाय जिससे कि वे अपनी शिक्षा सुचारु रूप से और सहर्ष पूर्ण कर सकें. कहा भी गया है कि अति हर चीज की बुरी होती है .
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नियम/ कानून बनाने वालों से निवेदन है कि वे धरातल पर उतरकर देखें या मैं उन्हीं से पूछता हूँ कि वे ही बताएँ कि अगर वे आज वहाँ तक पहुँच सके जहाँ कि वे कानून बनाने के लायक हो सके तो क्या वे बिना भय के पहुँचे ?. यदि उनके दिल में माता- पिता, ईश्वर, गुरु, दोस्त- मित्र, समाज आदि का भय न होता, अपने सम्मान की चिन्ता न होती तो क्या वो वहाँ तक पहुँच सकते थे ?. कदापि नहीं .
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तानाशाही राज्य में भय की अति है किन्तु लोकतंत्रात्मक प्रणाली से शासित देश या राज्य में भय है किन्तु भय की अति नहीं . इसीलिए तानाशाही से लोकतंत्रात्मक प्रणाली को बेहतर माना जाता है . किन्तु यदि लोक तंत्रात्मक प्रणाली से भी भय पूर्णतः दूर कर दिया जाय तो जंगल राज हो जाएगा और फिर उस देश या राज्य का भगवान भी कुछ नहीं कर सकता .
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इसलिए मेरे विचार से भय तो आवश्यक है किन्तु उसकी अति नहीं होनी चाहिए . भय की एक सीमा रेखांकित होनी चाहिए कि दण्ड या भय कहाँ तक दिया जा सकता है और कहाँ से उन बच्चों की स्वतंत्रता का हनन होता है . कहा गया है कि आप स्वतंत्र हैं इसका यह मतलब तो कत्तई नहीं है कि आप जो चाहें कर सकते हैं. जहाँ से दूसरे की स्वतंत्रता शुरू होती है वहीं पर आकर आपकी स्वतंत्रता खत्म हो जाती है . इस बात का ध्यान तो रखना ही पड़ता है . इसलिए हर चीज की एक सीमा तो होनी ही चाहिए. अब इतना भी न हो कि गलती करने पर बच्चों को डाँटा भी न जाय. ऐसे कानून से किसका भला होगा ?.
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मिलन चौरसिया 'मिलन'
bilkul sahi baat uthai hai,aapne ,badhai ke patra hai .ha, ek copy kapil sibbal ke pass bhi bhej de
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक लेख
जवाब देंहटाएंonkar Ji aabhar.
जवाब देंहटाएंआदरणीय, ओंकार जी सादर आभार.
जवाब देंहटाएंशिक्षा का अधिकार २००९ ,वास्तव में जहां एक ओर सरकारी स्कूल के बच्चों को अपराध की दुनियां में धकेलने का षड्यंत्रकारी दस्तावेज है , वहीं सरकारी शिक्षा- अधिकारीयों के लिए रिश्वत - खोरी के नये एवं स्थाई साधन सृजित करने का कानूनी प्रावधान है क्योकि किसी भी पुब्लिक स्कूल में इस नियम के अनुसार व्यवस्था नही की गयी , फल - सवरूप सरकारी शिक्षा- अधिकारी इस कानून के बल पर जम कर चाँदी कट रहे हैं ........... सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा ..साहिबाबाद
जवाब देंहटाएंसुरेन्द्र जी,
हटाएंआपने संभवतः वस्तुस्थिति की ओर इंगित किया है. अच्छा होगा यदि आप इस संबंध में एक विस्तृत आलेख तैयार करें और हमें भेजें तो उसे प्रकाशित कर हमें खुशी होगी और तथ्य भी देश के सामने आएगा.