" ... एक साहित्यिक कार्यक्रम में मुझे अध्यक्षता / मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मं...
" ... एक साहित्यिक कार्यक्रम में मुझे अध्यक्षता / मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मंच पर नहीं बैठे थे। उन्होंने बात-चीत शुरू कर दी- तो आप ही सहगल साहब हैं। आप को लिखने का शौक कब शुरू हुआ। न जाने मुझे क्या हुआ। मैं चिढ़ गया। बोला क्या यह शौक है ? उन्होंने जवाब में वही कहा-हां शौक ही तो होता है। अब की बार मैंने सहज होकर पूछा- क्या आप शौकिया सांस लेते हैं। शौकिया खांसते हैं। शौकिया गुस्सा होते है। अगर ‘हां‘ तब में भी शौकिया लिखता हूं, वरना लेखन मेरे जीवन का अंग है। कई लोग मुझ से पूछते हैं कि आपने लिखना कब से शुरू किया ? तो मेरा उत्त्ार होता है- जब दो साल का था तभी से लिख रहा हूं।..." -- इसी संस्मरण से
डगर डगर पर मगर
(आत्मकथा)
हरदर्शन सहगल
भाग 1 से जारी...
भाग 2
उन्होंने शाबाशी दो-अच्छा जो जो बातें तुम करते हो या आस-पास देखते हो, उनके बारे में कभी लिखा भी है।
- हां, कुछ न कुछ तो लिख ही रखा है।
- तो कल लेकर आना।
दूसरे रोज़ मैं कुछ ऊटपटांग, अपना लिखा, लेखाजोखा अपनी सोच के साधारण कागज़ उनके कार्यालय में लेकर पहुंच गया। सिलसिला वही था। कॉलेज से घर, आती बार रास्ते में रूकना। माताजी को बता दिया था कि मैं कुछ देरी से आया करूंगा।
कॉलेज में प्रवेश पाते ही मैं टाई बांधने लगा था। बनठन कर रहना आज तक मेरी आदत में शुमार है। बूढ़ा क्यों लगूं ? वे दानों मनोवैज्ञानिक, बारी बारी से मेरे दिये, कागज़ों को गम्भीरतापूर्वक पढ़ते। फिर चहक उठते-अरे वाह इनमें तो जीवन की फिलासफी भरी पड़ी है।
मैंने अपने एक लेख को कहानी की तरह प्रस्तुत किया था। कि जो जो चीज़ कलाइमेक्स (चरम या उत्कर्ष) पर पहुंचती है उसमें गिरावट आनी शुरू हो जाती है। एक आम जब भरपूर रसमय हो जाता है, तोड़ लिया जाता है। एक नव यौवना, नवयौवना नहीं बनी रह सकतीं। आम पर भी अत्याचार होता है। नव यौवना को भी कौन छोड़ता है। आम की तरह उसका भी रस पीने को युवक लालायित रहते हैं। दोनों दया की भीख मांगते हैं।
- कमाल कर दी भाई। कुछ और ?
- कल लाऊंगा। एक अधूरा पड़ा लेख जिसमें जीवन की निरर्थकता भरी पड़ी थी, को पूरा किया और ले गया।
- ठीक है। तुम कहानी लिखोगे ?
- कोशिश करूंगा।
- हम विषय देते हैं। नहीं नहीं विषय नहीं, सिर्फ शीर्षक। कागज़ पर अंग्रेजी में लिखकर एक पर्चा थमा दिया - ए बर्ड विच वाज काट एंड सोल्ड। (एक प्क्षी जो पकड़ा गया और बेच दिया गया।)
मैंने ग़ौर किया यह शीर्षक कहां था। यह तो वह वाक्य था जो पूरे वृतांत की मांग करता था। मैंने रात भर बैठ कर कहानी लिख डाली, जिसका शीर्षक ठीक से याद नहीं आ रहा। पर बहुत बहुत सालों बाद, जब मुझे छपने की धुन सवार हुई तो वह बीकानेर आकर 'अनाड़ी निर्णायक‘ शीर्षक से 'लहर‘ पत्रिका अजमेर को भेज दी। कहानी लौट आई परन्तु अकेली नहीं। साथ में फुलस्केप से दो पेपर। यह मनमोहिनी जी का पत्र था। इसमें लिखा था-प्रिय बहन। (मैं कमला को 'कल्पना‘ के नाम से बुलाया करता था। सो मैंने अपना लेखकीय नाम 'कल्पना दर्शन‘ लिख दिया था। कल्पना से फिर वापस कैसे कमला हुई इसका जिक्र मैं बहुत पहले चमत्कारों वाले भाग में कर ही चुका हूं।)
मनमोहिनी जी ने लिखा था। इतने उच्च कोटि के विचार और दर्शन। और भाषा एकदम लचर। तुम्हें अपनी भाषा में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। सचमुच इस पत्र ने मेरी आंखें ही खोल दीं। मैं दिन रात एक करके अपनी भाषा-परिष्कार में लग गया। आज तक भी इसी में लगा हुआ हूं।
मेरी कुछ कहानी उन्होंने अपने शब्दों में लिख भेजी थी कि कहानी का आरम्भ ऐसे होना चाहिए। और आगे․․․․․․। सोचता हूं कि क्या आज के संपादक ऐसा कर सकते हैं। हो सकता है महिलाओं की कहानियों पर इतनी मेहनत करते हों।
बाल कटी लेडी का तस्सुवर कर वैसे ही छाप देते हों। या सिर्फ भगवान कसम मैं कुछ भी नहीं जानता। जब जानता ही नहीं तो कह कैसे सकता हूं ?
बात चल निकली तो थोड़ा कहानी के बारे में सुन लीजिए। सुनसान सड़क के किनारे लगे पेड़ पर एक तोता चहचहा रहा है। शायद अपनी प्रेमिका को बुला रहा है। तभी वह बहेलिये की गुलेल का शिकार होकर ज़मीन पर गिर पड़ता है। कहानी नायक बहेलिए को न्याय का पाठ पढ़ाकर उस तोते को छोड़ देने की बिनती करता है। बहेलिया उत्त्ार देता है-यदि तुम इस पक्षी पर न्याय करोगे तो मेरे साथ अन्याय हो जाएगा। मेरी रोज़ी रोटी इन्हें बेचकर ही चलती है।
यहीं से मेरे अन्दर व्यक्तिवाद समष्टिवाद सिद्धांत की पकड़ शुरू हो गई। फिर यह भी पढ़ा ''इन्डयूविज़्युल इन्ट्रेस मस्ट बी सैक्रीफाइजड फार दी लार्जर इन्ट्रैस्ट। बाद में इन विषय पर कई कहानियों ने जन्म लिया। वह वाली 'अनाणी निर्णायक‘ जाह्नवी पत्रिका में भेज दी। वहां फौरन छप भी गई। 12 रूपए पारिश्रमिक भी मिला था।
असली बात पर लौटें। कहानी पढ़कर दोनों ही ने एक दूसरे से जैसे बाज़ी मार ले जाने वाली, मेरी प्रशंसा करते रहे-अरे यह लड़का तो देखना, प्रेमचंद को भी मात कर जाएगा।
मैं बिल्कुल नादान नहीं था। खूब समझता था कि कहां प्रेमचंद और कहां मैं ? यह सिर्फ मुझे प्रोत्साहित करने के लिए मेरे गुणगान कर रहे हैं। उन्होंने बाद में भी मुझसे कुछ और लिखवाया। बातें कीं। और पूरी रिपोर्ट लिखकर अपने चीफ साहब के सामने प्रस्तुत कर दी।
उससे अगले रोज मुझे चीफ साहब के केबिन में भेज दिया। वे सज्जन निहायत संजीदा किस्म के महानुभाव थे जैसे मेरे साथ किसी मास्टर की तरह ट्रीट (व्यवहार) करने लगे। ये बताओ। अच्छा यह बताओ। यह देखो। इस चित्र-आकृति में क्या क्या दिखाई देता है। यह यह वह वह। करीब एक घंटे का इंट्रव्यू ले डाला। परसों आना।
ठीक तिथि काे जा हाजि़र हुआ। उन्होंने मुझे टाइप किया हुआ अंग्रेजी में लिखा पेपर थमा दिया। - यह लो। फिर जब चाहो आ सकते हो।
रिपोर्ट निराश करने वाली थी। लिखा था ''व्यक्ति निराशावादी है। इमीडि्येट मैमारी पूयर है। कल्पना शक्ति सामान्य है।․․․․․․․‘‘ बाकी बातें से मेरा थोड़ा बहुत इतेफाक हो सकता था किन्तु कल्पना शक्ति के सामान्य होने की बात कैसे मान लेता। बचपन से ही ऊंची ऊंची उड़ाने भर कर दूसर दूसरे देशों परलोक तक की सैर कर आता था।
फिर बिदाई लेने के लिए महरोत्रा साहब के कमरे में चला गया। उन्होंने मुझे तसल्ली दी-ऐसी लैंग्युएज तो लिख दी जाती है।․․․․․․․․ हां अगर साफ पूछो तो लिखना ही तुम्हारा इलाज है।
जैसे कि पहले कह आया हूं; लिखना ऊट पटांग ही सही, पहले से ही मेरी आदतों में शुमार था ही। फिर तो और लिखते लिखते कागज़ों के पुलिन्दे बनने लगे। यह पुलिंदे बीकानेर तक मेरे साथ रहे। उनमें से ज्यादातर कागजात को हलाक कर डाला। कुछ को वापस लिखकर कहानियां छपवा दीं।
बाज़ोकात सोच यह भी आती है कि क्या मैंने अपना इलाज करवाने के लिए पाठकों की भीड़ को जमा कर रखा है।
उस वाली रिपोर्ट को, ठीक इन्हीं कुछ दिन पहले, फाड़कर रद्दी में डाल दिया। अगर फन्ने खां होती तो दोस्तों के बीच हेकड़ी मारते हुए एक आला सर्टिफीकेट की मानिंद पेश करता। सच कहूं तो मेरी बहुत पुरानी आलतू-फालतू चीजों और कागजों को जमा करने की आदत हैं। कई बार यह फालतू लगने वाली चीजें और खास तौर से खतों और दस्तावेज भी किसी मौके पर बड़े काम की चीज बन जाती हैं। बस चंद चीजें। सभी तो नहीं। क्या बोझा उठाए फिरता हूं। कभी कभार कुछ लेखक दूर के प्रोफेसर्ज पुरानी पुरानी पत्रिकाओं की खोज में, मेरे यहां चले आते हैं। क्या इन्हीं के लिए अब तक इतना बोझा ढोता फिर रहा था। हां जब जब मुझे किसी चीज की जरूरत आन पड़ी, यहां तक कि घर वाले भी काम न आए।
इन्हीं दिनों मधुरेश जी से बरेली कॉलिज के विषय में उनके आलेख की प्रति मंगवाई। यह आलेख 'निर्झणी पत्रिका‘ (संपादक हरिशंकर सक्सेना) बहुत पहले छपा था। उन्होंने वह न भेजकर 'दो आबा‘ पटना (सं․ जाबिर हुसैन) वाला, बहुत बड़ा लेख 'उड़ान दर उड़ान‘ कृपा कर के भिजवा दिया। बेशक यह अधिक विस्तार लिये है। लेकिन इसमें वह 'निर्झणी‘ वाली बात नहीं मिली। इसमें लगता है कुछ ब्योरे नदारत हैं। फालतू का लंबा ब्यौरा अधिक है। बरेली कॉलेज कम। प्रेम प्रसंग दोस्त अधिक हैं। खैर उनका आभारी हूं।
दूसरा लंबा सात पृष्ठों वाला उर्दू में लिखा खत मेरे बड़े भाई साहब का गाजियाबाद से आया है। उन्होंने विभाजन/विस्थापन के दर्द को उसमें उकेरा है। यह लिखते हुए कि क्यों तुम ने यह मांग मेरे सामने कर दी और मैंने भी धीरे से हामी भर डाली। सारे पुराने जख्म फिर से हरे कर दिए तुमने। ऐसा लगता है, आज किसी ने फिर दुखती रगों को छेड़ दिया। न चाहते हुए भी लिख रहा हूं। लिखते लिखते आंखों में आंसू आ जाते हैं और रोने को जी करता है। खास तौर से उन हालात पर जब बेबसी के आलम में कोई चुप कराने वाला न हो और रूलाई के बोझ तले आप जिंदा रहने के लिए मजबूर हों। यह सोचता था कि अगर मैं मर गया तो उनका (मां बहन दो भाइयों) क्या होगा जो मेरे सहारे चल रहे हैं। जो कुछ बातें मुझ से लिखने से छूट गईं। भाई साहब मनोहर लाल सहगल के हवाले से बहुत संक्षेप में यही लिखे डालता हूं। (वैसे उनके अपने ऊपर लिखे, जीवन प्रसंग भी उस समय का रोचक संघर्ष पूर्ण इतिहास बयान करते हैं परन्तु उन सब को लिखना, कृति का अतिक्रमण लग सकता है।)
मैं शोरकोट रोड रेलवे स्टेशन (मुलतान डिवीजन) स्टेशन पर स्टेशन मास्टर ग्रेड में तैनात था। 1․12․1945 को इंडिपैंडैट चार्ज संभाला था। 14/15/08/45 की तारीख को स्वतंत्र हिन्दुस्तान पाकिस्तान वजूद में आए। या यूं कहिए कि हमारी (आम आदमी की) तकदीर चरमरा गई।
वह दिन आज भी नहीं भुला सका, जब मुझे वालदा साहिबा का टेलिग्राफ पर संदेश मिला कि खतरा बढ़ गया है। हमें यहां से ले जाओ। मैंने आव देखा न ताव। फौरन लाहौर जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। तीन चार स्टेशन तक तो इक्का दुक्का मुसाफिर थे। फिर कोई सवारी न गाड़ी में, न किसी स्टेशन पर। या तो रेलवे ड्राइवर। या गार्ड। या फिर मैं। रात भर थर्ड क्लास डिब्बा के पारवाना में बैठकर काटी। सुबह पांच बजे शेखुपुरा उतरा। कोई मुसाफिर यहां तक कि रेलवे स्टाफ नदारद। स्टेशन मास्टर के दफ़्तर से मालूम हुआ कि रात भर क्रफ्यू रहा है, जो छह बजे तक रहेगा। मुझे किसी हालत में इससे पहले घर नहीं जाना चाहिए। चूंकि वापसी गाड़ी करीबन नौ बजे की थी। इसलिए छह बजते ही शहर की तरफ भागा। वालदा हैरान थी। जैसे तैसे जो भी तैयारी कर सके किसी को भी बगैर दुआ सलाम किए रवाना हो गए। मेरे साथ वालदा के अलावा नई शादीशुदा बहन, कृष्णा कुमारी, अंदाजन उम्र अठारह साल; भाई बहुत छोटे हरदर्शन, बृजमोहन थे। रास्ते में कई लोगों ने लानत मलामत की कि वक्त की नजाकत को नहीं देखते। चल देते हैं। शाम को अंधेरे में खाली गाड़ी से हम लोग शोरकोट रोड पहुंचे। सनाटा था। क्वार्टर में सभी को छोड़ ड्यूटी पर गया। रात भर दफ़्तर से घर और घर से दफ़्तर के चक्कर काटता रहा। दूसरा दिन भी काटा मगर हालात वहां भी बदतर रहे। शहर की तरफ से अल्लाह ओ अकबर के नारे सुनाई देते रहे।
आगे का काफी वृतांत मैं लिख आया हूं। बाकी यह बात भाई साहब से और मालूम हुई कि हमारी गाड़ी लायलपुर से जब अमृतसर (बहुत रूक रूक कर पहुंची थी) पहुंची तो सारे रास्ते इनसानों की सड़ी हुई लाशें दिखाई देती रही थीं। अमृतसर प्लेटफार्म को खुले आम टायलेट की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था․․․।
बी․ बी․ एंड․ सी․ आई․ आर․ (रेलवे का उल्लेख मैं पहले कर आया हूं जहां पहले पहल भाई साहब को रि-अपावंइटमेंट चर्चगेट मोम्बे में मिला था। कुछ सतरें मैं यहां सिर्फ रेलवेज़ के इतिहास जानने के इच्छुक चंद पाठकों के लिए ही लिख रहा हूं।
बरेली में ब्रॉडगेज में ई आई आर (ईस्ट इंडियन रेले) में पिताजी की ड्टीई के पद पर दुबारा नौकरी लगी थी। बरेली में मीटरगेज रेलवे भी थी, जिसका नाम ओ․टी․आर․ था। भाई साहब बाद में अजमेर डिवीजन में आकर भिवानी (जिला-हिसार) में चले गए थे। को कच टू थ रेलवे। नार्दन रेलवे का नाम ई पी आर हो गया। बी․ बी․ एंड․ सी․ आई․ आर․ से वैस्टर्न रेलवे। छोडि़ए अजीब झमेला है। इससे शहरों, रेलवे के नाम निरंतर बदलते रहने से हम जगहों के सही इतिहास-पहचान से वंचित रह जाते हैं। बीकानेर में ही देखिए, जिस नार्दन रेलवे में मैंने तमाम उम्र काम किया; वहीं बीकानेर एन डब्लू आर में बदल गया है।
यह सब क्योंकर होता है। बड़े दिमाग रखने वाले ही जाने। जनसंख्या बढ़ जाने के नाम पर छोटे छोटे सूबे बन जाते हैं। रेलवेज भी छोटी अलग अलग तरह की बन जाती हैं। कुछ शक्तिशाली नागरिक भी अपनी 'खास पहचान‘ की दुहाई देकर शहरों के नाम पलटवा देने में कामयाब हो जाते हैं। हां सिर्फ गुलामी के प्रतीक नामों से परहेज, तो समझ में आता है। बाकी सब कुछ बिना खास वजह नए नामों से बाद की पीढि़यां काफी भ्रमित हो सकती हैं।
मेरे प्रो․ साहब डॉ․ रामेश्वर दयालु अग्रवाल तो इन सर नेमज के भी पक्ष में नहीं थ्ो। कहते थे। इनसे हम जातियों, छोटी छोटी उपजातियों में पड़कर विभाजित राष्ट्र के नागरिक बन जाते हैं। हम अपनी खास पहचान के चलते एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य से दूरियां भी बढ़ती हैं।
कॉलेज की याद आज भी मन में बसी खुशबू की तरह तरोताजा है। मन-स्मृतियां किसी छूटे हुए घोंसले में लंबी उड़ान भर कर तेजी से पहुंच जाना चाहता है। क्या तो प्रोफेसर्ज थे। एक से बढ़कर एक; अपने विषय में परांगत। इन्हें किताबें की किताबें जबानी रटी पड़ी थीं। कोटेशन्स व्याख्याएं ऐसी जो किसी श्रेष्ठ कविता की भांति हृदय में हिलोरें भरती थीं। उदाहरण ऐसे साधारण, जो हमारी हर रोज़ की व्यावहारिक जिंदगी को अभिव्यंजित करते रहते। ऐसे बहुत से उदाहरण मुझे आज भी याद हैं। भूलने का प्रश्न ही नहीं। अर्थशास्त्र मेरा प्रिय विषय बन गया। जब जब बाजार कुछ खरीदने जाता हूं। सब पढ़ा हुआ याद आ जाता है। क्या पढ़ाने वाले हमारे मन पर सोने की लकीरे खींच देते थे। माल्थस थ्योरी आफ पापुलेशन। गे्रंश्यिअस ला; घटिया सिक्का, अच्छे सिक्कों को प्रचलन-बाहर कर देता है। (यही हाल शातिर नेताओं का भी बताते) कन्ज़यूमर सरपलस थ्योरी। डिमांड एंड स्पलाई थ्योरी आदि आदि।
पहले शायद कोई सक्सैना साहब पढ़ाते थे। बाद में हजेला साहब आए। वे हम छात्रों से हमेशा याराना अंदाज से पेश आते। हजेला साहब खूबसूरत नौजवान आकर्ष व्यक्तित्व के धनी थे। खुलकर बात करते। कहते-तुम्हारी साइकिल पर बैठकर भी कॉलेज आ सकता हूं। पर देखने वाले कहेंगे-प्रो․साहब डंडे पर बैठकर जा रहे थे․․․․․․। कभी भी मेरे घर में चले आओ। जो पूछना हो, बता दूंगा। मगर ट्यूशन करके बंध नहीं सकता। पर करूं क्या, कुछ लड़के घर पर आ कर इतने ज्यादा ही घुलमिल जाते हैं कि पूछ बैठते हैं-प्रो․ साहब पत्त्ाी (ब्लेड) है। वे मेरे घर पर शेव भी करना चाहते हैं। भई ऐसा मत किया करो।
इसके बावजूद क्लास में, अनुशासन के मुआमले में निहायत सख्त थे। कोई भी लड़का किसी भी प्रकार की गड़बड़ करने की हमाकत नहीं बरत सकता था।
एक बार दो लड़कों के बीच उन्होंने कुछ खुसर-फुसुर सुनी। उस समय वे हमें 'डिमनिशिंग लॉ‘ पढ़ा रहे थे। इस खुसर फुसुर से वे बाधित हुए। उनकी जबान की तरंग ने दूसरा रूख पकड़ा। सख्ती से कहा-कौन है। क्या बात है।
पीछे दूर बैठे हुए एक छात्र ने थोड़ी हिम्मत दिखाई। वह मुस्करा रहा था।
- बोलो।
वह खड़े होकर साथ के लड़के की तरफ इशारा करते हुए बोला-प्रो․ साहब यह पूछता है कि क्या लव पर भी यह डिमनिशिंग थ्योरी लागू होती है।
हजेला साहब ने पहले उसे धूरा तो वह ज़रा सहम कर अपनी सीट पर बैठ गया। प्रो․ हजेला के होंठों पर मुस्कराहट तैर गई। थोड़ा मुंह बनाकर उसकी नकल उतारी- यह पूछता है। अरे तुम अपना नाम क्यों छिपाते हो। सीधे से कहो ना, मैं पूछता हूं। तुम लोग जवान हो रहे हो। पूछना तुम्हारा हक है, क्योंकि तुम लोगों में जिज्ञासाएं स्वाभाविक रूप से पैदा हो रही हैं। हां तो बताता हूं। उन्होंने उस दिन वाला चैप्टर छोड़ दिया। और पूरा पीरियड लव पर ही बोलते चले गए। कैसे लव होता है। कैसे कैसे बीच में खट्टे मीठे पड़ाव आते हैं। किसी भी चीज़ का चाहे वह लव ही क्यों न हो, का जब क्लाइमेक्स आता है, इस पर भी डिमनिंशिंग थ्योरी लागू होने लगती है। पर तुम लोगों को इसमें घबराने की कोई ज़रूरत नहीं। उसे बनाए बचाए रखना तुम्हारी निपुणता और दूरदर्शिता पर निर्भर करता है। इसमें थोड़ी चालाकी भी काम आती है। सास बहू के झगड़े हमारे घरों में होते रहते हैं। दोनों लड़के पर आधिपत्य जमाती हैं। ज्वाला अधिक भड़कने लगती हैं। तुम चालाकी से अपनी वाइफ को अपने कमरे में ले जाओ। उसके कंधे पर मुलायमियत से हाथ रखो। स्वर में नरमाहट लाकर कहो-डीयर डार्लिंग आई एम ओनली योअर्स। देखना वह एक क्षण में पिघल जाएगी मुस्करा देगी। समझो लव का ह्रास होने से बच गया।
इसी तरह मां को भी अलग से जाकर कहो-प्यारी मां मैं तो तुम्हारा श्रवण कुमार बेटा हूं। बहू, तुम्हारी भी बहुत इज़्ज़त करती है। आपके गुणगान गाते नहीं थकती। फिर भी अभी छोटी नादान हैं। आप उसकी भावनाओं को नहीं समझेंगी तो और कौन समझेगा। उसे मेरे साथ घूमने जाने पर न टोकें तो वह भी खुश आप भी खुश। - और सब से ज्यादा तू खुश। मां भी हंस देंगी। डिमनियशन (ह्रास) की सारी बाधाएं छू मंत्र हो जाएंगी।
इसी प्रकार के और और उदाहरण दे देकर सबजेक्ट को रोचक ही नहीं उत्कृष्ट भी बनाकर अपना सिक्का मनवा लिया।
कई वर्षों बाद मुझे किसी बरेली के ही स्टूडेंट से मालूम हुआ था कि हजेला साहब को किसी कर्नल ने गाली मार दी थी। उनकी बेटी के साथ उनका कोई चक्कर चल रहा था। यह उड़ती खबर झूठ ही हो। मेरा दिल अब तक यही मानता है। ओह वह तो हमारे बहुत अच्छे चहेते प्रोफेसर थे। इसकी पुष्टि में चाहूं तो और किसी माध्यम से कर सकता हूं। पर नहीं करता। उन्हें मैं हमेशा जिंदा देखना चाहता हूं।
एक और दुःखद सी घटना से हम छात्र गुजरे थे। हजेला साहब ने हमें पढ़ाना छोड़ दिया था। उनकी जगह बिल्कुल नया सांवला पतला हमारे बराबर लगने वाले लड़के को, हमारा पीिरयड, लेने का नियुक्त कर दिया गया था। हमें वह जरा भी न भाता। कहां हजेला साहब और कहां यह मरियल सा छोकरा।
उसके क्लास रूम में प्रवेश करते ही हम उसे बुरी तरह से हूट करना शुरू कर देते। वह मुश्किल से किसी तरह आधी अधूरी अटैंड्स मार्क कर के बेबसी से मुंह लटकाए वापस चला जाता।
तीसरे चौथे दिन उसके साथ हमने हजेला साहब को देखा। उनके चेहरे पर पूरा रोब, साथ ही गुस्सा झलक रहा था। पूरा क्लास रूम स्तब्ध था। एक मिनट बाद बोले- शर्म आनी चाहिए। जब पैसा कमाओगे तो होश आ जाएगा। बाप की कमाई को बरबाद करते हो। एक एक पीरियड बहुत कीमती होता है। तुम्हारा क्या है। फेल हो जाओगे। बाप उसी क्लास का फिर से पैसा भरेंगे। ज़रा रूककर बोले-यह नए प्रोफेसर साहब मुझसे कहीं ज्यादा काबिल हैं। शुरू कीजिए प्रो․ साहब! उन्होंने साथ खड़े उसी छोकरे से लगने वाले प्रो․ की तरफ देखा-मैं यहीं आपके साथ खड़ा हूं।
उन नए प्रो․साहब ने लैक्चर शुरू किया। जैसे क्लास में संगीत की धुनें गूंज उठीं। हम सब छात्र मंत्रमुग्ध हो गए। ओह इनमें तो ज्ञान का समुद्र समाया हुआ है। पलक झपकते ही पीरियड के बाकी बचे 40 मिनट गुजर गए। हजेला साहब ने हमारी तरफ देखा। हमारी गर्दनें झुकी हुई थीं।
इसके बाद कभी क्लास में कोई हंगामा नहीं हुआ। बल्कि हम लोग बड़ी बेताबी से उन प्रो․साहब (नाम भूल रहा हूं) प्रतीक्षा करते।
हां कॉलेज में एक बहुत बड़े कदबुत के कुछ मोटे और लंबे अर्थशास्त्र के प्रो․नवल किशोर शर्मा भी हमें पढ़ाते थे। पढ़ाते नहीं थे। क्लास लेते थे। क्लास नहीं भी लेते थे। ज़्यादातर पूरे सात आठ मिनट लगाकर हाजि़री लगाते थे-बताऊं हाजिरी कैसे लेते थे। सुनकर मज़ा आ जाएगा। तो बानगी देख्ें ः- मि․काशीराम। हें नहीं आया। चलो कोई बात नहीं। मि․नरिन्दर सिंह। येस सर। अच्छा आप हैं। पंजाबी लगते हैं। पंजाबी कौम बहुत बहादुर कौम है। (ज़रा सुस्ता कर) मि․ मुंशीराम। हें यह आज भी नहीं आया। बेचारा आदत से मजबूर है। चलो इसे कोई खुदा भी नहीं सुधार सकता। नैक्स्ट मिस प्रतिभा देवी। येस सर। हें येस सर। मरी क्यों जा रही हो। इतनी धीमी आवाज़․․․․․․। सुनाई नहीं देगी तो मैं एब्सेंट लगा दूंगा। मिस स्वतंत्र श्रीवास्त। हें तुम भी क्या इसकी सहेली हो। आखिर कॉलेज में पढ़ती हो। आवाज़ तो कम से कम दबंग होनी चाहिए। हैं कि नहीं ? यस सर। हां ऐसे शाबाश। येस सर। हां तुम रेगुलर स्टूडेंट हाे। देखो जो लड़के पीछे की कतार में बैठे हैं ना; वे ये सर कहकर खिसक जाएंगे। एकाध दोस्तों की प्रोक्सी भी बोल जाएंगे। हां तो नैक्स्ट मि․ प्राणनाथ․․․․․ येस सर․․․․․क्या। प्राण (एक्टर) तुम्हारा कुछ लगता है ? तुम वैसे तो नहीं बनोगे ना ? इस तरह सात आठ मिनट लगाकर, उबासी लेते हुए कहते-अब आप लोग जा सकते हैं।
हम लोग खुशी खुशी हल्ला मचाते हुए क्लास रूप से से छूट निकलते। ग्राउंड के लंबे चौड़े हरी घास वाले मैदान में जा बैठते। सर्दियों के मौसम में खुली धूप के साथ मूंगफली का भी आनंद लेते। मोंगफली वाला भाई, हरा नमक भी साथ देता जो वह धनिया पौदीना के मिश्रण से तैयार करता था। फिर आगामी जीवन में कभी ऐसा हरा नमक नहीं मिला। हां जब तब याद आती है तो खुद सिल बेट्टे पर तैयार कर लेता हूं।
हां तो हमारे प्यारे प्रो․ नवल किशोर शर्मा। कभी कभी पढ़ा भी देते थे। उनकी निगाहें हर स्टूडेंट के चेहरे का मुआयना भी करती रहतीं। अगर कोई लड़का मुंह खोलकर उबासी ले रहा होता तो निशाना सांध कर उसके मुंह में चाक दे मारते। उसके मुंह में चाक जा पाती या न। यह मुकद्दर की बात है। जो शायद ही पूरी तरह फलीभूत होता।
कॉलेज टाइमिंग्ज हर मौसम में सुबह सात से रात के सात आठ बजे तक चलतीं। शाम रात वाली कक्षाएं तो लॉ वालों की ही होती थीं। मगर हमारी, तथा प्रोफेसरों की कक्षाओं में बहुत बहुत से खाली पीरियड हुआ करते। हम कॉलेज से बाहर बाजार तक का भी चक्कर काट आते। कभी हम में से किसी को सड़क पर प्रो․ नवल किशोर मिल जाते। कुछ सैकेंडस के लिए साइकिल रोक कर शुभ सूचना देते-लड़कों से कह देना आज मैं क्लास नहीं लूंगा।
कॉलेज में एक नियम यह भी था कि पांच मिनट तक अपने प्रो․ साहब का वेट करो। अगर वे नहीं आते तो तुम जा सकते हो। हम अपनी अपनी घड़ी देखते रहते या एक दूसरे से टाइम पूछते रहते। मन में मनाते रहते। जल्दी जल्दी पांच मिनट गुज़र जाएं तो छुट्टी मना लें। कभी कभी कोई प्रो․ सात आठ मिनट के बाद दिखाई दे जाता- जैसे आफत दिखाई दे जाती। हम लोग साथ के कमरों में, या दीवारों के पीछे छिपने की कोशिश करने लगते। जो लड़के वास्तव में पढ़ने में रूचि रखते वे सामने पड़ जाते। प्रो․ साहब उनसे कहते-जल्दी से सबको पकड़ कर ले आओ। पढ़ाने से पहले वे हम लोगों से कहते-जब पांच मिनट हो चुके थे तब तुम लोग यहीं क्यों मंडरा रहे थे। चले ही गए होते।․․․․․․․․
लंबा चौड़ा कॉलेज कई कई छोटी बड़ी बिल्डिंगों में फैला हुआ है। कई बार हमें एक कक्षा के पीरियड में पहुंचने के लिए एक सिरे से एकदम दूसरे सिरे तक पहुंचने में ही पांच मिनट लग सकते थे। इसलिए बहुत तेज कदमों से मार्च करना पड़ता। कई छात्र तो अपनी अपनी साइकिल से ही पहुंचते। हम उन्हें अपनी कापियां पकड़ा देते, ताकि वे अगली पंक्ति पर हमारी सीट आरक्षित कर दें।
नवल किशोर जी के अलावा, मैं याद भी करूं कि और कौनसे प्रो․ कमतर थे तो याद नहीं आता।
एक जरा सी बात जरूर याद आ रही है कि बिहारी, कालिदास जैसे कुछ रोमांटिक कवियों को पढ़ाते समय प्रो․ साहब लड़कियों की ओर देखते हुए, बीच में कह देते-यू कैन गो। यानी वे चैप्टर को बहुत गहराई के साथ व्यक्त करना चाहते थे। मुझे याद आता है, बेचारी मुंह लटकाए, बाहर जा रही होतीं। क्या पता साेचती हों-हाय इतने रसमय प्रसंग को सुनने से उन्हें वंचित कर दिया गया है। क्यों ?
अंग्रेजी वाले प्रो․ ओमप्रकाश जी को शैक्सपीयर मिलटन ब्राउनिंग आदि की कविताएं कंठस्थ थीं। झूमते हुए से सुनाते पढ़ाते थे। साथ ही जिन जिन आलोचकों ने, उन पर टिप्पण्यिां की थीं, सात सात आठ आठ तक बताते और अंत में कहते कि मैं इनमें से एक से भी एग्री (सहमत) नहीं हूं। मैं यह सोचता हूं․․․․․․․․। फिर वे अपनी व्याख्या हमें सविस्तार युक्तियुक्त तरीके से बताते।
क्या भगवान ने इन्हें जादू की ज़बान बख्शी है। किस किस प्रो․ का नाम लूं। ऐसा भ्ाी देखा जाता था कि जबर्दस्त होशियार छात्र एक वर्ष एम․ए․ पास कर रहा है। अगले ही वर्ष वह प्रो․ के रूप में क्लास लेने लग गया है। वहां योग्यता मात्र की कद्र थी। डिग्रियों का महत्व नगण्य था। शायद बता आया हूं। इतनी बड़ी संख्या वाले व्याख्याताओं में मात्र दो तीन ही पी एच डी थे।
विषय पढ़ाने के दौरान वे विषय से थोड़ा हटकर हमारे आगामी व्यावहारिक जीवन को समझने का ज्ञान भी देते चलते। 'हाऊ टु बी ए ऐन एम पी‘ जैसे चैप्टर निबंध पर समझाया था कि चौराहे पर सिपाही तो एम पी को सैल्यूट लगाता है परन्तु ड्राइवर समझता है जैसे उसे ही सैल्यूट लगा रहा है। तुम लोग कभी बड़े आदमियेां के चक्कर में मत पड़ना। इसे उन्होंने उदाहरणों के साथ बताया था। ऐसा ऐसा बताते पढ़ाते थे जो अपनी अमिट छाप छोड़ गए। अब भी सब बता सकता हूं। पर विषय विस्तार हो जाएगा। 'पेपर अॉफ मुश्टैशिड्स‘ 'लिटल मैंन‘ 'होम कमिंग‘ 'फिशर मैन‘ 'काबलर‘ 'बारबर‘ 'इग्नोरेंस इज़ ब्लिस‘ हिटमैन की 'लाइट ब्रिगेड, वैली अॉफ डैथ‘। देयर्स नोट टु टेक रिपलाई। देयर्स ना टु रीजन वाई। देयर्स बट टु डू एंड डाई। एट हैंड्रडज़। एट हैंड्रेज़․․․․।
इतनी छोटी फौज, अनुशासन और इच्छाशक्ति से बहुत बड़ी फौज से विजयी हो जाती है। यही बात शिवाजी वाला इतिहास दर्शाता है।
कहां तक याद कर करके पृष्ठ रंगता जाऊं्र।
सिविक्स (राजनीति शास्त्र-या पोलिटिकल साइंस, के प्रो․ साहब मि․ साहनी (कुछ लोग उन्हें शाहनी भी कहते थे) का ज्ञान भी गज़ब का था। वैसे सारे के सारे प्रो․ खड़े खड़े ही लैक्चर दिया करते थे, पर एक (शायद साहनी साहब ही) कुर्सी को एक टांग पर खड़ा कर, अपनी हथेली से घुमाते रहते थे। एक एक कोटेशन की खूब व्याख्या करते। सच कहता हूं , हृदय पर स्थाई रूप से अंकित कर देेते। बार बार लिखना पड़ रहा है कि 'एक से बढ़कर एक, वालों‘ को ही कॉलेज में नियुक्ति मिलती होगी। यह इसलिए भी शायद, लिख रहा हूं कि आज के शिक्षण बाज़ार से भी परिचित हूं। अगर स्कूल कॉलेजों में पढ़ाने लगें तो घर पर लगी ट्यूशन क्लासों में कौन आएगा। (इसी प्रकार यदि डाक्टर अस्पताल में ठीक से देखने लगे तो उनके दरवाजे पर असमंजस में पड़े मरीज़ों की लंबी लंबी कतारें कौन देखेगा) मैं शिक्षा विभाग में नहीं हूं परन्तु लेखन क्षेत्र में होने के कारण सभी शिक्षक प्रिंसिपल, छात्र मेरे संपर्क में रहते हैं। सब लेक्चरर बनते ही लेखक भी बन जाते हैं। सब की अपनी अपनी समस्याएं हैं। फिर थोड़ा बहक गया। इतना ही काफी समझें कि मैं अपने प्रोफेसज़र् की जितनी प्रशंसा करूं कम है।
हमारे प्रिंसिपल साहब थे श्री आर के शर्मा। उनकी शक्ल प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलती थी। (वे ग्रुप फोटो ग्राफ, मेरे खज़ाने में मौजूद है) वे बहुत संजीदा चेहरे मोहरे वाले व्यक्ति थे। मैंने उन्हें कभी बोलते (भाषण देते) नहीं सुना। सुना होगा तो याद नहीं। हां प्रॉक्टर साहब मि․ टंडन थे। उनकी गर्जना, उनका अनुशासित करने वाले संतुलित स्वर साफ सुनाई देने वाले थे। एक तरह से कुछ कुछ आतंकित करने वाले। फिर भी आराम से हमारी बात, अपना सौम्य स्वरूप प्रदर्शित करते हुए सुनते भी थे। उनकी शक्ल सिने कलाकार पृथ्वीराज कपूर से काफी मेल खाती थी।
हमारे ही समय में तीन बड़ी हस्तियां हमारे कॉलेज में आई थीं। हल्दीघाटी वाले वीर रस की चर्चित कविता 'हल्दीघाटी‘ वाले श्यामनारायण पांडेय। बड़ा हाल खचाखच भरा था। ऊपर की गैलरियां भी। तिल रखने को जगह नहीं थी। फिर भी शरारती लड़कों ने लगातार हूटिंग कर कुछ भी सुनने नहीं दिया था। बारी बारी सब प्रोफेसज़र् समझाते रहे थे कि देखो इतने महान कवि हैं। पूरे हिन्दुस्तान की शान हैं। तुम्हारे कोर्स में भी पढ़ाए जाते हैं। हम लोगों का सौभाग्य है कि हम इन्हें प्रत्यक्ष देख सुन रहे हैं। उनके ऐसे ऐसे भाषण तो छात्र सुन लेते लेकिन फिर पांडेय जी के काव्य पाठ शुरू होते ही शोर मचा मचा कर गुड़ गोबर कर रहे थे। लड़के रह रह कर एक वाक्य भी चिल्लाकर बोलते जिसका अर्थ आज तक मेरी समझ में नहीं आता। बोलते-विल यू प्रोवाइड ए गंडा फोर अस। पंजाबी में गंडा प्याज को बोलते हैं। पर पता नहीं वे क्या समझ कर या यूं ही बार बार बोलते। शोरोगुल से हाल को गुंजाने में एक दूसरे को भरपूर सहयोग दे रहे थे।
दूसरी बड़ी हस्ती, खासकर हम युवाओं के दिलों पर राज करने वाली थी, वह थी, अपने ही अलग अंदाज में गाने वाले तलत महमूद साहब। साहब क्या, हमारे जैसा छोकरा ही दीखता था।
जो महोदय यूनियन-चुनाव जीत कर आए थे, उन्होंने बार बार अपने हर भाषण में हम लोगों से वायदा किया था कि अगर आप लोग मुझे जिताकर यूनियन नेता बना देते हैं तो मैं ज़रूर ज़रूर किसी बड़ी फिल्मी हस्ती को बुलवा कर कॉलेज का नाम रोशन करूंगा। सचमुच आज उसने अपना वायदा प्रत्यक्ष कर दिखाया था। जबकि उसके सामने खड़े होने वाला पतला-दुबला सांवला पढ़ाकू सिद्धांतवादी कम्युनिस्ट विचाराधारा वाला प्रवीण युवक चुनाव हार गया था। वह दूसरे किस्म के वायदे, जैसे सबके साथ न्याय, बिल्डिंगों की मरम्मत, नया फरनीचर मंगवाने, किसी अध्यापक की घौंस न चलने जैसी बातों आदि के वायदे करता रह गया। तब से लेकर आज तक मैं मॉस-साइकालोजी सिद्धांत की दुहाई दे कर सोचता-लिखता आ रहूं कि हमारा राष्ट्र कैसे उन्नति कर सकता है; जबकि हमारे आदर्श सिर्फ मनोरंजन करने वाले भ्रष्ट नेता हों। भीड़ तंत्र ऐसा कि अपने लिए ठीक गलत का फैसला कभी नहीं कर पाया। खैर मेरी इन बातों से कुछ बनना बनना नहीं है। भीड़ अपनी अपनी चाल से बिना दिमाग पर ज्यादा जोर दिए चलती रहती है। सड़कों पर, मैदानों में, जलूस में आंदोलनों में। उनसे अगर उस आंदोलन, हड़तालों का मकसद पूछा जाए तो ठीक से कुछ नहीं बता पाती। बस तथाकथित नेता का समर्थन करना है।
तलत महमूद तो हमारे लोकप्रिय कलाकार थे। उन्होंने दो तीन गाने सुनाए थे। लड़कों ने उनसे और गानों की फरमाइश की थी। उन्होंने कहा-अगर आप में से कोई गाना सुनाना चाहे तो मैं उनका गाना सुनूंगा। मेरा तो तरीका ही यह रहा है कि मैं अपनी मर्जी के दो तीन गाने ही सुनाता हूं। बस।
इससे दो तीन गुंडे लड़कों ने उसे पीछे से जा कर उनके कान में कहा था कि अगर हमारी फरमाइश के और गाने नहीं सुनाओंगे तो हम तुझे पीटेंगे। तब उन्हें बहुत सारे सुनाने पड़े थे।
येस याद आया वान शिपले भी एक बार आए थे। वे इल्कट्रिक गिटार के जन्मदाता कहे जाते थे। उन्होंने भी संध्या सभा में समय बांध दिया था। सब मंत्रमुग्ध होकर उनके गिटार वादन को आराम से सुनते रहे थे। तीसरी (अब तो चौथी कहना पड़ेगा) वास्तविक बड़ी विभूति आई थी, तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ․ सर्वपल्ली राधाकृष्णन। वे ग्रैज्युएट्स को डिग्री प्रदान करने आए थे। यह कनवोकेशन (दीक्षांत समारोह) कॉलेज के मैदान में हुआ था। पूरा मैदान भीड़ से भर गया था। शहर से भी लोग, राधाकृष्णन जी के दर्शन करने चले आए थे। पर देखिए मैं इतनी बड़ी भीड़ और बड़े बड़े नामों वालों के बीच एक दम प्रथम पंक्ति की अच्छी कुर्सी पर बैठा था। एक दम डॉ․ राधाकृष्णन के करीब उन्हें देख सुन सकता था। मेरे साथ रियाअत क्यों हुई थी, सुन लीजिए। मैं डॉ․ रामेश्वर दयालु का प्रिय शिष्य था। उनके घर खूब जाता रहता था।
उन्होंने मुझे डॉ․ राधाकृष्ण की अद्भ्ाूत प्रतिभा, उनके ज्ञान उनके ओहदों के विषय में सब बताया था कि डॉ․ राधाकृष्णन जी को सुनना, अपने को भाग्यााली कहलाना है। तुम सुनना उनका उच्चारण अंग्रेजी पर अधिकार। भाषण देने की कला। एक एक शब्द स्पष्ट मोती के दाने की तरह झरता हुआ दिखाई देगा। पर मैं नहीं आऊंगा। तुम जरूर जाना। उन्होंने आयोजक का नाम लेकर समझाया कि उन्हें मेरा नाम बता देना। वे तुम्हें उचित स्थान पर बिठा देंगे। प्रो․ साहब स्वयं क्यों नहीं गए थे। यह आज तक मेरे लिए रहस्य की तरह बना हुआ है। मेरी यह हिम्मत तो भी नहीं कि कारण पूछ सकता। आज बस अनुमान लगाता हूं कि हो न हो, यह कॉलेज की आपसी राजनीति रही होगी। इस पर भी यह कि वे स्टूडेंटस के सामने अपने किसी प्रो․, चाहे प्रतिद्वंद्वी ही क्यों न हो, की बुराई सुनना बरदाश्त नहीं करते थे। एक बार एक विद्यार्थी ने, क्लास ले रहे प्रो․ साहब से कहा कि प्रो․ साहब आप तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। फ्लाने प्रो․ साहब अच्छा नहीं पढ़ाते। सुनकर प्रो․ साहब ने क्लास में उस विद्यार्थी को बुरी तरह से डांट दिया- तुम्हारा क्या पता तुम उन प्रो․ साहब के सामने भी ऐसा ही कहो कि वे तो अच्छा पढ़ाते हैं। मैं तुम्हें अच्छा नहीं पढ़ाता। लड़का बीच क्लास शर्मसार हो उठा। यही हुआ था। मुझे अगली पंक्ति में स्थान मिला। वैसे भले ही मेरा विश्वास भगवान के प्रति न रहा हो किंतु मैं प्रो․ साहब को भगवान तुल्य ही मानता चला आया हूं। वे मुझ पर स्नेह बरसाते थे। मुझे अपना सबसे योग्य शिष्य कहते थे।
भगवान का नाम इसलिए ले रहा हूं कि उसी एक शब्द 'भगवान‘ के कारण ही मैंने उनसे अंतरंगता को प्राप्त की थी। कैसे ? तो सुनिए ः-
प्रो․ साहब एकदम दुबले पतले गौर-वर्ण निहायत संजीदा व्यक्तित्व वाले थे। बहुत कम हंसते थे। बहुत धीरे धीरे बोलकर क्लास लेते थे। इसीलिए मैं हमेशा सबसे पहले आकर सबसे अगली पंक्ति में बैठता था ताकि उनका एक एक शब्द ग्रहण कर सकूं। पता नहीं उनका कैसा प्रभामंडल था कि क्या मजाल कोई विद्यार्थी क्लास में चूं भी कर जाए। हां एक बार जरूर एक दो ने उनके लैक्चर के बीच कुछ अनापेक्षित हरकत की। इस पर प्रो․ साहब सिर को ज़रा ऊपर उठाकर बोले-अच्छा तो यह हमारी क्लास में भी ?
बस उनके इतने ही शब्दों से सारे छात्र सहम गए। हां एक बार की खूब याद आती है कि नामों को लेकर कोई चर्चा शुरू हो गई तो प्रो․ साहब बोले कई लोग बिना सोचे अपने बच्चों के नाम रख देते हैं। और औलाद भी बड़े मजे से उम्र भर उन्हें ढोती फिरती है। तब उन्होंने कुछ बेतुक नामों की सूची बता डाली। मगर जब उन्होंने रामजीमल नाम भी गिनवाया तो विद्यार्थी अपनी हंसी रोक नहीं सके। खुलकर खिलखिल करने लगे।
प्रो․ साहब फौरन समझ गए-अच्छा तो अपनी क्लास में भी कोई रामजीमल हैं।
वे स्वयं अपने नाम के साथ दयालु ही तो लगाते थे। जबकि देखता हूं; बड़े से बड़े विद्वान् अपने नाम के आगे दयाल शब्द का प्रयोग करते हैं; जैसे देवी दयाल, प्रभु दयाल आदि।
बाद में जब मैंने उनसे सबसे श्रेष्ठ शब्दकोश के विषय में पूछा था तो उन्होंने ज्ञानमण्डल वाराणसी संपादक कालिका प्रसाद का नाम सुझाया था। उसमें भी दयाल शब्द को सही नहीं बताया गया है।
दूसरा, मैंने उनसे यह पूछा था कि गीतांजली का सर्वश्रेष्ठ अनुवाद किसने किया है तो इसके उत्त्ार में बताया था, कि गीतांजली को पढ़ने के लिए तो बंगला भाषा ही सीखनी पड़ेगी।
वे धड़ल्ले से बंगला बोलते थे। कई बंगला कवियों की काव्य पंक्तियां क्लास में मुग्ध भाव से सुनाया करते थे। उनका अर्थ समझाया करते थे। पहले तो हम सब उन्हें बंगाली प्रोफेसर ही समझते रहे थे। उनका बंगला भाषा पर अधिकार था। हिन्दी संस्कृत अंग्रेजी में टॉपर थे। फ्रेंच की भी क्लासें लेते थे। तमिल में उन द्वारा अनुदित कल्लिक का उपन्यास 'शिवकासी की शपथ‘ साहित्य अकादमी ने उनके मरणोपरांत छापा था। (संदर्भ ः दिसम्बर 2008 'दो आबा‘ भोपाल संपादक जाबिर हुसैन। लेख मधुरेश। शीर्षक 'उड़ान दर उड़ान‘)
असली भगवान वाली बात तो बीच में रह गई। एक बार उन्होंने क्लास में ईश्वरीय सत्त्ाा पर आस्थापूर्वक बहुत कुछ बताया।
इसे सुनकर मेरे अंदर जैसे हलचल सी मच गई कि इतने बड़े विद्वान और भगवान के प्रति अन्यतम भक्ति। मैं सारी रात ठीक से सो न सका।
सुबह एक चिट्ठी लिखी। उसे लिफाफे में बंद किया। उनसे आमने सामने बहस करने की हिम्मत नहीं थी। पत्र में मैंने ईश्वर को नकारा था। यहां तक कि यह भी लिख दिया कि मैं नास्तिक हूं। भगवान जैसी कोई चीज़ नहीं होती।
उस दिन ज्यूं ही क्लास समाप्त हुई। सब छात्र छात्राएं एक दूसरे को धकेलते हुए दरवाजे से बाहर जा रहे थे। पीछे से प्रो․ साहब धीमी गति से निकल रहे थे। मैंने मौन रहकर वह लिफाफा प्रो0 साहब को पकड़ा दिया। उन्होंने उसे लेकर अपनी जेब में रख लिया।
इसके दूसरे रोज, जब फिर क्लास खत्म हुई तो प्रो․ साहब ने मुझे अपने पास बुलाया-तुम मेरे घर आना।
- मैं आपका घर नहीं जानता।
उन्होंने एक अन्य छात्र को बुलाया-इसे मेरा घर बता देना। इतना कहकर वे तेज़ कदमों से चले गए।
लड़के ने कहा-प्रो․ साहब हमारे घर के पास ही रहते हैं। जब चाहो, मेरे साथ चलना।
- आज ही।
- आज ही सही।
सारे पीरियड खत्म होने के बाद; वह मुझे अपने साथ ले गया। प्रो․ साहब के दरवाजे के सामने खड़ा कर दिया - यह है। इस वक्त तो मिलेंगे नहीं।
- कोई बात नहीं। शाम को या कल मिल लूंगा। इतना कहकर मैं अपने घर की तरफ चल पड़ा। वे बड़े बाज़ार के 'कटरा मान राय‘ जो बाजार की एक गली में पड़ता है, में रहते थे।
जब भी उनके घर जाता, अंदर से किसी महिला (वह उनकी पत्नी, मां या और कोई भी हो सकती थी। किसी अनजान महिला की तरफ नज़र उठाकर देखना आज भी मुझ से नहीं होता) का स्वर सुनाई देता- घर पर नहीं हैं।
बाद में मुझे लगा था कि वे मेरी एक तरह की परीक्षा ले रहे हैं कि अगला वास्तव में कोई जिज्ञासु है। एक दिन उन्होंने कॉलेज में पूछा- क्या तुम आए थे ?
- जी हां। तीन चार दफः। मैंने सकुचाते हुए कहा।
- ठीक है। आज शाम पांच बजे आ जाना।
मैं समय का पक्का, ठीक पांच बजे जा पहुंचा - प्रो․ साहब हैं ?
- तुम्हारा नाम क्या है ?
- हरदर्शन सहगल।
- ठीक है। यह दाएं तरफ की सीढि़यां चढ़ जाओ।
मैं सीढि़यां चढ़ने लगा। मोड़ पर काफी बड़ा स्पेस (जगह) था। वहां पर एक बड़ा लकड़ी का डैस्क रखा हुआ था। उसके सामने एक चोकोर दरी बिछी हुई थी। दीवार में छोटे बड़े छेद थे जहां से हवा अंदर प्रवेश कर रही थी और रोशनी भी आ रही थी। वहां पर प्रो․ साहब दिखाई नहीं दिए। मैं पूरी सीढि़यां चढ़ चढ़ गया। खुला प्रांगण। सामने एक कमरा (स्टडी रूम) कई अलमारियां किताबों से भरी हुई। एक मेज कुसी। मेरी आहट पाते ही वे कमरे से थोड़ा बाहर आए-चले आओ। वे सफेद कुर्ता तथा धोती में थे।
मैं वहां जाकर खड़ा हो गया। गम्भीर चेहरे पर कोमलता उभर आई-बैैठो।
मैं खड़ा रहा। क्या पूछूं। कहां से शुरू करूं।
वे भी मेरे सामने खड़े थे। मेरा संकोच दूर करते हुए उन्होंने ही शुरू किया- तुमने अपने पत्र में क्या लिखा है ? तुम अपने पर विश्वास करते हो। सृष्टि को देखते हो। फिर भी कहते हो भगवान नहीं होता ?․․․․․․․․
मैं दो मिनट तक उनको कान लगाकर सुनता रहा। फिर धीरे धीरे अपने संकोच को किसी तरह तोड़ते हुए, अपने बचपन तक की गाथा खोलने लगा कि इस विषय पर शुरू ही से माथापच्ची करता आया हूं। कइयों के पास गया। कइयों को सुना। कोई भी एक ऐसा नहीं निकला जो ठीक से बता सके। सिद्ध कर सके।
- यह सब अटूट भक्ति और अनुभव करने से होता है।
- मैं यह सब बातें बहुत सुन चुका। कोई नई बात हो तो बताएं। कक्षा में भी तो आपने बहुत लंबा लेक्चर ईश्वर के अस्तित्व पर दिया था। मैंने खूब जोर लगा कर सुना। सोचा आप कुछ और विस्तार से, बताकर कन्विस कर सकते हैं। कहते कहते सहसा मैं रूक गया। मुझे लगा, मैं उनसे कुछ सीखने नहीं बल्कि उन्हें सिखाने आया हूं। फिर दिमाग घूम गया-इतने बड़े विद्वान। इतनी सारी किताबें। मैं कहां, और ये कहां ?
उस समय भी उनके हाथ कोई बड़ी किताब थी। बोले-छोड़ो। यह किताब आज ही खरीद कर लाया हूं। किताबें रखने को यह नई अलमारी भी, कुछ रोज़ पहले खरीदी है। तुमने अब तक क्या कुछ और किन किन लेखकों को पढ़ा है। थोड़ी ही देर में चर्चा गीता रामायण आदि गं्रथों पर आ गई तो मैंने अपनी वही फिलासफी, जो मैंने इस ग्रंथ के आरम्भ में लिख छोड़ी है, वही कह डाली कि इन्हें पढ़ने से तो और अनास्था जागृत होती है। हैरानी सी लगती है कि हमारे बीच पहले दिन वाली ईश्वर-अस्तित्व वाली वार्ता उनके निधन तक भी चलती रही। वे बताते, हमारा दर्शन, मनुष्य जीवन की सार्थकता को लेकर है जबकि पाश्यचात दर्शन, शब्द तर्क जाल में पड़कर मनुष्य को भ्रमित करने वाला है। हमारे यहां एक कीट के जीवन को भी महत्व दिया जाता है फिर तुम तो मनुष्य हो। तुम्हारे अंदर की छटपटाहट को मैं स्पष्ट रूप से देखता हूं। तुम्हारी छटपटाहट है, अपने अस्तित्व की सार्थकता को सिद्ध करने की। आत्म-साक्षात्कार की तड़प तुम में है। वरना इन बातों पर दूसरे लोग कहां सोचते हैं। ये इतनी ढेर सारी बातें बहुत बाद की हैं जो मेरे पास आज भी उनके पत्रों में बंद पड़ी हैं। वे वेदांत पुराणों आदि के उदाहरणों से भी कुछ समझाने की चेष्टा करते। जवाब में, मेरे कुछ लेख जो जीवन की निस्सारता को अभिव्यंजित करते, उन्हें भेज देता।
एक बार उन्होंने तंग आकर यहां तक लिख दिया कि जब तुम खुद अपनी सहायता स्वयं नहीं करना चाहते तो फिर कोई दूसरा तुम्हारी सहायता कैसे कर सकता है।
जैसे कि बार बार मेरा स्वर उभर उठता है कि यह जीवन, यह संसार दरअसल है तो एक झमेला ही। अबूझ पहेली। किसे मानें किसे न मानें। ठीक इन्हीं दिनों 7-9-10 का अखबार राजस्थान पत्रिका का वैचारिक छोटा सा लेख देख लीजिए। यह आलेख इस सदी के महानतम ब्रह्मांड शास्त्री और भौतिक विज्ञानी प्रो․ स्टेफेन हार्किंग के हवाले से लिखा गया है कि हमारे ब्रह्मांड को भगवान ने पैदा नहीं किया, बल्कि इसकी रचना के पीछे भौतिक नियम है। यह विचार उन्होंने अपनी पुस्तक 'द ग्रेट डिज़ाइन‘ में व्यक्ति किए हैं। ब्रह्मांड के स्वतः स्फूर्त सृजन के कारण ही आज हमारा अस्तित्व है। बिग गैंग यानी ब्रह्मांडी महाविस्फोट का सिद्धांत। यह घटना यानी महाविस्फोट की घटना करीब 13․7 अरब वर्ष पहले हुई थी।
अब ऐसे ऐसे आंकड़े फिर न्यूटन के, आंस्टाइन के सिद्धांतों को चुनौती आदि आम आदमी की समझ से बाहर की बात है। हां विषय विशेषज्ञ अवश्य इस पर सिर खपाई करते नज़र आते हैं। करते ही रहते हैं। हल ? फिर विवाद/गोरखधंधा।
पर हम हैं। क्यों हैं ? कैसे चल फिर रहे हैं ? सहसा अस्तित्ववादी लेखक आल्बेयर कामू का भी ध्यान हो आता है इसी के साथ, संत जैसे लेखक लियो टालस्टाय का भी।
आल्बेयर कामू दूसरे महायुद्ध से उत्पन्न ऊब, उक्ताहट, निराशा और अनास्था के नोबल पुरस्कार विजेता लेखक हैं। वे जीवन और मृत्यु के सवालों को रूढि़वाी धार्मिक परिपाटी से अलग कर, समकालीन मनुष्य के विवेक से जोड़ते हैं। तब इस संसार में ईश्वर का अस्तित्व कहीं दिखाई नहीं देता। कामू का मत है कि मनुष्य रूढि़वादी समाज में अजनबी बनकर जीने और उसकी त्रासदी भोगने के लिए अभिशप्त है।
दूसरी तरफ संत जैसे कहलाने वाले टालस्टाए भी हैं जो मेरी 'मुक्ति की कहानी‘ में, कभी आस्थावादी तो कभी नास्तिक बनकर, निरंतर एक ऊहापोह में जीते हैं। इस पर मैंने शुरू में ही सिरखपाई कर डाली। और भी वैज्ञानिकों के रहस्यमय विवरण एवं मत इस छोटे से आलेख में भरे पड़े हैं। बस तौबा। अपने आपको ही जान लूं तो बहुत।
हां तो प्रो․ रामेश्वर दयालु अग्रवाल के और भी काफी शागिर्द और मिलने वाले, उन पर श्रद्धा रखने वाले थे। पहले भी लिख आया हूं कि वे और उन जैसे कुछ प्रोफेसर्ज इतवार को भी कॉलेज-ग्राउंड की घास पर बिठाकर पढ़ा दिया करते थे। उनके पढ़ाने के दौरान उनके कुछ पुराने विद्यार्थी वहां भी पहुंच जाते और उनके पांव छूते। पांव छूने की मेरी आदत नहीं थी, परन्तु उनके लिए मन में अगाध सम्मान था।
हर बार जब जब उनके घर गया, घर वाले पहले नाम पूछते। फिर बताते कि प्रो․ साहब हैं कि नहीं।
प्रो․ साहब बहुत ही धर्मभीरू, पूजा पाठ किए बिना अन्न ग्रहण न करने वाले, स्वच्छता, समय का पालन करने वाले थे। आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ाए रखते थे। एक दिन उन्होंने खुलासा किया कि हरदर्शन बस जीवन में एक ही झूठ बोलने को विवश हूं; नहीं तो मुझे कोई काम ही न करने दे। मुझे बहुत कुछ पढ़ना लिखना, फिर पढ़ाना होता है। इसलिए घर में होते हुए भी कहलवा देता हूं ''नहीं हूं।‘‘ जिनसे मिलना होता है, उनके नाम घर वालों को पहले ही से बता देता हूं।
वास्तव में जब जब मैंने उन्हें देखा। मोटे मोटे पोथों में नजरें गड़ाए या फिर कलम चलाते हुए ही देखा। अपने कमरे में, या सीढि़यों में अपने डैस्क के सामने। ज्यादातर सीढि़यों में ही। अगर मिलने वाले को सीढि़यों में बिठाने की गुंजाइश कम पाते तो उसे ऊपर साथ लिये स्टडी रूम में चले जाते।
वह हरदम काम कैसे करते थे। कागज़, उनके डेस्क, मेज़ पर पेपर वैट के नीचे कायदे से दबे पड़े, उनका इंतजार करते रहते। यदि उनके दो पीरियड भी खाली होते तो वे औरों की तरह स्टाफ रूम में न जाकर, साइकिल को घर की ओर भगाते। काम करते रहते और घड़ी भी देखते रहते। जैसे ही 7-10 मिनट पीरियड को बचते। उनकी साइकिल उन्हें क्लास रूप के सामने पहुंचा देती। समय को ज़रा भी नष्ट न करने की प्रेरणा उसी दौरान, मुझमें समाती गई। इतना श्रम करने से उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा। तब कहीं डाक्टर की सलाह पर कभी कभी शाम को टेनिस खेलने लगे।
अब मैं बेरोकटोक उनके निवास पर जा सकता था। कभी कभी अपना कुछ लिखा हुआ भी साथ ले जाता। एक दिन एक लंबी कहानी ले गया। तीन चार बड़ी क्लासों के पतले मोटे नौजवान बैठे थे। उन्होंने मुझे सब के सामने कहानी पढ़ने का न्योता दे डाला। मैंने पहले संकोचवश धीरे धीरे, फिर ज़रा जोश में आकर लंबी कहानी पढ़ डाली। सब एक दूसरे के चेहरे की तरफ देखने लगे-कहो। फिर मुस्कराने लगे। फिर टिप्पणी कर डाली-नौजवानी का रोमांस है। खूब, प्रेमिका सीअॉफ, करने स्टेशन जाकर सबके सामने नायक को फूलों का हार पहना कर विदाई देती है। खूब। फिर ज़रा रूककर- अच्छी है, विषयवस्तु , नई है। धीरे धीरे सुधार आएगा।
सोचता हूं जब मैं किसी से प्रेम ही नहीं करता था। शादी न करने की कसम मैंने खा रखी थी तो मैंने ऐसी रोमांटिक कहानी क्योंकर लिख मारी थी। शादी न करने वाली अपनी धारणा भी मैंने प्रो․ साहब को बताई थी। उन्होंने समझाया था कि विवाह करना किसी भी आम आदमी तथा औरत के लिए नितांत आवश्यक होता है। ख़ास तौर से भारतीय समाज में। काम को वश में करना किसी के बस में नहीं होता। सिवाए गिने चुने अपने में डूबे वैज्ञानिकों या कलाकारों के। वे इस कदर अपने कार्यों में दिन रात व्यस्त रहते हें कि उन्हें दूसरी किसी भी चीज की सुध बुद्ध नहीं रहती। काम की सोच तक नहीं आती।
तब उन्होंने एक विधवा औरत का एक हृदय विदारक दृश्य मेरे सम्मुख प्रस्तुत किया था। उसने साड़ी को ऊपर उठाकर अपनी जांघे दिखाई थीं जो जगह जगह गर्म सलाखों से उसने अपने हाथों से दाग रखी थीं। उसने बताया था ''जब जब मेरे अंदर काम वासना अह्य हो उठती थी तो मन को दूसरी ओर लगाने के लिए यह। ऐसी पीड़ा सहन करती थी।
एक दूसरी घटना की याद भी सहसा हो आई है। विस्थापन के उन्हीं दिनों एक औरत शायद कोई विक्षिप्त सी रिफ्यूजी ही थी, न जाने कहां से हमारे रेलवे क्वार्टरों में आ पहुंची थी। दो चार उन क्वार्टरों में जा घुसी थी, जहां जहां उसे सिर्फ पुरूष दिखलाई दिए थे। उनके सामने कमीज को ऊपर उठाकर, अपनी सलवार दिखाकर प्रार्थना के स्वर में कहती ''जरा मेरा नाड़ा खोल दो। बड़ी कड़ी गांठ पड़ गई है। मुझसे नहीं खुल रही।‘‘
आदमी शर्मसार होकर वहां से रफूचक्कर हो जाते।
यहां आकर मैं थोड़ा सोच में पड़ गया हूं कि यहीं पर अपने विवाह-दर्शन को उजागर कर दूं। या प्रो․ साहब को कान्टिन्यू रखूं।
ठीक है। प्रो․साहब को ही चलने दें। विवाह विषय को बताना भूलंगा नहीं। आगे कहीं कह डालूंगा।
प्रो․ साहब ने मुझे फ्रायड को पढ़ने की सलाह दी थी। मैं फौरन 'मनोविश्लेषण‘ सिगमंड फ्रायड नामक मोटी पुस्तक खरीद लाया। बाल्ज़क की कहानियां पढ़ने को कहा था कि तुम इन्हें पढ़ सकते हो। तुम अब नवयुवक बन चुके हो। सब कुछ जानने समझने में कोई हर्ज नहीं।
एक दिन मैं उनके पास दो लेखकों की पुस्तकें लेकर जा उपस्थित हुआ था। एक कुशवाह कांत की दूसरी बाल्ज़क की कहनयिों की। पूछा था कि दोनों में फर्क क्या है। एक बदनाम लेख्ाक कहलाता है, जबकि दूसरा संसार का महानतम। कुशवाह कांत की भाषा संस्कृत निष्ठ, और कथानक बेबाक हैं।
उन्होंने समझाया था कि एक में लेखक स्वयं, काम-आचरणों में लिप्त लगता है। जबकि दूसरा लेखक जीवन के उन्हीें कटु यथार्थों को निस्पृह रहकर, अपनी सशक्त लेखनी द्वारा समाज के सम्मुख, उसकी सही तस्वीर दिखाता है। बाद में कुछ अन्य लेखकों के विषय में भी बताया। चित्र लेखा 'गोली‘ जैसी पुस्तकें पढ़ने की प्रेरणा दी। इन्हें भी मैं फौरन खरीद लाया था।
उनकी एक बात जो कभी कभी मुझे अखरती, वह थी कि वे पढ़न्े लिखने या किसी व्यक्ति विशेष से बातचीत के दौरान घरेलु शोरगुल को कतई बर्दाश्त न कर पाते। जोर से चिल्ला उठते ''यह सब क्या हो रहा है। तमाम घर वाले सहम कर चुप्पी साध लेते। कुछ कह न पाते। पर अन्दर ही अन्दर प्रो․ साहब के जेलर-स्वभाव को पसंद न करते। क्योंकि यह नियंत्रण अनुशासन का अतिरेक था। घर तो घर ही होता है। वहां सबके बीच हंसी ठठोली, विवाद नोकझोंक तो होगी ही। उनके घर वालों की न पसंदगी को मैंने बहुत ही बाद में नोट किया। जब मेरी शादी हुई। ग़ाजि़याबाद से पत्नी को साथ लेकर मेरठ, उनके नवनिर्मित भवन (विजयनगर) में उनसे आशीर्वाद लेने पहुंचा था। पहला कहानी संग्रह 'मौसम‘ उनको भी समर्पित है, भिजवाया था। वे हम दोनों की बेताबी से प्रतीक्षा कर रहे थे, हमें देखकर बहुत गद्गद हुए। सुबह का समय था। अभी तक उन्होंने, अपने कड़े नियमानुसार पाठ पूजा नहीं की थी। हमारे लिए शानदार नाश्ते का प्रबंध करवाया था, किन्तु स्वयं कुछ भी नहीं ले रहे थे। मैंने उनसे बिनती भी की थी कि पहले आप नितनियम कर लें। कहने लगे- बाद में देखा जाएगा। पहले तुमसे बहुत सारी बातें करनी हैं। वे मेरी कहानियों पर भी टिप्पणियां कर रहे थे। घर के हालचाल भी पूछ रहे थे। विशेष रूप से मेरे पिताजी के विषय में भी बता रहे थे। तमिलनाडू से वे गाजि़याबाद भी रास्ते में रूक कर, एक दिन के लिए हमारे यहां ठहरे थें। पिताजी की प्रशंसा करते न थकते। बरेली में वे कभी हमारे क्वार्टर नहीं आए थे। इसलिए माताजी पिताजी को पहली बार यहीं गाजियाबाद में ही मिले थे।
हमारी लंबी बातचीत से प्रो․ साहब के घर वाले विशेष रूप से उनकी धर्मपत्नी ऊबे चली जा रही थीं। बार बार मेरी पत्नी से धीमे स्वर में पूछे जा रही थी कि आप लोग यहां से कब जाएंगे। इधर प्रो․ साहब थे कि सारी स्थितियों से अनभिज्ञ, अपनी किताबों से भरी अल्मारियां नई नई किताबें भी, मुझे दो तीन कमरों में दिखा रहे थे। मेरी पत्नी ने मुझे इशारा किया। मैं समझ गया। हम दोनों डेढ़ एक घंटा (इतना तो फिर भी प्रो․ साहब के प्रेेमवश लग ही गया) बैठकर चले आए थे। गाड़ी में मुझे कमला ने बताया था कि ये लोग प्रो․ साहब के क्रियाकलापों को पसंद नहीं करते। इसके बाद मैं उनके घर कभी नहीं गया। बस पत्रों का आदान प्रदान, योजनाओं के विषय में, सेवानिवृत्त्ाि के बारे में खूब तेज़ी के साथ चलता रहा। (और न जाने कितने अनगिनत विषयों पर) जब जब मैं किसी मानसिक परेशानी से गुजरता, उनका मार्गदर्शन लेता। मैंने यह बात उनके मरणोपरांत भी नोट की। मैं उन्हें पत्र पर पत्र लिखे चला जा रहा था। वे उत्त्ार देने में सदा तत्पर रहते थे। किन्तु अब पत्रोत्त्ार न पाकर मैं मन ही मन थोड़ा शंकाग्रस्त भी होता। एक और और पत्र लिखता चला जा रहा था।
अंत में जैसे तंग आकर उनके बेटे सुरेश ने एक पोस्टकार्ड लिखा जिसमें उसने उनके ब्रेन हैमरेज से 22 जनवरी 1997 को निधन होने का समाचार दिया। अब देखिए यह पत्र 14-3-1997 का लिखा हुआ है। यानी पूरे एक महीने 21 दिनों बाद लिखा; ताकि मेरे पत्र वहां जाने बंद हों। भले ही उनका निधन कब का हो चुका था किन्तु जिस दिन मुझे यह दुःखद सूचना मिली, मेरा चेहरा मुरझा गया। मैं बुरी तरह से आहत हुआ। दिन भर खाना नहीं खाया। मैंने लंबा शोक पत्र सुरेश तथा उसकी माता को लिखा। उनके बकाया कार्यों का लेखा जोखा मांगा। शायद पहले लिख आया हूं कि उन्होंने हिन्दी को विश्व स्तर की भाषा बनाने हेतु 'हिन्दी विकास पीठ‘ की स्थापना की थी। मैंने राजस्थानी का कार्य यहां के डॉ․ मदन सैनी को सौंप रखा था। इसी प्रकार किसी को पंजाबी के लिए भी प्रेरित किया था। और भी बहुत सारे विद्वान् थे जो इस शुभ कार्य हेतु सहयोगी थे। क्या मजाल जो मेरठ से फिर कभी कोई पत्र आया हो। सब कुछ धरा रह गया।
वे कभी मुझसे पंजाबी भी सीख रहे थे। वे नानक सिंह के पवित्र पापी से बहुत प्रभावित थे। उसे धर्म वीर भारती के गुनाहों का देवता से श्रेष्ठ मानते थे। हम लोागें ने नानक सिंह को पत्र लिखकर पूछा था कि आपकी नज़र में आपका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास कौनसा है। हम उसका हिन्दी अनुवाद करना चाहते हैं। नानक सिंह ने 'चिट्टा लहू‘ (सफेद रक्त) बताया था और भी लिखा था कि आप अनुवाद कर लें। वैसे मैं खुद भी कर सकता हूं। ऐसी बात नहीं कि मैं हिन्दी का 'का खा गा‘ न जानता हूं। इसे पढ़कर हम लोग खूब हंसे थे क ख ग की बजाए का खा गा। मेरे बरेली छोड़ने के बाद यह योजना भी परवान न चढ़ सकी थी।
चंदौसी ट्रेनिंगों के लिए चंदौसी रेलवे स्कूल में मुझे कभी छोटे तो कभी लंबे अर्से के लिए कई बार जाना पड़ा था। रिफैशर्ज कोर्सेस, हिन्दी टेलीग्राफी सीखने, स्टेशन मास्टर-कोर्स करने के लिए भी। टेलिग्राफी पास होने के कारण मेरी नौकरी तो पहले चंदौसी से पास होते ही लग ही चुकी थी। इसके बाद ए․एस․एम․ इम्तिहान के प्रैक्टिकल में मैंने एक्सीडेंट करवा डाला था। और सिर्फ इसी कारण रह गया था। बाकी के सारे इम्तिहान जैसे बुकिंग कलर्क, गुड्स कलर्क, गार्डशिप, टिकट कलैक्टर ट्रेन कलर्क, यार्ड मास्टर वगैरह वगैरह मैंने सफलता पूर्वक पास कर लिये थे। लेकिन प्रैक्टिकल में मॉडल रूम में परीक्षा के दौरान एक्सीडेंट करवा देने के कारण मेरा प्रमोशन रूक गया था।
दोबारा मैं स्टेशन मास्टर बनने के लिए गया नहीं था। यह जॉब मेरे जैसे हरवक्त कुछ न कुछ सोचने वाले के मनोनुकूल थी भी नहीं। रिस्की। पहले कई वर्षों तक एक दम छोटे सुनसान रोड साइड स्टेशनों पर रहना पड़ता था। इससे तो सिगनेलरी (तार बाबू) ही अच्छी। ए․ एस․ एम․ या स्टेशन मास्टरी में जेल तक हो सकती है। हम एक दूसरे को बतौर गाली भी कहते-जा साले तेरी पहली ही ड्यूटी में एक्सीडेंट हो। सो यह अक्षम्य गलती थी।
चूंकि चंदौसी, बरेली के करीब पड़ता है। ज्योंही मुझे मौका लगता, मैं गौता लगाकर बरेली निकल जाता। मेरा मुख्य आकर्षण प्रो․साहब ही थे। इसके अलावा, पुराने दोस्त अपने महल्ले र्क्वाटरों, वालीबाल स्थल के चक्कर काटना जहां बहुत अच्छा लगता वहीं बाज़ोकात उदास, मरा मरा सा कर देता। 'हाय बीते हुए दिन‘।
एक बार की, थोड़ी सनक भरी, घटना भी सुनाए देता हूं। मैं ख्यालों में भरा अपने क्वार्टरों की तरफ़ निकल गया था जैसे पुनर्जन्म में विचरण कर रहा हूं। मैंने तिनका तिनका, जैसे लोहे के तार कंटीली झाडि़यों की डालियां आदि (हर जगह की तरह) जोड़ जोड़कर अपने क्वार्टर के बाहर बगीची बनाई थी। उसका बांस की खपच्चियों का फाटक भी तैयार किया था। मैंने बेखुदी के आलम में (पहले दिनों की भांति) क्वार्टर में प्रवेश करने से पूर्व बगाची का फाटक खोला और उसमें घुस गया। फिर सहसा दिमाग में कौंध हुई-'अब यह तेरा नहीं‘। इसके बावजूद मैंने दरवाजे़ की कुंडी खटखटा दी। एक आदमी दरवाज़े में आ खड़ा हुआ। मुझे पहचानने की कोशिश करने लगा। मैंने तुरन्त स्थिति स्पष्ट कर दी-हम पहले इसी क्वार्टर में रहा करते थे। यह बगीची मैंने ही बनाई है। इसे देख लिया। अब अंदर आकर अपने कमरे रसोई देखना चाहता हूं। (इसी क्वार्टर के विषय में पिछले दिनों मेरी कहानी 'कथादेश‘ में छपकर आई है, 'झांझट‘ उस आदमी ने स्नेहपूर्वक कहा-
- आओ आओ। इसमें क्या बात है।
मैंने दो तीन मिनटों में कमरों परछती का जायजा ले डाला। उसे यह भी बताया जो पाकड़ के पेड़ पर गलो की बेल चढ़ी हुई है, मैंने ही चढ़ाई थी।
- वाह खूब।
मैंने उत्साहित होकर उसे यह भी बता डाला कि बगीचा बनाने सजाने के लिए मैं कितनी सनकों में रहा करता था। पिताजी से कहा करता था। लाइन मैन से तार दिलवाएं। टी․टी․ई․ होने के नाते सभी उनके ताबेदार हुआ करते थे।
एक दिन रात दो बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। साथ ही जोर से आवाज आई-तार ले लो। मैंने सोचा लाइनमैन बगीचे के लिए तार लाया है। सो चारपाई से उछल कर आंखे मलते हुए दरवाज़ा खोल डाला। सामने सामने टेलिग्राफ मैंसेंजर खड़ा था-यहां दस्तख्ात कर दो।
जीजाजी का टेलिग्राम था-कमिंग अॉन (सो एंड से डेट) मुझे जीजाजी के आने की जो पहले खुशी हुआ करती थी, इस तार को पाने से न हुई।
सुनकर वह शख्स जोर से हंस पड़ा-ओह बचपन भी क्या चीज होती है। मैं भी हंसने लगा। उसने चाय पीकर जाने का इसरार िकया। मैंने-फिर कभी आऊंगा, कहकर वहां से रूख्सत ली।
एक दफः मन्दिर की तरफ पुरानी गलियां पार करता हुआ निकल गया। मन्दिर प्रांगण में ही मैं अपना वालीबाल क्लब 'प्रमुदित मित्र संघ‘ बनाया था। उधर से दो तीन बार आते जाते, मुझे एक उम्रदराज़ विक्षिप्त सा व्यक्ति देखे जा रहा था। मेरे सामने आ खड़ा हुआ तो उस ऊलजलूल कपड़े वाले को देखा, थोड़ा सहमा। उसने कहा बार बार आ जा रहे हो। क्या देख रहे हो। मुझे पहचाना कि नहीं। मैंने उसे गौर से देखा। फिर भी न पहचान पाया तो उसने कहा-अरे सहगल साहब अपन साथ ही तो पढ़ते थे। उसने अपना नाम बताया तो मेरी सब यादें ताजा हो आयीं-अरे तुम ने अपना यह क्या हुलिया बना रखा है। इस उम्र में बूढ़े लग रहे हो।
- क्या करें। नौकरी नहीं मिली। सुनकर मैं अंदर तक छिल गया। उसकी या ऐसे युवकों को, जिन्होंने खूब पढ़ाई की। डिग्रियां भी हासिल कीं, लेकिन फिर भी बेरोजगार रह गए। ओवर एज हो गए। घर समाज की दृष्टि से हेय समझे जाने लगे। कदम कदम पर ताने उपेक्षा के शिकार हैं। बहुत ही कम लोग उनकी अंदर ही अन्दर से उठती चीत्कार को सुन समझ पाते हैं।
कालांतर में मैंने फिर उसको सपने में देखा था। 'मेमरा काशू‘ जैसे अबूझ शीर्षक की फैंटेसी-कहानी लिख डाली। इसमें कल्पना का पुट अधिक है। यह तीन चार जगह छपी-डॉ उमाकांत को यह श्रेष्ठ कहानी लगती है। उन्होंने इसे मेरे मोनोग्राम में भी लिया है। वैसे देखा जाए तो कहानियों उपन्यासों के मर्म तक पहुंचने वाले लोग उतने ही होंगे जितने बेरोजगारी, नक्सलवादियों, माओवादियों, आदिवासियों, पशु की भांति बेजबानों की समस्याओं को समझने वाले हैं। एक भीड़ तंत्र उभर आया है जिसका दायरा दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है जो सिर्फ अपने खोटे सिक्के के बल पर भीड़ तंत्र में भ्रष्ट तंत्र पनपाने, अपने उसी खोटे सिक्के को खरे में तबदील करने में लगा हुआ है। उसमें सब चलता है। आपने एक बात कह दी ः
- हां जी बिलकुल ठीक फरमाते हैं आप।
दूसरे ने इसके ठीक उलट बात कह दी।
- हां जी हां। बजा कहा आपने। मैं भी ऐसा ही सोचता हूं जी। अब ऐसे राष्ट्र का उत्थान तो सिर्फ कागजों के आंकड़ों में ही देखने को मिलेगा।
ये सब सोचते बताते अज़हद तकलीफ का सामना करना पड़ता है। चलिए ध्यान हटाने के लिए फिर से बरेली के मंदिरों, महल्लों में घूमते हैं। क्या मैं बरेली के बाजार में किसी झुमके की तलाश में निकला था ? जो कहीं खो गया था। मेरे दिल में बसा किसी हीरे से भी बहुत कीमती झुमका। यह मुलायम भी था। और अजहद तलख भी। जो भी था, मिल नहीं रहा था। क्या मैं अतीतजीवी हूं। ऊपर से कोई कितनी सीख दे, डींग मारे। हमें सिर्फ वर्तमान में जीना, आना चाहिए। पर ऐसे शिक्षक ज़रा अपने अंदर झांक कर तो देखें। अपने अतीत को कौन भूल पाया है ?
किसी शहर गांव का नाम लीजिए। किसी आदमी औरत का नाम लीजिए। अगला पल भर में अपनी सैकड़ों स्मृतियां उगल देगा। वहां तो मैं या हमारे पूर्वज भी रहा करते थे। वहां जो अब वह बिल्डिंग नज़र आती है, पहले मामूली सा एक ढाबा था। इस नाम का मेरा एक दोस्त भी हुआ करता था। उसके अनेक किस्से। हां यही नाम तो मेरी मौसी का भी था। अब वह इस संसार में नहीं है।
हरदर्शन का दर्शन यही है कि हम अतीत को लाख झटकें वह हमें नहीं छोड़ने वाला। मां बच्चे को कितनी चपते मार दे वह रोता रोता फिर से मां का आंचल थाम लेता है। मां द्रवित होकर बच्चे को गोद में उठाकर चूमने लगती हैं।
पर हम अतीत को भले ही मां की तरह मानें, पर अतीत हमें कहां पहचानता है। अतीत क्रूर ही बना रहता है।
एक बार मैंने कृष्णा बहन जी से कहा था- हर साल राखी के धागे बांधती हो। दो चार दिनों में उतर जाते हैं। बाई द वे एक स्मृति ने फिर सिर उठाया है। हम 10-15 दिनों तक राखी नहीं उतारते थे। एक दूसरा पर्व बुई या दुई भी 10, 15 दिनों बाद आता था। उस दिन हम राखी उतारते थे। और राखी की जगह पीले पीले धागे कलाइयों में धारण करते थे। खैर!
सचमुच अगले वर्ष कृष्णा बहन जी ने नानकचंद की दुकान से उस जमाने की सबसे महंगी घड़ी 98 रूपए में 'रोमर‘ मुझे पहनाई थी। इसे सालों साल मैंने पहना था। बाद में बार बार खराब होती तो मरम्मत करवाता रहा। बहन जी को पता चला तो उन्हीं की अनुमति से दूसरी घड़ी ले आया।
नानकचंद की दुकान ही हमारी पैट दुकान थी। बाउजी यहीं से सामान खरीदते। घडि़यां मरम्मत कराते। चंदौसी ट्रेनिंग के बीच मैं वहां गया था। वह मुझे भी पहचानते थे। उन्होंने वास्तव में वाजिब दामों में मुझे अलार्म पीस दी थी। जो चाबी भरने के बाद कम से कम 54 घंटे चलती थी। 2000 सन् में 35 वर्षों बाद बरेली घूमने गया था तो भी नानक चंद के वंशजों से जा मिला था। यह प्रसंग आगे चलकर 'बरेली‘ अध्याय में सविस्तार बताऊंगा। साहित्य की दुनिया में। फिलवक्त चंदौसी की ट्रेनिंग। हां एक बात जो साहित्य और बरेली से संबंध रखती है, कहता चलता हूं। पहली बात जो साहित्य से असंपृकत सी है, भी याद गई। एक बार हुआ यह था कि कॉलेज के पीरियड पूरे करके बरास्ता बाज़ार घर की जानिब लौट रहा था तो एक चौड़ी गली को देखकर ज़रा ठिठक कर खड़ा हो गया। सोचा हो न हो यह गली भी हिन्द टाकीज की ओर ही जाती होगी, जिधर से मुझे घर जाना था; तो यह शार्टकट रास्ता हो जाएगा। मेरा अनुमान तो शत प्रतिशत सही साबित हुआ, परन्तु दिल धड़ धड़ बोलने लगा। वहां दहलीज में चटकीले चमकीले कपड़े पहने होंठों पर बेतरतीब लिपस्टिक से रंगे, कई मोटी मोटी बेडोल सी औरतें मुंह में पान चबाती हुई बैठी, आपस मेें बतिया रही थीं। उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा। मैं सिर झुकाए उधर से चुपचाप लंबी गली पार कर गया। सोचता रहा। ये कौन औरते हैं जो दोपहर या ढलती दोपहर में यू ही खाली बैठी थीं। फिर एकाएक विचार कौंधा ज़रूर यही वेश्या-बाजार होगा। कुछ रोज़ बाद मैं जानबूझकर फिर दो तीन बार उधर से कुछ तेज़ कदमों से गुज़र गया। अब की उतनी धड़कन नहीं हुई। मैंने इस चीज का जिक्र अपने सहपाठियों से किया तो वे हंसने लगे-तुझे अब पता चला है ? अरे उधर तो हम खूब घूमते फिरते हैं। तुमने सिर उठाकर नहीं देखा। ऊपर के गलियारों में असली माल है। यंग लड़कियां ऊपर देखते तो ज़रा। वे तुम्हें इशारे करतीं। बुलाती। हम तो यूं ही उनके, उनकी माओं दादियों मौसियों के रेट पूछ आते हैं। फिर वे एक दूसरे से बढ़ चढ़कर अपने और उनके बीच हुए अश्लील संवाद सुनाने लगे। साली यह बकती थी। तो हमने यह यह (अश्लील) जवाब दिया। जैसे यह भी उनका कोई रोजमर्रा का एन्टरटेनमैंट (मनोरंजन) हो। फिर मैंने उन लोगों से कभी इस विषय में बात नहीं की। न ही उस रास्ते से कभी गुज़रा।
दूसरी बात साहित्य को लेकर है। जब प्रो․साहब मेरे कच्चे ही सही, लेखन से परिचित हो ही चुके थे और उनकी जान पहचान उस समय के मूर्धन्य साहित्यकारों जैसे हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जैसे बड़े बड़े कई विद्वानों संपादकों से थी तो उन्होंने मेरी रचनाओं में कोई सुधार करा उन्हें कहीं छपवाने का यत्न क्यों नहीं किया। न ही कहीं रचनाएं भेज कर ट्राई करने की प्रेरणा ही दी। क्या पता क्या कारण रहा होगा जो मुझे अपना अति प्रिय शिष्य मानते हुए भी मेरे साथ यह सब किया। हो सकता है; उनके मन में, 'सहज पक्के सो मीठा होए‘ वाली थ्योरी रही हो।
दूसरी बात मैंने अभी तक नहीं बताई मेरे माता पिता दोनों ही साहित्य में रूचि रखते थे। कहानियों उपन्यासों को सुनना बहुत पसंद करते थे। माताजी बस अपने हस्ताक्षर करने तक ही सीमित थीं, जबकि पिताजी उर्दू के आदमी थे। हमारे यहां तमाम रिश्तेदारों की तमाम डाक उर्दू ही में तो आती थी। कभी कभार कुछ अंग्रेजी में। वे थोड़ी थोड़ी फ़ारसी से भी परिचित थे। अंग्रेजी में तो उन्हें सारा कामकाज करना ही पड़ता था। अंग्रेजों के साथ भी काम कर चुके थे तो अंग्रेजी भी अच्छी थी ही। लेकिन हिन्दी नहीं पढ़ सकते थे। यहां बरेली में हिन्दी का ही बोलबाला था। उत्कृष्ट सहज साहित्य में मु․प्रेमचंद, सुदर्शन यशपाल चतुरसेन शास्त्री, इलाचंद जोशी वृंदालाल वर्मा के साथ साथ टैगोर, के․एम․ मुंशी जैसे भी छाए हुए थे। शरतचंद, बंकिम चंद, मुल्कराज आनंद टैगोर, नानक सिंह, बलवंत सिंह, अमृता प्रीतम जैसे मास्टर्ज़ की हिन्दी में आई अनूदित कहानियां उपन्यास भी बड़े चाव से पढ़े जाते थे। मैं शुरू ही से चेखव स्टीफन जि़ वग गोर्की, विक्टर हियोगो, पुश्किन (कुछ नाम छूट सकते हैं․․․․․ हां मोपासा ख़्ाासकर एडेगर ऐलन पो भी खूब याद आए। ऐसे लेखकों की विशेष कृतियां 'स्पेशल‘ लिखकर आज भी अलग रेक में रखी हैं) का भक्त रहा हूं। माताजी पिताजी, इनमें से, के․एम․ मुंशी के ज़्यादा भक्त हो गए थे।
- तो दर्शी शुरू कर दे रामायण। वे रात को सोने से पहले मुझसे कहते।
'जय सोमनाथ‘ 'गुजरात के नाथ‘ बड़े बड़े उपन्यास मैंउन्हें किस्तों में सुनाया करता। अपने पसंदीदा कुछ लेखकों की कहानियां भी सुनाता। बीच में अपनी लिखी हुई कोई कहानी भी चुपके से सुना डालता।
सुबह उठकर, अपनी कहानी के विषय में पूछता-वो कैसी लगी थी।
- बहुत ही अच्छी।
- वह मेरी लिखी हुई थी।
- हें हें तूने ? तेरी लिखी हुई कहानी थी वह।
- बिलकुल।
- कमाल की थी।
आश्चर्य के साथ शाबाशी। बस इतना ही मेरे हिस्से में आता। अब सोचता हूं। मैं तो छोटा था। अपनी थोड़ी कम ही सही-प्रतिभा को कभी नहीं पहचान पाया। वे तो बड़े थे। उन्हें भी कभी नहीं सूझी कि मेरे लिए कोई रास्ता ढूंढ़ते किसी बड़े लेखक से मिलवाते। या मेरी कहानियां किसी से पूछ कर किसी पत्रिका में छपने को भिजवाते। असल में यह उनका क्षेत्र था भी नहीं। फिर भी किसी और को बता सकते थे।
मैं 'िशशु‘ पत्रिका का सदस्य था जिसका अड्रैस आज भी रटा पड़ा है ''शिशु ज्ञान मंदिर प्रयाग इलाहाबाद। इसमें मेरी दो बाल कविताएं छपी थीं। 'बापू‘ गांधीजी की हत्या के पश्चात। यह अगस्त 1948 में छपी थी। दूसरी 'बसंत‘ यह अप्रैल 1952 को छपी थी। बस। फिर 1967 से विधिवत छपना शुरू हुआ। हुआ, तो छपने के लिए पगाल। तब से आज तक निरंतर बिना ज़्यादा, गैप के खूब प्रकाशित प्रसारित होता चला आया हूं। इसे कुछ महोदय 'छपास का भूखा‘ ज़रूर कह सकते हैं किंतु यह मेरी प्रवृत्त्ाि में है। जब तक कुछ न कुछ लिख न लूं। बेचैनी सी सिर पर सवार रहती है। पहले ही से हिसाब। अगर वहां से रचना लौट आई तो कहां भेजूंगा। दुबारा उसे परखता संशोधित करता। सभी संपादकों को न्यायप्रिय निष्पक्ष और विद्वान मानता। अपने लेखन की कमजोरियों की तरफ ध्यान दे देकर और अच्छा लिखने का यत्न करता। इससे मुझे बहुत लाभ भी हुआ।
ये सब चीजें आगे चलकर खूब होंगी कि कैसे कैसे लेखक। कैसे कैसे संपादक! फिलहाल बरेली चंदौसी ही को चलने दें।
मेरे संस्मरणों तथा लेखों की संख्या भी खासी है। परन्तु मैंने सिर्फ एक, संस्मरणों की किताब छपवाई है। 'झूलता हुआ ग्यारह दिसंबर‘। यह सारे के सारे मेरे जीवन के हास्य प्रसंग हैं। भले ही इनके अंदर भी पीड़ा, जीवन विसंगतियां छिपीं हों। बरेली से संबंधित सिर्फ दो की चर्चा करूंगा। पहले-'घुघराले बाल‘। इसमें बताया है कि मैं 'फेशनेबल ब्याय‘ था। बालों के घुंघराला बनाना चाहता। गली मोहल्लों में नीम हकीमों का आना लगा रहता था। उनके पास इतर फुलेल पाउडर सुर्खी बिन्दी आदि से लेकर 'ताकत की दवाएं‘ तक झोलों में मौजूद रहतीं। मैं बार बार उनसे बालों को घुंघराले करने वाला तेल खरीद कर ठगा जाता। वे अपने को बड़े बड़े शहरों, प्रतिष्ठित कंपनियों का एजेंट बताते जो मात्र प्रचार हेतु हमारे शहर आकर हम पर मेहरबानी करते। अपने सच्चे/झूठे अड्रैसों की रसीद भी दे जाते।
इतने यत्नों के बावजूद भी मेरे बाल घुघराले नहीं होते थे। तो जनाब! जनाब उन पर पांच दस रूपए की ठगी का मुकदमा ठोकने कोर्ट/कचहरी जा पहुंचते थे। अगर पूरा विवरण दे दूं तो आप मेरी किताब नहीं खरीदेंगे।
इसीलिए 'मैं बंदूक अच्छी चलाई थी ना ?‘ का वर्णन भी चलताऊ ढंग से ही करूंगा।
कॉलेज में मैंने पी․ए․सी․ (एन․सी․सी․) ज्वाइन कर रखी थी। वर्दी पहन कर हम कुछ लोग खूब एक्टिव लगते थे। अनुशासन। लैफ्टराइट, लैफ्टराइट में खूब मजे़ आते थे। बंदूक हाथ में होती। किसी को सलामी दे रहे होते तो भी लगता गोया पूरी दुनियां की हुकूमत हमारे हाथ में है।
मैंने 'डगर डगर पर मगर‘ ज़रूर लिखा है लेकिन मेरे लिए जिंदगी का यह भी बड़ा सच है कि डगर डगर पर मुझे आज तक भी बहुत सीखने को मिलता है।
वहां पर कभी कभी बड़े ओहदेदार मिलट्री आफिसर भी आते जो हमारी परेड का निरीक्षण करते। एक अफ़सर ने हमसे कहा था कि भले ही मिलट्री में मत आना, लेकिन हमेशा सीना तान कर चलना। सो आज भी वैसा ही चलता हूं। पिताजी ने कहा था किसी को सिर्फ उतना ही उधार दो कि अगर उतनी रकम डूब भी जाए तो तुम आराम से सहन कर सको। मेरा वही सहकर्मी बलदेव कहा करता था कि जब हम किसी को उधार देते हैं तो शाह कहलाते हैं लेकिन वही रकम वापस लेने के लिए हमें एक भिखारी का रोल अदा करना पड़ता है। इन और ऐसी चीजों को मैं हमेशा मद्देनजर रखता हूं। डगर डगर पर यह भी सुनना पड़ता है कि एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। जबान लड़खड़ा जाती है। झूठ पकड़ा ही जाता है। एक बात यहीं पर और भी बताता चलूं। रेलवे में भर्ती होने की मुख्य शर्त यह होती थी कि उसे टेलिग्राफी ज़रूर आनी चाहिए। चाहे वह किसी भी पोस्ट के लिए सलैक्ट क्यों न हो। न जाने उसकी कब जरूरत पड़ जाए। गाडि़यां पेपरलाइन क्लीयर (यानी तार टेलीग्राफ़) से ही चलती थीं। मेरे दोस्त महेन्द्र चौबे के पिताजी चीफ बुकिंग कलर्क के पद से रिटायर हुए थे। वे घर पर हम लोगों को टेलिग्राफी की ट्रेनिंग दिया करते थे।
एक बार की बात है महेन्द्र चौबे के बड़े भाई साहब, जो कॉलेज यूनियन के सक्रिय नेता थे, ने मुझ से किसी बहस के दौरान, कह दिया कि सच यह है कि तुम्हें किसी बात की अक्ल ही नहीं। इसे सुनते ही मेरा चेहरा बुरी तरह से उतर गया। उन्होंने इस चीज को फौरन भांप लिया। मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-बस इतने से ही सोच में पड़ गए। कल को सब्जी मंडी में कोई दुकानदार तुमसे कह दे कि तुम्हें सब्जी लेने की तमीज नहीं है। तब तुम सारा दिन मुंह लटकाएं फिरोगे। रात को भी नींद नहीं आएगी। लोग तो यूं ही बोलते रहेंगे। क्या सारी उम्र ऐसी छोटी मोटी बातों को सुनकर दुःखी होकर बिताओंगे ? इससे मेरी समझ का दायरा थोड़ा बढ़ गया। क्या हम ऐसे हर ऐरे गैरे नत्थूखेरों के बारे में सोच सोच कर अपना दिमाग, समय नष्ट करते रहंे। अपने ही जी को जलाते रहें।
उन्हीं दिनों मैंने खुद अपने लिए एक अंग्रेजी का वाक्य घढ़ा था। मिस अंडरस्टेंडिंग एंड एक्सपैकटेशन, इज द कायज़ अॉफ मिजरी। (अगले को ठीक से न समझना, एवं अपेक्षा/अपेक्षाएं ही ज्य़ादातर हमारे दुःख का कारण बनती हैं।) इससे मेरी अधिकतर समस्याएं, अगले से मन की बात खोलकर कह देने से सुलझ जाती हैं। और भी बातें किस किस से कब कब सुनी और हमेशा के लिए अपना भी लीं, इसका खुलासा करने लगूं तो सोचेंगे-डींग मार रहा है। पर अपने बारे में, अपनों को बताता जरूर हूं (अपने से बेहतर कौन खुद को जान पाया है) भले ही कोई इसे 'अपनी शान मार रहा है‘ कहे तो कहे। सच का मुझे पता है। इस सच का भी मुझे अहसास है कि कोई दूसरा ही हमारी कमियां बता सकता हैै।
पी ए सी में मोटे तौर पर हमने दो कैंप अटैंड किए थे। पहला सात दिनों का बरेली के निकट किसी गांव में टैंट लगाकर। यहीं हमने थ्री नॉट थ्री बंदूक चलानी सीखी थी। वहां रात को लड़के टैंटों में खूब अलजलूल बकते थे। उधम मचाते थे। सवेरे परेड के दौरान देशभक्त बन जाते थे। सुबह शाम दोनों टाइम की परेड से पहले हाजिरी बोली जाती थी। येस सर। येस सर। जो नहीं होता था, उसकी जगह, उसका कोई दोस्त, 'एन सी‘ बोल दिया करता था। मतलब नेचर काल। टट्टी पेशाब को गया है। इन अंग्रेजी शार्ट फार्मज़ पर मैंने व्यंग्य कहानियां हास्य नाटक लघु कथाएं लिखी हैं। इन शार्ट फार्मज़ के अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं। पी․एम․, प्रधानमंत्री। पोस्ट मास्टर। पोस्ट मैन। यहां ज्यादा गिनवाने की गुंजाइश नहीं। मेरी लघुकथा 'ए बी सी संस्कृति‘ ही पढ़जाइए। मजा न आ जाए तो दाम वापस।
पहले भी अपनी वेशभूषा पर डींग, मार चुका हूं। एक बार और मारने दीजिए।
प्रायः होता यह था कि कुछ लड़के विशेष्ा रूप से ग्रामीण छात्र, मिलट्री ड्रैस पहने ही क्लास अटैंड करने चले आते। लापरवाही या फिर कपड़ों का अभाव। वे ही जाने। बाद में ऐसे कैडिट्स का नाम नोटिस बोर्ड पर टंगा पाया गया और उन्हें जुर्माना भुगतना पड़ा। यह जरा अलग बात है।
एक बार परेड के दौरान, जब 'अटैनश्ान‘हुआ तो ट्रेनर ने घोषणा की-मि․ फौजसिंह। वह लाइन छोड़कर हम सबके सामने ट्रेनर के पास खड़ा हो गया।
उन्होंने फिर कहा- अब हरदर्शन सहगल भी यहां आकर, फौजसिंह के साथ खड़े हो जाएं।
मैं भी फौजसिंह से थोड़ा सटकर जा खड़ा हुआ।
उन्होंने फिर कहा-आप सब देख रहे हैं। सहगल ड्रैस पहनकर आया है (मेरी ड्रैस बाकायदा प्रेस की हुई कल्फ लगी थी) लेकिन मि․ फौजसिंह ड्रैस में घुसकर आए हैं। इस पर खूब हंसी-शोरगुल हुआ।
आगे हमें अब 15 दिनों के कैंप में फैज़ाबाद जाना था। बढ़चढ़कर तैयारियां चल रही थीं। सुबह शाम खूब सख्त परेड करवाते थे। वही लैफ्ट राइट। अटैनशन। मार्चपास्ट ठीक परेड न कर पाने वाले या और कोई गलती करने वालों को दोनों हाथों को ऊपर उठा, बंदूक पकड़कर मैदान के चक्कर कटवाए जाते। छंटाई भी चलती रहती। जो लड़का ठीक से परेड न कर रहा होता, ट्रेनर झुक झुक कर पैरों की गति का निरीक्षण करता हुआ, उसकी टांगों में डंडा जमा देता और अक्सर उसके मुंह से निकलता ''तुम उम्र भर फैज़ाबाद नहीं जा सकते।‘‘ हम बाद में आपस में हंसते हुए कहते-क्या अपने खर्चे से भी फैजाबाद नहीं जा सकते ?
आखिर फाइनल सलैक्शन का िदन आ पहुंचा। बड़ी बारीकी से टैस्ट चल रहा था। ट्रेनर अफसर एक एक को बाहर कर रहे थे ''तुम नहीं जाओगे। तुम भी नहीं जाओगे।
मैं पास हो गया। लेकिन मेरे, छोटे कद वाले दोस्त, चीनू को बाहर कर दिया। वह बेचारा आंसू बहाने लगा। मैं द्रवित हो उठा। मैंने हिम्मत करके अफसर से जा कहा- सर मेरी जगह मेरे दोस्त चीनू को रख लीजिए। मुझे रहने दीजिए। इस पर मुझे डांट पड़ी। ऐसा भी कभी होता है। तुम्हें ही चलना होगा। नो आर्गुमेंट कुछ गड़बड़ की तो नतीजा भोगना पड़ेगा। अंडस्टुड। मिल्ट्री के रूल्ज़ जानते हो ?
मैं डर गया। घर जाकर फैजाबाद जाने की तैयारी करने लगा। गर्म कपड़े। पूरा बड़ा बिस्तरबंद। उसमें रजाई। दिसंबर या जनवरी के दिन थे। तीसरे दिन दोपहर की गाड़ी से रवाना होना था। पहले हम लोग बरेली रेलवे स्टेशन प्लेटफार्म नंबर एक पर इकट्ठे हुए।
गाड़ी प्लेटफार्म नंबर तीन से चलनी थी। वक्त हो रहा था। जल्दी पहुंचना था। कुछ लड़कों ने कुली कर लिया। और जल्दी ही प्लेटफार्म नंबर तीन पर जा पहुंचे। कुछ को तो अफसर ने देख लिया, कुछ की दूसरे लड़कों ने चुगली खा डाली। तब उन सबको अपना पूरा सामान वापस उठवा कर प्लेटफार्म नं․ एक पर भेजा गया। फिर से उन्हें अपना सामान खुद ढोकर प्लेटफार्म तीन पर आना पड़ा।
मैं खुशी खुशी पूरे तामझाम के साथ फैजाबाद पहुंचा। लेकिन दूसरे ही दिन लगा, जैसे मैंने किसी अनजानी आफत को आ गले लगाया है 'आ बैल मुझे मार‘। यहां बरेली से भी ज्यादा ठंड लग रही थी। महसूस किया घर जैसा आराम और कहीं नहीं होता। यहां हमें बैरकों में ठहराया गया। एक आध घंटे बाद ही, मिल्ट्री का अनुशासन क्या होता है। हर रोज शेव बनानी लाज़मी है। आदि आदि उच्च विचारों के भाषण पिलाए गए। विशेष रूप से चेताया गया कि 'आउट अॉफ बाउंड‘ भूल कर भ्ाी कहीं नहीं जाना वरना․․․․। और भी कई 'वरनाओं‘ के हीरों को भाषण में, नगों के समान जड़ा हुआ था। इतनी ठंड में सुबह चार बजे सबको रज़ाई में से बाहर कर, दूध का गिलास पिलाकर बर्फीली सड़कों पर दौड़ाया जाता। बेशक बड़े बड़े जूतों और वर्दी और वर्दिश के कारण सर्दी कदरे कम हो जाती पर, औरों का याद नहीं, दौड़ते दौड़ते बरास्ता मेरी नाक से दूध की बेशुमार बूंदे, सड़कों को तरोताजा करती चलतीं। जेब से रूमाल निकालों तो लाइन का अनुशासन भंग होने से सज़ा भी मिल सकती थी। मन को शुरू ही से बहुत अखरता, जब मामूली श्रेणी के सिपाही झुककर हमारे 'लैफ्ट राइट‘ का निरीक्षण कर रहे होते। जरा भी कदमों का तालमेल गड़बड़ाया नहीं उन्होंने हमारी टांगों पर डंडा दे मारा।
दूसरे ही रोज़ शायद कैंप का विधिवत् उद्घाटन होना था। बड़ी सख्ती से परेड का निरीक्षण िकया जा रहा था। उद्घाटन हेतु तत्कालीन राज्यसभा के मनोनीत एक्टर श्री पृथ्वीराज कपूर को आना था।
निरीक्षण के दौरान मेरी (किन्हीं औरों की भी) टांगे जरा डगमगा गईं। हमें परेड-लाइन से बाहर कर दिया गया-तुम लोग पृथ्वीराज कपूर के सामने प्रदर्शन नहीं करोगे।
मेरा मुंह लटक गया। सोचा, बेचारे कदम ही तो हैं, बरेली में ठीक पड़े। यहां धोखा दे गए। क्या पता बेचारे चीनू के याहं आकर ठीक पड़ जाते। ये क्रूर लोग बेचारे चीनू को बरेली में रोता छोड़ आए।
यह दूसरा कारण था कि एक महान हस्ती के सम्मुख मैं परेड में हिस्सा न ले सका। बेशक मैंने कपूर साहब को निकट से देखा सुना और फोटोग्राफ में उनके साथ फोटो खिंचवाई।
मैं खार खाए बैठा था। खार तो आखिर खार ही होती है। इसलिए शायद तीसरे चौथे ही रोज, मैं बैरकों से जरा सी दूरी पर स्थित मिलट्री अस्पताल जा पहुंचा। डाक्टर साहब! मुझे ठंड लग गई है। बुरी तरह से जुकाम है। डॉक्टर ने बड़ी हमदर्दी के साथ मेरा मुआयना किया-हूं , इट्स ए सीरियस। तुम यहीं भर्ती हो जाओ। अरे यह डाक्टर तो पूरा देवता निकला। पूरा ही बड़ा अस्पताल, लगभग सारे बैड खाली पड़े थे। डाक्टर को भी तो अस्पताल की जस्टीफिकेशन दिखलानी थी। उसे खुशी ही हुई। चलो एक मरीज़ तो मिला। मैंने अपनी मज़ीर् का खिड़की से सटा एक बैड चूज़ किया। और ? और पड़ गया।
मैं किसी अमीरज़ादे या नवाब की भांति वहां रहने लगा। सवेरे सवेर उबले हुए अंडे, टोस्ट, दूध से मुझे नवाजा जाता। नर्सिंग स्टाफ पर हुक्म चलाता-मेरे लिए शेव का पानी गर्म कर लाओ। जरा यह चीज उठा लाना।
दिन भर खिड़की से बाहर के प्रकृति-दृश्यों, पक्षियों आदि का अवलोकन करता। साथ लाए हुए नॉवल्ज को पढ़ा करता।
वाह मेरा भाग्य। बद्मजा दिन खुशगवार दिनों में तबदील हाे गए। मस्ती भरे दिन तेजी से निकल रहे थे, कि एकाएक खिड़की में से बाहर नज़र पड़ी। ये कैंप के अंतिम दिन थे। देखता क्या हूं कि सारे कैडिटस वर्दी में लैस, चांदमारी को जा रहे हैं।मैंने फटाफट की। मैंने भी वर्दी पहन ली। चुपके से अस्पताल से गायब होकर भागता हांफ्ता, लाइन में जा घुसा और साथियों के साथ शामिल हो गया।
थ्री नॉट थ्री के मेरे निशाने अचूक निकले। कमांडेंट ने शाबादी दी। घंटे डेढ़ घंटे बाद वापस अस्पताल। कुछ लड़के मेरे पास आए और बताया कि रात को यहां एक सांस्कृतिक कार्यक्रम होने वाला है।
- तो क्या अपन भी कोई ड्रामा कर दें ?
- क्या तुम्हारे पास कोई ड्रामा है ?
- बेशक।
- इतनी जल्दी तैयार․․․․․․․․
- छोड़ो यार। ये सब मुझ पर छोड़ो।
सचमुच मैंने टीम बनाकर लाजवाब ड्रामे की प्रस्तुति पेश की। खूब तालियां बजी। शाबाशी भी मिली।
लेकिन इसके लिए दूसरे दिन मेरी पेशी हो गई। खूब डांट पड़ी कि सिक में होते हुए तुमने दोनों काम कैसे करे। एक तो चांद मारी में बंदूक चलाई। दूसरा नाटक भी किया।
मैंने बड़ी मासूमियत से पूछा- ड्रामा अच्छा था ना ? दूसरा, अगर चांदमारी न करता तो मुझे सर्टिफीकेट न मिलता। अभी जाकर डाक्टर साहब से फिट मीमो लिये आता हूं।
लेकिन डांट बरकरार। यह यह यह कैसे कैसे ․․․․․․․․․
तब बड़े अफसर ने बचवा दिया-बच्चा है। छोड़ो।
यदि आपका मन पूरा घटना चक्कर को जानने को ललचा गया हो तो मेरा हास्य संस्मरण, 'मैंने बंदूक अच्छी चलाई थी ना ?‘ पढ़ जाइए।
छोटे जीजाजी सूबेदार रोशनलाल तलवाड़, बोम्बे से ट्रांसफर होकर देहरादून कैंट आ चुके थे। हम बच्चों का वहां आना जाना खूब लगा रहता था। वहां जीजाजी क्वार्टरमास्टर लगे हुए थे। हमने वहां खूब ऐश की। सिनेमा देखे। प्रोजैक्टर से कॉलोनी में भी फिल्में दिख्ााई जाती थीं। हर रोज कोई न कोई शानदान प्रोग्राम। हमें अगर शहर घूमने जाना होता तो एक बच्चे के लिए भी ट्रक हाजिर। बहन कृष्णा ने वहां डांसिंग क्लब भी ज्वाइन कर रखा था। सारे ठेकेदार जीजाजी की हाजिरी भरते थे। न जाने कितने मेवों से भरपूर स्पेशल केक वगैरह भिजवाते रहते। बड़े अफसर तक उनसे मीट कलेजी वगैरह वगैरह का तकाज़ा करते। वहां पर मिल्ट्री की बहुत बड़ी वर्कशाप थी। वहां के बढि़यों से मैंने अपनी मनमर्जी, लकड़ी के बक्से (डुप्लीकेटर पतला बक्सा भी) बनवाया था। मन में एक अप्रत्यक्ष सोच सी थी कि जब कहानियां लिखूंगा तो दूसरी कॉपी की भी जरूरत पड़ेगी। उस वक्त तक, साइक्लोस्टाइल, फोटो स्टेट का नामोनिशान नहीं था। वहां जो मांगो सो हाजि़र। दोपहर अचानक एक दिन बहन जी को अपनी किला शेखुपुरा वाली पुरानी सहेली जनक वहां दिख गई थी। वह अपने परिवार के साथ राजपुरा में रहती थी। उन्हें भी जीजाजी खूब आब्लाइज करते। जीजाजी तो जैसे ढूंढ़ते फिरते कि किसे किसे उपकृत किया जा सकता है। उनके स्टोर में बहुत अधिकता में कई तरह का सामान नष्ट हो रहा होता। आलू, प्याज, सब्जियों के बोरे आदि।
मगर दूसरी तरफ ? बहन जी कभी कभार, जब बात में से बात निकलती तो, आह भरते हुए बताती कि मिल्ट्री के साधारण सिपाहियों का कोई जीवन नहीं होता। सहमते हुए अफसरों के सही गलत हुक्म बजाते जाओ। ज़रा सी भूल या किसी ठोस कारण से हुक्म उदीली का भी उन्हें कठोर दंड भुगतना पड़ता है। कई बार खाना भी अधूरा मिलता है। तब वे कैंटीन की तरफ भागते हैं। कैंटीन मैं सब समाप्त। इतने लोगों के लिए भोजन कहां रखा रहता है। इसी जीवन पक्ष से आज भी द्रवित होता हूं। एक तरफ गोदामों में अनाज सड़ रहा है। दूसरी तरफ लोग बाग भूखे मर रहे हैं।
और एक हृदय विदारक दृश्य। किसी कर्मचारी के लड़के की मृत्यु हो गई। वह बिना छुट्टी मांगे घर पर रह गया। उसे, इस पर, गिरफ्तार कर लिया गया। वैसे सारे अफसर तक उसके अंतिम क्रिया में पहुंचे। सब संस्कार बहुत ढंग से किए गए। पर बाप को नहीं आने दिया। छुट्टी की अर्जी क्यों नहीं भिजवाइर्। ये सारे वृतांत देख सुनकर बहुधा मेरा हृदय द्रवित हो उठता। बाद में सैनिक जीवन पर कहानियां लिखीं। वह यह भी बतातीं, कि आए दिन उनके यहां कई प्रकार के समारोह हुआ करते हैं। वहां सिपाहियों तक की पत्नियों को अफ्सर बड़ा ही सम्मान देते हैं। सैलूट लगाते हैं।
हमारे देहरादून जाने के दिन दो महीने की छुटि्टयां या बड़े दिनों की छुटि्टयां होती थीं। होता यह भी था कि जब जी करता बहन जी तार देकर सूचित करती और बरेली के लिए गाड़ी में बैठ जातीं। गाड़ी रात दो बजे के करीब बरेली पहुंचती थी। हम उन्हें स्टेशन से ले अाते थे। इसी प्रकार करीब दो बजे रात्रि ही में गाड़ी देहरादून पहुंचाने वाली थी। हम उन्हें स्टेशन पहुंचाने चले जाते थे। नींद तो उखड़ ही जाती थी। नींद खुलने से अच्छा, बहुत अच्छा लगता। बरामदे में रखे बड़े ट्रंक पर मैंने अपनी कोर्स की किताबें सजा रखी थीं। तब बड़ी शांति से कई घंटे खड़े खड़े मैं पढ़ाई करता रहता। खड़े होकर पढ़ने में जो मज़ा है, वह आज इस उम्र में भी बरकरार है। इससे सुस्ती नहीं आती। गाड़ी में बैठने की जगह नहीं मिली तो खड़े खड़े किताब पढ़ते रहो। वक्त गुज़रते देर नहीं लगती।
बोम्बे को छोड़कर, बहन जी जहां जहां भी कैंटोनमेंट्स में रहीं, मैं वहां वहां जाता रहा। जम्मू, उधमपुर तो भांजों, भांजियों को लाने-पहुंचाने उस छोटी वयसंधि (आयु में भी) आता जाता था। बहन जी मुझे चाय बना बनाकर, पिलाती रहतीं। मैं खिड़की में से बाहर के नजारे पहाडि़यां, पक्षी, बादलों के झुंड देखता रहता। साथ ही हाथ की किताब को भी खत्म करने की कोशिश करने में लगा रहता। यहां फिर थोड़ा सा ब्रेक। कहीं जाइएगा नहीं। जम्मू कश्मीर वासियों को, उन दिनों से क्या, बिल्कुल आज़ादी के शुरूआती दौर से ही हमारी भारत सरकार खुश रखने की चेष्टा करती आई है। उनकी सेहत तक का ख्याल रखती आई है। उस प्रदेश में डालडा घी निषिद्ध था। हर यात्री की तलाशी ली जाती थी कि कहीं यह अपने साथ डालडा तो नहीं ले जा रहा। सेाचता हूं। तब से आज तक अन्य सारी सुविधाएं मुहैया करवाने के बावजूद, कश्मीर वासियों का दिल, हम क्यों न जीत सके। इसका विश्लेषण कोई पहुंचा हुआ राजनीतिज्ञ ही कर सकता है। खैर।
दूसरी दिलचस्प घटना भी सुना मारूं। एक बार शाम को जालंधर गाड़ी रूकी। फिर दो घंटे बाद, गाड़ी बरेली के लिए चलनी थी। मैंने अपना सारा सामान यूं ही प्लेटफार्म पर छोड़ दिया, और किशोर भाई साहब के घर की तरफ दौड़ लगा दी। पता मेरे पास था। बता आया हूं कि वे जालंधर के किसी कॉलेज के प्रोफेसर हो गए थे।
मकान में प्रवेश किया तो चाचीजी ने झट पहचान लिया-हें दर्शी तू कित्थों कैंज। मैंने बताया। उन्होंने सब का हालचाल पूछा। पानी पिलाया। मेरी नजर को वे भांप गईं-कहने लगी तेरे भ्रा जी बस अभी कॉलेज से आने ही वाले है। तू सोफे पर बैठ। मैं अभी आई। वे रसोई की तरफ चल दीं। सचमुच तभी अपनी पुरानी तामझाम के साथ किशोर भाई साहब ने बैठक में प्रवेश किया। मुझे देखा जरूर, पर अपना कुछ सामान फाइल वगैरह मेज पर रखने में व्यस्त हो गए। मैं समझ गया- क्यों आपने मुझे पहचाना नहीं।
- पहचान लिया। तुम अपनी फ़ीस माफ कराने को आए हो।
इस पर मेरी हंसी छूट गई। अंदर से चाचीजी भी हंसती हुई वापस आईं- मैंने भी सोचा दश्ाीर् को देखकर कमरे में शोर क्यों नहीं हुआ। हंसी क्यों नहीं गूंजी। अरे यह दर्शी है दर्शी। तब भाई साहब ने मुझे गले लगाया। पीठ पर थपकियां मारने लगे-शरारती। तू इतना बड़ा हो गया। तो चलिए वापस जम्मू उधमपुर। कई बार न जाने क्या सूझता, मैं क्वार्टर से बाहर भाग कर पहाडि़यों पर चढ़ जाता। और और ऊपर चढ़ता ही चला जाता। आज भी ऊंची नीची जगहों पर चढ़ता उतरना, रेतों की टीबों से फिसलना बहुत भाता है। हां बरेली में भी कैंटोनमेंट एरिया में मिल्ट्री ट्रेनिंग ट्रेक पर साइकिल से उतराई चढ़ाई खूब खूब की थी।
देखिए मेरे जीवन की दुःखांतिकी। मैं जम्मू उधमपुर खूब रहा लेकिन श्रीनगर नहीं देख सका। उधपुर में जीजाजी कहीं अज्ञात स्थान पर आगे अडवांस कर रहे थे। हर रोज सैकड़ों ट्रक लारियां जीपें श्रीनगर जाती थीं। बहन जी कहतीं- जा कर घूम आओ। मैं कहता, अकेला मज़ा नहीं अाएगा। मैं अर्सों देहरादून रहा। लेकिन मसूरी नहीं गया। बरेली तो रहते ही रहते थे। हमारे क्वार्टरों के सामने से मीटरगेज चलती थी। उन पर पीलीभीत काठगोदाम हल्दवानी आदि के बोर्ड लगे रहते। मैं कभी नैनीताल भी नहीं गया। जगन्नाथपुरी गया। कोणार्क मन्दिर जाने को समय नहीं बचा था। कलकत्त्ाा से रिजर्वेशन हुआ था। हां बीच में हम पटना जरूर उतरे। मेरे साथ मेरा मित्र सुजानसिंह भी था। मैं ढूंढ़ते ढूंढ़ते ज्योत्सना कार्यालय जा पहुंचा था। 'ज्योत्सना‘ पत्रिका में मेरी ढेरों कहानियां छप चुकी थीं। नया नया लिखने का जोश था। भेजता रहता। छपती रहतीं। एक भी अस्वीकृत नहीं हुई थी। लेकिन पैसा नहीं आता था। मैंने जाकर संपादक शिवेंद्र जी से तकाज़ा किया कि देखिए; यात्रा पर निकले हुए हैं। कुछ पैसे तो दीजिए। शिवेन्द्र जी ने बड़ी गर्म जोशी से स्वागत किया। बड़े जोर की आवाज वातावरण में गुंजाई- अरे भई बहुत बढि़या चाय बनवा कर भेजो।
चाय ही आई। उनसे घुलमिल कर हर तरह की बातें हुईं। उन्होंने जयप्रकाश नारायण पर एक मोटा विशेषांक निकाल रखा था। पूछा आपके राजस्थान में जयप्रकाश नारायण की कैसी इमेज है। वहां इस विशेषांक की कितनी प्रितयां बिक जाएंगी। मैंने जयप्रकाश नारायण के प्रति अपनी श्रद्धा से उन्हें अवगत कराया। और जो जो मेरी समझ में आता, बयान करता जाता। वे मुझे और भी कहानियां भेजते रहने का आग्रह करते जाते। करीब पौन घंटा वहां रूकने के बाद हमने जाने की इजाजत मांगी।
- अच्छा तो चलेंगे। बस एक मिनट। वे अंदर चले गए। लौटे तो उनके हाथ में विशेषांक के साथ, एक बंद लिफाफा भी था ''पत्रमपुष्पम‘‘।
हमने सड़क पर चलते हुए लिफाफा खोला। उसमें पांच या दस, हो सकता है पन्द्रह रूपए थे। हम दोनों मित्र खूब हंसे-मोर्चा मार आए।
दरअसल 10-3-1978 के दिन, 65 रेलकर्मियों के रेलवे कैंप के साथ भ्रमण हेतु हम काठमांडू नेपाल की यात्रा पर निकले थे। 13-3-1978 को रक्सोल से अनुबंधित बस द्वारा कांठमांडू को 14-3-1978 को पहुंचे थे। खूब घूमे फिरे। 15-3-1978 का यह दिन कैंप की ओर से 'फ्री डे‘ था। अपनी मनमर्जी मुताबिक, बाजारों, होटलों में गए। खास तौर से मैं एक स्कूल पट्टमोदय हाई स्कूल में जाकर अपने बेटे विवेक के पैन फ्रेंड रामकुमार से जा मिला। उसके लिए बीकानेर की भुजिया का पैकिट ले गया था।
हुआ यूं था कि कभी बेटे विवेक ने मुझ से कहा था; कि वह भी कहानी लिखना चाहता है। आइडिया है। पर लिखी नहीं जाती। मैंने उसी समय जबानी बोल बोलकर एक बाल हास्य कहानी लिखवा डाली। फर्स्ट राइटिंग की यह कहानी ''पराग‘‘ पत्रिका में जा छपी। विवेक सहगल के नाम से। उसे कुछ पत्रों के साथ नेपाल से रामकुमार का भी पत्र आया था। फिर दोनाें लंबे समय से पत्राचार करते रहे थे।
यहीं एक पैराग्राफ में यह भी बताता चलूं कि इसके बाद मैंने अपने नाम से पराग में कई कहानियां भेजीं। पर मेरी एक कहानी भी वहां न छपी। मुझे ऐसा भी लगा कि देवसरे जी मेरे नाम से ही जैसे खार खाए बैठे हैं। बहुत बहुत बाद में, जब मैंने देवसरे जी के लेखन पर ग़ौर किया तो वह मुझे अति साधारण लगा, जबकि उनकी अनेक पुस्तकें बाजार में हैं। बस लेखक के पास पद होना चाहिए। यही कि यही बात हमारे वरिष्ठ मित्र आलोचक स्व․ प्रो․ रामदेव आचार्य जी ने राजेन्द्र अवस्थी की एक काव्य पुस्तक की समीक्षा करते हुए कही थी कि राजेन्द्र अवस्थी में सिवाए 'कादम्बिनी‘ के संपादक होने के, काव्य का कोई गुण है ही नहीं।
वाह! प्रो․ रामदेव आचार्य जी जो अत्यंत स्पष्टवादी और मुंहफट आदमी थे। एकबार 'कादम्बिनी‘ ही का कोई विशेषांक निकला था। उसकी समीक्षा में उन्होंने लिखा था कि इस अंक को एकदम कमजोर घटिया बनाने में, इनमें छपे तमाम लेखकों ने भरपूर सहयोग दिया है। जब नंदकिशोर आचार्य को तारसप्तक में लिया गया तो बोले-भई अज्ञेय भी तो आखिर मूलतः आदमी है। उसके इतने आगे पीछे घूमोंगे तो कुछ तो पाओंगे ही। इन बातों की सच्चाई जानने समझने के बजाए, ऐसे बयानबाजों को प्रभावित लेखक के समर्थक झट से 'कुंठित डिकलेयर‘ कर देते हैं। साहित्य में कुंठित शब्द भी खूब चमक मारता है। 'कुंठित‘ शब्द को लेकर अनायास ही एक रोचक प्रसंग याद हो आया है। मेरी पोती गुडि़या और पोता काका, मुश्किल से चार दो साल के रहे होंगे। मेरे सामने फर्श पर बैठे थे। मैं बार बार अपना लाड छोटे काके पर उंडेल रहा था- काका कितना अच्छा है। कितना प्यारा है। काका मुझे भी बहुत प्यार करता है․․․․․․․․। एकाएक गुडि़या भड़क कर चिल्ला उठी- मैं दिखाई नहीं दे रही क्या ? बड़ा सुन्दर है काका․․․․ हूं․․․․․․। क्या मैं गुडि़या को 'कुंठित‘ कह सकता था। गोष्ठियों में प्रायः होता यही है कि जिसका ज़्यादा नाम है। वर्क है। उसे देखकर भी हमारे तथा कथित बड़े वक्ता अनदेखा कर अपने चेले चाटों की प्रशंसा के पुल बांधते चले जाते हैं। अगर वे उपेक्षित भी गुडि़या की तरह चिल्लाएं तो 'कुंठित‘ कहलाएं। और वक्ता अपनी साजि़श पर इतराएं-'कुंठित‘।
अज्ञेय जी यहां बीकानेर में नंदकिशोर जी के प्रयासों से तीन चार मर्तबा आए थे। किन्तु उनका बोलने का अंदाज, मुस्कराहट (जैसे प्रनकर्ता बिलकुल नादान हो, कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता था) अतः मेरी उनसे एक बार भी बात करने की हिम्मत न हुई। शायद मैं भी कुंठित रहा हूंगा। युवा रहते हुए मुझे कभी भी, वत्सल निधि (शायद यही नाम सही है) के आयोजनों में कभी शामिल नहीं किया गया, जबकि बीकानेर की बड़ी टीम उसमें थी, जिनकी आज लेखक के रूप में कोई पहचान नहीं है। हां श्री ओम थानवी में काम करने, आगे बढ़ने का जज़बा था। वे राजस्थान पत्रिका आदि के संपादन के पश्चात चंडीगढ़ से होते हुए आज दिल्ली में 'जनसत्त्ाा‘ अखबार के कुशल निष्पक्ष संपादक हैं।
चलिए वापस काठमांडु। तो रामकुमार। रामकुमार बच्चा ही तो था। उसने घर चलने का अनुरोध किया। मैं और सुजान सिंह उसके पिता श्री सुमन कुमार नेपाली से जा मिले। वे संगीतकार हैं। रेडियो, नृत्य संस्थाओं तथा सांस्कृतिक संस्थाओं से संबद्ध।
वे दोनों बाप बेटा दूसरी सुबह हमें मिलने हमारे ठिकाने आए थे। एक होटल में नाश्ता भी कराया था।
अब लगभग वैसी बात कि मैं तो विवेक के मित्र को देख आया था, परन्तु दोनों पैन फ्रैंड, हमेशा लंबे अर्से तक मात्र पैन फ्रैंड ही बने रहे थे।
काठमांडू में हम उसी अनुबंधित बस द्वारा नीलकंठ मन्दिर, दक्षिण काली मन्दिर, म्यूजियम, देख आए थे। हां पशुपतिनाथ मन्दिर भी खूब देखा था। प्रस्तर की बड़ी बड़ी युग्म नग्न मूर्तियां प्रायः हर जगह दो बिल्डिंगों के बीच देखकर दंग रह गए। ऐसी बहुत छोटी छोटी पत्थर पीतल आदि धातुओं की मूर्तियां सरे-बाजार छोटे छोटे बच्चे भी बेच रहे थे। पटरियों पर ही बड़े बड़े कौन कौन से जानवरों का गोश्त सालम देखने को बिकते हुए देखा, जिन्हें हल्दी वगैरह से पोतकर सजाया गया था। बलि के बकरों आदि को नहलाते, फिर उन बकरों को छिटकते कांपते भी देखा था, जिन्हें काली माई के सम्मुख मन्दिर में चढ़ाया जाना था। ऐसे कतलगाह मंदिरों को देखकर तो मैं द्रवित हो उठा था।
यही मूर्तियों का खुलापन आगे जाकर जगन्नाथ पुरी में भी देखने को मिला था। हम लोग ट्यूरिस्ट बस में भ्रमण कर रहे थे। ट्यूरिस्ट गाइड दर्शनीय स्थलों पर बस रोकता और जगह का नाम लेकर समय सीमा की चेतावनी देता-पन्द्रह मिनट में टिकट लेकर देख आओ। यहां आधा घंटा। यहां इतना यहां इतना। उसका वह वाक्य भी मैं नहीं भूला हूं। कहता-हरी अप। यू हैव टु सेव यूअर टाइम नॉट मनी। हमने उसी से उन्हीं नग्न प्रतिमाओं के रहस्य से पर्दा हटाने को कहा जिसकी कोई निश्चित और प्रामाणिक व्याख्या हमेशा कम से कम मेरी समझ से जरा दूर रही। उसने अपने तरीके से इसका मूल कारण यही बताया था कि देखो यह मन्दिरों के अन्दर तो स्थापित नहीं की गईं। सभी बाहर हैं। जिन्हें देखकर भक्त पहले कामेच्छाओं से मुक्त होकर भगवान की आराधना कर सके।
मैं मअॉफी का ख्वास्तगार हूं। ज़रा चंचल हूं। जैसे मेले में कोई बच्चा अपने किसी जिगरी दोस्त पर नजर पड़ते ही अपने घर वालों से छूट कर उस दोस्त के पास जा पहुंचता है। मेरी हालत भी कुछ कुछ वैसी ही हो रही है। जैसे ही समान विचार मिले, समान दृश्यावलियां दीखीं। मैं बहुत आगे निकल भागता हूं। याद दिला दीजिएगा। मैं जरा फिर से पीछे लौटकर फिर जगन्नाथपुरी, हावड़ा का कच्चा चिट्ठा कह सुनाऊंगा।
मेरे पास बहुत सारी छोटी बड़ी डायरियां हैं जिनमें तारीखें ही तारीखें भरी पड़ी हैं।
कुछ को छोड़कर, बाकियों का विवरण वर्णन उनके वजन के मुताबिक करने की कोशिश का वायदा करता हूं।
बरेली में पिताजी को हमारे बड़े जीजाजी जीवन लाल कपूर और उनके बड़े भाई श्री तुलसीदास जो भाई साहब के तथाकथित ससुर बनने वाले थे की चिटि्ठयों पर चिटि्ठयां आने लगीं कि अब मनोहर लाल (भाई साहब) की शादी की तारीख तय कर, के हमें लिखो। इन तकाज़ों को पढ़ पढ़ कर पिताजी माता खासे परेशान हो उठते। क्योंकि लाख समझाने के बावजूद भाई साहब इस शादी के लिए रजामंद नहीं हो रहे थे। वे कहते-एक तो मैं उस अबोध अवस्था की सगाई को मानता ही नहीं। दूसरा, इतने बड़े अमीर घर की लड़की, मेरे जैसे मामूली तन्ख्वाह वाले आदमी के साथ अडजैस्ट नहीं कर पाएगी। वह महानगरों में पली है और मुझे रोड साइड के छोटे सुनसान स्टेशनों पर काम करना पड़ता है। भाई साहब के पास और भी तर्क थे, जिनका ठीक उत्त्ार माताजी पिताजी के पास नहीं होता था। वे बस अपने 'वचन‘ का वास्ता देते। पिताजी कहते अब मैं तुलसीदास को क्या मुंह दिखाऊंगा।
एक दिन खुद तुलसीदास बरेली में हमारे घर आ पहुंचे। पिताजी ट्रेन लेकर आने वाले थे। माताजी ने मेरे हाथ से पानी का गिलास भिजवाया।
तुलसीदास जी ने कहा- मैं धी (बेटी) के घर का पानी नहीं पिऊंगा।
माताजी ने घूंघट की ओर से बहुत धीरे से कहा-अब वह बात नहीं है।
पता नहीं उन्होंने इसे सुना या नहीं। मुझसे पूछा-तुम्हारे बाउजी कहां हैं। माताजी ने बताया। घंटा डेढ़ भी लग सकता है। ट्रेन लेट भी हो जाती है। आप पहले खाना खा लीजिए।
- नहीं।
- अच्छा मैं पड़ोस से मंगवाए देती हूं। पड़ोस से खाना आ गया। मैंने सोचा। पड़ोसिन तो तुलसीदास जी को जानती भी नहीं है। खाना तो फिर भी हमारी वजह से ही आया है। जिन बातों को बच्चे पकड़ लेते हैं, उन बातों को हमारी बुजुर्ग तमाम उम्र नहीं समझ पाते। पीढि़यों से पीढि़यों तक (अतार्किक) परम्पराओं को ढोते चले आते हैं।
पिताजी ने वर्दी पहने घर में प्रवेश किया। सामने बैठे तुलसीदास को देखकर सिहर गए जैसे कोई अपराधी अचानक, सामने खड़े पुलिस वाले को देखकर घबरा जाता है। वर्दी उतारना तो क्या, माताजी के लाए पानी के गलास को पीना भी भूल गए। जैसे तैसे औपचारिक घरेलू बातें करने लगे।
- मेरे ख़त मिले होंगे। कब तक जवान बेटी को घर बैठाए रखूंगा।
- मैंने आपको जवाब दिया था। मनोहर नहीं मानता।
- आखिर कब तक ? लोग बाग तो अपनी लड़कियों के मंगेतरों के साथ ऐसे ही सात फेरे डलवाकर, पाकिस्तान में, टोर (भेज) रहे थे। मैंने लायलपुर में जोर इसलिए न डाला कि इसके सिर पहले ही मां और जवान बहन का भार है।
- पर मैं क्या करूं, पिताजी ने विवश स्वर में कहा- वह किसी भी सूरत में आपके यहां शादी करने को मना कर रहा है। हालांकि मैंने उसे अपने वचन की दुहाई भी दी है, कि इस तरह मैं किसी को भी मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाऊंगा।
हमारी लड़की में कोई नुक्स है ? पाकिस्तान से उजड़ कर आए हैं तो भी मेरे पास सब कुछ हैं। दहेज में कोई कमी नहीं रखूंगा। कहिए तो आपके बड़े भाई साहब या फ्लाने फ्लाने से कहलवाऊं ? जितनी भी बातें तर्क वे दे सकते थे, दिए जा रहे थे।
पिताजी ने कहा- यह सब कुछ नहीं है। आप खुद मनोहर के पास जाकर उसे मना दें। मुझे इससे बढ़कर और कोई ख्ाुशी नहीं होगी।
माताजी ने घुंघट की ओर से धीमा स्वर निकाला-कहता है, बहुत दबाव डालोगे तो बस घर के बर्तन मांजने के लिए ले आओ। मैं अपने साथ नहीं ले जाऊंगा।
बस माताजी का इतना सा वाक्य, पूरा वार कर गया। तुलसीदास जी उठ खड़े हुए-जैसे आप लोगों की मर्जी।
पिताजी बहुत भावुक हो उठे- मैं बहुत शर्मिंदा हूं। तुलसीदास जी, आपका गुनाहगार हूं। अब आप मेरे सिर पर हाथ रखकर कह दीजिए। तुम्हें माफ किया। जब तक आप ऐसा नहीं करेंगे। मैं जिंदगी भर चैन की सांस न ले पाऊंगा।
ऐसा ही हुआ। फिर तुलसीदास जी अपने दोनाें पंखे लेकर चले गए। इस सारे वृतांत को देख-सुनकर मैं कई रोज तक बेचैनी अनुभव करता रहा। इस सब झमेले से बचने के लिए अच्छा है, सगाई या शादी की ही न जाए।
रास्ता साफ हो गया। अब भाई साहब की शादी अन्यत्र करनी थी। कौनसा घर। कौन सी लड़की।
मैं अपने जम्मू उधमपुर देहरादून में मटरगश्ती के बारे में बहुत कुछ लिख आया हूं। साथ में यह भी जोड़ दें कि मैं अलीगढ़ तथा साथ में सटे कस्बे कासिमपुर पावर हाउस में भी खूब घूमा फिरा हूं। छुटि्टयों में दोनों जगह भी चला जाया करता था। कासिमपुर में तायाजी श्री सुखदयाल सबपोस्ट मास्टर थे। तायी जी बहुत ही लाड प्यार से रखतीं। वे रिश्ते में माताजी की बहन भी लगती थीं। इसलिए हम उन्हें मासीजी ही कहा करते थे। हम खेतों में चले जाते। चने का साग, सरसों, गन्ने आदि बड़े मज़े से ले आते। दोपहर में आम जामुन के पेड़ों पर चढ़ जाते।
तलैया से वंसी डालकर या यूं ही छोटी छोटी मछलियां पकड़ कर पानी की बाल्टी में भर लाते। ये खाने के लिए नहीं। हमारे खेलने का सामान होतीं।
तायाजी को हमारा यह खेल खासा नागवार लगता। एक दिन तमतमा कर बोले- इसी वक्त बाहर फेंक दो।
एकाएक मेरे सम्मुख, उस छोटी उम्र का दृश्य आंखों के सामने साकार हो उठा, जब भाई साहब एक घड़े में भरकर छोटी छोटी मछलियां, करोड़ से किला शेखुपुरा ला रहे थे। तब आवागमन के साधन न के बराबर ही थे। पैदल पैदल करोड़ रेलवे स्टेशन पहुंचने ही वाले थे कि चाचा टहलराम जी की नजर घड़े पर पड़ी। वे हमें स्टेशन पहुंचाने हमारे साथ चल रहे थे। पूछा- इस घड़े में क्या है। मेरे या छोटे भाई बृज के मुंह से खुशी से निकल गया-मछलियां हैं। हम इनसे खेलेंगे।
चाचाजी को गुस्सा आ गया-यह कौन सा तरीका है। उन्होंने आव देखा न ताव भाई साहब के सर से घड़ा ले कर तपती रेत पर दे मारा। बेचारी मछलियां तड़प तड़प कर वहीं मर गईं।
इसलिए मैंने यही बेहतर समझा कि वैसी ही कोई घटना न घट जाए। फौरन बाल्टी उठाई और वापस मछलियों को तलैया में डाल आया।
अलीगढ़ में मौसी जी की लड़की शीला रहती थीं। बचपन में उन्होंने मुझे गोदी में खिलाया था। सगी बहनों से बढ़कर बहन शीला। वात्सल्य की मूर्ति। जीजाजी प्रकाश चन्द्र वर्मा भी पोस्ट अॉफिस में किसी अच्छे पद पर थे। वे भी सगे जीजाजी से बढ़चढ़कर मुझे प्यार दुलार करते। घुमाते फिराते खिलाते। उनकी लड़की रानी मेरी हम उम्र थी। उसके साथ खूब खेलता। सबकी चिटि्ठयों का आदान-प्रदान बड़ी तेजी से हुआ करता था सविस्तार/पूरे परिवारों का हाल सुख दुःख समस्याएं सब को जल्दी से जल्दी पता चलती रहती थीं।
शीला बहन जी प्रकाश जीजाजी भी, भाई साहब के लिए लड़कियां बता रहे थे। परन्तु बार बार हमारे सारे घर वालों को लाला काशीराम की लड़की बिमला जच रही थी। इस परिवार का जिक्र मैं पहले कर आया हूं कि अंबाला कैंट कैंप से हमारे साथ ही बरेली में काशीराम जी टी․टी․ई․ का पोस्टिंग हुआ था। हम दोनों परिवार खूब घुले मिले हुए थे। दिन में कम से कम दो चक्कर तो एक दूसरे के क्वार्टरों के लग ही जाते थे। बिमला की मां नहीं थी। यदा कदा काशीराम बिमला की विधवा मौसी को ले आया करते थे। वे बच्चों की देखभाल कर जाया करती थी। पर सुनने में आता था कि काशीराम जी के उनके साथ अवैध संबंध थे। पता नहीं कितना ठीक कितना गलत है। हां, याद आया कभी कभी वे हम बच्चों का घेरा बनवा कर बीच में बैठ जातीं और कुछ अश्लील चुटकुले सुनाया करती। हम छोटे तो कम समझते पर बिमला कुछ शरमा कर मुंह बना देतीं-बस ओए मासी बस। पर हमें क्या, हम सब को तो बिमला से मतलब। बिमला देखने में गोरी चिट्टी सुंदर। गाने के सुर भी मधुर। हम उससे गाने सुनते रहते। जब जब भाई साहब आते। वह भी आकर मिल जाती।
माताजी ने, पिताजी से कहा क्यों न हम बिमला को ही ले आएं। देखी भाली भोली बिना मां की लड़की। ऊपर से आपको अपने समान, गाने वाली नूं (बहू), मिल जाएगी।
पिताजी शायद पहले ही से यह बात सोचते थे। फौरन मान गए। ठीक है मैं काशीराम से बात करूंगा। है तो अक्खड़ किस्म का। अपने को किसी नवाब से कम नहीं समझता। ऐसे तो हर आदमी में कुछ सनके कुछ न कुछ ऐब होते ही हैं। पर हमें तो लड़की से मतलब वह तो बहुत सुशील है।
भाई साहब से भी बिमला के लिए सहमति ले ली गई। अब उन्हें क्या ऐतराज़ हो सकता था। ईक्वल स्टेटस (बराबर की मान प्रतिष्ठा) रेलवे क्वार्टरों में रहे हुए बच्चे। देखी भाली लड़की। ठीक है। उनकी तरह गा भी सकती है।
माताजी तो पहले ही बिमला को बेटियों सा प्यार देती थीं। अब उस पर बहू वाला लाड उडेलने लगीं। एक दिन उनके क्वार्टर जा पहुंची। पता था। लाला काशीराम ड्यूटी से लौट आए होंगे। बात आगे बढ़ाई जाए। लगन महूर्त निकलवाया जाए।
काशीराम टी टी वाले रौब में आ गए। शायद कुछ चढ़ा भी रखी थी। माताजी के बिमला के साथ बैठते ही, शुरू हो गए-ओ माई तेरे पास क्या कुछ है भी ? मेरी लड़की को कितने गहने पहनाओगी। कौन कौन से कपड़ों का प्रबंध करोगी।
माताजी अवाक। फिर भी विनीत स्वर में जवाब दिया-भाई साहब कौन अपनी बहू के लिए कोइर् कसर छोड़ता है। जो कुछ हमारे पास है किसी से छिपा हुआ तो नहीं है।
- फिर भी बता तो सही। पता तो चले।
माताजी अपमानित होकर वापस चल दीं। बिमला तो इस अप्रिय संवाद के बीच उठकर न जाने उठकर दूसरे कमरे में चली गई।
पिताजी जब गाड़ी लेकर लौटे तो माताजी ने उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया। पिताजी को धक्का लगा। उनके मुंह से सोरीदा (सुसरा) शब्द निकला-इस कमीने को इतनी भी तमीज नहीं कि औरतों के साथ कैसे बिहेव किया जाता है। और तुम तो उसकी होने वाली समधिन थीं। मैं तो शुरू ही से उस नीच आदमी को कभी पसंद नहीं किया करता था। सब बच्चों की रजा देखी तो मान गया। चलो बिमला तो अच्छी लड़की है। वह आगे से लड़की वालों की तरह पेश आएगा। दहेज की मांग लड़के वाले रखते हैं या लड़की वाले। पिताजी ने गुस्से पर काबू पा लिया-ज़रूर चढ़ाए हुए होगा। दूसरे दिन जब काशीराम उन्हें ट्रेन में मिले तो उन्होंने उसे डांटा।
बोला-मैं शाह खर्च आदमी हूं। तुम देखना। बहुत जल्दी हिन्दुस्तान पाकिस्तान एक हो जाएंगे। मैं वापस अपने पुश्तैनी घर नौशहरा लौटूंगा। वहीं बिमला की शादी बड़े ठाट बाट के साथ करूंगा। तुम देखना।
- क्या हम दूसरा घर देखें।
- हां हां बड़ी खुशी से। मैं तो पाकिस्तान जाने तक इंतजार करूंगा।
बरेली तो आखिर बरेली है। मेरे लिए बहुत कुछ। सब कुछ। बचपना। चढ़ती जवानी। बरेली की स्मृतियां सिर चढ़कर बोलती हैं। एक बात तो यह लिखने को रह गई। इसे भी आप संयोग वाले चैप्टर से िमलाकर देख सकते हैं। मेरा दसवीं का रिजल्ट। मैंने बोर्ड अॉफ हाई स्कूल एंड इंटरमीडियेट एजेकेशन इलाहाबाद उत्त्ार प्रदेश से ही दोनों परीक्षाएं पास की थीं। हाई स्कूल 1953 में तथा इंटरमीडिएट 1955 में। बरेली में ही दी थीं। इंटर के रिजल्ट के समय मैं दिल्ली में था। दिल्ली में उत्त्ार प्रदेश वाले अखबार बहुत कम ही आते थे। शाम का समय था कि शक्तिनगर में मुझे किसी ने बताया तुम्हारा रिजल्ट आउट हो गया है। घंटा घर में कोई अखबार बेच रहा है। मैं तुरंत उसी हालत में घंटाघर की तरफ भागा। एक आदमी अखबार लिये खड़ा था। मगर बेच नहीं रहा था। सबसे चार चार आने लेकर रोल नंबर दिखा रहा था जबकि उस जमाने में अखबारों की कीमत दो पैसे से छह पैसे के बीच हुआ करती थी। शुरू से ही सब जगह गरज के सौदे होते देखे गए हैं। मेरी गरज थी सो चार आने दे रिजल्ट देखकर खुश होता हुआ बड़ी बहन सुमित्रा कपूर के घर लौटा। चार आने चुभ नहीं रहे थे।
इससे असली किस्सा दसवीं के रिजल्ट का ही बताने जा रहा था। हमारे उस जमान में अखबारों में ही रिजल्ट आउट होते थे। गाड़ी रात दो बजे बरेली आकर ठहरती थी। दो पांच मिनट रूककर आगे को चल देती थी। स्टेशन पर लड़कों की भीड ही भीड़ थी। तिल रखने की जगह न थी। गाड़ी के ठहरते ही सभी ब्रेक वान की तरफ लपके। लड़के पार्सल क्लर्क तथा न्यूज एजेंसी वालों की डिलिवरी लेने नहीं दे रहे थे। उन्हें बुरी तरह से पीछे धकेल रहे थे। गार्ड बेचारगी से हाथ में रजिस्टर िलये खड़ा था ताकि कन्साइनी (परेषिती) के हस्ताक्षर लेकर माल उनके हवाले कर गाड़ी को आगे के लिए हरी झंडी दिखा सके। लेकिन लड़के, सबकी ऐसी तैसी किए हुए थे। गार्ड हाथ जोड़ जोड़ कर प्रार्थना कर करके थक गया तो उसने बिना बंडल उतारे आगे के लिए सीटी बजा दी। गाड़ी चलती तो लड़के गाड़ी में चढ़कर चेन खींच खींच कर रोक देते। ऐसा कई बार हुआ। अंत में तंग आकर गार्ड ने बिना दस्तखत लिये अखबारों के सारे बंडल बाहर फैंक दिये। यह कहना ज़्यादा अच्छा लगता है कि सारे अखबार लड़कों के मुंह पर दे मारे। गाड़ी बहुत लेट हो गई थी। और कितनी लेट करता। गाड़ी स्पीड से चल दी।
अखबारों की लूट मची थी। छीना झपटी हो रही थी। सारे अखबारों की चिंदियां हो रही थीं। मेरे हाथ किसी अखबार का आठवां हिस्सा लगा। आश्चर्य। उसी में मेरा रोल नंबर दर्ज था। मैंने फिर इधर उधर नहीं देखा। खुशी खुशी क्वार्टर में जाकर सबको जगा दिया। देखो मैं पास हो गया।
पिछले दिनों नेशनल चैनल पर 'आन‘ फिल्म आ रही थी। निकल ही चुकी थी। आधे घंटे की बाकी थी जिसे मैंने बड़े चाव से सपरिवार देखा। और अतीत मैं खो गया। वैसे फिल्मों के बारे में पहले कुछ लिख आया हूं कि कोई कोई फिल्म ही रंगीन हुआ करती थी, जिन्हें 'कलर्ड‘ टैक्निक कलर्ड‘ 'गेवा कलर्ड‘ नाम दिए जाते। 'आन‘ भी ऐसी ही कोई रंगीन फिल्म थी जो प्रेमनाथ, दिलीप कुमार, नादिरा की हिट फिल्म साबित हुई थी। फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि माताजी को अपनी साइकिल के पीछे बिठाकर 'हिन्द टाकीज‘ में दिखा आया था। मैं ऐसा ही करता था। जो जो फिल्में मुझे मस्ती देतीं, वह वह माताजी को ज़रूर दिखला लाता। सहसा एक फिल्म की याद आते ही मेरी हंसी इतनी ज़ोर से फूट निकली कि बच्चों को जिज्ञासा हुई -अचानक इतनी जोर से हंस कैसे रहे हैं। तब मैंने वृतांत कह सुनाया। फिल्म का नाम फिल्म का कथ्य तो जीरो भी याद नहीं पर पिकचर हाल में जो घटना घटी वह कभी न भूलने वाली ही है।
जैसे ही वह फिल्म शुरू होने को थी कि तो हाल में अंधेरा कर दिया गया। तभी हमारी अगली सीट पर बैठे एक लंबे आदमी को छींक आ गई। उसने जेब से रूमाल निकाला। साथ में दो पैसे या एक आने का सिक्का फर्श पर जा गिरा। वह झुककर उस सिक्के की तलाश करने लगा। फिर खड़ा होकर आगे पीछे की सीटोंके नीचे उस अदने से सिक्के को बार बार ढूंढ़ता। इस उस से पूछता-तुम ने देखा है। भई ज़रा देखना तो सही। मिल जाएगा। लोग उसे झिड़कते-मिल जाएगा। क्या हमने लिया है। वह सब की झिड़कियां खाता। सब से ऊंचे स्वर में गालियां बकता झगड़ता और फिर तमाम सीटों के नीचे झांकता। इंटरवल में भी उसे अपना सिक्का न मिल पाया। इंटरवल के बाद भी उसका ढूंढ़ना बदस्तूर जारी रहा। रह रह कर दूसरों से तकरार होती रही। उस पट्ठे ने न तो खुद पिकचर देखी और न ही और किसी को देखने दी। फकत उस छोटे सिक्के की एवज में। उसके साथ साथ हमारी टिकट के पैसे भी हराम गए। लेकिन हाय पैसे का मोह, आदमी को ठीक से जीने नहीं देता।
मुझे याद है मैं आपको नेपाल, पटना, जगन्नाथपुरी ले गया था। कलकता, में ला खड़ा किया था। ये ऐसी ऐसी स्मृतियां भी क्या अजीब अजूबी अनोखी अजीबोगरीब हैं। ये ऐसी ऐसी स्मृतियां भी क्या सहसा धक्का दे मारती। फिर धकेल कर अतीत के खजाने में ले जाती हैं। आप थोड़ा सब्र रखें साथ ही मुझे याद दिलाते रहें इस यादावरी के लिए हमेशा मश्कूर (आभारी) रहूंगा कि हमें फिर से कलकता से बीकानेर लौटना है। थोड़ा समय लग सकता है। सब्र बनाए रखें। और साथ ही मेरे कहने के लहजे को जैसे चाहें वैसे मानें। दरअसल यह भी मेरी स्मृतियां में शामिल है। हम अपने जमाने में ऐसा ही बोला-लिखा करते थे।
गोविन्द प्रसाद गुप्ता के विषय में पहले थोड़ा लिख आया हूं। अब अपन उस फकीर मगर अंग्रेजी के अमीर शख्सीयत की चर्चा करते हैं।
गोविंद प्रसाद मूलरूप से बिजनोर साइड का बाशिंदा था। वह बीए करने की खातिर बरेली आ पहुंचा था। कुछ भी पास नहीं, सिवाए दो जोड़े कपड़े और एक छोटे बक्से के। बक्से में काफी कुछ रखने की गुंजाइश थी। किताबें न के बराबर। खैर एक अदद कैसा भी, बिस्तर तो रहा ही होगा। रेल्वे क्वार्टरों में किसी का एक कमरा लेकर रहने लगा। कॉलेज में बी ए में अडमिशन ले लिया। इधर उधर खास तौर से रेल्वे के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर, किसी तरह गुजर बसर करने लगा। एक दम विनम्र स्वभाव के कारण सब का प्रिय बन गया। उसके पास कोर्स की भी कोई पुस्तक नहीं होती थी। वह अपने सहपाठियों से पूछा करता कि फ्लानी किताब तुम किस वक्त नहीं पढ़ोंगे। उतने ही समय एक दो या तीन घंटों के लिए वह उनसे पुस्तक लेकर पढ़ डालता। और ठीक समय पर उसके घर वापस पहुंचा जाता। इसलिए उसे तमाम लोगों से पुस्तकें पढ़ने को आराम से मिल जातीं।
मैंने और मेरे छोटे भाई ने भ्ाी उसकी ट्यूशन कर ली थी। वह बहुत जल्दी ही हमारे परिवार के साथ घुल मिल गया, जैसे हमारे ही घर का सदस्य हो। पिताजी उसकी हर तरह से यथासंभव सहायता करते। माताजी उस पर तरस खातीं। इस ट्यूशन के अलावा मेरा छोटा भाई बृज मोहन अपने एक सहपाठी से पढ़ आता। उसका नाम शायद मोहिनी था। वह पढ़ने में बहुत ही होशियार था। बृज पढ़ने में एक दम कमजोर था। पढ़ाई चोर भी था। जल्दी सो जाया करता था। मैं ढिबरी जलाकर पढ़ रहा होता तो फूंक मार कर ढिबरी को बुझा देता। कहता तू भी सो जा। यह सब इसलिए कि सुबह ''यह सुनने को न मिले कि देखो दर्शन तो बहुत देर तक पढ़ता रहा और बृज बिना कुछ पढ़े सो गया।
जैसा कि शुरू में कह आया हूं कि जिंदगी किसी सलीके नियम से नहीं चलती। हुआ यह था कि वह जबर्दस्त पढ़ाकू होशियार मोहिनी तो फेल हो गया जबकि मेरा भाई बृज पास हो गया। ख्ौर।
बात श्री गोविंद प्रसाद की जारी रखी जाए। उसका कोई पंजाबी, लंबे कद काठी का गोरा युवक दोस्त बना। वह उसे शहर ले गया। वहां उन दोनों ने मिलकर एक किराए का कमरा लिया। दोनों साथ साथ रहने लगे। एक दिन वह चालाक बेचारे गोविंद प्रसाद की कंगाली में आटा गीला कर, चंपत हो गया। उस बेचारे के पास पहनने तक के कपड़े तक न रहे। मेरी माताजी तथा हमारे एक अन्य मित्र मदनलाल ढल की माताजी ने उसे कुर्ते पाजामे दिये। यह कपड़े देने वाली बात दो साल पहले गोविंद प्रसाद से ही मुझे जान पड़ी, जब वह बीकानेर आया था। वह बहुत देर तक मेरी 'स्टडी‘ में ठीक मेरे सामने लगे माताजी पिताजी के चित्र के आगे शीश झुकाए खड़ा था। अब वह अंग्रेजी के प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त्ा है। उसने होशिंगाबाद में प्रोफेसरी की। दस बारह बेटे बेटियों का बाप बना। भोपाल में बड़ा आदमी कहलाता है। जमाने भर की सारी सुविधाएं उसके पास हैं। आठ दस सालों में किसी अवसर विशेष पर वह तथा सुधा भाभी कभी कभी बीकानेर आते हैं। पिछले साल उनका सबसे बड़ा लड़का अरूण आया था। उसका नाम 'अरूण‘ मैंने ही रखा था पर वह बेचारा मुझे कैसे जाने। पहचान तो मैं भी नहीं सकता था।पर उसके ठिकाने मैं ही जाकर उसे मिल आया; और सारे तथ्यों का खुलास कर आया कि मैंने ही तेरा नाम अरूण रखा था। तुझे गोदी में खिलाया था। वह बार बार मेरे पैर छूता रहा। आप ही पिताजी के बचपन के दोस्त हैं।
बता यह रहा था कि कुछ न होते हुए भी वह शख्स अच्छे नंबरों से पास होता रहा था।
जब में ग्यारहवीं क्लास में पढ़ता था तो गोविंद प्रसाद के चाचाओं ने उसका रिश्ता बीकानेर में तय कर दिया। गोविंद प्रसाद ने मुझसे कहा-तुम्हें बरात में जरूर चलना पड़ेगा। मैंने तत्काल हामी भर दी। उस जमाने में गाड़ी में फर्स्ट सैकेंड इंटर थर्ड क्लास हुआ करते थे। मैंने पिताजी से कहकर सैकेंड क्लास का पास बनवा लाया। बरात में गिनती के ही कुछ आदमी थे। मैं खूब बना ठना टाई लगाए था। गोविंद प्रसाद ने भी भरसक सजने संवरने की कोशिश की। कहीं से कबाड़ के कोई गुचुच टाई भी लगा ली थी। मुझसे कहने लगा-तुम दो रेाज के लिए अपनी क्लाई घड़ी मुझे दे दो। उसने घड़ी भी बांध ली। इसके बावजूद ससुराल पक्ष वालों ने बहुत देर तक मुझे ही दूहला समझे रखा। खैर शादी की दूसरी सुबह जब गोविंद प्रसाद मुझे मिले तो नाक भौं सिकोड़े हुए। यानी लड़की सुन्दर नहीं थी। चेहरे पर माता के दाग थे। मैंने मन ही मन सोचा-'तू भी कौन सा नवाब या हीरो है। ऊपर से कोई रोजगार नहीं। मैंने तो भाभी की झलक वापसी में सैकेंड क्लास के डिब्बे में देखी थी। सिर्फ हम तीनों ही सैकेंड क्लास में थे। मेरा उनके बीच रहना गोविंद प्रसाद को थोड़ा खला था। सो मैं उन दोनों से कुछ किनारा-कश हुए रहा। बेशक भाभी खास सुन्दर न थीं किन्तु गुणों की, वात्सल्य की खान थीं। वे बीकानेर के एम एस (महारानी सुदर्शना) कॉलेज से बी․ए․ एम․ए․ थीं। उन दोनों के बारे में आगे चलकर बताऊंगा। शायद पहले लिख आया हूं कि हम बरातियों को बीकानेर खूब घुमाया फिराया गया। भाभी के भाई यति क्वर्टरर्ज गंगाशहर रोड में आज भी रहते हैं। गुप्ता जी का बड़ा व्यापार प्रिंटिंग प्रेसें हैं।
मुझे उस वक्त क्या खबर थी कि एक दिन मुझे बीकानेर आकर ही आबाद होना है। अपना मकान बनाना है। परिवार को पनपा कर, रिश्तेदारों को पैदा करना है। बीकानेर तेरी जय हो।
अभी वापस बरेली चलें। भाई साहब की बचपन की सगाई टूटी। बिमला भी हाथ में आते आते छूटी। अब ? भाई साहब मेरी तरह से शादी न करने की कसम तो न खाए हुए थे। शादी उन्हें करनी थी। पर अपने बनाए मानदण्डों के अनुसार।
तो चलिए घर के इतिास के कुछ पूर्व पृष्ठों को खोलें!
श्री बी․एन․ (बिशंभर नाथ) चोपड़ा।
श्री बी․एन․ चोपड़ा का जिक्र रेलवे-इतिहास में गिनीचुनी शख्सियतों में आता है। आज की बजुर्ग रेलवे पीढ़ी उनके नाम से वाकिफ है। उन्होंने रेलवे ट्रास्पोरर्टेशन की सात आठ पुस्तकें लिखीं और वायरलैस पर एक। आत्माराम एंड संस या राजपाल एंड संस (लाहौर) ने उन्हें छापा था। जब वे अंतिम पुस्तक लिख रहे थे तो वे 55 वर्ष के हो गए थे। यही रिटायरमेंट एज थी। तब इसी पुस्तक-लेखन के कारण रेलवे ने उन्हें दो साल की एक्स्टेनशन दी थी। रेल्वे कोर्सिस की होने के कारण उनकी बिक्री धड़ल्ले से होती थी। वह माने हुए वैध भी थे। कई दवाएं ईजाद कर उन्हें पेटेंट करवाया था। यहीं पर एक दुःखद घटना का ध्यान हो आया। जब वे मृत्यु शैय्या पर पड़े थे, तब भ्ाी मैंने उनकी डाक में एक खास पत्र देखा था, जिसमें किसी रोगी ने उनसे अपने लाइलाज रोग की दवा मांगी थी कि आप ही मेरे जीवन के लिए कुछ कर सकते हैं। अब इस पर क्या टिप्पणी की जा सकती है।
हां तो चोपड़ा साहब के विषय में पहले बहुत कुछ सुना था। फिर मैं युवावस्था से उन्हें अपनी आंखों से देखता आया था। पहले बड़े भाई साहब, उनके संपर्क में आए थे। चोपड़ा साहब वालटेन रेलवे ट्रेनिंग स्कूल लाहौर में इन्स्ट्रकटर थे। उस जमाने के बी․ए․। भाई साहब का जब रेलवे में चयन हुआ तो उनसे भी पढ़ा करते थे। इससे पूर्व वे भी पाकिस्तान के कई कई छोटे बड़े स्टेशनों पर सिगनेलर ए एस एम स्टेशन मास्टर वगैरह वगैरह रह चुके थे।
वे भाई साहब की योग्यता से काफी प्रभावित थे। यानी भाई साहब मनोहर लाल उनके प्रिय शिष्यों में से खास थे। ट्रेनिंग पूरी करने के उपरांत भाई साहब की पोिस्टंग शोरकोट में हुई थी। जरा बाद में उनके बेटे वेदप्रकाश चोपड़ा ने भी वालटेन ट्रेनिंग स्कूल से ही कोर्स पूरा किया था। बहुत बाद में वह नई दिल्ली से स्टेशन अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त्ा हुए। और भाई साहब विजिलेंस आफिसर के पद से। वेद प्रकाश जी में शुरू ही से कई किस्म के खुराफात थे, जो अब तक भी बने हुए हैं। जैसे परिवारजनों के सम्मुख हर तरह की गालियां बोलना, आदि आदि। जैसे ही श्री वेदप्रकाश की ट्रेनिंग पूरी हुई थी, उनके पिता श्री बी․एन․ चोपड़ा, ने उनका भी पोस्टिंग शोरकोट में ही करवा दिया था कि वहां पर मनोहर लाल सहगल हैं। उसकी सोहबत में रहेगा तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। चोपड़ा साहब अत्यंत अनुशासन प्रिय और कर्मठ व्यक्ति थे। न खुद कभी खाली बैठते थे। न बच्चों को बैठने देते थे। खड़े खड़े काम करना, अध्ययनशीलता, मैंने उन्हीं से सीखी।
वेदप्रकाश बताते कि उनके पिता सामान्य जिंदगी जीने वाले, पर बड़े सख्त मिज़ाज के आदमी हैं, ''एक बार मैंने कह दिया था कि गेहूं का पीपा उठाकर चक्की से पिसवाते शर्म आती है; तो दूसरे रोज जब मैं स्कूल जाने लगा तो उन्होंने मुझसे पीपा उठवाया कि पहले तू इसे स्कूल ले जाएगा। स्कूल से लौटती बार इस (गेहूं) को पिसवा कर घर आएगा। मुझे ऐसा ही करना पड़ा था।‘‘
भाई साहब और वेदप्रकाश जी के बीच गहरी दोस्ती हो गई। भाई साहब को खाना बनाना नहीं आता था। वेदप्रकाश उन्हें बनाकर खिलाने लगे। भाई साहब ऊपर के कुछ काम कर दिया करते।
पाकिस्तान बनने से कुछ समय पूर्व ही चोपड़ा जी की ट्रांस्फर शिमला में कन्ट्रोलर के पद पर हो गई। इस पद पर उन्हें ऊपर की आमदनी लेनी पड़ती थी जिसे लेने में उनका मन गवाही नहीं देता था। तब उन्होंने थोड़ा प्रयास कर गाजियाबाद ई․पी․ रेलवे में ट्रांस्पोर्टेशन इंस्ट्रकटर, लोको ट्रेनिंग स्कूल में अपना पहले वाला पद वापस पा लिया। इज़्ज़त की जि़ंदगी। हक का पैसा।
चोपड़ा साहब की दस औलादें थीं। चार बेटे छह बेटियां। सबसे बड़े वही वेदप्रकाश चोपड़ा। भाई साहब की भांति ट्रैफिक सिगनेलर। दूसरे नंबर पर राजरानी चोपड़ा।
भाई साहब और श्री वेदप्रकाश गहरे दोस्त तो थे ही। मोर्स (तार) सिस्टम से तथा चिट्ठी चपाती से एक दूसरे की कुशल-मंगल जानते रहते थे। हमारे घर के महीन से महीन हालात वेदप्रकाश जी से छिपे नहीं रहते थे। उन्हें भाई साहब की मंगनी के टूटने का भी पता चला थ्ाा।
एक दिन अचानक उनके मन में ख्याल कौंधा। अपने पिता श्री बी․एन․ चोपड़ा से बोले-क्यों न हम रानी का विवाह मनोहर से कर दें।
- इससे ज्यादा नेक, शरीफ और लायक लड़का हमें और कहां मिलेगा। पहले तुम्हीं मनोहरलाल से बात करके देखो।
वेद प्रकाश जी वाक्यपटु तो शुरू ही से रहे हैं। वे भाई साहब के पास पहुंच गए। उसी दोस्ताना अंदाज से बोले- देख मैं शोरकोट में तेरे लिए रोटियां बनाता था कि नहीं।
- तो अब इसका मतलब क्या हुआ ? भाई साहब ने भौंचक स्वर में पूछा।
- समझता हूं। पहले 'हां‘ तो कहो। मना नहीं करना।
- बोल जाओ।
- अब अपनी छोटी बहन रानी को तेरी रोटियां सैकने को भेज दूं।
भाई साहब ने थोड़ा सोचा- मेरे मदर फादर से कह। मैं कौन होता हूं, जवाब देने वाला।
- करैक्ट, मेरे फादर बात कर लेंगे। मैं तो अडवांस पार्टी हूं।
बात चल निकली। 29 सितंबर 1949 के दिन बरेली से सुबह 6 बजे की गाड़ी से बरात रवाना होकर शाम 5 बजे गाजियाबाद पहुंची थीं। खूब धूमधाम से शादी हुई। पिताजी ने अपनी उूर्द डायरी में ऐसा लिखा है कि बड़े जोशो खरोश से उनके छोटे भाई (हमारे चाचाजी) टहलराम ने खुद का तैयार किया हुअा 'मनोहर सेहरा‘ सस्वर पढ़ा था। हमारी भाभी वास्तव में बहुत स्वस्थ गोरी चिट्ठी सुंदर थी। उन्हें लेकर हम लोग दूसरे रोज बरेली वापस आ गए थे।
अब मैं कुछ तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश करता हूं।
मैंने और मेरे छोटे भाई बृजमोहन ने 18/19 जनवरी 1956 को सहारनपुर रेल्वे ट्रेनिंग स्कूल में टेलिग्राफी का टैस्ट दिया। पास होने पर साक्षात्कार भी हुआ। इस वक्त चोपड़ा साहब यहीं सहारनपुर में एस टी आर (आफिसर) के पद पर नियुक्त हो चुके थे। रेलवे के पुल के नीचे उनका बहुत बड़ा बंगला था जो अब भी वहीं पर वैसा ही दिखता है। हम दोनों भाई वहीं रूके थे। हमारी भावज के बाद उनसे छोटी बहन दर्शना थी फिर बिमला उसके बाद कमला। छोटकी सी कमला हमें देखकर बड़ी उत्साहित थी। मात्र दौड़कर हमारा हर तरह से ख्याल रख रही थी-रानी बहन जी के देवर। गाड़ी के लिए हमारा टिफन भी उसने ही तैयार किया था।
हां कमला की एक और छवि भी मन में कौंध गई है। अब तो वह बेशक इस लायक हो चुकी थी कि हमारे लिए खाना बना-खिला सके। लेकिन गाजि़याबाद वाली छुटकी सी कमला और उससे दो चार वर्ष की बड़ी बहन बिमला। तब मैं भी था तो छोटा ही, 1951 जनवरी का हरदर्शन। आठवीं पास। मगर काबिले एतबार। भाभी रानी मैके गाजियाबाद गई हुई थी। पिताजी ने कहा था-तू जाकर अपनी भरजई को ले आएगा ?
मेरा सीना फूल कर चौड़ा हो गया। गर्दन ऊपर हो गई-क्यों नहीं। आज ही जाकर ले आता हूं।
खूब सर्दियों के दिन थे। दोपहर की धूप में कमला की माताजी अपनी बेटियों के साथ गंदलों (सरसों)का साग साफ कर रही थीं। भरजाई कहीं और थीं।
मुझे देखते ही दर्शना ने जोर से पुकारा-ओ राणो ओ राणो! जल्दी आ। देख तो तेरा द्योर (देवर) आया है।
बिमला ने पूछा-कैसे आया ?
- अपनी भरजई को लेने।
- ओ वाह तू बहुत बड़ा हो गया है रे। फिर शोर मचाया-ओ राणो इधर आ देख तो तेरा द्योर तुझे लेने आया है।
भरजाई कुछ कुछ सकुचाई हुई आई। मैंने पैरी पोना (चरण स्पर्श) किया तो वे सब भाई बहनों के बीच और सकुचा गईं। थोड़ी औपचारिक बात की और कहीं चली गईं।
ठीक कहा था मैंने, सर्दियों के कड़ाकेदार दिन थे। लोहड़ी आने वाली थी। लोहड़ी का त्योहार हर साल की मकर सक्रांति 13/14 जनवरी को ही पड़ता है। ये लोग तो सरकारी बंगले में रह रहे थे। सामने श्री वेदप्रकाश चोपड़ा, जो गाजियाबाद में ही तारघर में नियुक्त थे, अपना एक विशाल टैंट लगाए हुए थे। अपने दोस्त श्रवण कुमार के साथ बिजली के तारों का जाल बिछाए बहुत सारे रेडियो बना/मरम्मत कर रहे थे। टैंट को ही अपनी प्रयोगशाला बना रखा था। बाद में कभी एक भारी भरकम काली बैटरियों वाला रेडियो सैट हमें भी दिया था, जिसे हम सिर पर उठाए प्लेटफार्म पर बाजाते हुए ले जा रहे थे, तो बाकी पैसेंजर्ज हैरान थे कि यहां रेडियो की आवाज कैसे आ रही है। जमाना बहुत पीछे था। ट्रांजिस्टर युग बहुत बहुत बाद में आया। हां तो फिर से कहता हूं। बंगले के आगे वेदप्रकाश का टैंट। और उससे बस थोड़ा ही से आगे कुछ रिफ्यूजियों के टैंट और गरीब लोगों की झोंपडि़यां थीं। और बिमला कमला अपनी हमजोलियों के साथ मिलकर लोहड़ी लोहड़ी लकड़ी का गान करती हुई, लकडि़यां गोबर के उपले मांग रही थीं। और कमला से थोड़ा छोटा भाई कृष्ण, उन्हें पीट पीट कर घर की तरफ घसीटता हुआ ला रहा था। मां के पूछने पर वह बोला-मुक्खियां (भूखी) इन्हें शर्म नहीं आती। बेचारे गरीबों से लकड़ी उपले मांगती हैं। कमला और कृष्णा का वह स्वरूप, वह दृश्य मुझे कभी नहीं भूला। आज कमला मेरे पास है तो उसे निहारता घूरता हूं। हेें यह वही छुटकी सी कमला है। दूसरे दिन करीब तीन चार बजे, मैं अपनी प्यारी भरजाई को लेकर बरेली के लिए गाड़ी चढ़ा। स्टेशन पर छोड़ने चोपड़ा साहब आए थे। भरजाई को जनाने डिब्बे में बिठाया। मैं साथ के किसी डिब्बे में जाने लगा तो चोपड़ा साहब ने कहा-तू भी अपनी भरजाई के पास बैठ जा।
- यह तो जनाना डिब्बा है। इसमें नहीं बैंठूगा।
- अरे तू कौनसा इतना बड़ा हो गया। चुपचाप यहीं बैठ जा उन्होंने मीठी डांट पिलाई।
साथ की औरतों ने भी समर्थन किया-बच्चा ही तो है। आ बैठ जा काके।
मैं कुछ कुछ शर्मसार होकर वहीं बैठ गया। परन्तु दो तीन स्टेशनों बाद, वहां से खिसक लिया। और किसी दूसरे डिब्बे में जा चढ़ा। बीच बीच में भरजाई जी की सुध लेता रहा।
लेकिन गाड़ी तो बरेली में रात करीब दो बजे पहुंचती थी। मैं गाड़ी से उतरा तेजी से गाड़ी से उतर कर जनाने डिब्बे को ढूंढ़ता जा पहुंचा। भरजाई जी नहीं दिखीं। मैंने शोर मचा दिया भरजाई जी भरजाई जी।
भरजाई जी साड़ी या चद्दर से मुंह ढके, बेफिक्री के साथ गहरी नींद में सो रही थीं। बड़ी मुश्किल से उठीं। हड़बड़ी में किसी तरह सारा समान गाड़ी से नीचे उतारा। उनका इस तरह से सोना हमेशा बना रहा। कमोबेश इनके दूसरे भाई बहनों की भी यहीं स्थिति है। बात करते करते झपकी ले लेंगे। उबासी। गहरी नींद; आसपास की कुछ खबर नहीं। इस बाबत् आगे ज़्यादा कहते जरा डरता हूं।
अब फिर अपने बारे में। अपनी डायरी के पन्नों से ः-
सहारनपुर वाला टेलिग्राफ-एग्जाम पास कर लिया था। 13 मई 1956 को मेडिकल टैस्ट, बड़ोदा हाउस दिल्ली में दिया। पास हुआ। 14 मई 1956 फिर बड़ोदा हाउस बुलाया गया। वहां से नियुक्ति पत्र के साथ रेलवे-पास चंदौसी ट्रेनिंग स्कूल के लिए मिला। चंदौसी में हमें 2 महीने की ट्रेनिंग दी गई। वहां टैलिग्राफी के साथ फर्स्ट एड की ट्रैनिंग भी दी गई। दोनों परीक्षाओं में 14 जुलाई को उत्त्ाीर्ण हुआ। सब लड़कों से अपनी मज़ीर् के डिवीजन चुननेे के लिए कहा गया। उस समय हमारी रेलवे में सिर्फ सात डिवीजन्ज ही थे। फिरोजपुर, दिल्ली, इलाहाबाद, मुरादाबाद, जोधपुर, बीकानेर और․․․․․․। मैंने बीकानेर मांग लिया। सारा स्टाफ और दूसरे लड़के हैरान ''तुमने काला पानी कैसे मांग लिया। वहां तो लोग पानी की बूंद बूंद को तरसते हैं।‘‘
दो कारण थे सारे लोग दिल्ली डिवीजन या इलाहाबाद जैसे डिवीजन्स में समा नहीं सकते थे। फिर रेलवे की मर्जी कि कहां और पटक दें। बीकानेर डिवीजन तो दिल्ली तक था। सारा रेगिस्तान तो नहीं है। दूसरी बड़ी वजह यह थी कि बड़े भाई साहब मनोहरलाल सहगल भी तो इसी डिवीजन में ही थे।
तीन रोज का ज्वाइनिंग पीरियड, शकूरबस्ती में बिताने के बाद, मैंने 18 जुलाई 1956 को अपने हैडक्वार्टर बीकानेर में पोस्टिंग-स्टेशन लेने की रिपोर्ट दी। परन्तु मुझे पोस्टिंग आर्डर्ज नहीं दिए गए। वजह यह बताई गई कि पुलिस से आपका करैक्टर वैरीफिकेशन नहीं आया। जब तक पुलिस यह कार्रवाई पूरी नहीं करती, हम आपको ड्यूटी पर नहीं ले सकते।
सेाचता हूं इसमें दूसरे का क्या दोष ? प्रशासनिक भूल चूक का परिणाम भुगतने को मैं क्या, सभी साधारण लोग, विवश हैं। मुझे पता नहीं हमारे गणतंत्र प्रशासन-प्रणाली में देश के कर्णधारों को कितने पुलिस चरित्र प्रमाण पत्र हासिल करने पड़ते हैं।
खैर मैं खाली हाथ घर लौट आया। तब मुझे थोड़ी हंसी भी आ रही थी। यह याद करते हुए कि चंदौसी में जो इन्स्ट्रक्टर साहब हमें फर्स्ट एड पढ़ाया करते थे। वे छोटी मोटी भूल तो क्या बड़ी भूल को भी क्षम्य मानते थे। मसलन पूछते फर्स्ट एड की पूरी टीम में कितने सदस्य हुआ करते थे। फर्स्ट एड की कुल कितनी उपशाखाएं होती है। आदि आदि। उसमें कोई विद्यार्थी कोई गलत संख्या बता दे जैसे छह की बजाए चार कह जाए, तो वह पूरे जोर से कहते कि सही संख्या तो छह है और यह भाई साहब छह ही कहना चाहते थे, लेिकन इनकी जबान से चार निकल गया। कोई बात नहीं आप बैठ जाइए। फिर इसी प्रकार, यह संख्या वाला या फर्स्ट एड बाक्स में क्या क्या उपकरण होते हैं, पूछते तो अगला गलत बता जाता तो वही स्वर निकालते-हां यह भी होता है, यह भी ऐसा है। हमारे यह भाई साहब बताना तो यही चाहते थे मगर गलती से इनके मुंह से ऐसा निकल गया। कोई बात नहीं। बैठ जाइए।
हम सब कक्षा समाप्ति-उपरांत खूब हंस हंस कर मज़े लेते रहते-भाई साहब कहना तो यह चाहते थे, लेकिन इनके मुंह से यह निकल गया। बैठ जाइए। क्या अब भी इस परिस्थिति में हंस सकता था कि पुलिस, वैरीफिकेशन समय पर भेजना तो चाहती थी, पर जरा गलती से भेज नहीं पाई। इस प्रशासनिक भूल के कारण मैं मन ही मन गमजदा हो रहा था। इसी प्रकार आगे की मेरी डायरी कई तरह के पचड़ों से भरी पड़ी है, जिनका कुछ संक्षिप्त वर्णन शुरू के पृष्ठों में कर आया हूं। कुल नतीजा यह निकला कि रेल्वे रिकार्डज़ में मेरी डेट अॉफ अपाइंटमेंट 18/7/56 की बजाए 18/9/1956 को (दो महीना लेट) दर्ज हुई। पहले मुझे सादुलपुर हैडक्वार्टर बतौर रिलिविंग सिगनेलर छह महीने रहना पड़ा था। वहां मैं नया नया नौकरी पर लगा था। मां बाप की जुदाई और सादुलपुर के प्रतिकूल वातावरण के कारण एकांत में बैठा रोया करता था। होटल तो होटल, यहां एक छोटा सा ढाबा तक नहीं था। पिसा हुआ नमक तक नहीं मिलता था। मैं च़ाय ज़रूर बना सकता था। बना लिया करता। वैसे चाय तो रेलवे स्टाल पर भी उपलब्ध थी। पर मैं अपने ढंग की शानदार चाय बनाने में शुरू से अब तक माहिर हूं। कोई कम्पीटीशन करना चाहे तो बेशक आ जाए। हां इस संदर्भ में बाद की रेवाड़ी की दो बातें याद आ गईं। मैंने अपने किराए के कमरे को खूब सज्जा कर रखा हुआ था फोल्डिंग चेयर्ज, मेज़। अलमारियों में शीशे के मर्तबानों में पेस्ट्रियां, केक बिस्कुट। शानदार अलग किस्म का एक बत्त्ाी वाला पीतल का चमकीला स्टोव। उस समय का सबसे बड़ा महंगा 32 रूपए का। अक्सर यार दोस्त आ धकतें थे। चाय पिलाओ।
एक बार एक दो ने कह दिया सहगल ने चाय अच्छी नहीं बनाइ थी। मेरे तक बात पहुंची तो मैंने उन सब को ऐसी लताड़ लगाई कि उन्होंने हमेशा इसे याद रखा। बात बे बात चर्चा छेड़ देते। सहगल कहता है, ''इन लोगों को चाय पीने की तमीज ही नहीं है।‘‘ खूब हंसी छूटती।
दूसरी बत जिस पर अब मुझे ख्ुद यकीन नहीं होता कि मैं दिन में 32 बार चाय पिया करता था। जो कहता चाय नुकसान करती है, उन्हें आज भी कहता हूं ''तुम्हें जरूर नुकसान करेगी, क्योंकि तुम ऐसा सोचकर चाय पी रहे हो।‘‘ रेवाड़ी छोड़ने से पूर्व मैंने यह धारणा बना रखी थी कि यहां का कोई टी-स्टाल, ढाबा होटल रेहड़ी वाला छूटना नहीं चाहिए जहां से मैंने चाय न पी हो। खास तौर से एक होटल में सुबह सवेरे पहुंच जाता जहां पर खूब बड़े आकार का रेडियो रखा रहता था। वहां रेडियो सीलोन से पुराने गानों का भी आनंद लेता।
बरसात हुई और फिल्म का टाइम भी हो रहा होता तो पिकचर हाल में जा घुसता। दरअसल मैं उन कीमती दिनों का महत्व जानता था। उन्हें प्रति क्षण रस ले लेकर जीता था। क्योंकि वे मेरे कंवारेपन के दिन थे। बंधन-रहित; जिन्हें फिर कभी लौट कर नहीं आना था। साढे बारह बजे टिकट कलैक्ट्री की ड्यूटी खत्म कर, अपने महल्ले नयी बस्ती के कमरे की तरफ दौड़ लगा देता। विविध भारती का वाद्य वृंद संगीत शुरू हो रहा होता। चलिए वापस सादुलपुर। रेवाड़ी बाद में आएंगे।
रोटी बनानी आती नहीं थी। किसी परचूनी के दुकानदार से बात की उसने कहा। मैं बंदोबस्त कर दूंगा। वह घटिया किस्म की रोटी घर से बना/बनवाकर ले आता। उससे झगड़ा हो गया। अब ? भूखे मरो।
सादुलपुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने फौजियों टाइप बैरिक सी शायद अब भी है। उसमें कमरे ही कमरे हैं। उन कमरों में रिलिविंग या रेस्टर गिवर टिकट कलैक्टर तिलकराज नागपाल भी रहा करता था। काला हष्ट-पुष्ट शरीर का सांवला नौजवान, शादीशुदा। पर बीवी को हिसार छोड़ रखा था। मुझे उसने कमरा शेयर करने का प्रस्ताव दे डाला था। मैं खुशी खुशी राज़ी हो गया।
कुछ समय बाद, उसने मेरी यह हालत देखकर कहा। अपन मिलकर खाना बना लेते हैं। मैंने उत्त्ार दिया-मुझे तो आता नहीं; अलबत्त्ाा आटा गूंथ सकता हूं। अंगीठी लगा सकता हूं। ऊपर के काम कर दिया करूंगा।
वह राज़ी हो गया। लेकिन कुछ दिना बाद, दूसरे स्टाफ वालों ने उसका मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया ''क्या तू सहगल की बीवी है जो इसके लिए रोटियां सेंकता है।‘‘
बस, इतनी सी बात पर उसका पौरूष जागृत हो उठा। मुझसे रूठ गया। मेरे लिए रोटी बनाना बंद।
उस समय सादुलपुर में मेरे दो ही हितैशी थे। एक मि․किशोरसिंह, भाई साहब ही की तरह, डब्ल्यू एम आई (वैगन मूवमेंट इंस्पैक्टर) लगे हुए थे। मुझे छोटे भाई ही की तरह ट्रीट करते थे। कोई भी सलाह उनसे निःसंकोच ले सकता था। दूसरे सरदार जी थे जो चीफ बुकिंग क्लर्क थे। उन्होंने कभी भाई साहब के अंडर मुक्तसर में काम किया था जब भाई साहब, मुक्तसर में स्टेशन मास्टर लगे हुए थे। वे मेरा पूरा पूरा ध्यान रखते। कभी कभी घर से खाना भी खिला देते। मेरा सारा वेतन अपने कब्जे में कर लेते कि कोई उधार मांगे तो साफ कह देना। मेरे पास पैसा नहीं है। जब कभी रैस्ट में या छुट्टी पर घर जाता तो वे मुझे तन्ख्वाह दे देते। वह बताते यहां के स्टाफ वाले जुवारी ऐबी हैं। कभी किसी पर विश्वास मत करना। बेहूदा लोग हैं।
ठीक था; लेकिन मुझे तो इससे बढ़ ज्यादातर राक्षसीय प्रवृति के मालिक ही नजर आते थे। सब मुझ पर मालिकाना हक जता कर मुझे प्रताडि़त करने में मजा चखते थे। खास तौर से स्टेशनमास्टर सवाई सिंह और गोल मटोल गोरे रंग वाला एक ए एस एम। पूरे खूंखार। मैं कभी कभी जब घर जाता तो सवाई सिंह के लिए नेक्टाई जैसी गिफ्ट वगैरह, उसके बच्चों के लिए खिलौने भी लेता आता-साले खुश रह। ए․एस․एम․ तो तार बाबू को किसी गिनती में शुमार नहीं करते। पर हमारा हैड सिगनेलर ओझल सिंह भी किसी शातिर से कम नहीं था। उससे कोई बात पूछो तो कहता-यहां तुम्हारे लिए कोई ट्रेनिंग सेंटर खोल रखा है। यानी जानकारी देने को गोल कर जाता।
मजा यह भी था कि मुझे बतौर रिलीविंग सिगनेलर बाहर के स्टेशनों पर भी भेजा जाना चाहिए था। लेकिन हैडक्वार्टर बीकानेर प्रशासन को होश कहां था कि सादुलपुर में भी कोई रिलिविंग सिगनेलर बसता है। होता यहां तक था कि अगर सादुलपुर ही का कोई तार बाबू छुट्टी के लिए अपलाई करता तो उसके स्थान पर बाहर से किसी रिलिविंग सिगनेलर के आर्डर होते। इस बात पर सभी हंसते। कोई कोई मुझ से हमदर्दी जताता कि अगर तुम्हें बाहर के स्टेशनों पर नहीं भेजा जाता तो इससे तेरे टी․ए डी․ए․ की हानि होती है। मैं जवाब देता-मुझे क्या करना। मरने दो। ऊपर से आर्डर है। गोया प्रशासन कोई सूक्ष्म पदार्थ या आत्मा है जिसे देखा नहीं जा सकता। न उसको दोष ही दिया जा सकता है। शुरू से अंत तक यानी सर्विस के अंत तक ऐसा ही चलता रहा। भाई साहब को जब तब सवाईसिंह और ए एस एम को, मेरे प्रति, रवैयए का पता चलता तो वे अपने काउंटर पार्ट (प्रतिपक्ष) किशोर सिंह से कहते। इस सवाई सिंह को एक अच्छी डोज देनी पड़ेगी। भाई साहब इंस्पैक्टर होने के नाते, उनके पास बहुत अधिकार थे। किशोर सिंह जी उन्हें कहते, हमें बुरे के साथ बुरा नहीं बनना। मैं स्टेशनमास्टर एस एम को समझा दूंगा।
हां वहां सादुलपुर में मेरा एक कोलीग सरदार जोगिंदर सिंह, पतला लंबा, मेरा हितैशी था। मुझसे कहता किसी से दबने की जरूरत नहीं। ये लोग तेरा क्या बिगाड़ लेंगे। तिलक राज ने तेरा ख्ााना बनाना छोड़ दिया है तो तू उसका कमरा ही छोड़ दे। जब बच्चू को कमरे का पूरा किराया देना पड़ेगा तो होश आ जाएगा। पूरा कंजूस मक्खीचूस रिश्वतखोर, दूसरे पैसेंजरों के पल्ले से मुफ्त की चाय पीने वाला है। सहगल तू मेरे साथ मेरे कमरे में आकर रहने लगें। खाना बना लिया करेंगे। तू किसी बात की फिक्र ही न कर। मैं सब को संभाल लूंगा। जोगिंदर सिंह भी हमारे पड़ोस के किसी कमरे में रहता था।
प्रस्ताव तो बुरा न था मगर उसका कमरा बहुत बुरा था। वह गंदगी से रहता था। उसके कमरे में मीट की हडि्डयां यूं ही छितराई पड़ी रहती थीं। सफाई का नामोनिशान नहीं था। जैसे उसे सफाई से नफरत हो।
मैंने अब मामूली तौर से कामचलाऊ खाना बनाना सीख लिया था। जब तब तिलकराज बाहर से आता तो मैं उसके लिए भी खाना तैयार रखता। इससे तिलक राज नागपाल, नागपाश से मुक्त मुझ पर मुग्ध हो गए। हमारे पुराने हेलमेल के दिन लौट आए।
दिल लगाने के लिए मैंने निकट वालीबाल शुरू कर दी थी। हां दो मसखरों से भी दिल बहलाव हो जाता। एक ए एस एम रामप्रताप थे, जो हमेशा बड़े आराम से गलतियां करते। और बेफिक्र रहते। मस्त मौला। कहते-बेशक आप कितनी सतर्कता से काम क्यों न करें। फिर भी कोई न कोई गलती तो हो ही जाएगी। फिर गलतियों से क्या डरना। यानी एक्सीडेंट भी हो जाए तो झेल लेंगे। जेल चले जाएंगे।
रात्रि दो ढ़ाई बजे बीकानेर से दिल्ली के लिए ट्रेन गुजरती थी। उसमें एफ एस (फ्री सर्विस डाक) हर स्टेशन के लिए हर स्टेशन से भी आती। उसमें कुछ लोग अपनी प्राइवेट डाक भी अपने दोस्तों के नाम भेज दिया करते थे।
असली दबंग पहलू, रामप्रताप जी का देखिए। वह लिफ़ाफ़ा खोलने से पहले ही डिक्लेयर (घोषणा) कर देते- जरूर इसमें मेरी चार्जशीट होगी। सचमुच अक्सर होती भी। बेशक इन्क्रीमेंट-मेंटस, सालों से रूकी पड़ी थीं। पास पी․टी․ओ․ हमेशा बंद। तो और कितनी की चार्जशीट दोगे। जहां इतनी, वहां एक और सही। इन्क्रीमेंट तीन पांच रूप्ए लेकर अमीर नहीं बन जाऊंगा। रेलवे वालों को पास पी․टी․ओ․ की क्या जरूरत। वैसे ही ट्रेवल कर सकते हैं। हां कोई माई का लाल हो तो हमें नौकरी से निकलवा कर दिखाए।
यही का यही वाक्य तार बाबू एच․पी․के (हरिप्रसाद कौशिक) भी बड़े अपने ही अंदाज से बोला करते थे। रोचक प्रसंग है। जरा गौर से सुनिए। रेलवे में योग्य व्यक्तियों की भी कमी नहीं और अयोग्य व्यक्तियों की भ्ाी। हमारा सारा पूूरा कामकाज अंग्रेजी में चला करता था। रेल्वे में कोड ही कोड चला करते हैं। इसलिए योग्य व्यक्ति भी धीरे धीरे सारे स्पैलिंग भूल जाते हैं। जब शाटफार्म ही से काम चल सकता है तो क्या करना फालतू की मगज खपाई की। जैसे टांसशिपमेंट को T/Ment लिखना। कन्साइनमेंट को C/ment लिखना। कैजुल लीव को C/L आदि आदि बहुत बड़ा गागर में सागर है। DR से डियर, ड्राइवर, डाक्टर बन जाते हैं इन पर ड्रामे लघु कथाएं, कहानियां लिखी हैं। लेकिन वास्तव में इन कोड्स के बिना काम चल ही नहीं सकता। रिटायरमेंट के 17 वर्षों बाद भी दिमाग में आज भी रटे पड़े हैं। पूरे भारत के हर स्टेशन का कोड है। Adi अहमदाबाद, Bki बांदीकुई। Aii अजमेर आदि आदि इसी शैली से होते हुए, हर पद के नाम तो खैर हैं ही जैसे Sigr सिगनेलर PC पार्सल क्लर्क Gc गुडस क्लर्क यार्ड मास्टर-ym प्वाइंटस मैन Pm। साथ ही व्यक्तियों के नाम भी ऐसे ही बोले जाते हैं। जीबी, पीके, एचडीएस या सिर्फ एचडी ही काफी है।
मोर्स सिस्टम तो बना ही लांग, शार्ट मात्र दो सिगनल्स से है। इसके बिना काम संभव ही नहीं। _ ़़़B _ ़ _ ़ C ़ E AAA का मतलब, फुलस्टाफ। यह सब हमारे मानस में एक किस्म से उंडेल दिया जाता है कि एक सेकेंड भी सोचने की आवश्यकता नहीं रहती। ‘Key’ (उपकरण) (की) के द्वारा बात करते हैं। लड़ते झगड़ते हैं। हंसते बोलते बतियाते हैं। जैसे आमने सामने बातचीत हो रही हो। इस विद्या को न जानने वालों के लिए यह पूरा आश्चर्य लोक है।
रोचक प्रसंग से अरोचक प्रसंग पर आ उतरा।
HPK पता नहीं, अंग्रेजों की, या किसी देसी अफसर की मेहरबानी से रेलवे में ले लिये गए थे। पता नहीं चौथी जमात तक ही पढ़े थे या नहीं। वे भी ऐसे ही कुछ मधुर बोल (रामप्रताप ए एस एम) की भांति अपने मुंह से निकाला करते थे-इंचार्ज मुझे डांट मार देता है। स्टेशन मास्टर बार बार तलब कर लेता है। यह क्या लिखा है। इसे तेरे फरिश्ते पढ़ेंगे। मीमो दे देता है। बाहर से कोई इंस्पैक्टर आता है तो चार्जशीट थमा जाता है। ज़रा सोचो मेरा इससे क्या बिगड़ जाएगा। मैं तो उसे मानू जो मुझे नौकरी से निकलवा कर दिखाए।
वास्तव में उसका हैंड राइंटिंग ऐसा था कि अगर आप किसी मकोड़े को स्याही की दवात में डाल दें फिर वह मकोड़ा चलने लगे तो जैसे इबारत बनेगी उसकी कल्पना आप सही रूप से कर सकते हैं।
सादुलपुर तार घर स्टेशन ट्रांजिट स्टेशन भी पड़ता था। बीकानेर से सिरसा भटिंडा हिसार आदि आदि स्टेशनों से सीधी तार लाइन नहीं थी। सो काफी सारे मैसेज (टेलिग्राम्ज) पहले सादुलपुर ही आते थे। जिन्हें फिर से आगे के स्टेशनों पर रिसिगनल करना पड़ता था। जो सादुलपुर के लिए होते। उनसे तो रसीव करने वाला माथा फोड़ी करे। लेकिन जिन्हें आगे भेजना होता वह अगले भेजने वाले की सिरदर्दी बन जाते। मैं अगर रात को या दिन में HPK से चार्ज लेता तो हाथ जोड़ता हुआ उससे प्रार्थना करता कि अपने रसीव किए हुए मैसेज आप ही डिस्पैच करते जाएं। इसके लिए मैं उन्हें चाय पिलाता। वे खुश हो जाते और अपनी ड्यूटी खत्म हो जाने के बावजूद घंटा घंटा दो दो घंटे बैठे रह जाते।
HPK का सारा अंग्रेजी ज्ञान रेलवे शब्दावली तक ही सीमित था। सब एप्लीकेशन्स और संदेशों की इबारत रटी रटाई होती है, जिन्हें आने से पहले ही हम लिख लेते थे। पता होता कि अगला वाक्य क्या होगा।
वैगन लोडिड। अन लोड यूअर्स।
वैगन N/Fd (not found-नहीं मिल रहा) चेजअप (C/up) रिपलाई I/dtly (इमीडियेटली) बहुत सारों की तो किताब है ही HARMOR छह छह शब्दों के कोड जिन्हें अगला अपने आप डिकोड कर लेता है।
अब मजा देखिए। एक बार HPK ने अपनी माताजी को मण्डी डबवाली के लिए गाड़ी पर चढ़ा दिया जहां उनका भाई काम करता था। HPK ने उन्हें wds (words) प्राइवेट मैसेज दिया-मदर लोडिड। अनलोड एट योअर्स। एंड डिलिवर। इससे पूरे स्टाफ़ को हंसी का खज़ाना मिल गया। वाह HPK तेरी जय हो। तूं उम्र भर याद रहेगा। सचमुच हम पुराने लोग यदा कदा कभी टकरा जाते है तो HPK को और उस जमाने को याद करतें। कभी सोचता हूं, कि अपनी कहानियों को ऐसा ऊट पटांग बना डालूं कि मैं भी चर्चित लेखकों में गिना जाने लगूं।
इसी प्रकार के कुछ कर्मचारी आगे बीकानेर वायरलैस में भी मिले जो ज्ञानशून्य जैसी श्रेणी में आते हैं। मजबूरी में हमें उन्हें लेना पड़ा, क्योंकि जिनमें कुछ ज्ञान होता है, वह बहुधा तिकड़मी काइंयापन, चापलूसी, सिफारिश, संपर्क-साधनों में भी प्रायः माहिर हो जाते हैं। इल्कट्रोनिक प्रणाली के जन्म लेते ही काफी स्टाफ अपने विभागों में सरप्लस (फालतू-अधिक) हो जाता तो उन्हें कोई नौकरी से निकाल नहीं सकता (बतर्ज रामप्रताप-एच․पी․के․) इसलिए उन्हें कहीं दूसरे विभाग में खपाना होता तो वे वायरलैस जैसे खुश्क डिपार्टमेंट में भला क्यों आना, पसंद करते। सभी टी․टी․ई․, गार्ड, पार्सल, बुकिंग, रिजरवेशन कर्ल्क बनना चाहते। तो इस तरह से हमारे पल्ले ऐसे लोग पड़े, जो टैक्नोलॉजी तो क्या जानते, अंग्रेजी भी न के बराबर। फिर भी वायरलैसे-अपरेटर बनकर बैठ गए। ये नए लोग हमें यह सिखाते कि काम को कैसे अवायड (टाला)जाता है-अरे साहब, जाने दीजिए ना। मरने दो। बलने दो। कौन पूछता है।
मैं इन्स्पैक्टर इंचार्ज होने के नाते हल्की सी डांट के साथ कहता-मैं ही पूछता हूं। जवाब दो। फिर हमें रेलवे ने क्यों बैठा रखा है।
हल्की फुलकी लड़ाई सी होने लगती, तो मैं मज़ाक का सा स्वर निकालता ''भई हम भी 'एक किस्म के‘ इंस्पैक्टर हैं। हमारा कहना माना करों‘‘ इस पर आस पास बैठे लोग भी हंसने लगते ''इंस्पैक्टर नहीं, एक किस्म के इन्स्पैक्टर।‘‘
वास्तव में ऊपर के अफसर भी शिकायत सुनने को राजी नहीं होते। वे चाहते-आपस में ही निपट लो।
दरअसल यह मजाक नहीं, राष्ट्रीय एफिशैंसी (कार्यदक्षता) के पतन की दास्तान है, जिसे मेरे जैसे लोग बड़ी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं। और व्याख्या करने लगूं तो बहुत लंबा भाषण हो जाएगा। दरअसल कोई भी चीज, मामूली लगने वाली चीज, मामूली नहीं हुआ करती। आगे चलकर विकराल बनकर देश समाज को खा जाती है।
हम से पहले बहुत ही काबिल, बहुत बड़े संस्थानों से ऊंचे दर्जे के डिप्लोमा होल्डर ही वायरलैस जैसे विभाग में आ पाते थे।
फिर हमारा जमाना आया तब तक भी बहुत अनुशासन था। एक एक, आधे आधे, मिनट की लॉगबुक भरनी होती। चार्जशीट के डर के मारे कांप कांप कर काम करते। इन्टैनसिव (गहन) जॉब। घर से टिफन आता। लेकिन बिना खाए लौटा ले जाते। शायद आगे जाकर पूरा वर्णन कर पाऊं्र।
कहां से कहां खो जाता हूं मैं, मूढ़ बुद्धि। अरे बात तो सादुलपुर की कर रहा था, जहां सिगनेलर जैसे पद की कोई औकात नहीं थी। हां कुछ वपारी जरूर आ जाते थे, जो अपनी व्यापार संबंधी तारे ंजल्द से जल्द नोहर, मंडी डबवाली जैसी मंडियों को हमसे पहुंचवाना चाहते थे ताकि पहले उन्हें ठेका मिल सके। इसलिए तार की कीमत के अलावा कुछ अतिरिक्त पैसा भी दे जाते थे। दूसरा बड़े बड़े सेठ, जिनका व्यापार गोहाटी, कलकता, बंबई, नेपाल आदि में धड़ल्ले से चलता था, दो चार साल में एक दफः सादुलपुर पधारते थे, तो शाम को स्टेशन पर चहलकदमी करते हुए पहुंच जाते थे। और स्टाफ में कुछ रूपए मुफ्त में बांट जाते थे; ताकि लोग बाग उन्हें सेठ जी सेठ साहब कहकर मुफ्त में सैल्यूट लगाएं अौर वे (अगर बड़ी बड़ी मूंछे रखे हों) ताव देते हुए हाथ उठाकर आशीर्वाद का प्रसाद भी बांट जाएं। मैं ऐसी खैरात लेने से साफ इनकार कर देता। या तो तार घर में घुस जाता। या वालीबाल वाली ग्राउंड की तरफ दौड़ लगा देता।
पिसा हुआ नमक चुरू में मिलता था-इसी बहाने कभी कभी घूमने फिरने चूरू भी चला जाता। राते में एक रोड साइड स्टेशन पर किशनलाल जुनेजा ए․एस․एम․ थे जिन्होंने कभी भवानी में भाई साहब के अंडर काम किया था, के पास कुछ समय के लिए रूक जाता। वे भी मुझे छोटे भाई की तरह ट्रीट करते। हर तरह की तसल्ली देते।
जब जब मौका लगता मैं एकाध दिन की छुट्टी लेकर साथ ही ड्यूटी एक्सचेंज करके (यानी जाते वक्त ड्यूटी से, और वापस सादुलपुर आते ही ड्यूटी पर जम जाता) मतलब घर गाजियाबाद या शकूरबस्ती का चक्कर लगा आता।
अगर उन दिनों मेरा रूम पार्टनर तिलकराज टिकट कलैक्टर टूर पर होता, तो स्टाफ वाले मुझसे कमरे की चाबी ले लेते। वे लोग कमरे में बैठे शराब पीते जुआ खेलते। चलो यह भी सही, लेकिन उन्होंने मेरे तीन ओवर कोट और दूसरी तीसरी चीजे भी चोरी कर डालीं। किसका नाम लूं। किससे लडूं। मैं केवल अपने भाग्य से ही लड़ता झगड़ता था और अब तक भाग्य को कोसता हूं। जब जब उत्कृष्ट रचनाएं लौट आती हैं। तिक्कड़मबाज पुरस्कारों की बाजी मार ले जाते हैं। आठ आठ साल तक प्रकाशक, पुस्तक ''छापता हूं। छापता हूं।‘‘ कहते कहते, पांडुलिपियां कोई भी वास्ता देता हुआ, लौटा देता है। अपठनीय लेखक बजरिया गॉड फादर या अपने पदों के बलबूते पर साहित्य जगत में छाए रहते हैं। अपना अपना भाग्य। सब्र और प्रतीक्षा के अलावा चारा भी क्या है, जनाब। ओ यैस सादुलपुर। सादुलपुर के मेरे ये दिन (लगभग छह महीने) मेरी जिंदगी के सबसे उदास दिन थे। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि जितनी अच्छी सेहत मैंने उन दिनों हासिल की उतनी अच्छी सेहत फिर कभी लौटकर नहीं आई। स्टाफ वाले कहते-अरे तेरे गाल तो फूल फूलकर टमाटर हो रहे हैं। भई इसके लिए (पता नहीं क्या नाम था) कोई बदमाश काली कलूटी गठीली लड़की थी। अपने स्वाभाव के अनुसार, मैं तो नहीं जानता था कि वास्तव में ही वह बदमाश थी या नहीं। उसे वे लोग सेठानी की लड़की भी कहा करते थे, कहते; भई सहगल के लिए उसको बुला दो।
मुझे ऐसी बातों से शुरू से ही नफरत थी। स्कूल से लेकर रेलवे विभाग तक अश्लील चुटकुलों का बोलबाला चला आ रहा है।
बिल्कुल मेरे पड़ोस में क्या हो रहा है, मुझे तो जरा भी खबर नहीं। लेकिन लगभग सारे मुहल्ले के, कुंठित, मैं तो उनके लिए यही शब्द प्रयोग करना चाहूंगा, सब कुछ जानते हैं कि कौन किस समय कितनी बार आता जाता हैं
अगर मैं एकदम स्पष्ट अलफाज मे कहूं तो यही कहता हूं कि इन्हें निकम्मेपन की मार है। दूसरा इन्हें अंदर से यही लगता है कि हाय यह चांस हमें क्यों न मिला। जिसे चांस नहीं मिल पाता, वह अपने को निहायत शरीफ आदमी घोषित करते नहीं थकता। मगर यदि वह विचार करने की जहमत उठाए तो उसे मालूम पड़ जाएगा कि उनके अंतर में िकतनी दमित इच्छाएं दबी पड़ी हैं जो ज़रा मौका मिलते ही सिर उठा लेती हैं।
यह सब अपनी जगह। पर मैं स्वयं अपने लिए सोचता हूं कि इस हद तक बेखबरी में जीना भी उचित नहीं।
मेरी पूज्य माताजी, हमेशा मेरे लिए कहा करती थीं कि यदि यह खाना खा रहा हो और इसकी थाली में से कोई रोटी उठा ले जाए, तो इसे पता नहीं चलेगा।
कोशिश में लगा रहता कि सादुलपुर से दिल्ली या दिल्ली के आस पास ट्रांसफर हो जाए कि तभी मेरे ए․एस․एम․/स्टेशन मास्टर की ट्रेनिंग के लिए आर्डर आ गए। स्टेशन मास्टर और वही वाला ए․एस․एम․ मुझसे जाने कौन से जन्म की दुश्मनी निकाल रहे थे। वे मुझे शार्टेज का बहाना बनाकर स्पेयर ही नहीं कर रहे थे। बड़ी मुश्किल से उनके सामने गिड़गिड़ा कर और किशोर सिंह डब्ल्यू एम․आई․ और चीफ बुकिंग क्लर्क से कहलवा कर ट्रेनिंग के लिए स्पेयर हो पाया।
12 मार्च 57 से लेकर 15 जून 1957 के दरम्यान चंदौसी ट्रेनिंग में रहा।
इसका जो हश्र हुआ वह तो पहले बता आया हूं। सिर्फ लाइन क्लीयन को छोड़कर बुकिंग, पार्सल, टिकट कलक्ट्री सब में उत्त्ाीर्ण हो गया। फिर 19 जून से 3 जुलाई तक एस․आर․ रूल्ज की ट्रेनिंग के लिए बीकानेर में उत्त्ाीर्ण हुआ। 4 जुलाई से 16 जुलाई के बीच टायर टैब्लिट इन्स्ट्रूमेंट की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग की। उसमें भी पास हो गया।
लेकिन सबमें पास होने से क्या होता है। जब मॉडल रूम एक्सीडेंट ही करवा बैठा था, तो फेल ही डिक्लेयर हुआ।
इससे सिर्फ हुआ यह कि मैं अब बिना तन्ख्वाह बढ़ें, 'ट्रेफिक सिग्नेलर‘ कहलाने लगा- थोड़ी इज्जत वाला पद। लेकिन यह तो दरअसल, मैं, चंदौसी से, आफत की पुडि़या बांध लाया था। बताऊंगा। कैसे ? पहले आप सबके थोड़े मनोरंजन का प्रबंध कर दूं।
चंदौसी की कुछ बीती बातों का जिक्र तो कर ही आया हूं जो बकाया हैं, उन्हें भी वसूल कर लें।
ए․एस․एम․ की ट्रेनिंग वालों का दर्जा कुछ ऊंचा होता है। हमें स्पेशल मैस में खाना मिलता। हफ्ते में दो बार मीट भी परोसा जाता। इससे भी हम कुछ छात्र अधिक मीट खाने की लालसा रखते तो रात्रि को मैस कर्मचारियों से सिर्फ रोटियां लेकर, आउट अॉफ बाउंड (यानि स्कूल से बाहर वर्जित क्षेत्र)े बाजार के किसी होटल में जा बैठते और सिर्फ मीट की प्लेट के पैसे अदा करते। प्याज, रोटियां तो हमारे पास होती ही थीं। हमारे साथ उत्सुकतावश मीट न खाने वाले, पर दूसरी अच्छी मनपंसद तरकारी की प्लेट ले लेते। ऐसे लोगों को हम घृणा की दृिष्ट से देखते और अछूत जैसा व्यवहार कर उन्हें अपनी टेबल के नज़दीक न बैठते देते।
कहां तो आउट बाउंड की बात, यहां तो लड़के छुट्टी या इतवार की छुट्टी के दिन भी स्कूल ही से रफूचक्कर हो जाते थे। आउट अॉफ स्टेशन अपने अपने घर या दूसरे शहरों में चले जाते।
एक लड़का चैनसिंह पंवार था। था रसिक। उससे यशपाल भगवती चरण वर्मा, वंदाला वर्मा आदि के साहित्य की चर्चा करता। उसे अपनी लिखी कहानियां सुनाता। वह खुलकर मेरी कहानियों का मज़ाक उड़ाता। यह भी भला। दूसरा तो कोई था नहीं जिससे साहित्य पर बात की जा सके। चैन िसंह अपने रूप रंग की हमेशा प्रशंसा किया करता कि देखो मेरी नाक तोते की तरह की है। ऐसे लोग सौभाग्यशाली हुआ करते हैं। अपने ज्ञान की भी डींग मारा करता बाकियों की कमियां निकालता न थकता। अपने को राजूत बताता। अपने इतिहास, परम्पराओं, बाप बेटा सब साथ बैठकर शराब पीने, सालियों की ओर से आए पैगों का जिक्र करता।
उसकी नई नई शादी हुई थी। वह कैसे भी तिकरणम लिड़ाकर स्कूल से भाग छूटता। अपने घर बालोतरा चला जाता। वापस आकर रस ले लेकर, पत्नी के साथ बिताए क्षणों का विश्लेषण करता। वह रेल्वे की जिस किस्म की शार्ट फार्म शब्दावली का कह आया हूं, मुझे S/gal यानी Sehgal कह कर मजे लेता। वह भी मेरे साथ पहले बीकानेर डिवीजन में आया था। यहां सिर्फ दो वैकेंसीस थी। वह जोधपुर डिवीजन चाहता था। लेकिन वहां कोई वैकंसी नहीं थी। बाद में कोशिश करके जोधपुर चला गया था। दसवीं पास था। पर बिना रेलवे से इजाजत लिए बी․ए․ एल․एल․बी․ करके वकील बन गया था। समझ गया बिना चालाकी, बिना रिस्क उठाए कोई कुछ नहीं बन सकता।
वह मेरा खास दोस्त कहलाता था। हालांकि छेड़खानी करने से मेरे साथ भी बाज नहीं आता। कहता था कि मैं सबके िनजी भेद लेने में माहिर हूं। सिर्फ तुम ही हो जो पाक साफ हो। वरना फलाना अपनी भांजी, अपनी भतीजी, अपनी बुआ की लड़की के साथ लगा हुआ है। वगैरह वगैरह। ऊपर लिखा है। वह मुझसे मेरी लिखी कहानयिां भी सुनता था। कभी प्रशंसा तो कभी मजाक की मार भी मारता। दूसरे मेरा खास दोस्त नायरण (सिंधी) था। बहुत बौद्धिक गम्भीर किस्म का छात्र था। उसने इलाहाबाद डिवीजन लिया था। बाद में एकाउंटस आफिसर के पद तक पहुंचा था।
एक और लड़का था जिसका नाम इस वक्त याद नहीं आ रहा, काला पिचके हुए गालों वाला था। उसका घर टुंडला था। वह भी घर भाग जाया करता था। मैंने उसे बताया था कि टुंडला में मेरे पेशावर वाले चाचाजी मि․भल्ला टी․टी․ रहते हैं। उसने कहा-खूब जानता हूं। बंगले में रहते हैं जो मेरे रास्ते में पड़ता है। चलेगा, टुंडला। हर हफ्ते पूछता। एक इतवार के साथ एक और कोई छुट्टी पड़ती थी, मैं उसके साथ टुंडला जा पहुंचा। रात घिर आई थी। उसने अंगूली के संकेत से समझाया-यह रहा भल्ला साहब का निवास। और खुद तेजी से अपने रास्ते हो लिया।
मैं भी तेज़ डग बढ़ाता हुआ ठीक ठिकाने जा पहुंचा। जाफरी (गैलरी) वाला फाटक खुला मिला। आगे बड़े कमरे का दरवाजा बंद था। मैंने बजाया। कुंडी से खट खट की आवाज पैदा की। किसी लड़की का स्वर गूंजा-कौन ?
मैंने पूछा-भल्ला साहब हैं।
- नहीं वह तो ट्रेन लेकर गए हुए हैं।
- वह मेरे चाचा जी हैं।
- आपका नाम।
- हरदर्शन। सहगल साहब का लड़का।
- मैं तो नहीं जानती।
- दरवाजा तो खोलो। सब पता चल जाएगा।
- ऐसे तो मैं दरवाजा नहीं खोलूंगी।
- अच्छा चाची जी को बुला।
- वह तो कीर्तन में गई हुई है।
- चाचाजी तो कई दफः बरेली भी हमारे पास आए थे। फर्नीचर खरीद ले गए थे।
- मैं कुछ नहीं जानती। जब तक मम्मी नहीं लौटती, आप बाहर इंतजार कीजिए।
- ठीक है। मैं तब तक झूला झूलता हूं।
ऊंची छत से बड़ा झूला लटक रहा था। थैला एक तरफ रखकर, मैं उस पर बैठ गया और पेंग बढ़ाने लगा।
झूले के हुकों की ध्वनि, उसे अंदर तक कमरे में सुनाई दे रही थी।
चाचीजी आ नहीं रही थीं। वह लड़की फिक्रमंद थी कि मेहमान को ऐसे ही बाहर बैठा रखा है। बार बार अंदर से मेरा हाल पूछती। पानी पीना हो तो बाहर नल लगा हुआ है।
मैं जवाब देता-तुम चिंता मत करो। झूला झूलने में बड़े मजे़ आ रहे हैं।
थोड़ी देर बाद फिर आवाज गूजी- अच्छा मेरी मम्मी का नाम बताओ।
- प्रकाशो चाची। प्रतिध्वनि में सारे पुराने पेशावर वाले शब्द स्वतः स्फूर्त हो उठे।
उसने झट से दरवाज़ा खोल दिया। जैसे मैं परीक्षा में पास हो गया हूं। और साथ ही मन के कोनों में विचार कि वाह समझदार लड़की। लोग बाग पुरूषों का नाम तो ऐसे ही जान लेते हें। नेमप्लेट पर भी पढ़ सकते हैं मगर औरतें तो फ्लाने की घर वाली। फ्लाने की मां, मौसी जैसे शब्दों की मोहताज हुआ करती थीं।
मैं उसके सामने पेशावर का इतिहास लेकर बैठ गया कि तब तो तेरा जन्म भी नहीं हुआ था आदि आदि।
वह भी बड़े चाव से सुने जा रही थी। इतने में चाची आ गईं। मुझे बैठा देखा। पहचाने की कोशिश। आधा मिनट से भी कम लगा। सब कुछ अचानक था-ओए दर्शी तू हैं, तू कित्थों ? फिर वे मेरे सिर पर हाथ फैरने लगीं। उन्हें बार बार अफसोस हो रहा था कि मैं कहां से और कैसे उन्हें याद करता हुआ आ पहुंचा था और इसे बाहर बैठना पड़ा।
मैंने उन्हें आश्वस्त किया-इसमें क्या। इसने बहुत अच्छा किया। समझदारी का परिचय दिया। और काफी अर्से बाद झूला झूलने का आनंद दिलवाया। साथ ही ड्रामेबाजी का भी लुत्फ उठाता रहा।
तब उन्होंने मेरा समर्थन किया कि वास्तव में यह इलाका ही ऐसा है।
दूसरे रोज भल्ला साहब सवेरे की गाड़ी से आ गए। मैं एक दिन रूककर वापस चंदौसी आ गया।
जब गाजियाबाद गया तो बाउजी को सारा वृतांत कह सुनाया। यह खास तौर से कि इतनी सुन्दर और समझदार लड़की है।
पिताजी ने पूछा-क्या तू उससे शादी करना चाहेगा। कहो तो भल्ला से बात करूं।
मैंने कहा-मेरी उम्र के मुकाबले बहुत छोटी है। चाहें तो बेशक बृज (छोटे भाई) के लिए कह सकते हैं।
बात आई गई हो गई। वर्षों बाद कभी मुझे वही लड़का मिला जो मुझे टुंडला ले गया था। उसने बताया था कि उस लड़की का िववाह हो गया था। एक दो वर्षों या छह महीनों में ही उसके पति की डैथ हो गई।
सचमुच, ऐसी कोमलांगनि के भाग्य पर मुझे गहरा धक्का लगा। अच्छा था। मैं ही उससे शादी कर लेता। फिर इस विचार पर दूसरा विचार हावी हो उठा-क्या पता मेरी ही मृत्यु हो जाती। पुराने लाेग ऐसी ऐसी बातें मानते ही हैं, जिनके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं होता। पर ठोस तर्कों के सहारे भी यह संसार आज तक कहां चल पाया है। यदि चल पाया होता तो जिंदगी का सफर निहायत सुहाना होता। फिर भी हम ऐसे में तर्कों कुतर्कों के सहारे जीवन जीने को अभिषप्त हैं। इस सबसे बड़े तर्क को, हर रोज भूल जाते हैं ः- कदम कदम पर होनी बैठी अपना जाल बिछाए। किसको खबर इस सफर में कौन कहां रह जाए।
चंदौसी में हम लोग स्वयं अपने कपड़े धोते थे। फिर प्रैस के लिए, आउट आफ बाउंड जाकर दे आते थे। मगर आज तक मुझे ठीक से न तो ढंग से रोटी बनानी आई और न ही कपड़े धोने। इसके बावजूद मैं घर वालों खास तौर से घर वाली के सामने उससे कहता हूं- इन बातों की धौंस कभी मत देना कि तुम्हारे भरोसे बैठा हूं। पता है मैं जब आठवीं में पढ़ता था तो शानदान परौठे बनाया करता था और जब मैं चंदौसी में था तो कपड़े अपने धोया करता था। मुझे सब आता है।
चोरी तो चोरी होती है। इतवार के साथ, एक दो छुटि्टयां पड़ती थीं। मैं अपने खास दोस्तों, सुशील कालड़ा और भगवान दास के साथ आगरा ताजमहल देखने चला गया था। वहां ताजमहल के सामने बैठे हम तीनों की फोटो आज भी मेरे पास है।
सुशील सुन्दर रंगरूप वाला था जबकि भगवानदास गठे हुए शरीर वाला, ज़रा मोटा। वे दोनों शादीशुदा थे। मुझ कंवारे को साथ लिये बाजारों से घूमते घुमाते, एक ऐसे बाजार में ले गए। आप समझ ही गए होंगे कैसा बाजार। वैसा ही जैसे का जिक्र में बरेली के बाजार का कर आया हूं। कॉलेज से लौटते हुए शार्टकट के चक्कर में मुझे अचानक दिखा था। लेकिन यहां यह मेरे बड़े भाई मुझे एक के बाद दूसरे कोठे पर ले जाकर दिखा रहे थे 'देख‘। वहां पर काली कालूटी बेडोल औरतें सस्ते पाउडर और ऐसी ही सुर्ख लिपस्टिक्स से मोटे मोटे होठों को रंगे हुए थीं। बदबू थी। मुझे घिन आ रही थी।
- चलो।
- चलते हैं। बस एक और। पता नहीं उनके पास कोई पूर्व जानकारियां थीं।
एक और कोठे पर सीढि़यां चढ़ गए। एक सुन्दर सी युवती ने स्वागत किया। सुशील ने उसके गाल थपथपाए। वह मुस्करा दी। बगल में कोई गठे हुए शरीर वाली महिला बैठी थी।
उन्होंने रेट पूछे। महिला ने पूछा-ट्रिप या पूरी रात ? आगे मुझसे नहीं सुना गया। मैं दूर पड़ी हुई एक बैंच पर गर्दन झुकाए शर्मसार बैठा था।
लड़की ने पूछा-इन्हें क्या हुआ ? फौरन मेरे पास चली आई और मेरी झुकी हुई गर्दन को ऊपर उठाने की कोशिश करने लगी।
भगवानदास ने उससे कहा- इसे कुछ मत कहो। यह कहता है। शादी नहीं करूंगा।
- क्यों ऐसी क्या बात है ? चलो मेरे साथ, वह गैलरी की ओर इशारा करते हुए बोली। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर दबाव बनाकर जैसे उठाने की कोशिश की। मेरे झुके हुए चेहरे को उठाकर अपने चेहरे के सामने किया।
सचमुच मैं शर्म के मारे जैसे डूब गया।
इस पर दोनों ने डांट के स्वर में कहा-इसे कुछ नहीं कहना। हम इसे इसी शर्त पर यहां लाए थे।
जब यह सब घटित हो गया। ''फिर आएंगे‘‘ का कहकर वे मुझे साथ लिये सीढि़यां उतर आए। वे दाएं बाएं का जायजा लेते उस बाज़ार से बाहर निकल रहे थे। साथ ही साथ मुझसे गालियां भी खाए जा रहे थे-बेशर्मों․․․․․․।
मैंने सोचा कि जब पुरूष अपनी होने वाली स्त्री के विषय में सौ जानकारियां लेता है। उसके चरित्र, चाल चलन, किसी के भी साथ न लगे होने जैसे प्रमाण प्राप्त करता है। तब क्या यही अधिकार स्त्री का नहीं बनता कि उसका होने वाला पति भी एकदम स्वच्छ हो। फिर यह साले तो शादीशुदा हैं। मुझे नहीं इन्हें डूब मरना चाहिए। तभी मैंने प्रण ले लिया कि अगर मैं शादी कर ही लूं (क्योंकि मैं शादी करना नहीं चाहता था इसके कुछ रटे रटाए कारण आगे शायद बता पाऊंगा) तो मैं भी पूरी तरह पाक साफ ही उसे पास सुहागरात को पहुंचूंगा। कायदे से यह हक तो उनको भी बनता है।
दूसरे रोज़ हम फिर तीनों उसी बाजार से तेजी से गुज़रे। सुशील कालड़ा हम दोनों को वहीं नीचे छोड़कर पांच सात मिनटों के लिए उसी छत पर चला गया था। इन पांच सात मिनटों में उसने क्या किया। इसे जानने की हमने, कम से कम मैंने तो कभी कोशिश नहीं की।
बाद में उस लड़की पर एक काल्पनिक कहानी गढ़ डाली थी कि वह किसी लेखक की रचनाओं को पढ़कर उससे मन ही मन प्यार करने लगती हैं। इस बात का पता किसी बदमाश या दलाल को चलता है। वह खुद को वह लेखक बताकर, शादी का झांसा देकर उसे कोठे पर पहुंचा देता है। कहानी का शीर्षक रखा 'वह हमारे गांव की‘। यह िदल्ली के किसी (ढूंढू तो मिल जाएगी) साप्ताहिक कबाड़ची अखबार में छपी थी। डॉ․ महाराज कृष्ण जैन, निदेशक कहानी लेखन महाविद्यालय, ने लिखा था बुरा हो शरत्चंद का जो हर वेश्या को पारो जैसी पाक साफ बताता है। आगे उन्होंने बाज़ार के यथार्थ के विषय में कुछ िवस्तार से समझाया था।
जब हम लोग वापस चंदौसी स्कूल पहुंचे तो पता चला कि पीछे वार्डन ने छापा मारा था। हमारी अनुपस्थिति दर्ज हो गई थी।
हमारी पेशी प्रिंसिपल साहब के आगे हुई। हाथ जोड़कर आइंदा के लिए माफी मांग ली। हमने समझा प्रिंसिपल ने मॉफ कर दिया। लेकिन नहीं। इस बात का पता मुझे तब लगा, जब मैं रेवाड़ी में टिकट कलैट्री (डिप्टी कलक्ट्री न समझें) हां टिकट कलैक्ट्री कर रहा था। मेरे वेतन में से दो रोज का वेतन कांट लिया गया था। ऊपर से चेतावनी भरा सर्टिफिकेट और।
हां जी मैं बता आया हूं कि सादुलपुर में मन जरा भी नहीं लगता था। हमेशा दिल्ली साइड की ट्रांस्फर की कोशिश करता रहता। मैं यहां पर हालांकि रिलिविंग सिगनेलर था, लेकिन परमानेंट वैकेंसी के वाइस काम करता था। दिन रात की सदाबहार ड्यूटियों में मिला रहता था। रात की ड्यूटी करने के बाद भी दिल लगाने के लिए स्टेशन पर बना रहता था। स्टाफ पूछता-सोया नहीं तो जवाब देता। सोना ही नहीं। मुझे थकावट नहीं होती। बाकी समय पत्रिकाएं किताबें पढ़ता रहता। यदि आप मुझे यह तोहमत न लगाएं (कि जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है) तो बताऊं․․․․․। दूसरे लोग भी अॉफ ड्यूटी स्टेशन पर आ धमकते वे सिर्फ गाडि़यों के टाइम। ताकि 'दर्शन‘ कर सकें। वे लेडीज कम्पार्टमेंट्स के आले-दवाले चक्कर काटते रहते। कुछ टिकट कलैक्टर्ज ड्यूटी न होते हुए भी वर्दी का कोट पहनें, इस पार या उस पार की लाइनों में गश्त लगाते और बिना टिकट वालों को, जो मेन गेट से गुजरने से बचते हुए दूसरे रासते अख्तियार करते, उन्हें धर दबोचते और पैसे खरे कर लेते।
सचमुच मेरे लिए धृणा का माहौल था, यह सब। जिस थाली में खाता मैं उसकी पूरी रक्षा करने को तत्पर रहता। बाजोकात कोई दूसरा सिगनेलर मुझे आराम से आ घेरता-सहगल तू मेरी बजाए नाइट ड्यूटी कर ले। मैंने बहुत अधिक (शराब) चढ़ा ली है।
मैं सिर्फ इसलिए राजी हो जाता कि अगर शराब के नशे में ये पेपर लाइन क्लीयर लेते वक्त कोई गलती कर बैठा और गाडि़यों की टक्कर हो गई तो इससे रेलेव की बदनामी होगी। ऐसी बातें बेशक दूसरे स्टाफ वालों को बचकानी लगतीं। पर मेरे जीवन का यह परम सत्य रहा कि रेलवे की बदनामी नहीं होनी चाहिए।
आप मेरे इस तार बाबू वाले पद को छोटा न समझें। ठीक इसी पद पर आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी भी तैनात थे। पर कहां वे और कहां मैं। वे स्टेशन मास्टर से तंग आकर नौकरी छोड़ गए थे। पर मैं हर परिस्थिति में नौकरी से चिपका रहा। क्यों ? आगे चलकर खुलासा करूंगा। एक तो अभी जान लीजिए, जहां द्विवेदी जी को अपने ज्ञान पर भरोसा रहा होगा, वैसा आत्मविश्वासी मैं न था। मैं तो शुरू ही से अपने को सबसे कमतर समझता आया हूं।
जब मैं हर तरह की सब ट्रेनिंग (सिवाए लाइन क्लीयर की) पास कर, वापस 17 जुलाई 1957 को सादुलपुर पहुंचा, तो मेरी पुरानी कोशिशें रंग ला चुकी थीं। मेरा ट्रांसफर दिल्ली सरायरोहिला, रिलिविंग सिगनेलर के पद पर हो चुका था। मैंने 21 जुलाई को किसी तरह ज्वाइन किया ः क्योंकि सादुलपुर के स्टेशन मास्टर मुझे तंग करने के लिए एकदम स्पेयर ही नहीं कर रहे थे।
23 अक्तूबर को दस दिनों की छुट्टी लेकर गाजि़याबाद पहुंचा जहां पिताजी दो महीने पहले से ही आर्यनगर में मकान बनवा रहे थे। बिल्कुल श्री बी․एन․ चोपड़ा के बंगले के पास। यह ज़मीन उन्होंने ही पिताजी को समधी होने के नाते दिलवाई थी। शकूर बस्ती से बेदखल होने का वर्णन पहले कर ही आया हूं।
ताज़ी ताज़ी नौजवानी चढ़ी थी। खूब भाग दौड़ करने की तमन्ना, हरदम बनी ही रहती थी। 29 अक्तूबर 57 को मैं कोटा कृष्णा बहन जी के घर जा पहुंचा। जहां जीजाजी श्री रोशनलाल तलवाड़, दिल्ली कैंट से, अस्थाई ट्रांसफर पर थे।
15 जुलाई 1958 से 11 अक्तूबर 1958 तक चंदौसी में रहकर हिन्दी टेलिग्राफी का कोर्स किया और पास हो गया। कहने को हिन्दी का जमाना जोशो खरोश से कदम बढ़ा रहा था लेकिन हिन्दी का आगे क्या हश्र हुआ ? इसे मेरे नज़रिइए से भी जरा जान लें। अंत तक यानी मेरे सेवानिवृत्त्ा होने तक हिन्दी टेलिग्राफी और (हिन्दी वायरलैस भी) चल ही न पाई। अब तो खैर वक्त ही और से और आ रहा था। धीरे धीरे नई टैक्नोलॉजी के चलते, सारे तार घर और तुरंत बाद वायरलैस विभाग ही समाप्त होने लगे थे। अब हो चुक हैं। टैलिप्रिंटर से टैलिमैक्स फिर फैक्स, ई-मेल, मोबाइल, नेट आदि इत्यादि जो पैदा हो गए हैं।
इसी हिन्दी टेलिग्राफ कोर्स के दौरान मैंने 16 सितंबर को ऐफिशेंसी टैस्ट पास कर लिया।
एक रोचक कथा
इससे पूवर् इसी मामूली से टैस्ट, 25 मार्च 58 और 23 जून 58 को देने चंदौसी आया था, और फेल कर दिया गया था। टैस्ट लेने वाले वही हमारे अफ़सर श्री बी․एन․ चोपड़ा थे। सब हैरान। मैंने भी किसी के सामने घरेलू राज़ नहीं खोला और यही कहा कि मेरी टेलीग्राफी की प्रैक्टिस जाती रही है। क्योंकि मुझे ट्रैफिक सिगनेलर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यहीं एक सही कारण हो सकता था। क्योंकि पहले बता आया हूं कि मैं चूंकि सारे इम्तिहान पास था लिहाजा मुझे कभी बुकिंग क्लर्क तो कभी पार्सल क्लर्क, ट्रेन क्लर्क, यार्ड मास्टर कभी कभी गार्ड जैसी ड्यूटियों पर छोटे छोटे रोड साइड स्टेशनों जैसे गुड़गांव, पालम गढ़ीहरसरू, पाटोदी रोड, हिसार, सिरसा, भवानी, पातली आदि स्टेशनों पर भी जोत दिया जाता था। कभी यह ड्यूटी करो कभी यह ड्यूटी करो। इन कई छोटे स्टेशनों पर रोटी भी नसीब नहीं होती थी। स्टेशन मास्टरों को डर लगा रहता था कि कहीं तंग आकर यह लड़का सिक न कर जाए और हमें शार्टेज का सामना करना पड़ेगा। इसलिए स्टेशन मास्टर लोग अपने स्टाफ वालों को डांटते रहते कि बाबू की रोटी की व्यवस्था करो। नहीं तो यह सिक कर जाएगा। सारे काम का बोझा हमीं पर पड़ जाएगा। मुझसे पूछते रहते सिक तो नहीं करेगा ना। अगर करनी हो तो हमें पहले बता देना। भले ही नई सर्विस थी, पर इतना तो मैं भी समझता था कि पहले बता देने का क्या परिणाम हो सकता। सिक तो बिल्कुल अचानक सरप्राइज की तरह की जाती है। फिर हमें नौकरी करनी थी या सिक करनी थी।
भले ही मैं स्टेशन मास्टरी के इम्तिहान में फेल हुआ था। इसके बावजूद मुझे लाहौरी गेट स्टेशन पर ए․एस․एम․ लगा दिया करते थे। दो दफः मैंने प्वाइटसमैंन की गलतियां समय रहते, पकड़ी थीं। नहीं तो अनर्थ हो जाता। यानी मैंने दो भयंकर एक्सीडेंट्स को, होने से बचाया था। ज़रा सोचिए, जो जो लोग यानी, सब, इम्तिहान पास करके ही तो ए․एस․एम․ बनते हैं। और एक्सीडेंट्स उन्हीं के कोमल हाथों ही से होते हैं। तो मानना ही पड़ेगा कि एक्सीडेंट्स, एक्सीडेंटली हो जाते हें। पास फेल होने से या फिर भगवान की इच्छा से होते हैं। क्या भगवान 'फेलों‘ के हाथों से ही एक्सीडेंट करवाते हैं ? पासों के हाथों से नहीं ?
एफीशेंसी टैस्ट एक मामूली किस्म का टैस्ट, इन्क्रीमेंट लगने के लिए हुआ करते थे (या हैं) बहुधा अफसर लोग किसी मामूली त्रुटि को नजरअंदाज करते हुए पास कर देते हैं। या सिर्फ अनौपचारिक बातचीत करके ही। मगर मेरे अफसर श्री बी․एन․ चोपड़ा थे। असली वजह मैं जानता था। मैं त्यागपत्र लेकर अपने इन्सट्रक्टर के पास जा पहुंचा कि इसे प्रिंसिपल से फारवर्ड करा कर मेरे डिवीजन भिजवा दें। इन्स्ट्रक्टर सब कुछ समझ गए। वे मेरे और चोपड़ा साहब के रिश्ते को जानते थे। समझ गए कि इसका कारण घरेलू अनबन ही है। लिहाजा उन्होंने मुझे समझाया कि बेटा ऐसा नहीं करते वगैरह वगैरह और त्यागपत्र को फाड़ डाला।
आगे सुनिए। चोपड़ा साहब ने मेरे पिताजी के सामने गाजियाबाद में जाकर और कहा कि मैं हरदर्शन को फेल कर आया हूं। पिताजी ने भी उन्हें वैसा ही जवाब दिया कि आपके दंभ को इसी से संतुष्टि मिलती है तो अभी उसे (हरदर्शन) बुलाकर उससे रिजाइन करवाए देता हूं , ताकि आपके कलेजे को ठंड पहुंचे। उसने आपका कहना नहीं माना। उसका मन नहीं मानता तो कोई उसे मजबूर नहीं कर सकता। वह अपने ही तरीके से सोचने वाला विचारशील लड़का है। मैं उसकी काबलियत को समझता हूं।
चोपड़ा साहब अपना सा मुंह लेकर रह गए।
अब आपको ज़्यादा इंतजार नहीं कराऊंगा। असल वजह जान लीजिए। चोपड़ा साहब ने अपनी भतीजी की शादी का प्रस्ताव मेरे लिए रखा था। उनके भाई पूना में कपड़े के बहुत बड़े व्यापारी थे। खूब पैसा पानी की तरह बहता है।
बिना देखी भाली लड़की से, बस चोपड़ा साहब के कहने मात्र से, मैं कैसे 'हां‘ कर देता। मुझे भाई साहब वाली घटना भी याद थी कि अमीरों की लड़कियां मामूली तन्ख्वाह वालों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पातीं। व्यापारियों और नौकरी वालों की मानसिकता में भी बड़ा अंतर होता है। इसे खुद चोपड़ा साहब को भी खुद कहते सुना था।
दरअसल शादी को लेकर मैं बहुत ही महीन बुनती बुना करता था। लड़की लड़का दोनों एक दूसरे को खूब खूब जानते हों। एक जैसी रूचि वाले हों। कलाविहीन आदमी भी क्या कोई 'आदमी‘ होता है। मैं लड़की को पसंद करूं, इससे ज़्यादा यह ज़रूरी है कि लड़की मुझे जान ले। यदि मेरे अंतरमन की गहराइयों तक पहुंच सके, तभी मुझे चुने। मेरी सबसे बड़ी समस्या यह थी कि जिससे मैं शादी करूं, वह शादी के बाद, मुझसे किसी भी प्रकार से दुःखी न हो। उसे मेरे साथ शादी करने का पश्चाताप न हो। मेरी केाई बात नहीं। अगर मुझे मनमर्जी मुताबिक लड़की न मिले तो मैं कभी भी शादी नहीं करूंगा। और अगर किसी गलत लड़की से गलती से एक बार बंध गया तो उसी से हर स्थिति परिस्थिति में उम्र भर निर्वाह करूंगा।
पिताजी का मैं लाडला बेटा था। वे मेरे मास्टर सेंटिमेंट थे। उन्हें मेरी भावनाओं, मेरे दर्शन मेरे कुछ अलग तरीके से तर्कयुक्त विचारों पर नाज था। मेरे पढ़ाकूपन से खूब खूब परिचित थे। जो लोग अपनी लड़की का प्रस्ताव लेकर आते, उन्हें कहते-मेरा बेटा कोई ऐसी वैसी किताबें पढ़ने वाला लड़का नहीं है। वह बड़े बड़े फिलासफरों, बड़े बड़े लोगों को पढ़ता है। चोपड़ा साहब से भी बोले थे कि आपकी भतीजी से उसकी जबर्दस्ती शादी कर मैं उसकी भावनाओं का गला नहीं घोट सकता।
मगर दूसरी तरफ पिताजी मुझे समझाते-हमोर परिवारों में, तेरी फिलासफी समझने वाली लड़की नहीं मिल सकती। ज्यादातर लड़कियां हमेशा सुशील शर्मीली, पति का आदर करने वाली होतीं हैं जो बहुत जल्दी अपने को अपने पति की आदतों के साथ ढाल लेती हैं। वे कुछ घरों के उदाहरण भी देते, जहां पति-पत्नी एक सा बोलते। एक जैसा व्यवहार करते हैं। आदि।
तो दूसरी तरफ माताजी, बहन कृष्णा थीं जो मेरे शादी से इनकार करने से दुःखी क्या, सचमुच रो देतीं थीं। क्या मैं, इनके लिए शादी करूं ? चारों ओर से मुझ पर शादी करने के दबाव बढ़ रहे थे। मैंने सोचा, चलो अपने स्तर पर ट्राई कर देखते हैं। मैं हिन्दी अंग्रेजी अखबारों के मैट्रीमोनियल्ज को पढ़कर कुछ चिटि्ठयां लिखने लगा। कुछ बालाएं या बलाएं, मुझे पता नहीं, अपने स्वयं के हैंड राइटिंग से अंग्रेजी में उत्त्ार देने लगीं। बहन जी को जब इस बात का पता चला तो वे मुझे चेतावनी देतीं-हमें एसी फारवर्ड लड़कियां नहीं चाहिए। दर्शन जरूर धोखा खाएगा। ज़्यादातर के पिता पत्र लिखते। चमत्कारी पत्र। अपने पुरखों का न सही अपने खानदान के लोगों का विस्तार से विवरण दे मारते। लड़का, जीजा इस पोस्ट पर मौसा इस बड़ी पदवी पर, फ्लाना समृद्ध लाखों का व्यापारी। इतने भाई इतनी बहने। मां घरेली गॉड फीयटिंग लेडी․․․․․․․․․․․․․।
मैं जवाब देता मुझे यह (बकवास शब्द तो नहीं लिखता) सब नहीं चाहिए। मुझे सिर्फ लड़की से मतलब है। वह मेरी रूचि की हो। भले ही सारा खानदान लफंगा कंगाल हो। मुझे उन सबसे क्या लेना देना। मुझे सिर्फ लड़की के साथ सारी उम्र बितानी होगी।
एक दंपती ने मुझे दिल्ली फतेहपुरी के किसी होटल में एक निर्धारित समय तिथि को बुलाया। मैं जब सीढि़यां चढ़ रहा था तो किसी दम्पती के अपने शाहबजादे के साथ जो खूब बना ठना था, उतरते पाया। मुझे गैलरी में थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ी। कोई और परिवार कमरे से निकला। तब मुझे बुलाया गया। चाय का प्याला। बातों की बर्फी। थोड़ी देर बाद लड़की। एक दो मिनट मेरे सामने खड़े रहने के बाद वापस।
उस लड़की की मां तो पहले से ही अपने फेथफुल हज़बेंड के साथ बैठी ही थीं। लड़की के चले जाने के बाद बाइज्जत मुझसे पूछा-आपने लड़की देख ली। बताइए।
मैं लगभग भड़कीले स्वर से बोला-इससे क्या होता है। मैं कोई लड़की का रूप रंग देखने नहीं आया। जीवनसाथी चाहिए मुझे। तब उन्होंने कुछ धैर्य से मेरे विचार जाने। क्योंकि मैं निपट अकेला ही था, तो पूछा कि यदि आप अपना अप्रूवल (सहमति) दे देते हैं, तो आपके माता पिता कोई एतराज तो नहीं करेंगे।
मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ उत्त्ार दिया-बिल्कुल नहीं।
- तब ठीक है। मैं आपको पत्र लिखूंगा।
जब मैं सीढि़यां उतर रहा था तो एक अन्य दंपती, अपने लाडले बेटे को शानदार पोशाक पहनाए, ऊपर जा रहे थे।
ऐसा सारा वर्णन सुन-सुनकर बहन जी ने फिर कहा था-दर्शन तू ज़रूर धोखा खाएगा। यह सब नोटंकियां देखना बंद कर। मैं तुझे मुरादाबाद लेकर चलती हूं। (याद नहीं कौन से) बरेली वाले (स्टाफ के) चाचा जी की चिट्ठी बाऊजी को आई पड़ी थी। उनकी लड़की को तो तू बचपन से जानता है। चल देख आएं।
मुरादाबाद पहुंचकर मैंने लड़की से बात की। उसकी जबान लड़खड़ा रही थी। लड़खड़ा तो मेरी भी रही थी, पर मैं किसी हद तक उसे साधे, जीवन, 'जीवन-दर्शन‘ की तहरीर बनाकर, चंद सवालात कर रहा था, जिनका सीधा अर्थ या जवाब खुद मेरे पास भी कहां था। दोनों ओर ही कमोबेश घबराहट ने हम दोनों को आ घेरा था। ''क्या हम कुछ बार और मिल सकते हैं ,‘‘ के जवाब में सिर झुकाए धीमे स्वर में बोली ''यह मेरे माता पिता जानें। मुझे कुछ संभावनाओं की तलाश थी। मगर चूंकि अब वह बरेली वाली पतली दुबली लड़की के स्थान पर बहुत ज्यादा मोटी हो गई थी, लिहाजा बहन जी ने ही उसे नापंसद कर दिया। घर जाकर इत्त्ािला देने का कहकर, हम वहां से गाजि़याबाद लौट आए। इस बार बहन जी ने अपना निर्णय सुना दिया कि दर्शन के साथ यह जोड़ी ढुकेगी (जचेगी) नहीं। कहां यह दुबला पतला और कहां वह स्थूलकाय मोटे शरीर वाली। चलो पिंड (पीछा) छूटा।
बाद में जब उसके पिता को, पिताजी ने असहमति पत्र लिखा तो उसके पिताजी ने लिखा था कि मैं तो हरदर्शन को वही बरेली वाला भोला भाला लड़का समझता था कि हमारा शरीफ घराना देखकर आसानी से मान जाएगा। पर अब उसके ख्यालात क्या से क्या हो गए (यानी फिलासफर बन गया है) वापस सोच लीजिए। यह रिश्ता हो जाता तो अच्छा था।
आए दिन, लड़की वालों का आना होता रहता।
माताजी पिताजी घर में अकेले होते। बहन जी का घर थोड़ा दूर पड़ता था। या वे और जीजाजी कहीं बाहर गए होते। उनका ट्रांस्फर बाद में मद्रास में हो गया था। चोपड़ा साहब का घर बहुत पास। माताजी किसी खेलते हुए लड़के से कहतीं-जाकर जरा कमला (चोपड़ा साहब की लड़की) को तो बुला ला। कमला फौरन आकर उन्हें पानी चाय पिलाती। लगभग सारी लड़कियों को कमला रिजैक्ट कर देती।
कृपया इस वाक्य को अंडर लाइन कर लें/दें। मौसी जी (हमारी माता को वह मौसी जी ही कहती थी) यह, यह लड़की तो ठीक नहीं है। यह वाली तो मेरे साथ ही पढ़ी हुई है, उसे मैं अच्छी तरह से जानती हूं।
कोई किसी को बुरा कहे तो उसका असर फौरन हो जाता है। यह सब सुनकर माताजी ही पीछे हट जातीं।
कमला का गला अक्सर खराब रहता था। पिताजी गले की मालिश करने में माहिर थे। वह भी और लोगों की देखा-देखी पिता के पास यदा कदा आ जाती थी। और कामों से भी आती ही रहती थी। मैं बाद में रेवाड़ी पोस्ट हो गया था। भाई साहब का हैड क्वार्टर भी रेवाड़ी ही था। मैं हफ्ते में एक दो बार घर गाजियाबाद आता ही था। तब कमला अपनी बहन जी राणों का हालचाल पूछने थोड़ी देर के लिए मेरे पास चली आती थी। माताजी को कमला बहुत भाती थी। प्रायः उनके मुंह से बरबस निकल पड़ता-चोपड़ा साहब अपनी भतीजी के लिए तो जोर डालते हैं। अपनी कमला के लिए क्यों नहीं कहते। भले ही चोपड़ा साहब का मुंह सूजा हुआ था, लेकिन हमारे पारिवारिक संबंध पूर्ववत् बरकरार थे।
सहारनपुर में भी उनके यहां तमाम शादियों समारोहों में हमेशा शामिल होता था। मुझे फोटोग्राफी का शुरू ही से शौक था। कमला के सबसे बड़े भाई साहब की शादी में कमला की बड़ी बहन दर्शना की शादी में बहुत सी फोटो खींच लाया था। उनके सब घर वालों की, चोपड़ा साहब की अकेली तथा उनके स्टाफ वालों के साथ। भाई साहब की उनके सांडुओं के साथ। कमला की भी, जो आज भी मेरे पास है। कितनी छुट्टकी सी प्यारी भोली थी कमला। हमारा वह जमाना बरेली-सहारनपुर का जमाना था। कमला अक्सर मुझे भाई साहब के संबोधन से पत्र लिखकर फोटो भेजने को लिखा करती थी।
अब गाजियाबाद आकर वे बातें पुरानी पड़ गई थीं। चूंकि चोपड़ा साहब एस․टी․आर․ (सुपरइन्टेंडेंट टेलिग्राफ रेलवे) जैसे महत्वपूर्ण पद पर अफसर बन चुके थे। (कुछ बरेली के लड़के मुझसे सिफारशी चिटि्ठयां भी लिखवा ले जाते। मैं उन्हें, मौसाजी संबोधित करता था।) अब उनका अलग दफ्तर नई दिल्ली स्टेशन के पास (चैलम्स लार्ड रोड पर) पड़ता था। इसीलिए उन्होंने सहारनपुर छोड़ दिया था और गाजियाबाद आ बसे थे। और पिताजी को भी ला बिठाया था। छोटे जीजाजी की बार बार तब्दीलियां हुआ करतीं थीं; तो पिताजी ने अपने बलबूते पर, अपने घर के पास आर्यनगर में उनका मकान बनवा दिया था। सब पास पास। भाई साहब ने भी अपना अलहदा मकान, पिताजी वाले मकान के एकदम नजदीक बनवा लिया था।
कमला ने सहारनपुर से 1955 में हाई स्कूल पास किया था। अब गाजियाबाद आकर उसने दिल्ली में पहले नर्सिंग की ट्रेनिंग ज्वाइन की थी, जो उसे रास नहीं आई। फिर इसने कढ़ाई सिलाई के दो दो डिप्लोमा उत्त्ार प्रदेश सरकार से हासिल किए थे। इसके बाद कर्जन रोड दिल्ली होस्टल में रहकर, इन्ट्रकटर कोर्स कर, इस दिशा में पूरी निपुणता प्राप्त कर ली थ्ाी।
जिन वर्षों की बात मैं कर रहा हूं, तब कमला अपना सिलाई स्कूल अपने बंगले की ही मंजिल पर चलाने लग गई थी। स्कूल दिनोंदिन में ही खूब चल निकला था। गाजि़याबाद के आस पास के गांव तक की बड़ी बड़ी औरतें और लड़कियां इसकी शिष्य बन गई थीं।
कुछ समय के लिए कमला जी की छोड़, अपनी कहने की अनुमति चाहता हूं। कुछ तफ्सील तो पहले बयान कर आया हूं जो बकाया है, उससे, यकीन मानिए आप को महरूम नहीं रखूंगा। बस जरा मेरी यादाश्त पर आपको भरोसा रखना होगा।
मेरा हैड क्वार्टर तो दिल्ली सरायराहिला था। पर मैं रहता दिल्ली कैंट में था। अपडाउन करता। जहां लोगों को दिल्ली जैसे शहर में रिहायश के लिए दरदर की ठोकरें खानी पड़ती हैं, वहां मेरे पास दो दो खाली क्वार्टर थे। भाई साहब का रेल्वे क्वार्टर प्रायः खाली पड़ा, मेरा इंतजार करता तो दूसर मिल्ट्री का जीजाजी का। बतां आया कि वे अस्थाई तबादले पर कोटा में थे। कभी कभी जब ड्यूटी में लंबा फासला होता तो सब्जी मंडी रोशनारा बिल्डिंग बड़ी बहन जी सुमित्रा के यहां चला जाता। उससे भी ज्यादा समय मिलता तो गाजियाबाद को आबाद कर आता। हर जगह मेरे काम चलाऊ पाजामें शर्टस रखे रहते थे।
क्या मस्ती के दिन थे वे। ज़्यादातर दिल्ली केंट स्टेशन, लाइनों के पिछवाड़े वाले होटल से खाना खाता। सर्दी के दिन होते तो बड़ी बड़ी अंगीठियों, तंदूरों से हाथ ताप लेता। वहां रोज़ाना के ग्राहक और भी थे जिन से दोस्ती हो गई। एक दो से ज्यादा आत्मीयता हुई तो वे मेरे घर चले आते। एक को मैंने एक लंबी कहानी मिल्ट्री क्वार्टर में पढ़कर सुनाई थी। वह, उर्दू में, कहानी के नीचे 'जिंदाबाद‘ लिखकर दाद दे गया। उसका फोटो तो मेरे पास है लेकिन उसका नाम भूल गया हूं।
चचेरे भाई साहब चरणजीत लाल सहगल, जिनका विस्तृत वर्णन आरम्भ में कर आया हूं, वे भी दिल्ली केंट के दूसरे इलाके में कुछ मील दूर सपरिवार रहते थे, उनसे भी मिल आता।
ज़्यादातर मैं मिल्ट्री वाले जीजाजी के क्वार्टर में रहता। शाम को घर लौटता तो पड़ोस में रहने वाली एक लड़की से सामना हो जाता। मुझे लगने लगा कि वह मेरे इंतजार में खड़ी होती है। मैं अपने क्वार्टर में घुस जाता तो वह क्वार्टर की छोटी दीवार पर अपने छोटे भाई को बिठाकर खिलाती। मैं बालक से ऐसे ही कुछ बतिया लेता। होते होते एक दिन मैंने बालक से उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम वीरेन्द्र सहगल बताया। मेरे मुंह से आपसे आप निकला-अच्छा। मैं भी सहगल हूं।
बस उसके बाद वह लड़की दिखना बंद सी हो गई। मैंने भी थोड़ी बनी उम्मीद को पीछे धकेल दिया। हां कभी कभी मैं साइकिल को तेज दौड़ाकर एक दूर के होटल से भी खाना खा आता वहां की ऊंची डाइनिंग टेबल मुझे बहुत आकर्षक लगती।
मैं अपनी इन आजादियों को पल पल जीता। और समझता या अपने को समझाता, जितना हो सके शादी को टालते रहो। शादी के बाद ऐसे उड़ने उड़ाने वाले दिन एकदम से उ़कर रफूचक्कर हो जाएंगे।
बावजूद इन उड़ानों के मैं दिन रात की, तरह तरह की, ड्यूटियों से तंग आ जाता था। चलो आज खिड़की में बैठकर टिकटें बेचो। चलो आज गोदाम में बैठकर पार्सल बुक करो। डिलिवरी दो। माल गाडि़यों के आते ही उनके पीछे भागो। हर डिब्बे के नम्बर समेत उसके सारे ब्योरे जल्द से जल्द लंबे रजिस्टर में दर्ज करो। नहीं तो शंटिंग शुरू हो जाएगी। यह ट्रेन कलर्क की ड्यूटी तो सब ड्यूटियों (जैसे बुकिंग क्लर्क/पार्सल गुडस क्लर्की टिकट कलैक्ट्री की ड्यूटियों) से बढ़ चढ़कर दुखदायी होती। एक तरफ एक डिब्बे का लेबल लगा हैं तो दूसरे डिब्बे का दूसरी तरफ। जान को जोखिम में डालकर बफर से लाइनें कूदनी पड़तीं यह काम रातों में भी करना पड़ता। सर्दी की रातें। बरसात की रातें। बगल में रेलवे का बड़ा मट्टी के तेल वाला लैम्प। कार्बन पेपर वाला लंबा रजिस्टर जिसे संभालना․․․․․․ पूछिइए ही मत। कल्पना ही कर सकते हैं।
एक बार एक डिब्बे का लेबल उसकी छत के पास टंगा हुआ था तो मैंने डिब्बे के नंबर के आगे लिख दिया ''आई एम नाट सो टाल‘‘ (मैं इतना लंबा नहीं हूं) लेबल से, उस डिब्बे का स्वयं का भार, भरे हुए माल का भार, उसमें क्या चीजें लदी हुई है, आदि आदि सब दर्ज करना होता है। बड़ी फुर्ती से यदि दर्ज नहीं कर पाओ तो कंट्रोल फोन एक्स्पलेनेशन कॉल हो जाता कि गाड़ी तुम्हारे अकाउंट पर लेट हुई। जवाब दो। मैं ज्यादातर यही जवाब लिख देता कि मैं ट्रेन कलर्क तो नहीं हूं। मुझे तो यूं ही शार्टेज में इस्तेमाल किया जाता है। और बच निकलता।
सच बताता हूं एक तो लंबा ओवरकोट पहने होता उस पर लंबा रजिस्टर उठाए हुए। सर्द हवा चलती तो कार्बन पेपरों को संभालना मुश्किल हो जाता। ऊपर से रेलवे वाला कैरोसिन का बड़ा लैम्प (ऐसा लैंप आप सब ने गार्ड के हाथ में देखा होगा) बगल में दबाए फुर्ती से भी फुर्ती कर वैगनज के सारे डिटेल्ज नोट करने पड़ते। तब मैंने अपनी बड़ी टार्च इस्तेमाल करनी शुरू कर दी जिसके सैल दो तीन दिनेां में ही फुक जाते। सोचता-यह किसी किस खुशी का का दंड भोग रहा हूं।
एक मजेदार परोपकार करने की घटना मेरी नाजुक अंगुलियों से परवान चढ़ी। जरा गौर से सुनिएगा। एक बार हुआ यह था कि ए․एस․एम․ के अकांउट पर गाड़ी लेट हो गई। उसने मुझसे प्रार्थना कि तुम वही इबारत लिख दो कि पूरा काम न जानने से गाड़ी मेरे अकांउट पर लेट हुई है। मैंने उस पर विश्वास करके ऐसा ही किया। वास्तव में वह ए․एस․एम․ छूट गया। मुझे बुकिंग क्लर्क लगा दिया जाता मैं खड़की से टिकटें बांटता। घाटा खा जाता। पैसे अपनी जेब से भरता। जब एक बार पाटोदी रोड में टिकटें बांट रहा था। बहुत भीड़ थी। गाड़ी लेट हो रही थी। सी․एम․आई इंस्पैकन पर आ पहुंचा। मुझसे आकर कहा। यह गाड़ी तुम्हारे अकाउंट पर लेट हुई। कुछ लोग कह रहे हैं कि बाबू ने हमारे पैसे रख लिए हैं।
मैंने वही रटारटाया उत्त्ार दिया कि साहब मैं तो सिगनेलर हूं। यह सब तो रेलवे की सहायता के लिए, आदेशानुसार कर रहा हूं। मैंने अकाउंट मिलाया और जवाब दिया। आप खुद चैक कर लीजिए। मेरा स्वयं का नुकसान हो गया है। आउटर सिगन मोड़ पर पड़ता है। जब यह डाउन होता है तो शहर वाले इसे दखकर ही स्टेशन की ओर भागते हैं। इतने लोगों को एक साथ कैसे टिकट दिए जा सकते हैं। मेरी बात का दूसरे स्टाफ ने समर्थन किया।
इंस्पैक्टर ने पैसिंजरों को डांट लगाई-भागो। बाबू को खुद घाटा हो गया है।
उन सबके चले जाने के बाद, जब मैंने तसल्ली से अकाउंट मिलाया तो कुछ रूपए बच गए थे। चलो कुछ तो क्षतिपूर्ति हुई। इसके लिए इन सब रात दिनों की ड्यूटियों (खुराफातों) से तंग आकर, मैंने कोशिश कर देखी कि मुझे किसी तरह, बड़ोदा हाउस में क्लर्कों की जॉब ही मिल जाए। चचेरे भाई साहब चरणजीत जी ने मुझे बड़ोदा हाउस अपने किसी दोस्त के पास भी भेजा था। उसने कहा-देखों कोशिश कर तुम्हें सूचित करूंगा।
फिर एक दिन किसी ने सरायरोहिला के पिछवाड़े जरा दूर किसी क्वार्टर का नंबर, और वहां रहने वाले किसी सज्जन का नाम बताया कि वे बड़े रसूख वाले आदमी हैं। उनसे किसी शाम को जाकर मिलो। वे बड़ोदा हाउस में ही कार्यरत हैं और शाम को ही घर पर मिल सकते हैं।
एक शाम मैं उनके क्वार्टर जा पहुंचा। अपना परिचय और वहां आने का मकसद ज़ाहिर किया। उनकी पत्नी और दो लड़कियां भी पास चली आईं। उन्होंने बड़े आदर से मुझे बिठाया। चाय वगैरह पिलाई।
उन साहब ने पूछा-तुम इतनी अच्छी स्टेशन मास्टर बनने वाली नौकरी छोड़कर मामूली सा क्लर्क क्यों बनना चाहते हों ?
तब मैंने उन्हें अपनी बनी बनाई भावुकता से अवगत कराया कि मुझे ज्यादा की चाह नहीं। दस से पांच बजे तक आराम की नौकरी की। फिर बैठकर खूब खूब सारी किताबें पढ़ी। दिल्ली लाइब्रेरी का भी सदस्य बन जाऊंगा।
मेरी इस प्रकार की बातें सुनकर वे सब बहुत प्रभावित हुए।
- कितना अच्छा भोला लड़का है। इसका काम करो। औरत ने अपने पति की ओर देखते हुए कहा।
- तुम आते रहना। वे शायद मुझसे 'उसी कारण‘ से मेल मुलाकात बढ़ाना चाहते थे।
बाद में मुझे दोनों ही स्थानों से एक सा उत्त्ार मिला कि मेरी टैक्नीकल जाब थी। रेलवे ने हमें ट्रेन्ड करने के लिए पैसा समय खर्च किया था। फिर ग्रेड भी क्लर्क से ऊंचा पड़ता था। इस कारण किसी को डिग्रेड (कमतर) नहीं किया जा सकता। खैर। 'आई एम नॉट सो टाल‘ तो सब की हंसी का पिटारा बन गया था। और भी बहुत सी रोचक या पीड़ादायक घटनाएं घटीं जिन्हें मैंने अपनी हास्य संस्मरणों वाली पुस्तक 'झूलता हुआ ग्यारह दिसंबर‘ में लिख रखा है। यहां दोहरा कर पुस्तक मोटी नहीं करना चाहता। हां इतना जरूर बताना चाहूंगा कि रेलवे में सबसे मुश्किल काम ट्रेन क्लर्क का और सबसे आसान काम टिकट कलैक्टर का होता है। यह मेरा निजी निष्कर्ष है। एक दिन, शाम के समय स्टेशन मास्टर मि․ मितल प्लेटफार्म पर चहल-कदमी कर रहे थे। मैं झट से उनके पास पहुंचा और जवाब तलब करने वाले से अंदाज में बोल उठा- बताइए सर मेरे कितने मालिक हैं ? मतलब वे फौरन समझ गए यानी कभी चीफ बुकिंग क्लर्क, कभी चीफ पार्सल क्लर्क, कभी हैड टिकट कलैक्टर तो कभी यार्ड मास्टर के अंडर काम करूं।
मितल साहब मुस्कराए-अरे जितना ज्यादा काम करोगे उतना ही सीखोगे। आगे चलकर यह सब तुम्हारे काम आएगा।
मितल साहब बड़े खुश मिज़ाज व्यक्ति थे। एक बार मैं अपना बड़ा फोटो खिंचवाकर मितल साहब को दिखा रहा था। देखकर बहुत खुश हुए कहने लगे-इतना खूबसूरत। अब तो तुम्हें शादी करवा लेनी चाहिए।
एक बार दोपहर को मैं सरायरोहिला में टिकट कलैक्टर की ड्यूटी बजा रहा था। भाई साहब इंस्पैक्शन पर आए हुए थे। एक स्टाफ का आदमी कुछ देर तक भाई साहब के साथ बात करता हुआ दिखाई दिया। फिर धीमे कदमों से चलकर मेरे पास पहुंचा। कहने लगा-तुम्हारे भाई साहब से बात की है। वे कहते हैं-तुम खुद ही जाकर बात कर लो। वह रहा। तो तैं तुम्हारे पास चला आया। मेरी बहन या ऐसी ही किसी करीबी लड़की के बारे में बात करने लगा कि देखने में बहुत सुन्दर है। घर के सब काम कर लेती है। कहो तो किसी दिन तुम्हें दिखा आऊं। तुम्हारे मैच की है।
मेरे मुंह से अजीब सा वाक्य निकला-मैं अभी अपने आपको ही नहीं समझ पाया हूं। शादी को क्या समझूं।
अपने इस वाक्य पर आज भी मुझे हैरानी और शर्मिंदगी सी महसूस होती है। कैसे, क्या शब्द कहे थे मैैंने।
भाई साहब ने उससे बाद में कहा था- मैंने आपको पहले ही बताया था ना। वह किसी की भी मानता। जो से मना ले, उसे मैं मान जाऊंगा। बल्कि इनाम भी दूंगा।
भाई साहब मुझसे कहते-जैसे तेरे ख्यालात हैं और तेरी सोच की दुनिया है, उसके मुताबिक तुझे वैसी लड़की मिलना मुश्किल है।
बाद में उस होटल में मुलाकात करने वाले सज्जन का पत्र आया था कि फ्लानी फ्लानी तिथियों को मैंने आपके लिए झुन्झुनूं के डाक बंगले का सूट बुक करवा रखा है। आप आ जाएं। आगे बात की जाए। उन दिनों भारत पाक युद्ध चल रहा था-मैंने लिखा था-छुट्टी बिल्कुल बंद है। सो आगे की बात भी हमेशा के लिए बंद हो गई। यह वाक्या रेवाड़ी का है। जरा बाद का, जब मैं वायरलैस में आ चुका था। कहने का अर्थ यही है कि हमारे समाज में जैसे ही किसी लड़के की नौकरी लगती है। लड़की वाले बारोजगार लड़के की तलाश में उसके यहां आ पहुंचते हैं। मेरी यह अवधि लंबी खिंचती जा रही थी। (आज तक भी झुनझुनू का नाम सुनते ही झुनझुना उठता हूं। क्यों ?)
19 अक्तूबर 1958 को मेरा ट्रांसफर दिल्ली सरायरोहिला से रेवाड़ी बतौर रेस्टगिवर सिगनेलर हो गया। चलो इस तरह मुझे जगह जगह के रोड साइड स्टेशनों और तरह तरह के पदों पर काम करने से मुक्ति मिली।
मुझे तीन दिन टैलिग्राफ स्टाफ को रेस्ट देना पड़ता था और तीन दिन टिकट क्लेक्टरों को। सातवें दिन खुद मेरे रेस्ट का दिन होता। दिन मज़े से कट रहे थे। पर गाजियाबाद जाते हुए एक तरह से डर सा लगने लगा। क्योंकि वहां जाते ही घर में शादी की चर्चा चल पड़ती। मेरे इनकार सेे सारा मजा किरकरा हो उठता। माताजी कहतीं कि तुम्हारे छोटे भाई बृज के लिए रिश्ते आने लगे हैं। मैं साफ मना कर देती हूं कि जब तक पहले बड़े भाई की शादी न हो जाए, मैं छोटे की बात कर ही नहीं सकती। मैं माताजी से कहता कि इसकी बेहिचक कर दें। मेरा कोई भरोसा नहीं है। क्योंकि अब मुझे भी लगने लगा है कि न कभी मुझे कला-दृष्टि-संपन्न, विचारशील लड़की मिलेगी और न कभी मैं शादी करूंगा। इस पर माताजी फिर आंसू बहाने लगतीं। उन्हें तसल्ली देने के लिए मैं कहता-देखो भाभी (मां) दुनियां बहुत बड़ी है। हो सकता जिंदगी के किसी मोड़ पर मिल ही जाए तो मैं झट से तैयार हो जाऊंगा। चूंकि अवधि अनिश्चित है तब तक इस बेचारे (बृज) को शादी से क्यों वंचित रखा जाए।
माताजी पिताजी ने कहा-चल एक बार लड़की दिल्ली चलकर देख आते हैं। तेरे चाचाजी ने बताई है। वे भी साथ होंगे।
मैं गया। लड़की का नाम राज रंजन था। कई बहनें थीं। यह वाली दूरसंचार विभाग में नौकरी करती थी। भाई एक ही थे। बहुत बड़े अफ़सर। विदेशों तक जाते थे। पर हुआ वही का वही ड्रामा। उनके घर दूसरे रोज़ दंगा सा हो गया कि यही क्या कम था कि लड़की दिखला दी। अब महोदय इसे (हमारी लड़की को) लेकर बाहर मटरगश्ती करेंगे। मैंने हंसते हुए जवाब दिया था-न सही। कौन मजबूर करता है। तब उन्होंने उसी राज के लिए बृज का नाम लिया था। बृज ने फौरन 'हां‘ कर दी थी। कहा था-क्या है ? क्या वह लड़की नहीं है। यानी किसी भी लड़की से शादी की जा सकती है। (इस पर बाद में 'कोई भी लड़की‘ शीर्षक से कहानी लिखी) मंगनी हो गई थी। पर इसी शर्त पर कि पहले बड़े भाई की शादी हो ले। तब तक आपको इंतजार करना पड़ेगा। वे फौरन इस शर्त पर राजी हो गए थे और यह भी कहा कि आपके बड़े लड़के के लिए हम भी खोजबीन करेंगे।
हम जैसे मध्यवर्गीय घरेलू परिवारों में से वे मेरी मानसिकतानुकूल लड़की को क्या आसमान से ले आते ? मेरे मंसूबे आसमानी रंगों जैसे थे। लिहाजा मैंने बृज से कहा-तू अपने ससुराल वालों से जाकर कह कि वे आकर मेरे पांव पड़ें कि हे महाराज आप कैसे भी हो, शादी कर लूं , ताकि हमारी लड़की, साथ ही आपके छोटे भाई का, उद्धार हो जाए। वही मतलब इंतजार और अभी और अभी․․․․․․․।
अगर मुझे जबर्दस्ती कोई लड़की दिखलाने ले जाते तो मैं बेदिल से चल देता। इस बात को बृज नोट करता। कहता देखों वैसे तो यह खूब बन ठन कर रहता है। हमेशा टाई बांधे रहता है। मगर जब लड़की देखने जाएगा तो बाल उलझा लेगा। बिना प्रेस के कपड़े पहने होगा, ताकि लड़की वाले ही इसे नापसंद कर डालें। बात तो किसी हद तक सच भी थी, क्योंकि मैं समझ चुका था कि अंजाम आिखर क्या होना है। अच्छा है, उधर से ही न हो जाए। मैं कोर्टशिप चाहता था। और अगले इसके लिए कतई तैयार न होते। तो अब यह देखने वाला सिलसिला खत्म कर दिया जाए तो बेहतर हो। उनके हिसाब से कोर्टशिप का अर्थ लड़की को भगाकर भ्रष्ट कर देना रहा होता।
अपने बड़े मित्र गोविंद प्रसाद जी की शादी का वर्णन कर आया हूं। वे भी अलग धुन के धनी थे। उन्हें शादी मे मामूली दहेज मिला था जिसे उन्होंने विनोभा भावे, दादा धर्माधिकारी के आह्वान पर दान में दे दिया। कृपलानी विनोभा जी आदि के अनुयायी बन कर फकीरों जैसा जीवन न जाने कहां कहा बिताने लगे।
मुझे रेवाड़ी में उनका पत्र आया था कि इस वक्त मैं बिहार में खादीग्राम में हूं। तुम अपनी भाभी सुधा को साथ लेकर यहां पहुंचा जाओ।
सुधा भाभी बीकानेर से चलकर, गोद में अरूण बेटे को लिये मुझ तक पहुंच गईं। मैंने चार जनवरी 1959 से 10 रोज की छुट्टी ले ली थी। तब सुधा भाभी को लेकर बिहार की तरफ कूच कर गया। रास्ते में सुधा भाभी से भी इस रटे रटाए टॉपिक पर भी खूब बातें होती रहीं। वे मझे 'भारतीय नारी पर उपदेश देती चली गईं कि भारतीय नारी हर हालत में, जिंदगी के हर मोड़ पर समर्पण भाव से पति में ढलकर उसका अंग ही सा बनकर, उसका, जैसा पति चाहे, जैसा भी हो, साथ निभाती है। यानी पूरी तरह उस जैसी ही बन जाती है।
मैंने पूछा कि क्या आप गांधीवादी हैं। गांधीदर्शन की समर्थक ?
बोली - हां।
मैंने पूछा-पहले भी थीं।
बोली - नहीं। अब शादी के बाद हो गई हूं।
- मैं खूब ज़ोर से हंस दिया।
पर वे पूरी आस्थायुक्त गंभीरता धारण किए हुए थीं। नारी अस्मिता, उसकी स्वायतता। पहचान को लेकर फालतू सी बहस हम दोनों के बीच चलती रही।
इससे पूर्व भी ऐसी बातें मेरे और भाई गोविंद प्रसाद गुप्ता के बीच लंबे लंबे अंग्रेजी में लिखे पत्रों से होती रहती थी।
मैं उन्हें लिखा करता था कि किसी आदमी, चाहे वह गांधी ही क्यों न हो सभी नीतियां कैसे सही हो सकती हैं। इसलिए हमें हमेशा अपने दिमाग के दरवाजे पूरी तरह खोल कर रखने की ज़रूरत होती है। इसलिए मैंने कभी कोई वादी बनना कबूल नहीं किया। न आगे करूंगा। इससे हमें दूसरों की भाषा भी बोलनी पड़ती है। इससे हमारे स्वयं का अस्तित्व बाधित होता है।
उस समय के मेरे यही विचार थोड़े रद्दोबदल के साथ आज भी मौजूद हैं। मैं उन्हें अपने विचारों की नींव ही मानता चला आया हूं। परिपक्व विचार, विचारधारा तो सिर्फ विद्वानों का संपत्त्ाि ही होती है। इन विचारों बेचारों को यहीं छोड़कर जामुई पहुंचने की रोचक कथा सुनाता हूं।
आज जामुई जिला बन चुका है। दो चार वर्ष पूर्व टी․वी․ में देखा था। जामुई में भ्ायंकर रेल एक्सीडेंट हुआ था। चार पांच रोज तक वहां के समाचार आते रहे थे। ये सब इसलिए लिख रहा हूं, कि यदि आपका जुड़ाव किसी जगह था व्यक्ति से जरा सी देर के लिए भी रहा हो तो उसका थोड़ा जिक्र आते ही आपका अतीत जागृत हो उठता है।
जामुई रात दो बजे के अास पास आना था। गाड़ी ने सिर्फ दो मिनट रूकना था। स्टेशनों पर अधिकतर अंधेरा था। मैं, और भाभी बहुत अधिक सचेत थे कि कहीं स्टेशन निकल न जाए। हम आस पास के यात्रियों से कह रहे थे कि जामुई आए तो बता देना। ध्यान रखना जरा।
जामुई आया। एकदम वीरान सुनसान। एकाध लैम्पपोस्ट। करारी सर्दी। मुश्किल से आधा मिनट गाड़ी रूकी और आगे को चल दी। हम सामान भी न उतार पाए थे। भाभी को किसी तरह उतारा। बड़े बड़े बिस्तरबंदों, दीगर सामान को दूसरे यात्रियों की सहायता से गिराना शुरू कर दिया जो छितराता हुआ यार्ड तक फैल गया था। मैंने गाड़ी की जंजीर खींच ली। गाड़ी रूक गई।
गार्ड वही चिरपरिचित रेलेव का हरी लाल, पीली बतियों वाला बड़ा कैरोसीन का लैम्प लिए बहुत बड़े डग भरता मेेरे पास आ पहुंचा-आपने चेन पुलिंग की है। इट्स आफेंस (यह जुर्म है) पचार रूपए जुर्माना लगेगा।
मैं भ्ाी अकड़ गया-आई एम आलसो रेलवे एम्पलाई। आई नो द रूल्ज (मैं स्वयं रेल कर्मचारी हूं। मैं भी रूल्ज जानता हूं) इतनी अंग्रेजी झाड़ने के बाद मैं मातृभाषा पर आ गया-किसी भी स्टेशन पर गाड़ी को दो मिनट तक रोकना जरूरी होता है। आपने तो गाड़ी के रूकते ही वापस स्टार्ट कर दी। हमारा सारा सामान यार्ड में बिखरा पड़ा है। पहले उसे उठा लें तो आपसे बात करते हैं।
गार्ड चिकड़ बिकड़ करता हुआ अपने ब्रेकवान की तरफ बढ़ गया। गाड़ी रवाना हो गई। मैंने एक एक नग गिनकर बटोरना शुरू किया। इस काम में चंदा मामाजी ने भी सहायता की। वे बादलों को क्रॉस कर आसमान में खड़े मुस्करा रहे थे। प्लेटफार्म के किनारे बरामदा था। वहां सारा सामान रख, उस पर सुधा भाभी को बिठा कर स्टेशन के बाहर चला गया। वहां एक दो तांगे वाले खड़े शायद मेरा ही इंतजार कर रहे थे। (मेर ख्याल से तो और कोई सवारी इस अदने से कद वाले स्टेशन पर उतरी नहीं थी।
एक तांगे वाला मेरी ओर आया-कहां जाओगे। अच्छा, खादीग्राम वह तो छह मील की दूरी पर पड़ता है। कितनी सवारियां हैं․․․․․․। ठेठ ले चलेंगे। इतने रूपए लगेंगे।
- अभी आता हूं। कहकर मैं वापस भाभी के पास पहुंचा। उनसे ज्यादा बात न करके मैं, ए․एस․एम․ के कमरे में चला गया। अपना परिचय दिया और पूछा कि इस रात के समय तांगे में बैठना कहीं खतरनाक तो नहीं। उन्होंने उत्त्ार दिया-यहां सब भले लोग हैं। बेफिक्र होकर जा सकते हैं।
हम तीनों भारी भरकम सामान सहित खादीग्राम जा पहुंचे। गांव क्या था। गांव में ही, बहुत मीलों में फैला कैम्पस था। लोहे की कंटीली तारों से घिरा। लोहे ही का बड़ा फाटक सर्दी से ठिठुरता, मौन हमारे स्वागत में दो विशालकाय बाहें बांधे खड़ा था। हमने उस जोर जोर से प्रहार करने शुरू कर दिए कि अंदर इत्त्ािला दे कि हम बीकानेर से आए हैं। उसने हमारी मधुर वाणी एकदम मौन वातावरण में गुंजानी शुरू कर दी। आठ दस मिनट के बाद कोई सज्जन आए। हमें अंदर ले गए। हमें अलग अलग कमरों में ठहराया। कहा-इस वक्त नहीं सुबह ही गोविंद जी से मुलाकात हो पाएगी।
- ठीक है। हमें आपके सारे नियम कानून कबूल हैं।
उन्होंने पानी वगैरह रखवाया और चले गए।
सुबह सवेरे गोविंद प्रसाद जी गुप्ता हमारी खिदमत में आ हाजिर हुए। कि बस अभी अभी ही आपके आगमन की सूचना मिली है। वहां के कायदे कानूनों की जानकारी दी। फिर शुरू हुई मेरी ओर से जिज्ञासाएं, जिज्ञासाएं और और जिज्ञासाएं, जैसे इसी दम पल भर में, सारी की सारी जानकारियां हासिल कर लेना चाहता होऊं। ये सारी जानकारियों को बटोरने का सिलसिला अंतिम दिन तक बना रहा था।
गोविंद प्रसाद हमें अपनी कुटीर ले गए, जिसमें दो ढाई कमरे थे।
एक मुझे बख्श दिया। दूसरे में दंपती, दंपती ही की तरह रहने लगे। चूंकि रात को देर तक पढ़ने की मेरी आदत शुरू ही से ही है। तो मुझे पति पत्नी के बीच की थोड़ी थोड़ी जानकारियां नसीब होती रहतीं। वे अपने में मस्त, शायद यह समझते कि मैं सो चुका हूं। भाभी अपने प्रसव आदि का तथा परिवार वालों के व्यवहार तक की हर तरह की जानकारियां केवल पति देव के लिए ही बोलती, जो मेरी नॉलेज में भी इजाफा कर रही होती थीं।
दरअसल खादीग्राम उस समय जिला मुंगरे में था, यह गांधी जी की स्वनिर्भर गांवों को बसाने का अंग था। सब कुछ उसी गांव में रहने वाले ही बनाएंगे। बाहर से कुछ भी नहीं आएगा। घास फूस बांसों साथ ही कच्ची मट्टी से तैयारशुदा ईंटों से कितने ही छोटे बड़े मकान। बड़े बड़े रसोई घर। मीटिंग हाल। और साफ सुथरे शौचालय, जिन्हें वे लोग अपने ही तरीकों की नालियों से साफ करते। बड़े बड़े खेतों में हर प्रकार का उत्पादन। बूरा चीनी भी वहां की फैक्टरी में ही बनती थी। बड़े इंजीनियर, बड़े बड़े डाक्टर अपने पद छोड़कर इस गांव की प्रगति में दिन रात लगे हुए थे। चाहे कोई किसी पद का व्यक्ति क्यों न हो, उसकी ड्यूटी हर जगह रोस्टर के अनुसार लगती थी। यानी कभी खेत में कभी रसोई घर में कभी कपड़ा उत्पादन में, कभी शौचालय मे। बाजार वाली चमकीली चीनी वहां नहीं बन सकती थी। हां बूरा चीनी बनती थी। वहां गौशालाएं भी थीं। वहां पर भी ड्यूटियां होतीं।
इस प्रकार की योजनाओं को समझने में मैं खूब रूचि ले रहा था। अब सोचता हूं, काश कि ऐसी योजनाएं पूरे भारत में छा जातीं। मगर․․․․․․․․․․․ मैं प्रायः आस पास के कस्बों बस्तियों में पगडंडियों, कच्ची सड़कों से गुजरता हुआ, हाट बाजार, बस अड्डे जिधर को मन करता चला जाता। सब दृश्यों व्यक्तियों का अवलोकन करता। अधिकतर ग्रामीणों का ही बाहुल्य था। वे अपना माल ला ले जा रहे होते। टूटी फूटी सड़कों के किनारे चाय सिग्रेट देसी मिठाइयों के खोमचे होते। वहां खड़े लोग खटारा बसों का इंतजार कर रहे होते। तो ऐसे परिवेश के बीच अपने को पाकर सहसा रेणु के आंचलिक उपन्यासों कहानियों की याद ताज़ा हो उठती।
एक दिन कहीं बड़ी साफ सुथरी ताजी मिठाइयोें की दुकान दिखी। मैंने झट से बहुत सारी मिठाई पैक करवा ली। घर पहुंचा तो अंधेरा हो चला था। ये वक्त ऐसा था, जब बारी बारी से कुछ लोग, मुझसे मिलने विचार विमर्श करने अा जाया करते थे। एक तो मैं उनके प्रिय गोविंद प्रसाद जी का अतिथि था ही। इससे ज़्यादा गोविंद प्रसाद जी ने मेरे व्यक्तित्व का (न जाने क्यों) बढ़ा चढ़ाकर प्रचार कर रखा था।
उस दिन जब कुछ लोग मिलने आए तो मैंने बड़े उत्साह से उनसे कहा-आज मेरी तरफ से पार्टी। और बाज़ार से लाई हुई मिठाइयां तश्तरियों में डालने लगा। यह देखकर वे लोग गंभीर हो गए। कहने लगे-कौन लाया इन्हें।
गोविंद प्रसाद ने कहा-यही लाया है।
- आपने इन्हें बताया नहीं था।
गोविंद प्रसाद ने कोई उत्त्ार नहीं दिया।
वे मेरी ओर देखते हुए बोले-खैर आप नए हैं। हमारे मेहमान हैं। वरना यहां बाजार से कोई भी चीज लाना, अपराध के समान है।
तो ऐसा था खादी ग्राम। वहां अनाज का एक दाना तक भी ज़ाया नहीं होने पाता। खाने की कटोरी तश्तरी में कुछ बाकी न रहने पाता। फिर भी जो थोड़ा रह जाता उसे, इसके लिए बनी, नालियों में बहा दिया जाता, वह सब मजबूत बनी टैंकी में जाकर जमा हो जाता, जो पशु पक्षियों के काम आता। खाना खाने का मेरा वही ढंग आज तक भी कायम है। इसे मेरे छोटे से दोहिते जलेश ने नोट किया। अंगुलियों का इशारा करता हुआ बोला डेडी (मुझे सभी डैडी ही पुकारते हैं) ज़रा सा भी कुछ नहीं छोड़ते।
खादीग्राम जैसे और भी आत्मनिर्भर गांवों की परिकल्पना गांधीजी की थी जिसे विनोबा भावे, कृपलानी दादा धर्माधिकारी जैसे सादगी पसंद बड़े कदावर नेता आगे बढ़ा रहे थे। उनकी विश्वसनीयता थी। उनके सिद्धांतों को अंगीकार करने को छोटे समाज का छोटा तथा बड़ा वर्ग, सदा लालायित तत्पर रहता।
आज बारमबार सोच आती है कि काश गांधीजी की आत्मनिर्भर बनने, सादगी से थोड़े में, ईमानदारी से गुजारा करने का यज्ञ परवान चढ़ जाता तो आज हमें अमरीका आदि की नीतियों के सामने न झुकना पड़ता। देश कर्ज़ में न डूबा होता। चीन तो चीन, पाकिस्तान जैसा छुटकू देश भी हमें आंख दिखाने से पहले ही हमारे सामने नजरें झुका लेता।
आजादी के तुरंत बाद बहुत से ईमानदार नेता जैसे रातोंरात भ्रष्ट होते चले गए और आम आदमी को भी जैसे भ्रष्टाचार का सबक सिखाने में लग गए।
इन्हीं सब स्थितियों के कारण गांधीजी की योजनाएं, विनोबा जी का भूदान यज्ञ शिखर तक नहीं पहुंच पाया।
यदि सब कुछ गांधीजी के अनुकूल चल निकलता तो यशपाल सरीखे लेखक की पुस्तक 'गांधीवाद की शव परीक्षा‘ चर्चा का विषय कभी न बनती।
यह मुझ जैसे साधारण व्यक्ति की सोच है। मैं इन सब स्थितियों की पूरी तरह व्याख्या करने का अधिकारी नहीं हूं। हां इन विषय पर विद्वानों में बहस छिड़ती ही रहती है कि उन हालात में या इन हालात में हम उन्नत देश कहलाते या नई टैक्नोलॉजी अपनाने के बावजूद पिछड़े देश की संज्ञा पाते।
क्यों फिर, श्री गोविंद प्रसाद जी को वहां से वापस आकर होशिंगाबाद में प्रोफेसरी करनी पड़ी। फिर भोपाल में कयों सरकार ही से बहुत बड़ी जमीन उपलब्ध करवा कर आखिर शानो शौकत की जिंदगी बसर करते देखा जाता।
ग्रामीण इलाकों में सेवा करने वाले कई लोगों को मैंने देखा है, जो आखिरकार शहरों में आकर बस गए। बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों और विदेशों में पढ़ने भेजते हैं। कहते यही नज़र आते हैं-हमने अपने हिसाब से बहुत फकीरी कर ली। बच्चों का भविष्य उजाड़ने का हमें अधिकार नहीं है।
वास्तव में फकीरी किसी बहुत पहुंचे हुए फकीर को ही रास आ सकती है। यह डगर कांटों भरी ही होती है। ख़ास तौर से गृहस्थी आदमी के लिए।
वापस आने से एक दो दिन पहले बहुत संकोच के साथ मैंने गोविंद प्रसाद से भाभी के टिकट के पैसे मांग लिये। मेरी जेब खुद तंग थ्ाी। सोचा था वे अपने आप पैसे पूछ लेंगे।
बोले-अच्छा टिकट लेकर आया है ? मैंने सोचा था कि मैं आऊं जाऊंगा तो बहुत खर्चा पड़ेगा। तुम वैसे ही इसे रेलवे पास से ले आओंगे।
मैंने स्पष्ट किया-भाई साहब अपना तो मैंने पास ले लिया। शादी मेरी हुई नहीं है। हुई भी होती तो भाभी को 'उस‘ हैसियत से तो कतई नहीं लाता। आपके पास रूपए न हों तो कोई बात नहीं। आप चिंता छोड़ें। मैं देख लूंगा।
- नहीं नहीं हो जाएगा इंतजाम। तू कहता तो ठीक है।
दूसरे रोज उन्होंने पैसे दे दिए। शायद किसी से उधार लेकर। मैं संकोच से भर उठा। पर करता क्या ?
वास्तव में हम लोगों (साधारण नौकरी पेशा या मामूली लोगों) के पास पैसा होता भी कहां था। कई बार इन्हीें हर डगर पर, मगर से ग्रस्त कभी कभार गोविंद प्रसाद जी, ही मेरे पिताजी से पैसों की गुहार लगाते थे। पिताजी भी किसी तरह उन्हें पांच रूपए का मनीआर्डर कर देते। उस वक्त पांच रूपए हम लोगों के लिए बहुत ही बड़ी रकम हुआ करती थी।
जब मेरे प्रोफेसर साहब अपनी पी एच डी का पूरा काम करके, तमिलनाडू से लौट रहे थे तो उन्होंने वहां से मुझे रेवाड़ी पोस्टकार्ड लिखा था कि फ्लानी तारीख को तुम अपने घर गाजि़याबाद पहुंचो। मैं एक दिन के लिए तुम्हारे पास रूकूंगा। मैं बहुत खुश हुआ। गाजि़याबाद जाकर प्रो․साहब की आवभगत की। खूब बातें हुईं। गाड़ी चढ़ने से पूर्व, उन्होंने कहा-तुम्हारे पास कुछ पैसे हों तो मुझे पांच रूपए दे दो। मैंने सब पैसों की किताबें खरीद लीं। इस वक्त मेरी जेब बिल्कुल खाली है। जा कर तुम्हें मनीआर्डर कर दूंगा।
मैंने दस रूपए देने चाहे। और कहा वापस न भेजें। उन्होंने पांच रूपए ही रखे और जाने के बाद मनीआर्डर भिजवा दिया।
दो, तीन या पांच रूपए ही सालाना इन्क्रीमेंट हुआ करती थी। पांच रूपए के और भी इतने किस्से हैं कि सुनते सुनते थक जाएंगे। सो रहने दीजिए। खादीग्राम की भी बहुत सैर करवा सकता हूं। इसे भी छोडि़ए। अब अगर इजाज़त दें तो वापस रेवाड़ी चलें।
जीवन जीने के लिए, हमें कुल मिलाकर, कितने दिन मिलते हैं। उक्ति है ही कि ऊपर वाले ने पहले ही हिसाब लगाकर भेजा होता है कि जा। तुझे इतने दिन इतने महीने इतने साल जाकर मेरे संसार में बसर करने हैं। साइंस कहती है कि आदमी जन्म के साथ मरण-कीटाणों सहित पैदा होता है।
किसी विचारक से, मुझे, मेरे मन की बात सुनने को मिली कि आश्चर्य इस बात में नहीं कि हम इतनी उम्र (चाहे वह कितनी भी हो) जो कैसे जी लिये ? जबकि मृत्यु तो आदमी की किसी दिन भी हो सकती है। पग पग पर मगर (मच्छ) हैं। रोड ट्रेन प्लेन एक्सीडेंट हैं। जगह जगह खड्डे, सांप बिछू, जान के दुश्मन गुंडे लुटेरे डाकू बैठे हैं।
हर जीने वाले मनुष्य के मुंह से बड़े आराम से सुन सकते हैं-अरे उस दिन तो मैं मरते मरते बचा। जिंदगी और मौत के बीच का फासला बाल भर का बताया जाता है।
दूसरी उक्ति है ः-
सुबह होती है शाम होती है।
उम्र यूं ही तमाम होती है।
मैं इस उक्ति का पक्षधर नहीं हूं। यूं ही उम्र तमाम नहीं होती। यदि हम अपनी जिंदगी के दिनों का हिसाब लगाकर देखें तो हर रोज ही कुछ न कुछ घटित जरूर हुआ होता है। यह भी अगर कह डालूं कि हर रोज मर मर कर जीने को हम अभिष्पत हैं। जिन्हें हम सुख के क्षण कहते हैं, उन क्षणों में भी मन में कहीं भय उत्पन्न हाे उठता है- हे भगवान ये क्षण यह दिन हमसे छीन मत लेना। यानी अनर्थ का भय प्रतिक्षण सताता है।
इन सब बातों के बावजूद मैं यह कहा करता हूं कि एक एक क्षण, दिन का रस लेकर जीना, हमें सीखना होता है। जीने के लिए अपने को ट्रेंड करना होता है।
महापुरूषों, और साधारण प्राणियों में बस यही अंतर मुझे दीखता है। साधारण लोग हर दिन को यकसां (सपाट) समझ कर गुजार देते हैं और कुछ भी नहीं पाते हैं। मेरे सम्मुख बार बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जीवन-चरित आ खड़ा होता है जो एक ही दिन में कितना कुछ कर दिखाते थे। एक ही दिन में, तीन तीन, मुल्कों का सफर कैसी भी विषम स्थितियों में, पनडुब्बियों हवाई जहाजों आदि से कर, ऐसा ऐसा कर दिखाते हैं जो शब्दातीत है। ऐसे और भी कई महापुरूष हो सकते हैं।
मैं तो बहुत ही बहुत ही साधारण मनुष्य ठहरा पर असली बात जो अपने बारे में सोचता हूं, वह यही है कि मेरी बचपन ही से, हर दिन को बहुत निकट से देखने और जहां तक हो सके, उन के क्षण क्षण के रस को पीने की, आदत बनी रही है। कि यह दिन गुजर रहा है। यह लौटकर नहीं आएगा। रूदन का भी है तो इसे भी गुजरना तो है ही। आज तो हर सवेरे, चिकने गते की तारीख, वार बदलते हुए दिनों के बारे में सोचता हूं। उम्र घट रही है, कुछ कर लूं।
गुजर गया वह जमाना कैसा, कैसा ?
वाह भाई पंकज मलिक मर कर भी जी रहे हो।
छोटे स्टेशनों के दिन भी गुज़र गए। सादुलपुर चंदौसी, यात्राओं और भी बहुत जगहों के दिन बता आया हूं। सब गुज़र गए। कितने कहां कैसे ? पूरा हिसाब, अपनी डायरियों को देख, गिनती कर बता सकता हूं। पर इन पूरे, फीगर्ज, स्टेटिक्स (आंकड़ों) की ज़रूरत यहां नहीं है। इतना मुझे ध्यान ज़रूर है कि कूद फांद की, अपनी आदत के मुताबिक जहां समान िस्थ्ातियों-विचार हों, जल्दी से कह डालता हूं। इस लेखन के दौरान भी बहुधा ऐसा हुआ है। डर यही है कि कहीं दुहराव न हो जाए या अपनी सीमित स्मृति से उतर कर दर्गति न कर बैठूं। कलकत्त्ाा बस वाली घटना आप मुझे याद दिलाते रहना। वहां भी बाद में ही चलेंगे।
बता रहा था कि रेवाड़ी में तीन दिन टिकट कलैक्ट्री भी करता था। टिकट कलैक्ट्री बुकिंग क्लर्की तो जब पढ़ाई में था, तभी से सीख रखी थी। जब जब छुटि्टयां होतीं हम (मेरा भाई और भांजा) भाई साहब के पास माहरेरा (कासगंज से सटा छोटा स्टेशन) पहुंच जाते। भाई साहब का हाथ बंटाते बंटाते सीख ली थीं।
एक शानदार घटना याद हो आई। माहरेरा के ग्रामीण कभी लाइन बनाकर टिकट नहीं खरीदते थे। वे हमेशा झुंड में होते। एक दूसरे से पहले टिकट ले लेने की होड़ में छोटी सी टिकट-विंडो (मोरी) में एक साथ कई जने हाथ घुसेड़ देेते। अब किसका कौनसा हाथ है। किसी की मुट्ठी में कितने पैसे हैं। कहां का टिकट लेना है, टिकट देेने वाले की समझ में कैसे आए। बस शोर होता-बाबूजी बाबूजी मुझे․․․․․। उन एक साथ खिड़की में घुसी मुटि्ठयों पर भाई साहब जोर से अपनी मुट्ठी का प्रहार करते। तब उनके लिए वापस हाथ निकालना भी मुश्किल हो जाता।
यह सारा नजारा देखकर हम बच्चे खिलखिलाते। दूसरी घटना भी याद हो आई, हम बच्चे बागों में निकल जाते। माहरेरे के आम दुनियां भर में जाते थे। किसान/बागबान पेड़ों को छोटी इलाची मिला पानी, पिलाते थे। इससे आम में इलाची की खुशबू भी आया करती थी। आमों के पेड़ों की शाखाएं बहुत नीची होती जैसे खेतों में बेलें, बिछी हों। हम उन शाखाओं के ऊपर से बड़े आराम से गुजरते रहते।
एक सपोटे का भी पेड़ था (सपोटा, चीकू जैसा छोटा फल है) उसकी शाखाएं बहुत कच्ची होती हैं। सपोटे तोड़ने के चक्कर में हमने पूरे पेड़ को ही बरबाद कर दिया था। इसकी शिकायत, पेड़का मालिक भाई साहब से कर गया था।
इसी पेड़ की परिकल्पना में मैंने 'भालू ने खेली फुुटबाल‘ (पहला शीर्षक- 'पछतावा') मैंने लिखी थी जो कई जगह, 'चकमक‘ एकलव्य भोपाल में भी छपी। तब एकलव्य ने इसे चित्र कथा के रूप में छापा। आजकल यह एन सी ई आर टी के कोर्स में लगी हुई है।
सॉरी, फिर आगे निकल गया या पीछे चला गया। यह आप जानें।
अपने अधिकारों के लिए लिखापढ़ी करने की मेरी आदत रही है। रेवाड़ी तारघर में ड्यूटी ज्वाइन करने के चंद रोज बाद ही किसी सिगनेलर ने, मेरे कान में बताया था कि जो जूनियर मोस्ट (सबसे कनिष्ठ) होता है वही तार घर में तथा टिकट गेट पर रैस्ट गिविर की ड्यूटी देता है। जो (नाम याद नहीं आ रहा) यह ड्यूटी कर रहा है, अब वह तुम से सीनियर हो गया। लिहाजा इस ड्यूटी पर तुम्हारा हक बनता है। मैंने इंचार्ज (टेलिग्राफ मास्टर दीनदयाल जी) से कहा तो बोले-तेरा क्या फर्क पड़ता है। उसे करने दे। यानी टरका दिया।
मैं स्टेशन मास्टर से मिला। उन्होंने तो डांट के स्वर में कहा-तुम्हारा इसमें क्या इंन्ट्रेस्ट है। जो टेलिग्राफ मास्टर, रोस्टर में लिखे चुपचाप वही ड्यूटी करते रहो।
मैं समझ गया, कि वह सिगनेलर टिकट कलैक्ट्री से पैसा बनाता है और दोनों को हिस्सा देता है।
मैंने एक एप्लीकेशन हैडक्वार्टर बीकानेर डी․पी․ओ․ (डिविजनल पर्सनल अॉफिसर) के नाम लिखकर कार्यालय अधीक्षक रेवाड़ी के माध्यम से भिजवा दी। उन दिनों दफ्तरों (लगभग) तुरंत कार्रवाई (एक्शन) होती थी। तीसरे चौथे रोज ही स्टेशन मास्टर के नाम आदेश आ गए कि मि․ सहगल को रेस्टगिवर पोस्ट पर लगाया जाए। सब अपना सा मुंह लेकर रह गए।
मुझे तो पैसा बनाना नहीं था। बस जरा ठाट की नौकरी होती थी। थोड़ा रोब भी रहता है।
तो फिर दो पिछली घटनाएं याद हो आई।
नंबर वन! एक बार गुड़गांव में वर्क मैन ट्रेन दिल्ली से आकर रूकी थी। मैं झट से वर्दी पहने गेट पर जा खड़ा हुआ। भीड़ आंधी की तरह उड़ाती हुई मुझे बरामदे से भी परे बाहर धकेल ले गई। स्टाफ वाले खूब हंसे। बताया-इन सबके पास सीजनल टिकट होता है। किस किस का चैक करोगे। इन्हें तो बस घर पहुंचने की जल्दी होती है।
नंबर टू। एक बार दिल्ली सरायरोहिला गेट पर खड़ा था। एक मरियल सा असहाय व्यक्ति अपने खस्ता हाल बता रहा था। मुझे बहुत तरस आया। पर विदआउट टिकट को जाने भी कैसे दूं। सामने ए․टी․एस․ (असिस्टेंट ट्रांस्पोर्ट आफिसर) खड़ा, स्टेशन का मुआयना कर रहा था। हालांकि दूरी काफी थी। लेकिन मैं डर गया। अपनी जेब से जुर्माने सहित उसकी टिकट बनाकर, उस असहाय को रवाना कर दिया। हां कुछ टी․टी․ लोग कभी कभी, ''मेरे आदमी हैं। इन्हें जाने दो।‘‘ कहकर गेट पार करवा देते। फिर जबर्दस्ती मेरी जेब में कुछ रूपए (यानी मेरा हिस्सा) ठूंस जाते थे।
रेवाड़ी में मैं कभी रिश्वत नहीं लेता। इस पर दूसरा स्टाफ कहता-बेशक मत ले। मगर देख लेना जब किसी दिन छापा पड़ेगा तो तू ही सबसे पहले पकड़ा जाएगा। 'देखी जाएगी‘ कहकर मैं मुंह बनाता और अपने नियम पर कायम रहता। इसके बावजूद कुछ साथी तो कुछ टी․टी․ जबर्दस्त जेब में पैसे ठूंस जाते।
मि․ ओबराए हमारे इंचार्ज (हैड टिकट कलैक्टर) अपना हिस्सा नहीं लेते-भई तुम लोग जो मर्जी करो। कितनों को कब तक रोक सकता हूं। चौबीस घंटे तो मेरी ड्यूटी होती नहीं। उनकी ड्यूटी हमेशा दिन में ही गेट के साथ सटे कमरे में अलग टेबल पर होती थी।
एक दिन सुबह सुबह गहमा गहमी का माहौल था। पार्टी हो रही थी कि ओबराय साहब भी पवित्र हो गए। यानी उन्होंने भी अपना हिस्सा कबूल कर लिया है। तब मुझे पिताजी के भी अतीत का, लगभग ऐसा ही व्यवहार याद हो आया। वे बताते थे कि कोई शिकायत करने लायक रहे ही नहीं। इसीलिए यह लोग हर एक को भ्रष्ट करने में लगे रहते हैं। दूसरा रिश्वत को ज़हर कहा जाता है जिसे बांटकर खाओ तािक उस जहर का असर कम हो। पिताजी फार्सी का एक मिसरा भी सुनाया करते थे ः-
हर चीज के दर काने नमक रफ्त, नमक शुद।
मतलब। नमक की खान में जाकर हर चीज नमक बन जाती है।
देखी जाएगी मुझे कौनसा हमेशा यहां रहना है। यहां हमारे साथ एक कमला नाम की टिकट कलैक्टर भी काम किया करती। भगवान कसम मैं उससे कभी (कुछ आफिश्यिल ज़रूरी बात को छोड़कर) बात नहीं करता था। अपने संकोची स्वभाव के कारण। मैं भाई साहब के क्वार्टर में ही रहा करता था। भाई साहब उस वक्त वैगन मूवमेंट इन्स्पैक्टर थे। उनका हैडक्वार्टर भी रेवाड़ी ही था। भाभी की अड़ोस पड़ोस की औरतें मिल बैठतीं।
- सुना है तेरा देवर कमला से लगा हुआ है।
आज सोचता हूं ऐसा क्यों कहती थीं वे ? यह उनका निकम्मापन और दमित इच्छाएं ही थीं। लोग बाग झूठे किस्से गढ़ गढ़ कर इसी से काल्पनिक रस प्राप्त करते हैं।
मैं अपने काम से काम रख्ाता। मैं, बरेली अपने प्रोफेसर डॉ․ अग्रवाल को लिखकर, यू पी से पंजाब यूनिवर्स्टी का माइग्रेशन पत्र मंगवाकर प्राईवेट बी․ए․ की तैयारी कर रहा था। रेवाड़ी पंजाब में ही पड़ता था। 'हरियाणा प्रदेश‘ तो बहुत बाद में अस्तित्व में आया थ। प्राईवेट बी․ए․ इसलिए कर रहा थ्ाा क्योंकि प्रशासन मुझसे सदा नाइट ड्यूटियां लेने से, रूल्ज का हवाला देकर, इनकार करता था।
यहां रेवाड़ी में मुझे तीन चार कर्मचारी बरेली के मिले। जिंदगी के किस मोड़ पर, कौन कहां, किससे टकरा जाता है, कुछ पता नहीं होता। एक महेन्द्र चौबे था जिसके पिताजी से हम टेलिग्राफी सीखा करते थे। वह कन्ट्रोल आफिस में तैनात था। बड़ी मुहब्बत से मिला करता। पुरानी, अगली पिछली बातें किया करता। दूसरा एल एस जौन/एल एस जौन का भाई जो मेरा सहपाठी था। सात भाई थे सभी के सभी, पिता सहित अपना नाम एल एस जौन लिखते थे। किसको िकस एल एस जौन से मिलना है, यह समस्या होती थी। वास्तविक (पूरे नामों का उच्चारण कठिन था। वह जो एल एस जौन यहां शायद सीनियर ट्रेन क्लर्क या यार्ड मास्टर तैनात था, पर ठीक इन्हीें दिनों भाई साहब से पता चला कि वह मेरा परिचय देकर, अपने उलझे काम भाई साहब से करवा लेता था। भाई साहब बाद में बड़ोदा हाउस में अफसर बन गए थे। वे मुझे यही सब बता रहे थे ''मैं तो बरेली में रहताा नहीं था। आता था तो एक दो दिन के लिए। सो किसी को पहचानता नहीं था। लेकिन लोग बड़े हाशियार होते हैं। उन्हें पता चल गया था कि यह हरदर्शन के बड़े भाई साहब हैं। वे तुम्हारा वास्ता देकर मुझसे अपने काम की सिफारिश करवाने। मनमर्जी के स्टेशन पर पोस्टिंग कर देने का कहते कि हम बरेली में हरदर्शन के क्लास फैलो थे या रेलवे कॉलोनी में एक साथ रहते थे। जहां तक होता मैं उनका काम कर करवा देता था। खैर एक दिन जब मैं रेवाड़ी गेट पर था तो एक सरदार लड़का सामने आ खड़ा हुआ। सच्ची बात यही है कि मैं उसे नहीं पहचानता था। इस पर उसने आश्चर्य व्यक्त किया कि अरे हम बरेली में साथ ही तो रहते थे (सुभाषनगर जो रेलवे कॉलोनी से सटी हुई बजरियां कहलाती हैं) में हमारी आटे की चक्की ही से तो तुम गेहूं पिसवाते थे। तुम डी․ए․वी․ में पढ़ते थे तो मैं साथ में सटे हुए सरस्वती हाई स्कूल में पढ़ता था। फिर हम दोनों बरेली कॉलेज चले गए थे।
कुछ कुछ सोचने से कुछ कुछ याद आया पर दरअसल न आया। पर उसके बेबाक आत्मीय स्वभाव पर मैं रीझ गया। कुछ भी हो, है तो बरेली-यार। वह मेरे पिताजी के बारे में विस्तृत जानकारी रखता था। छोटे भाई बृज के बारे में भी। वह मेरा पक्का दोस्त बन गया। वह दोस्ती आज भी बीकानेर में शान से निभ रही है। वह बिजली घर रेवाड़ी में क्लर्क लगा था। वह खूब मिलनसार सबके काम आने वाला, सबका ही दोस्त था। आज भी वैसी ही प्रवृति को संजोए हुए चल रहा है।
मैं उसके पास, तो वह मेरे पास हरदम आने जाने लगे। मैं ज्यादा वक्त बिजली घर में बिताता तो वहां का सारा स्टाफ भी मेरी कद्र करने लगा।
वहां मि․वर्मा की (शायद हैड क्लर्क) था। पता चला कि वह भी मेरी ही तरह बी․ए․ की तैयारी कर रहा है। उसने रेलवे का बड़ा पंख चुरा लिया था।
बड़ा पंखा, बड़ा मजेदार किस्सा बना। पर इसे फौरन बताऊंगा नहीं। संस्पेंस। इस किस्से का पूरा रस लेने के लिए, आपको पृष्ठभूमि में ले चलता हूं।
तारघर में मेरे साथ एक तार बाबू हरनंदराम काम करता था। चूंकि हर कोई तंगहाली का शिकार था। और अपने बंगलों क्वार्टरों के कुछ भाग बहुत से लोगों ने किराए पर उठा रखे थे। बड़े पद वालों ने भी। वर्मा का इंचार्ज जो चार्ज मैन कहलाता था, ने भी बंगले का एक कमरा किराए पर हरनंदराम को दे रखा था। चार्ज मैन का नाम तेज भान जैसा कुछ था। हरनंदराम का ट्रांसफर कहीं और हो गया तो उसने मझसे कहा-सहगल तू मेरे वाले कमरे में रहने लग। (मैं भाई साहब से अलग रहने लगा था) और हर महीने दस रूपए तेज भान जी को देते रहना। मैंने उस कमरे पर अपना कब्जा जमा लिया। तेजभान जी को पता भी न चला कि टेनेंट (किराएदार) बदल चुका है। जब मैंने तेज भान जी को दस रूपए थमाए तो बोले-तुम क्यों दे रहे हो। मैंने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी कि हरनंदराम तो यहां से चला गया है। वे चौंके-यह तो गलत बात है। मैं तुम्हें आता जाता तो देखता था और यही सोचता था कि तुम हरनंदराम से मिलने आते हो। उन्होंने आह छोड़ी-खैर हो गया सो हो गया। तुम यह बताओ कि वाइफ को कब ला रहे हो ?
मैंने उनका वाक्य पूरा होने से भी पहले कह डाला-वाइफ हो तो उसे लाऊं।
- अच्छा तुम छड़े हो। मैं छड़ों को कमरा नहीं देता। मैं सात धीइयों वाला आदमी हूं। तुम माने हुए मशहूड़ ('र‘ को 'ड़‘ बोलते थे) शड़ीफ आदमी हो। जमाने की ऊंच नीच को नहीं जानते। कमड़ा खाली कर दो।
लो खाली कर दिया। तब अनूप नाम के सिगनेलर ने मुझे अपने पास शहर में रखा। वह अपनी पत्नी और छोटे से बच्चे के साथ रहता था। मैं उसके नन्हें बच्चे को खिलाता रहता और आनंदित होता रहता। पर अपनी आदत के मुताबिक ज़रा सा सिर उठाकर भाभी की तरफ निगाह नहीं डालता। वे अनूनप से कहतीं यह कैसा शर्मीला लड़का है।
खैर, बस थोड़ा सा और। मैं मन ही मन तेजभान से खुंदक खाया करता था, जिसने मुझे सात बेटियों की वजह से घर से बाहर कर दिया था।
जब तेज भान ने अपने, दो कर्मचारियों सहित क्वार्टर पर छापा मारा तब मैं और वर्मा पढ़ाई कर रहे थे।
चोरी पकड़ी गई तो तेज भान ने वही बात कही-ओ वणमा तुझे पता नहीं, मैं सात धीइयों (बेटियों) का बाप हूं। पंखे का जुर्माना कहां से भडूंगा। अब तेरे खिलाफ जांच होगी। यह दो और सहगल भी मेरे गवाह होंगे। मेरे दिमाग में आया कि वास्तव में वर्मा ने यह ठीक नहीं किया। पर चूंकि तेज भान के साथ ऐसा किया तो ठीक ही किया। इन्हीं सात धीइयों के कारण ही से तो इसने मुझ से कमरा खाली कराया था। लिहाजा मेरे मुंह से आप ही आप निकला-ठीक है। अब आप यहां से जाइए और केस को रफ़ा दफ़ा कीजिए। आपको अपना पंखा मिल गया।
तेजभान चौंके-हें हें यह तुम कहड़ रहे हों, ठीक है। मैंने कहा-मेरा मतलब वही है कि आपको अपना पंखा ठीकठाक मिल गया है। पंखे को चलाकर देख लीजिए।
बाद में इस 75 रूपए के रेलेव के पंखे ने रेलवे के हजारों हजारों रूपए कैसे फुंके? इसे पूरा जानने के लिए आपको मेरे हास्य संस्मरण से गुजरना पड़ेगा यानी 'रेलवे की वकील‘ पढ़ना पड़ेगा। पढ़ना न पढ़ना आपका हक है तो अपनी किताबों का प्रचार करना मेरा भी हक है। क्योंकि कुछ प्रकाशकों के अनुसार मेरी किताबें बिकती नहीं हैं।
दोनों ही ड्यूटियां यानी तार घर की, तथा टिकट क्लैक्टर की, राउंड द क्लाक (दिन रात की) आठ आठ घंटे की हुआ करतीं।
बताइए पहले कहां की सैर करना चाहेंगे। दोनों ही विभागों के किस्से अनूठे और दिलचस्प हैं। एक से बढ़कर एक, अपना सिक्का जमाने वाले। अपने आपको सबसे लायक बताने वाले, दस बारह महापुरूष तार घर में बसते थे। पहले उनका हाल ही सही-हां संक्षेप में।
अनुशासन का जमाना, हर विभाग में व्याप्त था। किन्तु तार धर वाले, (दरअसल खुश्क महकमा होने के कारण) हीन-भावना-ग्रस्त, परन्तु ऊपर से अपनी डींग दिखाने में माहिर लोग थे; जैसे रेल का सारा दारोमदार उन्हीें के बलिष्ठ कंधों पर है। कुछ मायनों में तार घर का महत्व उस वक्त बहुत था पर दुनियां ऐसे विभाग को कहां मानती है जहां बड़ा स्टोर न हो। रिश्वत खाने के साधन न हों। या और किसी ढंग से दूसरों को ओब्लाइज (उपकृत) न कर सकते हों। तार बाबू ज़्यादा से ज्यादा किसी को तार कापी और उससे कुछ ज्यादा पैंसिल कार्बन दे सकता था। बस इनके लिए कौन इनकी हाजि़री भरे। बल्कि दूसरे, दूसरों को औब्लाइज कर सकने वाले धड़ल्ले से आदेशात्मक स्वर में आ कहते-अरे भाई दो तार कापी बच्चों के रफ यूज के लिए देना।
- यह लीजिए साहब। बल्कि इससे तार बाबू ही उपकृत हो उठता। कल को इस इस इस ये ये चीजें मांग लेंगे या अपना क्वार्टर मरम्मत करवा लेंगे। या मुफ्त का सफर करना कराना तो जैसे धर्म में शुमार होता ही था। तार बाबू निरीह जीव सा है, भले ही ग्रेड में दूसरों से कुछ बढ़कर क्यों न हो।
तार घर में काम खूब था। मगर वर्क अवाइडर्ज (काम न करने वाले या काम को पीछे धके लेने वालों) का भी बोलबाला था। पुराने ईमानदार बजुर्ग श्रेणी वाले साफ़ कहते कि अवाइड तो वरिष्ठ लोग ही कर सकते हैं। करते हैं। बेचारा नया तो डर के मारे पूरा काम बड़े मनोयोग से करता है। पुराने लोग नयाें को टी स्टाल पर खींच ले जाते। ज्यादातर उनके पल्ले से चाय पीते। मुंह में पान चबातें। लबों से सिग्रेट बीड़ी का धुआं छोड़ते, वापस आकर अपनी सीट पर बैठकर हुकूमत करने लगते।
एक रूखे चेहरे, एकदम खुश्क बालों के धनी, सुरेश बाबू थे। वर्दी मिलने के बावजूद कम ही लोग वर्दी पहन कर आते थे। कुछ बेच तक देते थे। दूसरा तीन सैट वर्दी में से एक सैट, ईशू करने वाला क्लर्क मार लेता था।
सुरेश बाबू की ऐसी रंगत देख कभी कभी ड्यूटी इंचार्ज कहते-सुरेश बाबू , लगता है। रज़ाई बिस्तर से सीधे निकल कर बिना मुंह धोए दफ़्तर चले आए हो। फिर मेरी तरफ इशारा करते, इस सहगल की तरफ ज़रा देख।
मैं तो हमेशा बन ठन कर ड्यूटी पर जाता भले ही गर्मियों की नाइट ड्यूटी हो, टाई बांधे होता।
सुरेश बाबू जवाब देते। शेरों ने भी कभी मुंह धोए हैं ? इस पर, एक सरदार नौजवान हट्टाकट्टा, गुरूचरण सिंह कहता-ठीक कहते हो सुरेश भाई, गधे भी तो कभी मुंह नहीं धोते।
मुझसे कुछ लोग पूछते-तुम गर्मियों में रात की ड्यटी में टाई क्यों बांधते हो।
मैं फौरन जवाब देता-इससे गला कस जाता है। मच्छर अन्दर नहीं घुस पाता।
मेरे इस तर्क पर लोग बागे खूब हंसते। वाह क्या बात है।
तार बाबू होते हुए भी सदार गुरूचरण सिंह का पूरे स्टेशनों पर बदबदा था। उसकी लंबी गाथा है। केवल एक वाक्य, वह स्टेशन मास्टर तक को नमस्ते नहीं करता था।
एक दिन आखिर स्टेशन मास्टर अपनी उपेक्षा सहन नहीं कर सके तो, उसे बुला भेजा-मि․गुरूचरण सिंह डोंट यू विश योअर स्टेशन मास्टर ?
- एक्स्कयूज मी सर, डोंट यू विश योअर स्टाफ़।
तार घर का नियम (परिपाटी) था कि कोई भी सिगनेलर चाहे वह शहर के किसी भी कोने में क्यों न रहता हो, रात की ड्यूटी में बारह बजे, दो बजे उसे चपरासी घर से जगा कर साथ ले जाता। मैं ऊपर की मंजिल में रहता तो ज़ोर की हांक लगाता-सहगल साहब ऽऽ। इससे वहां का सारा मुहल्ला जाग जाता। वहां मेरी इम्पाटेंस (प्रतिष्ठा) बढ़ती कि देखो कितने बड़े ओहदेदार हैं।
अब तो रेवाड़ी का पता नहीं क्या हाल है। उस वक्त वहां शहर में मीठा पानी था ही नहीं। सिर्फ स्टेशन पर और रेलवे कॉलोनी में मीठा पानी बहता रहता। तो चलिए टिकट कलैक्ट्री गेट पर। शहर भर की औरतें बच्चियां टोकनियां (गागरें) ले ले कर स्टेशन पर आती रहतीं। यह हम टिकट कलैक्ट्रों के अधिकार क्षेत्र में होता कि किसे गेट से गुज़रने दें। किसे न भी गुजरने दें। बेशक उन्हें पीने के पानी को तरसाएं। मगर ऐसा प्रायः हम लोग नहीं करते। कुछ भी हो, अनेक खुरापातों के रहते आखिर टिकट कलैक्टर है तो संवेदनशील मानव।
हां जब जब किसी ट्रेन के आने का टाइम होता, हम उन्हें पुल पर ही अटका देते कि थ्ाोड़ी प्रतीक्षा करो। ट्रेन को चले जाने दो।
मैं महल्ले में रहकर भी किसी को नहीं पहचानता था (लगभग वैसी आदत आज कायम है) हमेशा गर्दन को नीचा किए सीढि़या चढ़ जाता। कमरा काफी लंबा था। जिसे मैंने फोल्डिंग फर्नीचर से सजा रखा था। एक शैल्फ पर फिलिप्स का नया खरीदा रेडियो बजता था। बारह सवा बारह टिकट कलैक्ट्री की ड्यूटी खत्म करते ही अपने कमरे की तरफ भागने लगता। साढ़े बारह बजे दिल्ली से वाद्यवृंद संगीत आता था। यह मेरा खास पसंदीदा कार्यक्रम था। इसे बड़े मनोयोग से सुनता। प्रतिक्रियाएं भेजता। इसके नामकरणों के विष्ाय में प्रश्न लिखकर भी दिल्ली आकाशवाणी केन्द्र भेजता। अनाउसर के मुख से अपना नाम सुनकर झूम उठता। फिर धीरे धीरे न जाने क्यों यह कार्यक्रम/वाद्य संगीत खोता चला गया। फिर एकदम लुप्त ही सा हो गया।
लेकिन मेरी तलाश जारी थी। होते हाते जब मैं बीकानेर आया तो यहां के श्री प्रकाशचन्द्र खत्री दिल्ली राष्ट्रीय प्रसारण सेवा, नई दिल्ली में जा नियुक्त हुए। उन्होंने वहां से, सभी महत्वपूर्ण वाद्यवृंद संगीत रचनाओं एक कैसिट/प्रोग्राम तैयार किया जो मुझे संबोधित है। उसमें वाण शिप्ले, इलैक्ट्रिक गिटार का जिन्होंने अविष्कार किया था अौर हमारे कॉलेज में भी अपना प्रदर्शन करने आए थे, को छोउ़कर, एस गोपालकृष्णन की 'नवनिता‘, 'स्वर्ग कामिनी‘, एस․ राजाराम की 'साबरी‘ पन्नालाल घोष की 'पटबीत‘ 'कालिम कथा‘, राजन मिश्रा साजन मिश्रा एस जानकी की 'सुरसंगम‘ शामिल हैं। अंत में राजन मिश्रा, साजन मिश्रा का युगल गायन 'धन्य भाग्य सेवा का अवसर पाया‘ दिया गया है। इसमें बहुधा सुनता हूं। सुरक्षा की दृष्टि से इसकी डुप्लीकेट कॉपी भी करा छोड़ी है। ओह बात तो रेवाड़ी वाले लंबे कमरे की हो रही थी। कमरे के साइड टेबलों पर, अलमारियों में पेस्ट्री बिस्कुटों के शीशे के मर्तबान होते। शानदार एक बत्त्ाी वाला पीतल का चमकीला स्टोव। उस जमाने में कितना महंगा मिला था। पूरे 32 रूपए का। कोने में खारी पानी की बाल्टी। बर्तन धोने के लिए।
जब जब नीचे गर्दन झुकाए सार्वजनिक नल से खारी पानी की बाल्टी भरने जाता, औरतों का खासा जमघट होता जो अपनी बारी का इंतजार कर रही होतीं। फिर भी मुझ बालक का लिहाज करती हुई, मुझे पहले पानी भरने देतीं।
मगर जब मैं गेट पर, सफेद वर्दी पहले चुस्त-दुरूस्त, खड़ा होता तो वे गेट क्रांॅस कर, प्लेटफार्म से पानी भरने आतीं, तो मैं जरा सख्ती से बोलता-रूको, इतनी भीड़ मत लगाओ। गाड़ी का टाइम हो रहा है।
तब उनमें कुछ लड़कियां बोल उठतीं-ओह हम तो आपके महल्ले की हैं। आप हमारे साथ ही तो रहते हैं।
- ठीक है। ठीक है चली जाओ। असली वजह वही कि मैं किसी की तरफ निगाह उठाकर देखता ही न था। पहचानना तो दूर की बात। आज भी अच्छे अच्छे परिचितों को नहीं पहचान पाता तो वे समझते हैं कि मजाक कर रहा है। या इसमें अकड़ है। इस पर भी तमाशा देखिए। बस जरा सा सब्र। जिस मकान/कमरे में मैं रहता था। यह बहुत बड़ी कदीम ज़माने की बड़ी हवेली थी। इस लंबी चौड़ी हवेली में, न जाने कितने सहन, अंदर को घुसे हुए अंधेर (बंद) कमरे थे। बरामदे फिर कुछ रोशनीदार कमरे। ऊपर की मंजिल तो रोशनीदार थी ही। जिस लंबे कमरे में जहां में रहता था, उसके अगल बगल और सामने भी कई छोटे बड़े कमरे बरामदे थे।
यह हवेली, हम जैसे, दंगों के सताए, बेचारे कोई मुसलमान खाली करके पाकिस्तान चले गए थे। जहां तक मेरा ध्यान जाता है, उस फौरी दौर में रेवाड़ी में एक भी मुसलमान नहीं रहता था। मसजिदों को भी रिफ्यूजियों ने घरों में तब्दील कर रखा था।
उस लंबी चौड़ी हवेली पर हमारे ही विभाग, एस एंड टी (सिगन एंड टेलिकम्यूनिकेशन-वायरलैस भी इसी विभाग में आता है) के एक क्लर्क ने कब्जा जमा कर फिर अपने ही नाम, क्लेम के नाते, अलॉट करवा लिया था।
उस क्लर्क का नाम गेलाराम था। उसने तमाम कमरों को किराए पर उठा रखा था। किसी से तीन किसी से पांच, दस रूप्ए महीना लेता था। मुझसे शायद आठ रूपए महीना लेता था और दोस्ती भी जताता था। उस समय जब कमरे किराए पर उठाए गए तो किराया, वाजिब ही था। लेकिन ज़माना तो हमेशा महंगाई की तरफ भागता चलता है। मिस्टर गेलाराम परेशान रहने लगे। इतने बड़े कमरे और किराया, इतना कम। साले निकलें तो दो चार रूपए और बढ़ाकर, फिर से, नए किराएदार को चढ़ा दूं। मगर जमा हुआ आदमी भला क्यों छोड़े।
कभी कभी मैं गर्मी से बचने के लिए, फोल्डिंग चेयर बरामदे में निकालकर उस पर बैठ जाता। ठीक सामने एक बाल-बच्चेदार किराए पर रहता था। उसने गेलाराम से शिकायत कर दी कि आपका जो रेलवे का बाबू है, वह हमारी लड़कियों को घूरता है। गेलाराम इस पर इतना हंसा कि यह हंसी पूरे रेलवे स्टाफ के बीच तक जा गूंजी कि सहगल लड़कियों को घूरता है। सब लोग मेरे स्वभाव से वाकिफ थे।
तब गेलाराम मुझसे बोले-सहगल सचमुच तू उन्हें घूरना शुरू कर दे। तुम्हारा, मुझ पर बड़ा उपकार होगा। शायद कहीं इसी वजह से ही सही, वह घर खाली कर जाएं।
अभी आपको पहले विषय, टिकट क्लैक्ट्री पर ही ले चलता हूं। वहां के क्रियाकलाप, स्टॉफ की चालाकियां, रौबदाब और काइयांपन के थोड़े से वीभत्स नज़ारे, हर एक को रास नहीं आ सकते। सिर्फ कुछ घटनाएं। एक लंबी, थोड़ी सुन्दर सी लड़की शायद गुड़गांव में नौकरी किया करती थी। वह अपडाउन किया करती थी। वह हमेशा बिना टिकट यात्रा किया करती थी। जब जब उससे टिकट पूछो तो जरा मुस्कराती हुई तेजी से गेट पार कर जाती थी। हमारा एक साथी भी शातिर दिमाग था। उसने बड़ी सहजता से उसका नाम जान लिया। फिर एक दिन, गुस्सैल चेहरे के साथ उसे रोक लिया-टिकट लाओ। वह आनाकानी करने लगी। अंत में बोली-ले लो जी जुर्माना और टिकट बना दो।
उसने कहा- नो मेडम, ऐसे काम नहीं चलेगा। आपको अभी पुलिस के हवाले करता हूं। आपको जेल जाना पड़ेाग।
हुआ यूं था कि उसने अपनी जेब से जुर्माना भरकर पहले से अलग अलग तारीखों के जुर्माने सहित उसके नाम से टिकट बना रखे थे। इसे रेलवे की घारा में, 'इन अटैन्शन टू चीट द रेलवे‘ (यानी रेलवे को धोखा देने के लिए, बिना टिकट यात्रा करना) आता है। एक दो बार तो भूलवश या जल्दी में टिकट न ले सकने की श्रेणी में यात्री से मात्र जुर्माना लेकर छोड़ दिया जाता है। मगर बार बार बिना टिकट यात्रा करना, आदतन अपराधी कहलाता है।
तब अपने ही किसी साथी ने उसे समझाया कि मैडम चुपचाप कुछ देर के लिए इस बाबू के साथ चली जाओ। नहीं तो पुलिस वाले तुझे और खराब करेंगे। सुना है। वह मान गई थी।
वह तो कदरे शरीफ़ ज़ात थी, लेकिन बदजात औरतों को भी मैंने देखा है। होता यह है कि बिना टिकट वालों को पकड़ पकड़ कर साथ के कमरे में बिठा दिया जाता है। बाद में गाड़ी की भीड़ कम होने पर उनकी रसीदें काटी जाती हैं। उस इलाके की कुछ हट्टी कट्टी औरते घाघरे मैले कुचैले कपड़े पहने बिना टिकट यात्राएं, कहां से कहां ऐसे ही करती रहती हैं। खुद भी मजा लो औरों को भी मजे दो।
एक दिन शाम को ऐसी दो तीन, लज्जा का नाटक करती औरतों को वहां बैठा रखा था। स्टाफ वाले उनसे ऊलजलूल संवाद करते। ठहाके पर ठहाका लगा रहे थे। तभी मैं वहां पर पहुंचा तो एक ने कहा-इन बाबूजी को भी तो जरा घूंघट हटाकर अपना चेहरा दिखला दो।
मान गया, ऐसी औरतें वास्तव में बड़ी होशियार हुआ करती हैं। उसने मेरा शर्मीला चेहरा फौरन भांप लिया। बोली-चेहरा तो दिखा दूंगी। पर फिर यह बाबूजी कहेंगे (जरा सा घाघरा ऊपर उठाते हुए) अब वह भी दिखा दो।
तौबा तौबा। मैं बाहर चला आया। ऐसी दबंग औरतों के बारे में पता चला। ये औरतें मनोरंजन के लिए लंबी लंबी यात्राएं मुफ्त में करती रहती हैं। अपना और पकड़ने वालों (टिकट कलैक्टरों टी․टी․ओ․ सिपाहियों) को और खुद को भी मजे देती लेती हैं। पैसे भी वसूल कर लेती हैं।
एक दफः ऐसा दृश्य भी देखने को मिला कि जब बिना टिकट वाली महिलाओं से एक टिकट कलैक्टर ने जुर्माना देने की जिद की तो उसने अपना भारी भरकम हरियाणवी हाथ उसके गाल पर दे मारा। यह रात का समय था।
चपड़ासी जी․आर․पी․एफ․ कार्यालय की तरफ भागा। सिपाही को बुला लाया। जब सिपाही ने उस औरत या औरतों को धमकाया तो उस औरत ने िसपाही के गाल पर भी उसी अंदाज से चांटा रसीद कर दिया।
यह सारा माहौल मुझे मुआफिक नहीं लगता था। चाहता तो थोड़ी कोशिश करके इसी विभाग में रह जाता। पर नहीं। रिश्वत लेने को भी मन नहीं मानता। मैं शांतिपूर्वक जीना चाहता था। ए․एस․एम․ के लिए भी दुबारा ट्रेनिंग में नहीं गया। मैं रोड साइट स्टेशनों के धक्के भी नहीं खाना चाहता था। जहां पर खाना तक नसीब न हो। एक छोटी सी लाइब्रेरी तक मयस्सर न हो। पर करूं क्या। किधर जाऊं। इस तार बाबू वाली नौकरी को भी तो कोई नहीं पूछता। इन तमाम उलझनों के बीच फिर अचानक जिंदगी में एक चमक सी पैदा हो उठी।
वायरलैस डिपार्टमेंट में कुछ नियुक्तियां होने का सर्कुलर जारी हुआ। थोड़ी शान वाला, थोड़ा प्रतिष्ठित पद। रिश्वत वगैरह कुछ नहीं। पूरी तरह ईमानदारी की रोटी। और सबसे बड़ी बात, यहां आठ घंटों की बजाए सिर्फ छह घंटों की ड्यूटी। और बाकी के 18 घंटे आपके अपने। पढ़ो लिखो गाने सुनो। मस्ती से मटरगश्ती करो। वाह अगर किस्मत जाग जाए तो कहना ही क्या। ग्रेड/तंख्वाह भी ज्यादा।
मैंने पूरे मनोयोग से तैयारी कर दी लेकिन पूरा कहां। मैं तो बी․ए․ की पुस्तकों के अध्ययन में मशगूल था। टेबल के सामने एक किनारे वायरलैस संबंधी किताबें रखी होतीं तो साथ ही बी․ए․ की किताबें खुली पड़ी होतीं।
मेरी इस नादाना हरकत पर भाई साहब की नजर पड़ गई। उन्होंने मुझे डांटा-बेवकूफ तू क्या कर लेगा। गे्रज्यूट कहला कर। रेलवे में तो ऐसी डिग्रियों को कोई नहीं पूछता। छोड़ों यह सब। पहले विभागीय परीक्षा की तैयारी में जी जान से जुट जाओ। फिर कभी देख लेना बी․ए․ को भी। अगर इसके बिना रोटी हजम न होती हो।
मैं सोचता कि वह भी क्या आदमी हुआ जो बी․ए․ तक भी न पढ़ा हो। उधर भाई साहब का आदेश। तर्क िक बी․ए․ करने से कोई तन्ख्वाह तो नहीं बढ़ाएगा।
मैंने अपने रेडियो ही से वायरलैस सिगनल पकड़ने शुरू कर दिए। इसमें मजा आने लगा। यह सिगनल तार घर के मोर्स सिस्टम से तो जरूर है। मगर किरकिर की ध्वनियां दिमाग पर ज्यादा बोझा डालती हैं जबकि वायरलैस की लंबी छोटी हिृसल्ज़ ज़्यादा आसान होती है। यह ह्रिस्ल्ज़ चौबीसों घंटे कहीं न कहीं से रेडियों में पकड़ी जा सकती थीं। मैं अपने आप ही इनकी इबारत पकड़ने/लिखने में परांगत हो गया। थ्योरी कोडज़ कुछ समान तो कुछ थोड़े अलग। कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं लगा। इधर बी․ए․ की परीक्षाएं चल रही थीं। शायद पहले जिक्र कर आया हूं कि एक पेपर बारह बजे होना था लेकिन मैं तीन बजे का, सोच कर, पौने तीन बजे परीक्षा भवन के सामने जा खड़ा हुआ। तब परीक्षक ने मेरी आंखे खोली कि पेपर खत्म होने में सिर्फ 10-15 मिनट बाकी बचे हैं।
मैं अपना सा मुंह लेकर वापस चला आया। फेल तो होना ही था। बाकी पेपर्ज में भी मेरे नंबर अच्छे नहीं आए थे। उन दर्शनशास्त्र, नीति शास्त्र, मनोविज्ञान की पुस्तकों को आज भी अपने से चिपकाए बैठा हूं। यह कभी कभी कहानियां लिखने में भी थोड़ी सहायता कर मारती हैं।
मैं वायरलैसे के कठिन टैस्ट में शानोशौकत से पास हो गया। लेकिन वैकेंसीज सिर्फ छह थीं। और मैं बाकी के उत्त्ाीर्ण कर्मचारियों से जूनियर पड़ता था। फिर भी मैं कैसे वायरलैस में जा पहुंचा ? इसका थोड़ा उल्लेख मैं 'संयोग/भाग्य‘ वाले अध्याय में पहले कर आया हूं। यह टैस्ट बीकानेर में ही हुआ था।
संयोगवश मुझे वायरलैस की ट्रनिंग के लिए हैडक्वार्टर बीकानेर से बुलावा आ गया। लेकिन मुझे रेवाड़ी से रिलीव होने में दिकत्त्ाे पेश आ रही थीं। मुझे टेलीग्राफ मास्टर तथा हैड टिकट कलैक्टर दोनों से ही स्पेयर मीमो हासिल करनी थीं। ऊपर से भले ही बधाइयां मिलती रहें किन्तु अंदर से किसी को प्रमोट (पदोन्नति) होते, कइयों को अच्छा नहीं लगता। लेकिन दुनिया तो ऐसे ही चलती रहती है।
मैं 26 नवंबर 59 को बीकानेर ट्रेनिंग के लिए पहुंचा। समस्या रहने की थी। यह ट्रेनिंग तीन महीने तक यानी 17/2/60 तक चलनी थी। पर छड़ों (अकेलों बिना ब्याहे) को मकान कौन दे। यह हमारे समाज में एक शानदार रिवाज चला आ रहा है। मैंने सोचा, इस कारण भी शरीफ दिखने के लिए शादी करना निहायत ज़रूरी है। न अकेली को पसंद किया जाता है न ही अकेले को। लड़कों को लफंगा समझा जाता है और लड़की शरीफ ही हुआ करती हैं। फिर भी गृहस्थिन को हमेशा यह भय भी बना रहता है कि उसके पाक साफ शौहर पर वह कहीं डोरे न डालने लगे। फिर भी लेडीज़ के लिए हमारे दिल में सौफ्ट कारनर हुआ करता है।
खैर हरदर्शन की यह ठहरने की समस्या रेवाड़ी से चलने से पूर्व उसके दरोस्त सरदार सुजान सिंह ने हल कर दी थी। उसने बिजली विभाग के ही एक कर्मचारी कृष्णवीर को कहलवा दिया था।
शाम को गाड़ी बाकानेर पहुंची थी। मैं कृष्णवीर को पहचानता नहीं था। यही तय हुआ था कि गेट पर खड़ा रहूं। भीड़ खत्म होने तक।
कृष्णवीर प्रकट हुए-सहगल साहब हैं। चलो।
- क्या मकान मिल गया ?
- आप चलिए तो, उसने मेरा कुछ सामान उठा लिया, हम लोग छड़ा निवास में रहते हैं। मकान मालकिन या मालिका, बल्कि मलिका कहने की इजाजत दीजिए ताकि उनके प्रति हृदय से सम्मान प्रकट कर सकूं। वे अपने मकान में केवल अकेले लड़कों को ही ठहराती थी। किसी फेमिली वाले को नहीं देतीं।
'शाबाश‘ मैंने मन ही मन उच्चारा।
मलिका ने कृष्णवीर को बादशाहत बख्श रखी थी। यानी सभी कमरों की चाबियां उसी के पास थीं। जिसे चाहे रखे। जिसे निकाले। सारा किराया वक्त सिर सेठानी जी के हवाले। आज भी रानी बाजार में छड़ा निवास आबाद है।
मुझे कृष्णवीर ने दस या आठ रूपए महीने का एक छोटा सा थोड़ा लंबा कमरा अलॉट कर दिया। पीछे चौड़े आकार की खिड़की थी जो शैल्फ का भी काम बड़े आराम से देती थी। मैंने उस पर अपना वही एक बत्त्ाी वाला पीतल का स्टोव, चाय, चीनी के डिब्बे और शीशे के गलास जमा दिये। साथ ही एक अलमारी भी थी। उसमें भी शेविंग वगैरह का सामान और दूसरी चीज रख दीं। चार पाई गद्दा और रजाई। वाह कृष्णवीर और वाह सेठानी तुम दोनों की जय हो।
बीकानेर में पानी की कमी कहां थी। बहुत बड़ी गहरी टैंकी। हम लोटों की बजाए बाल्टियों से नहाया करते थे। सर्दी बेशक थी लेकिन माहौल में पूरी गर्माहट थी।
हैडक्वार्टर होने के नाते बीकानेर डी․एस․ अॉफिस में आए दिन पूरे डिवीजन वालों का काम पड़ता रहता है। सो कोई न कोई किसी का मेहमान बनकर सिर्फ दिन या दो दिन के लिए आता रहता। मेरे पास सुजानसिंह उसका दोस्त इन्द्रजीत और चोपड़ा भी आ जाते।
जिसे रेलवे वर्कशॉप लालगढ़ जाना होता वह बीकानेर स्टेशन के सामने से किराए की साइकिल एक आना या दो आने घंटे के हिसाब से उठा ले जाता। दुकानदार किसी का भी पता, साइकिल उठाने का समय रजिस्टर में नहीं चढ़ाता। पूरे विश्वास का युग था। आधे घंटे के आधे पैसे लेने में भी दुकानदार को उज़ नहीं होता। मैं भी जब जब ड्यूटी पर, या लालगढ़ वर्दी लेने आता था तो यही सब करता।
वह दो एक दुकाने आज भी हैं। पर लिखा पढ़ी गवाही शायद हो रही होगी।
कृष्णवीर सहित दो तीन और लड़के थे जिनके पास अपनी साइकिलें थीं। वे वर्कशॉप लालगढ़ ही में काम करते थे। उनमें से एक पतला दुबला गोरा लड़का था। वह हनुमान जी को हर मंगलवार गालियां निकाला करता था। वह ठेकेदार कहलाता था। क्याेंकि उसने खुद ही बताया था कि रेलवे में आने से पहले वह ठकेदारी किया करता था। वह कहता था कि एक मंगलवार वह हनुमानजी के मंदिर में गया था तो पीछे से किसी ने उसके नए जूते पार कर लिये थे। एक मंगलवार को उसका साइकिल से एक्सीडेंट हो गया था। एक मंगलवार को उसे वर्क इंचार्ज ने चार्जशीट थमा दी थी। एक मंगलवार उसका पर्स गिर गया था। मैंने उसके ज्ञान में वृद्धि की कि यह सब संयोग की बातें हैं। इसमें हनुमान जी का क्या दोष। तेरा तो एक जूतों का जोड़ा ही पार हुआ था, मगर बरेली में रेलवे इंस्टिट्यूट में दुर्गा पूजा पर एक लड़के ने दो जूतों के जोड़े उड़ाए थे। हाल खचाखच भरा हुआ था। बरामदे में सैकड़ों जूते यूं ही रुल रहे थे। उस लड़के की देखा देखी, कॉलोनी के दूसरे लाडले भी अपने अपने घर से बड़े बड़े थैले उठाकर वहीं चले गए थे। एक दूसरे से होड़ लेते हुए अपने अपने थैलों में जूते भर लाए थे। मुझे याद नहीं कि उस दिन मंगलवार था या नहीं। एक सरदार हरजाप सिंह था निहायत शरीफ। अच्छा गायक। वह गा कर सबका मन बहलाता था। बाद में गुरूद्वारे में राग सुनाने लगा था। एक क्लर्क प्रेमकुमार सोबत था। वह स्टेनोग्राफी के इम्तहान की तैयारी कर रहा था। वह सुबह सवेरे मेरे कमरे में आ जाता और कहता-तुम्हारे दशर्नों से मन को बहुत अच्छा लगता है।
मैं सोचता, मैं कोई देवता तो नहीं था। नजर अपनी अपनी। एक लड़का चंदौसी में मुझसे कहता था-तुम्हारी आंखें बड़ी डरावनी हैं। तू मेरी खातिर हमेशा चश्मा लगा कर रखा कर।
प्रेम, प्रेम से, सारी आयु, उसी तरह आत्मीय प्रेम कर निभाता रहा। उसने जिंदगी के हर मोड़ पर सहायता की। मेरा सर्विस रेकार्ड जो गड़बड़ चल निकला था दुरूस्त कर, पैसों को व्यवस्थित करवाया। पिछले चार छह वर्ष हुए वह भी नहीं रहा। घरेलू संबंध यथावत हैं। कभी कभार मिलना हो जाता है।
एक नरूला साहब थे। तब बैचुलर स्टेनोग्राफर। अंग्रेजी में खूब माहिर। मेरे साथ खूब दोस्ती निभाते थे। पर उनका हैड स्टेनोग्राफर मि․ बाहरी कथित रूप से उनसे ईर्ष्या करता। उन्हें बात बे बात तंग करता। तंग आकर उन्होंने इस्तीफा दे मारा। उनकी श्रीमती जी लेडी एल्गिन स्कूल में प्रिंसिपल थीं। उनसे भी इस्तीफा दिलवा दिया। यह उनके आत्मविश्वास का ही सबूत था। वे दोनों दिल्ली चले गए। वहां पब्लिक कमीशन में सलैक्ट हुए। और अंत में बहुत ही आला अफसर के पद से रिटायर हुए। अपनी पत्नी को बड़ा पिब्लक स्कूल खुलवा दिया। जो दिल्ली के प्रसिद्ध स्कूलोें में से एक था या है। पता नहीं।
एक, हम जैसे अनेक होते हैं जो रेंग रेंग कर नौकरी पार करते हैं। आगे चलकर अपने बारे में, अपनी तुलना बुद्ध और स्वामी राम तीरथ से करते हुए कुछ अर्ज करूंगा। सहमति, असहमति आपका अधिकार होगा। मैं शुरू ही से चाय का शौकीन था। बार बार चाय बनाता। पीता औरों को पिलाता। नरूला मुझसे कहता-तू मेरे शहर आ। मेरी शादी होने वाली है। तुझे चाय के ड्रम में डुबो दूंगा।
हम दस बारह लोग थे। हम लोगों के पास आने वालों की कमी नहीं थी। काेई किसी के पास मिलने आ रहा है तो कोई किसी के पास। फिर सब साथ साथ। महफिलें गपशप। अहा वे दिन भी क्या दिन थे। मस्ती से लबरेज़। शाम को बन ठन कर टोलियां बनाकर बाजार की तरफ निकल जाते। देर हो जाती तो मैं डिलाइट होटल में रूक जाता। मैं 25 रूपए महीना के हिसाब से दोपहर और रात का खाना वहीं से खाता। चाहे तंदूर की रोटी खाओ। चाहे नान। चाहे चावल, दाल और एक तरकारी। हां अगर मीट की प्लेट लो तो उसके अलग से दाम लिख लिये जाते। हम बैरों को खुश रखते। वह कभी कभी हमारी दाल में मीट की तरी डाल जाता। अगर एक टाइम खाना न खा पाओ तो उतने पैसे कम दो। कुछ पट्ठे जान कर दोपहर में भूखे रह जाते और रात को कसर पूरी कर लेते।
मेरी जेब में हमेशा नीबू रहते। जिन्हें पानी में निचोड़ कर पीता रहता। दोस्त कहते कि खुद तो चाय के दोषों को इक्यूलाइज (संतुलित) करता है। हमें फकत चाय पिलाता है।
बाद में लड़कों ने कहा- तू खाना हमारे साथ ही क्यों नहीं खा लेता। मेरा वही सादुलपुर वाला जवाब-मुझे खाना बनाना नहीं आता। अंगीठी लगा सकता हूं। आटा भी गूंथ सकता हूं।
- चलेगा। समवेत स्वर गूंज उठा।
मैं रात को ही छत पर जाकर अंगीठी में रेलवे इंजन का डीजल भीगा जूट, छोटी छोटी लकडि़यां, अंगीठी में भर की ऊपर तक रेलवेे के सिंडर (कोयले) भर आता। सुबह शौच जाने से पहले, अंगीठी को माचिस की तीली दिखा आता। नीचे आकर शोर मचा देता। अंगीठी जल चुकी है। सब हैरान इतनी जल्दी कैसे ?
कुछ को लालगढ़ वर्कशाप टिफिन के साथ सुबह सुबह जाना होता था। बड़े खुश। आटा गूंथते वक्त मैं गीले आटे के लौंदे छत की तरफ उछालता रहता। फिर कैच कर, परात में डालकर मंथने लगता। मेरी बचकानी हरकतोें पर सबकी खूब हंसी फूटती। वाह।
एक बार मैंने उनकी घडि़यों के अलार्माें को साढ़े चार बजे से हटाकर दो बजे कर दिया। सब वर्कशाप जाने वाले जल्दी जल्दी एक दूसरे से पहले नहाने तैयार होने लगे। टिफन तैयार करने लगे। जब किसी को सही स्थिति का ज्ञान हुआ तो मुझे खूब गालियां निकालीं।
गालियां एक और लड़का शायद वही ठेकेदार भी निकाला करता था। जब हम उस साए हुए को गहरी नींद से उठाकर चाय का प्यारा पकड़ाते। गालियां बकता- तुम लोगों को तो जागना है। पढ़ाई करनी है। मुझे तो सुबह सुबह ड्यूटी पर जाना है। मरो।
एक हंसराज थे वे भी क्लर्की से स्टेनोग्राफर की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। वे अक्सर शाम को और रात को भी प्रेमकुमार सोबत और हमें भी मिलने चले आते। कहीं दूर रहते थे। चाय हर वक्त तैयार। उन्हें भी अॉफर करते। वे कहते-चाय कड़ी कुत्त्ाी हरामजादी चीज़ है। साली पेट खराब करती है। यह सब कहने के बावजूद वे चाय पी भी जाते।
मुझे चाय की बुराई कभी बर्दाश्त नहीं हुई। मैंने अपने साथियों को समझाया कि समझा करो जरा, उन सबकी समझ अच्छी थी। फौरन समझ गए। एक तो जानवर (खूब लंबे कद के हंसराज का नाम हमने जानवर ही डाल रखा था) चाय की बुराइयां करता है। ऊपर से हर रोज़ चाय पी भी जाता है।
- तो ?
उस रात जब जानवर हुजूर पधारे तो चाय पकड़ाने से पूर्व उसके सिर पर कंबल डाल दो।
सब मेरी योजना को समझ गए।
यही हुआ-जब जानवर हंसराज ने चाय की बुराई करते हुए प्याला पकड़ना चाहा तभी उसके सिर पर कंबल डालकर चारों ओर से लपेट दिया। फिर सब ने मिलकर उसकी खूबसूरत धुनाई कर डाली-बोल करेगा चाय की बुराई ?
ओए आए, ए की करदेयो। इस पर उसने तौबा की तो उसे मॉफ कर दिया गया।
एक शरीफ लड़का, बड़ा कंजूस था। कभी किसी पर पैसा भी खर्च नहीं करता था। उससे पूछा-पिक्चर चलोगे ? तो जवाब देता, पिक्चर देखना कोई अच्छी बात नहीं। पर कहते हो तो चल पड़ूंगा। पर देख लो। पैसे तुम्हें देने पड़ेंगे।
- साले हमें क्या गर्ज पड़ी है ? सब जा रहे थे तो तुझसे भी पूछ लिया।
एक बार वह कनस्तर में घर से पनियां बनवा कर लाया था। कनस्तर पर हर वक्त छोटा ताला जड़ा रहता था। उसे किसी तरह खोलकर उसकी अनुपस्थिति में सब ने पनियों की शानदार पार्टी उड़ाई।
उसने भी हमें खूब गालियां दी थीं।
हमारे बड़े साले साहब (वही वेदप्रकाश चोपड़ा) कहा करते हैं कि अगर ऐरे गैरे की गालियां फलीभूत होने लगें तो जिमीदारों की सारी भैंसे मर जाएं। यानी गालियों से क्या होता है। खानी चाहिएं। इस पर मैंने 'श्राप‘ नामक लघुकथा, तीन चार सीनों के साथ लिखी है।
यह सब चुहल बाजियां अपनी जगह। पर पढ़ाई हम लोग पूरी गंभीरता से किया करते थे। देर रात तक। कभी कोई चाय बना लाता तो कभी कोई। कइर् बार पढ़ते पढ़ते, हमें नींद आने लगती तो चाय आ जाती। हम चाय पीने लगते। नींद रफूचक्कर। इसके बाद 17 फरवरी 60 को हमारा टैस्ट हुआ। हम सभी बड़े आराम से पास हो गए। सब छहों की तैयारी बहुत बढि़या थी। मोर्स सिस्टम में तो किसी एक की भी एक गलती न निकली।
हमें इसी कार्यालय में तैनात, कोई पतले दुबले गोरे रंग के मि․ दास पढ़ाया करते थे। थेे तो वे भी साधारण वायरलैस अॉपरेटर। परन्तु वे बहुत काबिल थे। कलकत्त्ाा वगैरह में उच्च संस्थानों से शायद सी․ओ․सी․ डिप्लोमा होल्डर। उन्हें ही तीन चार महीनों के लिए, बतौर इन्स्ट्रक्टर डेप्यूट कर दिया गया था।
पास होने के तुरंत बाद 18 फरवरी से 17 मार्च (यानी एक महीना और) के लिए हमें पिकिंगअप दी गई।
कहना चाहूंगा यह चार महीनों का अर्सा लुत्फ से लबरेज था हमारी जिंदगी का। कम से कम मुझे अपने लिए तो ऐसा ही लगता है। मगर बीच ट्रेनिंग मुझे गुड़गांव कोर्ट से समन वसूल हुए, बतौर किसी पार्टी के गवाह के रूप में मुझे पेशी पर बुलाया था। मेरी समझ में रत्त्ाी भर भी नहीं कि मुआमला क्या हैं। हां इतना लिखा था कि अमुक तिथि को जब आप इतने बजे फ्लानी ट्रेन के टाइम गेट पर टिकट कलैक्टर काम कर रहे थ्ो तो घटना आपके सामने घटी।
मैं बीेकानेर से स्पेयर हुआ। पहले तो मैं रेवाड़ी उतरा। पिछला रेकार्ड देखा। सचमुच मैं उस समय ड्यूटी पर था। तब मैं गुड़गांव के लिए चल पड़ा। तीन चार पुलिस वाले भी मेरे डिब्बे में आ चढ़े-आप ही सहगल साहब हैं ? मेरे 'जी हां‘ कहते ही दूसरा पुलिस वाला बोल पड़ा- अरे सहगल जी तो अपने ही आदमी हैं। जबकि मैं किसी को पहचानता तक नहीं था। मैंने पूछा-माजरा क्या है ? तो खुलासा किया कि एक शख्स चरस के साथ गेट पर हमारे द्वारा पकड़ा गया था। उसी ने आपको गवाह बनाया है कि ऐसी घटा आपके सामने नहीं घटी थी।
मैंने कहा-वास्तव में मेरे सामने ऐसा केाई केस नहीं हुआ था। एक बोला-बाऊजी आपने काम तो हमारे साथ ही करना है। आप कह देना कि जो हम कहते हैं कि पकड़ा गया था। मैंने कहा-मैं झूठ क्यों बोलूं। बहस होती रही। गुड़गांव कोर्ट में भी वे मुझे घेरे रहे।
दूसरी पार्टी मुझसे बात करना चाहती थी। पर वे पुलिस वाले उन्हें मेरे नजदीक फटकने न दें।
जब मैं कटघरे में खड़ा हुआ। तभी दूसरी पार्टी ने कहा-हम अपना गवाह कैंसिल करते हैं। (उन्हें समझ में आया कि मैं पुलिस वालों से मिल गया हूं)
मैं बिना स्टेटमेंट दिए लौट आया और मालगाड़ी से रेवाड़ी तक चल पड़ा। वही पुलिस वाले भी मुझसे आ मिले। कहने लगे-अच्छा हुआ वरना बाउजी ने हमें मरवा दिया होता। यह तो झूठ बोलने पर राजी ही नहीं हो रहे थे। वर्षों बाद मैंने इस घटना को आधार बनाकर 'फंदा‘ कहानी लिखी थ्ाी कि नायक आदत से मजबूर झूठ बोल ही नहीं पाता। और बेहोश होकर गिर पड़ता है।
एक दो बातें और करता चलूं। छहों में से मात्र मैं ही एक खूबसूरत अनब्याहा नौजवान था। सबकी नजरों में चढ़ा हुआ। वे लोग जब जब क्लास रूम (साथ लगे कमरे ही को क्लास रूम में अस्थाई रूप से 'क्लास रूम‘ में परिवर्तित कर दिया गया था) में या सारे स्टाफ के बीच बैठकर ऊटपटांग (अश्लील चुटकुलेबाजी) वार्ता मजे ले लेकर एक दूसरे को सुनाने लगते, तब मैं उस झुंड से रफूचक्कर हो जाता।
वे मुझे पकड़कर ले आते- तू एक गलत आदमी हमारे बीच आ फंसा। भोला पंछी। कब तक यूं ही छड़ा घूमेगा। कल को तू भी तो यह सब करेगा। शर्माता क्यों हैं।
- मुझे शादी करनी ही नहीं है। मेरे सामने यह बकवास बंद करो।
कोई एक बीच में चहक उठता- अरे सुना है। चोपड़ा साहब की बहुत सी लड़कियां हैं। उनमें से ही किसी एक के साथ घर बसा ले।
- वे सब तो मेरी बहन के समान हैं।
इस पर मेरा खास साथी मि․ बी․के․डी․ बंसल, कह उठता-मान गए। यह वास्तव में एक आदर्श शरीफ इनसान है, जो अपने भाई साहब की सालियों को भी अपनी बहन मानता है।
यहां खास बात नोट करने लायक यह है कि वे क्या सारा का सारा वायरलैस समूह ही यही मानकर चलता कि मैं चोपड़ा साहब ही की सिफारिश से वायरलैस में सलैक्ट हुआ हूं , जब कि स्थिति बिलकुल इसके विपरीत थी। बता ही आया हूं कि चोपड़ा साहब मुझे कृतघन समझकर खार खाए बैठे थे। यानी उनसे मेरी बिगड़ी पड़ी थी।
हां एक जमाना जरूर अलग था जब बरेली में मेरे दोस्त यार मुझसे सिफारशी चिटि्ठयां चोपड़ा साहब के नाम लिखवा ले जाते थे।
अब जमाना बदल चुका था। वे बदला लेने के लिए मुझे दो बार फेल कर चुके थे। अब मेरी सिफारिश भला क्योंकर करते।
वक्त वक्त की बात है। जमना कैसी कैसी अनसोची करवटें लेता हैं। अपनी ईमानदारी की खातिर ही तो वे इन्स्ट्रक्टर बने थे। फिर अफसर बने। अफसर भी ऐसे जिन के इशारों पर रेलवे का बहुत बड़ा, गरज़ाऊ विभाग और उनसे संबद्ध स्टाफ, नाचा करता था। अब इस ऊंचे और अधिकार-सम्पन्न पद पर पैसा खाने के लिए बदनाम भी होने लगे। सामने कुछ कहने की किसी में साहस कहां होता है। सुना जाता कि तमाम इंस्ट्रक्टर उनके एजेंट हैं। यह भी हो सकता है कि उनके नाम से पैसा लेकर इन्स्ट्रकट्ज अपने पास ही रख लेते हों। या थोड़ा सा भाग उनके निवास पर पहुंचा आते हों।
धन से समृद्ध तो वे हो ही रहे थे। किताबों की रायल्टी भी आती थी। ऐसी किताबें जो स्टाफ के लिए अरिहार्य थीं। हाथोंहाथ बिकती थीं। दूसरा उनकी आयुर्वेदिक की दवाइयां भी बिकती थीं। मरीजों का इलाज भी करते थे। पर मुफ्त। हां रिटायरमेंट के बाद खूब ठोक कर फीस लेने लगे थे। अपनी दवाइयां स्वयं भी बेचने लगे। अपने काम, अपने हाथ से करने में उन्हें कोई शर्म नहीं थी। बड़े बड़े थैले उठाए, बाजार से सामान ले आते।
एक बार मैं भी बाजार में उनके साथ था। मेरे हाथ में भी एक दो थैले थे। मैंने उन्हें बजुर्ग समझकर कहा था कि रिक्शा कर लेते हैं।
- तूने करना है तो कर। रिक्शा में बैठ कर घर जा। मैं यू ही ठीक हूं।
कहने का मतलब है कि चोपड़ा साहब मल्टी फोकल (बहुतकेन्द्रीय) व्यक्तित्व वाले थे। अपनी अनपढ़ पत्नी के रोब से सहमते थे। वे उनसे कहती कि मैं आत्महत्या कर लूंगी। चोपड़ा साहब डर जाते। फिर इतनी लंबी चौड़ी औलाद को कौन संभालेगा। वे सारे पैसे अपने कब्जे में रख लेतीं। ऐसी ऐसी जगह जहां उन्हें, फिरिश्ता भी न ढूंढ़ पाए। मगर दीमकों मकोड़ों ने उन्हें ढूंढ़ लिया था। और बड़ी बेरहमी से चोपड़ा साहब की बहुत बड़ी, हलाल या हराम की कमाई को नष्ट कर दिया था। बेचारे कीड़े क्या जाने इस दौलत की कीमत।
घर की बात घर में ही बनी रहनी चाहिए। मैं भला उन अपने साथियों से क्यों कहता कि असल हालात यह है कि मेरी, चोपड़ा साहब से अनबन चल रही है। बहुधा अनसुना कर चुप मार जाता। फिर भी कभी पूछ बैठता-अच्छा तुम बताओ। तुम किस किसकी सिफारिश पर आए हो।
छोडि़ए, किसने किसकी जबान पकड़ी है। 18 मार्च 1960 को वापस रेवाड़ी आकर अपनी पहली पोस्ट (रैस्ट गिवर सिगनेलर) पर फिर से कार्य आरम्भ कर दिया। अभी मुझे और मि․ प्रहलाद सिंह यादव (छह में से सबसे जूनियर होने के कारण) प्रमोशन नहीं दिया गया था।
लेकिन बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। 9 अप्रैल को ही मेरे तथा प्रहलाद सिंह के आर्डर वायरलैस में हो गए। कायदे से प्रमोशन के समय मुझे ज्वाइनिंग टाइम नहीं लेना चाहिए था। लेकिन प्रहलाद ने कहा कि अपन दोनों 12 अप्रैल बीकानेर पहुंचेंगे। मैंने मान लिया। जब भाई साहब को पता चला तो वे चिल्लाए-बेवकूफ अगर तेरा दोस्त चालाकी से तुझसे पहले बीकानेर पहुंच कर ड्यूटी रिज्यूम कर लेता है तो वह तेरे से सीनियर हो जाएगा। मगर प्रहलाद ने वायदा खिलाफी नहीं की। वह मुझसे एक दर्जा जूनियर पड़ता था। हमने एक साथ वायरलैस अॉपरेटर की ड्यूटी ज्वाइन की। अतः हमेशा उससे सीनियर मैं ही बना रहा।
प्रहलाद सिंह नेक दिल इंसान होने के साथ साथ कुशल-बुद्धि भी था। सबसे जूनियर होते हुए भी हम सब से होशियार था।
21-4-60 से 6-5-60 तक की छुट्टी लेकर रेवाड़ी बी․ए․ की परीक्षाएं देता रहा। तैयारी नाम मात्र की थी। हश्र जो होना था, वह पहले बता ही आया हूं।
30 मई 1960 को मैंने डायरी में लिखा था- अब कुछ कुछ प्रेम गीतों का अर्थ समझने लगा हूं। संध्या समय सुन्दर नव दम्पतियों को भ्रमण करते हुए मैंने निहारा है।
आज इससे दो अर्थ निकालता हूं कि कोई अप्रत्यक्ष सा पाप कर रहा हूं। अथवा मुझे भी ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश कर लेना चाहिए। पर यह प्रेम गीत तो फिल्मों में और साहित्य में भरे पड़े हैं। असल प्रेम में मीठा बहुत कम है। रूलाई जुदाई तन्हाई बेवफाई झूठी कसमें वायदों और नाचों के बिना तो कोई फिल्म बन ही नहीं सकती। यानी प्रेम (विवाह) में थोड़ी हंसी खुशी है, गम जिंदगी में हजार। और क्या कहूं, प्रारम्भ से इस विषय में काफी कुछ बोल आया हूं।
थोड़ी देर के लिए पुरानी डायरी से बाहर आकर पहले वाले पहलू यानी वायरलैस जॉब ज्वाइन करने की बात पर आते हैं। रेवाड़ी में एक वैकेंसी थी। मैं और प्रहलादसिंह यादव दोनों ही उसे हासिल करना चाहते थे। प्रहलाद का गांव रेवाड़ी के बिलकुल पास पड़ता था। और मेरा घर गाजियाबाद था। वायरलैसे इंचार्ज ज्योति कुमार की बात भी थोड़े में करते चलें। पहली कि वे भी तार घर से आए थे। वायरलैस में उनका ज्ञान नगण्य था। पता नहीं वे कैसे इस पद पर आ पहुंचे थे। दूसरा ये महोदय मि․ दीनदयाल जी के सगे भाई थे। दीनदयाल जी रेवाड़ी में हमारे, तारघर के इंचार्ज थे यानी टेलीग्राफ मास्टर। पहले मैं एक भाई के अंडर काम करता था। अब उन्हीें के ही भाई के अंडर वायरलैस में।
ज्योति कुमार प्रहलाद सिंह जैसे होशियार आदमी को छोड़ना नहीं चाहते थे। उन्होंने उससे वायदा किया कि मैं अपने रिटायरमेंट से पूर्व तेरे आर्डर रेवाड़ी के करवा दूंगा। तू तो सहगल से जूनियर भी है। रिलिविंग अॉपरेटर बनकर मस्ती से कहीं आओ जाओ।
इस तरह मेरा काम राजीखुशी से आसान हो गया। मैं 7 मई 1960 को रेवाड़ी में स्थायी रूप से वायरलैसे अॉपरेटर लग गया। हम दोनों से सीनियर मि․ खानचंद बत्रा यहां रेवाड़ी में पहुंच ही चुके थे। उनका घर रोहतक था। सरदार जी․बी․िसंह हम दोनों से सीनियर थे। भले ही एक ही ग्रेड के हम तीनों थे लेकिन जी․बी․सिंह इंचार्ज थे। हमेशा दिन की ड्यूटी में। जबकि मैं और मि․ बत्रा एक हफ्ते दिन की तथा दूसरे हफ्ते रात की ड्यूटी दिया करते थे। छह छह घंटे की शिफ्ट। बाकी बारह घंटे आफिस बंद रहता था। मगर एमर्जेंसी के दिनों (जैसे पाक भारत युद्ध या रेलवे हड़ताल आदि) को छोड़कर। तब हमें आठ या बारह बारह घंटे भी ड्यूटी देनी पड़ती थी।
जी․बी․ सिंह चपड़ासियों उत्त्ामचंद तथा हरप्रसाद के साथ साथ हम दोनों पर भी खासा रौब जमाते थे। 'मैं इंचार्ज‘ 'मैं इंचार्ज‘ की रट पर दूसरे विभाग वाले भी हंसते थे। वे डाक्टर, पी․डब्लू․आई․, आई․ओ․डब्लयू स्टेशन मास्टर जैसे पद वालों से दोस्ती बढ़ाने के कायल थे। इस पर भी कुछ लोग उन्हें समझाते कि पहले घर को देख। जिनसे काम लेता है, उनसे बना कर रख। अपनी औकात समझ। उन पोस्ट वालों के अंडर बहुत ही अधिक स्टाफ है; उनके पास ढेरों का स्टाक भी है। उनके पास समुचित अधिकार हैं।
नई जी असी वी इंचार्ज हुने आं (नहीं हम भी इंचार्ज होते हैं) की टें कभी कम न होती।
मैं किसी तरह से नर्मी से उनसे अडजैस्ट किए हुए था। वे मेरी पढ़ाई का ज्ञान, विचारों की विशिष्टता से भी प्रभावित थे। कहते तुझे तो किसी कॉलेज में प्रोफेसर होना चाहिए था मगर मि․ बत्रा उनसे खार खाए रहता। खार खाने से, गुस्सा करने से, किसी की बुराई करते रहने से, किसी को गालियां देते रहने से, अगले का क्या बिगड़ता है। खुद का ही नुकसान होता है।
वह परेशान हालत में कभी कभी मेरे भाई साहब के पास चला जाता- भाई साहब, आप हरदर्शन की भांति मेरे भी बड़े भाई साहब हैं। आप ही जी․बी․ सिंह को थोड़ा समझाएं। भाई साहब ने कहा- जिसकी जो आदत-फितरत होती है वह आसानी से जाती नहीं। पर भाई साहब ने जब जी․बी․सिंह के सामने मि․ बत्रा की बहुत तारीफ की तो जी․बी․सिंह हैरान। कहने लगे- भाई साहब, आप उसकी सिफारिश करते हैं। आप उस आदमी को नहीं जानते।
भाई साहब ने समझाने की कोशिश की कि जिस स्टाफ से हमें काम लेना होता, उनसे बनाकर रखनी पड़ती है। यह एक कायदे की बात है।
जी․बी․सिंह ने दफ्तर में प्रचार कर दिया कि बत्रा अच्छा खासा नाटक कर लेता है। पता नहीं भाई साहब इस जैसे व्यक्ति की कैसे तारीफ कर लेते हैं।
दफ्तर के काम जैसे चलते हैं, चलते ही रहते हैं। दोनों के बीच झिक झिक में उतार चढ़ाव आते रहे।
बत्रा की पत्नी ज्यादातर रोहतक ही रहती थी। किसी बात पर उनकी अनबन हो गई तो मुझसे कहा कि एक पत्र मेरे साले के नाम, लिख दो। अंग्रेजी में। मैंने बहुत लंबा पत्र लिख दिया जिसमें पति पत्नी के बीच बनी अनबन लंबी खिंच जाए जाने के दुष्परिणामों के विषय में न जाने क्या क्या कहानी के रूप में लिख मारा। पढ़कर बत्रा साहब बहुत खुश हुए- सुना था तुम्हारी अंग्रेजी बहुत अच्छी है। हम लोग इसे लाइटली (हल्के ढंग से) लेते थे। वास्तव में मेरी अंग्रेजी थी ही बहुत साहित्यिक मंजी हुई। लेकिन बाद में रेलवे की रटी रटाई, रोजमर्रा की काम चलाऊ अंग्रेजी ने उसे धीरे धीरे उजाड़ कर रख दिया। वैसे सभी अंग्रेजी जानते थे। सारा कामकाज अंग्रेजी ही में तो चलता था।
बत्रा ने आगे कहा- वास्तव में आज मैं तुम्हारी अंग्रेजी और विषय को बारीकी से समझ कर उसे प्रभावपूर्ण शैली में लिख लेने की क्षमता केा मान गया। वह पत्र उसने पोस्ट कर दिया। दोनों में दिनों दिनों में समझौता हो गया।
कुछ और साथी मुझसे प्रेम पत्र लिखवाने चले आते। मैं कहता- मैं क्या जानू प्रेम व्रेम। मेरी तो शादी ही नहीं हुई। फिर भी लिख देता। वे पढ़कर खुश हो जाते। पत्नियां भी खूब खुश होती हैं। कहते तो यही थे।
कुल मिलाकर, अब फिर से वायरलैस अॉपरेटर की पोस्ट पर मेरे पांच साल रेवाड़ी में बीते। इससे पहले डेढ़ एक साल बतौर सिगनेलर/टिकट कलैक्टर भी तो रेवाड़ी ही में बीते थे। वह वर्णन में पूर्व में कर आया हूं। वहां के स्टाफ के बारे में भी बताया था पर एक और महत्वपूर्ण बात रह गई। वह यह कि एक दो सिगनेलर्ज प्राइवेट रेलवे एस․एस․एल․आर․ (शाहदरा सहारनपुर लाइट रेलवे) से आए थे। यह महत्वपूर्ण जानकारी है; इसलिए लिख रहा हूं। आजादी से पहले जैसे कई तथाकथित आज़ाद रियासतें थीं, उसी प्रकार से कुछ प्राइवेट रेलवे कंपनियां भी थीं। इन कंपनियों के मालिकों से भी आजादी के बाद यह कहा गया कि जैसे रियासतों का विलय भारत सरकार में हुआ है। आप भी राजीखुशी अपनी रेलवे छोड़ दें। इन्हें इंडियन रेलवे में मिलाना जरूरी है। मालिकों ने जवाब िदया- हमें अब क्या आपत्त्ाि हो सकती है। लेकिन हमारी बस एक शर्त है कि हमारे सारे के सारे स्टाफ को आपको ज्यूं का त्यों, उसी पोस्ट पर रखना होगा। यह अंग्रेजी कंपनी की शर्त थी जो इंडियन रेलवे ने स्वीकार की। एक बात वह, स्टाफ हमें बताता था कि हमारा किसी भी ओहदे का आदमी, रेलवे का तमाम काम सीखा हुआ होता था। पार्सल गुड्स का सीजन आया तो वहां पर दूसरे पद वाले को लगा दिया। दूसरी तरफ काम बढ़ा तो और स्टाफ दे दिया। यानी ईक्वल डिस्ट्रीब्यूशन अॉफ वर्क (काम का समान बटवारा) न तो कोई निकम्मा बैठ सकता था। और न ही किसी पर अधिक वर्कलोड (काम का अधिक वजन)।
बाद में मैं अपनी सर्विस में नोट करता- एक जना तो ड्यूटी पूर्व भाग रहा है और दूसरा बेचारा तीन तीन चार चार घंटे बिना ओवर टाइम पाए, काम पर जुता हुआ है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि धीरे धीरे, आजादी के फौरन बाद से एफीशैंसी (कार्यक्षमता न्यायसंगति) का ह्रास होता चला गया। आज तो सरकारी उपकर्मों की स्थितियां सबके सामने हैं। काम न करने वाला और पूरी निष्ठा से समर्पित भाव से कार्य करने वाला बराबर पे पा रहा है। जब तक अंग्रेजों की नीति अनुसार 'अवार्ड एंड पनिशमेंट‘ (इनाम और दंड) की नीतियां नहीं अपनाई जाएंगी, देश का कल्याण असंभव है। हां तो अपने रेवाड़ी काल की बात पर लौटता हूं। यह पांच साल बहुत होते हैं। इतने सालों में बहुत कुछ बीतता रहता है। मैं तो यहां तक कहने का कायल हूं। जीवन के हर दिन में कुछ न कुछ नया, अनाेखा, उल्लेखनीय होता रहता है। हां यदि उन दिनों यहां तक कि उन क्षणों पर हम ध्यान न दें तो अलहैदा बात है। जिससे सुनो यही कहता मिलेगा कि चल रही है (जिंदगी) एक ही ढर्रे पर। नया क्या है। सुबह होती है, शाम होती है। किसी से झड़प होती है। किसी से मुहब्बत बढ़ती है। कोई नया दोस्त बनता है। कोई हमें धोखा दे जाता है। हमारे किए कराए पर पानी फिर जाता है। कोई विश्वासघात करता है तो बेशक कोई तसल्ली देने वाला भी आ मिलता है। आड़े वक्त काम आता है। इंचार्ज बदलते हैं। नए रंगरूट भरती होते हैं। नए क्वार्टर बनते हैं। लंबी सूची है-दिनन के फेर की। कोई भी जरा गौर करे तो पाएगा। दिन ऐसे ही नहीं बीतते। अपनी मीठी फीकी कड़वी यादे छोड़ते जाते हैं।
हालांकि मेरे पास तीन डायरियां हैं। चौथी चल रही है। पर मैंने भी एक एक दिन पर कौसी सी टिप्पणी की है। फिर ध्यान आता है, तिथियां तो इतिहास को ही मुख्यतः दर्शाती हैं। परन्तु जो स्मृतियां हमें बार बार अंदर गहरे तक उद्वेलित करती हैं वही, दिनों की स्मृतियां, हमारे वजूद (अस्तित्व) की व्याख्या करती हैं। दिनों की विडंबनाओं का लेखा जोखा क्यों जरूरी है। उन दिनों में से खुशी के पलाें को हम यदि समेटते चले जाएं तो थोड़े ढंग से जीवन जी सकते हें। वरना․․․․․․․․․․ वरनाओं, मगरों, का जिक्र तो पहले ही करता आया हूं। फिर सिलसिलेवार को क्यों याद रखें। जो सहज रूप से आपकी मुट्ठी में आ जाए, वही काफी है। महत्वपूर्ण भी है और तमाशा भी है।
चलिए तमाशा दिखाता हूं। जैसा कि बता आया हूं। मि․ खानचंद बत्रा की मि․जी․बी․ सिंह सरदार इंचार्ज से नहीं बनती थी तो बत्रा साहब उनसे तंग आकर किसी तरीके से दिल्ली तबदीली करा गए। अब मजा (तमाशा) यह देखिए कि सरदार जी भी कुछ अर्से बाद तबदीली कराकर दिल्ली बत्रा साहब के पास जा पहुंचे। वाह, वही रेवाड़ी वाले जी․बी․ सिंह और खानचंद बत्रा, इकट्ठे निभा रहे थे। बता नहीं सकता कि मित्रता कर रहे थे या फिर लड़ झगड़ रहे थे। पुराने बेली। हां एक वाक्य जी․बी․ गुरबचनसिंह का आज तक नहीं भूला। है भी रिमार्केबल कि काश, बत्रा, तुम और मैं अलग अलग डिपार्टस्मेंट्स में होते तो शायद मैं भी भाई साहब (यानी हरदर्शन के भाई साहब। सभी उन्हें भाई साहब कहकर ही संबोधित करते थे) या तुम्हारे कुछ और दोस्तों की तरह, तुम्हारी प्रशंसा कर सकता। यहां एक ही विभाग में होने के कारण हमारे हित टकराते हैं। मगर मगर, सहगल के साथ तो फिर भी कोई प्राब्लम नहीं। हां एक बार मैं भी जाने बत्रा की बात या किसी दूसरी बात पर सरदार जी के साथ थोड़ा ऊंचा बोल उठा। फिर मैंने नोट किया कि सरदार जी का चेहरा उतर गया है। और वे अपनी नाक को खुजाते, (उनकी नाक के ऊपर का भाग बीच में से धस्सा हुआ था। वे समय समय पर उस जगह उंगली रखते थे जैसे खुजा रहे हों) हुए अपने क्वार्टर चले गए थे। मेरे सामने उनका उतरा हुआ चेहरा उभर रहा था। मैंने ड्यूटी खत्म करके चपरासी, हेतराम से ताला लगवाया। ताला लगवाने के बाद मैं अपने घर (तेज भान वाले उसी बंगले) जहां से किसी समय दरबदर किया गया था। अब मि․ गिल इलैक्ट्रिकल इंचार्ज के साथ आधे बंगले में सपत्नीक रह रहा था। तेज भान जी ट्रांसफर पर चले गए थे। यह बंगला रेलवे स्टेशन तथा वायरलैस स्टेशन के बिल्कुल पास पड़ता था (है) सो बंगले जाने की बजाए मैं सरदार जी के क्वार्टर जा पहुंचा और उस गर्मागर्म वार्ता पर खेद व्यक्त किया। वे बड़े खुश हुए। चाय पीकर जाने का इसरार करते रहे। मेाटी सरदारनीजी, यानी भरजाई जी भी कहती रहीं कि चाय तो पीते जाओ। फिर मेरे चेहरे पर उतावली देखकर सरदार जी से बाेलीं- इसे जाने दो। मुंडे (लड़के) की नई नई शादी हुई है। इसे घर पहुंचने की जल्दी है।
मैं घर आकर एक कप चाय पीकर आराम करने लगा। मुश्किल से आधा पौन घंटा गुजरा होगा कि सरदार जी मय मोटी पत्नी के हमारे यहां आ पहुंचे। गद्गद थे। कहने लगे जो कुछ तुमने कहा, अगर यही का यही बत्रा ने कहा होता तो मुझे जरा भी अफसोस न होता मगर तुम्हारे मुंह से यह सब सुनकर तो वास्तव में मेरे दिल को जबर्दस्त ठेस पहुंची। तुम बहुत बड़े दिल के हो। मेरे कलेजे को ठंड पहुंची। यू आर सेंट। इत्यादि। कम से कम घंटा डेढ़ घंटा रूकने के बाद खुश खुश चले गए।
भले ही आज वाली महंगाई का युग न था पर उस युग में भी सब का गुजारा बड़ी मुश्किल से, कहना चाहिए उधार पर चला करता था। एक बार, मुझे याद है, जब मेरा बड़ा बेटा अशु (विवेक) गोदी का बच्चा था। और उसके कान में पीप आनी शुरू हुई तो मैंने उधार पर ही डाक्टर साहब से इलाज करवाया था। एक बार हमारा अफसर मि․ ल्यूक दौरे पर आया था, तो रेस्टोरेंट से उसे उधार पर ही चाय नाश्ता कराया था। जब मि․ गिल की शादी दिल्ली में हुई तो 12 रूपए की उधार की थरमस बतौर गिफ्ट देकर आया था।
स्टीफन ज्विग का लघु उपन्यास है ''जिंदगी दांव पर‘। उसी तर्ज पर हमारी 'जिंदगी उधार पर‘ चलती थी। दफ्तर में तथा दफ्तर के बाहर उधार पर खूब चर्चाएं परिचर्चाएं चलती थीं।
मि․ जी․बी․सिंह की मिसेस मोटी सरदारनी बड़ी चटखोरी मिज़ाज की औरत थीं। शाम को फेरी वाले चाट पकौड़ी, नमकीन, चना जोरगरम वगैरह लाते थे। सरदारनी उनसे कागज के दोने पर सामान लेकर खाती थीं।
एक दिन हंसते हुए जी․बी․सिंह ने बताया कि मुझे अचानक पता चला कि हमारी मिसेस इन खोमचे वालों से भी उधार करती हैं। तब मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने उसे डटकर खूब डांटा। शर्म नहीं आती। लेकिन थोड़ी देर बाद ही मेरा गुस्सा ठंडा हो गया, जब मुझे ख्याल आया कि जब हमारी भारत सरकार ही उधार पर चल रही है तो हमारी (घर की) सरकार ने क्या गुनाह कर डाला। तब मैंने उसे मनाया-कोई बात नहीं जी।
इस बात पर हम दोस्तों के बीच जोर का कहका लगा।
बाद में, बहुत बाद में जब मैंने लघुकथाएं भी लिखनी शुरू की तो शायद पहली ही लघुकथा ''उधार की बगिया‘‘ लिख डाली जो कई जगह छपी। यह एक व्यंग्यात्मक लघुकथा है। वैसे भी मेरी अधिकांश रचनाओं में आसानी से व्यंजनावृत्त्ाि मिल जाएगी। कारण शायद यही हो कि मैं जिंदगी को ही सबसे बड़ा मजाक मानता चला आया हूं। उस पर और अपने पर खूब हंसता हूं। अब इस पचड़े में न पड़ते हुए, रेवाड़ी को थोड़ा और याद कर लिया जाए।
अब तक की तकरीबन चार साढ़े चार सालों का लेखा जोखा दो तीन लाइनों में कर लिया जाए। पहले सवा साल दिल्ली सरायरोहिला हैडक्वार्टर। फिर लगभग 10 महीने हैडक्वार्टर सादुलपुर। फिर सिगनेलर प्लस टिकट कलैक्टर तकरीबन डेढ़ साल, हैडक्वार्टर रेवाड़ी। फिर बतौर वायरलैस अॉपरेटर, वही हैडक्वार्टर रेवाड़ी। यह पांच साल ठीक टिक कर रहने के समझे जाने चाहिए। इससे पूर्व तो रिलिविंग ड्यूटीज में काफी धक्के थे। जिनका वर्णन पहले कर आया हूं। पर एक बात ज़रूर सोचता हूं कि आदमी जिंदगी में जितने धक्के खाता है, उसका अनुभव संसार भी उतना ही बड़ा होता चलता है। हर तरह के छोटे रोड साइड सुनसान रेलवे स्टेशन। तरह तरह की पोस्टें।
एक शानदार बात याद आ गई। मैं तो स्टेशन मास्टरी में असफल हो गया था। और चैनसिंह पंवार जिसका जिक्र पहले कर आया हूं, वह बालोतरा (राजस्थान जो जोधपुर डिवीजन में पड़ता है) का रहने वाला था। लिख आया हूं कि पूरा तिकड़मी किस्म का, अपने हुस्न पर खुद फिदा होने वाला (Narciss) नवयुवक था, पास हो गया था और जोधपुर डिवीजन में ट्रांस्फर करवा गया था। ब्याहा हुआ था ही। बार बार चंदौसी और फिर बीकानेर डिवीजन से फरलो मार कर (यहां फरलो का अर्थ ड्यूटीज में से खिसक जाने से लिया जाए) अपनी वाइफ के पास जैसे तैसे जा पहुंचता था। और फिर चटखारे ले लेकर अपने दाम्पत्य जीवन के अंदरूनी किस्से बड़ी डींग के साथ हम दोस्तों के बीच सुनाया करता था।
अब वह चैनसिंह जोधपुर डिवीजन में बतौर रिलिविंग ए․एस․एम․, जगह जगह रोड साइड स्टेशनों के धक्के खा रहा था।
किसी वक्त हम दोनों ने एक साथ 'छोटे बाबू‘ नाम की फिल्म देखी थी। इस फिल्म में ए․एस․एम․ की कहानी थी। ए․एस․एम․ यानी छोटा स्टेशन मास्टर। छोटे बाबू। और एस․एम․ (स्टेशन मास्टर) को बड़े बाबू कहा जाता था/है। उस फिल्म में छोटे बाबू के सुनसान स्टेशन पर एक खूबसूरत लड़की उतरती है। फिर उसका छोटे बाबू से लव हो जाता है।
चैनसिंह ने मुझे पत्र में लिख भेजा था कि यहां तो कोई खूबसूरत लड़की, क्या बुढि़या तक नहीं उतरती। ज्यादा से ज्यादा दो तीन बुढे गांव वाले आ उतरते या चढ़ते हैं। बोर होता रहता हूं।
मैं भी अच्छी तरह से जानता हूं कि मन बहलाव के लिए ये लोग कानों पर कंट्रोल फोन चिपकाए बैठे गाडि़यों का हालचाल जानते रहते हैं। बीच में कोई सा फालतू शगूफा छेड़ देते हैं। उदाहरण के लिए बोलेंगे-हाय मार डाला रेह। या, तुम्हारी याद सताती है। या कोई फड़कता हुआ गाना तो सुना दे। इत्यादी इत्यादी। इस बात का विशेष ध्यान रखता है कि उसकी आवाज पहचानी न जाए। इसलिए टोन बदल बदल कर एक ही वाक्य थोड़े थोड़े वक्फे से बोलते रहते हैं। इससे कन्ट्रोलर का काम बाधित होता है। वह कभी डांटता है तो कभी नर्मी से रिक्वेस्ट (विनती) करता है-भई यह सब बंद करो। कौन बोल रहा है। वह ए․एस․एम․ कहता है-अच्छा माफी मांगो। कहते हैं ना- खाली दिमाग, शैतान का कारखाना। ज़ाहिर है ये शगूफे, कन्ट्रोलर के लिए सिरदर्द बन जाते हैं। पता नहीं चलता, आवाज़ कौन से स्टेशन से आई है। सारे फोन सिस्टम एक ही लाइन से जुड़ा रहता है। कन्ट्रोलर किसी भी स्टेशन को घंटी दे सकता है। तब वहां का स्टेशन मास्टर या ए․एस․एम․ फोन उठाकर अपने स्टेशन का नाम बोलता है-जैसे चूरू स्पीकिंग। सादुलपुर स्पीकिंग। ए․एस․एम․ कभी भी फोन उठाकर कंट्रोलर से वैसे ही बिना घंटी दिए (घंटी वह दे ही नही ंसकता) कभी भी फोन उठाकर बात कर सकता है। बताता है कि फ्लानी गाड़ी मेरे यहां पहुंच चुकी है। फ्लानी आने वाली है। बताएं, क्रास कहां कराना है। या यह भी कहता है कि फ्लाने स्टेशन को घंटी देकर जरा बात करा दें। वहां के वैगन यहां फंसे पड़े हैं। गलती से आ गए थे। आदि आदि। लंबा चैप्टर है। पर असली बात वही है कि वहां का सूनापन, तन्हाई, आदमी को खाने को दौड़ती है। वहां बहुत ही सीमित स्टाफ होता है। कभी कभी (या आदत ही बना लेते हैं) जो थोड़ा स्टाफ ड्यूटी पर नहीं होता, उन्हें भी बुलाकर ताश चौसर आदि खेलते हैं। अश्लील चुटकुलों का आदान प्रदान होता है। वे लोग रात की ड्यूटी दिए होते हैं तो कोई भी पूछता है-अबे दिन में घर पर क्या कर रहा था। इतने में कोई नन्हें मुन्ने स्टेशन पर उन्हें बुलाने चले आते हैं तो बोलते हैं- देखो बे वक्त की औलाद।
यह तो हुआ छोटे स्टेशनों का हाल और यही स्टेशन तो बड़े स्टेशनों के मुकाबले बहुत बहुत ज़्यादा होते हैं, जहां बच्चों की पढ़ाई तक का इंतजाम नहीं होता। बाल बच्चेदार, सबसे नजदीक के बड़े स्टेश्नों पर परिवार को रखे रहता है। और खुद शाम की तन्हाहियों में जुदाई का गम अकेला झेलता रहता है। ये शाम की तंहाइयां, ऐसे में मेरा दिल․․․․․․․․․। छोटे स्टेशनों पर स्टेशन मास्टरों की 8 घंटे की ड्यूटी हमेशा दिन की रहती है। मैं सोचता, मेरे लिए अच्छा ही रहा कि फेल हो गया। इससे इन और ऐसी ड्यूटियों से तो बच गया। सिगनेलरर्ज को तो फिर भी कुछ बड़े स्टेशन मिलते हैं। छोटे स्टेशनों के स्टेशन मास्टरों को, सिगनेलर का काम भी बड़ी उम्र तक करना पड़ता है। और यही स्टेशन मास्टर जब कभी किसी बड़े स्टेशन पर नियुक्त होते हैं तो, वही, ए․एस․एम․ बनकर काम करते हैं।
और अब, चूंकि मेरे लिए वायरलैस की बात आई थी तो दिल बाग बाग हो गया था। यह (वायरलैस अॉफिस) तो होते ही एकदम बड़े स्टेशनों पर हैं। दूसरा वायरलैस जॉब को इज्जत का निगाह से देखा जाता था।
हमारे बीकानेर डिवीजन में कभी चार वायरलैस स्टेशन हुआ करते थे। श्रीगंगानगर, बंद हो चुका था। रह गए थे ः हनुमानगढ़, जहां केवल एक शिफ्ट चलती थी और एक ही वायरलैस अॉपरेटर था। दूसरा यही रेवाड़ी और बीकानेर। एक बार हनुमानगढ़ के अॉपरेटर ने काम करना बंद कर दिया था। उसे तन्ख्वाह नहीं मिली थी। यही सिगनल देता, 'नो पे नो वर्क‘। बाद में उसने सिक मार दी थी। तब मुझे जल्दी से वहां भागना पड़ा था और स्टेशन को वापस चालू करना पड़ा था। वह एकदम जंगली इलाका था। आंधियां चौबीसों घंटे चला करती थीं। आज सुनते हैं कि हनुमानगढ़ की तो काया पलट गई है। खैर․․․․․․․․․․।
नया नया हिन्दी का जोश था। बहुत सारे लोग हिन्दी नहीं जानते थे। जिनके लिए 'निपुण‘ 'प्रवीण‘ जैसी हिन्दी क्लासें चलाई जाती थीं। जी․बी․सिंह भी हिन्दी पढ़ने जाते थे। सभी आधे अधूरे मन से पढ़ते थे और हिन्दी का मजाक सा उड़ाते थे। जी․बी․सिंह कहते अरे यह तो रागियों की भाषा है। बबबस आधा रर् है। भाइ 'र‘ कहते हुए जरा अटक जाओ। ग मुंह से निकला नहीं तो गलत हुआ यहां 'ग्‘ है।
बाद में पढ़ाने वाले भी तंग आ गए थे। सब से लिखवाते फिरते थे कि हमें हिन्दी आ गई। हम हिन्दी में हस्ताक्षर कर सकते हैं। और खुद पढ़ाने वाले वैरीफाई (अनुमोदन) करते रहते ताकि ज्यादा से ज्यादा आंकड़े इकट्ठे कर सके।
वाह यह आंकड़ों का खेल। यह आंकड़ों का खेल संसद से ही शुरू होता है और सब प्रकार के सामाजिक कार्यों और न जाने कहां तक फैलता चला जाता है। आदमी जिसे आम आदमी कहा जाता है, को स्पष्ट रूप से दिखता कुछ और है और आंकड़े कुछ और बयान करते हैं। आम आदमी दुकानदार के पास पहुंचता है-अब तो इस चीज की कीमत इतनी कम हो चुकी है। रेडियो से मैंने खुद सुना। दुकानदार जवाब देता है-बाबू साहब आप जाकर रेडियो वालों से ही खरीद लें। आंकड़ों की कथा 'हरि अनंतः हरि कथा अनंतः‘ जैसी है। आराम से इन पर कई पृष्ठ लिखे जा सकते हैं। पर खास बात जो मैं यहां बताना चाहता हूं, वह यह है कि झूठे आंकड़े हमसे यही सांसद या संसद ही लिखवाती है। यह बात मैंने बीकानेर हैडक्वार्टर वायरलैस में रहते हुए शिद्दत से महसूस की। वायरलैस में मैसेजैज का आदान-प्रदान हो रहा होता तो बीच में 'पी․क्यू‘ 'पी․क्यू‘ बजने लगता। उन दिनों संसद सत्र चल रहा होता। पी․क्यू से मुराद पार्लियामेंट कवैशन से है। यानी बाकी सारा काम छोड़कर पहले 'पी․क्यू‘ लो। कुछ मैसेज खुफिया (गोपनीय) किस्म के कहलाते। वे साइफर कोड्स में आते। उन्हें हम साइफर अॉपरेटर को फौरन पहुंचा देते। जिन्हें वे डीकोड कर सीलबंद लिफाफे में संबंधित अधिकारी के पास पहुंचवा देते।
अब असली बात समझ लें। इनमें लिखा होता-पिछले दस पंद्रह या पांच सालों में अमुक विषय का काम कितना और कब कब हुआ था। भर्ती। शैड्यूल कास्ट भर्ती, शैड्यूल ट्राइब्ज भर्ती। या कितनी गाडि़यां दो घंटों से ज़्यादा लेट हुई थीं। दो घंटों में या शाम तक फौरन जवाब दो आदि। ज़रा सोचिए। इतनी पुरानी धूल चाटी, फाइलों को क्लर्क कितना भी चाट लें। कैसे और कहां से सही आंकड़े प्रस्ततु कर सकता है। या संबंधित अधिकारी/क्लर्क छुट्टी पर या सिक पर हो तो दूसरा क्लर्क कैसे कोई ठीक जवाब दे सकता है। मगर 'आर्डर इज़ आर्डर‘ को निभाते हुए वे लोग कुछ भी लिख मारते। वही आंकड़े, मंत्री महोदय दूसरे दिन संसद में पेश कर देते। सही गलत की खोज के लिए भी तो बहुत बहुत लंबा समय चाहिए। भला कौन इन झंझटों में उलझकर अपना दिमाग खराब कर सकता है।
आज तो खैर हो सकता है कम्प्यूटर कुछ मददगार साबित हो। पर कितनी कब्रे खोदेगा। मैं अनभिज्ञ हूं। फिर अगले की मंशा का सवाल।
बात हिन्दी के आंकड़ों की चली थी। आज भी हिन्दी के झंडा बरदार हिन्दी के विस्तार के आंकड़े बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करने में एक दूसरे से बाजी मारे हुए हैं। यह भी कहते हैं कि विदेशियों ने भी इसे सबसे बड़ी वैज्ञानिक, कम्प्यूटर-संगत भाषा माना है। पर कोई भी किसी प्रकार की छोटी सी कंपनी भी हिन्दी में अपने उत्पाद के गुण हिन्दी में लिखना अपनी हटक समझती हैं। अंग्रेजों के जमाने से अपने यहां अंग्रेजी में ही, हम जैसे मामूली आदमी भी अंग्रेजी में ही काम करते आए थे (सो मेरी जबान पर भी बेशक अंग्रेजी, उर्दू पंजाबी संस्कारगत रूप से चढ़ी हुई है) पर मैं देखता हूं कि आज, उस जमाने से कहीं कहीं बढ़कर अंग्रेजी का फैलाव हो गया है। जो खुद अंग्रेजी नहीं जानते वे भी निमंत्रण पत्र अंग्रेजी में ही छपवाते हैं। और सब गलत शलत। गलत शलत तो स्कूलों के मालिक भी खूब लिखते हैं ‘English madiam school’ इत्यादी इत्यादी।
मैंने खुद िनरन्तर 25 वर्षों तक अंग्रेजी में आए निमंत्रण पत्रों के प्राप्त होने पर उनके किसी भी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ। यहां तक कि सगे भतीजे की शादी में नहीं गया। लंबी कहानी है। अंत में मैंने हार मान ली।
एक तिथि को अपनी डायरी में दर्ज कर दिया। फिर से सभी आयोजनों में सम्मिलित होने लगा। यह सब मेरी जीवनी, मेरी पीड़ा गाथा है।
डॉ․ (मानद) मालती शर्मा ने भी बड़े पैमाने पर हिन्दी के लिए प्रयत्न किए। वे लिखती हैं कि जब मैंने इस विषय पर डॉ․ विद्या निवास मिश्र से बात की तो उन्होंने भी निराशा व्यक्त करते हुए कहा-बहन यह हारी हुई लड़ाई है। कौन नहीं जानता कि सभी नेता बड़े अफ़सर क्या करते हैं।
मेरा ख्याल है कि अब हमें आंकड़ों और प्रतिष्ठा जैसे खुश्क विषय से बाहर आकर रोमांटिक दुनिया का सफर शुरू कर देना चाहिए।
पर․․․․․․․․․पर का मतलब वही 'मगर‘ है। पर मैं इस रूमानियत मैं थोड़ी सी घुसपैठ करने से पूर्व वायरलैस की थोड़ी डरावनी सी बात बताता चलूं ताकि भूल न जाऊं। हम वायरलैसे वालों के पीछे सी․आई․डी․ लगी होती थी। मॉनिटरिंग स्टेशन्स भी। मिलिट्री, अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय पुलिस और खास तौर पर रेलवे) हमारे कामकाज को चैक कर रहे होते। हमारी ज़्यादा हाजिरी तो वहां लग रही होती। दस बजे या फर्ज कीजिए छह बजे ड्यूटी शुरू होती तो (या बीच में हमें दी गई कालज अनअटैंडिड (अनुतरित) रह जाती तो चार्जशीट तक भी मिल जाती थी कि बेटा कुर्सी छोड़कर कहां चले गए थे। एक एक क्या, आधे आधे मिनट की लॉग मेनटेन (भरनी) पड़ती। काम दूसरे स्टेशन आपस में कर रहे हैं। हमें जैसे उनकी हाजि़री लगानी पड़ती कि फ्लां फ्लां स्टेशन इस बीच बिजी थे यानी काम कर रहे थे। इन्हीं कारणों से तो हमारी जॉब (नौकरी) इन्टेंसिव जॉब कहलाती थी। परिभाषा है - एवरी नवर्ज अॉफ दी बॉडी आलवेज रिमेन एक्टिव। हां पंद्रह पंद्रह मिनट की एन․सी․ (नेचर कॉल) या मील्ज (खाना) स्टेशनों को बताकर, टेबल से अलग हो सकते थे। परन्तु कई बार काम इतना अधिक हो जाता कि भरा भराया टिफन घर वापस ले जाना पड़ता। दीपावली, होली जैसे त्योहारों पर भी छुट्टी नहीं। इसलिए हम मनाते कि यह त्योहार इतवार को पड़ें। इतवार के दिन कुछ घंटों के लिए वायरलैस स्टेशन बंद रहता।
मगर हमारे लिए पुलिस होती। तीन छह महीने बाद हमें थाने बुलवाकर पुलिस वैरीफिकेशन होती।
एक बार की घटना मुझे नहीं भूलती। थाना अिध्ाकारी अपने कमरे में व्यस्त था। हम बाहर लंबी बैंच पर बैठे थे। अर्दली उधर से गुजरा। हम सबसे रूखे स्वर में पूछने लगा- ''क्या आप लोगों की पेशी हो गई ?'' यह रेवाड़ी का वाक्या है।
बाद में हम लोग इस पर कहके लगाते रहे कि अर्दली ने हमें मुजरिम समझ लिया था; जबिक यह रूटीन, खानापूर्ति का हुआ करती।
अब वास्तव में उसी प्रसंग पर आता हूं जिसे थोड़ा पीछे, लिखते लिखते छोड़ दिया था। मैं अब गाजियाबाद जाते घबराने लगा था। क्योंकि जैसे ही घर में प्रवेश करता, ठीक उसी समय 'विवाह प्रसंग‘ छेड़ दिया जाता कि फ्लानी तरफ से रिश्ता आया था। फ्लाने खूब दहेज देने की बात कह गए हैं। उन को तो तू जानता होगा․․․․․․। क्या सोचा है ? कुछ तो फैसला लेना ही पड़ेगा।
- अगर मुझे सूटेबल (मनमर्जी मुताबिक) लड़की नहीं मिली तो समझ रखिए कि मैं कभी शादी करूंगा ही नहीं। इस पर मां बहन रोने लगतीं।
- अरे बेटा अगर तुझ में कोई नुक्स है तो बता दे। मां से कोई बात छिपाया नहीं करते।
- बीस बार आपको अपने विचार बता चुका हूं और क्या कहूं। अब मेरा गाजियाबाद आना मुश्किल हो जाएगा। वैसे दुनिया बहुत बड़ी है। हो सकता है, जिंदगी के किसी मोड़ पर कोई मेरे मुताबिक टकरा ही जाए। तसल्ली रखें।
- तो क्या बुढ़ा होकर शादी करेगा। साढ़े छब्बीस का तो हो चुका।
तभी दरवाज़ा टकराने की सी ध्वनि हुई।
मेरे बड़े भाई साहब श्री मनोहरलाल के बड़े साले साहब श्री वेद प्रकश बहुत बढि़या कपड़े पहने, हमारे मकान 'सहगल निवास‘ के सामने से गुजर रहे थे। दरअसल गुजरने का नाटक कर रहे थे। उनके पीछे पीछे सटी, उनसे भी ज्यादा बढि़या कपड़े में सज्जी धज्जी उनकी श्रीमती जी दुबली पतली चंपा जी। दोनों ने हमारे घर में झांक लगाई। वेदप्रकाश बोले- अच्छा तो दर्शन जी भी आए हुए हैं ? (वैसे उन के घ्ार मेरे आने की खबर आराम से पहुंच जायां करती थी) अब उसी तरह का नाटक कर रहे थे। जैसा कि कभी भाई साहब के समय किया था।
- हां हां आइए भाई साहब। मैंने औपचारिकतावश कहा। वे दोनों आकर आंगन में खड़े हो गए।
- कित्थे दी तैयारी है ? माताजी ने पूछा।
- शाहदरा।
- शाहदरा ? कोई खास कम (काम) है।
- हां, मासी जी करीए की ? (करें क्या)। कमला के लिए कोई और लड़का देखा जा रहा है। पर करें क्या, उन्होंने दोहराया ऊपर से तो सब अच्छे शरीफ दिखाई देते हैं। मगर ज़रा ज़्यादा खोज-पड़ताल में जाओ तो पता चलता है। पूरे चार सो बीस निकलते हैं। अपने पद को बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं। कोई लालची होते हैं, तो कोई नशेड़ी, भंगी भांगड़ी शराबी जुआरी निकलते हैं। बड़े ऐबी हेाते हैं ये लोग। पूरे ड्रामेबाज। फूंक फूंक कर कदम रखने पड़ते हैं। चलो इस वाले को भी देख आते हैं। इतना कहकर वे दोनों हमारे मकान से चले गए। मगर मुश्किल से आधा मिनट भी नहीं गुजरा था कि वापस आ गए- मासड़ जी (मौसा जी ही जीजा के पिता के लिए संबोधन है) एक बात अभी अभी मेरी और चंपा के दिमाग में आई है कि क्यों न हम कमला की शादी दश्ार्न से कर दें। अगर इसकी राय हो तो।
माताजी ने कोई जवाब नहीं दिया। पर अंदर से पुलकित हो उठीं।
पिताजी ने मेरी ओर देखते हुए कहा-बोल। मैं सोच में पड़ गया। यह क्या अप्रत्याशित घट गया।
माताजी को तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई थी। वे तो पहले ही कमला पर मोहित थीं ओर जैसा कि पहले लिख आया हूं कि बहुधा कहा करती थीं कि यह चोपड़ा साहब मेरेे दर्शन के लिए अपनी पूना वाली भतीजी का तो कहते हैं। पर अपनी खुद की लड़की कमला का नहीं कहते। अब मुझसे कहने लगीं- हां कह दे। यह कमला तो तेरी देखी भाली हुई है। ठीक है ना हां․․․․․।
मैं फिर से सोच के गहरे सागर में पड़ गया।
(ं1) बेशक यह मेरी देखी भाली भोली सी लड़की है। इसके निचले होंठ के नीचे छोटा सा निकला काला काला तिल न जाने क्यों मुझे किस रूप से आकर्षित कर लिया करता था। पर पर इस रूप में कहां ?
(2) बेशक लड़की अच्छी है। सुन्दर भी बहुत है। इक्हरी दुबली पतली। पर मुझे इस सुन्दरता से मतलब ? मुझे तो लड़की के भावजगत को समझना है। कभी भी ऐसा कोई अवसर हमारे बीच नहीं आया था, जब हमारे बीच जीवन के प्रति कोई विचार-विमर्श हुआ हो।
(3) साथ ही यह भी सोच गया कि चोपड़ा साहब को छोड़कर इनके घर में कोई भी व्यक्ति सोचने-विचारने वाला व्यक्ति नहीं। जो कुछ जिंदगी है। सो है। हम जैसे बनाए गए हैं, ईश्वर इच्छा से बनाए गए हैं। इसमें हमारा कोई हस्तक्षेप नहीं। इस प्रवृति के लोग। बस शरीफ लोग। ऐसे तो बहुत लोग मिल जाएंगे। पर ऐसे अनजाने के बारे में हमारी कोई गहरी पड़ताल नहीं हुआ करती। कमला जैसे है। मैं जानता हूं।
(4) न जाने क्यों इस कमला को देखकर बरबस मेरी अंतरभावना कह उठती थी- हे भगवान! यह लड़की हमेशा सुखी रहे।
(5) मैं तो इसे बहन की तरह मानता आया था। तभी नानक सिंह के उपन्यास 'पवित्र पापी‘ की भी याद हो आई।
(6) कृष्णा बहन जी की दी गई बार बार की दी गई चेतावनी- दर्शी, तू ज़रूर धोखा खाएगा; जो तू मार्डन। अडवांस लड़कियों के पीछे भाग रहा है। हम लोगों का गुज़ारा तो साधारण घरेलू लड़कियों के साथ ही होना संभव होता है।
मिनट भर में ही, मुझे एक साथ, कई सोचों के बवंडरों ने आ घेरा था-करिए की।
(7) अपने घर वाले भी मुझे यूं बिना शादी किए, चैन से बैठने नहीं देंगे। कहीं तो हां कर।
उधर माताजी थीं कि मुझ पर बिना ध्यान दिए बार बार बोले जा रही थीं-तुझे अब और क्या चाहिए। अब तो मान जा।
पिताजी भी, माताजी के साथ थे। मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कह रहे थे-ठीक है ना।
लेकिन श्री वेदप्रकाश चोपड़ा मेरी गहरी सोच को ताड़ गए थे। तराजू के दोनों पलड़ों पर उनकी भी गहरी नजर गड़ी हुई थी। और समझ रहे थे कि पलड़ा उन्हीं की ओर ज्यादा झुक कर ही रहेगा। कहने लगे- मासी जी कोई जल्दी नहीं है। दर्शन को सोच लेने दो। फिर मेरी तरफ देखा- अभी कल तक तो यहीं हैं ना। क्यों ?
- हां हां यहीं है। पिताजी ने उत्त्ार दिया।
- तो आप लोग सोचकर बता देना। फिर से नाटक करने लगे - अभी हम लोग शाहदरा नहीं जाते। अगर दर्शन नहीं मानेगा तो कल या परसों शाहरदा चले जाएंगे। हें चंपा हे चंपा अपनी पत्नी से कह रहे थे। ठीक है ना। अभी वापस घर चलो।
- ठीक है। चंपा जी बोलीं। और दोनों ने वापस चोपड़ा निवास की ओर रूख किया। अच्छा जी नमस्ते।
वे तो चल दिए, अपने घर। मगर हमारे घर क्या छोड़ गए श्री चालाक वेद प्रकाश चोपड़ा और उनकी प्यारी दुबली पतली सुन्दर पतिव्रता बहुत होशियार, थोड़ी से चालाक, पति की हां में हां मिलाने वाली चंपजी चोपड़ा- हां हां मासीजी कमला दर्शन की जोड़ी खूब सजेगी।
बताने के लिए खास वाजिब अल्फाज़ नहीं मिल रहे। फिर भी कोशिश करके देखता हूं, दोनों क्या छोड़ गए थे। बहस वाली सोच। माताजी की मनुहार 'अब तुझे और क्या चाहिए‘। पिताजी का बार बार सिर पर लाड से हाथ फेरना। मेरा बचपन वाला चिंतन बीच बीच में कमला का चितवन रूप स्वरूप वही होंठ के नीचे से मेरी तरफ़ झांकता प्यारा सा काला तिल, जो मुझे अब दूसरी ही नज़र से देखने को विवश कर रहा था।
हां वे दोनों और भी कुछ छोड़ गए थे एक विचार कि अगर तू (दर्शन) 'हां‘ कर देता है तो लंबे अर्से से चली आ रही घरेलू 'चख चाव‘ लंबी बहसें, माताजी बहन जी का रोना, बहन जी की चेतावनियां, और खुद तेरा अपने आप से उलझना सब एक मिनट सैकेंड में ही, 'हां‘ मात्र कह देने से, छू मंत्र हो जाएंगा।
पिताजी सब काम छोड़कर बस मेरी ओर देखे जा रहे थे एक आशावादी महापुरूष के रूप में - कहो तो अभी कहलवा भेजूं चोपड़ा साहब के यहां। कहलवा भेजं कि दर्शन मान गया है।
मेरा सिर कभी भारी होता तो कभी हल्का होता कि एक जटिल समस्या का सरल तरीके से समाधान हो सकता है। ऐसा ही वक्त मुझे घेरे हुए था।
शाम करीब चार साढ़े चार बजे जब सिर्दयों की धूप कुछ कम हुई। सर्दी बढ़ने लगी तो मैंने मौसम में गर्माहट ला दी। हालांकि स्वर धीमा था-'ठीक है।‘ माताजी पिताजी की खुशी की खुशी भरा चेहरा देखने लायक था। उन्होंने अब ज्यादा देरी नहीं की। क्या पता सोचते हों-रघुकुल रीत चली आई, प्राण जाइ पर, वचन न जाइ का कहीं उल्लंघन न कर बैठूं।
हमारे घर पर छोटी सी मीटिंग हुई। परियोजना पर विचार विमर्श होने लगा।
अब सौ सौ मीटिंग करते रहो। मैं तो चला। दूसरी दोपहर में वापस ड्यूटी पर रेवाड़ी के लिए चल पड़ा। पिताजी मुझे स्टेशन तक छोड़ने साथ साथ चल रहे थे। सामने से, कमला गुजर रही थी। उसने गर्दन झुका कर मुंह फेर लिया।
मैं पिताजी से बोला-कमला ने मुझे देख लिया था और एक तरफ से निकल गई। पहले हमेशा नमस्ते किया करती थी।
पिताजी ने कहा- हमारे यहां की लड़कियां यूं ही शर्मा जाती हैं। बहुत देर तक कमला का वही चेहरा, अंदर चमकता झलकता, असर करता रहा।
न जाने क्यों, हमेशा मेरे मुंह से यही शब्द निकला करते थे- हे ईश्वर यह लड़की हमेशा सुखी रहे। मगर सुन रखा था; ईवन गॉड कैन नॉट प्लीज़ ऐवरी बाडी (भगवान भी हर एक को खुश नहीं रख सकता) परन्तु मेरे लिए सिर्फ एक को प्रसन्न रखने का मसला था। रख सका या नहीं। यह सारे भेद तो आने वाले पृष्ठ ही खोलेंगे। पर इतना मैं अभी बताए देता हूं; जिसे मैंने अपने जीवन का बहुत बड़ा सत्य जाना है। आपकी नज़र बनाम दूसरे की नजर। फिलहाल बराए मेहरबानी राज को राज ही बने रहने दें।
अब इसे खुश, सुखी रखने का दायित्व मुझ पर आ गया है। उसी दम यह प्रार्थना की, मैं इसमें सफ़ल हूं।
आज जब यह शब्द लिख रहा हूं तो शादी को पूरे 50 साल होने ही वाले हैं। आज 4 दिसम्बर 2010 है। बस 11 दिसंबर हृदय-कपाटों पर, संगीतमय ध्वनि प्रसारित हो रही है- रजत (गोल्डन) जयंती। गोल्डन एनवरसरी।
मैं पीछे रेवाड़ी के पांच सात सालों का खुलासा कर आया हूं जो अब तक भी चल रहा है। मई 1965 तक चलता रहेगा।
मगर यहां 50 वर्षों की बात है। बहुत लंबी दास्ता हैं। पढ़ने वाले खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। कितने उतार चढ़ावाें, गिरने संभलने, हिचकोले खाए होंगे, हमारी गृहस्थी ने। इसकी कल्पना सहज ही कोई भी गृहस्थ कर सकता है।
अभी तो देरी हो रही है। मुझे वापस रेवाड़ी ड्यूटी ज्वाइन करनी है।
गाजि़याबाद से रेवाड़ी तक का सफर कैसे बीता। बताऊं ?
इस दिल की हालत क्या कहिए
जो श्ााद भी है, ना शाद भी है।
यह अंतर्द्वंद्व तो ताजिंदगी चलता रहता है। अच्छा किया। गलत किया। जो हम पे गुजरती है, उसे कैसे बताएं। बताना तो पड़ता ही है। न बता पाएं तो घुट जाएं। यह भी अपने तई मैंने जिंदगी का सच स्वीकार किया है कि बोल जाओ। उबल पड़ो। चिल्ला जाओ, रो पड़ो। अगले को सुनानी ही हो तो, सुना डालो। आप पर जो गुजरती है, उसे आप सहते ही हैं ना। अगला भी थोड़ा सह लेगा। इसके अपवाद भी हैं। हम दुःखी हैं तो दूसरे को क्यों दुःखी करें। जिंदगी जीने के लिए बहुत बड़ा दिल लेकर चलना पड़ता है जनाब। अगला भी तो आपकी खातिर काफी कुछ सहता है। भोगता है। आंसू बहाता है। आंसू रोकता है। तब आप कौनसे शाहबजादे लगे हुए हैं, खरी खरी सुनाने वाले, मतवाले बनकर जीने वाले।
पर है तो, वही जो बिल्कुल शुरू से बयान कर आया हूं। साली झमेला है जिंदगी। खास तौर से थोड़ा सोचने वालों के लिए। वरना कुछ क्या, ज़्यादा बड़ी संख्या वाले (बहुसंख्यक) ऐसे हैं, जो इतना सोचते हैं-जो हुआ अच्छा हुआ। जो रहा है, अच्छा हो रहा है। जो होगा, अच्छा होगा।
मेरे सैकेंड नंबर के साले स्व․ इच्छापूर्ण से एक वाक्य सुना तो दंग रहा गया थ्ाा। उन्होंने कहा था, किसी बहन का नाम लेकर, कि वह गई (ससुराल) तो रक्षा (उनकी पत्नी का नाम) आ गई। पहले वह (बहन) रोटी बनाकर खिलाती थी। अब रक्षा खिलाती है। यानी एक अदद औरत चाहिए खाना बनाने/खिलाने के लिए।
और मेरे जैसा निकम्मा हर जगह हर पहलू पर निगाह गड़ाए चलता है। अच्छा हुआ या बुरा हुआ।
जहां एक बार मैं, दिल्ली लड़की देखने गया था-उसका नाम राज (बाद में मधु) था। जब अगलों ने मेरी फरमाईश (शादी से पहले मिलने जुलने की) नामंजूर की दीं। बल्कि गालियां दे देकर मुझे कोसा। उसे ही मेरा छोटा भाई बृजमोहन साहब बड़े आरामो अदब से मंजूर कर आए। माताजी के पूछने पर कि क्या लड़की पसंद आई, तो जनाब! जनाब ने क्या जवाब दिया जरा सुनकर गौर फरमाएं। क्यों नहीं। क्या वह लड़की नहीं है? यानी कोई भी लड़की उसे कबूल है। फिर बृजमोहन जी से पूछा जा सकता है कि तब तू लड़की देखने की क्यों गया था। तुझे लड़की की बजाए कोई लड़का तो दिखा नहीं रहे थे।
दिल्ली सराय रोहिला में एक सिगनेलर हुआ करता था। नाम था प्रभुदयाल। उसका पैट सन्टेंस हुआ करता था ''जो सुख चाहे जान का तो बुद्ध बनके रह।‘‘
बात उस माने में ठीक ही है कि ज्यादा जान लड़ाने पर प्रायः लड़ाई भी हो जाती है।
असली जिंदगी के झमेलों (विसंगतियों) की बात सुन लें तो आगे बढ़ूं। दिल्ली में जिसे मैं पत्नी के रूप में देखने गया था। वह मेरी छोटी आवाज बनी। और जिसे मैं बचपन से बहन मानता था, वह मेरी पत्नी जी यानी कमांडर हो गईं।
रेवाड़ी आकर मैंने अपने अंदर छिपे कुछ कुछ पाप बोध को, अपने भाई साहब (मनोहरलाल) से दबे स्वर में व्यक्त किया, तो उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया कि कुछ भी गलत नहीं हुआ। टेक इट इन ए वैरी ईजी वे। पहले हमें हर लड़की को बहन मां की निगाह से ही देखना सिखाया गया है। भविष्य में क्या होने जा रहा है। कौन कह सकता है। हां एक बात ज़रूर है, इसे अभी से समझ ले तो ज्यादा सुखी रहेगा। तूं अगर यह समझे कि कमला भी तेरी तरह फिलासफी झाड़ेगी या तेरी तरह इंगलिश में फर फर करेगी, तो दुःखी होगा। जानता हूं, तू तो अौर ही तरह की लड़की की तलाश में भटकता था। और अब ? अब की मैंने जवाब कुछ कुछ इस तरह दिया कि मैं मजबूर हो गया था कि शादी करनी ही पड़ेगी। उस तरह की हमसफर नहीं मिल पा रही थी। किसका क्या भरोसा। ऊपर से कोई कुछ दिखे और अंदर से कुछ और ही निकले। धाेखा खा जाऊं। तब सोचा, कमला को फिर भी मैं जानता हूं। है तो नेक लड़की। पूरे कुंबे में मशहूर था कि कमला को दांवपेच नहीं आते। जैसी दिखती है। वैसी ही है। पिताजी कहते हैं। लड़कियों को, ससुराल वालों जैसा बनते, देर नहीं लगती।
- तब ठीक है। ठीक किया। भाई साहब का उत्त्ार था।
लेकिन भरजाई जी (रानी भाभी) भड़क सी उठीं। जब मैंने उन्हें बताया कि कमला के साथ मेरी बात पक्की हो गई है तो पहले मानने से ही इनकार कर दिया। यह कैसे हो सकता है ?
उनका मन्तव्य था-तू कहां ? और मेरी चांद सी सुन्दर बहन कहां। और उन्हें शायद उस टिकट कलैक्टर कमला की याद हो आई जिसके बारे में उनकी पड़ोसिनें मुझको लेकर बेसिर पैर की बातें किया करती थीं कि कहीं यही कमला तो नहीं।
मैंने कहा- हां हां आपकी बहन कमला। तो कुछ कुछ बिगड़ कर पूछा कि हमारी यानी उनकी माताजी ने ऐतराज नहीं िकया। क्योंकि वे अक्सर कहा करती थी कि मैंने नही ंब्याहना अपनी लड़कियों को इन गिट्ठे मुट्ठे (नाटे कद वाले) लड़कों के साथ।
मैं हल्का सा हंस दिया-ऐसी बात मैं क्या यूं ही आपके सामने कर दूंगा।
यकीन तो भाभी साहिबा को करना पड़ा, परन्तु उन्होंने अपने विरोध्ा को गाजि़याबाद तक भी पहुंचाया था। पर अब क्या करतीं। बात तो पक्की हो चुकी थी। पर अपनी बड़ी बहन की बात जान कर कमला को बुरा लगा था। कारण ? सब बाद में कमला ही ने मुझे बताए थे।
एक तो कमला अपनी बहन जी के विचारों को ज्यादा महत्व नहीं देती थीं, क्योंकि वह मैके जाकर मेरी कमियों का बखान करती थीं कि बड़ा शानियर है। मुझसे अपने कपड़े तक धुलवाना चाहता है। अपने आपको बड़ा विद्वान समझता है।
मैं भी तो कई बातों को समझता था। भाई साहब के मुकाबले मेरी पोस्ट कम थी। वे वैगन मूवमेंट इन्स्पैक्टर एक रौबीली पाेस्ट पर थे; जबकि मैं अदना सा तार बाबू, पढ़ाकू था। किताबें मेरे पास बहुत थीं जो एक कमरे की अलमारी में जमा दी थीं। भाभी ने मेरी किताबें वापस उठवा दी थीं कि यहां तो तेरे भाई साहब का सामान रखा जाना है। इससे भी मुझे ठेस पहुंची थी कि मेरे आने से जगह तंग पड़ गई है। बरतन मांजते भी भाभी को एक तरह की घिन्न सी पैदा होती थी। भाई साहब ने कहा था कि सभी अपने अपने बरतन खुद साफ करें। इस विचार को तो मैं आज भी उचित मानता हूं। यदि पुरूष भी घर के कामों में हाथ बंटा दें तो अकेली औरत को किसी कदर राहत महसूस हो। लेकिन सवाल यह था कि मेरे आने से पूर्व यदि यह सिलसिला चल रहा होता तब तो ठीक था। लेकिन क्या मैं घर पर भार बन गया था ? ऐसी ही कुछ अन्य छोटी मोटी वजूहात दर पेश हो रही थीं जिनके रहते मैं अलग रहने लगा था। इसका वर्णन पूर्व में कर अाया हूं। महल्ले और स्टेशन पर इसकी चर्चा होना भारतीय समाज में नितांत आवश्यक समझी जाती है। पर हम दोनों भाइयों ने इन आलोचनाओं की बड़े दिल से उपेक्षा कर दी। घर की बात घर में ही बनी रही। भाई साहब ने कहा-मनमर्जी का मालिक है। मैंने कहा- प्रायः भाई साहब टूर से रात को आते जाते हैं। और मैं भी नाइट ड्यूटी से फारिग होता हूं। या रात को जाता हूं। क्यों भाभी हर रात उठती जागती रहे। यह तो हम असली पहलू से जरा सरक आए।
दूसरे कूछ कारण मेरे साथ कमला के जुड़ने के बने, वह भी कमला ने मुझे शादी के बाद ही बताए थे।
घर में अनपढ़ मां दबंग थी। गोकि पैसा बहुत था लेकिन वह खर्च नहीं करना चाहती थीं। जो थोड़े बड़े घराने के लोग आते थे, अधिक खर्चा कराना चाहते थे। अच्छे दहेज की मांग रखते थे। उन लोगों को यह यह सिरे से खारिज कर देते थे।
कमला बताती है कि मैं जब तब अपने भाई बाप को जगह जगह से निराश लौटते देखती तो एक दिन मैं ही बोल उठी थी कि आप मेरा रिश्ता रानो बहन के देवर के साथ ही कर दें।
चोपड़ा साहब को फौरन बात जच गई। लड़का स्वाभिमानी है। अपने आप वायरलैस अॉपरेटर के पद पर जा पहुंचा है, बिना किसी की सिफारिश के। दूसरा ऊपर से भले ही वे मुझसे नाराज फिर रहे थे, पर अंदर से मेरी पढ़ाई लिखाई, सोचने की शक्ति की कद्र करते थे। खास कर मेरी अंग्रेजी के ज्ञान की। इसके लिए अपने लड़कों को प्रायः डांट सी भी पिलाया करते थे कि तुम लोग क्या सीखे ? उधर दर्शन को देखो उसकी अंग्रेजी, उसके लिखने के ढंग को जरा देखो।
उधर कमला की माताजी भी जो रानो (हमारी भाभी) के द्वारा उनके काम भरने से मुझ से नाराजा थीं। वे भी इस बिना पर मान गईं कि साधारण घराना है। सस्ते में खर्चे से छूट जाएंगे। पैसा बचाना उनका परम उद्देश्य था। मैं तो फिर भी ठीक-ठाक पोजीशन पर था, लेकिन इसी पैसा बचाने के चक्कर में, बाद में उन्होंने कमला की दो छोटी बहनों को मोदी नगर के मामूली फैक्ट्री वाले लड़कों के साथ ब्याह दिया था। हालांकि मैंने और कमला ने भी बीकानेर के अच्छी पोस्टों पर तैनात लड़कों को राजी किया था। चोपड़ा साहब के मुझे थैंक्स के पत्र भी आए थे ''आल क्रैडिट विल गो टू यू‘‘।
(क्रमशः अगले भागों में जारी...)
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