हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : भाग 1

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" ... एक साहित्‍यिक कार्यक्रम में मुझे अघ्‍यक्षता / मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम म...

" ... एक साहित्‍यिक कार्यक्रम में मुझे अघ्‍यक्षता / मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मंच पर नहीं बैठे थे। उन्‍होनें बात-चीत शुरू कर दी- तो आप ही सहगल साहब हैं। आप को लिखने का शौक कब शुरू हुआ। न जानें मुझे क्‍या हुआ। मैं चिढ़ गया। बोला क्‍या यह शौक है ? उन्‍होंने जवाब में वही कहा-हां शौक ही तो होता है। अब की बार मेंने सहज होकर पूछा- क्‍या आप शौकिया सांस लेते हैं। शौकिया खांसते हैं। शौकिया गुस्‍सा होते है। अगर ‘हां‘ तब में भी शौकिया लिखता हूं, वरना लेखन मेरे जीवन का अंग है। कई लोग मुझ से पूछते हैं कि आपने लिखना कब से शुरू किया ? तो मेरा उत्त्‍ार होता है- जब दो साल का था तभी से लिख रहा हूं..." -- इसी संस्मरण से

डगर डगर पर मगर

(आत्‍मकथा)

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हरदर्शन सहगल

बीकोनर-334004 (राज0)

 


समर्पण

सुविख्‍यात लेखक, विचारक

डॉ केशुभाई देसाई को।


थोडा यह भी

कुछ लेखक मित्रों का कहना। आपकी जीवनी को बतौर एक लेखक ही पढ़ा जाएगा। अतः अपने लेखन पर, लेखकों पर, अपनी लेखन प्रक्रिया पर ही लिखो। मेरी सोच। लेखक तो दुनियां में बमुश्‍किल एक प्रतिशत हो सकते हैं। सो सीमित आकार में बंध कर ही क्‍यों लिखूं ? क्‍यों बकाया निनानवे प्रतिशतों को दरकिनार कर दूं ?

मगर = लेकिन। मगर = मगरमच्‍छ, जिन दोनों से हम हर रोज़ दो-चार होते हैं। साहित्‍य की यात्रा भी तो हमें, इन दोनों मगरों के बीच से गुज़रते हुए, अकेले तय करनी होती है। इस में अगर कोई मुफ़ीद या मददगार साबित हो सकता है तो वह हैं हमारा अध्‍ययन, जीवन दृष्‍टि, हमारे निजी अनुभव, मौलिकता, जीवन को निरंतर निकट से, अपने ही दृष्‍टिकोण से देखने-परखने, निष्‍कर्ष निकालने की प्रवृत्ति, Anugulish और Angularity (परिताप-वेदना तथा कोणिकता)।

फिर उनका वही प्रश्‍न या आपत्त्‍ाि। तब यह आत्‍मकथा हुई या चूं चूं का मुरब्‍बा, जिस में संस्‍मरणों जैसे अंश हैं। यात्रा वृतांत हैं। कुछ पुश्‍तैनी दास्‍तां, इतिहास, मज़ाक के पुट, Irony of fate (भाग्‍य की विडम्‍बनाएं ) अपनों ने तथा जि़ंदगी ने जो छल किए-भाई हमने तो हिन्‍दुस्‍तान ही में जन्‍म लिया था, मगर वह पाकिस्‍तान बन गया, जैसी बातें हैं। गोरों की दहशतगर्दी के साथ, उनकी कुछ अच्‍छाइयां जैसे अनुशासन, वक्‍त की पाबंदी, इंसाफ उपकार आदि आदि सब कुछ ही शामिल कर लिया।

संक्षेप में इतना भर कहना यथेष्‍ट होगा कि चुनिंदा यादों जीवन संघर्षों, उपलब्‍धियों, आशाओं, हताशाओं आदि की जानकारियां तथा उन से संबंधित तथ्‍यपरक सूचनाएं प्रस्‍तुत करना भी मेरा विनम्र प्रयास रहा।

विश्‍वास है कि समग्र पाठक यदि इस कृति को इसी परिप्रेक्ष्‍य से देखें/पढ़ेंगे तो उन्‍हें कहीं निराशा नहीं होगी।

पिताजी की उर्दू डायरी, बड़े भाई साहब श्री मनोहर लाल सहगल की बातें, पुत्र चचेरे भाई साहब श्री चरणजीत लाल सहगल के दस्‍तावेज़, सर्वश्रेष्‍ठ समालोचक श्री मधुरेश के पत्र/लेख भी सहायक सिद्ध हुए।

कई कई प्रांतों, शहरों, स्‍टेशनों को जहां जहां मैं गया, रहा, जिन जिन अच्‍छे बुरे लोगों से पाला पड़ा, उन्‍हें भी कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।

श्रीमती कमला (पत्‍नी), लता (छोटी बहू), अजय छोटा पुत्र का सहयोग भी खूब मिलता रहा। बड़े पुत्र विवेक, बड़ी बहू सरोज, पोती गर्विता, पोता वीरेश, पुत्री शिल्‍पी, दामाद अरविंद, दोहिती मोदिका, की इस लेखन में उत्‍सुकता भी काम आई। दोहता जलेश तथा दूसरे बच्‍चे, पूछते रहते हैं; डैडी, आप हर वक्‍त क्‍या लिखते पढ़ते रहते हो। आप को कौन सा एग्‍ज़ॉम्‌ देना है।

नया पोता अभीष्‍ट तो मेरे स्‍टडी रूम को 'खिलौना घर‘ समझता है, जहां ढेरों सुन्‍दर पत्रिकाएं किताबें, चमकीले पेपरवेट टेबल लैंप आदि आदि हैं। इन्‍हें तहस नहस करना उसका बाल-धर्म है।

इसी मनभावन वातावरण में लिखना, तरंगित करता है। थोड़ा थोड़ा कर, काफी हो जाता है।

पहले पड़ोसी मित्र मेजर राजेन्‍द्र सिंह गोदरा ने, मुझे कभी, अपनी जीवनी लिखने के लिए प्रेरित किया था। बहुत बाद में जब प्रतिष्‍ठित लेखक डॉ केशु भाई देसाई से भेंट हुई, पत्राचार, हुआ। फोन पर बातें हुई तो उन्‍होंने मेरे लेखन की भूरि भूरि प्रशंसा कर मेरा उत्‍साह बढ़ाया। जीवनी लिखने को 'मस्‍ट‘ बताया। साथ ही इसे प्रकाशित करवाने का आश्‍वासन भी दिया। मुझे और क्‍या चाहिए था।

श्री यू․सी․ कोचर, डॉ․ राजेन्‍द्र मोहन भटनागर, डॉ․ उमाकांत, श्री बुलाकी शर्मा से भी विचार विमर्श चलता रहा। उन सबके प्रति आभार। डॉ आदर्श सक्‍सेना तो कई बार घर आते रहे। मार्गदर्शन, कर इस कृति में बढ़ चढ़ कर रूचि दिखाते रहे, उन का धन्‍यवाद किन शब्‍दों में करूं․․․․․․।

अंत में, पुत्र अजय के मित्र श्री दिनेश मदान का ढ़ेर सारा आभार व्‍यक्‍त करता हूं; जिन्‍होंने बड़ी दक्षता/रूचि से, इस कृति को समय-सीमा में कम्‍प्‍यूटरीकृत कर, सी․डी․ बनवा कर सहयोग दिया।

शुभम, सर्व को नमन।

- हरदर्शन सहगल

 

भाग 1

मेरा जन्‍म हुआ था। मैं रोया था। रोया ही हूंगा। सब का जन्‍म होता है तो सभी रोते है, तो मैं भी ज़रूर रोया हूंगा। लेकिन मैंने अपना रोना नहीं सुना था। या याद नहीं है-पर मैं उस रोने और अपने होने को हमेशा आज तलक रोता हूं। तड़पता हूं। क्‍या ज़रूरत थी मेरे यहाँ आने की; इस बेहूदगी भरे संसार में जो फालतू की जगों झगडों फ़सादों से भरा पडा है। आदि काल का इतिहास या महाग्रंथ उठा लीजिए, या कि जिन्‍हें हम अपने गौरवशाली गं्रन्‍थ कहते हैं, तमाम के तमाम बेहूदगियों, गंदगियों से भरे पड़े है। जिसे हम रामराज्‍य कहते हैं, उसका भी परोक्ष रूप से मजाक उड़ाते दिखते हैं - अजी फिक्र मत करो। जो मन में आए कर डालो। कौन पूछने वाला है। राम राज है।

गांधीवादी गांधीदर्शन, के जितने गुणगान करते, दुनिया भर में ढि़ंढोरा पीटते फिरे; मगर मजबूरी का नाम महात्‍मा गांधी है; को कहने वालों को, भी, किसने, किस हद तक रोक पाया। हांलाकि लीपा पोती में हम लोग ज़रूर माहिर है। हम लोग धोर आस्‍थावादी हैं। अंध विश्‍वासी भी। अंदर से निहायत कमजोर। हिले हुए। पता नहीं क्‍यों, जब में चंद बरस का रहा हूंगा, कहता आया हूं , जिस चीज़ का हमारे पास कोई भी तर्क-संगत जवाब नहीं होता, उसका नाम ‘भगवान‘ होता है। भगवान जानता है। भगवान की मर्जी। भगवान ही जाने। और जिस भेद को, सिद्धातों, खोजों के आधार पर, वैज्ञानिक, जान लेते है। सिद्ध कर दिखाते हैं। कि ऐसा इस लिए है। इसके पीछे ये कारण हैं िक इसलिए ऐसा होता है। जिस बात, वस्‍तु का प्रमाण हमें मिल जाता है। या हम समझ लेते है, वहां वहां से भगवान, एक कदम पीछे हट जाता है। सच माने, उस उम्र के पहले पहले पड़ावों पर अपने आप को देखता, डरता सा, जीवन के विषय में सोचने लगा था। हैरानगी की सी अनुभूती होती थी, (अब भी होती है) पलकें झपकती हैं। दिल धड़कता है। सांसो का रोह अवरोह चलता हैं। जीवन बीतता है। आशातं; निरन्‍तर अच्‍छे दिनों का इन्‍तज़ार। बड़े होगें तो बड़ों (मां बाप- अध्‍यापकों) के बंधन से मुक्‍ति मिलेगी। और बड़े होंगे तो नौकरी लगेगी। किसी से पैसे, चीज़े मांगनी नहीं पडेंगी। शादी होगी। ठाट से रहेंगे। बड़े से बड़े होते जाते है तो हाय बचपन के वे दिन कितने सुहावने लुभावने थे। ओह जवानी; कोई लोटा दे मेरे लुटे हुए दिन। बीमार पड़ते हैं, तो स्‍वास्‍थ होने का इन्‍तजार। इन इन्‍तजारों की जितनी लंबी सूची मुझ से बनवा लें। इन्‍तजार करते करते जीवन पार बोलता है। कहने को तो कइयों के बारे में कहा जाता है कि वह भरपुर जीवन जिया, लेकिन न जाने कैसे, मैं सोचता, यह बात तो सांसे लेने वालों के लिए कही जा सकती है। लेकिन जो लोग हर वक्त कला में वृद्धि कर रहें होते हैं। वैज्ञानिक , अनुसंधानों द्धारा , मनुष्‍यों जीवजगत के हितों के कार्यां में हरदम व्‍यस्‍त रहते है; उनके लिए, लगता है कि वे एक झलक दिखला कर चले गए। जीवन उनके लिए छोटा पड़ता हैं। वे हमेशा याद किए जाते है। मैं भी कुछ ऐसा बनूंगा / करूंगा।

मगर उम्र के इस पड़ाव पर आ कर, और इससे पहले, बहुत पहले, मैं यह भी मानने - कहने लगा था कि मनुष्‍य कितना भी क्‍यों न जान ले। सिद्ध कर दिखलाए, तब भी अनेकानेक क्‍या असंख्‍य असंख्‍य, जीव-जगत, प्रकृति के अपने सिद्धांतो-नियमों, के तौर तरीके है जो अबूझे ही बने रहते है। भले ही हम उन्‍हें असंगत, तर्कविहीन, गलत कहते रहें, वे अपनी जगह कायम हैं, दरअसल हम उन्‍हें समझ नहीं सकते। वे हमारे अनुभव क्षे़त्र में नहीं आ पाते और शायद कभी समझ में भी नहीं पाएगें। आंस्‍टाइन जैसे विश्‍व प्रसिद्ध वैज्ञानिक भी सब कुछ कहां समझ पाए। अंत में उन्‍होंने भी हाथ खडे़ कर दिए,“ जितना कुछ देखता हूं ; आगे, और आगे, कुछ दिखता है। ऐसी प्राप्‍ति, अबूझ है जो कभी प्राप्‍त नहीं की जा सकती।“

ठीक यही की यही बात अध्‍यात्‍म के स्‍तर पर हमारे ऋषियों मुनियों, या कहें वेदों ने भी कही -नेति। नेति।

तो ऐसे दुरूह विषय पर लिखने मैं बैठ तो गया जो मेरी औकात में नहीं हैं, इस लिए मैं कुछ भी सिलसिलेवार नहीं लिख पाऊंगा। हां कोशिश अवश्‍य करूंगा। शुरूआती दिनों से शुरू करने की औपचारिकताएं भी निभाऊ और आज तल़क का कच्‍चा चिटृा आपके सम्‍मुख अपने हिसाब से हाजि़र कर दूं। यहां कम से कम मुझे इस जहान में भी तो कुछ सिलसिलेवार नहीं लगता - भले ही ऊपर ऊपर से यह सब लगता हो। ऐसा कहां होता है कि इस जहां में जो पहले आता है; बाद में जाएगा। कोई मात्र एक दिन का छह महिने जीकर चल बसता है। तो कोई सौ का आंकड़ा कर लेते है पहली के बाद दूसरी जमात आती है। दूसरी के बाद तीसरी। पर मेरे, और शायद मेरे भाई बहनों के साथ भी, ऐसा हुआ। एक एक क्‍लास पीछे धकेल दिए जाते। मैंनें पेशावर से इंगलिश से पढ़ाई शुरू की। पिताजी का तबादला पंजाब के कि़लाशेखूपुरा जैसे छोटे शहर में हो गया। वहां पढ़ाई उर्दू में थी। लिहाज़ा दूसरी से, फिर पहली क्‍लास में आ गया। जब वहां सातवीं में पढ़ता था, तब पाकिस्‍तान बन गया। कई कई जगहों के चक्‍कर काटते हुए, बरेली (यू․पी․) में आ गया। यहां पर पढ़ाई हिन्‍दी में थी। इसलिए सातवीं के बजाय छठी में बैठा दिया गया। एक साल फेल भी हो गया। तभी ऊपर से आदेश आ गए कि सब विधार्थियों को एक एक क्‍लास ऐसे ही ऊपर की जमाअत में चढ़ा दिया जाए। इस झमेले को आज तक समझ नहीं पाया। ऐसा क्‍योंकर हुआ। फिर भी यह तो हुआ ही बाकी के छात्र मुझ से एक दर्जा ऊपर चले गए।

यह रेलवे विक्‍टोरिया मिडल स्‍कूल था। यानी आठवीं तक। आगे के दो साल डी․ ए․ वी (कालीचरण) में बिताए। साथ ही सटा हुआ, सरस्‍वती हाई स्‍कूल पढ़ता था। वहां के छात्र हमारे डी․ ए․ वी․ हाईर् स्‍कूल के नाम पर हम लोगों को डिब्‍बा स्‍कूल के छात्र, कह कर चिढ़ाते थे। और हम सरस्‍वती हाई स्‍कूल वालों को सडि़यल स्‍कूल वाले कह कह कर चिढ़ाते।

फिर हम में से अधिकांश सडि़यल और डिब्‍बे वाले मिल कर कूदे और बरेली कॉलेज बरेली में जा समाए। मैं हमेशा एक होशियार स्‍टूडेंट माना - समझा जाता था, क्‍योंकि मैं टीचर/प्रोफेसर्ज से खासी बहस कर लिया करता था। अपने तर्क दे दे कर उन्‍हें जैसे हराने पर तुल सा जाता। इसके बावजूद मेरे नम्‍बर कभी अच्‍छे नहीं आते। कारण, मैं हर विषय की किताबों के अलावा, उन्‍हीं विषयों पर लिखी अन्‍य पुस्‍तकें भी पढ़ता। उन पर भी मनन करता। उनसे भी अपने निष्‍कर्ष निकालता। विषय मेरे लिए फैलते चले जाते। मैं कोर्स के हिसाब से टु द प्‍वांइट (सिलसिलेवार) उत्त्‍ार नहीं लिख पाता। अपनी फिलासफी ठूंसता आज भी, (तब से भी) कापी जांचने वाले यही मानदण्‍ड अपनाने को जैसे विवश हैं कि बस वही लिखो जो कोर्स की किताबों से पढ़ाया गया है। सो मैं अच्‍छे नंबरों से पास न हो पाता।

एफ․ ए․ (इन्‍टरमीडियेट) पास करने के बाद, मैं उसी बरेली कॉलेज में बी․ए․ में प्रवेश के लिए फार्म भर रहा था कि पिताजी ने मुझे रोक दिया। वे 55 वर्ष के हो गए थे। उस समय यही रिटायरमेंट ऐज थी। कायदे से आज के बेरोजगारी की भयंकर समस्‍या के चलते, मासूम पढ़े लिखे नौजवानों के मायूस चेहरों को देखकर यही 55 वर्ष आयु तर्क-संगत है। किन्‍तु जैसे कि पहले कहा ः आगे भी सिद्ध करता रहूंगा कि यह मनुष्‍य तो मनुष्‍य का शासन है। ऊपर वाले का भी शासन भी किसी संगति, किसी तर्क के आधार पर नहीं चलता। हजारों विसंगतियों क्रूरताओं से यह जग, भरे पड़े है। जब यह सब है तो मेरी यह जीवन-डायरी भी कैसे सिलसिलेवार चल पाएगी। खैर, हां वचन देने की कोशिश करता हूं कि मेरा यह ऊबड़ खाबड़ वृतांत, जीवन को देखने - परखने निष्‍कर्ष निकालने में रूचिकर लगे। लीजिए यही बिन्‍दु आप से आप बढ़ा चला जा रहा है। श्रीपतराय अपनी ‘कहानी‘ पत्रिका में लासानी संपादकीय लिखा करते थे। बाद में उन संपादकियों की मोटी किताब भी प्रकाशित हुई। लीजिए फिर ‘खैर‘। लगता है यह ‘खैर‘ मेरा पीछा छोड़ने वाले नहीं। बस मैं खैरियत से रहूं। सब बताता चला जाऊंगा। सच सच। अगर उस में झूठ नहीं होगा तो। श्रीपतरायजी ने लिखा था सब को पता है। जीवन निस्‍सार है। बेस्‍वाद बद्‌मज़ा है। दुखों का धर है। आदि आदि। निचोड़ यह कि यह दुनिया रहने लायक नहीं। यह सब सच होते हुए भी हमें तो जीना है। इसी दुनिया में जीना-रहना है। ऐसे में हमें एक सकारात्‍मक सोच को डैवलप (विकसित) करना होगा। कष्‍टों दुःखों में से अपने लिए, अपने धर परिवार समाज के लिए सुखों- खशियों को बटोरना होगा। जीवन जीना, एक कला है। हमें जीने के लिए अपने आपको ट्रेनिंग देनी होगी। यह जानते हुए भी “थोड़ी खुशी है। थोड़ी हंसी है। दुःख जिंदगी में हज़ार। उस थोड़ी हसी खुशी को विस्‍तार देना होगा। अपने लिए, अपने परिवार के लिए यहां तक कि विश्‍व मानव समाज के भले के लिए, उत्‍थान के लिए भी कोई सा मिशन बना कर सबके साथ हिलमिल कर, आम लोगों की अच्‍छाइयों को देख कर, उन्‍हें ग्रहण कर अपने लिए कोई उज्‍जवल भविष्‍य का निर्माण करना होगा। वरना रोते रोते, तिल तिल मरते मरते जिं़दगी गुज़रने का तो कोई अर्थ नहीं। कोई लाभ नहीं। मैंने जीवन में यह भी पाया कि यहां अच्‍छे, मददगार लोगों की संख्‍या बहुत अधिक है, बनिस्‍बत तुच्‍छ लोगों के। यह भी मेरे जीने का आधार बना। मेरी अधिकतर कहानियों के पात्र बहुत उदार, सहृदय, भावुक, वक्त, बेवक्त भी आगे बढ़ कर, दूसरों का भला कर जाते हैं। तब इतनी बड़ी तादाद को छोड़कर, खलनायकों पर क्‍यों लिखूं ?

विचारों के इस जाल में कुछ ज्‍़यादा ही आगे बढ़ आया- यह तो चलते ही रहेंगे ; जीवन के अंश हैं- उसी बिन्‍दु पर लौटता हूं कि पिताजी ने कहा कि मेरे पास तुझे पढ़ाने को अब पैसे कहां से आएंगे। हम लोग अब बरेली छोड़ देंगे (उस ज़मानें में सरकारी कर्मचारियों को पेंशन बिल्‍कुल नहीं मिलती थी ) हम लोगों ने शकूरबस्‍ती में एक बड़ा प्‍लाट खरीद रखा है। वहीं अपना मकान बना कर रहेगें। शकूरबस्‍ती की ज़मीन प्रसंग भी अ़त्‍यंत क्रूर पर रोचक किस्‍सा है। लीजिए पहले वही सुनाए देता हूं। एफ․ ए․ का इम्‍तिहान देने के बाद मैं दिल्‍ली शक्‍ति नगर अपनी सबसे बड़ी बहन सुमित्रा कपूर के यहां चला गया था। और भविष्‍य के सपने देखने- तलाशने लगा - उन्‍हीं दिनों कैंटोनेमेंट में एक महीने के लिए पोल्‍ट्रीफार्म (मुर्गी खाना) का कोर्स चलने वाला था। मैंने वही कोर्स ज्‍वाइन कर लिया। सोचा मकान के पिछले भाग में मुर्गियां पालूंगा। सामने एक छोटा सा तालाब होगा उसमें बतखें तैरती होंगी। सामने मैं फोल्‍डिंग चेयर पर बैठा किताब पढ़ता रहूंगा। साथ ही मुर्गियों, अंडो की देखभाल करता रहूंगा। पोल्‍ट्री फार्म आफिसर एक भले सरदारजी थे। जो मुझे एक होशियार स्‍टूडेंट और और छोटे बच्‍चे के समान मानते थे, उन्‍होंने मुझे पूरा आश्‍वासन दे रखा था कि बिक्री (मार्किटिंग) की चिंता तुम्‍हें करने की ज़रूरत नहीं हैं। मैं हफ्‍ते चार रोज़ से आया करूंगा। जितना माल होगा, उठवा लूंगा। और तुम्‍हारे पोल्‍ट्रीफार्म की देखभाल भी कर जाया करूंगा। मेरे पास पोल्‍ट्रीफार्म का डि्‌प्‍लोमा भी है कुछ साहित्‍यिक-मित्र कहते हैं आपको आपने साहित्‍यिक बायोडाटा में इसका भी उल्‍लेख करना चाहिए। कुछ भी हो है तो क्‍वालिफिकेशन ही। मैं जवाब देता हूं ऐसे तो मेरा बक्‍सा सर्टिफीकेटों से भरा पडा है जैसे अच्‍छी बंदूक चलाने का सर्टिफीकेट। स्‍काउटिंग के, फर्स्‍ट एड, बालीबाल की कप्‍टनी के आदि आदि। मुझे सर्टिफीकेटस्‌ इक्‍ट्ठा करने का शौक रहा है। यहां भी बताता चलूं कि साहित्‍य मेरा शौक नहीं है। एक धटना से आप इसे जान जाएंगे। एक साहित्‍यिक कार्यक्रम में मुझे अघ्‍यक्षता / मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मंच पर नहीं बैठे थे। उन्‍होनें बात-चीत शुरू कर दी- तो आप ही सहगल साहब हैं। आप को लिखने का शौक कब शुरू हुआ। न जानें मुझे क्‍या हुआ। मैं चिढ़ गया। बोला क्‍या यह शौक है ? उन्‍होंने जवाब में वही कहा-हां शौक ही तो होता है। अब की बार मेंने सहज होकर पूछा- क्‍या आप शौकिया सांस लेते हैं। शौकिया खांसते हैं। शौकिया गुस्‍सा होते है। अगर ‘हां‘ तब में भी शौकिया लिखता हूं, वरना लेखन मेरे जीवन का अंग है। कई लोग मुझ से पूछते हैं कि आपने लिखना कब से शुरू किया ? तो मेरा उत्त्‍ार होता है- जब दो साल का था तभी से लिख रहा हूं। अबोध अवस्‍था में था तब जैसा कि बड़े लोग बच्‍चों से अक्‍सर पूछा करते हैं कि तुम बड़े होकर क्‍या बनोगे। न जाने क्‍यों, दुनिया को जरा सा भी न जानते हुए भी मेरे मुंह से आप से आप निकल गया- कवि। थोड़ा बड़ा हुआ फोटोग्राफी का शौक पैदा हुआ। पहला धरेलू एलबम बनाया तो पहले ही पृष्‍ठ पर गुरूदेव रविन्‍द्रनाथ ठाकुर का फोटो चिपकाया था। दरअसल मैं यह मानने लगा हूं कि कोई अदृश्‍य शक्ति ही हमें बहुत ही सूक्ष्‍म ढ़ग से संचालित करती रहती है। प्रारम्‍भ से अंत तक। इस तथ्‍य के उदाहरण बाद में दे पाऊंगा।

पहले प्रसंग को, पहले कह डालूं। यहीं भाग्‍य की विडम्‍बना भी दिखने लगेगी। दूसरा विकल्‍प, जो मुझे अपनी जिंगदी के लिए बहुत आकर्षक लगता था। किताबों की बड़ी दुकान खोलना। बचपन से ही मुझे पढ़ने में बेहद रूचि थी ः घर वालों की नज़र में शौक। पर मैं इसे पढ़ने की प्रवृत्त्‍ाि पाता हूं। मैं चाहता था (इसे जवानी का बचपना भी कह सकते हैं) कि दुनिया भर की पुस्‍तकें पढ़ डालूं। मैंने एक लंबी लिस्‍ट बना डाली थी कि मुझे इन इन किताबों को, इन इन लेखकों को पढ़ना है। ऐसी विश्‍व विख्‍यात पुस्‍तकों को अपनी दुकान में रखूं। जो जो ग्राहक खरीदने आएं, उसे भी बता सकूं कि इस पुस्‍तक में क्‍या है। इसे पढ़ने में आपको क्‍या-क्‍या मिलेगा। क्‍या-क्‍या कितना लाभ होगा। बेरोज़गारी के उस दौर में मैं बसों, ट्रामों में घूमता और भूखा रहकर एक साथ कई किताबें खरीद लेता। सोचता। खया हुआ खाना तो नष्‍ट हो जाएगा। किंतु किताब ताजि़ंदगी मेरे पास रहेगी। ऐसा, आज अपने छोटे से पुस्‍तक भण्‍डार को देखकर, उसी सचाई से रू-ब-रू होता हूं। पुलकित भी। इधर भी किताबें, उधर भी किताबें। चारों तरफ जगह-जगह मनमोहक किताबें बायकादा नंबर की हुई। रजिस्‍टर में चढ़ी हुई। जिन घरों में देखने पढ़ने को किताब नहीं मिलती, उन घरों की तमाम साज-सज्‍जा की, सुविधाओं के तमाम असबाब होने के बावजूद, न जाने क्‍यों मुझे सूना सूना लगता है।

असली बात बार-बार पीछे छूटती है। लंबी जि़ंदगी में होता ही यही है। बातें ही बातें। ढेरों ढेरों घटनाएं। अपने, दूसरों के विचारों का अंबार जो एक दूसरे पर हावी होकर, झपट कर खुद आगे आ धमकने की शरारत चालाकी करते हैं।

हां तो जब मैं दुकानदारों से एक साथ कई किताबें खरीद लेता तो दुकानदार पूछता-बेटे क्‍या तुम किसी पुस्‍तकालय, या स्‍कूल के िलए ये सब किताबें खरीद रहे हो ? मैं भोलेपन और उत्‍साह मिश्रित स्‍वर मं उत्त्‍ार देता- नहीं जी ! मैं खूब साहित्‍य पढ़ना चाहता हूं। ढेरों किताबें इकट्‌ठी करूंगा। फिर आप ही की तरह पुस्‍तकों की दुकान चलाऊंगा। (मुंशीराम की दुकान आज भी नई सड़क पर भूले नहीं भूलती। पटरियों पर बिखरी हज़ारों किताबें तो आज भी रोमांचित करती है)

खास तौर से छोटे दुकानदार मुझे नादान समझ कर समझाते बच्‍चे ! यह भूल मत करना। तुम जैसे ग्राहक तो हज़ारों में से चंद होते हैं। वरना किताबें लाइब्रेरियों, स्‍कूलों, कॉलेजों का हम लोग सपलाई करते हैं। बड़ी मुश्‍किल से आर्डर प्राप्‍त करते हैं। मारामारी है। होड़ है। कौन दुकानदार बाजी मार ले जाए। इसलिए तुम्‍हें नेक सलाह देते हैं। यह धंधा मत करना। कहीं नौकरी की तलाश करो। अप्रोच लड़ाओ। पैसा चढ़ाओं। कहां तक पढ़े हो।

नेक सलाह तो नेक सलाह ही होती है। दूसरी तरफ अपने पूज्‍य प्रो․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल बरेली कॉलेज, बरेली के शब्‍द दिमाग में झनझनाहट पैदा करते - दुनिया में सबसे निकृष्‍ट पेशा है, भीख मांग कर गुजारा करना। इसके बाद निकृष्‍ट पेशा नौकरी को बताया करते। कहते नौकरी करने से आत्‍मा का हनन होता है।

तब ठीक है। किताबों की दुकान नहीं खोलूंगा। पोल्‍ट्री फार्म ही की योजना सही है।

अब भाग्‍य की विडंबना और संयोग का रिश्‍ता। हमारा परिवार शकूर बस्‍ती में अपने खरीदे प्‍लाट के बिलुकुल करीब किसी किराए के मकान में डेरा डाले हुए था। पिताजी को हर महीने का किराया बुरी तरह से चुभता था। अपना मकान, तामीर करने के लिए कुछ औपचारिकताएं आदि चल रही थीं। अंततः जब मकान बनवाने के लिए मज़दूर औज़ार लेकर आए। ज़मीन को समतल करने लगे तो कोई जनाब आ हाजि़र हुए - यह तो मेरी ज़मीन है। कहो, तो रजिस्‍ट्री पेपर लाकर दिखला दूं। पिताजी ने प्रतिवाद किया। रजिस्‍ट्री मेरे नाम से है। यह देखिए सारे कागज़ात।

खैर अभी आप काम रोकिए। फैसला हो जाएगा। उसने धमकाना शुरू कर दिया। झगड़ा होते देख माता जी रसोई से बाहर आ गई। बोलीं दोनों सभ्‍य इज्‍जतदार आदमी हो। दोनोें जाकर प्रापरटी डीलर के पास चले जाओ। और फैसला हो जाएगा। लगता है, उससे कोई गलती हुई है। जिसकी ज़मीन नहीं होगी, उसे दूसरी कोई ज़मीन दे देगा।

- ठीक है, वह आदमी बोला, फिलहाल तामीर का काम रोक दीजिए।

- ठीक है। क्‍या फर्क पड़ता है। कल ही सही। माता जी ने हस्‍तक्ष्‍ोप किया। कल सुबह-सुबह दोनों डीलर की दुकान पर चले जाना। मैं भी साथ था। बड़े भाई साहब भी।

दुकान क्‍या थी, आलीशान सुसज्‍जित स्‍टाफ़ से भरपूर मेन रोड पर स्‍थित बड़ा बंगला सा था। मालिक और कर्मचारी दस बजे आते थे। टाई-बैल्‍ट पहने मालिक कार में आता था। उस ज़माने में कार और मेज़ फोनों से सजी हुई।

मगर दस बजे से पहले ही हमारे इस किराए के घर में एक और महाशय धोती कुर्त्त्‍ाा पहने तशरीफ ले आए- ज़मीन मेरी है।

माथा उनका। फिर पता चला। यह एक ही प्‍लाट पांच जनों के नाम रजिस्‍टर्ड था। और बहुत से लोग भी ऐसे घपलों में ठगे जा चुके हैं।

पिताजी मैं और बड़े भाई साहब उस निहायत दिखने वाले शरीफ, बदमाश के यहां पहुंचे। उसने बड़ी शालीनता से हमें बिठाया। पानी मंगवाया। ऐसी कोई बात नहीं। आप निश्‍चिंत होकर घर जाएं। आपका पता ठिकाना तो मेरे पास लिखा ही हुआ है। पूरे केस का पता लगाऊंगा। जिस स्‍टाफ़ वाले ने यह गलती की है, उसे निकाल दूंगा। पर ये बेचारे भी क्‍या करें। बिजनेस बहुत फैला हुआ है। ऐसी गड़बडि़यां अक्‍सर हो जाती हैं। या तो आपका पूरा पैसा वापस मिल जाएगा या अगर आप चाहेंगे तो दूसरा जो भी प्‍लाट आपको ठीक लगे, वही आपके नाम काट दूंगा। बस दो चार दिन इंतज़ार करने की मेहरबानी करें। तकलीफ के लिए माफी चाहता हूं।

'आदमी ही आदमी पर विश्‍वास करता है‘ की थ्‍योरी पर पिताजी हम दोनों भाइयों को लेकर वापस आ गए। देखा जाए तो पिताजी इतने नादान तो नहीं थे। जमाना, नहीं हर तरह के ज़माने देखे हुए थे। वे मेरे मास्‍टर-सेंटीमेंट (सर्वश्रेष्‍ठ आदर्श) थे। बचपन, उनका जितना संघर्षों से भरा था, उतना ही कलाकारिता से। उनके गले में गज़ब का जादू था। आज मैं जब तब रफ़ी और मुकेश के गाने सुनता हूं तो मुझे पिताजी की आवाज उन दोनों के बीच की आवाज लगती है। से․ रा․ यात्री उनसे बहुत घुल मिल जाते थे। उनसे उनके संस्‍करण सुनते थे। 25 वर्ष तक लगातार उन्‍होंने स्‍टेज पर लक्ष्‍मण का अभिनव किया था। डॉ․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल अध्‍यक्ष हिन्‍दी विभाग मेरठ कॉलेज, मेरठ भी उनकी उदार वृति की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।

उनके बड़े भाई लाला पोखरदास एयाश किस्‍म के इंसान थे। करोड़ लालीसन गांव तहसील लैय्‍या (यहीं की लेखिका लबलीन के दादा दादी थे) जि़ल्‍ला मुज़फरगढ़ था। हमारे दो बड़े-बड़े पुश्‍तैनी मकान करोड़ लाली सन में थे। एक पर लाल पोखर दास जी ने पूरा कब्‍जा कर रखा था। दूसरे मकान को भी अपना ही कहते थे। कहते-यह तुम दोनों भाइयों (पिताजी श्री जेसूलाल सहगल तथा चाचा जी मास्‍टर टहलराम सहगल) मुझे इतनी रकम चुकाओ तब। एक साथ नहीं चुका सकते तो किस्‍तों में ही देते रहो। सो तब भी पिताजी ने उन्‍हें पितातुल्‍य आदर दिया। उनकी उर्दू डायरी आज भी यदा कदा पढ़ता हूं तो जैसे रोंगटे खड़े हो जाते। उन्‍हें रेलवे में टिकट कलैक्‍टर की नौकरी मिली थी। पहली तन्‍ख्‍वाह 33 रूपए, दूसरी 39 रूपए मिलनी शुरू हो गई थी। छह रूपए खुद अपने परिवार के लिए रखकर बाकी बड़े भाई साहब को भेज दिया करते थे। मेरी माता जी (श्रीमती जमना सहगल) बताया करतीं हम लोग बाऊजी की वर्दी को काट-छांट कर अपने कपड़े सिलकर किसी तरह गुजारा किया करते थे।

पिताजी का अभिनय थोड़ा-थोड़ा मुझे भी याद आता है। जब लक्ष्‍मण बेहोश हो जाता तो मैं सहम जाता था लगभग रोने की मुद्रा में। बाकी बहुत सी बातें माताजी बड़ी बहनजी भाई साहब से सुनी हैं। एक रोचक प्रसंग तो भूले नहीं भूलता कि उनका अपहरण हो गया था। घर वाले बुरी तरह से आहत परेशान। फिर किसी ने कोटअद्‌दू या कोटलाजाम से आकर बताया कि मैंने खुद वहां जैसूलाल को ड्रामे में पार्ट करते देखा है। (मुद्‌दा यह था कि करोड़ लालीसन नाटक मंडली की ही तरह हमारे शहर का भी नाम हो)

पिताजी बताया करते थे कि लंबी सैर को कभी सुबह तो कभी शाम को अपनी मित्र मंडली के साथ रेतीले इलाके को पार कर, नदी की तरफ जाया करते थे तो बड़े-बूढ़े कहते थे कि जेसूलाल आजकल रामलीला खेल रहे हो। पिजाजी कहते-हां पर बाबाजी आप लोग तो आते नहीं। अब इतनी दूर कैसे आ सकते हैं। उन दिनों तांगा रिक्‍शा का ज़माना नहीं था (कार की तो कल्‍पना में नहीं हो सकती थी। कुछ अमीरजादे घोड़ों का इस्‍तेमाल करते थे। साईकिल भी किसी के यहां नहीं होती थी) आ नहीं सकते पर हां तुम लोगों की आवाज तुम्‍हारे गाने जरूर सुनाई दे जाते हैं। लाउड स्‍पीकर भी कहां थे। सब लोग दबंग आवाज से 'संवाद‘ बोलते थे गाने गाते-बजाते थे कि हवा की लहरियां रेतीले टीबाें पर से गुजरती गूंजती दूर तलक पहुंचती थीं।

यह तो पिताजी के जीवन से कुछ अंश हैं। आगे भी आते रहेंगे। पर ऐसे अंशों का प्रभाव किसी बड़ी हद तक मेरे जीवन पर छाया रहा है। उनके पास अपना ग्रामोफोन तथा हरमोनियम था। जो पाकिस्‍तान बनने के बाद वहीं छूट गए। छूट तो सब कुछ ही गया था। तीन तीन मकानों का मुकम्‍मल असबाब, हिन्‍दुस्‍तान कहां लाए थे। मशहूर है। अधिकांश लोग सिर्फ तीन कपड़ों में ही आ पाए थे। पर उन्‍हें (पिता जी को) ग्रामोफोन, हरमोनियम के छूट जाने का ग़म बहुत समय तक सालता रहा। बहुत-बहुत बाद में उन्‍होंने बरेली आकर किसी तरीके से फिर से खरीदे। वे चाय के भी शौकीन थे (मैं भी हूं। मैंने तो 32, 32 कप भी रेवाड़ी रहकर एक दिन में पिये हैं। चाय से मुझे बहुत ऊर्जा मस्‍ती मिलती है। पिताजी का स्‍टोव भी निहायत चमकीला पीतल का था। वह रूई में स्‍प्रिट डालकर पहले उसे गरम करते थे। हर चीज़ का रख-रखाव लाजवाब था। यही संस्‍कार मुझमें पड़े। मेरे मित्र जानते हैं। मेरी पुस्‍तकें कैसिट्‌स और दीगर सामान बिलकुल पूरी तरह व्‍यवस्‍थित रहता है। हर चीज, फौरन अंधेरे में भी हाथ लगाते ही मिल जाती है। बचपन में मैं भी अच्‍छा गा लेता था। बाद में आवाज़ फट गई। पिताजी की आवाज़ अंत समय तक- बीमारी के दिनों को छोड़ कर दुरूस्‍त रही। वे अस्‍थमा के मरीज़ हो गए थे। हां दो चीजें मैं उनसे नहीं सीख पाया। वे जिस जिस प्रांत अंचल में भी ट्रांसफर होकर गए, वहां की बोली फौरन सीख गए जैसे पश्‍तो सिंध्‍ाी आदि वे किसी भी आदमी के बोलने के ढंग को सुनकर बता देते थे कि कहां से बिलांग (निवासी) करता है। लेकिन इस मामले में मैं निहायत फिसड्‌डी हूं। किसी को ठीक से नहीं पहचान पाता। कक्षा में भी जब सत्र खत्‍म होने को होता तभी डिस्‍टिंक्‍ट (सुनिश्‍चित) कर पाता। यह लड़का यह है। यह वाला यह। खासमखास दोस्‍तों या हर रोज मिलने वालों को छोड़ कर। दूसरा मैं रास्‍ते कभी याद नहीं रख पाता। यहां तक कि अपने ब्‍लाक की बजाए दूसरे ब्‍लाक में घुस जाता हूं, जहां मेरा घर नहीं होता। माथा पकड़ लेता हूं। बाकी मेरी स्‍मृति बहुत शानदार है। दोे तीन साल की उम्र से लेकर मौजूदा दौर की घटनाएं, किसी के कहने का स्‍टाइल, उसके वाक्‍य, पढ़ा हुआ भी मेरे मन-संसार में हर समय अंकित रहता है। एक बात के साथ दूसरी बात लिंक करती चली जाती है। लंबी हांकता हूं तो कुछ गंभीर प्रकृति वाले जरूर बोर होते होंगे। मेरे पास बातों का, स्‍मृतियों का ख़ज़ाना है। लोगों के पोज़, लोगों की आवाज, गाने, उनका संगीत हमेशा मन मस्‍तिष्‍क में गूंजता रहता है। टीचर्ज़ प्रोफेसरों के, पढ़ाने-समझाने के स्‍टाइल, के नक्‍शे दिमाग में बने हुए हैं। कोर्स की किताबें। अपने बनाए हुए नोट्‌स। दार्शनिकों विचारकों के कोटेशन्‌स सहसा कौंध जाते हैं। एक छोटा सा उदाहरण। छोटा बेटा अजय बाज़ार जा रहा था। पूछा क्‍या काम है। बोला- सोहनलाल द्विवेदी की किताब लानी है। मैंने कहा- एक मिनट रूको। छत वाले कमरे में गया। किताब मेरे हाथ में थी - यह लो। यह हमारे भी कार्स में थी। मैं यहां कोई डींग नहीं मार रहा। यह सब सहज, प्रकृतिजन्‍य है।

एक छात्रा (सुमन चौधरी) मेरी कहानियों हेतु शोध हेतु आई। मैंने पूछा- तुमने और किन-किन कहानीकारों को पढ़ रखा है। ''प्रेमचंद‘‘ उसने उत्त्‍ार दिया। और ? मैंने पूछा तो अटक गई और अटकी ही रही। तब मैंने उसे (व्‍यंग्‍य में) समझाया कि हिन्‍दी में मात्र दो ही कहानकार हुए हैं। एक प्रेमचंद, दूसरा हरदर्शन सहगल। बीच में कोई हुआ ही नहीं। यह सब कहकर मैं किसी पर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगा रहा। कहने का तात्‍पर्य यही है कि किसी की भी रूिच-प्रकृति एक समान नहीं हुआ करती। ज्‍़यादातर लोग तो सिर्फ डिग्रियां लेने के लिए ही पढ़ते हैं। उन्‍होंने सब लेखकों को पढ़ तो रखा होता है, पर मतलब निकल जाने के बाद, अपने दिमाग को चिकना सपाट कर लेते हैं- काहे का बोझा ढोएं।

मुझे या मेरे जैसों को सारी उत्‍कृष्‍ट कृतियों के वाक्‍य, अंश कथ्‍य, क्‍यों याद रहते हैं ? जिनकी जिन विषयों में स्‍वाभाविक रूचि होती है, वे उनको कभी भूल नहीं पाते।

जानता हूं मुझे यहां अपने जीवन उसकी घटनाओं के बारे में बताना है। पर करूं क्‍या जीवन को हर छोटी से छोटी घटना के साथ विचार इस तरह से गुत्‍थे हुए हैं कि विचार घटनाओं पर हावी हो जाते हैं।

मैं तो यही बता रहा था कि पिताजी के व्‍यक्‍तित्‍व का प्रभाव मुझ पर किस तरह से पड़ा। बचपन से ही वे समझाया करते थे। हमेशा विनम्रता से काम लो। ईश्‍वर ने हमें विनम्रता की बहुत बड़ी कुंजी दी है। इससे बड़ी से बड़ी समस्‍याओं के हल निकल जाते हैं। फिर भी अगर बार बार समझाने पर कोई काबू में न आए अपना प्रभुत्‍व दिखाने के लिए हम/तुम पर हावी होने की कोशिश करे तो सख्‍ती से काम लो। किसी से दबो नहीं। किसी लड़के को पहले मारो नहीं। अगर वह पहले मारे तो मार खाकर घर नहीं आओ।

दूसरी बात जो आज तक भी मुझ में है, अगर कोई मेरी किताबें या पैसे मारने की कोशिश करे तो मुझ में बेहद बेचैनी बढ़ जाती है। जब मैं किसी की ज़रा सी चीज, जब तक कि उसको लौटाऊं नहीं, बेचैन बना रहता हूं ; तब कोई क्‍यों मेरा पैसा मारे। पैसा मारने से अधिक परेशानी इस बात की है कि मुझे रात दिन रह रहकर लगता है कि अगले ने मुझे चीट किया। धोखा दिया। मेरा अंतर्मन इसे कतई बरदाश्‍त नहीं कर पाता। बचपन में एक लड़के ने मुझसे एक आना उधार लिया था। लौटाना नहीं चाहता था। उस एक आने पर, दे तकाजे पर तकाजा। लेकर ही रहा। ऐसी अनेक घटनाओं की सूची है, जब किसी पर तरस खाकर, वक्‍त जरूरत उसे छोटी बड़ी रकमें दीं। उसके मन में बेईमानी आ गई, तो बिना मारपीट के अपना पैसा लेकर छोड़ा। हां जिनको असमर्थ जाना उन्‍हें कुछ नहीं कहा। जाने दिया। और ऐसा करने से खुशी हासिल की।

मगर यहां तो बात बहुत अमीर बड़ी कंपनी की थी जो शानदार शरीफाना सूट बूट, बैल्‍ट पहने/लगाए हुए थे। ऊपर से 'जी जी‘ 'सर सर‘ की रट लगाए, अपनी असमर्थता का ढ़ोंग रचे हुए थे ''अभी मुश्‍किल दौर से गुजर रहे हैं। जैसे ही पैसा आया। आपको लौटाया। फिर मुझसे पूछते आपको पैसा वापस चाहिए या कोई सा दूसरा प्‍लाट दे दें। जो भी आप पसंद करें। मैं कहता- मुझे पैसा चाहिए।

- तो यह लो बरखुर्दार। फैल्‍ट वाला मालिक मुंह में सिगार दबाए, पचास रूपए पकड़ा देता- अभी यह रखो। थोड़ी थोड़ी किस्‍तों में दे देंगे। बेटे अभी घर जाओ। अंधेरा होने वाला है। तुम्‍हारे घर वाले चिंता करेंगे।

- ऐसे तो पचास सो-सौ रूपयों से कई साल लग जाएंगे। ऐसे कई दौर चले। मैं पचास या सौ रूपए लेकर लंबी दुकान के मुख्‍य द्वार के बैंच पर जा बैठता। जो भी नया ग्राहक प्रवेश करता उसे पहले अपने पास बैठा लेता। उसे बताता। यहां सौदा मत करो बड़ी बेईमान ठग कंपनी है।

मालिक मुझे अपने पास बुलाता-काके! (पंजाबी में छोटे बच्‍चों को काका कहते हैं) तूने अपना पैसा लेना है या नहीं। पैसे लेने के लिए ही तो हर दूसरे तीसरे रोज बसों का किराया ख्‍ार्च कर करके आपके चक्‍कर काट रहा हूं। मुझे मेरा पैसा चाहिए।

वह मेरे कंधे थपथपाता-तुम तो हमारे ग्राहकों को दूर भगा देते हो। ज़रा ठंडे दिमाग से सोचो। अगर हम इन नए लोगों से पैसा नहीं लेंगे तो तुम्‍हें लौटाएंगे कैसे ?

कई बार मैं धरने पर बैठ जाता। अंधेरा हो जाता। बसें लगभग बंद हो जातीं। वह आग्रह करता। मैं उसी की कार में बैठ जाता।

घर वाले चिंता में होते। भाई साहब डांटते-बेवकूफ। एक तो उनसे लड़ता है। दूसरा उन्‍हीें की कार में बैठकर आता है।

माता जी कहतीं- मारो गोली। कल को अगर तुम्‍हारे साथ कुछ हो हवा गया तो․․․․․․ पाकिस्‍तान में भी सब कुछ लुट गया। क्‍या कर लिया हमने। औलाद को बचा लाई हूं। मुझे पैसा नहीं चाहिए एक कड़वा घूंट और पी लेंगे।

वह एक अलहदा वाक्‍या था। भूकंप बाढ़ें युद्ध भी तो मिनटों में सब कुछ बरबाद करके रख देते हैं। देखना मैं इस कमीने से पैसा लेकर ही दिखाऊंगा।

बसों में ट्रामों के बेशुमार पैसे खर्च हुए। उसने भी कुछ सैद्धांतिक तर्क देते हुए कुछ कटोती कर, धीरे-धीरे पैसे वापस कर दिए। मैं उसके ग्राहक जो तोड़ने में लगा था।

पैसा वापस लेने के अलावा और भी कई घटनाओं का जीवन में पुलिंदा है। रोचक भी हैं। पर अनावश्‍यक विस्‍तार से बचने के लिए, बस मुख्‍य विषय पर आता हूं कि शकूरबस्‍ती छोड़कर हमने गाजि़याबाद में स्‍टेशन के नजदीक आर्यनगर में एक छोटा सा मकान बना लिया था।

मुख्‍य विषय यही है कि किताबों की दुकान या मुर्गीखाने की मेरी योजनाएं ध्‍वस्‍त हो चुकी थीं। अब मैं क्‍या करूं ? हाय पोयल्‍ट्री फार्म (मुर्गी खाना) अरमानों का मखौल। फिर से थोड़ा वापस लौटता हूं। पोयल्‍ट्री फार्म की योजना क्‍या ध्‍वस्‍त हुई गोकि मेरे सपनों के महल ढह गए। सारे, दिल के अरमान एकाएक छू-मंत्र।

कितनी मुश्‍किल से तो यह ट्रेनिंग पूरी की थी। सर्टिफीकेट हासिल किया था।

उस वक्‍त के, अपने और दिल्‍ली के हालात पर नज़र डालता हूं। आह क्‍या जमाना था। पूरे अठारह मील (अब जैसे विश्‍वास ही नहीं होता) शक्‍तिनगर से दिल्‍ली कैंट हर शाम किराए की खटारा साइकिल लेकर जाता आता। तपते दिन अप्रैल 1955 के। रास्‍तों में कई रेलवे पुल पड़ते। कुछ मज़दूर, मजबूर लड़के दो पैसे एक आना लेकर आप लोगों की साइकिलें पुल पर चढ़ा कर पार करा देते। हर पड़ाव पर गन्‍ने के रस के रेढ़े होते। अगर जेब में पूरे पैसे होते तो दो पैसे, एक आने में इसका गलास पीकर गला तर करते जाता। पटरियों पर पुरानी पत्रिकाएं किताबें भी बिछी होतीं। मैं प्रायः वहां भी रूक जाता। कभी कुछ खरीद भी लेता। एक बार जाती बार, पुलिस ने रोक लिया। साईकिल का लाइसेंस-दो रूपया महीना वाला टोकन नहीं था। या तो जुर्माना भरो। या फिर साईकिल जमा करा दो। कल थाने से, आकर पैसा जमा कराकर ले लेना। मैंने कहा किराए की साइकिल है। तो ठीक है छोड़ जाओ। वापस साइकिल वाले के पास जाकर खूब लड़ा। तुम पैसे जमा कराकर जुर्माने के पैसे भर देते तो क्‍या मैं तुम्‍हें पैसे नहीं देता। मानता हूं दे देते पर तुमने गोवर्नमेंट के साथ और मेरे साथ भी धोखा किया है। अब भुगतो। मेरी आज की पढ़ाई का जो हर्जा हुआ है, उसका भी हर्जाना मुझे दो। तो यह भी अन्‍याय को न सह पाने की लड़कपन वाली अपनी प्रवृति। ट्रामे उस ज़माने में चलती थीं। साईकिल के पहिए लाइनों में फंस जाते। साइकिल पर बैठे बैठे उसी जोशोखरोश से झटके देकर निकाल लेते। उस वक्‍त भी अमीरी फैशन की शान वाली दिल्‍ली भी थी। औरतें, लड़कियां बन ठन कर हमारे साथ कोर्स कर रही थीं। मैं भी गर्मियों के पसीने की परवाह न करके टाई बांधकर ही जाता था। एक बार सुनसान डगर पर मैंने कार के किनारे खड़े युग्‍ल को किस करते देखा था। इस दृश्‍य से कई रोज तक उत्त्‍ाेजित होता रहा। एक बार बीच रास्‍ते भयंकर आंधी आ गई थी। लोगों की फैल्‍टें उड़ गई थीं। साइकिलें आस-पास के गढ्‌ढों में जा गिरी थी। बाद में इन स्‍थितियों पर भी कहानियां लिखीं।

मैं बरेली में अपने परम श्रद्धेय प्रो․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल से मिला था। उन्‍होंने कहा- तुम बी․ए․ की पढ़ाई जारी रखो। तुम्‍हारे पिताजी अगर तुम्‍हें आगे नहीं पढ़ा सकते। गाजियाबाद चले गए हैं तो कोई बात नहीं। तुम एक होशियार होनहार छात्र हो। आगे चलकर तुम एक अच्‍छे साहित्‍यकार ज़रूर बनोगे (मैं उन्‍हें अपनी लिखी हुई कुछ कच्‍ची पक्‍की कहानियां सुनाया करता था। और वे कहते थे- तुम में नॉवल्‍टी है मौलिकता है। एक ही बात को अनेक तरीकोें से कहने की क्षमता है। तो तुम यहीं रह जाओ फीस में रिआयत करवा दूंगा। दो चार ट्‌यूश्‍ाने दिलवा दूंगा। किराए के छोटे कमरे में रहने लगना। मगर जब मैंने उन्‍हें यह बताया कि मुझे बड़ी आसानी से रेलवे की नौकरी मिल जाएगी। मिल तो सकती है पर मैं सोचता हूं․․․․ इससे पहले कि मैं आगे के शब्‍द कहता, उन्‍होंने कहा यही कि तुम आगे पढ़ना चाहते हो। लोग पढ़ते हैं। नौकरी पाने के लिए। मैं अच्‍छी तरह से जानता हूं अगर अस्‍सी प्रतिशत छात्र जो कॉलेजों में पढ़ाई कर रहे हैं, उन्‍हें आज नौकरी मिल जाए तो वे फौरन कॉलेज छोड़ कर भाग खड़े हों। जानता हूं तुम एक मेघाई विचारशील ज्ञान प्राप्‍त करने को निरंतर उत्‍सुक लड़के हो। हो सकता है कि तुम एम․ए․, डब्‍बल एम․ए․ करने के बाद भी नौकरी के लिए भटकते फिरो। आज सर्विस मिलती है तो ले लो। बी․ए․ एम․ए․ बाद में प्राईवेट करते रहना।

ऐसा भाषण सुनकर मैं थोड़ी देर के लिए भौचका सा रहा गया। यह सब वहीं प्रोफेसर साहब कह रहे हैं जो यह बताया करते थे कि दुनिया में आजीविका के लिए सबसे निकृष्‍ट धंधा भीख मांग कर जीना है और उसके बाद नौकरी करना। क्‍योंकि नौकरी करने से आत्‍मा का हनन होता है।

लेकिन फौरन समझ गया कि पुस्‍तकों में लिखी गई बातें प्रवचनों में कहे गए सत्‍य अपनी जगह हैं। सिद्धांत की बातें हैं। इन्‍हें तर्कों से उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है किंतु व्‍यावहारिक जीवन कुछ और ही होता है। यह सब कहने वाले प्रोफेसर साहब स्‍वयं भी तो नौकरी कर रहे हैं

बहुत ही सारांश में अपने श्रद्धेय प्रोफेसर साहब के विषय में बताता चलूं। फिर आगे बढ़ें। प्रोफेसर रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल बहुत ही बड़े विद्वान, किताबों-किताबों से, हर वक्‍त चिपटे रहने वाले; मेरी नजर में तो महामानव थे। अंग्रेजी, हिन्‍दी, संस्‍कृत में एम․ए․ में टाप। बंगला धारा प्रवाह बोलते थे। फ्रैंच के ज्ञाता। पंजाबी भी मेरी सहायता लेकर सीख रहे थे। नानक सिंह के उपन्‍यासों का अनुवाद करना चाहते थे। डॉ․ हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, रघुवंश, विश्‍व विख्‍यात विद्वान्‌ इतिहासवेता डॉ․ रघुबीर आदि आदि कइयों से जान पहचान थी। विदेशी विद्वानों से भी पत्राचार था। इतना सब कुछ होते हुए भी, मुझसे कहते-हरदर्शन, सोचता हूं, मैं भी पीएच․डी․ कर लूं। हमारे इतने बड़े कॉलेज में मात्र दो तीन प्रोफेसर पी․एचडी․ थें। मैं यहां बताना यह चाहता हूं कि उस ज़माने में पीएच․डी․ करना कितना दूभर और बड़ा कार्य था। बाद में वे मेरठ कॉलेज, मेरठ में हिन्‍दी विभागाध्‍यक्ष के पद से सेवानिवृत्त्‍ा हुए थे। सर्विस के दौरान वे बहुत लंबी छुट्‌टी लेकर तमिल भाषा सीखने मद्रास चले गए थे। फिर वहां पर रहकर कुंब रामायण और तुलसी कृत राम चरित मानस की तुलनात्‍मकता पर पीएच․डी․ की डिग्री ली। अब देखिए, जिसको देखिए, वही पीएच․डी․। डाकटर साहब। एम․फिल․ तो चुटिकयों का, (अल्‍प से अल्‍प ज्ञान रखने वालों का) खेल है। हमें पता तक नहीं चलने देते। हम पर एम․फिल․ कर लेते हैं। शिक्षा का किस प्रकार से ह्रास हुआ है। बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। ज़ाहिर है कि यह सब किसी प्रकार से नौकारी पा लेने की जुगाड़ है। यहीं पर, आगे बढ़ने से पहले मैं प्रो․ साहब की कार्यशैली, उनकी हिन्‍दी के प्रति तड़प के विषय में एक पैराग्राफ लिखना चाहूंगा। जिन-जिन विभूतियों या कुछ टुच्‍चे लोगों, अच्‍छे लोगों का मेरे जीवन पर प्रभाव पड़ा, पड़ता रहा, उनके विषय में अपनी सोच को बिना जोड़े, यह मेरी कृति अधूरी रह जाएगी।

प्रो․ डॉ․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल ने मेरठ में हिन्‍दी विकास पीठ की स्‍थापना की। स्‍वयं उसके मंत्री बने। वे हिन्‍दी को एक ऐसी विश्‍व भाषा बना देना चाहते थे, जिसको (हिन्‍दी को) बिना पढ़े विश्‍व के अध्‍येताओं का काम ही न चल सके। इसके लिए एक तो उन्‍होंने 'ज्ञान विविधा‘ नामक पत्रिका निकाली- जिसके तीन अंक ही निकल पाए-इनमें भारतीय सभ्‍यता संस्‍कृति पर स्‍वयं के और बड़े-बड़े विद्वानों के गंभीर मीमांसापूर्ण आलेख प्रकाशित हुए। दूसरा उन्‍होंने मेरी और अन्‍य भाषाओं के ज्ञाताओं-विदेशी भी इनमें शामिल थे- से संपर्क साधा और उन्‍हें अनुवाद कार्य सौंपा। विचार-विमर्श मेरे साथ निरन्‍तर करते रहे औरों से भी। इतना बड़ा काम और अकेली दुबली काया। शुरू ही से मोटा चश्‍मा।

1997 को शुरूआती दिनों की बात है कि एकाएक डॉ․ साहब के पत्र आने बंद हो गए। फोन का जमाना न था। मैं पत्र पर पत्र लिखता रहा। आखिर जैसे तंग आकर 14/3/97 को उनके बेटे ने लिखा, 'पिताजी का ब्रेनहैम्रेज से 6/1/97 को देहांत हो चुका है। मुझे यह पत्र 21 मार्च को मिला। उस दिन मैं मन ही मन रोता रहा। सारा दिन खाना नहीं खाया। फिर उनके बेटे सुरेश को बहुत पत्र लिखे। उनकी टीम के विषय में पूछा। उनका एक चित्र भेजने को भी लिखा। एक का भी जवब नहीं आया। चित्र मैंने पत्रिका से फोटोस्‍टेट करा, अपने सामने स्‍टडी रूप में टांग रखा है। मेरे, यहां कहने का अर्थ यह है कि हम कोई सा भी महत्‍वपूर्ण बड़ा काम करें, उसके साथ बड़ी टीम होनी चाहिए। वरना ऐसा काम शुरू ही न करें जिससे बाकियों का भी श्रम नष्‍ट हो जाए।

फिर उसी विषय पर लौटते हुए बता दूं, मैंने भाई साहब श्री मनोहरलाल सहगल से भी इल्‍तिज़ा की थी। वे उस वक्‍त भिवानी (हरियाणा) में ए․एस․एम․ (छोटा स्‍टेशन मास्‍टर) लगे हुए थे कि मुझे भिवानी ही में कॉलेज में अडमिशन दिलवाकर बी․ए․ करवा दें। (मुझे बार-बार एक हीन भावना खाए रहती थी कि अगर कोई बी․ए․ भी नहीं है तो वह जैसे आदमी ही नहीं) भाई साहब ने डांट सा दिया-क्‍या करोगे ग्रेजुएट बनकर ? फिर सिगनेलर (तार बाबू) (बाद में वायरलैस की सर्विस के दौरान भी) बी․ए․ करने की कोशिश की। किसी तरह बी․ए․ कर लूं (यह सिलसिला आगे आकर बीकानेर भी आकर चला) प्रो․ साहब ने बरेली से माइग्रेशन सर्टिफीकेट भिजवाया था। मैंने प्रशासन से कहा था कि मैं हमेशा रात की ड्‌यूटियां किया करूंगा। लेकिन अफसर ने कहा हमें रूल अलाओं नहीं करता कि किसी से लगातार नाइट ड्‌यूटी ले सकें। सो मैंने रेवाड़ी में रहकर प्राइवेट बी․ए․ की तैयारी शुरू की। किताबें खरीद लाया। दिन रात पढ़ता रहता। तभी मुझे प्रमोशन के टैस्‍ट के लिए लैटर आया कि दो महीने बाद तुम्‍हारी वायरलैस आपरेटर की परीक्षा होगी। मेज पर एक कोने में बी․ए․ की पुस्‍तकें रखी होती। दूसरे कोने में विभागीय पुस्‍तकें। तब भाई साहब प्रमोट होकर वैगन मूवमेंट इंस्‍पैक्‍टर होकर रेवाड़ी ही में पोस्‍ट हो चुके थे। उन्‍होंने मुझे इस तरह से दोनों तरह की किताबें पढ़ते देख लिया और डांट मारी-क्‍या फायदा बी․ए․ का। रेलवे में पढ़ाई को कोई नहीं पूछता। तुम तो रेलवे में अपना कैरियर बनाओ।

सो बी․ए․ की परीक्षाओं में गया तो सही। एक पेपर तो बिल्‍कुल छूट ही गया था। समय पर नहीं पहुंचा था। सो जो नतीजा निकलना था। वही निकला। हां वायरलैस की परीक्षा में अवश्‍य पास हो गया। बातों का जंगल या विचारों का जंगल इतना विशाल है कि सोच-सोचकर कभी कभी अपने अनुभवों पर गर्व सा होता है तो कभी उबकाई सी भी आने लगती है। मूल समस्‍या जीवन को निकट से देखने-समझने की है। अपने आपको जानने की है। अपने अिस्‍तत्‍व की सार्थकता को किसी भी तरह से सिद्ध करने की है।

पर देखता हूं अधिकांश चीजें मेरी मज़ीर् के बरखिलाफ आपसे आप होती चली गईं। मैं नौकरी नहीं करना चाहता था। की। मैं शादी नहीं करना चाहता था। की। अपनी मज़ीर् से मैं पैदा भी तो नहीं हुआ था।

कोई हमें बताए कि हम बताएं क्‍या ?

अपने जीने, होने का कारण। अर्थ। (सत्‍य अत्‍यंत कठिन-अज्ञेय है) तभी बात को थोड़ा ढंग से आगे बढ़ाया जा सकता है। वरना जन्‍म लेने और सांस खींचते चले जाने और खास तौर से मौजूदा दौर में (भी) लगातार लिखते चले जाने की तमाम बातें, बेठेंगी रफ्‍़तार पकड़ने लगेंगी। गोया किसी ऊपर वाले ने हमें वरदान दिया या श्राप-जा तू लेखक बन जा।

इसके बरअक्‍स सचाई यह है कि जिंदगी में ज्‍यादातर चीजें बुनियादी तौर पर, इत्त्‍ाेफाकन, लाट्री की मानिंद होती हैं जिनके पीछे हमारी कोई मंशा ख्‍वाहिश-रजामंदगी कत्त्‍ाई नहीं हुआ करती। हमने कब चाहा था, हमारा जन्‍म हो। हमें फलां शहर धर्म मुलक मिले। पाकिस्‍तान बने। हम धक्‍के खाते हुए, हैरतअंगेज, दहशतज़दा माहौल में अपने शहरों, मालो असबाब, मित्रों रिश्‍तेदारों को खोकर टूटे हुए हिन्‍दुस्‍तान में आ बसें। फिर लिखने लगें।

हां बड़ा होने पर जब तब जिंदगी का लेखा-जोखा करने बैठते हैं तो ख्‍यालात कुलाचें भरते हुए, बचपन की जानिब भागने लगते हैं ः- हां ऐसा होता था। फिर अपने से पूछते हैं। ऐसा क्‍यों होता था ? बचपन ही से दर्रो दीवारों को, अपनी और दूसरे आदमियों की हरकतों को, घूरना, सुन्‍दर दृश्‍यों, पक्षियों को निहारना। अच्‍छा मनभावन संगीत सुनना। कहानियां सुनना, सुनाना। पढ़ना। बात बेबात द्रवित हो उठना। मज़ाक में हँस देना। आंसू बहाना, आज तक बरकरार है। मेरा बचपन बीत चुका है ः दिल का लड़कपन बाकी है। हां सिर्फ भाषानुशासन के प्रति हद दर्जे तक बचपन से ही गंभीर हूं।

मगर बचपन से ही ः-

किसी लोहार ने ठग लिया। परचूनी वाले ने अच्‍छा व्‍यवहार नहीं किया। डॉक्‍टर ने सिर्फ पैसे से मतलब रखा। डाक्‍टर की बात आई तो एक मिनट के लिए एक रोचक घटना सुनाए देता हूं। किला शेखपुरा में सरकारी अस्‍पताल में एक पैसा लेकर डाक्‍टर परची पर पहले नाम लिखता था। मेरा नाम पूछा तो मैं बोला-हरदर्शन लाल सहगल। डाक्‍टर बोला-दो पैसे निकालो। नेकर की जेब में एक ही पैसा था। मैंने हकलाते डर के से स्‍वर में कहा-जी․․․․․ सुना है․․․․ एक पैसा लगता है। डाक्‍टर ने कहा-तुम्‍हारा नाम बहुत बड़ा है। हरदर्शन लाल सहगल। और हंस पड़ा। सच उसी दिन से मैंने 'लाल‘ हटा दिया और हरदर्शन सहगल बन गया।

हां तो बात लोहार, डाक्‍टर, दर्जी आदि की कर रहा था। दर्जी ने जोकरनुमा कपड़े सिल दिए। जिन-जिन पर भी गुस्‍सा आया, कागज़ों को उठाकर उन उनको लताड़ा। सफों के सफे एक दूसरे में अटकाए। बेयिरंग खतूत अरसाल कर दिए- अलीगढ़ के सब से घटिया डाक्‍टर को मिले। बरेली के कंजूस परचूनी वाले को मिले। आप स्‍वयं कल्‍पना कर सकते हैं। डाकिए और पोस्‍ट मास्‍टर क्‍या सोचते होंगे। खतों के लंबे-लंबे वाक्‍य आज भी याद हैं। याद कर हंसीं भी आती है। और आश्‍चर्य भी होता है। फिर यह भी तो लगता है कि मूलतः यह लिखने की आदत मेरे अंदर घर किए बैठी थी।

बरेली, स्‍कूल में, एक लड़का, बहुत तंग करता था। उस पर एक उपन्‍यास लिख मारा 'बिल्‍लू, उल्‍लू‘। क्‍लास में पढ़कर सुनाया। और फ़ाड़ डाला। आैर भी निबंध कहानियां लिखी, जिन्‍हें अपने लेखन की पृष्‍ठभूमि मान सकता हूं। अंग्रेजी कोर्स की तथा अन्‍य बहुत सारे विदेशी कहानीकारों की कहानियां जबान पर हैं। शायद आगे चलकर इन्‍हीं ने ही मुझे बेहतर लेखन की समझ दी। इन सबकी चर्चा आगे चल कर करना चाहूंगा। अतीत बनाम वर्तमान। व्‍यक्‍तिवाद बनाम समष्‍टिवाद। गांधीवाद मार्कसवाद। फार्म अॉफ गोवर्नमेंट्‌स नीतिशास्‍त्र, विभाजन, थ्‍योरी अॉफ पनिशमेंट, अर्थशास्‍त्र मेरे प्रिय विषय हैं।

आदमी को अपने किए की सजा क्‍यों न मिले ? आदमी को अपने सुकर्मों का फल क्‍यों न मिले? बचपन से आज तक इन्‍हीें बातों पर सोचता, दिमाग खराब करता चला आया हूं। यहां मैं भगवान और भाग्‍य पिछले अगले जन्‍मों के कर्मों के फलों को नहीं मान पाता जो अदृश्‍य हैं जो कभी किसी ने नहीं देखे। जिन्‍हें आज तक कोई प्रमाणित नहीं कर पाया- कम से कम, मेरा तो उन पर विश्‍वास नहीं जमता। पहले भगवान स्‍वयं हमसे अपराध करवाता है। धार्मिक आध्‍यात्‍मिक तौर पर यही पट्‌टी पढ़ाई जाती है कि भगवान के बिना चाहे कोई एक पत्त्‍ाा नहीं हिल सकता-तब यही क्‍यों न माना जाए कि वही हमसे अपराध करवाता है। रावण का भी ऐसा ही प्रसंग पढ़ने को मिला। उसे धोखा देकर अपराध करवाया गया था। तब सजा किस बात की ? क्‍यों पश्‍चाताप, सुधार की बातें, लीपापोती कर अपना धंधा चलाने वाले धर्मगुरू आम आदमी को मक्‍कड़-जाल में फंसाते हैं। बचपन से ही यही सोचता आया हूं दैन एंड देयर (यहीं का यहीं फौरन हमारे अच्‍छे बुरे कर्मों का फल मिलता चले तो दो दिन में ही सारी की सारी दुनियां एक दम सुधर जाए। भगवान पर हर एक को पूरा विश्‍वास जमे। मेरे इन विारों को भले ही महाज्ञानी पंडित मेरी नासमझी नादानी कहें लेकिन मेरे पास जो छोटी मामूली सी बुद्धि है। मैं अपनी सोच को आज तक नकार नहीं पाया।

बहुत हो ली मगज खपी माथपच्‍ची। इसे मैं कभी रोक नहीं पाया। आगे भी चलती रहेगी। यहां यह सब कहने का अर्थ है कि इन्‍हीं विचारों की टकराहट से ही तो किसी का जीवन बनता है।

हर एक के जीवन में अधिकतर सामान्‍य तो बहुत कुछ असामान्‍य सी घटनाएं भी जन्‍म लेती हैं। उन्‍हीं से उसकी जीवन-दिशा चलती है। अब पहले उन्‍हीं पर आते हैं।

कुछ औपचारिकताएं।

मेरा जन्‍म मेरे पिताजी श्री जेसूलाल सहगल की उर्दू में लिखी डायरी के मुताबिक 26 फरवरी 1935 को कुंदियां जि़ला मियांवाली में हुआ। जरा ठहरिए, इससे भी पहले का अपने पूर्वजों का इतिहास जानने में किसी को भी अच्‍छेखासे रोमांच का अनुभव होता है। मेरे चच्‍चाजाद भाई मुझसे बहुत बड़े हैं, श्री चरणजीत लाल सहगल, जो इस समय अपने बड़े भरे पूरे घर/मकान में सफदरजंग एन्‍क्‍लेव, नई दिल्‍ली में रह रहे हैं, ने अपने पूर्वजों, अपने वंश आदि की खोज बड़ी गंभीरता से की है। उनका खुद का जीवन-इतिहास भी खासा रूचिकर संघर्षमय तथा रोमांचक है। हो सकता कुछ पाठकों ने उनके विषय में जान/पढ़ रखा हो। वे पहले ब्रिटिश आर्मी में थे। जिस वक्‍त हिरोशिमा में अमरीका द्वारा एटम बम गिराया गया उस समय वे जापान ही में थ्‍ो। 6 अगस्‍त 1945। फिर सिंगापुर, क्‍वालालमपुर (मलाया) आदि होते हुए किसी प्रकार 1948 के अंत या 1949 के प्रारम्‍भ में ही भारत आ पाए थे। वहां उनको पता तक भी न था कि हमारे सारे परिवारों को अपने ही देश से बेदखलकर नए भारत में, दहशत के साये में गुज़रते हुए आना पड़ा था। उनके पास अनेक रोचक प्रसंग हैं। काफी कुछ उन्‍होंने लिखा भी। कुछ दस्‍तावेजों को, मेरे अवलोकनार्थ भी भेजे हैं। लंबे पत्र लिखे हैं। वे इतिहास के खोजी व्‍यक्‍तित्‍व हैं। यहां सब कुछ लिखना अप्रासंगिक होगा। किन्‍तु उनसे या किसी से भी जो कुछ मैंने जाना-समझा, जिन चीज़ों ने मुझे आहत किया। उद्वेलित किया। और उन प्रसंगों पर विचार करने पर विवश हुआ, वे सब कुछ भी तो अंततः मेरी जिंदगी में, मेरे व्‍यक्‍तित्‍व के, मेरे लेखन के अंग बने। चरणजीत जी ने महाभारत काल से हमारे पूर्वजों का जुड़ाव बताया है। गौत्र कौश्‍ाल्‍या। अकबर के दरबार में हमारे पूर्वज सिपाहसलार थे। उन्‍होंने दर्रा खैबर का युद्ध जीता था। अकबर के नवरत्‍नों में से एक अबुल फ़जल थे। अकबर ने अबुल फ़जल से परशियन (पारसी) में रामायण लिखवाई थी। सोने, फूलों-फलों आदि के रसों को मिलाकर लिखी गई यह रामायण आज भी उनके पास है। यह सोने की रामयण कहलाती है। इसमें रामदरबार में राम को इस्‍लामिक वेशभूषा में दिखाया गया है। सीता स्‍वंवर, बाली सुग्रीव युद्ध, लक्ष्‍मण मूर्छा, रावण द्वारा सीता का अपहरण आदि अनेक चित्र हैं जो आज भी अपनी अद्‌भूत स्‍याही के कारण चमक मारते हैं।

इस रामायण की कुल तीन प्रतियां बनवाई/लिखाई गई। जिनमें से एक बादशाह अकबर ने स्‍वयं रख ली। दूसरी महाराजा मानसिंह जयपुर को भेंट की। तीसरी प्रति अकबर ने हमारे पूर्वजों के युद्ध कौशल बहादुरी से प्रसन्‍न होकर, इनाम के तौर पर भेंट की, जो हमारी कई पीढि़यों से होती हुई, अब मेरे चाचाजी लाला टहलराम सहगल के सुपुत्र श्री चरणजीत लाल सहगल के पास है। इसकी व्‍यापक चर्चा दुनियां भर में (रूचि रखने वालों) है। विशेष रूप से 1992 के बड़े-बड़े अखबार, जैसे इंडिया टुडे, पाइनियर, इंडियन एम्‍प्रैस, जनसत्त्‍ाा आदि आदि में खूब चर्चा होती रही। तमाम देशी विदेशी चैनल भी इसे दिखाते रहे हैं।

मेरा जन्‍म तो कुंदिया जिला मियांवाली में हुआ जिस समय पिता जी वहां पोस्‍टेड थे। परन्‍तु हम लोग मूल निवासी करोड़ लालीसन के हैं (जिला मुज़फ़रगढ़ है) यहां पीर बाबा लालीसन की मज़ार है, जो हिन्‍दु-मुसलमानों दोनों समुदायों के लिए समान रूप से पूज्‍य, आस्‍था की प्रतीक है। बड़े बूढ़े युवा सभी यहां की मनौती मांगते हैं। चादर चढ़ाते हैं। इस बात को मैंने न जाने कैसे बचपन बल्‍कि अबोध अवस्‍था में आत्‍मसात कर लिया था कि सबका भगवान, कल्‍याण करने वाला एक ही हाेता है। चाहे वह किसी भी जाति धर्म में पैदा हुआ हो। मनुष्‍य मनुष्‍य में कोई भेदभाव नहीं होता। लेकिन यह बात भी तो मैं देखा करता था कि इनका छुआ खाना नहीं खाना। तमाम छोटे-बड़े स्‍टेशन के स्‍टालों पर हिन्‍दु चाय/मुस्‍लिम चाय के बोर्ड टंगे लिखे मिलते थे। इसी प्रकार हिन्‍दु पानी, मुस्‍लिम पानी की प्‍याऊएं थीं। यह भी मैं सोचा करता था कि ऐसा क्‍यों हैं ? बड़ों से पूछता तो वह यही कहते कि यह अंग्रेजों की चाल है। वे दोनों कौमों को मिलकर नहीं देखना चाहते। इतना सब समझते हुए भी, फिर यह भेदभाव हम लोगों के बीच क्‍यों बना हुआ है। बाद में इसी तरह हलाल मीट/झटका मीट की दुकाने देखीं जो आज तक कायम हैं। सोचता हूं, यह तर्कहीन भेदभावों की जड़े/संस्‍कार बहुत गहरे होते हैं जो खुद मनुष्‍य को चैन की सांस नहीं लेने देते। मनुष्‍यता की सोच कहीं बहुत उदार ऊंची गरिमापूण्‍ार् है तो कहीं निहायत घटिया/घृणा फैलाने वाली।

चलिए करोड लालीसन के बारे में थोड़ा और बताता चलूं, जहां का मैं अस्‍ल बाशिंदा हूं। यह गांव, कंधार सूबे और लाहौर सूबे के बीच मुख्‍य संपर्क कड़ी के रूप में अवस्‍थित था। बाबर से अकबर के जमाने में, यह गांव व्‍यापार का मुख्‍य केन्‍द्र भी था। विशेष रूप से अरबी घोड़ों तथा ऊंटों का। यह ऊंट और घोड़े पहले करोड़ लालीसन की मंडी में ही खरीदे जाते थे। फिर इन्‍हें अजमेर, लाहौर, दिल्‍ली सूबा में स्‍थानातरित किया जाता था। दूसरी मुख्‍य संपर्क कड़ी हमारा दूसरा गांव बेहल था। जो दमन कंधार, कोह हिन्‍दु कुश आदि से जुड़ा हुआ था। यह बाबर से अकबर का इतिहास है। इस दोआब में मुगल कर वसूल करते थे। महाभारतकाल कृष्‍ण युग से भी इस दोआब का वास्‍ता बताया गया है। यहां अनावश्‍यक अधिक विस्‍तार में न जाते हुए, मैं अपनी अबोध अवस्‍था पर लौटता हूं

हम हर गर्मियों की छुटि्‌टयों में तथा रामलीला (दशहरा) के दिनों अपने गांव करोड़ लालीसन जरूर आया करते थे। जैसा कि बताया कि पिताजी को सर्विस के दौरान भी गांव जा कर रामलीला में लक्ष्‍मण का पार्ट करना होता था। बाद में उन्‍होंने हाथ जोड़कर मंडली वालों से बिनती की थी कि भई बहुत होलिया यह सिलसिला ः (पचीस दफा का) अब नई पीढ़ी को चांस लेने दो।

हम बच्‍चों को हमेशा बेसब्री से खासतौर से गर्मियों की छुटि्‌टयों का इंतजार रहता था। खूब मजे आते थे। चाचा, मामा, ताऊ, चाचियां और दीगर रिश्‍तेदार खूब लाड़ लड़ाते थे। पर बूढ़ी दादी मुझे किस नजर से देखती थी, कह नहीं सकता। हां मैं उन्‍हें उस छोटी सी आयु का बच्‍चा उन्‍हें किस तरह से देखता यह बताने की कोशिश करता हूं। देखता वे किस तरीके से बैठी सबको घूरती सी रहती हैं।

तो मैं भी उनको घूरता रहता। कैसी हैं ये। कैसे मुंह चलाती है। चेहरा झुरियों से क्‍यों भरा हुआ है। इसे शायद टैस्‍ट करने हेतु जिज्ञासावश उनके सामने जा खड़ा हुआ। फिर धीरे-धीरे अपनी अंगुलियों से उनके माथे की झुरियों को पकड़ने की कोशिश करने लगा।

एकाएक दादी के मुंह से गालियों की बौछार होने लगी। याद नहीं कौन से शब्‍दों से मुझे कोसने लगीं। मैं कुछ समझ नहीं पाया। हो सकता है, प्राणीशास्‍त्र का अध्‍ययन कर रहा हूंगा। मैं बुरी तरह से डर गया। माताजी आकर अपने साथ ले गईं। बड़ों के साथ ऐसा नहीं करते। आज तक अपने गुनाह को समझ नहीं पाया। बस, शायद शरीर के बड़े होने की बनावट पर शोध कर रहा था। चाचा मामा मुझे कंधों पर बिठाकर खिलाते-खिलाते बाजार तक ले जाते। मजे़ ही मजे़ रहते। बड़े मामाजी तोलाराम पता नहीं साल भर क्‍या करते। पर लालीसन मजार के बड़े मैदान में, जब जब भी मेले लगते वे अचानक वहां आ प्रकट होते और अपना धंधा जमा लेते। वे बाहों हथेली के पीछे काली लाल स्‍याही से गोदने का काम करते थे। उनकी मशीन घुर घुर की ध्‍वनि पैदा करती रहती। कुछ लोग छाती पर भी गुदवाते। उनके चारों ओर भीड़ भाड़ ही होती। पहले नम्‍बर आ जाने को उतावली दिखती। ओह क्‍या नज़ारा होता। मैं देख देखकर रोमांचित होता रहता। आज भी मेरी हथेली के पीछे एक मुर्गा बना हुआ है। बांह पर अंग्रेजी में एच․डी․एल तथा फूल बना हुआ दीखता है, पर इस उम्र में आकर कुछ कुछ धुंधला हो चला है। दीगर चीजें बेचने वालों की भी धूम हुआ करती। झूले ही झूले, जिन्‍हें हट्‌टे कट्‌टे आदमी अपने बाजुओं के बल से घुमाते रहते। ऊंचे नीचे लाते चढ़ाते रहते। मैं एक बार ऊंचे चढ़ने वाले झूले में (merry go up) में गलती से बैठ गया। ज्‍यों ही झूला आसमान की तरफ जाता, मेरा कलेजा फट कर जैसे बाहर को निकलने लगा। मैं जोर जोर से रोने चिल्‍लाने लगा। ''रोको रोको‘‘ किसी दयालु आदमी या आदमियों ने आवाजें दे देकर झूला रूकवाया; ''बच्‍चा डर गया है।‘‘ तब से आज तक मैं ऐसे किसी झूले पर नहीं बैठा। हां चारों ओर चक्‍कर काटने वाले झूले (merry go round) में अब भी कभी मौका मिले तो बैठने में संकोच नहीं करता।

छोटे मामू मोजीलाल छाबड़ी में मोठ चावल बनाकर गली गली घर घर बेचा करते थे। खरीदने वाले, उनसे ''जल ज़रा और देना‘‘ की डिमांड करते। जमाना पैसों से भी कम का था। धेलों का था। कसीरों (एक मुड़ी तुड़ी पीतल की मुद्रा) का भी था। कोई कोई तो टोपरणी (न जाने किस धातु की बनी, विशेष नाप की कटोरी) में अनाज देकर, चीजें खरीद लेते थे। अर्थशास्‍त्र में इसे मैंने बाद में 'विनिमय मुद्रा‘ पढ़ा, जो मेरी बचपन में देखी हुई चीज़ है। औरते सुबह चार बजे से पहले उठ जातीं। भजन गातीं, भगवान की स्‍तुति करती हुई सारे घर की दीवारों को गोबर से लीपती/साफ करती। चकियां घुर घुर करती संगीत सा छोड़ती रहतीं। फिर वे कंधों पर, धोने के लिए कपड़ों की गठरी उठाती। साथ में घड़े, या पीतल की गगरी। वे दो ढाई दाे मील दूर कुएं पर जातीं। कुओं को बैल चलाते रहते। पानी खेतों की क्‍यारियों में जाता रहता। उसी में से पनघट पर औरते कपड़े धोती नहाती। घर के लिए पानी के बर्तन भरतीं और घर आकर घर के तमाम कामों में व्‍यस्‍त हो जातीं। सच अगर मेरे मन से पूछा जाए तो अाज भी औरतों को मर्दों की बनिस्‍बत ज्‍यादा कर्मठ, परिश्रमी और सहनशील पाता हूं। अपने आदमी, बच्‍चों तक का हुक्‍म फौरन बजा लाने वाली। चाहे औरतों के खुद सर्विस करने का जमाना आ पहुंचा है। परन्‍तु उनका दर्जा, हुक्‍म बजा लाने वाला ही रहा है, जो पहले था। इसे हम रिवाज कह कर पल्‍ला झाड़ लेते हैं। मेरी कहानियों में औरतों को हमेशा, जीवट हरीभरी पाएंगे। थोड़ी देर के लिए मैं अपनी जीवन संगनी श्रीमती कमला का ही पूरा हवाला देने लगूं तो एक पुस्‍तिका तैयार हो जाएगी। पर न जाने क्‍यों एक दोपहर या शाम की बात सोच कर मैं आज तक द्रवित होता रहता हूं। वह स्‍कूल से आई-तब हम रेलवे क्‍वार्टर टी-62, मालगोदाम की पीछे, बीकानेर में रहते थे- आते ही साइकिल को हमेशा की तरह बरामदे में खड़ा किया, पर्स आदि को पलंग पर पटका। साड़ी हटा, पेटीकोट के साथ गुस्‍लखाने में घुस कर, घर परिवार के कपड़े सोटा मार मार कर धोने लगी। रेवाड़ी आदि के उसके संघर्षों का वर्णन शायद कहीं आगे कर पाऊं।

करोड़ लालीसन की कुछ और स्‍मृतियां भी आज तक कौंघती रहतीं। महल्‍ले का नाम राजाराम था (सुना है आज तक भी वही नाम चला आ रहा है) कुछ गलियां संकरी तो कुछ चौड़ी थीं। बीच में एक गंदी नाली। उसी नाली के आर पार बैठे बच्‍चे शौच किया करते थे। एक मजेदार बात माता जी बताया करती थीं। अबोध अवस्‍था में ही बच्‍चियों की सगाई हो जाया करती थी। किस बच्‍ची के साथ किस लड़के की सगाई हुई है सबको मालूम होता। लड़कियों का झुंड खेल रहा होता अगर किसी लड़की का होने वाला पति उधर से गुज़रता तो बाकी की लड़कियां शोर मचा देतीं- छुप जा छुप जा तेरा पाए (पति) आ रहा है तो लड़की खेल छोड़ कर भाग निकलती। और अगर शौच कर रही होती तो कमीज से अपना मुंह ढ़ांप लेती यानी शरीर का नीचे का सारा भाग बिलकुल नंगा।

कौन सा ज़माना था और कौन सा जमाना आ गया है। बाल विवाह आज तक नहीं रूके।

पिताजी हमें शाम को बाजार ले जाते। बड़े बड़े बैंगनों को काटकर उन्‍हें बड़ी-बड़ी कड़हाइयों में तला जा रहा होता। उन पर नमक मिर्च मसाले छिड़क कर बेचा जाता। वे इतने लजीज होते कि आज तक उनका स्‍वाद भूले नहीं भूलता। प्रायः हर दुकान पर पिताजी की खासी खातिरदारी होती क्‍योंकि वे दूरदराज के बड़े शहरों में सरकारी नौकरी करते थे। बतौर अपने ही शहर के मेहमान बनकर आए हुए होते। लाला आत्‍माराम जो पिताजी के चचेरे भाई थे। बाजार में उनकी, लोहे के ट्रंक बक्‍सों टीन के पीपों की दुकान थी। वे मरम्‍मत का काम भी किया करते थे। ठक ठक ठक ठक के शोर के बीच पिताजी उनसे घंटों बतियाते रहते। हम बच्‍चे ऐसे ही इधर उधर चक्‍कर काटते या कुछ गालियां अनारदाना चूर्ण या खेलने के कंचे वगैरह वगैरह खरीदते रहते। कंचों का जमाना या गिल्‍ली डंडों का जमाना था।

हां कभी कभी मुझे सगे चाचा टहलराम (जो स्‍कूल टीचर थे और राममंडली में हमेशा परशुराम का अभिनय किया करते थे) शाम को मुझे अपने साथ स्‍कूल ग्राउंड में ले जाया करते थ्‍ो। वहां वे अपने साथियों के साथ वाली बाल खेला करते थे। टीम की मुस्‍तैदी तथा बाल के हवा में सैकेंडों में इधर से उधर चक्‍कर काटते देखकर मेरा मन भी स्‍पंदित होता रहता। शायद यह तभी का असर है कि यह मेरा सर्वप्रिय गेम बना हुआ है। स्‍कूल कालेज में तो मैं वालीबाल-कैप्‍टन बना ही। बरेली में मन्‍दिर ग्राउंड में मैंने स्‍वयं एक अच्‍छी वालीबाल टीम की स्‍थापना की। उसका नाम 'प्रमुदित मित्र संघ‘ रखा। क्‍या मजाल कि कोई बिना मेरी अनुमति के बीच गेम, ग्राउंड में प्रवेश ले ले। गेम के बाद में सबको पांच मिनट के लिए बिठाकर, एक्‍सप्‍लेनेशन कॉल करता- आप लेट क्‍यों आए ? मैं आठवीं नवीं का बच्‍चा और बाकी लगभग सर्विस वाले। वे मंद मंद मुस्‍कुराते। कहते वाइफ ने सब्‍जी लेने बाजार भेज दिया था आदि आदि, जवाब देते। मैं कहता कि वाइफ को मना नहीं कर सकते कि पहले क्‍यों नहीं बताया। यह हमारे खेलेन का टाइम है।

तब उनमें से कुछ बोल उठते- बेटा जब शादी होगी तब पता चलेगा। यानी घर वाली क्‍या बला होती है। मैंने उसी समय से धारणा बना ली कि अपन ने शादी करनी ही नहीं है। शादी न करने वाली बात तो मैंने अबोध अवस्‍था में माता-पिता, बड़े भईसाहब से कह डाली थी। जब मैंने देखा था कि पड़ोस का कोई युवक, जिसे मैं भाई साहब कहकर पुकारा करता था, शादी करके दुल्‍हन ले आया। आए दिन दुल्‍हन बीमार रहने लगी। न जाने आए दिन उसे कौन-कौन सी किस प्रकार की बीमारियां आ घेरती। पड़ोसी भईसाहब, डाक्‍टरों अस्‍पतालों के चक्‍कर काटते रहते। दुखी रहने लगते। तब मैं सरेआम कहता-देख लिया शादी करने का नतीजा। शादी की ही क्‍यों जाए, जिससे आदमी झंझटों में फंस जाए। परेशान होने लगे। बाद में कभी डॉ․ लक्ष्‍मीनारायण लाल की कोई पुस्‍तक शायद उपन्‍यास था- पढ़ लिया कि आदमी को हमेशा स्‍वछंद स्‍वतंत्र रहना चाहिए। एक पक्षी की तरह खुले बहुत विस्‍तृत आकाश में विचारण करना चाहिए। उन्‍मुक्‍त-बंधन रहित। इससे भीअपन ने निर्णय निकाल लिया कि समझदार आदमी को शादी करनी ही नहीं चाहिए।

मैं हाकी फुटबाल में भी माहिर था। कैप्‍टन भी बनता रहता था। स्‍कूल में लड़के िमनते करते रहते-सहगल हमें भी (टीम में) ले ले ना। बिलकुल इन्‍हीं दिनों मेरा एक किशोरोपयोगी उपन्‍यास 'मन की घंटियां‘ छप कर आया है। उसमें भी ऐसा चित्रण है कि जिन-जिन को टीम में नहीं लिया जाता, उनसे दुश्‍मनी हो जाती है। क्रिकेट से मुझे जैसे दुश्‍मनी है। पहली ही बार जब क्रिकेट खेला, गेंद सीधे मेरे मुंह पर आ लगी। दांत हिल गया, तभी से मुझे आज तक क्रिकेट के दीवानों से चिढ़ सी होती है, जिन्‍होंने जीवन में बल्‍ला तक नहीं पकड़ा, टी․वी․ पर क्रिकेट के मैच देखा करते हैं। सिर्फ खेल इसी में, खेल कम विज्ञापन अत्‍यधिक हैं। लोगों के समय को उजाड़ते रहते हैं। दूसरे गेमों में इतना गैप न होने से विज्ञापन व्‍यापार की गुंजाइश बहुत कम रहती है। लोग इस बाजारवाद को समझ नहीं पाते। खेर, वालीबाल तो वालीबाल है। आज भी इस उम्र में, मेडिकल स्‍टूडेंट आदि के बीच, वालीबाल खेल आता हूं। वालीवाल की गेंद की उछल कूद के साथ मेरा मन भी छलांगे सी लगाता है। मेरी पहली कहानी भी वालीबाल पर है, जो 'सरिता‘ में छपी थी।

मैं बार बार अपने को रोक कर, अपने आपको बिलकुल अपने बचपन से ही अभिव्‍यक्‍त करना चाहता हूं। पर करूं क्‍या, इस आयु तक पहुंचते पहुंचते मेरे पास स्‍मृतियों का भण्‍डार आ जमा हुआ है जो एक दूसरे को पीछे धकेल धकेल कर खुद आगे आना चाहता है। मेरी यादें, जब से मैंने जरा सा होश संभाला, मेरे तन मन में किसी चित्र की तरह अंकित है। इसे मेरा घमंड न मानें मेरी यादाश्‍त लगभग गज़ब की है। किसने कब किस जगह किस शहर में किस हावभाव से यह बात कही थी, नक्‍शा सा खिंचा/बना रहता है सिवाए दो चीजों के। एक तो मैं मामूली रास्‍ते यहां तक कि स्‍वयं अपने ही घर का रास्‍ता तक भी, कभी कभी विचारों में खोया, भूल जाता हूं। कहां का कहां जा पहुंचता हूं। दूसरा औरतों आदमियों के चेहरों को याद नहीं रख पाता। किसी को कोई और समझ बैठता हूं। इस से कइयों के सामने शर्मिदंगी भी उठानी पड़ती है। हां एक बात ज़रूर है; मैं सपनों में देखे हुए आदमियों के चेहरे-मोहरे को उनके एक्‍शन्‌ज़ आवाज़ को कभी नहीं भूल पाता। वे अपना नाम तक भी बता जाते हैं। उन पर कहानियां लिखता हूं। मुझे बेहद सपने आते हैं। मेरी अधिकांश लगभग पचत्त्‍ार प्रतिशत कहानियां सपनों पर ही आधारित हैं। हर तरह के सपने बेहद डरावने। कुछ सुहावने।

सोते ही कई प्रकार की दृश्‍यावलियां आंखों के सामने झूमने सी लगती हैं। कोई हरा-भरा चरागाह है। गाए चर रही हैं। पास के मन्‍दिर में से घंटियों की मोहित करने वाली आवाजें आती हैं। दूभर पहाड़ होते हैं जिन पर मैं चढ़ रहा होता हूं। आसमान होता है जहां मैं किसी पक्षी की भांति उड़ रहा होता हूं या अपने पूरे भरे पूरे िजस्‍म के साथ बहुत ऊंचे पहुंच जाता हूं। फिर धरती की ओर नीचे आने लगता हूं। इससे पहले कि धरती पर मेरे पैर छुएं, मैं फिर से लंबी कूद, कूद जाता हूं। यह उड़ाने भरना नीचे आना निरंतर चलता रहता है। कभी कभी युग्‍मों को कई प्रकार के प्रेम बंधनों में बंधते रति की स्‍थितियों में भी देखता हूं। यह सब आप से आप होता है। यदि यह यत्‍न करूं कि मैं वही पुराना या वैसी ही दृश्‍य देख लूं तो यह बिलकुल संभव नहीं हो पाता। मेरी मर्जी कतई नहीं चलती। पर हां इतना मैं जरूर समझ लेता हूं कि मैं अब नींद की आगोश में समाने जा रहा हूं।

गहरी नींद में फिर सपने जो मुझे डराते हैं विचलित करते हैं। उठा देते हैं। मैं नींद में उठकर अपनी टेबल पर जाकर लिखने बैठ जाता हूं। गोकि कोई शक्‍ति है जो मुझ से कहती है- उठो सो क्‍यों रहे हो। काम करो। जो कुछ तब रात में लिख-लिखा कर सो जाता हूं, वह मुझे कुछ भी याद नहीं होता। पढ़ने पर ही पता चलता है।

बेशक आप यकीन करें, न करें, पर कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि जो कुछ सपनों में देखा, उनमें से कुछ को बाद में अपनी आंखों के समक्ष होते भी देखा है।

सपनों का एक दिलचस्‍प पहलू यह भी है कि उस स्‍वप्‍न जगत में ऐसी ऐसी जगह दिखती हैं जहां कभी गया ही नहीं। चिल्‍ली भी हो आया हूं, सपनों में। पर चाहते हुए भी अभी तक उस कहानी को फेयर नही ंकर पाया। ऐसे ऐसे लोग आकर मिलते हैं और अपना परिचय देते हैं अपना नाम तक बता जाते हैं, जिनसे यथार्थ जीवन में कभी मिला ही नहीं। तब उनसे उऋशा होने हेतु भी कहानियां लिखी हैं। कुछ जु़ल्‍मोसितम की डरावनी कहानियां लिखने की हिम्‍मत नहीं होती। लगता है, अपने साथ अपने पाठकों को क्‍यों दुखी करूं।

दरअसल जिस दिलचस्‍प पहलू का ऊपर वर्णन कर आया हूं, वह यह है कि बहुत से ऐसे जोकरनुमा पात्र भी सपनों में आकर ऐसी ऐसी ऊलजलूल हरकतें करते हैं कि मैं उठकर पलंग के नीचे पांव लटका कर खूब देर तक हंसता रहता हूं। दूसरे तीसरे रोज तक भी वह हंसी मेरा पीछा नहीं छोड़ती। कभी कभी वे सपने घर वालों, या खास मिलने वालों को भी सुनाकर ज्‍़यादा हंसता हूं। दूसरे भी सुनसुन कर खूब हंसते हैं। बिल्‍कुल अतार्किक, ऊबड़ खाबड़ स्‍थितियां होकर गुजर जाती हैं। ऐसी कुछ स्‍थितियों पर भी कुछ कहानियां लिखी हैं। हां ऐसी चीजों की भी कोई तार्किकता खोज लेता हूं। फिर ऐसी बातों को लिखने के बहुत समय बाद बहुत सारी कहानियों का यही पहलू भूल भी जाता हूं कि वह तो सपने पर आधारित कहानी है।

मैं सोता कब हूं। यह भी बताता चलूं। जब मेरे हाथ से किताब या कलम गिर जाए, या फिर कलम अशुद्धियों का खिलवाड़ करने लगे। तभी मैं सोने की सोचता हूं। सो जाता हूं। कभी रात के बारह बज जाते हैं कभी एक, दो ढाई। मन में यही आता है कि नींद न आए तो थोड़ा और काम कर लूं। बस यह यह वोह वोह। फिर रैस्‍ट की स्‍थिति बने। मगर कामों की लंबी लाइन खत्‍म होने में नहीं आती। मेरे पास आए हुए पत्र कभी अनुत्त्‍ारित नहीं रहते। लिफाफों पर टिकटें चिपकाना। मोहरें लगाना। भेजी गई रचनाओं का रिकार्ड दर्ज करना। आज कल तो संपादकों को रिमाइंडर्स भी बहुत देने पड़ते हैं। फोन भी करने पड़ते हैं। ज्‍़यादातर मुलायमियत से टाल जाते हैं। थोडे़ से उखड़ भी जाते हैं। अपनी व्‍यस्‍तता का रोना रोते हैं। मैं पत्र लिख लिखकर उनसे पूछता हूं- क्‍या पहले के संपादक (जब हमने लिखना/छपना शुरू किया था­) निठल्‍ले निकम्‍मे थे। जो हर रचना पर गौर करते थे। लेखक से संवाद बनाए रखते थे। एक डेढ़ महीने में स्‍वीकृति/अस्‍वीकृति की सूचना पत्रों द्वारा भिजवा दिया करते थे। जबकि उस जमाने में आज जैसी टेलिप्रिंटर इंटरनेट आदि टैक्‍नोलोजी भी नहीं थी। नए से नए लेखक को संपादक प्रोत्‍साहित किया करते थे। इस वक्‍त भी 42 वर्ष पुराना दो सफों का मनमोहिनी जी (संपादक लहर अजमेर) का पत्र सुरक्षित है, जिसमें उन्‍होंने मुझे कहा है कि आपके पास इतने अच्‍छे दार्शनिक विचार तो हैं पर ठीक से कहानी लिखनी नहीं आती। फिर मेरी कहानी को विस्‍तार से लिख कर बताया था कि यूं शुरूआत करें। भाषा ऐसी होनी चाहिए आदि आदि। हां याद आया कि जब मैं रेवाड़ी में सिगनेलर के पद पर काम करता था। यूं ही झौक में आकर किसी एक्‍सरसाईज की कापी के तीन चार सफों पर कोई अंटशंट कहानी लिखकर इलाहाबाद 'कहानी‘ पत्रिका में भेज दी। श्रीपतराय जी का पत्र कहानी के साथ आया अभी आपकी कलम में बहुत कच्‍चापन है। समय लगेगा। पर लिखते रहिए। अंत तक भी मेरी कोई कहानी 'कहानी‘ पत्रिका में नहीं छपी। मैं हर महीने लगातार 'कहानी‘ खरीदता पढ़ता रहा खास तौर से संपादकीय पढ़ता। पाठकों के पत्र भी। पाठक इल्‌ज़ाम लगाते थे कि आप घूम फर कर उन्‍हीं उन्‍हीं लेखकों को छापते हैं।

श्रीपतराय जी ने उत्त्‍ार में लिखा था कि संपादकों को भी तो यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे अपने पसंदीदा लेखकों को छापें। पाठकों को भी तो यही अधिकार होता है कि वे अपनी मर्जी के उन लेखकों को, जो उन्‍हें सूट करते हैं, पढ़ें। उनकी इस साफगोई से मैं प्रभावित हुआ। अंत तक उनका भक्‍त सा बना रहा। कारण मुझे उनकी नेकनियती पर शक नहीं था लेकिन आज के कई संपादकों की नीयत पर शक होता है। डॉ․ महीप सिंह ने भी ऐसा ही कुछ आज के संपादकों लेखकों के बारे में लिखा है-चलो ग्रुपिज्‍म ही सही। यहां तो साहित्‍यिक माफियाओं की भीड़ जमा होती चली जा रही है (जो साहित्‍य की दुर्गति कर के ही रहेंगी।

आज के संपादकों को (कइयों के पास तो स्‍टाफ की सुविधा भी है) वापसी टिकट लगे लिफाफे में रचना वापस डालने में ही उन्‍हें कष्‍ट होता है। वे सिर्फ अपर-हैंड हैं (चाहे वह एकदम निम्‍न श्रेणी का संपादक ही क्‍यों न हों) वे सिर्फ अपने बेतुके नियम लेखकों पर थोपे रहते हैं। मुझे पता चलता रहता है, वे अपने ग्रुप को छोड़कर वरिष्‍ठतम साहित्‍यकारों के साथ भी ऐसा ही अवांछनीय व्‍यवहार बरतते हैं। इसे यहीं छोड़ा जाए नहीं तो यह आज के साहित्‍य, संपादकों, प्रकाशकों का बड़ा अध्‍याय हो जाएगा।

शायद छोड़ा तो नहीं जाएगा। हो सकता है यह सब मुद्‌दे जो मुझे कुछ कुछ कचोटते हैं, दिमागो जिस्‍म का हिस्‍सा बने रहते हैं, छोड़ते नहीं छूटते। आज के हमारे कुछ दोस्‍त इन्‍हें नजरअंदाज कर, पल्‍ला झाड़ लेते हैं। तब मुझे लगता है कि ये लोग भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, ज़माने की इस मौजूदा दौड़ में शामिल हो चले हैं। मैं मानवोचित नैतिक पक्ष का हामी इसीलिए बना हुआ हूं क्‍योंकि मैं किसी के साथ (यह मेरा सोचना है) अनुचित व्‍यवहार नहीं करता।

लीजिए अब अपने आपको थोड़ा अनुशासित करने का यत्‍न करता हूं और शुरू से शुरू करता हूं।

मेरे सामने पिताजी की उर्दू डायरी रखी है। उसके कुछ कटु अंश इन्‍हीं दिनों एक पत्रिका 'विकल्‍प‘ बीकानेर में छपे भी हैं।उसी की सहायता क्रम से आगे बढ़ने का प्रयास करूंगा लेकिन फिर भी लगता है क्रम तो टूटते-बनते रहेंगे। क्‍योंकि अगर अपने बारे में ही कहूं तो बहुत ही छोटी सी उम्र में जैसे ही मेरे अंदर कोई सोच जैसी चीज़ वजूद में आई थी तो इन लेकिनों के मजमूअ (संग्रहों) का अंबार आज तक खत्‍म होने में नहीं आता। बता आया हूं पिताजी (जिन्‍हें हम बाउजी कहते थे/हैं) में मेरा जन्‍म 26 फरवरी 1935 में लिखा हुआ है दिन के दस बजे। यह उनका रावलपिंडी से तबदील हो कर दूसरी बार कुंदियां आना था। उनकी बदलियां बार-बार जल्‍दी जल्‍दी हुआ करती थीं। कई कई स्‍टेशनों के नाम लिखे पड़े हैं (कुछ पृष्‍ठों की स्‍याही बहुत धूमिल हो गई हैं। उनका हैंडराइटिंग बेहद खूबसूरत है) कभी कभी न जाने क्‍यों मैं सोचता हूं काश कि मैं और जल्‍दी पैदा हुआ होता तो रावलपिंडी खलाबट, मलकवाल, कालाघाट, काला बाग, कराची आदि आदि भी देख पाता। वैसे एक बार पिताजी हमें घुमाने कराची ले गए थे। समुद्र के किनारे मैं पहुंच गया था। ऊंची लहरों ने मुझे घेर लिया था। मैं डर गया था। बच गया था। मेरे कैनवस के जूत खारे नमकीन पानी से गल गए थे। मेरे लिए यह भी छोटी उम्र का अजूबा अनुभव था।

मैंने कुंदियां में अपने आपको देखना शुरू किया। समझना शुरू किया। मैं किस तरीके से हूं। कैसे भागता फुदकता हूं। जैसे रबड़का गुड्‌डा। कहां से यहां अा गया हूं। ऊलजलूल हरकतें। यह सब कैसे कर लेता हूं। कूदता हूं। फांदता हूं। क्‍यों ? आज तक भी उबड़ खाबड़ रास्‍तों पर चलना, बड़ी नालियों को फांदकर पार पहुंचना ः होली के दिन बंद किए गए मकानों पर पाइपों इत्‍यादियों के जरिए पहुंचना, मुझे बहुत भाता है। पहाड़ी इलाके हों तो कहना ही क्‍या ? उन पर चढ़ना खूब रोमांचकारी लगता है। नदी समुद्रों की सैर। किनारों की रेत उछालना। सीपियां शंख ढूंढ़ना इकट्‌ठे करना। वाह क्‍या मजे हैं। यही सब, सपनों में भी चलता रहता है। और कुछ नहीं तो साइकिल दौड़ाओ। जेब में चाय का गिलास रख लो घूंट घूंट पीते रहो। और कुछ नहीं तो पेड़ों पर चढ़ जाओं। वहां बैठ कर चाय का आनंद लो। घूमने जाओ। पार्कों में झूला झूलो। बच्‍चों के साथ खेलने लगो। लौटते वक्‍त अपने घर आती काम वाली, सरोज के साथ दौड़ लगाकर पहले घर पहुंचने की हौड़, मुझे नई ऊर्जा प्रदान करती है। मैं जि़ंदगी के दुःखों कष्‍टों का जि़क्र करता हूं तो इस तरह की अनेक खुशियों का भी लंबा चौड़ा लेखा-जोखा मेरे पास है। भले ही आप इसे मेरी सनक कहें। हां तो मैं अपने घर से गायब होकर अड़ोस पड़ोस की चाचियों मासिओं के घरों में बेधड़क घुस जाता। उनकी अलमारियां खोल लेता जो मिलता खा जाता। इसी तरह रसोई घर से। सब चाचियां, मासियां हंसतीं खुश होतीं। एक दूसरे को आवाजें देतीं। देखो तो दर्शी आ गया है। जरा बच के रहना। खूब खेल खिलातीं। लाड़ दिखातीं। ज्‍यों ज्‍यों बड़ा हो रहा हूं। स्‍मृतियां अधिक स्‍पष्‍ट होती जा रही हैं। शाम को बच्‍चों बड़ों की टोलियां घर से निकल पड़तीं। रेलवे लाइनों को क्रासस करती हुई, ऊंचे ऊंचे रेत के टीलों पर जा पहुंचती। ऊपर और ऊपर चढ़ना फिर फिसल कर नीचे आना अच्‍छा खासा मनोरंजक खेल हुआ करता। अब मेरी किस्‍मत में बीकानेर में वैसी तो रेत बालू है। ठीक वैसी की वैसी हर रंग की, काली, भूरी सलेटी आंधियां हैं। जहां तक बोली का सवाल है कुंदिया वाली बोली जरा ध्‍यान से उतर गई हैं। हां हमारे ठेठ पिंड (गांव) करोड लालीसन वाली बोली के असंख्‍य लफ्‍ज यहां बीकानेर में ज्‍यों के त्‍यों बोले-समझे जाते हैं।

एक घटिया घटना कुंदिया की सुनाता हूं। मैं अबोध था। किसी से कोई लड़ाई झगड़ा दुश्‍मनी नहीं थी। मुझे बचपन से आज तक बागबानी का शौक है। मैं अपने रेलवे क्‍वार्टर से सटी अपनी बगियां में यूं ही खुरपी चला रहा था कि अचानक कोई बड़े कद बुत वाला लड़का प्रकट हुआ। मेरी खुरपी छीनी उसी से मुझ पर वार किया। कोई भद्‌दी गाली बकता खुरपी फेंककर भाग खड़ा हुआ। मैं दंग रह गया। परेशान तो हुआ ही। लेकिन कई दिनों तक और (कभी कभी आज तक भी) सोचता रहा। आिख्‍ार ऐसा क्‍यों हुआ। फिर आदमियों औरतों को लड़ते-झगड़ते गाली-गलोज करते देखता। बैलों, कबूतरों दीगर पशु-पक्षियों के भी यही दृश्‍य देखने को ऐसे ही मिलते रहते हैं। उक्‍त, हुई, अपनी इस घटना पर बाद में 'मुकाबला‘ कहानी लिखी थी। शांति के लाख पाठ क्‍याें न पढ़ाए जाएं, बेशक कितने अशोक, बुद्ध, गांधी, संतों की झड़ी लग जाए लेकिन मुनष्‍य हो या पशु सब में जन्‍मजात हिंसा भरी पड़ी है। न सुख से खुद जियो न अगले को जीने दो। क्‍या अजब तमाशा है, इस दुनिया का, जहां हमने जन्‍म लिया। माताजी हमेशा यही वाक्‍य समय समय पर दोहराती रहती थीं कि हमने तो आज तक कभी शांति-युग देखा नहीं। दो दो तो विश्‍वयुद्ध देखे। विभाजन के दंगे फसाद देखे। हर वक्‍त जान को जोखिम में डाले, न जाने कैसे जीते चले आ रहे हैं। अंग्रेजों के जुल्‍म तो जगजाहिर हैं। पठान कबाइलियों की लूटपाट भी बहुत निकट से देखी है। पता नहीं रावलपिंडी खलाबट पेशावर के निकट के किन किन इलाकों के किस्‍से सुनाया करतीं थीं। वे आततायी ज़ालिम लोग बाकायदा चेतावनी के तौर पर दमामें (बड़े बड़े ढोल) बजाते हुए आते। लूट पाट करते। औरतों को भी उठा ले जाते। एक बार मेरी तायी जी अपने क्‍वार्टर में खाना बना रही थीं। दमामों की आवाज सुनकर स्‍टोर में जाकर छिप गईं। ताया जी स्‍टेशन मास्‍टर थे। फ़ौरन सुध बुध लेने क्‍वार्टर पहुंचे। देखते क्‍या हैं। अधपक्‍की रोटी तवे पर जल रही है। ताईजी को न पाकर वे बेहोश हो गए। मेरे पिता जी भी ऐसे लोगों के हाथों नहर के किनारे बाल बाल बचे। हिन्‍दु मुस्‍लिम (और अन्‍य समुदायों के बीच भी) फ़साद तो शुरू से होते आए हैं। परिणति पाकिस्‍तान बनकर हुई। तब भी दो कौमों-जातों के बीच फसादात बरकरार हैं। कहने का मतलब स्‍पष्‍ट है। हिंसक प्रवृति से आदमी कभी भी नजात नहीं पा सका। ऐसी बातें रोज़मर्रा का भरा पूरा इतिहास-वृतांत है। मैं आपको सिर्फ एक गुंडी चिडि़या का आंखों देखा हाल बताता हूं। मैं चिडि़यों के आए झुंड को रोटी के टुकड़े खिला रहा था। एक मोटी ताजी चिडि़या, दूसरी चिडि़यों को मार मार कर भगा रही थी। उस एक चिडि़या के सामने तमाम चिडि़याएं बेबस डरी-सहमी थीं। गुंडी चिडि़या का पेट भर गया। अब वह स्‍वयं कुछ भी नहीं खा रही थी। इसके बावजूद कितने ही बिखरे टुकड़ों को और किसी को भी नहीं खाने दे रही थी। यह हिंसक प्रवृति मनुष्‍य और दूसरे प्राणियों में समान रूप से आंतरिक रूप से व्‍याप्‍त है। हां फर्क इतना ज़रूर है कि मनुष्‍य में चेतना है। वह बैटरमेंट (बेहतरी-सुधार) के प्रयास करता है। जंगलराज पर किसी सीमा तक काबू पाने को बहुधा बेकरार भी दिखता है। न्‍याय प्रणाली को लगातार विकसित करता है। दंड विधान भी बनाता है। उनमें समय-समय पर संशोधन भी करता रहता है किंतु इसके बावजूद अपराध आतंकवाद और बड़ी हस्‍तियों का बच निकलना भी कभी खत्‍म नहीं हो पाया।

ऐसे में क्‍या हम हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं ? नहीं। बचपन से ही मेरी यही सोच रही है कि अच्‍छे लोगों की संख्‍या, खराब लोगों के मुकाबले बहुत बहुत ज्‍यादा बढ़ चढ़ कर है। मैं एक ही धर्म को मानता हूं। मनुष्‍य धर्म। हमें भी एक जुट होकर अन्‍याय अत्‍याचारों का मुकाबला हर स्‍तर पर करना है। नीति शास्‍त्र भी परिणाम के सादृश्‍य Virtue (सद्‌वृति) पर ही बल देता है। बाद में एेसे ही जीवन-दर्शन ने मुझसे लिखवाया।

27 अप्रैल 1938 को पिताजी की तबदीली कुंदिया से सक्‍खर (सिंध प्रांत) में हो गई। बहुत छोटा होने के बावजूद, सक्‍खर की भी बहुत सी यादें मेरा अनुभव-क्षेत्र बनी। हालांकि हम लोग वहां सिर्फ छह महीने ही टिके। कुछ बातें बताता हूं। सिंधु नदी के किनारे बहुत बड़े बड़े मेले लगते थे। बहुत ही लुभावने। सिंध के तरह तरह के पकवान पूरे हिन्‍दुस्‍तान में मशहूर हैं-उसके बाद शायद पंजाब का नंबर आता है- रेहडि़ओं खोमचे वालों की, खेल तमाशे वालों की भरमार हुआ करती। हर किस्‍म की मछली की भ्‍ाी भरमार। हर किसी के घर रोज़ पकती खाई जाती थी। सार्वजनिक नलों के नीचे नगर परिषद्‌ की ओर से बड़ी बड़ी सिलें बिछवा रखीं थीं जहां पर औरतें बैठी मछली छीलती धोती रहतीं।

दो एक दिलचस्‍प घटनाएं सुनाता हूं। जिस मकान में हम किराए पर रह रहे थे एक सिंध्‍ाी डाक्‍टर साहब का था। हम ऊपर की मंजिल में रहते थे। चलते वक्‍त सीढि़यां, जैसे झूलती थीं। आए दिन डाक्‍टर साहब रात को पुकार उठते थे ''सहगल साहब कोई सी भी जो तरकारी बनी हो, एक कटोरी भिजवा दें। बड़ी मेहरबानी होगी। मैं तो मीट मछली खाते खाते थक गया।‘‘ पिताजी प्रसन्‍न भाव से हम बच्‍चों से डाक्‍टर साहब के लिए सब्‍जी भिजवा देते। एक रात मैं जिद कर बैठा मैं मीट या मछली खाऊंगा। माताजी (जिन्‍हें हम भाभी बुलाते थे) ने कहा-आज तो मंगलवार है। (हमारे यहां मंगलवार को मांसाहारी भोजन का निषेध है) मगर मैं रोने लगा जि़द पर अड़ गया। आखिरकार पिता बोले-क्‍या फर्क पड़ता है। बच्‍चा ही तो है। हर रोज़ डाक्‍टर साहब हमारे यहां से तरकारी मंगवाते हैं। आज उनके यहां से मीट ले लते हैं। बहन कृष्‍णा मीट ले आई। खाते ही मुझे उल्‍टियां होने लगीं। जी मचलाने लगा। माताजी ने कहा हनुमान जी नाराज हो गए। देख लिया ना, मंगलवार का असर। पिताजी आर्यसमाजी विचारों के अनुयायी थे। आर्यसमाजी, आधुनिक प्रगतिशील कहलाते थे। उन्‍होंने माताजी से कहा-तूने बच्‍चे में वहम डालकर इसे नुकसान पहुंचाया है। रात के वक्‍त, वे हमें नजदीक के बाजार ले गए। बहन भाइयों ने चाट पकौड़ी जैसे बेसन के व्‍यंजन खाए। मुझे जिंजर (अदरक) की बोतल पिलाई। मैं ठीक हो गया। लेकिन मेरे मन में पक्‍का वहम बैठ गया कि मंगलवार मीट मछली खाने से नुकसान होता है। यह सिलसिला मेरे साथ रेवाड़ी तक जब मेरी पोस्‍टिंग वहां हुई, चलता रहा। मैं निरंतर इस बात पर विचार करता रहा। शायद बंगालियों के गुरूवार को तो किसी समुदाय में शनि को मांसाहारी भोजन का निषेध है। मतलब हुआ कि गरिष्‍ठ भोजन पर किसी प्रकार से अंकुश लगे। आज नवरात्रे हैं। आज अमावस है। आदि आदि तो मीट मछली अंडों से परहेज रखना।

मैंने एक मंगलवार को मन को पक्‍का कर रेवाड़ी में, मेेरी नई नई सर्विस लगी थी, मैं कंवारा था, एक ढाबे से मीट के साथ खाना खाया। उससे अगले और उससे भी अगले मंगलवारों को मीट खाया। कुछ नहीं हुआ। इसके बावजूद, मैं आज तक मंगलवार को तो बिलकुल मीट नहीं खाता। इस पर बच्‍चों के लिए एक कहानी भी लिखी 'वहम का सत्‍य‘। वैसे हमारे यहां बहुत कम कभी कभार ही मीट बनता है। पर न खाने वाली सौगंध कभी नहीं खाई। जगह जगह, जात जात के कहना चाहिए, मनुष्‍य ही के बनाए रिवाज मान्‍यताएं हैं। बरेली में मैंने टोकरों को सिर पर उठाए मीट मछली बेचने वालों को मुहल्‍लों में देखा है। पर बीकानेर में कोई मुहल्‍ले के निकट, मीट की दुकान को बर्दाश्‍त नहीं कर सकता।

जो लोग मीट वगैरह के नाम से नाक भौं चढ़ाते हैं, उनसे मैं पूछा करता हूं कि अगर तुम चीन असम में पैदा हुए होते तो क्‍या क्‍या नहीं खा रहे होते। मुझे खुद उनके नाम गिनाते हुए संकोच हो रहा है। इसी तरह रूस और कई देशों में हर जानवार का मांस आराम से, हमारे यहां से गए लोग भी मजे से सब कुछ खा लेते हैं। सब्‍जियों में भी जान होती है। छोडि़ए बहुत लंबा विषय है। सब कुछ वातावरण और संस्‍कारों पर निर्भर करता है। संत तुल्‍य महालेखक टालस्‍टाए ने लिखा है-भगवान ने तो तुम्‍हारे लिए असंख्‍य मछलियां भेजी हैं। तुम अपने बाहुबल श्रम द्वारा अपना पेट भरो।

बंगाली पंडित, सुना है, अगर यजमान ने उसके लिए मछली नहीं परोसी तो रूठ जाते हैं।

इस विषय में मेरे िलए, भगवती चरण वर्मा की 'चित्र लेखा‘ मेरे जीवन का अटूट अंग बनी। दूसरी किताब जिसने मेरे जीवन को बनाने में मदद की स्‍वेट मार्डन की ''जैसा चाहो वैसा बनो‘‘ है। ये दोनों टॉप पर हैं। बाकी की थोड़ी बाद में, जिनका उल्‍लेख, आगे कहीं करता नजर आऊंगा।

दूसरी घटना सक्‍खर की है कि मेरी किसी बात से तंग आकर माताजी ने मुझे कमरे में बंद कर दिया था। मैंने गुस्‍से से खिड़की में से घर का सामान गली में गिराना शुरू कर दिया। लोग सामान उठा रहे थे। तब मैंने कमरे में से ज़ोर से आवाज़ लगाई। देखों लोग हमारा सामान ले जा रहे हैं। ऐसी चीजों को मैं 'जीवन द्वंद्व‘ की संज्ञा देता है। मुझे बात बात पर शुरू से बहुत गुस्‍सा आता था। एक बार तो पिताजी के गाल पर चपत जड़ दी। उन्‍होंने कुछ नहीं कहा। तब पिताजी 'पंछी बावरा चांद से प्रीत लगाए‘ की तर्ज पर गाते-दर्शी बावरा क्रोध से प्रीत लगाए। उन्‍हाेंने मुझे कई गुर भी समझाए कि ऐसे ऐसे क्रोध को वश में किया जा सकता है। उसका काफी या थोड़ा असर भी हुआ। पर लेखन के स्‍तर पर आज भी मेरा, और तरीके से मानना है कि अगर लेखक को गुस्‍सा नहीं आता। उसे कोई शिकायत ही नहीं तो खाक लिखेगा ?

एक बात सक्‍खर की और है। वहां हम पाई भी खर्चते थे। एक पाई का बहुत सारा सामान, खाने पीने का भी आ जाता था। भाई साहब इतनी सारी गोलियां (लाइम चूस) देखकर दुकानदार से कहने लगे। इतनी सारी मुझ नहीं खाई जाएंगी। मुझे बस थोड़ी सी दो। बाकी की तुम्‍हीं रख लो। दुकानदार और बाद में घर वाले खूब हंसे।

एक धुंधली घटना बार बार आंखों के सामने आती है। एक दोपहरी को एक खेमचे वाले को, पुलिस वाले पकड़ने आ पहुंचे। लोगों ने जल्‍दी जल्‍दी न जाने कहां से गुलाबी रंग लाकर उस पर छिड़का। उसके गले में फूलों की मालाएं पहनाईं। उसने जोर से 'इंकलाब जिंदाबाद‘ का नारा लगाया और अपने खोमचे को वहीं का वहीं बीच बाजार छोड़कर, पुलिस वालों के साथ चल दिया। लोग बाग उसकी जय बोलते बोलते कुछ दूर तक उसके पीछे चलते रहे थे। अब जाकर कहीं समझ में आता है कि वह अवश्‍य स्‍वतंत्रता सैनानी रहा होगा।

सबसे दुःखद घटना सक्‍खर में, 17 फरवारी 1939 शिवरात्रि को घटी। मुझसे बड़े भाई कुलदीप का निधन हो गया। हम कुल चार बहने और छह भाई थे जो बाद में आधे रह गए थे। यानी तीन भाई और दो बहनें। माताजी को अंत तक गुजरी हुई औलादों पर िवलाप करते देखता रहा और मैं भी अंदर ही अंदर रोता रहा हूं। भगवान को कोसता रहा हूं कि अगर मारना ही था तो पैदा ही क्‍यों किया था। सिर्फ हम लोगों को दुःख पहुंचाने। इसमें तुझे क्‍या मज़ा आया। मैं भी इतना गुमसुम रहने लगा था। किसी को अपना दुःख कह नहीं सकता था; जैसे बेजुबान पक्षी, जानवर। हर वक्‍त उदास उदास इधर उधर डोलता फिरता। छत की मुंडेर के साथ जुड़कर खड़ा हो जाता। बेरों की गुठलियां, ऊपर से नीचे जमीन पर गिराता रहता। सोचता, जब आठ गुठलियां गिर जाएंगी तो भाई जिंदा हो जाएगा। इस चीज को लेकर अब सोचता हूं कि हो न हो मनुष्‍य विपत्त्‍ाियों बेबसी अज्ञान भरी परिस्‍थितियों के आलम में ही अंधविश्‍वासी, भगवान का अंध-भक्‍त बना होगा। जहां मनुष्‍य की पेश नहीं चलती, कुछ समझ में नहीं आता तो हर दर्जे तक भगवान पर भरोसा कर, अपने को छोड़ देता है ः जहां दूर दूर तक कोई तर्क नज़र नहीं आता। हम पहले की तरह लिपट कर प्‍यार करेंगे। खेलेंगे। शरारते करेंगे। हमारे घर की सारी खुशियां हमें वापस मिल जाएंगी।

इसीलिए शायद पशु पक्षियां पर होते अत्‍याचारोें को देखकर उन पर बहुत रहम आता है। घोड़े बैल-चाबुकें खाते रहते हैं। पर कुछ कह नहीं पाते। उन पर भी कहानियां लिखी हैं। इस छोटी उम्र से ही सोचना शुरू कर दिया था कि जब हमें यह शिक्षा दी जाती है कि किसी को भी नहीं सताना चाहिए तो भगवान, जिसकी हम पूजा करते हैं। आरती उतारते हैं वह हमें नाहक क्‍यों सताता है। उस वक्‍त से आज तक एक रटा रटाया उत्त्‍ार होता है- ये सब पूर्व जन्‍मों के कर्मों का फल है। तो कहता हूं कि अगर कोई आदमी किसी दूसरे आदमी को पीट रहा है तो उसे नहीं बचाना चाहिए (यह भगवान की मर्जी में हस्‍तक्षेप होगा) इसलिए पिटते हुए आदमी को नहीं बचाना चाहिए, क्‍योंकि हो सकता हे कि पिटने वाले आदमी ने पूर्व जन्‍म में, पीटने वाले आदमी को पीट रखा हो।

इसी तरह के मेरे कहे गए जुमलों को लोग बाग सनकीपन कहते हैं। लोग कहते हैं कि फलां आदमी छत से गिरा और बच गया। ''जाके राखे साइयां मार सके न कोए‘‘ मैं कहता हूं, अगर बचाना ही था तो गिराया ही क्‍यों ? भगवान ने तो उसे मारना चाहा था, वह स्‍वयं अपने यत्‍न तरकीब से बच निकला।

यह दरअसल बातों, प्रश्‍नों-उत्त्‍ारों का झमेला है। किसी के भी पास इनका सही सही उत्त्‍ार हुआ ही नहीं करता है। जिंदगी अपने आप में एक झमेला है। यहां कोई 'हार्ड एंड फास्‍ट रूल‘ (ठोस नियम) नहीं है। न इसकी अंतिम और शुद्ध व्‍याख्‍या है। न परिभाषा। मैंने अपनी काम वाली गैर हिन्‍दु, से पूछा-तुम तो पूर्वजन्‍म पूर्व कमोंर्ं में विश्‍वास नहीं रखते तो तुम एक मामूली हैसियत वाली क्‍यों बनी ? उसने उत्त्‍ार दिया -ऊपर वाले की यही रज़ा थी। मैंने कहा। ऊपर वाला तो दयालु बरकतें बखशने वाला है। फिर यह घटिया काम क्‍यों किया उसने, जो किसी को दौलत से मालामाल कर दिया तो किसी को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं की। उसके यहां यह भेदभाव क्‍यों ?

मनुष्‍य द्वारा बनाए विधान-संविधान न्‍याय प्रणाली आदि पर तो फिर भी जवाब देही हो सकती है। उस परम शक्‍ति सम्‍पन्‍न परमात्‍मा से कोई भी प्रश्‍न नहीं पूछा जा सकता। घोर आस्‍थावादियों से क्षमा चाहता हूं जो उत्त्‍ार नहीं देकर सिर्फ झगड़ सकते हैं। यह धर्म पूजा आराधना अंध भक्‍ति अटूट आस्‍था के मामले भले ही कितने अतार्किक क्‍याें न हों, अति अति नाज़ुक संवेदनशील हुआ करते हैं। लोग बाग मरने-मारने फ़साद करने लूटपाट आगजनी करने, पर उतारू हो जाते हैं। बेरहमी की हद तक एक दूसरे से बाजी मार ले जाना चाहते हैं। भले ही पीछे बीवियां विधवा हों, बच्‍च यतीमी का दर्द भोगें। मुअॉफ करें, उसी संवेदनशील, विषय पर संक्षेप में कुछ टिप्‍पणी करने से अपने को रोक नहीं पा रहा। जहां प्रश्‍न-उत्त्‍ार न हों, वह मानव समाज कैसे उन्‍न्‍ति की ओर शीघ्रता से बढ़ सकता है। से․रा․ यात्री जी से वार्तालाप होता रहता है। विभूति नारायण राय (वर्तमान कुलपति गांधी विश्‍वविद्यालय वर्धा) से भी खूब मिलता जुलता रहा। वे बीकानेर में करीब दो साल रहे। उनकी प्रगतिशीलता धर्मनिरपेक्षता तो किसी से छिपी नहीं है। उन दोनों महानुभावों का भी स्‍पष्‍ट मत सुनने को मिला कि हमारे यहां भी लाख ज़हालतें हैं और उन ज़हालतों की आलोचना भर्त्‍सना करने वाले इंसान भी बड़ी तादाद में मिल जाएंगे। मगर दूसरी तरफ वालों की (सब कुछ तर्कों के आधार पर जानते समझते हुए भी) ऐसी बातें करते उनकी रूह कांपती है। जो बुद्धिजीवी इन विषयों पर कुछ कहने/लिखने की जुर्रत दिखाते हैं उनको इसकी भयंकर कीमत चुकानी पड़ती है।

एक प्रसंग और बताकर आगे बढ़ता हूं। हमारे कलावादी तथा प्रगतिशील लेखक, गुरूदत्त्‍ा को लेखक ही नहीं मानते। मैंने गुरूदत्त्‍ा का 'देश की हत्‍या‘ उपन्‍यास पढ़ रखा है। उसमें वर्णित साारी घटनाएं मेरी आंखों के सामने से गुजरीं हैं। मैंने अपने एक कलावादी मित्र को बताया कि उसमें एक अपटुडेट कॉलेज छात्रा का वर्णन आता है। जब लाहौर पाकिस्‍तान में शामिल कर लिया गया। उस समय का वर्णन है। छात्रा किसी धर्म-वर्म में विश्‍वास नहीं करती। उसका मुसलमान ट्‌यूटर उसे चाहता है। लड़की का बाप अमीर बनिया/आढ़ती है। वह लड़की से कहता है कि तू ट्‌यूटर से शादी कर ले। हम सब भी मुसलमान बन जाएंगे। हमें अपनी हवेलियां जायदाद छोड़कर हिन्‍दुस्‍तान नहीं जाना पड़ेगा। लड़की सिर्फ इस आधार पर इनकार कर देती है कि जिस क्षण मैं इस्‍लाम कबूल करूंगी उसी क्षण से मैं अपने आपको नास्‍तिक कहने का अधिकार खो बैठूंगी।

यह प्रसंग सुनते ही हमारे मित्र प्रभावित हुए और कहां-हां यह तो ठीक है। हमारे यहां कम से कम विचारों का खुलापन तो है ही।

चूंकि शुरू से मेरी आदत हर विचार पर पढ़ने सोचने मनन करने की रही है तो यह सब मेरी जिंदगी के अटूट हिस्‍से, श्रृंखलाबद्ध होते चले गए। आज तक भी होते चले जाते हैं। इन्‍हीं विचारों इन्‍हीें सोचों को ही मेरी जिंदगी कहा जा सकता है। कितने ठीक सही हैं; कितने गलत हैं, इसका फैसला पढ़ने वालों पर छोड़ता हूं।

आगे भी ऐसी बहुत सी बातें होती रहेंगी जिनसे मेरी जिंदगानी लगातार जूझती बदलती-पलटे खाती चली गई।

22 मई 1939

चलिए फिलहाल पेशावर (फ्रंटियर) चलते हैं। कबाइली इलाका। बड़े बड़े हट्‌टे कट्‌टे पठान कुल्‍ला-बड़ी बड़ी सलवारे अचकने पहने; जिन्‍हें देखकर बड़ों तक की भी रूह कांप जाए। मेरे जैसे नन्‍हें दिल की तो बात ही क्‍या ? उन्‍हें देखकर मेरा दिल धड़ धड़ बजने लगता। नादर नाम के बड़े कद वाले मोटे ताजे जमादार का डरावना चेहरा तो आज तक सहसा आंखों के सामने आ खड़ा होता है। वह हर रोज़ सफाई करने हमारे क्‍वार्टरों में आया करता था। यहीं पर गर्म खून के लड़कों की एक घटना भी बताता चलता हूं जो मैंने अपने भाई साहब की जबानी सुनी थी। एक मास्‍टर साहब ने किसी बात पर नाराज़ होकर पठान लड़के को थप्‍पड़ लगा दिया। लड़के ने छुरा निकाल लिया। मास्‍टर साहब ने लड़के को डांटकर घर भेज दिया कि तुम्‍हारा नाम स्‍कूल से काट दिया जाएगा। बाप को ला। लड़के का बाप लड़के को लेकर स्‍कूल आया कि मास्‍टर साहब से माफी मांगो। गर्दन पकड़ कर मास्‍टर साहब के पांव पर झुकाया तो पैर छूने के बहाने लड़के ने मास्‍टर साहब के पैर को छरे से घायल कर दिया।

हां पिताजी बताया करते थे कि जब हम उन लोगों से टिकट पूछते तो वे जेब में से छुरा निकाल लेते-दिखाऊं टिकट ?

इसलिए गाड़ी में टिकट चैकिंग के दौरान दो राइफल मैन टीटीई के अगल बगल साथ साथ चलते।

मगर दूसरे बड़ी तादाद में खूनखार किस्‍म के कबाइली पठान थे जो कहीं पहाडि़यों पर गुज़र-बसर करते थे। वे सब पहली तारीख को झुंडों में पेशावर आया करते थे। अंग्रेजों ने उनकी ऐसे ही पेंशन बांध रखी थी - अंग्रेज सरकार भी उनसे डरती थी कि अपने अपने पैसे लो और किसी किस्‍म का उपद्रव न मचाओ।

दूसरी तरफ देखने को खूबसूरत नज़ारे थे। हरियाली ही हरियाली, फल ही फल। 'बाड़ा बंगले‘ के सवा सेर तक के आडू़ मशहूर थे। गली गली बिकने को आते थे ''बाड़ा बंगले के आडू़ ले लो‘‘ की पुकार आज तक भी कानों में गूंजती है।

हम बच्‍चों की नेकरों, कमीजों की जेबें बादामों, चलगोजो, किशमिश, पिस्‍ता, अमलोक चमूनो काजुओं से भरी रहती थी- सुना है ये सब चीजें दो से चार आने सेर मिलती थीं - हम गिलीडंडा और दूसरे खेल खेलते हुए इन्‍हें जेबों से निकालते रहते/खाते रहते।

हमारे क्‍वार्टर के सामने रेलवे की लाइने थीं जिनसे हर वक्‍त गाडि़यां गुजरतीं रहती। क्‍वार्टरों और लाइनों के बीच लोहे के जंगले की लंबी कतार थी। इनसे सटे हुए बड़े बड़े श्‍ाहतूत के पेड़ थे। हम बच्‍चे जब तब चुन चुन कर या दुःसाहस कर पेड़ो ंपर चढ़कर शहतूत इकट्‌ठे करते रहते। फिर बांट कर खाते।

बाप की गाड़ी थी। जब जब दिल करता गाड़ी में बैठकर लंडी कोतल (लंडी कोतल, अफगानिस्‍तान) हो आया करते। पहाड़ पहाडि़यों घाटियों के बीच तराशे गए स्‍थलों से गाड़ी मंथर गति से चलती। खास तौर से हम छोटे बच्‍चों में रोमांच भरती। मन बहलाती। रास्‍ते में सात सुरंगें पड़ती थीं। जब जब गाड़ी सुरंग के नीचे से गुजरती घुप्‍प अंधेरा छा जाता। खूब मजे आते थे। जैसे ही गाड़ी इन दुर्गम इलाकों को पार करती हुई, सुरंग पार करती। रोशनी हो जाती। हम बच्‍चे 'हो हो‘ कर शोर मचा देते।

पेशावर में जब अबोध अवस्‍था में था, तब एक अजीबो गरीब स्‍कूल में भर्ती कर दिया गया। यहां पर मुझसे बड़ी कद काठी के लड़के थे। इन्‍हें देखते ही झुरझुरी-सी उठने लगती। तीन चार दिन तक वहां जाता रहा। वहां पश्‍तो बोली जाती थी। मैं अकेला, अलग-थलग, सहमा-सहमा वक्‍त काटता। कमरों बरामदों की दीवारों के कोनों में खड़ा खड़ा छिपकर समय बिताता। जल्‍दी छुट्‌टी हो जाए। भगवान से यही मनाता। आज तक भी वह नज़ारा सोचकर दहशत होती है। शायद यही कारण है कि जो मासूम बच्‍चे, अपनी तकलीफ कह नहीं पाते, उनमें अपने आपको देखता हूं। तभी ऐसे बच्‍चों के प्रति बहुत संवेदनशील हूं। उन पर बहुत कहानियां लिखी हैं। बच्‍चों की समस्‍याओं पर दो उपन्‍यास भी लिखे हैं। 'छोटे कदम ः लंबी राहें‘ तथा 'मन की घंटियां‘।

मेरे चेहरे की उड़ी उड़ी रंगत, खास तौर से माताजी से छिपी नहीं रही। पिताजी से कहकर उन्‍होंने मुझे उस स्‍कूल से निकलवा लिया। फिर एक बहुत ही खूबसूरत बड़े इंगलिश मिशनरी स्‍कूल में दाखिला दिलवाया। वहां की अनेक खूबियां आज तक मन को सुख पहुंचाती हैं। उस पर भ्‍ाी कहानी 'शरीके जुर्म‘ लिखी जो 'आजकल‘ में छपी थी। यह देश विभाजन के पहलुओं को छूती है।

उस स्‍कूल में लड़कियां दसवीं तक पढ़ सकती थी (वहां की एक बड़ी लड़की जो मुझे छेड़ती थी, पर ही कहानी 'शरीके जुर्म‘ लिखी) लेकिन लड़कों को चौथी क्‍लास के बाद स्‍कूल छोड़ना पड़ता था। मेरे लिए यह नौबत ही नहीं आई। मैंने (हम सबने) स्‍कूल ही नहीं शहर (पेशावर) ही छोड़ दिया। फिर ट्रांसफर। 10 जुलाई 1941 को हम किला शेखुपुरा (लाहौर के नज़दीक पंजाब) आ गए। पर पहले पेशावर की थोड़ी सी बात और कर ली जाएं। वह दिन मुझे नहीं भूलता जब मेरे से बड़े भाई साहब मनोहर लाल रोते हुए क्‍वार्टर में घुसे थे। कारण उनके हमजोली उन्‍हें 'मंगेतर‘ 'मंगेतर‘ कह कर चिढ़ाते थे। इतनी छोटी उम्र में माताजी ने उनकी मंगनी, हमारी सबसे बड़ी बहन सुमित्रा कपूर की जेठानी की लड़की, सेठ तुलसीदास की लड़की के साथ कर दी थी और यह बात माताजी ने मोहल्‍ले की औरतों के बीच प्रचारित भी कर दी थी। आगे जाकर इस मंगनी का हश्र क्‍या हुआ ? आगे कहीं बताऊंगा। हां उसी वक्‍त भाई साहब ने कह दिया था ''मैं यह शादी नहीं करूंगा।‘‘

जनेरेटर के द्वारा रेलवे क्‍वार्टरों के ग्राउंड में कभी कभी कोई डाकूमेंट्री या दूसरी फिल्‍में भी दिखाई जाती थी।ं। एक फिल्‍म में एक निहायत खूबसूरत अंग्रेज किशोरी को दिखाया गया था। उसके हाथ, जंजीर थी। उससे एक सफ़ेद रंग का सुन्‍दर कुत्त्‍ाा बंधा हुआ था। मैंने वहीं से रोना शुरू कर दिया। और कइर् दिनों तक रोता रहा कि उसी कुत्त्‍ाे वाली लड़की से मुझे शादी करनी है।

अपनी बचपन की, दूसरी शादी की घटना बताऊं ? वह आफर मेरी तरफ से नहीं थी। कॉलोनी की एक छोटी सी लड़की की ओर से थी। कहती थी - दर्शन से शादी करूंगी। सारी कॉलोनी की औरते हंसती। खुद मेरी माताजी उससे कहतीं-यह बड़ा गंदा है। काला है। इसे गुस्‍सा भी बहुत आता है। तुझे मारेगा। वह जवाब देती-कोई बात नहीं। मार लिया करे। कुछ भी हो मैं शादी दर्शन से ही करूंगी। मैं कहता-तो ठीक है। हमारे घर में झाडू़ लगा। वह नन्‍हें हाथों से झाड़ू थाम लेती। मैं कहता-नहीं पहले हमारे घर के सारे बर्तन मांज। वह बर्तन मांजने बैठ जाती। माताजी आगे बढ़कर उसे सीने से लगा लेतीं। अरे अभी शादी कहां हुई। जब शादी हो जाए तो सारे काम करना।

इस पर भी एक कहानी लिखी है 'रूस्‍दी‘ कई जगह छपी। यह भी विभाजन से थोड़ी संबंधित है।

पिताजी की ड्‌यूटी जब तब कराची के लिए कुछ दिनों के लिए लगती रहती। हम बच्‍चे बड़े उत्‍साह से, जब वे वापस पेशावर लौटते स्‍टेशन पर, उन्‍हें लेने जाते। पिताजी टी․टी․ई․ की वर्दी में खूब जचते। एक बार पेशावर से किसी कर्मचारी का ट्रांसफर हो गया। तमाम क्‍वार्टरों वाले उन्‍हें बिदाई देने स्‍टेशन पहुंचे। लड़कियों की टोलियां अपनी जाने वाली सहेली को घेरे खड़ी थीं। एक दो ने अपने हाथ पीछे अंगुलियों में बांध रखे थे। मैं देखता रहा और सोचता रहा 'शायद यह बिदाई के समय पीछे हाथ बांधने की एक रस्‍म है जो जाने वालों के सम्‍मान में की जाती होगी। आज अपनी ऐसी साधारण सोच के लिए हँसी आती है और शर्मन्‍दगी भी महसूस होती है। पर यह भी लगता है कि हर चीज पर बारीकी से सोचने की आदत बाल्‍यकाल से चली आई है।

पेशावर की एक शानदार यादाश्‍त भल्‍ला साहब और उनकी पत्‍नी हमारी चाची प्रकाशो है। भल्‍ला साहब पिताजी के अंतरंग मित्र थे। वे कहीं से ट्रांसफर होकर पेशावर ही आ पहुंचे। पिताजी और हम सबकी खुशी का ठिकाना न रहा। पर उन्‍हें जो क्‍वार्टर मिला जरा दूर लाइनों के पार पड़ता थ। कोशिश करके हमने भी भल्‍ला साहब के पड़ोस वाला क्‍वार्टर ले लिया। पल पल में आना जाना। चिड़ी छिक्‍का (बैडमिंटन) उनके यहां या हमारे आंगन में खेला जाता। शाम को आवाज लगाई जाती। ''चाचीजी बनी हुई है।‘‘ मतलब चाय तैयार है। प्रकाशों चाची मुझे छेड़ती चिढ़ातीं मैं उनके मुंह पर थूक भी देता। एक बार उन्‍होंने मुझे गुस्‍सलखाने में बंद कर दिया। मैंने बाल्‍टियां लौटे पटक पटक कर तूफान मचा दिया․․․․। तो ऐसी थी मुहब्‍बतें। इस पर भी कहानी कादम्‍बिनी मेंलिखी है 'दर्दे दरार‘।

मुहब्‍बत तो दूसरे पड़ोसी/पड़ोसिन से भी कम नहीं थी। मगर हाय वे मुसलमान थे। मुसलमान होने के नाते उनसे कटोरी नहीं बदल पाती थी। उस समय आत्‍मजनों के बीच यह रिवाज सा था कि जो सब्‍जी उनके बनी है, दूसरे को जायका बदलने के लिए, बच्‍चों के हाथ भिजवा दिया करते थे। उस मुसलमान चाची के मन में सदा यह अरमान बनारहा कि काश आप, मेरे हाथ का पका हुआ गोश्‍त खाकर देखते। मैं बहुत ही लज़ीज़ मीट बनाती हूं।

पठानों के चरित्र और आतंक की और भी घटनाएं स्‍मृति में हैं। पर छोडि़ए। अब किला शेखपुरा (पंजाब) चलते हैं। यहां पर बहुत बड़ा कि़ला है और है, हिरण मीनार जो बिलकुल दिल्‍ली की कुतब मीनार की ही तरह है। सुना है; यहां ऊपर मीनार पर बैठकर बादशाह हिरणों का शिकार किया करता था।

30 मई 1941 को हम लोग यहां किला शेखुपुरा पहुंचे थे। यह एक कस्‍बानुमा शहर था। यहां एक भी सिनेमा हाल नहीं था। हां ड्रामा मंडलियां, सरकस की तरह, समय समय पर आया करती थी। एक पैसो दो पैसे रेट पर हर तरह के नाटक दिखाया करते थे। कुछ हास्‍य नाटक नाटकों के कथ्‍य याद रह गए जो बरेली स्‍काउटिंग कैंपों के दौरान मैंने लड़कों को साथ लेकर खेले भी। बहुत बाद में यहां एक सिनेमा घर खुला था। लेकिन देखने वालों की निहायत कमी थी। जैसी पिक्‍चर आती, सिनेमा वाले वैसे ही (तांगोें में बैठकर, या पैदल) प्रचार करते। जैसे 'पागल‘ पिक्‍चार आई तो एक आदमी पागल बनकर ऊल जलूल हरकतें करता हुआ आया। 'दूल्‍हा‘ फिल्‍म आई तो एक आदमी घोड़ी पर चढ़, सेहरा बांध कर आया। वे खूब इश्‍तहार लुटाते। मैं लपक लपक कर उठाता। उन्‍हें तरतीब से लगाकर बड़ी बहन जी से ऊपर से सिलवाता; ताकि रिकार्ड रहे कि हमारे शहर में कौनसी फिल्‍में लगीं थीं।

मैटनी शो का समय हो जाता, पर हाल खाली रहता। ऐसे में सिनेमा वाले मुहल्‍लों की ओर दौड़ते आते। जल्‍दी करो फिल्‍म शुरू होने वाली है। माओ भैणों (बहनों) वास्‍ते बहुत अच्‍छी है। भक्‍ति वाली है। नर्सी झात। चण्‍डीदास पूरनभगत/नलदमयंती। भक्‍त सूरदास श्रवण कुमार। आज्ञाकारी बैटे की कहानी है। जल्‍दी करो। फिल्‍म शुरू हो जाएगी। फिर पता नहीं कब आएगी, यह फिल्‍म।

ठीक से याद नहीं, शायद बाद में यह सिनेमा हाल बंद हो गया था। शौकीन, पैसे वाले लोग लाहौर जाकर पिक्‍चर देख आआ करते थे। बाद में शायद फिर शेखुपुरा में एक सिनेमा घर चालू हो गया था। लोग बाग मस्‍ती भरे कदमों से पिक्‍चार देखकर हाल से बाहर, उसी फिल्‍म के गाने गुनगुनाते हुए निकलते थे। उसी फिल्‍म के गानों की चार छह पेजी पुस्‍तिका जिसमें विज्ञापन शामिल होते, लड़के आदमी आवाजे दे देकर बेच रहे होते, जो धड़ाधड़ बिकतीं (नमूने के तौर पर आज भी मेरे पास दो तीन मिल जाएंगी। यह सिलसिला या रिवायत आगे चलकर बरेली में आकर भी देखी। सिटी टाकीज़ में तो अनाकली लगातार नौ महीने चली थी। 'महब्‍बत में, कदम यूं डगमाए। ज़माना यह समझा कि हम पी के आए‘‘ बीना राय पर बार बार देखने वाले लोग सिक्‍के बरसाते। बाद के महीनों में सोडे के बोतलों की थालियां (ढकन)।

मैं स्‍टेशनों का नाम लिया करता हूं जहां मैंने होश संभाला। किला शेखुपुरा और दूसरा बरेली। दरअसल किला शेखुपुरा के आरंभिक वर्षों में तो 'होश‘ जैसे मुझमें करवटें लेने लगा था। वहां जो ख्‍़ाास बात हुईं वह, यही कि यहां उर्दू होने के नाते मुझे दूसरी की बजाए फिर से अव्‍वल (पहली) क्‍लास में दाखिला मिला। पंजाब में बेशक घ्‍ारों में पंजाबी बोली जाती है, लेकिन लिखापढ़ी में उर्दू ही का बोलबाला था। उर्दू आज भी किसी सूबे की जबान नहीं। फिर मजे की बात; स्‍कूलों में लड़कों को उर्दू पढ़ाई जाती थी, लेकिन लड़कियों को हिन्‍दी। ऐसा क्‍यों था ? इसे आज तक नहीं समझ सका। हां इससे यह बात हम लड़कों के जेहन में जरूर समाई रहती कि हम लड़कों का दर्जा, लड़कियों के मुकाबले ऊंचा है। तभी तो हमें उर्दू पढ़ाई जाती है। हिन्‍दी हमारे लिए कमतर थी। सो हम हिन्‍दी का मज़ाक उड़ाया करते थे-अरे हिन्‍दी लिखना कौन सा मुश्‍किल है। पहले ऊपर एक सीधी लाइन खींच दो। फिर उसके नीचे छोटी बड़ी तिरछी आढ़ी लाइनें खींचते चले जाओं। बस।

मास्‍टर लोग अजीबोगरीब पोशाक में, सलवार, टोपी, अचकन वगैरह में दिखते। निहायत बेदर्द बेरहम। हाथों में मारने के लिए दरख्‍तों झाडि़यों की टहनियां। बात बात पर पिटाई ठुकाई। पढ़ाइर् कम। एक दिन, मास्‍टर जी की निगाह में अच्‍छा बनने को, एक लड़का, स्‍कूल आते समय रास्‍ते से एक लचीली टहनी तोड़ लाया- लीजिए मास्‍टर जी। मास्‍टर जी ने उसी टहनी से उसी पर पहला प्रहार कर दिया और हंसने लगे। सभी छात्र भी हंसते नज़र आए। पर मेरा छोटा सा दिल कांप गया। फिर सोचा ठीक इंसाफ हुआ। एक लड़के ने एक मास्‍टर साहब से दूसरे लड़के की शिकायत की थी कि यह लड़का बाजार में यूं ही धूम (यानी आवारागर्दी) कर रहा था। मास्‍टर जी ने उसी के थप्‍पड़ जड़ दिया- अहमक तो वहां तू क्‍या कर रहा था (जो तूने उसे वहां देखा)।

मास्‍टर लोग अक्‍सर कुछ लड़को ंको अपने घर भी भेज दिया करते थे कि जाकर, मेरी घर वाली से पूछ कर यह यह काम कर आओ। लड़के खुशी खुशी मटरगश्‍ती करते हुए स्‍कूल से चल देते - चलो आज पढ़ाई और पिटाई से छुट्‌टी मिली। एक दिन मैंने भी प्रार्थना की (मुझे बड़े घर का लड़का समझ कर नहीं भेजा करते थे) मास्‍टर साहब मैं भी जाऊं ? उन्‍होंने कहा-तुम चाहते हो तो जाओ। मैं चल तो दिया पर तीन मील तक चलते रहने से ही मेरी सांस फूल गई थी। फिर तौबा की।

कि़ला शेखुपुरा में हमें रेलवे क्‍वार्टर नहीं मिला था। एक किराए का मकान (किराया रहा होगा पांच दस रूपए महीना के बीच) मिला था। मुहल्‍ला गुरूनानकपुरा।

मालिक मकान बहुत बड़े आढ़ती थे जिन्‍हें सभी शाहजी कह कर पुकारते थे। छोटा भाई शंभु था। सरदार। यही रिवाज था। एक भाई मोना होता था। दूसरा सरदार। तीसरा फिर मोना। यही क्रम चलता था।

शाहजी की पत्‍नी सोमा अधपगली थी। उनकी मां जिन्‍हें हम सब बेबे कहकर बुलाया करते थे, (बाद में दंगों में मारी गई थीं) वह तथा और लोग बाग कहते - शाहजी दूसरी औरत ले आओ। आपको क्‍या कमी है। मगर शाहजी बड़े सब्र वाले नेकदिल इंसान थे। कहते अन्‍न और रन (आैरत) पर तोहमत लगाने वाला आदमी ही नहीं होता। यानी जानवार होता है। खैर․․․․․․․․․․

पहली दूसरी तीसरी क्‍लासों में समवेत स्‍वरों से पहाड़े रटते। स्‍लेटें तख्‍तियां साफ करते फिर उन्‍हें हवा में लहरा लहरा कर कोई खास दोहे से (सुक जा सुक जा) गा गाकर सुखाते। जमीन में गहरी लाइन खींच देते थे कि जब धूप यहां पर पहुंचेगी तो आधी छुट्‌टी, पूरी छुट्‌टी का घंटा बजेगा। सो झूमते हुए घर की ओर चल पड़ते। ड्‌यूढ़ी ही से ही धीरे से बस्‍ता अंदर की ओर सरका देते। पहले ही से दरवाजे की ओर में गिली-डंडा छिपा कर रखा होता। उसे उठाकर गली में खेलने लगते। मां इंतजार करतीं कि अभी तक बच्‍चे स्‍कूल से नहीं आए। फिर पता चलता कि वह तो बाहर खेल रहे हैं। पुराने जमाने के सिक्‍के भी इकट्‌ठे करने का शौक था। मुगलकालीन, विक्रमादित्‍य और तत्‍कालीन रियासतों के सिक्‍के, छाबड़ी-खोमचे वाले मेरे लिए ले आते (औरों की नजर में तो वे खोटे ही थे) आवाज लगाते दर्शी या दर्शन। मैं खुशी से फूला न समाता। वे आज मेरे बड़े लड़के विवेक के पास हैं। कुंदियां में रेलवे लाईनों वगैरह के छोटे बड़े पुर्जे बोल्‍ट वगैरह। किशोरावस्‍था में से ही किताबें पत्रिकाएं जमा करता रहता। शेखुपुरा में, लाहौर से निकलने वाला साप्‍ताहिक अखबार 'फूल‘ आया करता था। उनकी जिल्‍द इस वक्‍त भी मेरे पास सुरक्षित हैं। पाता हूं होर्डिंग-इंस्‍टिकर (जमा करने की प्रवृति) मुझमें कूट कूट कर भरी है। कोई खास किताब पत्रिका न मिले तो सारी रात नींद टूट टूट कर आती है। हां कपड़े जूते और ज्‍यादा पैसे मुझे परेशान सा कर देते हैं।

पड़ोस में बाबू मेहरचंद शर्मा भी किराए के मकान में रहते थे। वह भी पिताजी की तरह रेलवे में टी․टी․ई․ थे। उनके दो बड़े लड़के थे। किशोर और कृष्‍ण। दोनों लाहौर कॉलेज में पढ़ते थे। होस्‍टल में रहकर। किशोर भाई साहब एम․ए․ में थे और कृष्‍ण भाई साहब बी․ए․ में। दोनों इतवार या दूसरी छुटि्‌टयों में घर, शेखुपुरा आया करते थे। दोनों इतने बड़े होने पर भी आपस में बुरी तरह से लड़ते झगड़ते थे। इसलिए मां बाप ने बाद में उन्‍हें पाबंद कर दिया था कि एक हफ्‍ते किशोर आएगा। अगले हफ्‍ते कृष्‍ण। बारी बारी से। पर मैं ज्‍़यादातर किशोर भाई साहब को ही, घर आया देखता था। मेरे बड़े भाई साहब दसवीं में पढ़ते थे। उनसे किशोर भाई साहब की दोस्‍ती हो गई थी परन्‍तु वह दोस्‍ती बदल कर मुझ जैसे पिद्‌दी लड़के के साथ ज्‍यादा हो गई। आगे चलकर मेरी दोस्‍ती आर․एस․एस․ वाले बड़े लोगों से भी हुई। वह मुझ छोटे से लड़के को भी विचारविमर्श के लिए अपनी मीटिंग्‍ज़ में बुलाया करते थे। खैर बात तो किशोर भाई साहब की दोस्‍ती की हो रही थी। लोग मुझे उनका सगा छोटा भाई समझते थे। यह किस्‍सा भी अभी कह डालूं कि एक बार कांग्रेस अधिवेशन में वे किसी नेता का भाषण सुनते हुए लाहौर में पुलिस रेड में पकड़ कर जेल में डाल दिए गए। इससे मुहल्‍ले वालों और खास तौर से मुझे भी गर्व और रोमांच हुआ। जब मेरे हमजोली मुझसे कहते तेरे भाई साहब भी आजादी की खातिर जेल में गए है ? इससे मेरी इज्‍़ज़त भी बढ़ी। बड़ी मुश्‍किल से, बाबू मेहरचंद, किशोर भाई साहब को छुड़ा लाए कि यह तो फक्‌त उधर से गुजर रहा था। बाद में यही किशोर चन्‍द्र शर्मा, जो अपने को एस․सी․ किशोर (शर्मा चंद्र किशोर) लिखते, विभाजन बाद वे जालंधर कॉलेज में जोग्राफी के प्रोफेसर बने थे। किशोर भाई साहब कॉलेज में जिमनास्‍टिक के चैम्‍पियन थे। उन्‍होंने मुझे दूसरी कसरतों के अलावा, हाथों के बल चलना भी सिखाया था। कोशिश करता हूं तो अब भी हाथों के बल थोड़ा चल लेता हूं। वे मुझे लंबी सैर को ले जाते। हिरण मीनार नदी तक। उनसे हर तरह की बातें ही बातें होतीं जो बहुत रूचिकर ज्ञानवर्धक लगतीं। अब असली मुद्‌दे पर आते हैं कि व्‍यक्‍ति की सोच की धारा कैसे बदलती है।

पंजाब की सर्दी हडि्‌डयों में घुस जाती हैं। माताजी सुबह चार पांच बजे नंगे पैर बर्फ सिल बनी सड़क पर चलकर बहुत दूर मंदिर में, मुझे भी साथ ले जातीं। सोचता इससे पुण्‍य मिलेगा। भगवान जी अच्‍छा फल देंगे। लेकिन मैं फेल हो गया। पिताजी ने अपने तर्कों, रसूख से इंस्‍पैक्‍टर अॉफ स्‍कूल से, पास करा िदया। तब मैंने सोचा। कौन बड़ा है ? भगवान या पिताजी ? इस प्रकार भगवान पर से, उसी छोटी आयु से आस्‍था, उठने लगी। रही सही कसर किशोर भाई साहब ने पूरी कर दी। जैसे मेरी सोच पर सीमेंट की, एक परत जमा दी। वे तो बहुत बड़े थे। समझदार। घूमने, लंबी सैर के दाैरान नदी और हिरण मीनार की तरफ जाते, मुझे अपने विचारों, अकाट्‌य तर्कों से प्रभावित करते-भगवान तो होता ही नहीं।

इस तरह, मंदिर में जहां मैं शीश नवाता था, अब मंदिर प्रतिमा पर दूर से थूक कर आने लगा। कुछ नहीं बिगड़ा। मगर थोड़ा भय भी हुआ। फिर सोचा, अगर पिताजी ने मुझसे चपत खाने के बाद माफ कर दिया तो भगवान की महिमा तो अपरमपार है। उसे चापलूसी पसंद नहीं। वह भी कुछ नहीं कहेगा।

फिर, मगर। एक दिन माताजी ने थूकते हुए देख लिया। पिटाई की। मंदिर ले जाना बंद। चलो अच्‍छा हुआ। इस सुबह सुबह सर्दी में उठने के झंझट से पीछा छूटा।

मेरा तो बचपना। लेकिन किशोर भाई साहब सस्‍वर दो पंक्‍तियां गाते।

भगत कुत्त्‍ाे भगवान दे (के) भौंकन सारी रात।

भौंक भौंक चुप हो जावंदे, फिर भौंकन प्रभात।

उनकी देखा देखी मैं भी यही पंक्‍तियां गुनगुनाने लगा। फिर वही हुआ। भगवान के प्रति ऐसे शब्‍द सुन कर माताजी ने अपने कानों पर हाथ रख लिये-राम राम। सत्‍यानाश।

फौरन किशोर भाई साहब को तलब किया- तूने दर्शी को बिगाड़ दिया। यह तो पूरा नास्‍तिक हो गया है।

किशोर भाई साहब ने मुस्‍कराते हुए शांत स्‍वर में उत्त्‍ार दिया-चाची जी! िबगाड़ तो आप ही रही थीं। चलिए कोई बात नहीं। कहें तो इसे फिर से आस्‍तिक बना दूं। उन्‍हें अपने तर्कशास्‍त्र पर जैसे घमंड था।

मैं उसी क्षण बोल उठा-भाई साहब, अब यह आपके बस की बात नहीं है।

माताजी हैरान, भाई साहब भी हैरान। फिर थोड़ा हंसे। मेरी गर्दन काे पकड़ कर लाड दिखाया-बदमाश।

मगर इसके बाद तो जैसे मगरों की बाढ़ आ गई। जीवन की हर डगर पर मगर, जिन्‍हें हल करने की कोशिश में हर तरह की किताबें पढ़ता हूं। संतों महंतों विचारकों के प्रवचन सुनता। किसी मुसाफिर ने गाड़ी में कहा कि मेरे घर आओ तो मैं भगवान के विषय (अस्‍तित्‍व) मैं बता सकता हूं, तो दिल्‍ली की संकरी संकरी गलियां पार करता, किसी तरह ढूंढ़ता ढांढ़ता एक दिन उसके ठिकाने पर भी जा पहुंचा। लेकिन हर जगह नतीजा निल। यह सिलसिला 'है कि नहीं‘ का, उसी प्रकार से अनसुलझा है, जैसे पहले मुर्गी हुई कि अंडा। मतलब यही कि हर चीज को सिद्ध नहीं किया जा सकता।

हमारी साहित्‍यिक गोष्‍ठियों में दस बारह से पचास साठ तक लोग बाग इकट्‌ठे होते हैं। कीर्तन मंडलियों भगवे कपड़ों में लिपटे महात्‍माओं (?) के बड़े बड़े तंबुओं में हजारों हजारों लोग भक्‍ति में लीन झूमते हुए नजर अाते हैं। क्‍या सारों को हम बेवकूफ कहें। उनमें बहुत सारे पढ़े लिखे अफसर डाक्‍टर इंजीनियर तक भी होते हैं।

'है कि नहीं‘ (भगवान) हो भी सकता है। नहीं भी हो सकता- मेरा पीछा नहीं छोड़ता। फिर विभाजन के बाद आई 'नास्‍तिक‘ फिल्‍म की याद बराबर बनी रहती है।

भारत भूषण जिसने नास्‍तिक का अभिनय किया था-किसी दूसरे व्‍यक्‍ति से पूछता है कि तू बोल भगवान है कि नहीं। वह व्‍यक्‍ति कहता है-है तो नहीं। भारत भूषण पूछता है। तब तुम मंदिर क्‍यों जाते हो। वह आदमी इसका उत्त्‍ार देता है- है तो नहीं, लेकिन अगर कहीं निकल आया तो ?

यानी मनुष्‍य के भीतर का भय उसे भगवान को मानने को मजबूर करता है। भले ही अंदर से भगवान में आस्‍था न हो। मन्‍दिर जाने धार्मिक अनुष्‍ठान करने में हमारा जाता ही क्‍या है ?

भीड़ को झूमते गाते देखता आया हूं ः जो न माने भगवत धर्म, उसके फूटे कर्म। एक 'यथाथर् गीता‘ नाम की गीता में पृ0 461, कि भगवान को न मानने वालों की भगवान दुर्गति करता है। जो कि ज़ालिम हुआ या महा चापलूसी पसंद। अगर सर्वशक्‍ति संपन्‍न, दयालु है, उद्धारक है तो हमें हमेशा सही दिशा में चलने सोचने की शक्‍ति आपसे दे तो हमें हमेशा सही दिशा में चलने सोचने की शक्‍ति आपसे आप मिल जाएगी। यह नहीं कि श्रद्धालुओं की खचाखच भरी बस को खाइयों में पटक देगा।

एक ऐसी ही घटना और सुनाता हूं। एक दंपती की औलाद नहीं होती थी। दोनों पीर की मज़ार पर गए। मनौती मांगी। अचंभा। उनके घर पुत्ररतन आ गया। अब की, घर के बारह सदस्‍य मज़ार पर शुक्रिया अदा कर लौट रहे थे कि जीप किसी ट्रक से टकरा गई। बच्‍चे समेत सभी बारह की मृत्‍यु हो गई। क्‍यों वह इतना क्रूर हुआ ???

यहां की न्‍याय प्रणाली फिर भी कहीं जवाबदेह है। लेकिन 'खुदा की रज़ा‘ कह कर हम अपना पल्‍ला झाड़ लेते हैं।

गांधीजी लिखते हैं ः जब जब अशांत होता हूं, गीता की शरण में चला जाता हूं। सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन ने गीता की मामांसा की। उस समेत मैंने कई गीताओं रामायण उपनिषद्‌ को पढ़ने समझने की कोशिश की। आस्‍था की बजाए अनास्‍था ने ही जन्‍म लिया। सब कुछ अतार्किक, हास्‍यास्‍पद, कपोल कल्‍पना हां आस्‍था तो जब जमे, जब इसी जन्‍म में वहीं का वहीं पाप पुण्‍य का फल मिल जाए। मगर ऐसा तो अपवाद स्‍वरूप ही हो पाता है। भ्रष्‍टाचारियों, रिश्‍वतखोरों, जालिमों की औलादें अच्‍छे नंबर लेकर ऊंचे ऊंचे ओहदों पर विराजमान हैं। 'जैसा अन्‍न वैसा मन‘ 'बुरे काम का बुरा नतीजा‘ सब बकवास लगती हैं। किसने देखा है पिछला जन्‍म। किसके याद रहेगा अगले जन्‍म में। पूरा जीवन झमेला घनचक्‍करी है। हां बस डॉ․ अब्‍दुल कलाम ने कहा कि आप यत्‍न करो आधी सहायता, भगवान करेगा।

'जहां चाह, वहां राह‘ वाली बात ज़रूर प्रभावित करती है। हम मन लगाकर काम करते हैं तो कुछ अदृश्‍य शक्‍तियां संयोगवश सामने मदद को आ जाती हैं। इतना तो मैं मानता हूं।

बचपन से यही सोच परवान चढ़ती गई कि हम मनुष्‍य हैं। हमें मात्र मनुष्‍य धर्म का पालन करना है। इसके साथ ही मैं यह बात भी कहा करता हूं कि जो व्‍यक्‍ति अपने को घोर धार्मिक आस्‍तिक कहे, बेशक उस पर विश्‍वास मत करो। लेकिन जो अपने को नास्‍तिक कहे, उस पर विश्‍वास किया जा सकता है। वह सिर्फ अपने शाश्‍वत कर्त्त्‍ाव्‍यों के प्रति अधिक सचेत हुआ करता है।

मेरा यह कि़ला शेखुपुरा का बाल्‍यकाल द्वितीय विश्‍वयुद्ध काल, और इसकी समाप्‍ति-काल था। पूरी बातें तो समझ में नहीं आती थीं। पर पिताजी को अंग्रेजों के जुल्‍मों के किस्‍से, माताजी को सुनाते पाता था। वे उन्‍हें गालियां देते थे। नेहरू गांधी जिन्‍ना मुस्‍ल्‍मि लीग वगैरह की चर्चा करते थे। क्रांतिकारियों की बहादुरी, सुभाष बाबू का कैद से बचकर विदेशों में चले जाने, रेडियो से देशवासियों और नेताओं से अपील की बातें, अब जैसे किसी धुंध को पार करती हुई स्‍पष्‍ट भी होती हैं। वे आए दिन टूर से आकर बहुत कुछ माताजी को बताया करते थे। हम बच्‍चे बस इतना ही समझ पाते कि अंग्रेज लोग अच्‍छे नहीं हैं। इन्‍हें अपने देश से बाहर करना है।

मुझे वह दिन जरूर याद है जिस दिन स्‍कूल में अंग्रेजों की जीत पर मिठाई बांटी गई थी। हमसे प्रेयर में, 'गॉड सेव द किंग‘ का नारा भी लगावाया गया था। लेकिन स्‍कूल से बाहर आते ही हम बच्‍चे वही रटा हुआ स्‍लोगन दुहरा रहे थे ः-

या इलाही कर तबाही पहले इस फुतूर की

न दाढ़ी है न मूंछ है, शक्‍ल है लंगूर की।

फरंगियों वापस जाओ। एक गाना भी चला था-दूर हटो दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्‍दुस्‍तान हमारा है। इंकलाब जिंदा बाद। भगतसिंह की जय। गांधी जी की जय।

लाल किले से आई आवाज

सहगल ढिलों शाहनवाज़।

आर्य समाज के श्‍लोकों प्रार्थनाओं के साथ। अखंड हिन्‍दुस्‍तान। बन सकता कभी पाकिस्‍तान नहीं। जैसे नारे सुनने को मिलते।

इधर मुस्‍लिम लीग का भी बहुत बोलबाला होने लगा था। हरी पोशाक पहने कुछ लोग अपने को याद नहीं किस नाम, जमात के बताते। हां याद अाया। अपने को रज़ाकार कहते थे। हिन्‍दुओं का कतल करने पर उतारू। इससे लोगों में खोफ़ होने लगा था। उधर आर․एस․एस․ के लोग भी लाठियां लिये फिरते दिखते। एकता के जुलूस भी निकलते। घोड़ों पर राइफलें लिये वर्दी में लैस हिन्‍दुस्‍तानी, अंग्रेज सिपाहियों की भ्‍ाी धुंधली याद आती है।

सुभाष बाबू के विमान के दुर्घटना में मारे जाने की घटना को पिताजी के मुंह से सुना था। सब गमगीन थे।

चौथी कक्षा के बाद मैं सनातन धर्म हाई स्‍कूल किला शेखुपुरा में आ गया। उर्दू फारसी लो या हिन्‍दी संस्‍कृत। मैंने हिन्‍दी संस्‍कृत ली। शायद शाखा वालों का प्रभाव था। तब मैं आर․एस․एस․ शाखा में जाया करता था। बड़ों की नज़र में शानदार परेड/एक्‍सरसाइज़ किया करता था। मेरी वहां इज्‍़ज़त थी। शायद नायक घट नायक बना दिया गया। अपने आप कुछ देश भक्‍ति के गाने लिख लेता। गा गा कर समूह में सुनाता- हिम्‍मत न हारना, वीरों हिम्‍मत न हारना․․․․ इटां (ईंटों) को सरहाने रख वक्‍त गुजारना। एक सप्‍ताह भर का कैंप शाहरदरा (लाहौर) में भी अटैंड कर आया था।

कदम से कदम मिलाकर, मार्च-पास्‍ट करने, ध्‍वज को प्रणाम करने, महाराणा प्रताप शिवजी बंदा वीर वैरागी आदि योद्धाओं की गाथाओं के बारे में बड़े उत्‍साह से अपने हमजोलियों के बीच चर्चा कर आह्‌लादित होता। एक लड़के ने कहा- मुझे भी साथ ले जाया कर। वह मेरा पक्‍कम पक्‍का दोस्‍त था। उसे भी साथ लेकर जब दूसरे दिन शाखा में पहुंचा तो अधिकारी (शायद ऐसा ही उनके लिए कोई संबोधन था जो शाखा के हैड थे) ने मेरे दोस्‍त को प्‍यार से अपने पास बुलाया और नाम पूछा। मंजूर नाम सुनकर वे थोड़ा अचकचाए। उससे तो कुछ नहीं कहा। मुझे एक तरफ ले जाकर बोल-अरे यह तो मुस्‍लमान है। इसे मत लाया करो। मैंने थोड़ी शर्मिंदगी महसूस की।

दूसरे रोज़ से मैंने भी शाखा जाना छोड़ दिया था। बरेली आकर कुछ समय के लिए फिर से शाखा मे गया जरूर, पर टिक नहीं पाया। शेखुपुरा वाली गहमागहमी जज्‍बा यहां देखने को नहीं मिलता था। मैंने हमेशा के लिए आर․एस․एस․ को अलविदा कह दिया। पर आज तक उनसे उस रूप से नफरत भी नहीं कर पाया जिस रूप में हमारे अति 'प्रगतिशील‘ अपने को वामपंथी कहलवाने में फक्र करने वाले साथी करते हैं। मेरा कहना मात्र यह होता कि न तो सारी बातें आर․एस․एस․ वाले गलत कहते हैं। और न ही वामपंथी। दोनों की तर्कसंगत अच्‍छे सही विचारों की वकालत कद्र की जानी चाहिए। अतएव मैं किसी एक पलड़े में कभी नहीं पड़ा। किसी का होकर, नहीं कुछ बन सका। मेरे लिए विचार का ही ज्‍यादा महत्‍व है। विचारधारा का नही। इसीलिए किसी राजनैतिक पार्टी या साहित्‍यिक वाद से जुड़ने पर मुझे परहेज रहा है। वहां, जानते बूझते हएु भी झूठ बोलना पड़ता है। सच को कुचल कर पार्टी लाइन पर बोलना मुझे ढोंग के सिवा कुछ नहीं लगता।

यूं तो किला शेखुपुरा की बहुत छोटी छोटी घटनाएं हैं, पर जिस खास घटना ने मुझे मनुष्‍य की बेबसी पर फिर से विचार करने को बाध्‍य किया, वह बताता हूं। हमारे सामने के बड़े मकान में शहर के माने हुए डॉ․ गुलजारी सिंह रहा करते थे। एक बार उनकी छह सात वर्ष की बच्‍ची बुरी तरह से बीमार पड़ गई। उनके अपने इलाज से जब वह ठीक नहीं हुई तो दूसरे डाक्‍टरों को दिखाया। फिर उसे लाहौर भी ले गए। मगर रोग किसी के काबू में नहीं आया। उसी काल में शेखुपुरा में एक होम्‍योपैथी का क्‍लिनिक खुला था। उस डाक्‍टर के पास भी लोग बाग जाते। कइयों को फायदा होता। मगर डाक्‍टर गुलजारी सिंह होम्‍योपैाी का मजाक उड़ाया करते। क्‍या चार मीठी गालियां खाने से भी कोई मरीज ठीक हो सकता है ? सब बेकार के ढकोसले हैं।

अब किसी हमदर्द ने डाक्‍टर गुलज़ारी सिंह को सलाह दी कि आप बच्‍ची को होम्‍योपैथी के डाक्‍टर को दिखाएं। ट्राई करने में हर्ज ही क्‍या है।

इस पर वही डाक्‍टर गुलज़ारी सिंह जो होम्‍योपैथी का मज़ाक उड़ाया करते थे, उन्‍हीं होम्‍योपैथिशियन के पास गए। सलाह मश्‍विरा किया। इलाज शुरू किया।

यह बात अलग है कि वह बच्‍ची बच नहीं सकी। यही जीवन की दुःखांतिका है। जिन टोटके बाजों, चमत्‍कारियों, मठों, भगवानों, देवताओं, संतो आदि पर हम लोग विश्‍वास नहीं करते। उनकी हंसी उड़ाते हैं। इसे घोर अवैज्ञानिक धंधेबाज कहकर 'असंभव‘ की संज्ञा देते हैं। दुःख की घड़ी में 'शायद‘ 'शायद‘ कहते हुए उन्‍हीं की शरण में जाने को विवश हो जाते हैं यह है मनुष्‍य की नियति की कहानी। अच्‍छे अच्‍छों खूब पढ़े लिखों बुद्धिजीवियों को भी, कोई अगर किसी काम करने न करने का वहम दिलवा दे तो वे ऊपर से दबंग दिखने के बावजूद, अन्‍दर से सहम जाते हैं कि यह महूर्त या दिन अशुभ पड़ता है तो अनर्थ से बचने के लिए, इसे टाल जाओ। क्‍या फ़र्क पड़ता है। घोर मुसीबत के वक्‍त टूना-टानों वालों के पास चले जाते हैं। चलो इसे भी आज़मा लिया जाए। इतने लोग कहते हैं कि हम अच्‍छे हो गए। हमारा संकट टल गया तो सारे के सारे झूठ थोड़े ही न बोलते हैं। हम भी देख लेते हैं। क्‍या चमत्‍कार नहीं होते ? कहने का तात्‍पर्य - मनुष्‍य अंदर से डरा हिला हुआ जीव है। साकार निरांकार की फिलासफी झाड़ता है।

चमत्‍कारों ज्‍योतिष विद्या पर सैद्धांतिक रूप से मेरा कोई विश्‍वास नहीं है। फिर भी ऐसी कुछ घटनाएं तो मेरे सम्‍मुख घटीं कि आश्‍चर्य होता है।

पहली घटना पिताजी के साथ घटी। चलती गाड़ी में किसी पैसेंजर से टिकट लेकर उसे चैक कर रहे थे कि उस पैसेंजर ने कहा-आपको उन्‍नचासवें दिन बहुत बड़ी खुशी मिलेगी। जिज्ञासावश पिताजी ने उसी दिन की, वह तारीख, अपनी आफिश्‍यल डायरी में नोट कर ली।

भाई साहब की सगाई हुई। पूरे घर में गहमागहमी, खुशी का माहौल था। पिताजी भी खूब खुश हो रहे थे। यह बरेली ही की बात है। सहसा पिताजी को, उसी पैसेंजर की याद ही आई, जो गाड़ी में टिकट दिखला रहा था। पिताजी झट से अपनी वही डायरी उठा लाए। उस तारीख से दिनों की गिनती की। ठीक वह दिन उन्‍नचासवां निकला।

चलती गाड़ी से उतरना-चढ़ना, चलती हुई गाड़ी से एक डिब्‍बे से दूसरे में जम्‍प कर जाना, टीटियों की प्रैक्‍टिस होती है; लेकिन एक रोज़ उनका पांव पायदान से फि़सल गया। समझिए मरते मरते बचे। उन्‍होंने चेतावनी के बावजूद, पता नहीं, आजमाइश के तौर पर नीलम की अंगूठी पहन रखी थी। तब उन्‍होंने फौरन अंगूठी उतार दी। और हमेशा के लिए सुरक्षित रहे।

मुझे भी गाड़ी में बैठा हुआ एक व्‍यक्‍ति मिला था। मैं और कमला रामेश्‍वरम से हनीमून मनाकर लौट रहे थे। वह पैसेंजर अचानक मेरा हाथ थाम कर लकीरें देखने लगा। बोला-आपको ससुराल से बहुत धन मिलेगा। मैंने उसे बताया कि अभी हाल ही मैं मेरी शादी हुई है। मैंने दहेज लिया ही नहीं। फिर से थोड़ा गौर किया और बोला-तब आपकी वाइफ सर्विस कर, आपको धन देगी। रेवाड़ी में निजी स्‍कूल चलाया। फिर कुछ वर्षों बाद 1965 में मैं बीकानेर ट्रांसफर होकर आ गया। यहां आने पर पैसे की निहायत तंगी होने लगी। कमला बहुत ज्‍यादा बीमार रहने लगी।

पिजाजी ने इस बात का जिक्र गाजि़याबाद के पंडित जी से किया। पंडित जी ने पूछा-आपकी बहू का क्‍या नाम है। पिताजी ने बताया-असली नाम तो कमला है, लेकिन मेरा बेटा अपने ढंग से, उसे कल्‍पना कहकर बुलाया करता है। पंडितजी ने फौरन कहा-उससे कहो-वह वापस कमला बुलाना शुरू कर दे। एक छोटी सी थैली तैयार करवाई। उसमें एक चांदी का सिक्‍का रखवाया। कहा-इसे बीकानेर भेज दो। वे इसे किसी संदूक या अलमारी में रख दें।

ऐसा करने से कमला स्‍वस्‍थ हो गई। श्री योगेन्‍द्र कुमार रावल यहां बीकानेर के गांधी शांति प्रतिष्‍ठान के सर्वोसर्वा थे। मेरी, उनसे मुलाकात हुई। उन्‍हें जब पता चला कि मेरी पत्‍नी वैल क्‍वालीफाइड क्राफ्‍ट टीचर हैं। उनके पास यू․पी․ सरकार तथा केन्‍द्रीय (कर्जन रोड स्‍थित) संस्‍थान का टीचर्स ट्रेनिंग इंस्‍ट्रेक्‍टर का डिप्‍लोमा तक है तो मुझसे बोले सहगल भाई, इस चीज का लाभ समाज को भी लेने दो। उन्‍होंने उसकी सर्विस एक औद्योगिक संस्‍थान/स्‍कूल में लगवा दी। किन्‍तु संस्‍थान की मालिक जो दानपुण्‍य के नाम पर हमारों रूपया खर्च करती थीं, अपनी जय-जयकार करवाती थीं, अपने तमाम कर्मचारियों के साथ उनका व्‍यवहार ठीक नहीं था। वे उनका शोषण करती थीं। कमला से चाहती थीं कि वह खुद सामान तैयार करे। बाजार में बिकवाए।

कमला ने वहां से यह कहकर नौकरी छोड़ दी कि मेरा काम सिर्फ पढ़ाना है। बच्‍चों को ट्रेंड करना है।

कमला घर आ गई। मैंने कहा-ठीक किया। फिर तैश में आकर एम्‍पलायमेंट एक्‍चेंज चले गए। इंस्‍पैक्‍टर आफ स्‍कूल को सर्टिफीकेट डिप्‍लोमा दिखलाए। उन्‍होंने स्‍पष्‍ट कहा कि ऐसा नहीं कि मैं इनकी एहमियत न समझती हूं। पर हम विवश हैं। हम केवल राजस्‍थान सरकार के सर्टिफीकेट्‌स के आधार पर ही नौकरी दे सकते हैं। हां आप एक काम जरूर करें अपना एम्‍पलायमेंट कार्ड बनवा लें। हर तीसरे महीने इस रिन्‍यू कराते रहें।

कार्ड तो हमने बनवा लिया। परन्‍तु खास रूिच न दिखाई-क्‍या करना सर्विस करके। हमने कार्ड को कभी रिन्‍यू नहीं करवाया-लेकिन देखिए चमत्‍कार सात आठ महीनों बाद केन्‍द्रीय विद्यालय बीकानेर से कॉल लैटर आ गया। बहुत कैंडीडेट्‌स थे। वैंकेंसी एक। लोकल राजनीति बहुत आड़े आ रही थी। प्रिंसिपल को धमकियां आने लगीं। लेकिन प्रिंसिपल भोपाल के मि․ व्‍यास थे (उस समय वही अपवायमेंट आथर्टी थे। साथ में मिल्‍ट्री के करनल, चेयरमैंन भी मेम्‍बर थे और एक कोई स्‍पैशलिस्‍ट लेडी। प्रिंसिपल अड़ गए। मैं क्‍यों किसी अंडर क्‍वालीफाइड को लेकर अपनी फ़जीहत करवाऊं। मिससे सहगल के मुकाबले क्‍वालीफाइड तो एक भी नहीं। ज्‍़यादा से ज्‍़यादा मुझे तुम लोग ट्रांसफर करा दोगे। यहां से ट्रांसफर तो मैं खुद ही चाहता हूं।

तो इस प्रकार कमला को केन्‍द्रीय विद्यालय नं․ 1 में नौकरी मिल गई। अंत तक उसी स्‍कूल में रही। 31․08․1998 को सेवानिवृत्त्‍ा हुईं। कहने का अर्थ है फिर कभी हमें अर्थाभाव नहीं रहा।

हां दूसरी बात भी मैंने उसी रामेश्‍वरम वाले यात्री से पूछ डाली थी कि मैं लेखक बनूगा कि नहीं। ''नहीं‘‘ उसका उत्त्‍ार था। मैंने उसी समय उसकी इस बात को चुनौती की तरह लिया था। पूरी लगन मेहनत के साथ काम करने के साथ क्‍या नहीं हो सकता।

नतीजा आपके सामने है। मैं कोई नहीं बन सका। जादुई यथार्थवादी लेखक तो नहीं बन सका (जिसकी मेरे हिसाब से, आज फालतू किस्‍म की बढ़-चढ़कर चर्चा की जा रही है) फिर भी कुछ लिख लिखा लेता हूं। मैं खुद तो नहीं, दूसरे कुछ उदार लोग मुझे 'लेखक‘ कहते हैं। हां मैं दिल्‍ली वाले लेखकों जैसा भी नहीं बन सका। जहां चार चार कहानियां सात कविताएं लिखकर लोग बाग स्‍टार बने बैठे हैं। बेशक मेरा निजी मौलिक लेखन जो भी बन पड़ा, इसे अपने हित में मानता हूं।

एक और घटना- एक बार दुपहर में मैं लंच लेने अपने क्‍वार्टर T-62/C मालगोदाम के पीछे, बीकानेर जा रहा था। सामने फाटक से आता कोई अजनबी दिखलाई दिया। उसने मुझे रोका और बोला-आपको घर पहुंचते ही कोई खुशखबरी मिलेगी।

सचमुच जैसे ही मैं क्‍वार्टर पहुंचा। पीछे पीछे डाकिया आया और रजिस्‍टर्ड लिफाफा पकड़ाया। मैंने सोचा मेरी कोई कहानी या चैक वैक होगा। लेकिन आश्‍चर्य यह तो मेरे बड़े बेटे विवेक के नाम नियुक्‍ति पत्र था। तब वह बी․कॉम का विद्यार्थी था। यानी इतनी छोटी उम्र में ही, नौकरियों के घोर अकाल युग में, उसे नौकरी मिल गई थी।

दो चमत्‍कारों का जिक्र आगे क्रमानुसार करूंगा। एक तो इसी आत्‍मकथा के लिखने के विषय में, दूसरा बीकानेर आने की दास्‍तान। फिलहाल इस टॉपिक को यहां विराम देना चाहूंगा। हां चलते चलते दो बातें और यहीं पर कह दूं। सोचता हूं जिन विचारों/बातों को मैं नहीं मानता, उन्‍हें प्रश्रय भी नहीं देना चाहता, उन विषयों पर भी आपसे आप मुझसे ऐसी कहानियां (उन्‍हें परामनोवैज्ञानिक कहानियों/फैंटसी कहानियों की संज्ञा देता हूं) क्‍यों लिखी गईं। ऐसा भी बाजोकात लगता है कि कोई बाहरी शक्‍ति मुझे संचालित कर रही है। बीच नींद उडा देती है-उठो। लिखो। रात को ऐसा लिखा हुआ सुबह होने तक भूल चुका होता हूं। दूसरे चौथे आठवें दिन पढ़ कर ही चकित होकर उन्‍हें संशोधित कर कहानी के रूप में ढालता हूं ः यथा 'तीसरी कहानी‘ 'अंतर्जगत‘ 'कुछ बंगले और मकान‘ 'तिलस्‍म से बाहर‘ आदि आदि।

पर साथ ही, मेरा हमेशा, यही कहना है कि इन अपवादों, यदाकदा होने वाली घटनाओं के आधार पर कभी जीवन नहीं जिया जा सकता। हमें यथार्थ की कड़ी ऊबड़खाबड़ ज़मीन पर संघर्ष करते रहने की, अपना रास्‍ता स्‍वयं बनाने की ज़रूरत है। भाग्‍य और चमत्‍कारों की बदौलत जिंदगी दुश्‍वार ही होगी। आसान नहीं। ''मैन इज़ द आर्किटैक्‍ट अॉफ हि़ज़ आन फेट‘‘ मनुष्‍य अपना भाग्‍यविधाता स्‍वयं है।

इसके बावजूद भाग्‍य को मानना पड़ता था। कुछ लोग बहुत कड़ी मेहनत के बावजूद पिछड़ जाते हैं और कुछ थोड़े से प्रयास से बुलंदियां छूने लगते हैं। साहित्‍य के क्षेत्र में भी इस आप स्‍वयं देख सकते हैं।

हम सिगनेलरर्ज (तार बाबुओं) में से केवल सात वायरलैस आपरेटरर्ज लिये जाने थे। कइयों ने परीक्षा दी। केवल दस सलैक्‍ट (चुने) हुए। अब दसों को वरिष्‍ठता के आधार पर पिकअप करना था। सीनियार्टी के हिसाब से मेरा दसवां नंबर पड़ता था। इसलिए मुझे वंचित कर दिया गया। अब देखिए। एक ने खास कारणवश मना कर दिया। एक फेमिली को छोड़ने पंजाब जा रहा था। ताकि निश्‍चिंत होकर, टे्रनिंग ज्‍वाइन कर सके। लेकिन रास्‍ते में बस किसी दूसरे वाहन से ज़रा सी टकरा गई। बड़े आराम से, बिना एक खरोंच लगे, सभी बच गए। इसके बावजूद उसने वायरलैस को अपशकुन माना। ज्‌वाइन करने को इनकार कर दिया। एक शायद बीमार पड़ गया। तो इस तरह मेरा नंबर आ गया। मेरी पद्‌दोन्‍नति वायरलैस आपरेटर के रूप में हो गई।

हां एक बात और याद आई। एक पतला दुबला माता के दागों से भरे हुए चेहरे वाला लड़का बंसल था। उसकी तगड़ी सिफारिश थी। लेकिन वह इस कारण से रह गया क्‍योंकि एक और भी बंसल था। बालकृष्‍णदास बंसल। उसको वह बंसल (माता के दागों वाला) समझकर ले लिया गया। सिफारशी बंसल रह गया।

मैंने कभी ऐसे ही किसी झोंक में आकर अपनी किसी छोटी मुड़ीतुड़ी नोट बुक में लिख िदया था कि अगर मैंने कभी अपना मकान बनवाया तो उसका नाम 'संवाद‘ रखूंगा। और इस डायरी को बिलकुल भूल चुका था। लेकिन जब हमें बीकानेर हाउसिंग बोर्ड से डुप्‍लैक्‍स कॉलोनी में 5 ई 9 नंबर मकान अलॉट हुआ और हम लोग इस मकान को अपनी मनमर्जी मुताबिक ठीकठाक करवा रहे थे तभी वही पन्‍ना अचानक मेरे हाथ में आ गया। मैं यहां के मशहूर कला पारखी (अब स्‍वर्गीय) श्री के․राज के पास गया। वे उम्रदराज होने के बावजूद हर क्षेत्र में बहुत सक्रिय थे। मुझे भी बहुत स्‍नेह देते थे। उन्‍होंने बहुत ऊंचे स्‍टूल पर चढ़कर अच्‍छे रंगों से 'संवाद‘ लिख दिया। बाद में बताया कि उनके बहुत बड़ा फ्रैक्‍चर हुआ था। अंदर की हड्‌डी डेढ़ी हो गई है। डाक्‍टर ने शरीर को ज्‍यादा हरकत करने को मना कर रखा है। मैंने कहा-आपने यह बात मुझे पहले क्‍यों नहीं बताई, तो कहने लगे, अगर बता देता तो तुम मुझे ऊपर चढ़ने नहीं देते। एक टीन की प्‍लेट पर भी 'संवाद‘ लिखकर मेनगेट पर कील से लगा गए जो आज भी मेरे लिए उनकी महत्‍वपूर्ण निशानियां हैं।

दूसरी नेमप्‍लेट हम दोनों के नाम सहित (कमला सहगल हरदर्शन) के नीचे 'संवाद‘ लिखकर लैटर बाक्‍स के साथ मशहूर पेंटर मित्र बरकत लगा गए। बरकत साहब भी अलमस्‍त तबीयत यहां के माने हुए चित्रकार हैं। बरकत जी से मैंने घर परिवार तथा मुहल्‍ले वालों की कई तस्‍वीरें बनवाई। खास तौर से मेरी तथा कमला की बड़ी तस्‍वीर। गाड़ी के साथ खड़े हुए। हनीमून को रामेश्‍वरम जाते हुए। यह एक छोटी तुड़ामुड़ी कोडक कैमरे से खींची गयी थी। छोटा फोटोग्राफ था जिसे बरकत साहब ने अपनी कल्‍पना के साहरे अति उत्‍कृष्‍ट कलाकृति बना दिया।

यह हमारे रास्‍ते के कमरे (लॉबी­) में टंगी हुई है। बिल्‍कुल फिल्‍मी सीन की मानिंद। बरकत यह बताते हैं कि कई लोगों के बुजुर्गों की तस्‍वीरें बिना कोई अडवांस लिये तैयार कीं। लेकिन बनवाने वाले उन्‍हें कभी उठाकर न ले गए। यह है हमारे मन में, पैसों का लालच जो बुजुर्गों की इज्‍ज़त के मुकाबले हम पर हावी रहता है।

उसकी एक पीड़ा को सुनकर मैं भी आज तक आहत होता हूं। यहां के बहुत बड़े धनाड्‌य सेठ ने अपनी महलनुमा हवेली को होटल में परिवर्तित किया। बरकत साहब कई महीनों तक पूरी निष्‍ठा लगन के साथ वहां की दीवारों बरामदमों सीडि़यों को अपनी कला द्वारा संवारे सजाते रहे। कई चित्र भी बनाकर टांगे। पैसे तो उन्‍हें मिल गए परन्‍तु․․․․․․,

हाय रे कलाकार

जाने न संसार

जब उस होटल का उद्‌घाटन पूरी तामझाम के साथ हुआ तो शहर प्रांत की तमाम किस्‍म की हस्‍तियों को निमंत्रित किया। परन्‍तु बरकत साहब को किसी ने न बुलाया। न पूछा।

बार बार मैं सोचता हूं कि क्‍या बिगड़ जाता अगर बरकत साहब को भी वहां ससम्‍मान बुलाया जाता। लोगों से परिचय करवाया जाता। और कुछ नहीं तो एक फूलों की माला ही उनके गले में डाल दी जाती। मगर मगर मगर ? क्‍यों ?

यह हिन्‍दुस्‍तान है प्‍यारे।

देखता चल इसके नजारे।

फिर सोचता हूं। चलो बरकत साहब के साथ तो कुछ नहीं हुआ। जैसा कि सुनने को मिलता है कि ताजमहल का निर्माण करने वाले शिल्‍पकाराें के हाथ पैर काट दिए गए थे ताकि और कहीं इससे बड़ी खूबसूरत इमारत, तामीर न कर सकें। (अगर यह सच है तो) हर कहीं कुछ ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो किसी लेखक के लेखन से तो बेहद प्रभावित हैं। लेकिन अपने ऊंचे रूतबे के कारण उस लेखक से दूरी भी बनाए रखते हैं।

चलिए वापस किला शेखूपुर चलते हैं। वहां की बहुत सी बातें तो बता ही चुका हूं। मगर डगर खत्‍म कहां हुईं। बहुत कुछ बताना बाकी है।

जन्‍म के साथ, हम किन किन कणों तंतुओं (यहां तक कि मृत्‍यु के कीटाणुओं) को भी साथ लेकर उत्‍पन्‍न होते हैं। 'बचपन से भी बचपन‘ मेरी अन्‍वेषणा का विषय रहा है। ख़ास तौर से अपने को बार बार परखना। ऐसा मेरे साथ क्‍यों हो रहा है। क्‍या सभी के साथ ऐसा होता है ?

डर। मैं क्‍यों डरता हूं। कोई मुझे क्‍यों डराता है। हम बेबस असहाय क्‍यों हो जाते हैं।

एक बड़े कदबुत का लड़का शेखुपुरा गली में आकर मेरा रास्‍ता रोक लिया करता था। मैंने उस गली से गुजरना बंद कर दिया। जब भी जाना हो, लंबे रास्‍ते जाता, ताकि उस गली में उससे सामना न हो। शेखूपुरा में मेरे शरीर में जो मुलायम कुछ कुछ डरावना-दिल को धड़ धड़ करने वाला बीज फूटा, उसका कलात्‍मक तरीके से (जितना मैं कर सका) अपने उपन्‍यास टूटी हुई जमीन में मुख्‍य पात्र कुंदी के माध्‍यम से करने का यत्‍न किया है। कुछ पंक्‍तियां नीचे उद्धृत कर रहा हूं।

एक लड़की थी-बिमला। बहुत ही खूबसूरत शक्‍ल वाली। बहुत ही धीरे और कम बोलने वाली। उसकी बहुत बड़ी काली घनी पलकों वाली आंखें थीं, जो निरंतर नीचे-ऊपर होती रहती थीं। कुन्‍दन को लगता, शायद वह इन्‍हीं आंखेां के द्वारा बोलती है। कुंदन कभी-कभी उसके मोटे गुलाबी होंठों की तरफ देख लिया करता था। होंठ बहुत कम खुलते थे। इसलिए कुन्‍दन को लगता, वह आंखों से बोलती है। बिमला इतनी आकर्षक क्‍यों है। अपने गोरे चिट्‌टे रंग के कारण। चमकीले गालों और चौड़े माथे के कारण। या सिर्फ आंखों के कारण। कुंदन की समझ में कुछ न आता। और स्‍पष्‍ट रूप से वह इन बातों को सोच पाने की या समझ पाने की, इतने छोटे दिल के सहारे क्षमता भी कहां रखता था․․․․․․। वह बिमला से तो बहुत छोटा था। क्‍या बिमला जादूगरनी है ? बिमला उसकी बड़ी बहन की सहपाठिनी थी। एक दिन उसकी बहन ने उसे बिमला को बुला लाने को भेजा। कुन्‍दी ने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा बिमला ने ही खोला। फिर कुंदी को देखकर उसके गुलाबी होंठ हल्‍के से खुले थे। काली घनी पलकें हवा के साथ जैसे हिली थीं। आंखों ने ही शायद पूछा था-कहो क्‍या है ?

- भैनजी बुलाती हैं। कुन्‍दी का स्‍वर बहुत भारी हो गया था। वह मंत्रमुग्‍ध सा खड़ा रह गया था।

- अच्‍छा आती हूं। आंखें बोली थीं।

वह उसके जाने की प्रतीक्षा में, दरवाजे की चौखट में प्रतिमा बन गई थी। कुछ क्षणों तक गर्दन उठाकर उसे निहारता निहारता, पलट कर भाग खड़ा हुआ था।

बहुत देर तक कुन्‍दी सोचता रहा था-यह सब क्‍या हुआ। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। दिल उसका बेकाबू धड़क रहा था। क्‍या भागने के कारण ? नहीं-नहीं कुछ और․․․․․․․ एकाध बार सिर उठाकर उसने जानने की कोशिश की थी कि अभी तक बिमला आई या नहीं ? और इसी कोशिश और सोच के बीच उठती सूक्ष्‍म तरंगों को पकड़ने में वह असमर्थ रहा। भय और पुलक का विचित्र सा समावेश था; अंतर व बाह्‌य जगत में, तितली उड़ने जैसा।

कहने का तात्‍पर्य यही है कि कैसे थोड़ा बड़े होते ही बच्‍चे में जैविक परिवर्तन होते हैं। इसे मैंने अपने अंदर घटित होने वाले स्‍पंदन/कंपन की तरंगों को पहले पहल अनुभव किया था। भले ही उस समय मेरे पास इसे परिभाषित करने की कोई शब्‍दावली न थी।

आगे चलकर लड़को ंलड़कियों का भेद धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा करके स्‍पष्‍ट होता चला जाता है। कुछ तो परिवेश, सिखाता है और बाकी रही-सही कसर माता-पिता बड़ों की चेतावनियां, बच्‍चों को भयभीत कर, पूरी कर देती हैं।

मेरे जीवन में आगे चलकर जो थोड़ी सी लड़कियां औरतें आईं, उनके विषय में कहीं आगे चलकर बताऊंगा। शायद पढ़ने वालों को कुछ रूचिकर लगें ः और प्रकृति ने हमारे शरीर का जो ढांचा गढ़ा है, उसे यथार्थ के स्‍तर पर समझने स्‍वीकार करने का अवसर मिले। इसी में हमारा, हमारे समाज का हित भी है।

किला शेखुपुरा में प्राइमरी स्‍कूल में एक तरफ तो हमारे उस्‍ताद बहुत सख्‍त थे। दूसरी तरफ हर बच्‍चे की पढ़ाई की प्रगति की तरफ पूरा ध्‍यान दिया करते थे। वे कमज़ोर बच्‍चों को शाम को अपने घर में बुला कर कोच किया करते थे। इसका वे कोई पैसा नहीं लिया करते थे। हालांकि उनकी आर्थिक स्‍थिति बहुत गई गुजरी हुआ करती थी। कक्षा पास करने पर हर बच्‍चा, उन्‍हें, आठ आठ आने देता था। एक शाहजी थे जो पांच रूपए महीना पर हमारे घर ट्‌यूशन पढ़ाने आते थे। शाम को जब चाय बनती थी तो उन्‍हें भी एक कप दिया जाता-तो कहते, क्‍यों मेरी आदत बिगाड़ते हो। चाय की लत पड़ जाएगी तो कहां से पिऊंगा। दूसरा, कहते बाज़ार में पगड़ी बांध कर नहीं जाता। दुकानदार बड़ा आदमी जानकर ज्‍़यादा पैसे मांग लेते हैं। एक बार मैंने पूछा-मास्‍साब क्‍या मैं भी शाम को आ जाया करूं ? तो बोले-तू तो होशियार लड़का है। फिर भी दिल करे तो बेशक आ जाया कर।

यही बच्‍चों को ज्‍यादा से ज्‍यादा आगे बढ़ाने की ललक आगे चलकर बरेली कॉलेज में भी देखी। प्रोफ़ेसर लोग इतवार के रोज भी, छात्र-छात्राओं को कॉलेज बुला लेते। पेड़ों की छाया में बिठाकर उन्‍हें अपने विषय में परांगत करने में लगे रहते।

अर्थशास्‍त्र के कम उम्र वाले विद्वान प्रो․ हजेला साहब कहते-कभी भी मेरे घर आकर जो चाहो पूछ लिया करो। अगर मैं घर पर हुआ तो। और अगर मेरी ट्‌यूशन करोगे तो 75 रूपए महीना लूंगा। दरअसल यह पैसे मेरी ट्‌वीशन के नहीं होंगे, बल्‍कि मेरे बंधने के होंगे।

आगे चलकर यह सब 'बरेली चैप्‍टर‘ में बताऊंगा। फिलहाल कि़ला शेखुपुरा थोड़ा और चलने दीजिए। हाय क्‍या मस्‍ती भरे (हरे-भरे) दिन हुआ करते थे। कुछ प्रसंगों का वर्णन पहले भी कर आया हूं। मेहमानों दोस्‍तों रिश्‍तेदारों से घर भरा भरा रहता। औपचारिकता का जीवन में कोई स्‍थान नहीं था। ''मामी में आ गया‘‘ पिताजी का भांजा, गोपीचंद फूफा का लड़का, आत्‍माराम पिताजी का चचेरा भाई, और न जाने कौन कौन बिना किसी पूर्व सूचना के आ टपकते। दिनों हफ्‍तें आराम से पड़े रहते। उनकी मेहमाननवाजी नाम मात्र की तो हो सकती होगी। पर वे बतौर परिवार सदस्‍य कैसे भी रह लेते। कहीं बैठे लेटे रहते। बाजार घूम आते। यह सब हमारे घर वालों को रत्त्‍ाी मात्र भी न अखरता। हां मुझे कुछ लोग जरूर अखरते। मैं उनके क्रियाकलापों को देख देखकर बोर होता। कब जाएंगे यह अनचाहे मेहमान। वैसे काहे के मेहमान। उनके लिए उचेच (खास खातिरदार) तो की नहीं जाती थी। जो साधारण खाना हम खाते वही उनको खिलाते। एक बार आत्‍माराम जी ने पिताजी के सामने फरमाइश रखी ''मीट बनाओ‘‘ पिताजी बाजार से गोश्‍त खरीद लाए और माताजी के हवाले किया-लो रात के खाने में यह बना देना। आत्‍माराम बोले-नहीं। गोश्‍त तो मुझे किसी के हाथ का बना पसंद नहीं आता। मैं खुद ही पकाऊंगा। शाम हुई। आत्‍माराम जी ने पक्‍के कोयलों (सिंडर) की बड़ी अंगीठी सुलगाई। मसाला वगैरह तैयार करके मीट को बड़े पतीले में पकाना शुरू किया। मगर अंगीठी ठीक से सुलग नहीं पा रही थी। गत्त्‍ाे पंखों से उसे हवा दे देकर थक गए। तब पतीले समेत अंगीठी को घर से बाहर बड़ी गली में खुली हवा में रख कर उसमें करछी चलाने लगे। यह नजारा (खुले आम महल्‍ले में मीट की उठती सुगंध) से माता जी शर्मसार होने लगीं। कोई क्‍या कहेगा-कइयों को तो मीट से बेहद नफरत सी भी हुआ करती है। सोचेंगे कैसे गंवारू हब्‍शी लोग हैं। इनके मेहमान, और यह खुद। घूंघट की ओर किए माताजी उन्‍हें हाथ जोड़ कर अंगीठी को उठाकर घर वापस ले आईं।

गोपीचंद ककड़ मेरी बुआ द्वारी का लड़का मुश्‍किल से आठवीं तक पढ़ा-हट्‌टा कट्‌टा जवान। वह भी आकर पड़ा रहता। वह हमें उछल उछल कर पतंगे लूट कर दिया करता। ठेठ गांवों वाले लोक गीत और कभी फिल्‍मी गाने भी गया करता। घर रौनक से भर जाता। वह मुझे बहुत अच्‍छा मददगार लगता। विभाजन के बाद उसने लुधियाना में हाउजरी का धंधा शुरू किया। बरकत हुई तो फैक्‍ट्रियां लगाई। होते होते उसका नाम पंजाब के अमीर लोगों की सूची में आठवां आंका गया। सरकार द्वारा उसे शायद सम्‍मानित भी किया गया। अब वह इस दुनिया में नहीं है। पर उसकी बहुत सी मीठी यादें हैं। इसी प्रकार गोपी का भ्‍ााई बिंदू (असली नाम गोविंद) ठेठ अनपढ़। हो सकता है चौथी तक भी न पहुंचा हो- भी बहुत सुरेले गले का मालिक था। इसी बल-बूते पर वह दुनिया के लगभग तमाम देशों की सैर कर आया। वह समुद्री जहाजों में, खलासी (कुलीगीरी) का काम ले लिया करता था।

ये दोनों भाई तथा थोड़े और लोग जैसे बड़े जीजाजी श्री जीवनलाल कपूर आदि मेरी रूचि के व्‍यक्‍ति थे। बाकी के फालतू के लगते। यह बात मैं घर में खुले रूप से व्‍यक्‍त भी करता रहता। इससे हुआ यह कि मुझे अबोध बालक से सभी, पूछा करते-अच्‍छा दर्शी यह बता कि फलाना, हमारे घर कितने रोज तक रूक सकता है ? (जैसे सारा घर मेरी अनुमति से ही चलता हो)े

मैंने भी जैसे सूची तैयार कर रखी थी। अमुक चार दिन। अमुक दो दिन। फलाना तो कभी आए ही नहीं। हमेशा टोका टोकी करते रहते हैं। और किसी के लिए-आह वह तो कभी जाए ही नहीं। हमें प्‍यार करते हैं। छाबड़ी वाले से गचक मोंगफली, फुले दिलवाते हैं। हम से हंसते खेलते हैं। हमेशा यहीं रहे। मगर कोई हमेशा कहां रहता है। यह आने जाने का सिलसिला हमेशा बना ही रहता। हां बड़े चचेरे भाई श्री चरणजीत लाल सहगल (जिनकी विस्‍तृत जानकारी पहले दे आया हूं) वे हमारे यहां पूरे दो महीने लगातार रहे। वे टाइप सीखने के लिए किला शेखुपुरा आए थे। गांव में टाइप शाप नहीं थी। हमने उनके साथ मजे़ किए मगर उन्‍होंने तो मजे लेने की हद ही कर डाली। यह खा वह खा। घी निगल। चीनी फांको। जैसे बरसों से कोई चीज़ देखी ही न हो। वास्‍तव में कुछ ऐसा ही था। उनके पिता, हमारे चाचा लाला टहलराम बहुत कंजूस और सिर्फ अपना हुक्‍म चलाने वाले शख्‍स थे। किसी से यह बात छिपी नहीं थी। इस मनोविज्ञान को हमारी अनपढ़ माताजी बखूबी समझती थी 'ऐश करने दो इसे।‘ देखकर भी अनदेखा कर जातीं। मकान के दूसरे हिस्‍से में रहने वाली बेबे भी देखती और माताजी से शिकायत करतीं कि कही चीजें कम पड़ जाने पर हमारा नाम मत लगा देना। माताजी उन्‍हें भी तसल्‍ली देतीं मुझे सब पता है। आप निश्‍चिंत रहें।

बाद में जब भाई साहब चरणजीत की मिलट्री में नौकरी लगी तो उन्‍होंने स्‍पष्‍ट अक्षरों में हमारे पिताजी को चिट्‌ठी लिखी-ताया जी मैंने जो दो महीने आपके घर ऐश की, वह पूरी जिंदगी अपने बाप के घर न कर सका। उनकी मां भी दूसरी (सौतेली थी) एक वाक्‍या मुझे भी धुंधला धुंधला याद आ गया। भाई साहब बाहर से दरवाजा खटखटा रहे थ्‍ो। दरवाजा खुल नहीं रहा था। भाई साहब दरारों में से देखने लगे। मां ड्‌योढ़ी में नंगी नहा रही थी।

जब चाचाजी घर आए तो मां ने चाचाजी से शिकायत कर दी। चाचाजी ने आव देख न ताव मोटा डंडा उठा लिया और बेरहमी से छोटे बच्‍चे पर बरसाने लगे-लुच्‍चा लफंगा बदमाश। भाई साहब के गला फाड़ फाड़ कर निकलीं वह चीखें, मुझे आज भी दहला जाती है।

सर्विस लगने के बाद, भाई साहब एक निश्‍चित रकम मनीआर्डर से हमारे पिताजी को भेजने लगे-ताया जी, इन रूपयों को आप आगे मनीआर्डर कर, मेरे बाप के पास पहुंचा दें, ताकि आप गवाह रहें कि मैं बाकायदा अपने बाप को पैसा भेजता रहा हूं। ताकि कल को मेरा बाप यह न कह सके कि चरणजीत ने मुझे कभी तन्‍ख्‍वाह में से पैसा नहीं भेजा।

अजीब घनचक्‍कर। कुछ समय तक तो पिताजी इस काम को सरअंजाम देते रहे। फिर तंग आ गए ''मेरा मनीआर्डर का खर्चा हर महीने क्‍यों कराते हो। कल को तेरा बाप यह भी सोच सकता है कि तुम मुझे भी कुछ रकम भेजते होगे। उसका कोई भरोसा नहीं। तुम बाप-बेटा खुद ही निपटो।

दूसरा हमारे यहां रहने वाला मेरा छोटा सा भांजा रमेश था। मुझसे लगभग तीन साल छोटा बच्‍चा। उसका दिल नाना नानी, मासी, मामाओं से इस कदर रमा हुआ था कि वह वापस अपने पिता, मां जिन्‍हें वह झाईजी बुलाता था, के पास लाइलपुर जाना ही न चाहता था। जब-जब वे यानी मेरी सबसे बड़ी बहन सुमित्रा तथा जीजाजी (श्री जीवनलाल कपूर) हमारे यहां कि़ला शेखुपुरा आते, वह चारपइयों के नीचे छिपता फिरता कि कहीं उसे साथ न ले जाएं।

ये सब तो खैर घर वाले थे, गांव के लोग भी बेहिचक कभी भी आ पहुंचते थे- मैं आ गया हां (कोई सा संबोधन लगाकर) ''मैं आ गया हूं।‘‘ इसे मैं 'अनौपचारिकता युग‘ की संज्ञा देना चाहूंगा।

बीच-बीच में हम सब मिलकर हरद्वार (हरिद्वार शब्‍द मुझे गलत लगता है) की तीर्थ यात्रा भी कर आया करते थे। वहां के पंडे तांगों के पीछे भाग-भाग कर पूछते रहते 'कहां के वासी, कहां के वासी‘ फिर ठीक हमारे कुल के पंडे तक सूचना पहुंच जाती। वह बड़े आराम से हमें ढूंढ लेता। कमरे, बर्तनों, वगैरह जैसा सामान, सुविधाएं मुहिया कराता। यजमान की इतनी सेवा करने वाला पंडा हमारे समाज में बदनाम है। क्‍योंकि वह यजमान की जेब से ज्‍यादा से ज्‍यादा पैसा वसूल करने की कला में माहिर है। लोग बाग उससे घबराए हुए परेशान दिखते हैं। पंडे से पिंड छुड़ाना चाहते हैं। पर उनकी सबसे बड़ी खूबी को बिल्‍कुल नज़रअंदाज़ किए रहते हैं कि वह हमारे पूर्वजों का सारा इतिहास, बहुत ही बढि़या कागज और पक्‍की स्‍याही से दर्ज किये होता है।

मेरे सुनने में आया है कि उन्‍नत देशों के बाशिंदे अपने पूर्वजों के विषय में जानने को तरसते फिरते हैं। यदि काेई उन्‍हें बता सके तो वे इसके लिए लाखों डालर खर्च करने को तत्‍पर रहते हैं। मगर हमें यह सब बहुत ही अल्‍प राशि में सहज रूप से बता देने वाला पंडा, गुंडा है। बदमाश या काइयां है। बदनाम तो खैर है ही।

इसी प्ररिप्रेक्ष्‍य में हम अपने ठेठ ग्रामीण, अनपढ़ लेकिन अपनी अपनी कला में माहिर लोकगायकों, इकतारा बजाने वालों, दो ठीकरों से संगीत की ध्‍वनियां निकालने वालों, मट्‌टी की छोटी छोटी बड़ी बड़ी मूर्तियां आदि बनाने वालों को उपेक्षित किए रहते हैं। उनका शोषण कर विदेशों से धन भी कमा लेते हैं।

एक बार मैं आकाशवाणी केन्‍द्र, बीकानेर में अपनी कहानी रेकार्ड करवाने के सिलसिले में गया। एक ग्रामीण को साधारण वेशभूषा में, गेलरी में फर्श पर उकडू़ बैठे पया। 'पता नहीं कौन है।‘ सोचता हुआ मैंने प्रोड्‌यूसर के कमरे में प्रवेश किया। स्‍वागत में उठकर उन्‍होंने मुझसे हाथ मिलाया ''बैठिए बैठिए‘‘ कहकर कुर्सी आफर की। मैं बैठ गया और थैले से अपने कागज निकालने लगा। तभी देखा वही ग्रामीण संकोच के साथ कमरे में झांक रहा है। मैंने प्रोड्‌यूसर साहब का ध्‍यान उस ओर दिलवाया तो उन्‍होंने उससे कहा भई ज़रा सब्र रखो। अच्‍छा तुम्‍हें कागज मिल्‍याे है। उसने झट से अपनी गांठ में से अनुबंध पत्र निकालकर दूर ही से दिखाया।

''ठीक है। ठीक है। अभी बुलाते हैं।‘‘

मैंने पूछा कौन है यह ? उन्‍होंने बताया-बहुत बड़ा माना हुआ लोकगायक है। रेडियो स्‍टेशन से अप्रूव्‍ड। हमारी सूची में शामिल है।

तब सचमुच मैं भावुक हो उठा। मैंने कहा-मुझे तो आपने कुर्सी पर बैठाया और उसके साथ ऐसा व्‍यवहार। सिर्फ इसलिए कि वह बेचारा बनपढ़ है। कम से कम हमें तो, अपने पढ़े लिखे होने का एहसास होना चाहिए।

बातें आगे दौड़ती हैं। मैं फिर फिर वापस लौटता हूं। हाय मेरे प्‍यारे कि़ला शेखुपुरा। मैं फिर से तुझे देखने को तरसता हूं। विभागन के बाद फिर तुझे न देख पाया। वहां की गलियां वहां के कूचे, वहांके छोटे-बड़े बाज़ार, हमारे मकान के सामने बड़ा चौक। वहां पर बना अखरोट, बादामों के छिलकों से बनते बटनों का कारखाना। बड़े-बड़े कड़ाहों में साबुत प्‍याज़ आलुओं, बैंगनों के तलते पकोड़े, वैसे फिर कभी न देख पाया। ओह वहां की हिरण मिनार। और किला ? किला तो मैं कतई देखना पसंद नहीं करूंगा। कारण-आगे चलकर बयान करूंगा।

कृष्‍णा बहन जी गर्ल्‍स स्‍कूल कक्षा आठ नौ से दस में आ गई थी और मैं सनातन धर्म हाई स्‍कूल में कक्षा पांच छह सात में। बहन जी स्‍कूल में पाक कला का पीरियड भी अटैंड करती थी। भाई साहब उन्‍हें चिढ़ाते थे- तेरी उस्‍तानी दरअसल निहायत भूखी है। बेचारी लड़कियों को बुद्धु बनाती है। उनसे तरह तरह की चीज़ें बनवाकर डकार जाती है। भूखी का पैट फिर भी नहीं भरता। इस पर बहनजी रोती थीं-हाय हमारी उस्‍तानी जी के बारे में ऐसा कुछ मत बोला करो। वह बहुत अच्‍छी हैं। वे अपनी अध्‍यापिका का अपमान नहीं सह पातीं। स्‍कूल से आकर, हम दोनों छोटें भाइयों को, स्‍कूल की बातें, स्‍कूल के रास्‍तों की बातें, अपनी सहेलियों की बातें बताया करतीं जिनमें से कुछ सूक्ष्‍म रूप से यौवन की ओर बढ़ती आयु के प्रसंग होते (उस वक्‍त तो नहीं, बाद में थोड़ा थोड़ा अप्रत्‍यक्ष रूप से समझने लगा था।

यह सारा मेरी चौथी क्‍लास के बाद की ढ़ाई सालों की घटनाएं हैं। भाई साहब दसवीं में पास हुए थे। मुझे अच्‍छी तरह से सारा नजारा याद है। दसवीं पास करना उस समय की बहुत बड़ी डिग्री प्राप्‍त कर लेने जैसा समझा जाता था। गिने चुने सब्‍जैक्‍टस होते थे। खास तौर से विद्यार्थी अंग्रेजी में महारत प्राप्‍त कर लिया करता था। दसवीें पास कलक्‍टर बनते लोगों के विषय में सुनते आए हैं।

तो भाई साहब के रिज़ल्‍ट की घोषणा रात के समय रेडियो से हुई थी। पूरे मुहल्‍ले (गुरूनानक मुहल्‍ला) में धूम मच गई थी। उनके साथी उन्‍हें अपने कंधों पर उठाए, शोर मचार रहे थे-मनोहर पास हो गया। मनोहर पास हो गया।

फिर भाई साहब ने चुपचाप लाहौर में एक के बाद एक, कुछ प्राईवेट फर्मों में नौक्‍री ज्‍वाइन की। एक को छोड़ दूसरी में जाते। लाहौर से आते तो हम सब छोटे भाइयों बहन को घूम घूम कर लाते मारते। हम रोते चिढ़ते तो कहते-करूं क्‍या। यह 'लाहौरी लात‘ है। हमें लाहौर में यही सिखाई जाती है। दो-तीन बार मुझे घुमाने-लाहौर की सैर कराने के लिए भी थोड़े दिनों के लिए ले गए थे। तब मैंने मजे से लाहौर देखा था। अनारकली बाज़ार और बड़े-बड़े गेट। कुछ फिल्‍में भी दिखलवाई थीं। धार्मिक फिल्‍मों की तो धूम थी ही। प्रोड्‌यूसर्ज हिम्‍मत करके देशभक्‍ति देश की आजादी की फिल्‍में भी बनाया ही करते थे। एक तरफ हम उस वतन के लोग हैं। हिन्‍दुस्‍तान हमारा․․․․․। दूर हटों दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्‍दुस्‍तान हमारा है। चल चल रे नौजवान। रूकना तेरा काम नहीं। चलना तेरी शान। चल चल रे नौजवान जैसे गानों की धूम थी तो कुछ अश्‍लील गानों की भी कमी नहीं थी। इक शहर की लौंडिया नैनो के तीर चला गई दिल को निशाना बना गई। मेरे जोबन का देखो उभार पापी। तू इक बार मेरा बनजा ओ परदेसिया फिर देख मज़ा। छल्‍ला दे जा निशानी․․․․․․ छल्‍ले की क्‍या बात है रानी, मांगो दिल आैर जान। और भी ढेरों थे जो अभी याद नहीं आ रहे। हां एक घटना ज़रूर याद हो आई। मैं और मेरा छोटा भाई बृजमोहन घर में लगे झूले पर बैठे पेंग बढ़ा रहे थे। और उसी पेंग की रफ्‍़तार से ज़ोर ज़ोर से वही गाना 'इक शहर की लौंडिया, नैनों के तीर चला गई। दिल को निशाना बना गई, पूरे जोश से गाए चले जा रहे थे। वहीं पास में हमारे पिातजी के साथ बैठे चाचा मेहरचंद गपशप लड़ा रहे थे। हमारे स्‍वरों की भनक उनके कानों में पड़ी तो मेहरचंद 'हे हू‘ कर भड़क उठे-शर्म नहीं आती लफंगों वाले गाने गाते। हम दोनों भाई उनका कुछ भी अर्थ नहीं समझ पाए। बस सहम गए। हमने कौसा गुनाह कर डाला।

सिनेमा हालों में दर्शकों की भीड़ होती थी। सीटियां बजा बजा कर फिकरे कसते थे। अश्‍लील गानों को लेकर हमारा तथाकथित आज का सभ्‍य समाज भले ही कितना कोसता रहे, पर ऐसे गीतों का दौर-दौरा हर ज़माने के साथ बना रहा है। मैं इसे प्रकृतिजन्‍य भी मानने से परहेज नहीं करता। हां पुरातन काव्‍य में काव्‍य नियमों पर श्रम किया जाता था। अप्रत्‍यक्ष शालीनता का तो लोहा भी मानना पड़ता है। कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। यथा-आखों में नींद थी मगर सोए नहीं थे रात भर। और सवेरा हो गया। न सोए न सोने दे। सारी रात जगाए। बादल आए पर बरसात बाकी रह गई․․․․․․। सब कुछ यही होते हुए भी भावों-कला का पालन किया जाता था। आज श्रम करने की कतई जरूरत नहीं। जो मन में आए खुलम खुला। हालांकि ऊपर उस समय के कुछ खुले गानों का जिक्र कर आया हूं। फिल्‍मों के कथ्‍य पर पूरी आस्‍था से समाज-सुधार फिल्‍में बनाई जाती थीं। बीच बीच हंसी के पुट अवश्‍य भरे जाते थे। गोप और याकूब हमारे सबसे प्रिय हंसौड़ एक्‍टर थे।

फिल्‍मी दुनियां को फिलहाल यही विराम देकर फिर से असली टापिक पर आते हैं। फिर भाई साहब की नौकरी रेलवे में बिना खास श्रम किए, पिताजी की जानकारी के बगैर लग गई। वाल्‌टन ट्रेनिंग स्‍कूल (लाहौर) में नौ मास की कड़ी ट्रेनिंग (रेलवे में हर महकम्‍मे में परांगत करने की) दरअसल यह स्‍टेशन मास्‍टर कोर्स था। इसके बाद उन्‍हें शोरकोट में पहले उन्‍हें सिगनेलर के पद पर पोस्‍ट कर दिया गया। इस विषय का कुछ वर्णन आगे चल कर मिलेगा।

अब मैं अपने पर आता हूं। ढ़ाई सालों का जिक्र। प्राइमरी स्‍कूल से कहीं बढ़-चढ़ कर टीचर्ज सनातन धर्म हाई स्‍कूल में देखे। एकदम बेरहम। लड़कों की खाल छील कर रख देने में जैसे-सैडिस्‍ट। हम अभी छोटें थे लेकिन हमारी दृष्‍टि में दसवीं के लड़के बहुत बड़े हुआ करते थे। उनको भी मास्‍टरों द्वारा डंडे बेंत खाते देखा है। देखकर मन दहल जाता था। सब को बतौर सजा, दौड़ लगवाना, दण्‍ड बैठक लगवाना, एक आध अध्‍यापकों के सिवा सब का शायद यही धर्म था।

एक अंग्रेजी के अध्‍यापक (बीमारी के कारण सफेद खाल वाले) सबसे ज्‍यादा जालिम थे। जिन्‍हें देखकर ही छात्रों की रूह कांपती थी। हिटलर।

एक दिन उस हरामी ने (सचमुच अब भी उसे गालियां देने को विवश हूं) मुझे हाथों पर बेंत पर बेंत मार कर उन्‍हें लाल कर, सुजा दिया। हां ठीक जवाब जानते हुए भी डर के मारे ठीक जवाब न दे पाते।

मुझे अच्‍छी तरह (शीशे की मानिंद) इस वक्‍त तक भी याद है ः छुट्‌टी के बाद जब घर पहुंचा तो माताजी गुस्‍सलखाने में कपड़े धो रही थीं। मुझे देखते ही बोलीं-आज तुझे मास्‍टर से खूब मार पड़ी है। उसका सत्‍यानाश हो। कहते कहते माताजी की आंखों में पानी आ गया। इसे कहते हैं 'मां का दिल‘। वह कहां घर में बैठी है। मैं इतनी दूर के स्‍कूल में। फिर भी मां के कलेजे पर कैसी चोट लगती है। क्‍या इस वैज्ञानिक विधि से सिद्ध किया जा सकता है ?

फिर भी बच्‍चे तो बच्‍चे होते हैं। हर हाल में जीते सहते मुस्‍कराते, झगड़ते, मज़े लेते हैं। आधी छुट्‌टी में हम स्‍कूल गेट से बाहर आकर, सीमित जेब खर्च से चाट पकौड़ी, चूसने की गालियां, कंचे वगैरह खरीदते। खाते। खेलते। एक बड़ी दुकान पर काबली चने प्‍याज़ इमली के साथ मिलते थे। बहुत लज़ीज़। इस पर तो बहुत सारे छात्र छपटते, अपने नंबर का इंतज़ार करते। यह दुकान, हमारे साथ पढ़ने वाले लड़के का बाप चलाता था। हम लोग सोचते कि इस लड़के के तो मजे़ ही मज़े हैं। जितने चाहे दोने भर भर कर खाएं। यह सोच, जब हमने उस लड़के पर ज़ाहिर की तो उत्त्‍ार सुनकर हम दंग रह गए। उसका कहना था ''सच्‍ची मेरा तो इना नूं तकण ते वी दिल नईं करदा‘‘ (मेरा तो इन्‍हें देखने का भी मन नहीं करता)। तभी से स्‍पष्‍ट हो गया कि बहुतात में मिली मुफ्‍त की चीज़ की हमारे जीवन में कोई कद्र नहीं हुआ करती (घर की मुर्गी दाल बराबर) मैं अक्‍सर कहा करता हूं कि यदि सोना भी मट्‌टी ही की तरह जमीन पर ऐसे ही भरमार पड़ा हो तो सोने को कौन पूछेगा।

हिन्‍दुस्‍तान के स्‍कूल मास्‍साबों (अध्‍यापकों गुरूजीओं) का हाल हमेशा दयनीय ही देखता आया हूं-अपने प्राइमरी स्‍कूल के बारे में तो थोड़ा लिख ही आया हूं। सनातन स्‍कूल के अध्‍यापक भी इसी फिराक में रहते कि कहीं से कोई मुफ्‍त में काम बनता रहे। क्‍लास रूम में खिड़की थी। खिड़की में से एक लड़के का घर दिखता था। उसके यहां गाए भैंसे थीं। मास्‍टर साहब रौब से उस छात्र से कहते-जा घर से लस्‍सी छाछ का ग्‍लास ले आ। हर एक से पूछते तेरा बाप क्‍या काम करता है-अगर खाती है तो खाट ठीक करवा लेते। इसी तरह हर एक छात्र से जो बन पड़े फायदा उठाए रहते। हमारे पिताजी से मुफ्‍त यात्राएं कराने की मांग करते। आगे चलकर बरेली स्‍कूल में भी यह चीज मैंने देखी।

हां एक रूचिकर प्रसंग भी याद आ गया जिसे बीच में ही जरा सुन लें। एक मास्‍टर साहब का नाम हंसराज था। और कक्षा में एक लड़के का नाम भी हंसराज था। वह पढ़ने में नालायक था। मास्‍टर हंसराज उसके हाथों पर डंडा (रूल) बरसाते और साथ ही कहते जाते-तू अपणा ना (नाम) बदलवा ले। यानी तू मेरे नाम को बदनाम कर रहा है।

पहली टीचर्ज की दयनीय आर्थिक स्‍थिति को कायम रखते हुए एक टिप्‍पणी करना चाहूंगा। सुना है समृद्ध देशों में प्राइमेरी स्‍कूल टीचरों के वेतन, बनिस्‍बत कालेजों के प्राध्‍यापकों के अधिक हुआ करते हैं। कारण स्‍पष्‍ट है कि हमेशा छोटे बच्‍चों को संस्‍कारित/परांगत करने में बहुत अधिक श्रम करना पड़ता है।

यदि बच्‍चे जो अधिक सम्‍पन्‍न घरों से हैं, ड्राइवर के साथ अपनी कार में आता है। उन्‍हीें के सम्‍मुख अध्‍यापक अपनी चप्‍पले झटकारते हुए पैदल या साईकिल पर आते हैं। तो इसका प्रभाव दोनों पक्षों पर कैसा पड़ेगा, कहने की जरूरत नहीं।

यहां के मास्‍टरों के भी किस्‍से ? जिनके बारे में प्रायः यह कहा जाता है कि जो कुछ न बन सका, वह टीचर बन गया। ऐसों को कैसे राष्‍ट्र निर्माता कहा जा सकता है। अपवादों की भी कमी नहीं। यह एक लंबा 'अध्‍याय‘ हो जाएगा जिसकी यहां इससे ज्‍यादा शायद जरूरत नहीं।

मेरी दोनों बड़ी बहनों (सुमित्रा और कृष्‍णा-अब दोनों दिवंगत) की शादियों की दास्‍तान भी थोड़ी कड़वी और चौंकाने वाली हैं। छोटी छोटी उम्र में शादियां होना आम बात थी। हालांकि अंग्रेजी राज्‍य में प्रतिबंधित थीं। तब कुछ लोग जो कानून से डरते थे, रियास्‍ताें में जा-जाकर अपनी लड़कियों लड़कों की शादी करवा आते थे। वहां राजा के बनाए कानून चलते थे। अंग्रेजी सरकार उसमें हस्‍तक्षेप नहीं करती थी। मेरे पिताजी की शादी बारह वर्ष की अल्‍पायु में हो गई थी।

बड़ी बहन सुमित्रा ने पांचवीं कक्षा पास की तो, फौरन उसकी शादी करोड़ में कर दी गई। शादी के बाद जब मैं उनसे मिलने उनके कच्‍चे से लगने वाले घर में गया तो देखकर रोने लगा। जगह जगह हलवाइयों ने जमीन खोद खोद कर चूहले बना रखे थे। मैं कह रहा था-''हाय मुझे नही ंभेजना मेरी अच्‍छी अच्‍छी भैनजी को इतने गंदे घर में।‘‘ मेरे रोने पर बुजुर्ग लोग हंसते।

दूसरी बहन कुष्‍णा की शादी के अवसर पर भी मैं गला फाड़ फाड़ कर रोेया था। यह बैसाखी का इतवार का दिन था-13 अप्रैल 1947। अभी उसने दसवीं की परीक्षा दी ही थी। रिजल्‍ट आउट नहीं हुआ था और शादी । दुल्‍हन के रूप में सजी धजी, सहेलियों आदि से घिरी कृष्‍णा बहन जी वाले कमरे में जा जाकर कह रहा था, ''भैनजी मना कर दे। कह दे मैंने यह शादी नई करनी।‘‘ मेरी बात तो सभी को जच रही थी। पर करें क्‍या ? एक तरफ गुडि़या सी खूबसूरती की मूरत बहन जी और दूसरी तरफ मिल्‍ट्री के पक्‍के हुए चेहरे का जवान। उम्र में भी बहुत ज्‍यादा अंतर। बड़े जीजाजी भी, पिताजी से कह रहे थे कि कहां हमारी कृष्‍णा और․․․․․ (बेमेल जोड़ी)

हुआ क्‍या था। रिश्‍तेदारी की किसी औरत मंगो ने यह रिश्‍ता तय करवाया था कि बेटी राज करेगी। लड़का फौज में है। निहायत शरीफ। शरीफ खानदानी। अच्‍छी तंख्‍वाह। आप मुझ पर छोडि़ए। आंख मूंद कर रिश्‍ता कबूल करे लें। पहले यूं ही शादियां नाइयों, बिचौलियों द्वारा करवा दी जाती थी। सो संचमुच माता पिताजी ने आंखे मूंद कर 'हां‘ कर दी थी। लड़का कोइटा (बलोचिस्‍तान) में नियुक्‍त था। कौन जाए इतनी दूर लड़का देखने। दुनिया विश्‍वास पर चलती है। मंगो कह रही है तो ठीक ही कह रही है।

अब बड़ी बहन जी सुमित्रा, उसी रिश्‍तेदार औरत से कह रही थीं ''तूने हमसे विश्‍वासघात किया है। हमसे कौनसे जन्‍म का बदला लिया हैतूने।‘‘ धीरे धीरे, थोड़े ऊंचे स्‍वरों में विरोध होने लगा। मेरी बुआ बीबी द्वारी बाई का लड़का, गोपीचंद (जिसका जिक्र ऊपर कहीं कर आया हूं) तैश में आकर, आकर कह रहा था-अभी कोटला जाम, अपने गांव जाकर अपने लठैतों को बुला लाता हूं। वे इन बरातियों को खदेड़ कर बाहर करेंगे। (इस बात को भूलते हुए कि कहां, िकला शेखुपुरा और कहां इतनी दूरी पर बसा उसका गांव, कोटलाजाम)

पूरा माहौल गमगीन हो गया। माताजी भी द्रवित होकर पिताजी से बोलीं-गलती तो हम लोगों से ही हुई है। बिना लड़का देखे․․․․․ मंगों पर एतबार कर बैठे। अब आप उन्‍हें (बरातियों को) समझाकर शादी रद्‌द कर दें। पिताजी ने कहा ''अगर इस तरह से बारात वापस चली जाती है तो मैं फांसी ले लूंगा।‘‘ लड़के (रोशनलाल तलवाड़) के जीजाजी डॉ․ एम․एल․ बेदी खास तौर से समझा कर हमें आश्‍वस्‍त करने में लगे थे। बेशक लड़के की उम्र कुछ मामूली सी ज्‍यादा हो सकती है, लेकिन आप मुझ पर यकीन रखें। लड़का खरा सोना है। बहुत ही नर्म दिल। शरीफ। वह भी आप लोगों के दुःखी होने से दुःखी हो रहा है। कह रहा है। बेशक शादी रोक लें। बेदी साहब की पत्‍नी यशोधा भी बीच में आ गई। ऐसे कैसे हो सकता। शादी है कि मज़ाक ? मेरा भाई लाख्‍ाों मे एक है। आगे चलकर पता चलेगा। इसका अपने महकमें में कितना रोब चलता है।

इस प्रकार मन को पक्‍का कर विवाह सम्‍पन्‍न हो गया। यह बात ठीक भी निकली। बहन ने हमेशा सुखी ग्रहस्‍थ जीवन जिया।

डोली लेकर के लोग पहले लाहौर गए, जहां पर डॉ․ एम․एल․ बेदी, एमोनेशन िडप्‍पो में सुपरवाइज़र थे। बहनजी का देवर मोहन जो जबलुपर किसी शानदान प्राइवेट फर्म में मनेजर था, ठाट बाट से रहता। उसके पास कार थी। मोहन बहुत ही खूबसूरत गोराचिट्‌टा नौजवान था। अपने सगे भाई (हमारे जीजाजी) से एकदम विपरीत।

मैं भी बहनजी के साथ लाहौर चला गया था। मोहन, जीजाजी और बेदी साहब मुझसे लाड़ लड़ाते।होटलों, रेस्‍टोरेंटों में खिलाते पिलाते।

मैं खुश हो गया। वाह इसे बहते हैं, ऊंचे अमीर लोग। बहनजी के ठाट है जो इतना अच्‍छा घर मिला।

फेरा डालने बहनजी जीजाजी के साथ किला शेखुपुरा आई। पित की प्रशंसा करने लगी-माताजी ये तो देवता हैं।

कुछ रोज़ बाद जीजाजी, बहनजी को लेकर कोइटा चले गए। कुछ महीनों बाद कृष्‍णा बहनजी हम सब से मिलने किला शेखूपुरा किसी के साथ चली आईं। जीजाजी को छुट्‌टी नहीं मिल रही थी।

पिताजी को तब्‍दीली मुल्‍तान हो गई। 22 जुलाई 1947 को वे अकेले वहां चले गए। अभी हम बच्‍चों का सत्र चल रहा था। लिहाजा हमें साथ नहीं ले जा सकते थे। कहा-अगले सैशन में ले जाएंगे और मुल्‍तान में दाखिल कर देंगे।

मगर मगर मगर।

मैं यहां पिताजी की उर्दू डायरी की चंद सतरें ज्‍यों की त्‍यों उद्धृत करना उचित समझता हूं ताकि पढ़ने वालों को देश विभाजन की त्रासदी का कुछ अंदाजा हो सके। वैसे मैं यह भी अच्‍छी तरह जानता हूं कि हर विस्‍थापित के पास अपनी अपनी कहानी है। पर पिताजी के इन पृष्‍ठों को मैं यदा कदा पढ़कर पिताजी से एकाकार होता हूं। अपने खुद के पाकिस्‍तान से निकल बचने की दास्‍तां बाद में लिखूंगा।

पिताजी की डायरी का शीर्षक है ः

पाकिस्‍तान से हिन्‍दुस्‍तान आना।

(पंजाब बंगाल का बंटवारा)

मैं किला शेखुपुरा से तबदील होकर अकेला 22/7/47 को मुल्‍तान पहुंचा। इस दौरान ख्‍़ातरा बढ़ गया। गाड़ी में हिन्‍दुओं और सिखों का सफ़र करना सख्‍त खतरनाक था। मुल्‍तान छावनी और ट्रेनों में खतरा महसूस करते हुए हम हिन्‍दू STE (स्‍पेशल टिकट एग्‍जामिनरज़) ने शायद 20/8/47 को लिखकर दे दिया कि हम से ऐसे हालात में किसी से टिकट पूछने की जुर्रत नहीं है। और हम पाकिस्‍तान रेलेव पर बोझ हैं। क्‍याेंकि हम रेलवे के वास्‍ते कुछ नहीं कमा सकते। इसलिए मेहरबानी कर हमेशा या तो हिन्‍दुस्‍तान तबदीली के लिए फारिग कर दिया जाए या सबको एक एक महीने की छुट्‌टी दे दी जाए। आखिर हमको 9/9/1947 बाद दोपहर तबदीली के लिए फारिग कर दिया गया। मगर बाहर जाने का कोई बंदोबस्‍त नहीं था। क्‍योंकि गाडि़यों में बद्‌दस्‍तूर खतरा था।

आखिर 13/9/1947 शाम को मालूम हुआ कि सरकारी नौकरों की एक स्‍पेशल ट्रेन हुन्‍दुस्‍तान जा रही है, जिसमें रेलवे मैन भी शामिल हैं। सो हमारी ट्रेन मुल्‍तान छावनी से शाम के 8½ बजे 13/9/47 को रवाना हुई और सवेरे 7½ बजे मिंटघुमरी 14/9/47 को पहुंची जहां मेरे समेत बहुत सारे लोग प्‍लेटफार्म पर चाय पीने उतरे। अभी उतरे थोड़ी देर ही हुई थी कि दो फायर बंदूक के हुए। सब डर कर भाग भाग के गाड़ी में वापस जा घुसे; और एक दूसरे पर जा गिरे। फिर चुप हो गई और हमारे साथ जो मिल्‍ट्री मरहट्‌टा थी, ने गोली चलाने वाले की तलाश शुरू कर दी। आखिर सामने एक मालगाड़ी के डिब्‍बा से एक, दो नाली बंदूक और काफी कारहद कारतूस मिले। मगर गोली चलाने वाले का पता न चला। गोली हमारे ही डिब्‍बे में चलाई गई थी जिसका नंबर int (Intee) (उस वक्‍त I II Int और iii गाड़ी की चार श्रेणियां हुआ करती थीं) था। आठ आदमी जख्‍मी हो गए, जिनमें तीन बच्‍चे थे। (पिताजी चाय भक्‍त थे। वे हमें बताया करते थे कि चाय ने ही मुझे बचाया। चाय के लिए प्‍लेटफार्म पर न उतरा होता तो गोली तो मेरी ही खिड़की से ही आई थी।

काफी देर बाद हमारी गाड़ी वहां से चली और फिर कोट राधाकिशन स्‍टेशन पर आकर रूक गई। क्‍योंकि गार्ड और ड्राइवर ने कहा कि हमारी ड्‌यूटी के घंटे ज्‍़यादा हो चुके हैं। बावजूद मिनत-समाजत के गार्ड और ड्राईवर, खाली इंजन लेकर लाहौर रवाना हो गए। कोट राध्‍ााकिशन, हम शाम छह बजे पहुंचे। जिन बाल बच्‍चों वालों के पास राशन था, उन्‍होंने इधर-उधर से कुछ लकडि़यां इकट्‌ठी कीं ओर थोड़ा खाना बनाया। मगर जो बगैर बाल बच्‍चों के थे, वे भूखे रहे और मैंने तो 13/9/1947 को भी कुछ न खाया था। सवरे 15/9/47 को भी रोटी का वही हाल, और हम भूखे। किसी दोस्‍त को कहीं से एक रोटी मिली और उसने मुझे एक टुकड़ा दे दिया। कुदरत ईश्‍वर की कि कुएं का पानी भी खत्‍म हो गया, क्‍योंकि हमारी गाड़ी में ढाई हजार मुसाफिर थे। और एक ही कुआं पानी देने वाला। अब सबने एक दूसरे को पानी देना बंद कर दिया; और बहुत तकलीफ हुई। सारी रात जंगल के स्‍टेशन पर गुजारी। और सख्‍त खतरा था कि कहीं गाड़ी के ऊपर हमला न हो जाए। लेकिन हमारे साथ मरहट्‌टा फौजी बहुत होशियार थे।

अब हमारी गाड़ी 6 बजे शाम 15/9/47 कोेट राधाकिशन से चलकर लाहौर छावनी पहुंची। वहां थोड़े से चावल बच्‍चों के वास्‍ते शायद सेवा समिति की तरफ से मिले। और बाकियों ने एक एक नाश्‍पती या सेब छाबड़ी वाले से लेकर खाया। और सारी रात वहीं गुजारी। पानी की वहां भी तकलीफ थी; क्‍योंकि नलके में से पानी बहुत कम आता था और मिल्‍ट्री की गाडि़यां पानी लाती थीं, और बच्‍चों वाले और बरतनों वाले ही थोड़ा सा पानी ले सकते थे। अब हमारी गाड़ी लाहौर छावनी से 16/9/47 शाम तीन बजे रवाना हुई। गाड़ी लाहौर छावनी से सीधी महफूजलाई गई लेकिन लाहौर बड़े स्‍टेशन पर नहीं लाई गई। रास्‍ते में गाडि़यों के क्रास के वास्‍ते एक स्‍टेशन पर हमें काफी देर खड़ा रहना पड़ा। आखिर पाकिस्‍तान की सरहद पार करके हम अटारी स्‍टेशन पर पहुंचे। और सबके मुंह पर मुस्‍कराहट आई। वहां गांव के सिखों ने बड़ी खुशी के साथ पानी और भूने हुए चने और टुकड़ा रोटी के साथ हमारी सेवा की। वहां से चले तो हर स्‍टेशन पर हमारी गाड़ी रूकी रही। क्‍योंकि अमृतसर स्‍टेशन पर गाड़ी लेने की जगह न थी। आखिर जगह हो जाने पर हमारी गाड़ी तीन बजे सवेरे 17/9/47 को पहुंची। और हमने शुक्र ईश्‍वर का बजा लाया। गोया मुल्‍तान से अमृतसर आठ घंटे का सफर हमारी गाड़ी ने चार दिन में तय किया।

इन चार दिनों तक प्रतिक्षण मौत उनके सम्‍मुख मंडरा रही थी, उसकी कल्‍पना पाठकगण सहज रूप से कर सकते हैं। और ठीक उन्‍हीं दिनों दूसरी ओर आज़ाद हिन्‍दुस्‍तान में नृत्‍यों के साथ आज़ादी के तराने गाए जा रहे थे। जश्‍न मनाए जा रहे थे। खुशी के जाम टकराए जा रहे थे।

अमृतसर पहुंच कर मैं पहले पनाहगजीनो (शरणार्थियों) के कैंप शरीफपुरा में लाइलपुर के आदमियों की तलाश में गया कि हीं बच्‍चों का मालूम कर सकूं। वहां पर एक सिख गुरूनानकपुरा लाइलपुर का मिला जिसने बताया कि अभी लाला तुलसीदास सेवाराम (दोनों हमारे बड़े जीजाजी श्री जीवनलाल, के बड़े भाई) अपना घर छोड़कर आर्य स्‍कूल में हैं। (हिन्‍दु लोग अपने मकान घर छोड़कर झुंडों में रहने लगे थे) और उनके आने का फिलहाल कोई रास्‍ता नहीं है।

पिताजी डायरी के बहुत से पृष्‍ठ हैं जिन्‍हें यहां देने की ज्‍यादा आवश्‍यकता मैं महसूस नहीं करता। वे हम बच्‍चों की प्रतीक्षा में दरबदर, कैंपों की ठोकरें खा रहे थे। उन्‍हें किला शेखुपुरा का अपना, मकान मालिक लाला राम रखामल वोहरा जिनके साथ मकान में हम कि़ला शेखुपुरा में रहा करते थे, मिल गया। उसने हृदयविदारक घटनाएं सुनाई कि फ्‍लां फ्‍लां मारा गया। किला शेखुपुरा बुरी तरह से तबाह हो चुका है। हमारी बैठकों के दरवाजे जले हुए थे। और सारा सामान लूट लिया गया था। और भी बहुत कुछ। अनावश्‍यक विस्‍तार में जाना उचित न होगा। बिना गोर्वमेन्‍ट पाकिस्‍तान की सहमति के ये सब संभव नहीं था। लोग कि़ले में जा छिपे थे। कि़ले के भारी बड़े दरवाजों को सरकारी टैंकों से ही तो तोड़ा जा सका। 18 हज़ार हिन्‍दुओं में से दो हजार ही किसी तरह बच पाए। पिताजी लिखते हैं। मैं अपने भतीजों के पास, हाल बाजार, अमृतसर के पंजाब नेशनल बैंक में चला गया। फिर उनके घर रहने लगा। हर तरफ भीड़ ही भीड़। ऊपर से वे बीमार थे। हैज्‍़ाा फैल रहा थ। सैलाब भी आ गया था। रेलवे लाइने टूट गई थीं। आवागमन के साधन समाप्‍त प्रायः हो गए थे। तिस पर उन्‍हें अपने सगे भतीजों विष्‍णुदत जिसकी आयु 28 वर्ष की थी और रामचंद जिसकी आयु 25 वर्ष थी, दोनों सगे भाई नौशैरा में बैंक में नौकरी करते थे, के कतल हो जाने का समाचार मिला। इसने भी उन्‍हें तोड़कर रख दिया। उनके चचेरे भाई (या भतीजे) तख्‍तराम के दामाद लुड़ींदचंद के भी डेरा इस्‍माइल खां में कतल हो जाने का भी समाचार मिला।

आगे का वर्णन, मैं स्‍वयं क्रमानुसार आगे चलकर करूंगा वह सब मेरा आंखों देखा है। कैसे हम लोग पिताजी से मिल पाए।

हमारा पाकिस्‍तान से मगर․․․․․ यानी मगरमच्‍छों से बच बच निकलना।

मेरे अच्‍छे भाइयों और बहनों। सच मानेंगे, बावजूद सारी विसंगतियों के, जिनमें से कुछ का वर्णन मैं ऊपर कर आया हूं, शेखुपुरे का मेरा बाल्‍यकाल वाला जीवन एक जीवंत जीवन था। बाल्‍यावस्‍था की कोंपलों से किशोरावस्‍था में कदम रख रहा था। जीवन में जैसे ज़ोर-शोर का उल्‍लास उमंग उत्‍साह, 'कुछ कर गुजरने की तमन्‍नाएं हिलोरें ले रही थीं।

हर साल की तरह इस 1947 वाले साल में हम गर्मियों की छुटि्‌टयों का बेताबी से इंजार कर रहे थे। हम अपने पिंड (गांव) करोड़ लालीसन जाएंगे। वहां जिस तरीके से हर रिश्‍तेदार का लाड़ प्‍रूार मिलता था, मिलेगा। वहां से लैय्‌या अपनी मौसी कौड़ी के घर भी जाएंगे। फिर वहां से कोटला जाम जाएंगे। अपने बुआ के लड़के गोपी तथा गोविंद (बिन्‍दु) से मिलेंगे। बुआ बीबी दवारी हमें देखकर निहाल हो जाएंगी। फूफाजी (जो काबुल तक व्‍यापार करते थे) स्‍टेशन पर लेने आएंगे। एक कंधे पर मुझे और दूसरे कंधे पर मेरे छोटे भाई बृज को बिठाकर कितनी दूर तक ले जाएंगे। रेतीला इलाका पार करेंगे। बार बार मुंह से वही शब्‍द निकालेंगे-बचड़ेओ (बच्‍चों) तुम ने मुझे खरीद लिया।

वे रात में हमारे सम्‍मान में पूरे बकरे का गोश्‍त तैयार करते। इतना सारा गोश्‍त हम बच्‍चे कहां खा पाते। लेकिन उनकी जिद 'पूरा बकरा‘। उस सब्‍जी में लहसन वगैरह से भरा मसाला और ऊपर से खूब सारी लाल काली मिर्च। नहीं खाया जाता तो न सही․․․․․․․। उन्‍होंने अपना बहुत बड़ा फज़र् नहीं, प्‍यार भरा हृदय उंडेल दिया। लिख आया हूं गोपीचंद बिन्‍दू का गला बहुत सुरीला था। वे हमें रेत के टीलों पर श्‍ााम को ले जाते। उनकी मित्र मंडली भी वहां उपस्‍थित रहती। टीलों पर हवा लहराती हुई झूमती। और उसके साथ ऊंचे से ऊंचे झूमते हुए ठेठ अपनी मुल्‍तानी (सरायकी) बोली के लोक गीत। यह सिलसिला अंधेरा होने के बाद तक चलता रहता- मेरी पगड़ी दा रंग सावा (हरा) सावा ओए सावा। आ ते घिन बंज मैंकूं। आ और मुझे ले जा (बिरह्‌ गीत)। और न जाने मट्‌टी के रंग से सराबारे गीत।

बीच-बीच में वे हमें आसपास के गांवों में जहां जहां, मेले ठेले चल रहे होते; जैसे भक्‍कर कोटअदू․․․․․ वगैरह वगैरह ले जाते। हम खुशी खुशी यह सब नजारे देखने के लिए मीलों मीलों पैदल चल लेते।

फिर वापस करोड़। वहां हमारा बहुत बड़ा घर था। दो एक जैसे, भागों में बंटा हुआ। एक भाग हमारा और दूसरा भाग चाचा मास्‍टर टहलराम का। हमारे कमरों बैठक को तो ताले जड़े रहते। लेकिन दीगर खाली भागों जैसे आंगन बरामदों ड्‌योढ़ी को चाचा चाची और उनके छोटे बच्‍चे मोहनी पुषी (मोहन, पुष्‍कर) इस्‍तेमाल करते रहते। हमारे पहुंचते ही दोनों छोटे भाई घबरा से जाते और अपना तमाम सामान जैसे छाज, गिलीडंडा, हमामदस्‍ता सिलबट्‌टा, वगैरह वगैरह भाग भाग कर अपने पोर्शन में ले जाते । यह दृश्‍य देख देख कर मुझे और बृज को बड़ी हंसी आती।

इसके बाद हम दोनों भाई अपनी बैठक का ताला खोलकर अपने अपने खिलौने क्रोकरी उठा लेते। अंग्रेजों के जमाने में क्राक्री भी अंग्रेजी किस्‍म की हुआ करती थी। खूबसूरत फूलों वाले बिना डंडी के गोल गोल पतले कप। साथ में प्‍लेटें। अंडा खाने वाले शीशे के बर्तन का नाम याद नहीं। उसके एक खाने में अंडा रखा जाता दूसरे खाने में नमक काली मिर्च। दो खानों के ऊपर उठाने के लिए शानदार हैंडल। ऐसा उपकरण मैंने बाद की जिंदगी में कभी नहीं देखा। हम दोनों भाई अपने अपने हिस्‍से की तमाम चीजों को ऐसे निहारते जैसे कोई अपने बिछड़े हुए साथियों से मिलकर प्रसन्‍न होता है। छत पर कुडियां लोहे की कडि़यां ही कडि़यां होती जिनके सहारे रस्‍सियों या मोटे मोटे धागों सुतलियों के साथ मट्‌टी के बर्तन लटके रहते। इन बर्तनों में देसी घी होता। (डालडा का प्रचलन तो बहुत बहुत बाद में हुआ)। दही मलाई रबड़ी शहद होती ः बिल्‍ली की पहुंच से परे। बड़ी बड़ी लकडि़यों की अलमारियों में दीगर सामान भरा होता। हमारी बैठक पूरे गांव में मशहूर थी। शीशों की अलमारियों में शोपीस रख छोड़े थे। दीवारों पर फोटोग्राफ्‍स, पैटिंग्‍स थे।

एक घटना याद हो गई। एक बार कोटला जाम से गोपी, छोटे भाई बिन्‍दू को करोड़ मेला दिखलाने ले आया। हमारे घर ठहरा। जब बिन्‍दू ने हमारी सजीधजी बैठक का अवलोकन किया तो अपने बड़े भाई गोपी से बड़ी मासूमियत के साथ पूंछने लगा-गोपी गोपी! क्‍या यही मेला है ?

दसअसल होता यह था कि जब जब हमारे पिता जी की बदली नए स्‍टेशन पर होती तो वे रेलवे वैगन (जो रेलवे मैन को ट्रांस्‍फर हो जाने पर सामान ले जाने के लिए फ्री में मिलता है) को अपेन पुश्‍तैनी घर में ही बुक करा देते, कि नए स्‍टेशन पर नई चीजें खरीद लेंगे। इस तरीके से लड़कियों की शादियों दहेज का सामान जमा होता रहेगा। इस प्रकार हमारा मकान हर तरह के सामानों से भर गया था। क्‍या पता था कि पाकिस्‍तान बनेगा और सब कुछ यहीं का यहीं धरा रह जाएगा।

लेकिन अपने गांव की खुिश्‍ायां उत्‍साह भी इस वर्ष, 1947 में धरे के धरे रह गए।

पिताजी की बदली मुल्‍तान हो गई थी। वे हमें साथ नहीं ले गए ताकि बच्‍चों की पढ़ाई बाधित न हो। अगले सत्र में मुल्‍तान में दाखिला दिलवा देंगे।

उधर कृष्‍णा बहन जी अपने पति के साथ कोइटा चली गई थी किंतु नई ब्‍याही छोटी सी दुल्‍हन का मन मैकों वालों की याद में बेचैन था। उसकी एक के बाद एक चिटि्‌ठयां आतीं रहतीं कि मन उदास है। दिल नहीं लगता। जल्‍दी आपके पास किला शेखुपुरा आना चाहती हूं। पर बेबस हूं। इन्‍हें (हमारे जीजा जी को छुट्‌टी नहीं मिलती। जैसे ही कोई साथ मिलेगा। आ जाऊंगी। मैं भी आपके साथ हमेशा की तरह करोड़ चलूंगी। मेरा इंतजार करना।

हम इंतजार करने लगे।

एक दिन अचानक हमारे मकान किला शेखुपुरा के सामने एक तांगा आ खड़ा हुआ। उसमें से कृष्‍णा बहनजी उतरीं। हम दोनों भाई और माताजी जैसे खुशी से पागल होकर लिपट रहे थे। भैनजी कृष्‍णा आ गई भैनजी आ गई। उसके साथ थोड़ा सा सामान था। उसे उतरवाया।

घर में पहुंचते ही माताजी ने, उसके सिर पर हाथ फेरते हुए, कुशलक्षेम पूछने के बाद कहा-पगली अपने आने की इत्‍तिला तो कर देती। तुझे स्‍टेशन पर लेने आ जाते। एैसे कैसे ? सच सच बता सब ठीक तो है ना।

- हां भाभीजी (हम लोग माताजी को ज्‍यादातर भाभी जी ही पुकारा करते थे) क्‍या हमारा टेलिग्राम नहीं मिला ?

टेलीग्राम नहीं मिला था। डाक व्‍यवस्‍था भी चरमरा रही थी। मन में दहशत पैदा करने वाली खबरें भी आने लगीं थीं। एक दूसरे को प्‍यारे लगने वालों के हृदय की, अंदर की, परतों में अविश्‍वास के बीज अंकुर बनने लगे थे जो बाद में देखते ही देखते पोधों बड़े बड़े दरख्‍तों की शक्‍ल अख्‍तिायार करने लगे थे। हिन्‍दु लोग अपने घर की नेमप्‍लेटें हटा रहे थे। दरवाजों को आग की जद से बचाने के लिए उन पर टीन की चदरें जड़वा रहे थे।

ऊपर से यह कहते हुए भी सुने जाते कि हमें क्‍या खतरा है हमारी हिन्‍दुओं की आबादी 18-20 हजार है जबकि मुसलमानों की हमसे बहुत ही कम।

मगर जो दिल अंदर से हिल चुके थे, उन्‍हें कौन तसल्‍ली दे ? हालांकि भाईचारे वाली कुछ समितियां भी बनती रहती थीं। हमेशा एक बने रहने की कसमें खाते हुए लैक्‍चर भी दिए जाते थे। मगर मगर मगर - हृदय के ऊपर खड़ा बहुत बड़ा भयावना दृश्‍य बना पाकिस्‍तान था। लिहाजा हर रोज एक दो चार सात सात परिवार कि़ला शेखुपुरा छोड़कर निकल रहे थे। उन्‍हें रोकने की हरचंद कोशिश-अरे कुछ नहीं होगा। हम भी तो बैठे हैं- नाकाम साबित हो रही थी।

एक दिन सुबह सुबह माताजी ने मुझे स्‍टेशन भेज कर कहा-मनोहर को (भाई साहब) को वर्डज दे आओ कि आकर हमें ले जाए। 'वर्डज का मतलब प्राइवैट टेलिग्राम हुआ करता है, जो रेल कर्मचारी अक्‍सर एक दूसरे को यूं ही मुफ्‍त में टेलिग्राफिकली देते रहते हैं।

हमने बड़े बड़े रजाइयों वाले ट्रंकों में सामान भरना शुरू कर दिया। उन पर दो दो मोटे ताले जड़ दिए। दीगर सामानों को समेट बांध कर सुरक्षित रूप से कमरों, बैठक में रख दिया।

इतने में सरदार, सरदार सिंह हमारा ग्रामोफोन देने आ गया-लो भरजाई जी! संभाल लो। माताजी ने फिर से बड़े ट्रंक के ताले खोलकर उसे भी उसमें रख दिया। इस घटना को माताजी उम्र भर जीवन-दर्शन या 'मोह‘ के रूप में याद करतीं, सब को बताती थीं वे इसे मनुष्‍य के 'हिर्स‘ की संज्ञा दिया करती थीं। हिर्स मतलब चीजों से मोह।

हुआ यह था कि पिताजी अपना ग्रामोफोन किसी को भी नहीं दिया करते थे; लेकिन सरदार सिंह उनका परम भक्‍त हर वक्‍त काम आने वाला सेवादार था। उसने जब ग्रामोफोन बजाने के लिए मांगा तो उसे वे इनकार नहीं कर सके। चंद रोज़ के लिए दे दिया। पिताजी तो मुल्‍तान चले गए थे किन्‍तु माताजी को वहम था कि ग्रामोफोन कहीं खराब न हो जाए। दे तकाजे पर तकाजा। बाद में माताजी यही बताती रहती ''सरदार सिंह तो बेचारा, हमारा ग्रामोफोन दे गया। लेकिन क्‍या हम उसे अपने साथ ला सके ?‘‘ ग्रामोफोन तो क्‍या कुछ भी तो साथ न ला सके। ''मरने पर हम क्‍या कुछ अपने साथ ले जा पाते हैं। यह आदमी की हिरस (हर्स = लोभ, हवस) है, जो जीवन भर उसका पीछा नहीं छोड़ती।‘‘ हमें इस तरह तैयारी करते देख अड़ोस पड़ोस के कई लोग हमारे पास आ गए। कहने लगे। क्‍यों जाते हो। हम सब भी तो बैठे हुए हैं। यहां कोई खतरा-वतरा नहीं है। हिन्‍दुओं की आबादी बहुत ज्‍यादा है।

माताजी ने उत्‍तर दिया-हम डर के मारे नहीं जा रहे। हम तो हर साल गर्मियों की छुटि्‌टयां बिताने अपने गांव जाते हैं।

इस बात में आधा सत्‍य था मगर, मगरमच्‍छ वाला सत्‍य पूरा सच निकला। जब कुछ दिनों बाद सूचना मिली थी कि जिस ट्रेन में बैठकर हम कि़ला शेखुपुरा से निकले थे, वहीं 'आखरी सेफ ट्रेन‘ बताई गई जो किला शेखुपुरा से आराम से बचकर निकली थी और उसने हमें सुरक्षित शोरकोट तक पहुंचाया था।

23 अगस्‍त 1947 के दिन सुबह सुबह भाई साहब आ पहुंचे थे। आते ही चेतावनी दे डाली ''जल्‍दी करो। एक घंटे बाद गाड़ी यहां से वापस चल पड़ेगी। मैं ज्‍यादा रूक नहीं सकता। ऐसे ही ड्‌यूटी एक्‍सचेंस करके आया हूं। जाते ही ड्‌यूटी पर बैठना पड़ेगा।‘‘ माताजी ने कहा इतनी जल्‍दी यह सब कैसे हाेगा ? अभी तो बहुत कुछ संभालना बाकी है। क्‍या क्‍या साथ रखना है। भाई साहब गुस्‍से से बोले ''तो बैठे रहो। मैं तो वापस चला जाऊंगा। हां पहले आपको मेरे पास शोरकोट दो दिन रूकना होगा। और मेरे सारे कपड़े मरम्‍मत करने होंगे। इस पर माताजी ने अपनी सिलाई मशीन साथ रख ली। वह मशीन भी हमारे गिने चुने थोड़े से असबाब के साथ हिन्‍दुस्‍तान पहुंच गई थी। इस प्रसंग का थोड़ा वर्गन भाई साहब के शब्‍दों में आगे भी किया है।

अहा मजा आ गया, शोरकोट पहुंच कर। भाई साहब सब के प्रिय बने हुए थे। फैमिली वालों के भी। उन्‍होंने शोर मचाया- देखो देखो मनोहर अपनी माताजी बहन भाइयों को ले आया है। एक के बाद दूसरे घर में खाने नाश्‍ते के न्‍योते। खूब मेहमान नवाजी हो रही थी। और शाम तो मेरे लिए बहुत सुहावनी साबित हुई, जब मैंने देखा, ग्राउंड में वालीबाल खेली जा रही है। मुझ बच्‍चे को भी उन नौकरी वालों ने टीम में शामिल कर लिया और प्रोत्‍साहित करते रहे।

मगर वही रात या उससे अगली रात स्‍याह मगरमच्‍छी रात बन गई। दूर से दमामों (नगाड़ों) की आवाजें आने लगीं। आग की लपटें दिखाई देती रहीं। स्‍टाफ के लोग लाठियां लेकर पहरा देते रहे। हम सबको तसल्‍लियां देते रहे। उनमें स्‍टाफ के मुसलमान भी थे ''कोई इधर को आकर तो देखे। मौत के घाट उतार देंगे।‘‘

जैसे तैसे रात गुजर गई। इसे भाई साहब के मुसलमान दोस्‍तों ने ''ख्‍ैरियत की रात‘‘ कहा था। बोले थे ''मनोहर कब से हमारी तथा तुम्‍हारी भरजाइयों की दिली ख्‍वाहिश थी कि तू अपनी माताजी भाइयों को यहां लाकर मिलवा। मगर खुदा को यह मंजूर नहीं था। अगली रातें कैसी कत्‍ल की रातें बन बन कर आएं। खैरियत इसी में है कि इन्‍हें कहीं और ले जाओ। यहां कुछ ऊंच नीच हो जाए तो हम किसी काे मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे। सुना है बलवाचियों का इरादा स्‍टेशन पर हमला बोलने का है।

भाई साहब ने पूरी स्‍थिति का जायजा लिया। माताजी से आकर बोले-जल्‍दी से तैयार होकर लाइलपुर चलो।‘‘

-हमें तो पहले बाउजी के पास मुल्‍तान छोड़ आओ। आगे हम खुद करोड़ अपने गांव चले जाएंगे।

-समझती क्‍यों नहीं भाभी। उधर की सारी गाडि़यों में खून-खराबा हो रहा है। हमारे लिए सारे रास्‍ते बंद हैं।

- तो ठीक है। हमें वापस शेखुपुरा छोड़ आओ।

- मुझे थोड़ी देर पहले शेखुपुरे का एक आदमी मिला है। उसने कहा ''बड़ी किस्‍मत वाले हो जो वक्‍त सिर शेखुपुरे से निकल आए। तुम लोगों के जाने के बाद वहां कत्‍लेआम हुआ। फ्‍लां फ्‍लां, फलां भी मारा गया। हमारे तमाम घरों को लूटकर जला दिया गया है। अब सिर्फ लाइलपुर ही सेफ शहर है।

- मैं तो धी दे घर (बेटी के घर) जाकर नहीं रहूंगी।

- तो ठीक है। तुम यहीं बैठी रहो। छोटे बहन भाई तो अपनी बड़ी बहन के घर रह सकते हैं ना। मैं अभी इन्‍हें लाइलपुर छोड़कर लौटती ट्रेन से वापस आता हूं। वहां का कलैक्‍टर भी मुसलमन है। पर निहायत दयानतदार है। दंगे नहीं होने देता। (सुनते थे लाहौर का कलैक्‍टर चीमा था वह दंगाइयों का साथ दे रहा था)

अंत में माताजी ने हथियार डाल दिए। हम सब स्‍टेशन जा पहुंचे। जगह जगह हरे कपड़े पहने रज़ाकार (स्‍वयं सेवक) यमदूतों की तरह घूम रहे थे, जैसे पूरी गाड़ी की तलाशी लेने का दायित्‍व उन पर आ गया था। वे कई नौजवानों को पकड़ पकड़ कर लैट्रिन में ले जा रहे थे। यह एक अत्‍यंत डरावना नज़ारा था। इसके बावजूद मैं अपनी बाल बुद्धि को याद करता हूं तो आज भी हैरत होती है। मेरा मन शोरकोट छोड़ने को नहीं कर रहा था। कारण मैं वहां शाम को होने वाली बालीबाल खेलना चाहता था।

लाइलपुर, शोरकोट के पास ही पड़ता है। वहां पर तांगे वाले से लाला तुलसीदास, सेवाराम हलवाई की दुकान पर छोड़ने को कहा। इतने बड़े शहर में यह दुकान बहुत बड़ी-मशहूर थी। सभी तांगे वाले भी इसे जानते थे।

चलिए पर थोड़ा लाइलपुर के बारे में ः (अब इसका नाम शायद फैसलाबाद डाल दिया गया है) ः-

यह शहर अंग्रेजों द्वारा बड़े सलीके से सुनियोजित ढंग से बसाया गया शहर है। बीच में घंटाघर है। वहां से बड़े बड़े दूरे तक आठ बाजार बनाए (काटे) गए हैं। उन आठ बाजारों को काटता हुआ विशालकाय गोल बाजार है। और इसी प्रकार बाजारों को कटती गोल गली है जो मील भी या आधा मील कवर करती है। आदमी जहां से गली या बाजार से चलेगा। चक्‍कर काटकर वहीं का वहीं आ पहुंचेगा।

लाला तुलसीदास और सेवाराम दोनों हमारे जीजाजी, जीवनलाल जी के बड़े भाई थे। लाला तुलसीदास की ही बेटी के साथ हमारे भाई साहब मनोहरलाल की छोटी आयु में कुड़माई (सगाई) कर दी गई थी। इसलिए तुलसीदास जी हमारे लिए आए दिन गरमगरम पूडि़यां मिठाइयां भिजवा देते। भाई साहब उसी वक्‍त माताजी को चेतावनी देते कि यह सब तुम अपने रिस्‍क पर खा रही हो। मैं यहां शादी नहीं करूंगा। इसका पूरा खुलासा आगे चलकर करूंगा।

दूसरी बात हमारे जीजा जी पहले बिड़ला कपड़े की मिल में काम किया करते थे। दोनों भाई उन्‍हें समझाते कि इस छोटी सी तन्‍ख्‍वाह से तुझे हासिल ही क्‍या होता है। छोड़ इस नौकरी को और हमारी तरह कोई दुकान खोलकर खूब कमा खा। अंत में जीजाजी ने भाइयों का प्रस्‍ताव मान लिया था। एक छोटी दुकाना लस्‍सी पकोड़ों मिठाई आदि की चलाने लगे। दुकान दिनोंदिन में खूब चल निकली थी। इस बात को ज्‍़यादा महीने नहीं गुजरे थे। कि पाकिस्‍तान का हउवा सिर पर मंडराने लगा था। किसी मुसलमान ने (शायद विस्‍थापित) ने जीजाजी से कहा दुकान मुझे 25 रूप्‍ए में बेच दो। जीजाजी ने कहा-क्‍यों मजाक करते हो। 25 रूपए में दुकान। वह हंसा था। नहीं तो बाद में हम इसे मुफ्‍त में ही ले लेंगे। सचमुच जीजाजी को उसका तर्क सही लगा था और 25 रूपए लेकर दुकान उसके हवाले कर दी थी।

हम बहुत आगे निकल आए। फिर जरा वापस लौटते हैं। नियति आदमी से क्‍या क्‍या नहीं कराती। माताजी ने हमारे साथ बेटी के घर में प्रवेश किया। यह एक दुमंजला मकान था। ऊपर की मंजिल पर जीजाजी और सेवाराम जी दोनों भाई साथ साथ रहते थे।

यह 25 अगस्‍त 1947 का िदन था जब हम सब लाइलपुर पहुंचे थे। हमें देखकर सब बहुत खुश हुए। बड़ी बहनजी सुमित्रा छोटी नई ब्‍याही बहन को कितनी देर तक गले लगाकर भावुक बनी रहीं।

आधा घंटा बैठने के बाद भाई साहब उठ खड़े हुए। गाड़ी शोरकोट जाने वाली है। ड्‌यूटी का टाइम हो जाएगा। वे रात भर के जागे, ऐसे ही साधारण कपड़ों के साथ हमें लाइलपुर छोड़ने आए थे कि 'अभी गया और अभी आया।‘

हम छत से उन्‍हें बहुत दूर तक जाते हुए देखते रहे। जाने से पहले जीजाजी ने उन्‍हें चेतावनी भरे लहजे में कहा था। -मनोहर अपना ध्‍यान रखना। कोई खतरा मोल न लेना। वापस चले आना। कितनी ही देर तक माताजी और बड़ी बहन जी उनका माथा चूमती रही थीं। उस वक्‍त भाई साहब की आयु मात्र 21 वर्ष थी। पर हम दोनों छोटे भाइयों की नजर में वे बहुत बड़े थे।

हम दोनों भाई खेलकूद में और बड़े लोग बातों में मशगूल हो गए।

कोई डेढ़ दो घंटों के बाद हम दोनों ने छत की म्‍यानी से ही झांकर कर देखा अैर शोर मचा दिया-भ्रा जी (भाई साहब) आ गए। भ्रा जी आ गए। (आज भी उन्‍हें भ्रा जी कहकर संबोधित करता हूं।

सब चौकन्‍ने हो गए। भाई साहब सीढि़यां चढ़ते हुए वापस कमरे में आ गए। बताया कि तार घर से मैंने (मोर्स सिस्‍टम से) दोस्‍तों को, शोरकोट बताया कि आ रहा हूं। आकर अपनी ड्‌यूटी संभाल लूंगा। निश्‍चिंत रहें।

मुसलमान दोस्‍तों ने जवाब दिया-अल्‍लाह का शुक्र समझो जो तुम सही सलामत यहां से चले गए। अब लौटकर कभी न आना। तुम्‍हारा सारा सामान हम संभाल कर रखे रहेंगे। अगर कभी हालात सुधरे तो तुम्‍हारे अमानत दे देंगे।

लाइलपुर में एक ईमानदार कलक्‍टर और हजारों की तादाद में दंगाई। शहर के चारों ओर छत से आए दिन आग के बड़े-बड़े शोले दिखते। गोलियां बम चलने की आवाजें आतीं। जहांजहां जिस मुहल्‍ले में हिन्‍दुओं की आबादी ज्‍यादा थी वहां वहां दूसरे महल्‍लों के हिन्‍दु अपना घर छोड़कर शरण लेकर रहने लगे।

भाई साहब सुबह सुबह घर से निकल जाते और हिन्‍दुस्‍तान जाने की संभावनाओं का पता लगाते। हवाई जहाज से, ट्रक से। ट्रेन तो कोई जाती नहीं थी। पूरी संचार व्‍यवस्‍था ठप पड़ी थी। डाकिए ने आना छोड़ दिया था। तार (टेलिग्राम) भी नहीं पहुंचते थे।

हमारा संपर्क पिताजी से एक दम टूट गया था।

जब तक भाई साहब घर वापस न आ जाते। हम सब का दम खुश्‍क रहता। कभी कभी लाला तुलसीदास जी की दुकान का टेलिफोन बजता। तो वे नौकरों को घर भगाते कि हो कि कह आओ मनोहर ठीक है। थोड़ी देर बाद घर पहुंच जाएगा। कहना न होगा कि लाला तुलसीदास भी भावी दामाद के लिए कम चिंतित नहीं दिखते थे। वे चाहते थे कि अभी से अपनी बिटिया को भाई साहब से मामूली सा जश्‍न रस्‍म मनाकर शादी कर दें ताकि उनके सिर से बेटी का बोझ हल्‍का हो। ऐसा, बहुत से नौजवान, बड़ा दिल लेकर, अपनी मंगेतरों से सात फेरे ले रहे थे। पर तुलसीदास जी को यह भी ठीक न लगता कि इस बेचारे पर पहले से ही अपनी एक जवान बहन का भार है। ऊपर से अपनी बेटी का बोझ उन मासूम कंधों पर डाल दें। भविष्‍य तो हर प्रकार से पूरी तरह अंधकारमय था ही।

अचानक कहीं से बम फटने का शोर सुनाई देता। कर्फयू लग जाता। हम बाल्‍कोनी से झांकते तो पुलिस वाले बेइज्‍जती भरे अल्‍फ़ाज़ इस्‍तेमाल करते। दीवारों पर डंडे बजाते। राइफ्‍लें दिखाते-चलो पीछे हटो। नहीं तो गोली मार दूंगा। कबूतरों की तरह फड़फड़ाते हुए नीचे आ गिरोगे।

भाई साहब हम सबको कमरों में ले जाते-इनका कोई भरोसा नहीं। सचमुच गोली चलाकर हलाल कर दें तो इन्‍हें कौन पूछने वाला है। भाई साहब, बहनजी की सलवारें वगैरह पहनकर गुजारा कर रहे थे।

इधर हम बच्‍चे जैसे मौके की तलाश में रहते। अक्‍सर देखते ही घर से भाग छूटते। हम बच्‍चों की जेबें पैसा दो पैसा आना चवन्‍नी अठन्‍नियों से भरी रहतीं। बड़े यह सिक्‍के हम पर लुटा रहे थे। इसलिए कि इनका इतना भारी भरकम बोझ हिन्‍दुस्‍तान तक कहां ढोते फिरेंगे। औरते अपनी सोने की चैनें वगैरह नाड़ों के साथ सलवारों पाजामों के नेफों में पिरोती नजर आती․․․․․।

बाद में एक किस्‍सा यह भी सुनने में आया था कि जब एक लौरी हिन्‍दुस्‍तान के लिए चली थी तो एक औरत ने अपने सब गहने रसदार सब्‍जी में डाल दिए। रास्‍ते में लूटपाट वालों ने आ घेरा। सब कांपने लगे। उन्‍होंने कहा मारेंगे नहीं। सब कीमती सामान हमें चुपचाप दे दो। एक की नजर टिफन बाक्‍स पर पड़ी। कहने लगा यह सब बाद में। मुझे तो बड़ी भूख लगी है। पहले खाना खाऊंगा। इस तरह उस बेचारी के बड़ी टैक्‍ट से छिपाकर, रखे गहने जाते रहे। ऐसी अजीबोगरीब घटनाओं से विभाजन का इतिहास भरा पड़ा है। इसलिए ऐसी बातों से बचने का भरसक प्रयास करूंगा ताकि वृतांतों से किताब बहुत भारी न हो जाए। पर हाय दिल में सदा के लिए बैठी कसक का क्‍या करूं। आज तक भी मुझे ऐसे ऐसे डरावने ख्‍वाब आते हैं कि कोई मेरे खिलौने छीन रहा है। मैं बेबस निरीह नजरों से उसे बस देखे जा रहा हूं। विभाजन पर मेरा बड़ा उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ तो है ही। ख्‍वाबों में आई ऐसी स्‍थितियों/घटनाओं पर सपनों दुःस्‍वपनों द्वारा आई कहानियों का मजमुअः बन सकता है। एक बार बीकानेर के आकाशवाणी के मुसलमान प्रड्‌यूसर मुझ पर नाराज हो उठे-आपकी सब कहानियों में पाकिस्‍तान के शहर बार बार क्‍यों आ जाते हैं। मैंने कहा-जनाब आपको क्‍या खतरा है। क्‍या आप मुझे मेरे बचपन के किला शेखुपुरा वाले दोस्‍त मंजूर से मिलवा सकते हैं ? कहानी इस बार 'जुदाई के नाम‘ थी।

लीजिए फिर बहुत आगे निकल आए। आइए जरा फिर से लाइलपुर लौट चलें। अभी हम लाइलपुर से निकले ही कहां हैं।

क्‍या बता रहा था ? हां जेबें सिक्‍कों से भरी रहती थीं। हम उस मुसलमान दुकानदार के पास भी जाते जिसने जीजाजी से 25 रूपए में दुकान खरीदी थी। वह शाम को बेसन के बड़े बड़े पकौड़े तल रहा होता। हम दो पैसे उसकी तरफ उछाल देते-पकौड़े देा। वह कागज पर रखकर कुछ पकौड़े डाल देता। हम कहते। बस इत्त्‍ाे से। इतने थोड़े पकौड़े। वह उससे चौगने पकौड़े दे देता। इस पर हम बच्‍चे खूब हंसते। हमारी मौज ही मौज थी। बेचारे को अभी दुकान चलानी आती नहीं थी।

अपने शहर, बहन जी का घर लाइलपुर कितना पराया पराया, कितना डरावना बन गया था कि जल्‍दी से जल्‍दी वहां से भाग निकलना चाहते थे। जैसे हम मगरमच्‍छ के जबड़ों में जकड़े हुए हों। सबसे ज्‍यादा चिंतित भाई साहब नजर आतें। न जाने दिन रात कहां कहां की खाक छानते रहते।

20 सितंबर के दिन बहुत सवेरे सवेरे भाई साहब घर से निकल गए थे। फिर दो एक घंटों के बाद लौटे। तेज़ी से बोले-जल्‍दी करो। रेल्‍वे स्‍पेशल ट्रेन रवाना होने वाली है। जो छोटा मोटा सामान पोटलियां थीं। संभालकर तैयारी करने लगे। माताजी ने बहन जी जीजाजी से बहुत कहा तुम भी तैयार हो लो। जीजाजी बोले यह ट्रेन तो रेलवे वालों के लिए है। माताजी ने उत्‍तर दिया मोए देखते हैं। या किसी के माथे पर लिखा है कि यह रेलवे वाला नहीं है। देखों दुनियां स्‍टेशन की तरफ भाग रही है। तब जीजाजी ने असलियत बयान की कि वे अपने भाइयों को छोड़कर नहीं जा सकते। वे किसी ट्रक का बंदोबस्‍त कर रहे हैं। बेशक रमेश सुदेश (उनके लड़कों) को ले जाएं। वे तो वैसे ही आपके पास रहते आए हैं। मदन (यानी मद्‌दी अभी गोदी का था­) को हमारे पास रहने दें। माता जी ने साफ इनकार कर दिया ''न बीबी ना‘‘ किसी का कुछ भरोसा नहीं। अगर कहीं हम मारे गए और तुम लोग सुरक्षित हिन्‍दुस्‍तान पहुंच गए तो तुम्‍हें उम्र भर का पछतावा बना रहेगा कि अपने दिल के टुकड़ों को माताजी के साथ क्‍यों भेज दिया था।

पता नहीं क्‍या कारण था कि गाड़ी प्‍लेटफार्म पर खड़ी न करके कहीं यार्ड में खड़ी की गई थी। भीड़ का समुद्र उमड़ा पड़ा था। गाड़ी रवाना होने से पहले ही लोग बाग आ पहुंचे थे और जैसे तैसे गाड़ी के किसी भी डिब्‍बे में धंस जाना चाहते थे। सब को अपनी अपनी पड़ी थी। वह नजारा मुझे आज तक भी नहीं भूलता। सबने अपने अच्‍छे अच्‍छे मित्रों को पहचानना बंद कर दिया था। कौन किसकी सहायता करे ? यह तो अपने अपने अस्‍तित्‍व को बचा लेने का संघर्ष था। सब कुली बन गए थे। भारी भरकम सामान अपने सिर कंधों पर लादे हुए थे। लेकिन जगह इंच भर नहीं दीखती थी। लोगों ने जैसे तैसे अपना सामान किसी भी डिब्‍बे में पहले पटकना शुरू कर दिया। सीटों के नीचे सीटों के ऊपर। ऊपरी बर्थो पर। अब खिड़कियों दरवाजों से किसी प्रकार रास्‍ता बनाते हुए स्‍वयं प्रवेश पाने की जिद्‌दोजहद में लगे थे। बहुत सारे पुलिस के सिपाही डंडे बरसाते हुए, भीड़ को नियंत्रित करने का नाटक रच रहे थे। किसी किसी के सामान तो किसी के कंधों जांघों पर डंडों का प्रहार भी कर रहे थे। ज़ाहिर है कि यदि केवल रेल कर्मचारी होते तो सबको आराम से बैठने बल्‍कि सोने तक की जगह मिल सकती थी। भाई साहब पुलिस वालों को अपना प्रमाण देने की खातिर उन्‍हें, अपना कार्ड रेलवे पास दिखा रहे थे। पुलिस वाले मुंह मोड़कर आगे बढ़ जाते और जनता को धमका रहे थे।

माताजी ने भाई साहब को समझाया। इन्‍हें पास दिखलाने से कुछ नहीं होगा। पांच रूपए दो। भाई साहब ने ऐसा ही किया। पुलिस मैन वफादार हो गया। वह खिड़कियों से डंडे के सहारे लोगों को हटा-हटा कर हम में से एक एक को अंदर धकेलने में मुस्‍तैद होने लगा।

यहां देखिए जीवन तो जीवन-लेकिन वस्‍तुओं का मोह भी मरते दम तक आदमी का पीछा नहीं छोड़ता। देखते क्‍या हैं लाला तुलसीदास अपने दो नौकरों के सिर पर अपने घर के दो छत वाले भारीभरकम पंखे पीपों में डाले आ पहुंचे। इन्‍हें रख लो बर्खुरदार। पहुंच गए तो पहुंच गए। नहीं पहुंचे तो कोई बात नहीं। मिले (वहां जाकर अगर मिलन हो गया) तो ले लेंगे। पहले से ही हमारे पास सिलाई मशीन थी। ये तो और भी भारी। एक नहीं दो दो। उन्‍होंने भी सिपाही को राजी कर पंखों को डिब्‍बों में धिकलवा दिया। सामने तो किसी ने कुछ नहीं कहा; लेकिन उनके जरा अलग होते ही माताजी कह उठीं-लो यह और बला। इतने पैसे वालें हैं। मगर लालच नहीं गया। हमारी हालत देखकर उन्‍हें, कुछ तो शर्म आनी चाहिए थी। मनोहर तूने साफ मना कर देना था। भाई साहब ने बड़े संतुलित स्‍वर में उत्‍तर दिया-भाभी और खाओ पूडि़यां हलवे, चांदी के वर्क वाली बरफियां। तुम्‍हारे खाए का कर्ज, वह तो उतारना ही होगा ना। शादी मुझे वहां करनी नहीं। उन्‍होंने रटा हुआ वाक्‍य दुहरा दिया।

सामान तो था। सामान ही सामान। हर तरह का लटरम शटरम सामान। उन्‍हीं से डिब्‍बे भर गए थे। आदमी औरतें, बच्‍चे भी थे। वे कहां बैठें। वे सामान असबाब के ऊपर सिर झुकाए बैठे थे। सिर गाड़ी की छत से टकरा रहे थे। हम पांच जनों के परिवार को अलग अलग डिब्‍बे में किसी तरीके से धकेला गया। माताजी बहन जी शायद साथ थीं बृज (छोटे भाई) का याद नहीं। मैं चिडि़या के नन्‍हें बच्‍चे का छोटा सा दिल लिये, किसी अनजान अंधेरी सुरंग में बैठा कांप रहा था। मेरा सिर भी छत से टकरा रहा था। भाई साहब न जाने कहां गायब हो गए थे।

मैं पेशाब लैट्रिन दबाए दम साधे हुए था। एक तो शौचघर जाने का कोई रास्‍ता न बचा था। दूसरा किसी साथ वाले मुसाफिर ने बताया। वे भी सामानों से भरे पड़े हैं। वहां बैठने खड़ा होने की कोई जगह नहीं बची है। 18 सितम्‍बर 1947 को गाड़ी ग्‍यारह बजे चली थी। लगता गाड़ी चल नहीं रही है; बल्‍कि रेंग रही है। वास्‍तव में मैं संभल संभल कर चलने से गाड़ी की रफ्‍तार बहुत धीमी थी। और गाड़ी जगह जगह जंगलों में भी रूक रूक जाती थी। गोकि ठीक रास्‍ता तलाश रही हो। हम सब अपने अपने भगवानों के नामों का जाप कर रहे थे। और दिली ख्‍वाहिश रखते थे कि यह गाड़ी हमें हवाई जहाज की तरह झपट्‌टे से सीमा पार (बेड़ा पार) करा दे।

भले ही प्रति क्षण शरीर खतरे की आशंका से कांपता रहा तो भी 'अंत भला तो सब भला‘ के अनुसार उसी दिन यानी 20 सितम्‍बर को ही रात 8 बजे गाड़ी ने हमें पाकिस्‍तान की सरहद को लांघ कर हिन्‍दुस्‍तान के अटारी स्‍टेशन पर ला खड़ा किया। कुल हुए 9 घंटे। असली कितने घंटों का रास्‍ता था, मुझे नहीं मालूम। पिताजी की तरह 8 घंटे का सफर 4 दिन में तो नहीं कटा था ना।

अटारी पहुंचते ही सबकी सांस में सांस आई। लोग गाड़ी से बाहर निकलकर खुली हवा में सांस ले रहे थे। मारे खुशी के नारे लगाने लगे। हिन्‍दुस्‍तान जिंदा बाद। पाकिस्‍तान मुर्दाबाद। भारत माता की जय। जवाहर लाल नेहरू, महात्‍मा गांधी की जय। मुझे याद है। उस धुंधलके में किसी लंबे आदमी की सफेद दाढ़ी झूम रही थी। वह कह रहा था। इन्‍हीें लोगों ने तो हमारा सत्‍यानाश किया है। किस बात की जय। मेरी समझ बस एक ही बात आ रही थी कि 'पाकिस्‍तान मुर्दाबाद‘ क्‍यों कह रहे हैं। वहीं के तो हम बाशिंदे हैं। वहीं जन्‍मे पले हैं। अपने मुल्‍क को गाली देना कोई अच्‍छी बात नहीं।

देखते क्‍या हैं उसी बड़े जोशोखरोश के साथ गांव के कई नौजवान, मर्द, औरते भी हाथों में पानी की बाल्‍टियां, थालियां पीपों में खाने-पीने का सामान भरे हमारी तरफ आ गए। बड़ी लगन से अपने अपने हिसाब से बच्‍चों बड़ों को रोटियां पूरियां, चने वगैरह बांटने लगे। ''जीते रहो बड़ी उम्र वाले हा ओ‘‘ बुजुर्ग शरणार्थी उन्‍हें असीसें दे रहे थे।

थोड़ा थोड़ा खाना खाने के बाद पेट तो भर गया, लेकिन एक अहम सवाल 'मगर‘ अपने जबड़े खोले खड़ा था। जाएं तो जाएं कहां ?

भटके हुए मुसाफिर मंजिल को ढूंढते हैं।

घर खो गया हमारा, मंजि़ल को ढूंढ़ते हैं।

जिनके कोई निकट के रिश्‍तेदार इस तरफ रहते थे वे तो वहां जाकर रह सकते थे। मगर ज्‍यादातर लोगों ने तो यह इलाका देखा तक न था। हमारे परिवार ने भी तो बतौर तीर्थ यात्री कभी कभार केवल हरद्वार ही देख रखा था।

उस अनिश्‍चितता के माहौल में शायद सवेरे तक हमने उसी खुले प्‍लेटफार्म पर रात काटी। पल पल अपने नगों (सामानों) को गिनते रहे।

हम किसी रिफ्‍़यूजी कैंप में शरण लेना चाहते थे। मगर कौन से ? कहां पर ?

सुबह सुबह कोई गाड़ी रवाना हो रही थी। कहां जाएगी। पता लगाया। पता चला। लुधियाना। वहां पर कहीं पर हमारा ऐसा कौन था जिसके पास, इस हालत में जाया जाए। चूंकि गाड़ी लुधियाना जा रही थीं; तो चलो लुधियाना ही चलते हैं। आगे की आगे देखी जाएगी।

लुधियाना आ गया। गाड़ी खत्‍म हो गइर्। हमने अपने अपने हिस्‍से का सामान घसीट घसीट कर डिब्‍बे से बाहर निकला। प्‍लेटफार्म पर खुलकर सांस ली। मगर हमारी सांसों में बदबू भर गई। चारों तरफ गंदगी फैली पड़ी थी। टट्‌टी पेशाब की भी दुर्गंध उठ रही थी। माताजी ने कहा-यहां कैसे बैठा जाएगा। आगे कोई ठीक जगह देखते हैं। कोई बैंच मिल जाए तो आराम से बैठ तो सकेंगे। सचमुच कुछ ही दूरी पर एक खाली बैंच दिखी। हम सबने अपनी अपनी सामर्थ्‍यानुसार सामान को अपने अपने सिर पर रखा और उधर को चल दिए। मगर देखते क्‍या हैं कि उस खुले प्‍लेटफार्म पर एक आदमी की लाश पड़ी थी। जिसे कउए चौंचे मार रहे थे। किसी कुत्त्‍ाे से भी बदतर किसी आदमी की लाश देखकर एक तरफ हमें उबकाई आ रही थी दूसरी ओर भय सा पैदा हो रहा था। माताजी के मुंह से आह निकली-हाए यह भी किसी मां का जाया होगा। अब समझ में आया कि इतनी खलकत के होते हुए यह बैंच खाली क्‍यों पड़ी थी। क्‍या पता यह लाश पाकिस्‍तान से आने वाली गाड़ी से आई थी। या इस बेचारे को यहां के लोगों ने मार कर सरेआम फेंक दिया था। -चलो आगे। मगर कहां आगे। माता जी ने कहा-मनोहर! एक बार तो हमें स्‍टेशन से बाहर ले जाकर कहीं बैठा दे। फिर आगे की सोचते हैं। बच्‍चे भूखे हैं। इन्‍हें भी खाने के लिए कहीं से कुछ ला दो। हम लोग स्‍टेशन से बाहर आकर एक पेड़ के नीचे चादर बिछाकर बैठ गए। ज़ोर ज़ोर हवा चल रही थी। चादर उड़ उड़ जाती थी। हमने चादर के चारों कोनों किनारों पर भारी भारी सामान रख दिया। माताजी और बहनजी ने कहा-यहां कुछ सांस तो मिली। अच्‍छी जगह है।

भाई साहब बोले-बस एक लाश और गंदगी देखकर घबरा गईं। देखना, आगे चलकर क्‍या कुछ देखने को मिलेगा।

माताजी ने लाश का फिर से जिक्र सुनकर, 'राम-राम‘ किया। साथ ही कानों में अंगुलियां डाल दीं।

भाई साहब सामने किसी हलवाई की दुकान से गरम गरम जलेबियां, समोसे, पकोडि़यां ले आए। हमारे पास कुछ बासी रोटियां थीं। उनसे नाश्‍ता किया। लेकिन यह खाना पीना अलग चीज़। असली पहलू, कहीं पनाह पाने की चिंता। सुना था अंबाला में रेल्‍वे कर्मचारियों के िलए कोई कैंप लगा हुआ है। भाई साहब अंबाला वाली गाड़ी का पता लगाने स्‍टेशन जा पहुंचे। आकर बोले-अंबाला की गाड़ी तो शायद रात को ही मिलेगी। हां फि़रोजपुर के लिए एक गाड़ी प्‍लेटफार्म नं․․․․ से जल्‍दी चलने वाली है।

माताजी के मन में एक विचार अचानक कौंध उठा-फि़रोजपुर। अरे फि़रोजपुर तो बेदी साहब लाहौर से ट्रांसफर होकर, विभाजन से पहले ही आ गए थे। भाई साहब बोले-हां हां, उनका पता मेरे पास है।

-तब ठीक है, माताजी बोलीं, ऐसा करते हैं, मनोहर पहले कृष्‍णा को इसकी ननद यशोधा के पास छोड़ आते हैं। यह बेचारी हमारे साथ जगह जगह के धक्‍के क्‍यों खाती फिरे।

बहनजी रोने लगी-मैं इस हालत में आप सबको अकेला छोड़कर कहीं आराम से नहीं रह सकती।

-अरे चल तो सही, भाई साहब ने चालाकी से काम लिया। मत रहना। मगर हम सब बेदी साहब यशोधा से इस बहाने मिल तो लेंगे। अब देरी मत करो। नहीं तो गाड़ी छूट जाएगी। हम सबने पूर्वाभ्‍यास के अनुसार अपना बांटा गया, सामान सिर पर उठाया। कुछ झोलों में भरे सामान को कंधों पर डाला और फुर्ती से स्‍टेशन की तरफ जैसे दौड़ लगाने लगे।

फिरोजपुर ः-

किसी प्रकार ढूंढते ढुंढ़ाते बेदी साहब के घर भारी भरकम सामान के साथ जा पहुंचे। भारी भरकम सामानों में तो दरअसल तीन नग (दो पंखे और सिलाई मशीन) ही थे। हमारे तीन तीन मकानों-करोड़ लालीसन, किला शेखुपुरा तथा शोरकोट का पूरा सामान पूरी तरह से लुट ही चुका था। भाई साहब भले ही अविवाहित थे, लेकिन ठाट-बाट के साथ रहते थे। अब पहनने तक को पूरे कपड़े भी न थे। जो कुछ भी अब था वह छोटी छोटी गठरियों, थैलों में था। कंगाली के उस आलम में भी माताजी खुश थीं। हे करतार तूने मेरे बच्‍चों को तो सही सलामत पहुंचा दिया। सामान तो फिर बनता रहेगा। बस इन बच्‍चों के बाउजी और कृष्‍णा के आदमी को भी हमारे पास पहुंचा दे। यह सब सिर्फ हमारे साथ तो नहीं हुआ। लाखों के साथ भी हुआ। उनको देखकर मन को तसल्‍ली मिलती है।

हमें उम्‍मीद नहीं थी। इस संकट की घड़ी में बेदी साहब और उनकी पत्‍नी-बहन जी की ननद ने जिस जोशों खरोश से हमारा स्‍वागत किया, वह देखते ही बनता था। यशोधा आयु में कृष्‍णा बहन जी से बहुत बड़ी थीं, फिर भी हमारी जरा सी बहन को गले लगा लगा कर भरजाई जी भरजाई जी, कर रही थीं। इस दृश्‍य को देखकर हम दोनों छोटे भाई उसे थोड़ी दूर से देखकर चिढ़ा रहे थे। वाह जरासी भरजाई। बहन जी की सास भी यहीं पर थीं। वे अपने बेटे आत्‍माराम जो हमारे जीजाजी से बड़े थे के इलाज की खातिर फिरोजपुर अपनी लड़की के पास रह रही थीं। आत्‍माराम जी को कोई असाध्‍य सा रोग (शायद पेट में पानी भर जाना) था। सास भी बहू को गले लगा लगाकर, उसे छोड़ने में नहीं आ रही थीं। आत्‍माराम जी ने चारपाई पर पड़े पड़े, अपने घर की नई नवेली दुल्‍हन को देखा तो उनकी आंखें बरबस बरस उठीं। वे कृष्‍णा कृष्‍णा कर उसे अपने पास बुलाकर उसका माथा चूम रहे थे। अपनी बीमारी के ही कारण वे शादी में न आ पाए थे। अब अपनी छोटी सी भरजाई को देख-देखकर भावुक हो रहे थे। हमारा सामान घर में रखा गया। यह भी दुमंजला मकान था। कमरों के साथ सटी बहुत लंबी लेकिन, सिर्फ डेढ़ दो फुट की बाल्‍कनी थी। बेदी साहब के तीन बच्‍चे, दो लड़कियां और एक लड़का; हमारे जितने ही थे। हम पांचों उस खतरनाक बाल्‍कनी में मस्‍ती में भरकर भाग दौड़ कर रहे थे। सभी बड़े हमें डांट रहे थे। उधर से हटो। बाहर गली में जा गिरोगे। कमरे में नहीं खेल सकते। आओ पहले नाश्‍ता कर लो।

बेदी साहब ने खूब सारी िमठाइयां वगैरह किसी हलाई की दुकान से झट से मंगवा ली थीं। माताजी ने फिर वही रटा रटाया परम्‍परागत तराना छेड़ दिया- मैं धी (बेटी) के घर का कैसे खा सकती हूं।

बहन जी की सास कह रही थीं-वक्‍त जो न कराए वही कम है। मेरी तरफ देखो। मैं भी तो दो महीनों से यहीं धी के घर पड़ी हूं। भूखी तो नहीं रहती।

बेदी साहब ने दफ्‍़तार से छुट्‌टी ले ली। नाश्‍ता फिर दोपहर के भोजन के बाद भाई साहब ने बेदी साहब से कहा-अब हमें इजाजत दीजिए। हम अपने ठौर ठिकाने को शाम तक निकल जावेंगे। बस आपकी अमानत (कृष्‍णा) को आपके पास पहुंचाने आए थे। हमारे साथ यह भी क्‍यों जगह जगह धक्‍के खाती फिरे।

बेदी साहब ने बुजुर्गाना स्‍वर में कहा-जाकर देख। तुम सब भी यहीं हमारे पास रहोगे। हां जिस दिन तुम्‍हार बाउजी आ जाएंगे, उस दिन मैं खुद तुम्‍हें कहूंगा-अब तुम जा सकते हो।

धन्‍य थे/हैं डॉ․ एम․एल․ (मनोहरलाल) बेदी।

उन खस्‍ता हालात में जहां हर खाने-पीने की चीज़ों की जबरदस्‍त तंगी थी (प्‍याज जैसी दो पैसे सेर वाली चीज छह आठ रूपए सेर मिलने लगे थे) बाकी की चीज़ों का अंदाज़ा, पढ़ने वाले खुद लगा सकते हैं) हां कुछ थोड़ा सा घटिया माल सस्‍ती राशन की दुकानों से कभी कभी मिल जाता था। भाई साहब ने भी रिफ्‍यूजी कार्ड बनवा लिया था। कुछ सामान उस पर, या वैसे, योगदान हेतु ले आया करते थे। पांच पांच जनों के परिवार; साथ में उनकी सास और मरीज साला। उस पर बेदी साहब के बड़े भाई भी आकर अक्‍सर यहीं खाना खा लेते थे। मुझे एक बात उनके भाई साहब की कभी नहीं भूलती। वे रोटी के साथ स्‍लाद की जगह मिर्ची खूब खाते थे। मिर्ची का अचार, हरी मिर्च, नहीं तो साबुत लाल मिर्च। अगर वह भी न हो तो पिसी हुई लाल मिर्च भी फांकते जाते। जिस पर इतनी मुलायम तबीयत, और हरदम हंसने वाले। मैं उनका ऐसा रूप देख देखकर चकित होता रहता। यह इसलिए कि शेखुपुरा में हमारी कोर्स की किताब में एक मजमून पढ़ाया जाता था। उसका शीर्षक था ''लाल मिर्च और मिर्ची लाल।‘‘ इसमें यह पढ़ाया सिखया जाता था कि मिर्च हमेशा कम खानी चाहिए। क्‍योंकि अधिक लाल मिर्च खाने से आदमी को गुस्‍सा बहुत आता है। होते होते उस आदमी का नाम ही 'मिर्चीलाल‘ पड़ जाता है। देखो, वह मिर्चीलाल आ रहा है। मगर उनको आज तक किसी ने गुस्‍सा होते नहीं देखा।

तब मैंने सोचा कि किताबों में लिखा, सब सच नहीं होता। ज्‍यों ज्‍यों बड़ा होता चला गया, देखता कि दुनियां तो अपवादों से भरी पड़ी है। बहुत बाद में जब मैंने 'तुर्गनेव‘ का उपन्‍यास 'पिता और पुत्र‘ पढ़ा तो उस कृति की बुनावट, पात्रों के क्रियाकलापों से बेहद प्रभावित हुआ। बावजूद इसके इस कृति या कहना चाहिए इसके दर्शन पक्ष से जरा भी सहमत न हो पाया। इसमें ध्‍वंसवाद Nihilism के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है। नायक दुनिया की किसी भी चीज़/सिद्धांत/निष्‍कर्ष, यहां तक कि विज्ञान की उत्‍तर, परवर्ती (Latest researches) अनुसंधानों पर रत्त्‍ाी भर भी विश्‍वास नहीं करता। बहुत सीमा तक 'यह सब न मानने‘ वाली थ्‍योरी (स्‍थापना) सही भी हो सकती है, या लगती है किन्‍तु मैं अपने तरीके से जब दुनियां/ब्रह्‌मांड को देखने समझने का प्रयास करता हूं तो बराकर यही यही सोचता-कहता हूं-कुछ भी एकदम अविश्‍वसनीय नहीं हो सकता। हम अपने तर्कों से अविश्‍वास इसलिए कर बैठते है क्‍योंकि वह सब हमारे अनुभव-क्षेत्र की परिधि में नहीं होता। संसार तो अजूबियों/विचित्रताओं से भरा पड़ा है। इसलिए मैं किसी चीज़/बात पर अविश्‍वास नहीं करता। पिताजी तो कहा करते थे कि मछली, सांप की इतनी अधिक जातियां प्रजातियां हैं कि इनके विषय यदि कोई अनोखी बात कहता है, तो मान लेनी चाहिए।

कहां से कहां पहुंच गए। हम तो बेदी साहब के दिलेराना मिज़ाज की बात कर रहे थे। वे अपने छोटे से ढाई तीन कमरे में चेहरे पर जरा सी शिकन लिये, इन कठिन परिस्‍थितियों में सबको संभाले हुए थे कि ऊपर से सतलुज नदी में बाढ़ आ गई थी। काेई कोई तो यहां तक कहता कि पाकिस्‍तान ने जानबूझ कर यह पानी छोड़ा है कि हमारे साथ और दुश्‍मनी निकाल सके। पता नहीं क्‍या सच था। मगर यह तो लगता ही है कि दोनों देशों के बीच अविश्‍वास के मगर तो पाकिस्‍तान के बनते ही बनने शुरू हो ही गए थे।

हां तो भयंकर बाढ़ से आस-पास के गांव उजड़ने लगे थे। फि़रोज़पुर में भी तमाम निचले इलाकों में पानी भर गया। जहां हम रह रहे थे वह इलाका कुछ ऊंचाई पर पड़ता था ः लेकिन बेदी साहब के भाई साहब के मकान में पानी बुरी तरह से भर गया था। वे अपने कीमती सामानों के बक्‍से ट्रंकों को ढो ढो कर सपरिवार यहीं चले आ रहे थे। मेरे भाई साहब भी इस खतरनाक पानी में, जहां जमीन नालियां गढ्‌ढे दिखलाई नहीं पड़ते थे, चक्‍कर पे चक्‍कर काटकर उनका सामान इस घर में ला रहे थे। माताजी को अपने लाल पर बहुत तरस आ रहा था। चुपके से उनके कान में कहतीं-तू इतना जोखिम न उठा। जवाब में भाई साहब कहते-भाभी (मां) और हमें नमक का कर्ज तो उतारना ही है। अब आगे की एक घटना पहले बताए देता हूं। बहुत बाद की बात है। भाई साहब दिल्‍ली कैंट पर सहायक स्‍टेशन मास्‍टर लगे हुए थे। उनके क्‍वार्टर में एक दो रेाज के लिए बेदी साहब आए थे। उनके वापस जाने के बाद, भाई साहब ने पाया कि उनका एक सौ रूपए का नोट गायब है। भाई साहब कहते मुझे यकीन है। मैंने मेज पर रखा था। बेदी साहब चुरा कर ले गए हैं। वे मन ही मन उन्‍हीं बेदी साहब से नफरत करने लगे थे जिन्‍होंने कभी विकट परिस्‍थितियों में हमें शरण दी थी।

मैं आज तक इस बात को लेकर सोचता हूं। यह सही है कि उस जमाने में तन्‍ख्‍वाहें ही सौ सवा सौ रूपए हुआ करती थीं। यह एक बहुत बड़ी रकम थी। भाई साहब ने उन्‍हें अपनी आंखों से तो नोट उठाते देखा नहीं था। चलो मान लो। बेदी साहब उठा ले गए थे तो इतने भले मानुस की कोई मजबूरी रही होगी। या मनुष्‍य प्रवृति में लालच का भाव एकाएक जागृत हो उठा हो। उन्‍हें मुआफ कर दिया जाना चाहिए था। पर यह भी बहुत बार देखा है कि मनुष्‍य-जीवन में संदर्भ निरन्‍तर बदलते रहते हैं।

चलिए पहले वाले संदभ्‍ाोर्ं पर वापस लौटते हैं। भाई साहब दिन भर न जाने कहां कहां भटकते रहते थे। रिफ्‌यूजी-कार्ड तो उन्‍होंने बनवा ही लिया था। इससे बेदी परिवार में राशन की किसी सीमा तक आपूर्ति हो जाती थी। उधर भाई साहब ने रेलवे कार्यालय में औरों की तरह अपना पाकिस्‍तान का सारा विवरण देकर, रिअपवाइंटमेंट (पुनर्नियुक्‍ति)के लिए आवेदन पत्र जमा करा दिया था। तीसरी तरफ बाढ़ग्रस्‍त रास्‍तों को लांघते हुए, बड़ी सरगर्मी से पिताजी बड़े जीजाजी छोटे जीजाजी के बारे में जिस तिस से पूछताछ करते रहते। सारे अजनबी। एक सी मार खाए हुए जगह जगह डोलते फिरते। कित्‍थों आए हो जी (कहां से आए हो) एक मुहावरा सा बन गया था। अच्‍छा वहां से ? तो फ्‍लाने फ्‍लानेको जानते होंगे। उसी मुहल्‍ले में तो रहता था/थी। बातचीत की दुम लंबी खिचती चली जाती। चिंता न करो जी रब्‍ब भली करेगा। अंतिम वाक्‍य कह कर आगे चल देते। िरफ्‍यूजी कैंपों में भी कोई भीड़ में चिल्‍लाकर पूछता-कोई भाई कोटअद्‌दू से। कोई भाई मिंटघुमरी से। कोई भाई अगर मुल्‍तानसे आया हो ? जवाब में कुछ लोग हाथ ऊंचा उठाकर लहराते-मैं जी। फिर संबंधित व्‍यक्‍ति से बात क्‍या, पूछताछ तफ्‍सील से शुरू हो जाती। अखबारां में अपने सकुशल पहुंचने और मिलने का स्‍थान, मुफ्‍त में छपता। इसी प्रकार रेडियो से भी ऐसा ही प्रोग्राम प्रसारित होता रहता। यह ढूंढ़ा-ढ़ांढ़ी का खेल महीनों महीनों चलता रहा था।

भाई साहब थके मांदे रहते। रात घर लौटते। मुंह लटका होता। माताजी प्‍यार से उनके सिर पर हाथ फेरतीं-कुछ पता चला ? -अभी नहीं ?

माताजी चिंतित भाव से कहतीं-मुझसे कुछ छिपाना नहीं। कुछ अनहोनी ऐसी वैसी बात है तो बता दे। दिल पर पत्‍थर रखकर सुन लूंगी।

भाई साहब उन्‍हें आश्‍वस्‍त करते-नहीं भाभी नहीं। सब लोग धीरे-धीरे हिन्‍दुस्‍तान पहुंच रहे हैं। किसी दिन वे सब भी आ ही जाएंगे। क्‍या पता, आ भी चुके हों। हमें भी किसी दिन अच्‍छी खबर मिल जाएगी।

मैं बड़े ध्‍यान से दोनों के संवाद सुनता। द्रवित होता। बाउजी की याद में दो चार आंसू छलक आते। पर छटपटा कर रह जाता।

आज सोचता हूं। बालक की कहीं पेश नहीं जाती। मगर बालमन ओह बालमन तो हमेशा जरा सा भी अवसर मिलते ही छलांगे लगाने को लालायित रहता है। मौका मिलते ही मैं लीडर की तरह छोटे भाई बृज तथा बेदी साहब की हम उम्र की लड़कियों से कहता-चलों धूम फिर आते हैं। उनको और क्‍या चाहिए होता था। हम चारों मटर-गश्‍ती करते गलियों बाजारों में निकल जाते। मेरे और बृज के जेब, खूब सारे सिक्‍कों से भरे हुए होते, जो हम पाकिस्‍तान से बचा कर लाए थे। चाट पकौड़ी खाते। गोलगप्‍पे खातेया जलेबियां खाने लगते। इन में खूब रस आता। लेकिन मेरे रस का दायरा ज़रा बड़ा था। मेरा झुकाव किताबों की दुकानों की तरफ होता। बच्‍चों की उर्दू की कहानियों, निबंधों की किताबें खरीदता रहता। इसके लिए माताजी से या भाई साहबसे स्‍पेशल बजट हासिल कर लेता। वे बच्‍चों की खूबसूरत किताबें आज भी मेरे पास हैं। कीमते देख-देखकर अंचभित होता रहता हूं। एक पर लिखा है। पांच आने। एक पर लिखा। सवा पांच आने। दूसरी पर लिखा है। साढ़े पांच आने। एक पर लिखा है। सवा पांच आने। कुछ पर छह आने। यानी आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उस जमाने में एक एक पैसे की कितनी वैल्‍यू (महत्‍व) था। सभी का रेट पांच आने या छह आने क्‍यों नहीं था ?

मेरे बाल-मन की बात थोड़ी और सुन लें। छोटा बच्‍चा एक पल रोता है, दूसरे पल हंसता है। फिर उदास हो जाता है। मेरा बालमन आज तक मेरे साथ है। मैं बड़ों की बनिस्‍बत बच्‍चों से बात करना ज्‍़यादा पसंद करता हूं। मेरे चारों ओर महल्‍ले भर के बच्‍चे होते हैं। कभी आकर टाफियां लेते हैं। कहानियां सुनते हैं (इसी प्रकार पार्क में जा कर अनजान बच्‍चों से बतियाता हूं। कहानियां सुनने को वे मेरा इंतजार कर रहे होते हैं) स्‍कूल जाते बच्‍चों के साथ साथ चलना शुरू कर देता हूं; गोिक मैं भी स्‍कूल जा रहा हूं। उनके साथ चिड़ी छक्‍का बैडमिंटन, कंचे खेलने लगता हूं। अपने घर काम करने वाली लड़की सरोज के साथ दौड़ लगाने लगता हूं। डायरी में लिख रखा है कि अंजान बच्‍चों के साथ होली खेलकर आया।

महल्‍ले के बच्‍चों से ड्रामे खिलवाता हूं। उन्‍हें पार्टियां देता हूं। उनसे कविताएं गाने चुटकुलें सुनता हूं। सारे बच्‍चे मेरा जन्‍म दिन मानते हैं उनमें मेरे घर वालों के सिवा कोई बड़ा सदस्‍य नहीं होता। एक बच्‍चे गुंजन ने ही मुझसे कहानी सुनते सुनते, अपने घर की तरफ दौड़ लगा दी थी फिर अपनी किताब लेकर लौटा कि देखों यह तो हमें पढ़ाई जाती है। एनसीआरटी वालों ने बिना मेरी जानकारी के 'भालू ने खेली फुटबाल‘ कोर्स में शामिल कर रखी थी․․․․․․․।

अब तो खैर चेहरे पर कुछ अजीब अजीब से बरैकिट्‌स से बनने लगे हैं लेकिन, बावजूद जिंदगी के इतने उतार चढ़ाव, सर्विस शादी होने के बाद भी नहीं लगता कि मैं इतना बड़ा हो गया हूं। मैं अक्‍सर बैठा अपनी बहुओं को घूरता रहता हूं। हें, यह मेरी बहुएं हैं। ओए दर्शी तू इतना बड़ा हो गया। यह चौंकने का खेल भी मुझ अज़हद लुत्‍फ देता है। जब सर्विस में था तो फर्स्‍ट क्‍लास मैं अपने कैबिन में नीली चौखानी मुलायम कमीज पहने अपने बच्‍चों के साथ ताश खेल रहा था। टीटीई आया। मिसेज ने पास दिखलाया तो नाम पढ़कर पूछंने लगा सहगल साहब कहां हैं ? यानी वह मुझे भी बच्‍चा ही समझ रहा था कि इनके पापा कहीं गाड़ी से बाहर हैं।

साहित्‍यिक क्षेत्र में हमेशा से सबको, अपने से बड़ा समझता आया था। वे भी मुझे छोटा ही मानते थे। मेरे सिर पर हाथ फेरते थे। साहित्‍यिक गोष्‍ठियोें में पीछे कहीं दुबका बैठा रहता था। हस्‍तक्षेप करने को तो मन बहुत करता किंतु हिम्‍मत न पड़ती कि इतने विद्वानों के बीच मेरी क्‍या औकात। आज सबके जन्‍मदिन सन परिचय कोष में पढ़ता हूं तो उन ज्‍यादातरों को अपनी उम्र के आस-पास ही पाता हूं। वे सब और आज के युवा सभी भाषण देने, संचालन करने में बहुत पटु हैं।

फिर बहुत आगे बीकानेर तक बढ़ आया। अभी फि़रोजपुर का फलसफा खत्‍म कहा हुआ। भाई साहब आकर पाकिस्‍तान के किसी शहर के लोगों के कत्‍लेआम का दारूण दास्‍तान सुनकर आते तो वह भी बताते। इधर जो कुछ मुसलमानों पर बीत रही है। वह भी सुन आते। एक बात सुनकर तो मैं दहल गया। रात भर सो न सका। बुरे बुरे ख्‍वाब आते रहे। भाई साहब ने बताया था कि यहां के दंगाई, जेल जा जाकर वहां से पता लगा आते हैं किन किन मुसलमानों की सजा की मयाद पूरी हो चुकी है। जिनकी मयाद पूरी हो चुकी होती वे जेल अधीक्षक से फरियाद करते कि उन्‍हें छोड़ा न जाए। पर उन्‍हें नकारात्‍मक जवाब मिलता-हम कानून के मुताबिक तुम्‍हें एक रोज भी ज्‍यादा नहीं रख सकते।

परिणाम वही होता कि जेल से छूटते ही दंगाई उन्‍हें आ घेरते और मार डालते।

मैं सोचता यहां के मुसलमानों ने तो हमें नहीं मारा था। हम पाकिस्‍तान वाले मुसलमानों का बदला इन निर्दोषों से क्‍यों लेते हैं ?

आज तक समझ नहीं पाया। किस दिल के लोग इस भगवान की दुनियां में बसते हैं जो बात की बात पर किसी का सिर कलम कर डालते हैं। कही बात कि ऐसे संसार में मेरा जन्‍म क्‍यों हुआ ? दुनियां की बातें दुनियां वाले समझें। मेरी समझ में आज तक कुछ नहीं आता।

एक बार घूमते घूमते चलते चलते हम बच्‍चे कहां से कहां जा पहुंचे। रास्‍ता भूल गए। यह रोचक प्रसंग भी सुन लीजिए। बेदी साहब की बेटी रोने लगी। हम घर कैसे जाएंगे। किसी को अपने महल्‍ले का नाम तक पता नहीं था। किसी से पूछेें तो क्‍या पूछें। कहां जाना है। अचानक छोटी लड़की चहक उठी। मैं बताती हूं। वह तुतला कर बोलती थी। एक बार मेरी मां को कोई औरत बता रही थी कि यहां इस मुहल्‍ले में पहले कंजर रहते थे।

फिर क्‍या था। हम सब में जोश भर आया। हम आते जाते लोगों से पूछते-कंजरेां का मुहल्‍ला किधर है। लोग हंसते हैरान होते। कोई कोई मजाक में कहता-तुम वहां जाकर क्‍या कराेंगे ? बताओ तो - कुछ बता न पाते। आखिर किसी ने पूछा तुम्‍हारे बाउजी का क्‍या नाम है। बताने पर उसे कहा-अरे बेदी साहब। उन्‍हें कौन नहीं जानता। वे होम्‍योपैथी से लोगों का इलाज भी करते हैं। तब वह भला आदमी हमें घर तक छोड़ गया।

घर आने पर मैंने शेखी मारी कि मैंने हिम्‍मत नहीं हारी थी। बाकी के ज़रा से बच्‍चे घबरा गए थे। तोषी छोटी वाली तो रोने भी लगी थी।

बेदी साहब की एक बात हमें जरूर अखरती थी। वे बार बार एक बात दुहराया करते थे मेरी हलाल की कमाई थी सो बचा लाया था। हम सोचते कि ये बेदी साहब हमारी कमाई को अप्रत्‍यक्ष रूप से हराम की कमाई बता रहे हैं जो पाकिस्‍तान में लुट गई। दरअसल बेदी साहब, शांत समय में अपने साजोसामान के साथ विभाजन से पूर्व लाहौर से ट्रांसफर होकर ले लाए थे। इसमें क्‍या, अचंभा।

थोड़ा सा आगेः- बाद में बरेली आकर एक बार हमें खबर मिली कि बेदी साहब की चोरी हो गई है। और चोरों ने पूरा घर खाली कर दिया है। सच हम बच्‍चे खुशी से तालियां बजाने लगे। कौनसी हलाल की कमाई ? कहां गई हलाल की कमाई। चोर भाइयों, तुम्‍हें तसलीम। हमारी सोचें और दर्शन सब धरे रह जाते हैं। मेरी ही दो लघु कथाएं हैं। पहली 'पापिन और भक्‍तिन‘ पापिन दूध बेचने वाली है। दूध में हमेशा पानी मिलाती है। भक्‍तिन फिर भी उसी से दूध लेती रहती है कि इसके धंधे को क्षति न पहुंचे। पुलिस का छापा पड़ता है। दूधिए विरोध करते हैं। दोनेां तरफ से गालाबारी होती जिसमें पापिन और भक्‍तिन दोनों ही मारी जाती हैं। 'गैर जानिबदार‘ भी ऐसी ही लघुकथा है। भूकंप आता है तो उसमें, भ्रष्‍टाचारी, अमीर और ईमानदार गरीब सभी मलबे के नीचे दबकर मर जाते हैं।

कर भला सो हो भला, अब यह पुरानी बात है।

कर भला, होता नहीं, करके भलाई देख ली।

तो क्‍या हम मनुष्‍य धर्म का पालन न करें ? पुण्‍य इसलिए करें कि हमें इसका फल मिलेगा ? नहीं हम मनुष्‍य हैं। मनुष्‍य होने के कारण हमें सिर्फ मनुष्‍य-धर्म का पालन करना है। सरदार भगत सिंह की तरह, नास्‍तिक होते हुए भी राष्‍ट्र देशवासियों की भलाई करनी है। किसने देखा है। अगला जन्‍म। पिछला जन्‍म। जो मौजूदा दौर में अन्‍याय बेईमानी छायी हुई है, यदि आपके लिए संभव है। आपमें जज्‍बा है तो डट कर उसका विरोध/मुकाबला करना है। यही हमारा धर्म है। मंदिर मसजिदें गिरजेघर गुरूद्वारे बनाकर उन में मथा टेक कर, हम कौनसे धर्म का पालन कर रहे होते हैं। यही सब मेरी बचपन से लेकर आज तक की सोचें हैं। यही सोचें ही मेरी जिंदगी है। मेरी जीवन-गाथा।

हमेशा की तरह एक दिन शाम को थके मांदे, भाई साहब घर आए तो बहुत प्रसन्‍न थे। आते ही पहले माताजी के पास पहुंचे। हम सब भी इकट्‌ठे हो गए। भाई साहब बता रहे थे कि आज एक आदमी मिला था। बता रहा था कि उसने कुछ रोज पहले हमरे बाउजी को चलती गाड़ी में देखा था। गाड़ी अमृतसर जा रही थी।

-चलती गाड़ी में से उसने देखा; तो हो सकता है कि मिलती-जुलती शक्‍ल का कोई और व्‍यक्‍ति भी तो हो सकता है। माताजी ने शंका व्‍यक्‍त की।

भाई साहब ने उत्‍तर दिया-यही शंका मैंने उस व्‍यक्‍ति से प्रकट की थी तो बोला-वह मेरा पक्‍का दोस्‍त है। कोई आदमी अपने पक्‍के दोस्‍त को पहचानने में भी भूल कर सकता है भला। बेशक मुझसे लिखवा लो, वह जेसूलाल ही था।

भाई साहब का विश्‍वास जम गया। हो न हो बाउजी ज़रूर अमृतसर अपने भतीजों के पास ही होंगे। मैं अमृतसर जाऊंगा और किसी तरह बाउजी का पता लगाउंगा। लेकिन कैसे ? बाढ़ के कारण लाइने टूटी पड़ी थीं। गाडि़यों का आना-जाना अवरूद्ध था। न बसें न रेलगाडि़यां। सड़के ंलाईने सब, बाढ़, निगल गई थी। फिर भी इंसान जिंदा रहने के लिए तथा कुछ महत्‍वपूर्ण कार्य करने के लिए कोई न कोई रास्‍ता निकाल ही लेता है। ऐसे में परिस्‍थितियां भी उसके हक में समय के साथ, काम करने लगती हैं। बस थोड़े ही दिनों में भाई साहब ने कुछ मीलों का रास्‍ता पैदल तय किया। कुछ का बस से। कुछ का कैसे ?

बाकी का विवरण पिताजी वाली डायरी वाले पृष्‍ठों में से मैंने दे ही रखा है।

सचमुच पिताजी अमृतसर ही थे। पिताजी मिल गए, जहान मिल गया। फिर उसी प्रकार से वापसी का रास्‍ता तय करते हुए, भाई साहब पिताजी को लेकर 16 अक्‍टूबर 1947 को फिरोजपुर वापस आ गए। माता ने कहा-मेरे पुत्त्‍ार ने दूसरा किला फतेह कर लिया। भाईसाहब थोड़े अकड़ कर थोड़े मजाक के स्‍वर में बोलते-तू कहती थी ना मैंने तुम लोगों को जन्‍म दिया है। मैं कहता हूं पाकिस्‍तान की जलती आग में से निकालकर, मैंने तुम्‍हें जन्‍म दिया है।

माताजी की ममता जाग उठती-इसमें क्‍या शक है। हाए मेरे कोमल से छोटे से बेटे के कंधों पर कितना भारी बोझ आ गिरा है। हम बच्‍चे बाउजी को वापस पाकर फूले नहीं समा रहे थे। उधम चौकड़ी मचा रहे थे। देख तो कृष्‍णा, बाउजी आ गए। बाउजी आ गए। इस पर बेदी साहब हमें बनावटी डांट पिला रहे थे- अरे शैतानों पहले भी सौ बार तुम दोनों भाइयों को समझा चुका हूं कि बड़ों को नाम से नहीं पुकारते। हमेशा बहनजी कहते हैं।

हम अपनी रौ में वैसे ही जवाब देते-काहे की बड़ी, जरा सी ही तो है। शादी हो जाने से कोई क्‍या बड़ा हो जाता है ? लेकिन यशोधा, बहनजी की ननद, जो आयु में उनसे बहुत बड़ी थीं, बहनजी को भरजाई जी भरजाई जी, कहती न थकतीं। इस पर कृष्‍णा बहन जी थोड़ा थोड़ा शरमाती रहतीं।

मैंने देखा हम लोगों से कुछ अलहदा, पिताजी माताजी को लिये, अपना सारा हाल बता रहे थे। अपने भतीजों के कत्‍ल हो जाने पर आंसू बहा रहे थे। माताजी भी आंसू बहा रही थीं। दंगाइयों को बददुआएं दे रही थीं। मैं सुन रहा था। पिताजी रो रोकर कह रहे थे - अब आंसु बहाना बंद कर। मैं पहले ही बहुत रो लिया हूं। हमारा रोश्‍ान सही सलामत पहुंच जाए। ईश्‍वर से बस यही प्रार्थना कर। सुमित्रा बड़ी बहन अपने परिवार के साथ उन्‍हें अचानक ही अमृतसर में मिल चुकी थी। वे ट्रक द्वारा अपने पति तथा जेठों के साथ काफी सारा 'काफीसारा‘ सामान कहना शायद गलत होगा। क्‍योंकि उसमें तीनों परिवार वालों के सामान के साथ वे सभी बहुत से सदस्‍य भी बैठे थे।

एक बात और याद आ गई जिसे याद करके मेरा मन आज भी द्रवित होता रहता है। होता यह था कि जो लोग ट्रक से जा रहे होते, दूसरी फैमिली (परिवार) उनसे कहती कि आप लोग अगर हिन्‍दुस्‍तान सुरक्षित पहुंच जाएं तो, इसी ट्रक ड्राइवर के हाथ अपने सकुशल पहुंच जाने का रूक्‍का (पत्र) भेज देना। फिर हम भी इसी ड्राइवर के ट्रक में आ जाएंगे। ऐसा हुआ भी। ड्राइवरों ने वहां से पाकिस्‍तान से निकलने वाले इच्‍छुकों को उनको सुरक्षित पहुंचने का रूक्‍का दिखाया। वे भी बेधड़क हो उसी ड्राइवर के साथ हिन्‍दुस्‍तान आने की यात्रा कर करते। मगर रास्‍ते में मारे जाते।

बाद में ऐसी अनेक मार्मिक हृदय विदारक घटनाएं/स्‍थितियां मेरे लेखन में आपसे आप आ शामिल होतीं। कि आदमी-जीव पर पूरा विश्‍वास कैसे किया जा सकता है। क्‍या पता ड्राइवर दंगाइयों के साथ मिल जाता हों। अपना कमीशन खाता हो। या वह बेचारा, भी बेबस हो जाता हो। यकीनन कुछ कहा नहीं जा सकता। बहन जी सामान लेकर सुरक्षित आ चुकी थी। और सभी अगले पड़ाव के लिए सोच रहे थे। असली मंजिल या कहना चाहिए मकसद, तो पेट भरने के लिए, बच्‍चों को पढ़ाने और फिर से आशियनां बसाना था। यह सब पुनः नौकरी प्राप्‍त करने या धंधा हासिल करने से ही हासिल हो सकता है।

सूचना मिली थी कि यह नौकरी अंबाला में रेलवे एम्‍पलाई कैंप में अपना नाम रजिस्‍टर करवा के मिल सकती थी। भाई साहब बोले - ठीक है आप सब जाओ। मेरा नाम तो फिरोजपुर में, नौकरी पाने के लिए लिखा पड़ा है। माताजी हमारी अनपढ़ होते हुए भी प्रखर बुद्धिवाली दूरदर्शी महिला थीं। वे बोलीं- क्‍या यहां के कार्यालय वाले तुम्‍हें ढूंढते फिरेंगे कि मनोहर का नाम पुकारने पर भी क्‍यों हाजिर नहीं हो रहा। या उन्‍होंने जासूस छोड़ रखे हैं कि किस किसने कितनी जगह, कहां कहां, अपना रजिस्‍ट्रेशन करवा रख ह। चलो यहां से हमारे साथ। बार्डर एरिया होने पर पाकिस्‍तान हमेशा यहां आगे भी उधम मचाए रखेगा।

फिरोजपुर से बिदाई ः-

बात पते की थी। सो 19 अक्‍टूबर 1947 को बेदी साहब उनके परिवार वालों का सौ सौ धन्‍यवाद कहकर, हमने अपना असबाब बांधकर एक छकड़े पर लाद दिया। कृष्‍णा बहनजी की सास तो उसे छोड़ने में नहीं आ रही थी। आत्‍माराम जी, उसके रोगी जेठ, उसके सिर पर बार बार हाथ फेर फेर कर आंसु बहाए जा रहे थे।

आखिर छकड़े वाले ने अपना छकड़ा बड़ी मुस्‍तैदी से खींचना शुरू कर दिया। हम छकड़े के आगे पीछे दाएं बाएं जल्‍दी जल्‍दी कदम बढ़ा रहे थे। रास्‍ते बयाबान, उजाड़, ऊबड़ खाबड़। कहीं कहीं खाइयां जिनमे ंकितने ट्रंक, बक्‍से कीमती सामान जानवरों और आदमियों की भी लाशें यूं ही पड़ी थीं। बाढ़ के कारण फिरोजपुर स्‍टेशन से गाड़ी नहीं चलती थीं। बहुत आगे जाकर, जहां कुछ ऊंचाई थी, उस जंगल के इलाके में ही गाड़ी आकर रूक जाती थी। जिसे उतरना हो, उतर लें। जिसे चढ़ना हो चढ़ ले।

गाड़े वाले के पैसे अदा करके हम सब उस गाड़ी में जा बैठे। गाड़ी बड़ी धीमी धीमी चाल से संभल संभल कर ऊबड़-खाबड़ रास्‍तों से घिसट रही थी। लाइनें अभी क्षतिगस्‍त थीं। मुझे ठीक से याद नहीं कि हम सीधे, या और गाडि़यां बदलते हुए, अंबाला कैंट रेलवे कैंप में 20 अक्‍तूबर 1947 की शाम जा पहुंचे। कैंप क्‍या था, हजारों टैंटों का जंगल था। चारों दिशाओं को अंधेरा घेरने लगा था। सब टैंट वालों ने लालटेनें या मोमबत्त्‍ाियां जलानी शुरू कर दी थीं।

हमें जो टैंट अलॉट हुआ, वह बुरी तरह से सीलन से तरबतर था। पिताजी ने टार्च निकाल कर देखा। दीमक, या दीमक जैसे कई कीड़े मकोड़े रेंग रहे थे। पिताजी भाई साहब को लेकर कैंप इंचार्ज के पास चले गए। अपनी समस्‍या बताई ऐसी कच्‍ची सीलन भरी जमीन पर हम कैसे रह पाएंगे। ऊपर से मैं दमे का मरीज़ हूं।

सब कुछ सुनने के बाद वह कैंप अधिकारी उखड़ गया। बोला-रहना हो तो रहो, नहीं तो अपने लिए कोई महल ढूंढ लो। हमारे पास तो बस यही है।

तो इस प्रकार से वहां हमारा स्‍वागत हुआ-जैसा सुना है सजायाफ्‍ता मुजरिम के साथ जेल वाले पेश आते हैं। अपना सा मुंह लेकर वे लौट पड़े। संकट का दौर अभी खत्‍म नहीं हुआ। वह भी यहां किसी तरह कट ही जाएगा।

पड़ोसी टैंट की औरत ने माताजी को समझाया-इन लोगों से उलझना ठीक नहीं। लगभग सभी टैंटों की एक सी हालत है। सारी रात झाड़़ू, पुराने कपड़ों से जमीन झाड़ते साफ करते रहते हैं। थोड़ी सी दूरी पर उधर दो तीन दुकाने हैं। वहां से झाड़़ू मोमबत्त्‍ाी ढिबरी (लालटेन) मिल जाएगी। बच्‍चों को भेजकर मंगवा लो।

मुझे और बृज को जैसे मजा आ गया। ''हम जाएंगे और कुछ लाना हो तो वह भी बता दो।‘‘

- कहीं रास्‍ता न भटक जाओ। सारे टैंट एक जैसे ही तो हैं। वापस कैसे अपना टैंट ढूंढोंगे।

फिक्र ही न करो भाभी। हम ढूंढ लेंगे। हमें बस पैसे दे दो। भाई साहब ने भी हमारा समर्थन किया-जाने दो भाभी। इन्‍हें होशियार बनने दो।․․․․․․․।

पैसे लेकर हम दोनों भाई पूरे जोश में आ गए। कूदते फांदते रास्‍तों को गौर से देखते दुकान पर जा पहुंचे। झाड़ू ढिबरी लेने से पहले, हमने खट्‌टी मीठी गालियां खाई। आम पापड़ी ली। खेलने काे गेंद कंचे खरीदे।

सामान खरीद कर अपने को शाबाशी देते, सिर-बेसिर के गाने गुनगुनाते, हम अपने टैंट वापस आ पहुंचे। और बड़ी शान से माताजी से बोले-यह लो। अगर और कुछ लाना हो तो और पैसे दो। अहा क्‍या बढि़या दुकान है। वहां सब कुछ मिलता है। कृष्‍णा तुझे कुछ मंगाना हो तो बोल।

कृष्‍णा बहन जी बोली नहीं। बस झाड़ू थाम कर जमीन को बुहारने लगी। साफ हुई जगह पर हम लकड़ी की भंभीरी चलाने लगे।

किसी ने कहा जल्‍दी करो रोटियां सब्‍जी बंट रही हैं। टैंट अलॉट करते समय, अधिकारी/क्‍लर्क ने हम से पूछ कर बड़ों छोटाें की संख्‍या दर्ज कर एक राशन कार्ड जारी कर दिया था। उसे लेकर साथ में थाली कटोरियां जो कुछ भी हमारे पास था, वितरण-केन्‍द्र पर जा पहुंचे। वहां बड़े बड़े तंदूर, चूहले थे। चारों तरफ का लकडि़यों का धुओं, उठ रहा था। बहुत लंबी लाइनें, राशन लेने वालों की लगी हुई थीं। सबको उतावली थीं। एक दो वर्दीधारी आदमी, लाइन को कंट्रोल कर रहे थे। नंबर सिर आओ। सब को मिलेगा। कोई खाली नहीं जाएगा।

मुझे हरद्वार की भिखारियों की याद आने लगी थी, जब हम उन्‍हें लाइन में बिठा, या खड़ा करके खैरात खाना वगैरह वगैरह बांटते थे।

फिर वहां हमारे दिन ऐसे ही गुजरने लगे। दोपहर शाम/रात को खाने का घंटा बजता। भट्‌टी की तरफ जैसे अव्‍वल आने की दौड़ शुरू हो जाती। कई शरणार्थी (बाद में पुरूषार्थी) घंटा बजने का इंतजार नहीं करते वे पहले से ही, पहल कर दिखाने को वहां मौजूद रहते। एक तरह से सब निठल्‍लेपन का बनवास ही तो भोग रहे थे। इस बनवास की कोई समय सीमा तय नहीं थी।

सब के नाम रजिस्‍ट्रों में चढ़े हुए थे। उनमें पाकिस्‍तान वाले डैजिगनेशन-ग्रेडों (पदनाम वेतनमान) के साथ अंकित थे। इन्‍हें यहां के अधिकारी पूरे भारत के डिवीजन्‍ज को भेजते रहते थे कि वे और कितने कर्मचारी लेना चाहेंगे।

शायद शाम चार या पांच बजे या सवेर ग्‍यारह बजे भी, एक अधिकारी अपने सहायकों के साथ घोषणा कर रहा होता कि फ्‍लाना आदमी मौजूद है ? संबंधित व्‍यक्‍ति बड़े जोश से ''हां जी मैं‘‘ कहकर मेज़ के पास पहुंच जाता। उसे अधिकारी कुछ कागज थमाता हुआ कहता-तुम (या आप) मुरादाबाद हैडक्‍वार्टर जाकर रिपोर्ट करो। वहां से आपको, आपका पोस्‍टिंग स्‍टेशन अलाट कर दिया जाएगा।

आपको बी बी एंड सी आई आर रेलवे मिली है। बोम्‍बे चले जाओ। वहां यह कागज जमा करा देना। फिर जो स्‍टेशन मिले वहां पर जाना होगा। इन कागजों को कर्मचारी किसी बड़ी लाट्री के खुल जाने की तरह ग्रहण करते। चलो कोई ढौर तो मिली। सिर छिपाने की जगह तो मुहिय्‌या होगी।

ज्‍यादातर के आर्डर नहीं होते। वे कल की इंतजार में 'इंतजार और अभी इंतजार और अभी‘ वाली अभिव्‍यक्‍ति के साथ ज्‍़यादा नहीं तो थोड़ा मुंह लटकाए अपने अपने टैंट की जानिब लौटने लगते या झुंड बनाकर बतियाने लगते। तूने कौन कौन से स्‍टेशन पर काम किया था। मैं भी वहीं पर फ्‍लाने से फ्‍लाने साल तक रहा था। क्‍या फ्‍लाने को जानते हो। तुम सब लोग ख्‍ैरियत से तो आ गए ना।

लोगों से अधिक, बातों का हुजूम होता। बातों में खलिश होती दर्द छिपा होता। दर दर भटकने की दास्‍तां होती। चलों ऊपर वाला जिस हाल मे ंरखे। आसमान की तरफ अंगुलियां उठती रहती। लेकिन वहां आसमान में बैठा भगवान, सर्वशक्‍तिमान, किसी को दिखलाई तो नहीं देता। हो सकता है। अपने इन आम लोगों को कष्‍ट उठाते देख, शर्मिंदगी से अपने को और ज्‍यादा छिपाए रखता हो। क्‍या मुंह दिखाए। वैसे वह अच्‍छी तरह से जानता था कि बेचारा आम आदमी कभी भी खुलकर भगवान के खिलाफ बगावत नहीं कर सकता। सड़ी गली चीजें भी निगल लेता है। और कहता है; भगवान तेरा शुक्र है। तू जिस हाल में रखे। तेरी रजा। अंबाला कैंप के खाने का भी यही हाल था।

पिताजी हमारे बहुत शांत स्‍वभाव के थे। मगर गुस्‍सा किस को नहीं आता। बहुत पहले से साधु संतों को तो और भी लड़ते झगड़ते, एक दूसरे को लताड़ते गालियां देते देखा जाता रहा है।

एक दिन पिताजी औरों की तरह लाइन में थाली कटोरी, थैला लिये खड़े थे। जब उनका नंबर आया तो, उनकी थाली में एक दम कच्‍ची या कुछ एकदम काली जली हुई रोटियां डाल दी गईं।

- यह क्‍या है ?

- यही है। लेना हो तो लो।

- तू इसे मेरे सामने खाकर दिखा। खा। अगर तू जानवर होगा तो भी शायद न खा पाएगा।

- यह झगड़ने का मैदान नहीं है। लाइन छोड़ दो।

- यही खड़ा हूं। हटाकर देख।

जो आदमी पिताजी के पीछे खड़ा था, बोला-चलो मुझे ही दे दो।

पिताजी ने कहा-तुम लोगोें की इन्‍हीं बातों ने तो इन्‍हें बिगाड़ा है। जैसे यह सेठ अपने पल्‍ले से खैरात बांट रहा है। यह गोवर्नमेंट का राशन है।

बात बढ़ती देख कोई अधिकारी आ पहुंचा और दोनों पक्षों को शांत किया-हम लोग भी क्‍या करें। यहां तो दस दस बरातों जितने आदमियों से भी ज्‍यादा लोग हैं ․․․․․․․․ चलो इन बाबू साहब को खास ध्‍यान रखा करो।

पोस्‍टिंग आडर्ज का इंतजार करने के सिवाए यहां और कोई काम भी क्‍या था। नरक में इंतजार। चारों तरफ हर तरफ की गंदगी। बच्‍चों का मलमूत्र। पिताजी को कभी कभी दमे के दौरे की वजह से, सारी रात जागकर काटनी पड़ती। हम सब भी उनके साथ जागते सोते रहते। दीमक चींटिया मकोड़े जमीन फोड़ फोड़ कर निकलते रहते जिन्‍हें, कपड़ों से झाड़ झाड़कर, झाड़ू से बुहार बुहार कर मोमबत्त्‍ाी की रोशनी में हटाते रहते।

कभी कभी भाई साहब, अंबाला कैंट के मिलिट्री हैडक्‍वार्टर चले जाते और अपने छोटे जीजाजी रोशनलाल तलवाड़ का पता लगाने की कोशिश करते। कभी कृपा करके हम दोनों छोटे भाइयों या बहनजी को भी साथ चलने की इजाजत दे देते। अफसर हमदर्दी जाहिर करता। पूरी कोशिश कर रहा हूं। अब फ्‍लानी तारीख को आकर पता लगाना। भगवान ने चाहा तो जल्‍दी पता चल जाएगा। अरे तुम लोग घबराते क्‍यों हो। मिलिट्री वालों को भला क्‍या खतरा हो सकता है। हौसला देता।

हम पेड़ों की छाया और गुनगुनी धूप का स्‍वाद चखते हुए, सड़कें पार करते वापस अपने कपड़े के आशियाने (टैंट नंबर 137) की तरफ कूच करते।

अहा, आज सोचता हूं कि वह दिन भी क्‍या दिन थे। खिलंदड़ बच्‍चों के लिए तो लगभग सारे दिन -अहा मजे वाले दिन‘ हुआ करते हैं। दीनदुनिया की, और अपने बड़ों की फिक्रोआलम से दूर, बच्‍चों की एक अलहदा दुनिया हुआ करती है। जब तब माताजी अपने घर, जायदाद असबाब का रोना लेकर बैठतीं, मैं अपना बाल-दर्शन झाड़ने लगता-अगर वह सब हमारा होता तो हमारे पास होता।

बड़े होकर पता चलेगा। एक एक चीज जोड़कर कैसे घर बसाया जाता है। फिर थोड़ी देर की चुप्‍पी के बाद वही वाक्‍य, अपने हाथों को जोड़कर बोलती है-हे पालनहार तेरा लाख लाख शुक्र है। मेरे बच्‍चे तो खैरियत से मेरे पास हैं। यही मेरी जायदाद हैं।

हमारे कुछ कहानीकार दोस्‍त एक वाक्‍य का जरूर इस्‍तेमाल करते हैं 'फिर एक दिन ऐसा भी आया․․․․․․‘ तो मैं भी लिख रहा हूं कि एक दिन ऐसा भी आया, जब पिताजी का नाम पुकारा गया कि यह लीजए लैटर। आपको मुरादाबाद डिवीजन मिला है। आप मुरादाबाद डी․एस․ अॉफिस जाकर रिपोर्ट करें। वहां से आपको रिपोस्‍टिंग स्‍टेशन के आर्डर मिलेंगे।

गाडि़यों की सारी व्‍यवस्‍था एकदम चरमराई हुई थी। पिताजी के पुराने दोस्‍त लाला कांशीराम एस․टी․ई․ (स्‍पेशल टिकट एग्‍जामिनर, यह पद पिताजी का भी था।) को भी मुरादाबाद डिवीजन अलाट हुआ था।

दोनों परिवार वालों को एक गुडस ट्रेन मिली। एक ही डिब्‍बे में हम ने मुरादाबाद के लिए प्रस्‍थान किया यह दिन 4 नवंबर 1947 का था। सच कहूं, माल डिब्‍बे में यह मेरा पहला, और शायद आखिरी सफर था। भले ही बाद में कभी मालगाड़ी के अवसर मेरी रेलवे सर्विस के दौरान थोड़े से आते रहे। लेकिन मालगाड़ी के ब्रेकवान में बतौर गार्ड, या ऐसे ही यात्राएं करनी पड़तीं। लेकिन ब्रेकवान और डिब्‍बे में बहुत फर्क होता है।

बच्‍चे तो हर परिस्‍थिति में मजे लेने लगते हैं। डिब्‍बा जबर्दस्‍त हिचकोले खाता। हर रोड साइड स्‍टेशन पर गाड़ी रूकती। उसमें से सामान अनलोड (निकाला जाता) होता। बार बार शंटिंग होती। इंजन हमारे डिब्‍बे को जोर से धक्‍का मार कर अलग हो जाता। हम और हमारा सारा सामान गिरता पड़ता। बिखर जाता। हम एक दूसरे को पकड़ कर एक दूसरे का सहारा बनते। हो हो कर चिल्‍लाते - जरा और जोर से। लेकिन बड़े खास तौर से हमारे पिताजी की परेशानी, दमे के मरीज होने के कारण बढ़ जाती।

चाचा काशीराम मल्‍होत्रा जाने कहां से एक बहुत बड़ी अंगीठी कबाड़ लाए थे। शायद रेलवे मैन का वास्‍ता देकर। और साथ ही बार बार इंजन से सुलगते हुए बड़े बड़े कोयले भर लाते। उस पर खाना बनाते। चाय की पतीली चढ़ाते। शंटिंग की ठोकरों के कारण, खाना और अंगारे डिब्‍बे में जहां तहां बिखर जाते। अजीब नजारा था। 'क्‍या कहने‘।

एक मजेदार बात यह होती कि भाई साहब अच्‍छा गा लेते थे। और साथ चाचा कांशीराम जी की लड़की बिमला का स्‍वर भी काफी मीठा था। दोनों के द्वारा हम सबका बहुत मनोरंजन होता। पिताजी दोनों को दाद देते। हम भी तालियां बजाते।

कांशीराम जी की पत्‍नी बहुत पहले गुजर चुकी थीं। परिवार में खुद, बड़े कद का बड़ा लड़का रोशन, बिमला, फिर बंसी जो मेरा हम उम्र था, वह और उसकी छोटी बहन शानो थे।

मालगाड़ी को हम छकड़ा गाड़ी कहते। चल चल। वह चलती क्‍या करारे झटके देती। धीरे धीरे स्‍टेशनों के नए नए नाम पढ़ते। अम्‍बाला से 4․11․47 को चली इस गुड्‌स टे्रन ने हमें बरास्‍ता सहारनपुर, आखिरकार दोपहर 6․11․1947 को मुरादाबाद पहुंचा ही दिया।

माताजी तथा हम बच्‍चों को वेटिंग रूम में बिठाकर दोनों साथी डी․एस․ (आज का डी․आर․एम․) आफिस चले गए। हम बच्‍चे स्‍टेशन से बाहर जाकर मटरगश्‍ती करने लगे। वहां का खुला वातावरण बहुत लुभावना-सुहावना लग रहा था। जहां तक मुझे याद आता है, पहली बार मैंने हरे हरे मुलायम सिंघाड़े देखे थे। वह भी छील छील कर खाते और आनंदित हो रहे थे। ऊपर से नवंबर की गुनगुनी धूप।

8/11/1947 को पिताजी और चाचा कांशीराम को बरेली हैड क्‍वाटर्र के आदेश मिले। 9/11/47 को हम सब बरेली पहुंचे। पिताजी को फौरन प्राथमिकता के आधार पर (आदेश थे कि कैसे भी हो, रिफ्‍यूजी एम्‍पलाईज़ को क्‍वार्टर मिलना चाहिए) क्‍वार्टटर नंबर T16A (सिरे वाला) मिल गया। पूरे क्‍वार्टरों में बिजली पानी का प्रबंध नहीं था। चलो रहने को छत तो मिली। दो कमरे, लंबा बराम्‍दा। उसके एक तरफ रसोई दूसरे सिरे पर स्‍टोर। आगे थोड़ा खुला आंगन। एक साइड में शौचालय। गुस्‍सलखाना नहीं था। लगभग सब स्‍टेशनों पर क्‍लास थ्री के ऐसे ही क्‍वार्टर होते हैं। क्‍लास फार्थ के तो मात्र एक कमरे के, सिकुड़े हुए। अफ़सरों के बड़े लंबे चौड़े बंगले। भाई साहब कहा करते थे कि यह अंग्रेजों की सोची-समझी चाल थी कि यह लोग हमेशा हीन भावना अनुभव करते रहें, जिसे स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति के 61 सालों के बाद भी हमारी स्‍वयं की गोवर्नमेंट कायम रखे हुए है; जब कि बहुत सारी जमीन यूं ही फालतू पड़ी रहती है।

अंग्रेजों ने तो अपने बंगलों वाले क्षेत्र में बड़े बड़े बोर्डों पर लिखवा रखा था-इंडियन्‍स एंड डाग्‍ज आर नॉट अलाउड (भारतीय एवं कुत्त्‍ाों का प्रवेश निषेध)।

खैर हमारे पास सामान ही कितना था। एक कमरे के कोने में रख दिया। एक दो दरिया चदरे बिछाकर जम गए। बहुत संतुष्‍टि प्राप्‍त हुई। हे भगवान तेरा लाख लाख शुक्र है। माताजी बार बार हाथ ऊपर की ओर जोड़कर कह रही थीं। हमारे क्‍वार्टटरों की लाइन बहुत लंबी थी। सामने भी लंबे फासले पर एक ऐसी ही तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों का लाइन थी। बीच में बड़ा गहरा गहरा कुआं था जिसमें से तकरीबन हर समय लोग बाल्‍टियों से पानी निकालते रहते थे। पहले पहल तो मुझे और बृज को पानी निकालने में बड़े मजे आते थे, मानों अपने शौर्य का परिचय दे रहे हों। मगर बाद में ''तू भर। तू भर; तू। क्‍या तू लाट साहब है। कह कर झगड़ा भी होने लगा। कुछ लोगों ने अपने अपने क्‍वार्टर में प्राइवेट हैंड पम्‍प लगवा रखे थे। हमारे पास इतने पैसे नहीं थे। माताजी पिताजी हमें ऊपर से झिड़कते पर अंदर ही अंदर तरस खाते। मगर करते क्‍या। बाद में 22/2/1949 को रू․ 155/- में क्‍वार्टर में हमने भी हैंड पम्‍प लगवा लिया था।

यह बाद की बातें जरा बाद में। पहले शुरूवाती दिनों के बारे में। पहले ही दिन हम दोनों भाई बजरिया जो क्‍वारटरों के खत्‍म होते ही सुभाषपुरा में है, चले गए। ताजी हरी भरी खूब सस्‍ती सब्‍जियां देखकर दिल बाग-बाग हो उठा। पहलवान हलवाई बड़े बड़े पकौड़े तल रहा था। उस से पकौड़े लेकर खाए। बाद में उसी मौटे पहलवान हलवाई की हम बच्‍चों की दोस्‍ती हो गई। वह अक्‍सर अंग्रेजों के लिए अंट शंट शब्‍दों का इस्‍तेमाल करता। कहता अब तो खैर अंग्रेजों से डरने की कोई बात नहीं। अभी अंग्रेज पूरी तरह से गए नहीं थे। हमारा घिसापिटा इंडियन इन्‍स्‍टीट्‌यूट था; जहां हम लोग इनडज्ञेर गेम्‍स खेला करते। अंग्रेजों का खूब बढि़या चमक दमक वाला यूरापियन इन्‍स्‍टीट्‌यूट, जहां उन दिनों भी उनकी मेमें और वे खुद लकड़ी के फर्श पर डांस किया करते थे। हम बच्‍चे बड़ी हसरत से किसी तरह खिड़कियों के कोने से झांक कर देखते। वाह क्‍या शान है। पहलवान आगे कहता-जब अंग्रेजों का शासन, तब मैंने एक अंग्रेज को पकड़कर उसके मुंह में मूता था। पता नहीं सच कहता था या यूं ही डींग मारता था। यह भी जोड़ता था कि वह अंग्रेज मेरी शिकायत भी तो नहीं कर सकता था। किस मुंह से कहे कि पहलवान ने मेरे मुंह में पेशाब किया है। वह हंसता, हम भी खुश होते। अच्‍छा किया। भगवान करे यह सच ही हो।

भाई साहब के अभी कहीं के भी आर्डर नहीं आए थे। वे अधिकारी से कहकर हमारे साथ हो लिये थे कि अगर मेरे आर्डर आते हैं तो अपने पास सुरक्षित रखें। मैं अपने परिवार वालों को सैट कर के जल्‍दी से जल्‍दी वापस अंबाला पहुंचा जाऊंगा। हमारा टैंट नंबर 137 भी अन्‍य किसी को अलॉट न करें। भाई साहब हर रोज़ बहुत जरूरत की चीजें क्‍वार्टर में ले आते। मैं और बृज कहते-भाई साहब हमें भी बाज़ार दिखा लाओ। वे कहते तुम छोटे बच्‍चों का वहां क्‍या काम ? मेन बाज़ार स्‍टेशन से काफी दूरी पर पड़ता है। एक दिन भाई साहब बोले-चलो आज तुम्‍हें शहामतगंज दिखला लाएं। हम खुशी खुशी उनके साथ चल दिए। हमें तब पता चला कि आज क्‍यों भाई साहब हमें अपने साथ लाए हैं, जब शहामतगंज से दो बुनी बुनाई चार पाइयां भाई साहब ने खरीदीं। जिन्‍हें बारी बारी से हम तीनों भाई सिर पर रखे/ढोते घर पहुंचे। फिर भी हम चहक रहे थे, तांगे के पैसे बचा लाए। पर हाय मां का दिल वे द्रवित थीं। हे भगवान यह दिन भी दिखाना था। पिताजी भी जैसे अवसर/पैसा होता एक एक कर, कोई न कोई चीज कप प्‍लेटें/फोल्‍डिंग टेबल आदि आदि जुटा रहे थे। माताजी कहतीं वहां की चीजें कितनी कीमती थीं, जो छोड़ आए। ये तो उनके मुकाबले कुछ भी नहीं। फिर निःश्‍वास छोड़ती हुई जरा रूक कर बोलतीं। दाता तेरा शुक्र है। धीरे धीरे सब बन जाएगा। पड़ोसियों का हमारे यहां जमघट लगा रहता। कोई गुजारे के लिए बाल्‍टी, पतीला बगैरह दे जाता। उन्‍हें हम सब शरणार्थियों से बेहद सहानुभूति थी। सहानुभूति से बढ़कर पाकिस्‍तान के हालात दंगे, वहां से आने की कहानियां सुनने में रूचि थी। खास तौर से औरतें सुन सुनकर द्रवित होती रहतीं। मुसलमानों के लिए अपशब्‍द बोलतीं․․․․․․ सत्‍यानाश हो। आपको तो चलो नौकरी और घर मिल गया। सबकी किस्‍मत में यह सब नहीं लिखा। बेचारे फुटपाथ पर बैठे सब्‍जी या छोटा मोटा सामान बेच रहे हैं। सच बहन जी! कई औरतों और कुछ आदमियों के भी स्‍वर गूंजते रहते, यदि हमारे साथ यह सब, हुआ होता तो हम तो भीख मांग रहे होते। सचमुच इन्‍हें पुरूषार्थी ही कहना उचित है।

लाला कांशीराम जी को हम से थोड़ी दूर ओवरब्रिज (पुल) के साये में बड़े पाकड़ के पेड़ की छाया में एकदम पुराने ढर्रे का हमसे छोटा, गोलाकार छत वाला क्‍वार्टर मिला था। बंसी शानो लगभग हमारे ही क्‍वार्टर में बने रहते। हम सब बच्‍चे फुदक-फुदक कर दौड़ लगाते। नए वातावरण के मज़े लूटते। हम-उम्र लड़कों से दोस्‍ती गांठते, जिनमें मुसलमान लड़के भी थे। उनसे तो मेरी कुछ ज्‍यादा बनने लगी। बड़ी उम्र वाले मुसलमानों को भी हम से हमदर्दी थी। कहते यह सब सयासत के खेल हैं। न उधर के लोग खुशहाल। न इधर के लोग।

सच मानिए, बचपन से ही मेरे कानों में जो जो जैसे जैसे शब्‍द पड़े वे सब दिमाग में अंकित होते चले गए।

पर दूसरी तरफ रिफ्‍यूजियों की बढ़ती भीड़ को देख देखकर तथा उनसे आंतरिक सहानुभूति रखने वाले यहां के हुन्‍दुओं के तेवरों को देख देखकर अंदर से बेचारे निर्दोष मुसलमान सहमे हुए थे। उनमें से कई अपना बोरी-बिस्‍तर बांधकर, स्‍पेशल ट्रेनों से पािकस्‍तान जाते, मैंने देखे।

कुछ ही महीनों के वक्‍फे पर फिर उन्‍हें वापस, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अपील पर उन्‍हीं स्‍पेशल ट्रेनों से वापस आते भी मैंने अपनी आंखों से देखा था। नेहरू जी की आए दिन की अपीलों पर, कि हम अपने मुसलमान भाइयों की पूरी हिफाजत करेंगे। उन्‍हें उनके घर जिन पर पाकिस्‍तान से आए रिफ्‍यूजियों ने कब्‍जा जमा लिया है, वापस दिलवाएंगे। सचमुच ऐसा ही हुआ भी था। मैंने खुले आम कई लोगों के खास तौर से किशोरावस्‍था तथा बूढ़ों के मुंह से नेहरू, गांधी, जिन्‍ना को गालियां निकालते भी सुना था। भई जो राजीखुशी चले गए। उन्‍हें वहीं रहने दो। आखिर पाकिस्‍तान बनाया ही क्‍यों गया है। पाकिस्‍तान में इन हिन्‍दुओं के मकानों में जब उन्‍होंने कब्‍जा कर रखा है। तब ये बेचारे रिफ्‍यूजी आज़ाद हिन्‍दुस्‍तान में कहां रहें ?

बाद तक बहुत सी विरोधाभासी बातें सुनता आया हूं। इन विषयों पर किताबें भी खूब पढ़ी हैं। पर आज तक सच्‍चाई क्‍या थी, नहीं जान पाया। कुछ का कहना है कि यह तय हुआ था 'ट्रांसफोरमेशन अॉफ पापुलेशन‘ (यानि आबादी की अदला बदली) मतलब सारे के सारे मुसलमान पाकिस्‍तान में रहेंगे और सारे हिन्‍दु हिन्‍दुस्‍तान में। क्‍योंकि पाकिस्‍तान का निर्माण हुआ ही, दो कौमों के आधार पर है। मुस्‍लिम नेताओं का कहना था कि हम एक अलग कौम हैं। हम हिन्‍दुओं के साथ नहीं रह सकते। हम दोनों अपने अपने बाल बच्‍चों, असबाब के साथ अलग रहेंगे। जैसे भाइयों के बीच बटवारा हुआ करता है। लेकिन कई विद्वानों का कहना, इसके उलट है। वे कहते हैं कि यही तय हुआ था कि जो जहां पर है वहीं बना रहेगा। आखिर आजादी की जंग दोनों समुदायों ने मिलकर ही तो लड़ी थी।

मेरा अपना सोचना एक ही है कि जहां की गोर्वनमेंट जो चाहती है वही होकर रहता है। बिलकुल एक छोटा सा उदाहरण। जो लोग किला शेखुपुरा से किसी प्रकार से बच कर यहां हिन्‍दुस्‍तान में आ पहुंचे थे, उनकी जबानी, वहां पर हुए हिन्‍दुओं पर हुए अत्‍याचारों के कई किस्‍से सुने। उनमें से यहां सिर्फ एक। सामने मौत को देखकर बहुत सारे लोग कि़ले में जा छिपे थे। अंदर जाकर उन्‍होंने ज़ोर लगा कर, बहुत बड़े भारी दरवाज़े को कसकर बंद कर दिया। सारी कुंडियां जंजीरें सांखले चढ़ा दीं। लाख, हर तरह की जोर आजमाइश के बावजूद दंगाइयों से दरवाजा नहीं खुल पाया। ऐसे मोटे मोटे नोकीले कीलों से हाथी भी डर जाता है। तब उस दरवाजे को टैंक के द्वारा तोड़ा गया। सब को कहीं सुरक्षित स्‍थान पर ले जाने का झांसा देकर उन्‍हें पंक्‍तियों में खड़ा किया गया। मिलिट्री/पुलिस द्वारा चलाई गई एक एक गोली ने एक साथ कइंयों का काम तमाम कर दिया।

यहां मेरा निवेदन मात्र इतना कहना है कि चलो दंगाइयों के पास भले ही कितने हथियार असला हो। टैंक तो नहीं मिल सकता था। यह सारी रचना गोवर्नमेंट की ही थी।

आजादी के 61-62 वर्षों बाद आज भी पाकिस्‍तान से हिन्‍दुओं का पलायन जारी है। इसे मैंने कहानी 'दर्दे दरार‘ (कादम्‍बिनी जुलाई 2008) में अभिव्‍यक्‍ति दी है। बेशक कुछ रसूखदार नेक दिल मुसलमानों ने अपने दोस्‍तों को पाकिस्‍तान में संरक्षण प्रदान किया। किन्‍तु उनके न रहने पर, उन्‍हें उस वक्‍त न सही, आज शरणार्थी बनने पर विवश होना पड़ रहा है।

कई दफा सोच आती है कि आबादी की अदला बदली हो ही गई होती तो बेहतर होता। मेरी इस अदनी सी सोच को मेरे परम मित्र मुसलमान और अति बुद्धिजीवी ज़रा उदारतापूर्वक लें और मुझे भाज़पंथी कह कर गाली न दें। जैसे हम लोग एक बार मन मार कर, हम हिन्‍दु अपना वतन छोड़ आए थे। उसी प्रकार मन को पक्‍का करके उन्‍हें भी जा लेने दिया होता तो, आज अनेक समस्‍याओं से जूझ रहे भारत की एक दो समस्‍याएं शायद कम हो जातीं। साम्‍प्रदायिक दंगे। आबादी का बोझ भी थोड़ा कम होता। यहां पर रह रहे अनेकानेक हमारे आदरणीय आत्‍मीय मुसलमान दोस्‍तों को कट्‌टर हिन्‍दु शक की निगाह से न देखते। उन्‍हें अपनी देशभक्‍ति का सर्टिफीकेट न देना पड़ता। और न ही भारत सरकार पर बार बार पक्षपात का इल्‍ज़ाम लगता। मुसलमानों के जो रिश्‍तेदार पाकिस्‍तान चले गए और आधे यहीं रह गए; उन्‍हें अपने आत्‍मजनों से मिलने में कितनी दिक्‍कतों का सामना करना पड़ता है। पास्‍टपोर्ट वीजा चैक पोस्‍टों पर कड़ी जांच, रिश्‍वत आदि आदि से न गुजरना पड़ता। उनके हिन्‍दुस्‍तान में गायब होने पर, तलाशी अभियान। खास तौर से युद्धों के दौरान, यह समस्‍याएं कितनी प्रताडि़त करती हैं।

दुहराना चाहूंगा कि यह मेरी अदनी सी तर्कसंगत सोच है। बाकी सही गलत का लेखा-जोखा करने को हमारे बड़े बड़े विद्वान, इतिहासविद्‌ राजनेता बैठे हैं। जहां तक तरस खाने वालों मददगारों का सवाल है, ऐसी कमी मुस्‍लिम समाज में भी कहां कम थी। कोई आदमी मुल्‍तान में पिताजी की पीठ में छुरा घोंपने लगा था तो एक दाढ़ी वाले ने ही शोर मचाकर उन्‍हें सचेत किया। हमलावर भाग छूटा। भाई साहब के शोरकोट के मुस्‍लिम दोस्‍तों ने ही भाई साहब को वापस न आने की हिदायत देकर बचाया। पिताजी के भतीजों के कत्‍ल के बाद, उनकी विधवाओं को काला बुर्का पहनाकर मुस्‍लिम महिलाओं ने ही उन्‍हें सुरक्षित कैंप तक पहुंचाया। कत्‍लेआम को अंजाम देने के लिए वहां की (गोवर्नमेंट ने ही शायद) कसाइयों को नियुक्‍त किया था। ज्‍यादातर मनुष्‍यों का हृदय ऐसा नहीं होता जो किसी दूसरे मनुष्‍य का सिर कलम कर सके। असल सचाई यही है कि फैसले लेने वाले तो सत्त्‍ाा के भूखे, हुक्‍मरां ही लिया करते हैं। बेशक कोई जिए या मरे। वे फ़क़त घडि़याले आंसू बहाने का नाटक कर सकते हैं। व्‍यक्‍ति व्‍यक्‍ति के बीच, नफ़रत पैदा कर, आखिरकार अपना मकसद हासिल कर लेने में कामयाबी के शिखर तक पहुंच जाते हैैं।

जितने मुंह उतनी बातें एक 80 साल के बुजुर्ग खुराना साहब जो यदाकदा मेरे पास आ बैठते हैं। वे मुल्‍तान से थे। इन्‍हीं दिनों उन्‍होंने मुझे बताया कि उनके एक मुस्‍लिम दोस्‍त ने खुलासा किया कि जिन्‍ना बेवकूफ था जो उसने विभाजन की मांग रखकर, पाकिस्‍तान हासिल किया। अगर हिन्‍दुस्‍तान एक रहता तो पूरे बड़े हिन्‍दुस्‍तान पर आज मुसलमानों की ही हुकूमत होती। क्‍योंकि मुसलमान शासन करना जानता है। सख्‍त और क्रूर कदम उठाने से नहीं हिचकिचाता। जोखिम भी उठा सकता है। क्‍या ढुलमुल पालिसियों से भी कभी शासन हुआ है ? देख लो। आज भारत की ढिलाई का अंजाम जो चारोें तरफ फैल गया है।

अब इस पर कोई टिप्‍पणी करना सही नहीं हो सकता। पाकिस्‍तान की दुर्दशा से भी हम सब वाकिफ हैं।

ओर फिर वही उलझन वाली बातें करने बैठ गया। चलिए बरेली की बात करें। अपने बचपन की खुशहाली की बाते करें। लेकिन खुशहाली कभी भी पूरी नहीं हुआ करती। फिर भाई साहब, हमसे बछुड़ गए। उनके अभी कहीं के भी आर्डर नहीं हुए थे। उन्‍हें वापस अंबाला जाकर रिअपवांटमेंट (पुनर्नियुक्‍ति) के आदेशों की प्रतीक्षा करनी थी। हम सब बरेली स्‍टेशन पर गीली आंखों से उन्‍हें गाड़ी में चढ़ते देख रहे थे। हमारे साथ बिमला बंसी शानों भी आए थे। भाई साहब हमें थोड़ा सैट (व्‍यवस्‍थित) कर के जा रहे थे। चलो सब ठीक ही होगा।

बाद में भाई साहब को बोम्‍बे की नियुक्‍ति मिली थी। बरेली एन डब्‍लु रेलवे में था। जहां का ट्रांसफर संभव नहीं था। और भाई साहब की बी․बी․एंड सी․आई․आर․ (बोम्‍बे बड़ौदा और सैंटरल इंडियन रेलवे)। ''बोम्‍बे तो बरेली से मीलों मीलों दूर है। यह तो बहुत बुरा हुआ।‘‘ माताजी ने उच्‍छ्‌वास छोड़ी।

-धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा, पिताजी उन्‍हें आश्‍वस्‍त करते। समय, और उसकी गति का अनुमान पहले से किसने लगाया है ? कभी कोई एन डब्‍लु आर (नार्थ वैस्‍टर्न) का डिब्‍बा, रेलवे की गलती से हमारे शेख्‍ुपुरा या पेशावर आ जाता था, तो हम आश्‍चर्य से उस वैगन को देखते थे कि देखो यह वैगन कितनी दूर से आया है। लेकिन आज हम खुद उसी एन डब्‍लु रेलवे में आ बसे हैं।

बी बी एंड सी आई आर बहुत बड़ी, छोटी लाइन की रेलवे थी जो ठेठ बंबई से दिल्‍ली (क्‍वीन्‍स रोड) तक फैली थी। लेकिन एफीशेंसी (कार्य कुशलता) देखते ही बनती थी। सारे के सारे छुट्‌टी तक देने के अधिकार हैडक्‍वार्टर (बम्‍बई) के पास ही थे। अभी दिल्‍ली से छुट्‌टी अपलाई करो। मोर्स मैसेज (तार संदेश) फौरन बंबई पहुंच जाता था। तुरंत उसकी प्रति सूचना भी प्राप्‍त हो जाती थी और ज्‍़यादा से ज्‍़यादा तीन रोज में स्‍वीकृति अस्‍वीकृति और छुट्‌टी पर जाने वाले की जगह कौन काम करेगा। उसके आदेश भी पता चल जाते थे। उस समय का पंजाब भी कितना बड़ा प्रांत था। अंबाला से चलो। हमारे गांव करोड़ लालीसन (वह भी पंजाब में ही था) पूरे चार दिनों में गाडि़यां बदल बदल कर पहुंचते थे। बाद में आधा पंजाब पाकिस्‍तान में चला गया। जो आधा भारत के हिस्‍से में आया, वह भी तीन टुकड़ों में बट गया। पंजाब, हरियाण और हिमाचल प्रदेश। यह सब सुशासन के नाम पर। सुशासन ? वह तो केवल प्रबल इच्‍छा शक्‍ति से ही संभव हो पाता है। जितने ज्‍यादा राज्‍य उतने मुख्‍यमंत्री उपमुख्‍यमंत्री। मंत्रियों की लंबी कतार। फिर उनके सचिव उपसचिव। आदि एंड आदि। इस विषय का खुलासा मैंने 'खाद‘ कहानी में किया है, कि अपने ज़ाती मुुफ़ाद के लिए छोटे नेता आम विवश लोगों को ''खाद‘ की भांति इस्‍तेमाल करते हैं। और अलग छोटे राज्‍यों की मांग करने लगते हैं। वहां (बड़े राज्‍यों) पर उनकी पूछ संभव होती है।

बी․बी․एंड․सी․आई․आर․ का जो स्‍टेशन बरेली के सबसे नज़दीक पड़ता था, वह कासगंज था। उससे अगला स्‍टेशन माहरेरा। बाद में कोशिश करके भाई साहब ट्रांसफर कराकर बंबई से माहरेरा आ पहुंचे थे। और हर हफ्‍ते बरेली आकर हम सबसे मिल जाया करते थे।

जब तब भाई साहब के आगमन की सूचना मिलती, बिमला, बंसी, शानो वगैरह भी आ पहुंचते। खूब महिफिल जमती। गाने भी कभी कभी बिमला और भाई साइ्रब द्वारा सुने सुनाए जाते। भाई साहब जब एक दो रोज़ बाद वापस जाते तब हम सब उन्‍हें सी․अॉफ करने स्‍टेशन पर जाते।

एक सबसे महत्‍वपूर्ण बात बताना तो भूल ही गया। वह दिन था 9/11/1947 का। इस दिन पिताजी ने पुनः अपनी एस टी ई (स्‍पेशल टिकट एग्‍जामिनर) की ड्‌यूटी ज्‍वाइन की थी। उन्‍हें वापस अपनी काली वर्दी बिलों से लैस और गुलाबी टाई में देखकर हम सब बच्‍चों की खुशी का तो आर पार ही न रहा।

पिताजी अपने टूरों पर आते जाते रहते। हम बच्‍चे सुविधाजनक प्रायः उन्‍हें लेने स्‍टेशन रसीव करने पहुंच जाते और बड़े खुश होते। एक दफः तो उनके गाड़ी से उतरते ही, मैंने उनका फोटो वर्दी में कोडक कैमरे से खींच लिया था जिसका उन्‍हें पता भी न चला था। बाद में उन्‍हें प्रिंट दिखाया तो वे हैरानी से मुस्‍करा दिए थे। वह फोटो और सैकड़ों तब की फोटोएं, मेरे हाथ की बनाई (डैवलप की गई) कई एल्‌बमों में आज भी महफूज हैं।

मैं तो कॉलोनी के लड़कों से जल्‍दी ही हिलमिल गया परन्‍तु बृज, मेरा छोटा भाई, किसी से बात नहीं कर पाता। उसे हिन्‍दी-उर्दू बोलना ही नहीं आता था। पंजाब में, उर्दू हिन्‍दी तो सिर्फ किताबी जबानें थीं। आपस में कभी किसी को भी इन जबानों में बात करते आप नहीं पाएंगे। सब घरों महल्‍लों बाजारों में पंजाबी ही तो बोली जाती है। मैं थोड़ा बड़ा होने के नाते, हिन्‍दी-उर्दू बोलना सीख गया था। मैं बार बार हिन्‍दी-उर्दू शब्‍दों का प्रयोग कर रह हूं; इसलिए कि हमें तो दोनों जबानों में ख्‍ाास फर्क ही नज़र नहीं आता था।

बृज चूंकि हिन्‍दी-उर्दू बोल नहीं पाता था और लड़कों के सवालों का जवाब नहीं दे पाता, अतः उनके बीच से भाग खड़ा होता और क्‍वार्टर में घुस जाता।

बरेली शहर में भीड़ ही भीड़ हो रही थी-हर शहर का यही हाल था। उजड़े हुए लोगों के कारण बरेली भी अपवाद नहीं था। लोग बाग पनाह की ख्‍़ाातिर रोजगार की ख्‍़ाातिर दरबदर भटकते हुए नज़र आते। अपने अस्‍तित्‍व की रक्षा हेतु मनुष्‍य एक बार तो अपनी प्रतिष्‍ठा तक को भूल जाता है। कोई पटरी पर सब्‍जी बेचता नज़र आता तो कोई और तमाम तरह की घरेलू चीजें। कोई खोंचा लगाए खड़ा है। रहने को मकान ढूंढते हुए लोग। बरेली वाले, उनकी मदद के लिए तत्‍पर। मगर बहुत बाद में जब ये शरणार्थी बिजनेस में जम गए तो पहले वाले लोग उन पुरूषार्थियों से ईर्ष्‍या भी करने लगे कि इन्‍होंने अपनी वाकपटुता से हमारा बिजनेस चौपट (बरबाद) कर दिया।

धीरे धीरे पता चला कि हमारे छोटे जीजाजी बरास्‍ता कराची जलपोत से बंबई पहुंच गए हैं और उन्‍हें वहीं बंबई में ही पोस्‍ट कर दिया गया है। वे जान बूझ कर बहुत बाद में आए थे। एक पदोचित मिलिट्री जवान का कर्तव्‍य निभाते हुए। कहते थे कि पहले अपने दोस्‍तों, उन उन की फैमिली, बच्‍चोंको निकालना निहायत ज़रूरी था। मेरा क्‍या मैं तो निपट अकेला आदमी था। आ ही जाता।

कुछ अर्से बाद वे बहुत थोड़े दिनों की छुट्‌टी लेकर बरेली आ पहुंचे और कृष्‍णा बहनजी को लेकर बंबई वापस चले गए। उन्‍हें समुद्र के किनारे शानदार फ्‍लैट मिला था। पर इस फ्‍लैट और ऐशोराम की बंबई की चहलपहल वाली दिनचर्या के बावजूद बहनजी बहुत उदास रहतीं। वह हम सबको लंबे लंबे पत्र लिखा करतीं। कभी कभी लिफाफों में हम दोनों भाइयों के लिए पतले पतले खूबसूरत रूमाल भी रख दिया करती जो डाक में कभी गुम नहीं हुए। उस वक्‍त की और आज की डाक व्‍यवस्‍था की तुलना करना बेमानी है। दूसरे तीसरे दिन चिटि्‌ठयां आ जाती थीं। सारा दारोमदार ही डाक-तार (टेलिग्राम) पर था।

बीच बीच में थोड़े दिनों की छुट्‌टी पर बहनजी जीजाजी बरेली आ जाया करते थे। उस 1948-49 के ज़माने के ही वे बंबई के ग्‍लैमर और खुलेपन, आधुनिकता की बातें बताते या पत्रों में लिखते तो उन्‍हें सुन-पढ़कर हम सब रोमांचित हो उठते। क्‍या जीजाजी बहनजी वहां किसी दूसरे संसार में रहते हैं या इंग्‍लैंड वगैरह में। यह तो उस काल की बंबई की बात है जो आज भी इधर हमारे उत्त्‍ार प्रदेश में बिलकुल नहीं है।

इधर बड़े जीजाजी ने घर वालों के साथ धक्‍के खाते हुए कई जगह पड़ाव डाला। मगर कहीं कुछ जमा नहीं बल्‍कि ग्‍वालियर ठहराव के दौरान उनका छोटा बेटा (मेरा भांजा) मदन जिसे हम प्‍यार से मदी मदी कहकर बुलाते, (खिलाते थे) फ़ौत हो गया। वह छोटी सी जान इन मुसीबतों से शायद मलेरिया का शिकार हो गया। सुनकर माताजी ने भी माथा पीट लिया कि देखो। पाकिस्‍तान से तो बचकर आ गया․․․․․ ओह जिसकी जहां लिखी होती है वहीं वह दम तोड़ता है।

जीजाजी के दोनों बड़े भाइयों ने दिल्‍ली मोरी गेट आकर अपना पुराना धंधा शुरू कर दिया और दिनों दिनों में अमीर होने लगे। आज भी उनके लड़के वहीं यही काम कर, शान से रहते हैं।

लेकिन हमारे जीजाजी की किस्‍मत ऐसी नहीं थी। छोटे जीजाजी तलवाड़ साहब ने उन्‍हें बंबई बुला भेजा और कपड़े का धंधा करवाया। इससे पूर्व भी बड़े दिल वाले छोटे जीजाजी ने कइयों को अपने फ्‍लैट में शरण दे रखी थी। जो पहले से कपड़े का धंधा कर रहे थे। एक जीजाजी के कथित दोस्‍त और उसकी घर वाली को यह नागवार लगा। उन दोनों ने बड़ी बारीक चल चल कर हमारे बड़े जीजाजी को वहां जमने नहीं दिया।

वे और बड़ी बहनजी नाराज़ होकर दिल्‍ली चले आए। दिल्‍ली पहुंचकर वे बिड़ला वीविंग एंड स्‍पीनिंग मिल (सब्‍जी मंडी स्‍थित) वाले अधिकारियों से मिले और उन्‍हें बताया कि वे लायलपुर में बिड़ला मिल ही में काम किया करते थे। उन्‍होंने जीजा को बतौर मिस्‍त्री लगा लिया। उन्‍हें रोशनारा रोड रोशनारा बाग के निकट में बनी अपनी विशाल बिल्‍डिंग में एक छोटा सा क्‍वार्टर भी अलॉट कर दिया। वह भी उस छोटे क्‍वार्टर का आधा हिस्‍सा। इस आश्‍वासन के साथ कि दूसरे हिस्‍से वाले उसे जल्‍दी ही खाली करने वाले हैं। लेकिन मैंने देखा जितने भी वर्ष जीजाजी ने वहां नौकरी की, उसी थोड़े से भाग में। कमरे के ऊपर अपने पैसों से परछती बनवाई थी। शाम होते ही सब मज़दूर कर्मचारियों की खाटें बाहर आ जाती थीं। आपस में सब दुःख सुख बांटते। हुक्‍का पीते। ताश खेलते। मैं पहले वर्णन कर आया हूं कि मैं बहनजी के यहां बहुत रहा हूं। वहीं रहकर मैंने पोयल्‍ट्री फार्मिंग की ट्रेनिंग ली थी। इतने अभावों में जीते, दिन रात की ड्‌यूटियां बजाते मजदूर वर्ग के चेहरों पर संतुष्‍टि-मुस्‍कान के भावों से रूबरू हुआ हूं। उनके जीवन संघर्षों से रू ब रू हुआ हूं। उनकी हड़तालें, आंदोलन देखे। हक के लिए भाषण भी यदाकदा सुने। एक बार की घटना जीजाजी के मुंह से सुनी थी कि मोरार जी देसाई जी ने मजदूरों के समक्ष बड़े मैदान में भाषण दिया था। उन्‍होंने कहा था कि मजदूर को हमेशा मजदूर ही बने रहना चाहिए। वरना देश की प्रगित नहीं हो पाएगी। यहां तक तो हो गया; लेकिन जब उन्‍होंने यह कहा कि मजदूर को बस इतना कम खर्चा मिलना चाहिए कि दूसरे टाइम के खाने के लिए उसे मजदूरी पर अवश्‍य आना ही पड़े, वरना वह आलसी हो जाएगा। तो यह सुनते ही मजदूर भड़क उठे थे। उन्‍होंने मोरार जी देसाई पर पत्‍थर फैंकने शुरू कर दिए थे। सुरक्षाकर्मियों ने उन्‍हें बड़ी मुश्‍किल से वहां से निकाला था। बाद में एक दफः मोरार जी भाई का असंगत आचारण उनके बीकानेर आगमन पर भी देखा गया था। एक बार एक स्‍पेशल ट्रेन पूरे भारत में घूमती फिरती बीकानेर स्‍टेशन पर भी आई थी जिसमें स्‍वतंत्रता सेनानियों, नेताओं, खास तौर से प्रधानमंत्रियों के बड़े बड़े चित्रों सहित उनका संक्षिप्‍त या किसी किसी का थोड़ा लंबा जीवन इतिहास दर्ज था। दर्शकों से अनुरोध किया जा रहा था कि वे अपनी टिप्‍पणी वहां रखे बड़े रजिस्‍टर में लिखें।

मैं एक किनारे जाकर छिप सा गया। लेकिन फौरन कुछ जानकारों द्वारा पकड़ लिया गया। वे मुझे आयोजकों के पास ले गए-ये एक बहुत बड़े लेखक हैं। इनके विचार भी तो शामिल कीजिए। बड़ी खुशी की बात है। उन्‍होंने रजिस्‍टर मेरी ओर बढ़ा दिया।

मैंने लिख मारा-हर आदमी देवता नहीं होता। यहां हर एक के मात्र गुणगानों का ही बखान है। जिन्‍होंने कुछ या कुछ ज्‍यादा गलतियां, भूले और गड़बडि़यां की उनका भी थोड़ा वर्णन यहां होना चाहिए था। ताकि लोगों को इतिहास की सही तस्‍वीर देखने को मिलती। मैंने खास तौर से भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का उल्‍लेख किया कि मात्र चार महीनों के अपने शासनकाल में उन्‍होंने इतना पैसा उड़ाया तथा अपना बहुत बड़ा उधार, बिना अदा किए चले गए, जितना पैसा लंबे अर्से तक शासन करने वाले प्रधनमंत्रियों ने फिज़ू़ल में नहीं गंवाया था।

यह सब लिखना इसलिए भी जरूरी है ताकि आगे के हमारे नेता अभी से चेत जाएं कि गुणगानों, प्रशंसाओं के साथ हमारे जीवन का काला पक्ष भी लिखा जाएगा। इस प्रकार वे ऐसी गलतियों आचरणों को दोहराएं नहीं।

इतिहास तो बहुत बहुत बाद में, वस्‍तुस्‍थितियों का लेखा-जोखा कर पाता है। उसके हाथों से कुछ छूट भी जाता है।․․․․․․․․।

श्री लाल बहादुर शास्‍त्री जी की मृत्‍यु का समाचार सुनकर मैं बार बार बिलख रहा था। मेरे दफ्‍तर के साथी मुझे संभाल रहे थे।

चलिए वापस शक्‍तिनगर चलते हैं। यह शक्‍तिनगर वाला इलाका ही था। रास्‍ता एकदम वीरान बयाबान सड़क नाम की कोइर् चीज़ नहीं। तांगे वाला आसानी से इधर आने को तैयार नहीं होता था। खासतौर से रात के अंधेरे में।

मैं, मेरा छोटा भाई बृज, रमेश मेरा हमउम्र भांजा, छोटा भांजा स्‍वदेश, हम सब बच्‍चे वहां पर उगी आक, हरनोली, कीकर की झाडि़यों और जंगली पौधों के बीच खेला करते थे। आज देखता हूं तो हैरान होता हूं, क्‍या यह वही शक्‍तिनगर, कमला नगर है ? अब वहीं पर एक इंच ज़मीन की कीमत एक लाख हो गई है। हां हम कभी पास के रोशनारा बाग में भी खेलते खेलते चले जाते थे। खोमचे वालों से पतलों पर नमकीन चना जोर गरम या गोलगप्‍पे खा लेते थे। यह हम बच्‍चों का जीवन था। न किसी किस्‍म की फिक्र न कोई और समस्‍या। फ़कत मस्‍ती भरी जिंदगी।

उधर, बड़ी बहनजी बडे़ जीजाजी कैसे गुज़ारा करते थे ? इसे तो आज कल्‍पना के द्वारा अतीत में झांकता हूं। कमाल है। उनके इस अभावग्रस्‍त जीवन में चेहरे पर एक शिकन तक नहीं। हर दूर दराज के रिश्‍तेदार का काम दिल्‍ली राजधानी में पड़ता था तो यही बहनजी के यहां ही पनाह लेता था। बहनजी सिलाई का काम करती थीं। बुनाई की मशीन उन्‍होंने दीवार के सहारे टांग रखी थी। हर चीज भी दीवार ही की मोहताज थी। खाटें! साइकिल फोल्‍डिंग कुर्सियां, मेजे।

हमने बहनजी को हमेशा हंसते मुस्‍कराते देखा। उन्‍होंने सब क्‍वार्टरों की बच्‍चियों बच्‍चों औरतों को अपना बना लिया था। वे सिर्फ पांचवीं दर्जे तक पढ़ पाईं। आगे के स्‍कूल दूसरे दूर के शहरों में थे जहां माताजी पिताजी ने उन्‍हें आगे पढ़ने नहीं भेजा। लेकिन पांचवीं तक पढ़ी सुमित्रा बहनजी अत्‍यंत कुशाग्र बुद्धि थीं। लोगों की टोलियां बनाकर उन्‍हें किराए की बसों में तीर्थ यात्राएं करवा लाया करती थीं। वे इतनी अधिक पढ़ाकू थीं कि सारे पुराने और नए से नए लेखकों को उन्‍होंने पढ़ रखा था। जीजाजी बड़ी बड़ी लाइब्रेरियों से उनके लिए नॉवल कहानी जीवनी आदि की पुस्‍तकें ला दिया करते थे। जिस पर वे पेज नं․ 5 पर कोई निशान लगा दिया करतीं ताकि जीजाजी उन्‍हें दुबारा ईश्‍यू न करवा लावें। इस तरह उन्‍होंने लाइब्रेरियां की लाइब्रेरियां जैसे चट कर डाली थीं। कुछ पत्रिकाएं, किताबें पटरियों से भी खरीद लातीं थीं। वही मुझे काफी कुछ साहित्‍य साहित्‍यकारों के विषय में बताया समझाया करती थीं कि लेखक ऐसे होते हैं। कितने ज्ञानी। पूरी समझ रखने वाले। चतुरसेन शास्‍त्री के मरणोपरांत उनके समय समय पर प्रकट होने वाले प्रसंग भी वे मुझे बताती थीं, जो बाद में मुझे उनके शायद भ्राता चन्‍द्रसेन की पुस्‍तक 'उस पार‘ में पढ़ने को मिले। वह किताब मेरे पास मौजूद है।

बहनजी यह भी कहतीं कि मन्‍नु भण्‍डारी तो हमारे बिलकुल पास ही रहती हैं। बहुत दफः मैं उन्‍हें कार चलाते हुए भी देखती हूं। पर कभ्‍ाी उनसे बात नहीं की। इस बात न करने का कारण उन्‍होंने कभी नहीं बताया। और न ही इस कारण को जानने की मेरी इच्‍छा हुई। सच मानिए बहुत बड़ी उम्र का होने तक मैं एकदम नादान ही बना रहा। लेखकों को तो मैं एक अलग प्रजाति ही मानता रहा जो शायद आसमान में मकान बनाकर रहते हैं।अगर कुछ धरती पर निवास करते हैं तो आम लोगों से उनकी कोई अलग सी दुनिया होती होगी। हां कॉलेज में एक बार श्‍याम नारायण पांडे जी को बुलवाया गया था। वे बड़े हाल में काव्‍य पाठ कर रहे थे। तब पीछे, दूर की कुर्सी पर बैठे मैंने उन्‍हें देखा था। लेकिन लड़के उन्‍हें सुन नहीं रहे थे। प्रोफेसरों के लाख हर तरह से समझाने के बावजूद हूंटिंग पर हूंटिंग कर रहे थे। शो फ्‍लाप गया था।

फिर कोई लेखक मुझे नहीं मिला। हां कुछ वर्ष बाद मेरी नन्‍हीं सी बच्‍ची ने मुझे श्री राजेन्‍द्र यादव से अवश्‍य मिलवा दिया था। हम दाेनों बाप बेटी बाजार की तरफ जा रहे थे कि सहसा, बेटी कविता की नज़र मन्‍नू भंडारी, राजेन्‍द्र यादव की नेम प्‍लेट पर पड़ी। वह तब सैंट्रल स्‍कूल नं․ वन की दूसरी या तीसरी की छात्रा थी। बोली डैडी क्‍या यह वही मन्‍नू भंडारी जी हैं जिनकी कहानी (नाम याद नहीं आ रहा) हमें स्‍कूल में पढ़ाई जाती है। मैंने नेम प्‍लेट पर ग़ौर किया और पुष्‍टि कर दी-हां! बोली क्‍या उनसे मिल लें। मैंने कहा-चलो देख लेते हैं। हमें संकेत से पता चला। ऊपर की मंजिल में। हम दोनों सीढि़यां चढ़ गए। वहां ताला झूल रहा था। हम बाज़ार चले गए। वापसी पर मैंने दूर से एक आदमी को बहुत ही तेज़ी-फर्ती से बैसाखी के जरिए लंबे लंबे डग भरते, उसी बिल्‍डिंग की ओर बढ़ते देखा। मैं फौरन भांप गया। कविता से बाला-यह जरूर राजेन्‍द्र यादव हैं, तुम्‍हारी मन्‍नू जी के हजबैंड। यह कहते ही मैंने जैसे दौड़ लगा दी। उनके सामने जा खड़ा हुआ-आप ही राजेन्‍द्र यादव जी हैं।

- हां हां कहिए।

- यह मेरी बेटी कविता है। मन्‍नू जी की कहानी इसके कोर्स में है। उनसे मिलना चाहती है।

उन्‍होंने दुलार से कविता के सिर पर हाथ फेरा - पर मन्‍नू तो यहां है नहीं। दिल्‍ली से बाहर गई हुई हैं।

हम लोग थोड़े निराश भाव से चलने लगे तो उन्‍होंने रोका-चलो ऊपर। उनकी कोई बच्‍चों की किताब देता हूं। वे किताब ढूंढ़ते रहे। साथ ही साथ मीठी मीठी बातें करते रहे। तब उन्‍होंने हमारा बीकानेर का पता नोट कर लिया। बाद में सचमुच कविता के नाम से किताब भी भेजी थी।

इसके बाद दो एक बार उनके घर गए थे। राजेन्‍द्र जी की बेटी रचना (टिंकी) भी मिलती वह लगभग कविता की हमउम्र थी। दोनों खेलती बतियाती रहतीं। हम दोनों बच्‍चों के बारे में या राजेन्‍द्र जी की कहानियों की बाते करते। मैंने उन्‍हें कभी अपने लेखक होने का अहसास नहीं दिलवाया; हालांकि मेरी कुछ कहानियां कुछ अच्‍छी पत्रिकाओं में छप चुकी थीं।

एक बार शाम के समय, मैं राजेन्‍द्र जी के ठिकाने अकेला जा पहुंचा। अंधेरा घिरने को था। उनके यहां खासी गहमागहमी थी। बाल कटी औरतें बड़े दीवान पर आसन जमाए थीं। कुछ मर्द थे। हो सकता है, लेखक हों। या फ़कत उनके हजबेंडज हों, जो उन्‍हें पीएच․डी․ करवाने उनके साथ लटकते हुए हुए आकर आसन पर विराजमान हो गए हों।

मुझे देखते ही राजेन्‍द्र जी जरा उखड़े हुए स्‍वर में बोले-कहिए। इस वक्‍त कैसे ? कोई फोन भी नहीं किया।

- जी, मैं थोड़ा अचकचाया, फोन के पैसे नहीं है। मैं फौरन वहां से वापस पलटा।

- नहीं नहीं थोड़ा बैठिए। यह मधुर स्‍वर मन्‍नू जी का था। वे जाकर ट्रे में पानी का गलास लेकर मेरे सामने आ खड़ी हुई। पूरी जीती जागती सौम्‍यता की मूरत मन्‍नू जी। मन्‍नू जी को मैं पहली बार बैठा देख रहा था। ओह यही हैं मन्‍नू जी। पर मन को तो पहले झटके से राजेन्‍द्र जी तोड़ ही चुके थे। मैं जल्‍दी ही, वहां से उठकर चला आया। कोई आज की या परम्‍परा शब्‍दावली में 'आतंकित होकर‘ की संज्ञा देता रहे तो देता रहे। मेरे जीवन-इतिहास में यह शब्‍द बिलकुल बेहूदा और बेकार है। हम क्‍यों किसी लेख्‍ाक से आतंकित हों। क्‍या वह आतंकवादी हैं। या मेरा अफ़सर है, जो मेरी सी․आर․ खराब कर देगा। किसी लेखक, किसी संस्‍था को सीढ़ी बनाकर ऊपर जाना मेरे तंईं धृणित सा कार्य है। इन्‍हीं कुछ कारणों से तब से मैंने कभी किसी लेखक या संपादक से मिलने की चेष्‍टा नहीं की। मेरी कहानी में दम होगा तो छप ही जाएगी। एक जगह नहीं तो दसवीं जगह। मुझे अब अपनी कहानियों को लेकर कोई मुगालता नहीं․․․․․․․․। फिर कौनसे पचड़े में पड़ गया। साहित्‍य और साहित्‍यकारों और तथाकथित सिाहत्‍यकारों को तो आने दो, उनकी बातें हरकतों की बातें तो आगे चलकर समय आने पर, खूब होंगी ही। अभी तो अच्‍छी मन भावनी बातें कर लें।

बरेली पहुंचने की बातें। चहचहाने की बातें अहा; वे दिन भी क्‍या दिन थे। मटरगश्‍ती के, बेफिक्री से भरे दिन। कहना चाहिए, निहायत शानदार बहारों के दिन। दोस्‍त बनाने के दिन। उनके साथ दौड़ लगाने के दिन। वाह दर्शी तू तो पूरा हरदर्शन सहगल निकला।

एक दिन यूं ही बंसी के पुलिया के नीचे वाले घर से धीमे धीमे कदमों से लौट रहा था। हमारे क्‍वार्टरों की लाइने शुरू हो गई थीं। एक औरत अपने क्‍वार्टर से बाहर आकर ऐसे ही ज़मीन पर बैठी थी। चेहरों को पढ़ने की आदत शुरू ही से है। मुझे उसका चेहरा बड़ा ग़मगीन लगा। मै ंएकदम उसके नज़दीक आ गया। उसने भी मेरी ओर देखा तो पंजाबी में शुरू हो गई-काके कित्‍थो (कहां से) आए हो। कित्‍थे रहंदे हो। मैं उसके हर सवाल का जवाब बड़ी शालीनता से देता रहा।

- जींदा रै। रब्‍ब लंबी उम्र दे। इसके बाद वह एक दम रूआंसी हो गई। अपने रिश्‍तेदारों या हो सकता है किसी मेरे हमउम्र बच्‍चे की याद में आंसू बहाने लगी। उन्‍होंने हमें किसी हाल का नहीं छोड़ा। बेड़ा गरक होए।

मैंने उन्‍हें तसल्‍ली दी कि यह सब, सभी के साथ हुआ है। आप अकेली के साथ नहीं। मेरी माताजी भी यही कहती हैं कि औरों को देखकर तसल्‍ली होती है। कई तो हमसे भी बुरी हालत में पहुंचे हैं। अब जो हो गया सो हो गया। जो बच गए, उन्‍हीं को देखकर हमें जीना है। दुनिया में मुसीबतें तो वैसे ही हर मकाम पर आती ही हैं। मैं भाषण देता चला गया। हालांकि आज तक मुझे साहित्‍यिक गोष्‍ठियों में ठीक से भाषण देना नहीं आता। कुछ बार तो मुझे समय का वास्‍ता देकर बीच में ही आउट कर दिया जाता है।

मगर मगर का मतलब होता है लेकिन। लेकिन, लेकिन का मतलब मुझे आज तक ठीक से नहीं आता। हमारे विद्वान अपने धारदार भाषणों के दरम्‍यान किसी लेखक की या उसकी कृति की, तारीफ करते करते बीच बीच में 'लेकिन‘ ज़रूर लगाते चलते हैं।

अब मुझे लगता है, उस छोटी उम्र से भाषण देना तो मैं जानता था, तभी तो उस प्रौढ़ महिला ने मुझसे हमारे क्‍वार्टर का नंबर पूछ लिया, जो उनकी लाइन खत्‍म होते ही अगली कतार के आखिर में था। टी-16ए।

उसी दिन शाम को या उससे अगले दिन वह सभ्रांत महिला आकर माताजी से मिली। कहने लगी तेरे जरा से काके ने तो मेरी आंखें खोल दीं। जिंदगी के उतार-चढ़ाव के बारे में बताकर मेरा मन हल्‍का कर दिया कि अब हमारे अच्‍छे दिन आने वाले हैं। सच पूछो बहनजी इस लड़के के कहने से मुझे बड़ी तसल्‍ली मिली। राहत मिली। भगवान इसको लाखों बरस की उम्र दे।

माताजी ने कहा-यह तो पागल है। समझ लो थोड़ा बड़बोला लड़का है बस। हम कहते हैं कम बोला कर। यह तो आपकी मेहरबानी है, बहन चलो नज़दीक ही रहती हो। आ जाया करो। एक दूसरे से कहने से मन के जख्‍म कुछ कम होते हैं।

बरेली में तो मेरा असली बचपन गुजरा; जो आज तक रगों में किसी संगीत की तरह झंकृत होता रहता-बरेली। बरेली। बरेली बरेली की स्‍मृतियां इतनी कि कितनी कितनी झोलियां फैलाता चला जाऊं। सिमट न पाएंगी। कोशिश करता हूं कि सिलसिले वार चलूं। फिर भी चाल कुछ बेढंगी हो जाए तो क्‍या करूं। कुछ का छिटक कर दूर जा पड़ना भी स्‍वाभाविक है।

8 नवंबर 1947 को बरेली पहुंचने का जिक्र कर आया हूं। इसके बाद जल्‍दी ही हम दोनों भाइयों ने निकट के रेलवे कॉलोनी में स्‍थित विक्‍टोरिया रेलवे (मिडल, आठवीं तक के) स्‍कूल में एक एक क्‍लास पीछे दाखिला ले लिया। यह स्‍कूल सिर्फ रेलवे के बच्‍चों के लिए ही है।

वाह क्‍या स्‍कूल था। एकदम चमचमाता हुआ। हरी हरी घास। क्‍यारियों में फूल। साथ में लौकियों, कदुओं की बेलें। सब्‍जियों के भी कुछ पौधे। क्‍या मजे़ थे। क्‍या लड़के लड़कियां थीं। यूनिफार्म का तो ठीक से ध्‍यान नहीं आ रहा पर साफ सुथरी ड्रेस में सभी बच्‍चे स्‍कूल में पहुंचते। उधर से टीचर्ज आ रहे होते। जैसे ही हैडमास्‍टर साहब, दोनों तरफ की हरी घास के बीच लाल बजरी वाली पगडंडी पर अपनी साइकिल से उतरते। मंगतू चपरासी बड़ी मुस्‍तैदी से आगे बढ़कर उनकी साइ्रकिल थाम लेता। वे बिना ज्‍़यादा इधर उधर देखे, सीधे अपने कमरे में जा विराजमान हो जाते। इधर मंगतू उनकी साइकिल को बरामदें में निर्धारित स्‍थान पर खड़ा कर देता। चाबी लगाकर, कमरे में जाकर उनके हवाले कर आता। इतने में स्‍कूल टाइम हो जाता। हम बच्‍चे पहले ही अपने अपने क्‍लास रूम में अपने अपने अलॉटिड (नियत) डैस्‍कों पर बस्‍ते रख चुके होते। डैस्‍क ऊपर से कुछ स्‍पाट, फिर थोड़े ढले हुए फोल्‍डिंग थे। जिनमें हम छुट्‌टी होने पर अपनी अपनी चीजें ताले लगाकर बंद कर आते। इनमें कापी पेंसिल कलम दवात आदि के अलावा, एक रकाबी (प्‍लेट) और गलास भी होता।

आधी छुट्‌टी होते ही हम लोगों को गलास भर दूध, दो या चार पूरियां, मौसम के अनुसार कोई सा फल मिलता। इन्‍हें खा पीकर हम अपने अपने बर्तन नल या हैंडपंप के नीचे साफ़ कर के वापस डैस्‍क में रख आते। इस तमाम नाश्‍ते की महीने की कुल फीस सिर्फ आठ आने थी। डैस्‍क की चाबी कहीं गुम न हो जाए। इसलिए में जन्‍ऊ जरूर पहनता। अपने डैस्‍क की चाबी मैंने इसी जन्‍ऊ में बांध रखी थी।

पहले ज़रा नाश्‍ते पर ही टिप्‍पणी करना चाहूंगा कि महीने में आठ आने में इतना नाश्‍ता ? यह सिर्फ इसलिए कि अंग्रेजों के राज्‍य की परम्‍परा थी कि बच्‍चों को हमेशा खुश सेहतमंद रखा जाए। अंग्रेजों को हम लाख गालियां दें लेकिन उनकी कई खूबियों का बखान में आगे चलकर करूंगा। वे तो चौथी कक्षा तक बच्‍चों को अंग्रेजी नहीं पढ़ाते थे। स्‍वतंत्र भारत में अब पहली से ही इंगलिश शुरू हो गई। स्‍वतंत्र भारत में अंग्रेजों के चले जाने के बाद; धीरे धीरे हमारे स्‍कूल का नाश्‍ता ही बंद हो गया। इससे हम बच्‍चे शायद उतने निराश नहीं हुए होंगे जितने खुद हैडमास्‍टर साहब, जो वे बड़े बड़े दूध के कढ़ाहों से सारी मलाई अपने घर भिजवा दिया करते थे। कह नहीं सकता, और कहां से, जैसे कोयले, हलवाइयों, फल फ्रूट के ठेकेदारों से कितना कमीशन लेते होंगे। लोकियां तुरियां वगैरह तो खैर अब भी कायम थीं।

एक लड़के ने, एक लौकी क्‍या तोड़ ली जैसे पूरे स्‍कूल में तूफान आ गया। उन्‍होंने पूरे स्‍कूल की सभा बुलवा डाली। उस लड़के को पास बिठाकर, खुद खड़े खड़े नैतिकता पर भाषण झाड़ रहे थे। छात्रों का व्‍यवहार, आचरण कैसा होना चाहिए, समझा रहे थे वे थोड़ा थोड़ा हकला कर बोलते थे। लो लाैकी एक लौकी की क्‍या बात है। इसने एक लौकी त्‍त्‍त तोड़ ली। वह भी बिना पूछे। एक ल लौकी की क कीमत ही कितनी होती। एक पैसा। ज्‍़यादा से ज्‍़यादा दो मान लो। लेकिन इसका मन मुफ्‍त की लौकी पर आ गया तो कोई बात नहीं। (हम सारे, बच्‍चे शायद अध्‍यापक भी मुंह छिपाकर हंस रहे थे) चलो कोई बात नहीं। मुझसे पूछते, अगर इसे शर्म आती थी तो मंगतू (चपरासी) से मुझे कहलवा देता कि वह एक लौकी घर ले जाना चाहता है।

कई दिनों तक हम बच्‍चे एक दूसरे को संबोधित करते हुए उसी लैक्‍चर की नकल उतारते रहे थे। ल․․․लौकी। एक लौकी। वह भी चोरी से तोड़ी। हाय लौकी हाय।

भारतीय प्रशासन ने इतना मजेदार शानदार और निहायत सस्‍ता हमारा दोपहर का नाश्‍ता बंद करने दिया। बाद में हम छात्रों से आठ आने की बजाए, एक रूपया या दो रूपए लिये जाने लगे। और भीगे हुए चने चने मुटि्‌ठयों में बांटे जाने लगे। हमसे ये खाए नहीं जाते थे। चुपके से कहीं गिरा देते थे। हैडमास्‍टर साहब को शायद हमारी इस नैतिकता से गिरी हरकत का भी पता चल गया।

एक दिन फिर सभा बुलाकर, अन्‍न के अपमान से जो पाप, लगता है, उस पर, और उससे ज्‍यादा भीगे चनों के फायदों पर लैक्‍चर दे मारा․․․․․․․ च चने बड़ी मुफीद नियामत है। यही चने खाने से ही घोड़े इतने हट्‌टे कट्‌टे होते हैं। तुम लोगों ने देखा ही होगा। घोड़े का कोई मुकाबला नही। घोड़े बड़े फुर्तीले होते हैं․․․․․।

उसी तरह इस बार भी हम बच्‍चे एक दूसरे को घोड़ा घोड़ा कहकर चिढ़ाते रहे-अरे भई घोड़े, ज़रा इधर तो आना।

मैं स्‍टेंडर्ड की बात करना चाहता हूं कि अंग्रेजी राज का स्‍टेंडर्ड क्‍या था और फिर देसी स्‍वदेशी शासन भी देखा। यानी अपना हिन्‍दुस्‍तानी शासन का स्‍टेंडर्ड। संक्षेप में थोड़ी तुलना देख लें। फिर वापस विक्‍टोरिया रेलवे स्‍कूल लौटेंगे।

उनके और अपने नाश्‍ते के अंतर को, आपने परख ही लिया होगा। हो सकता है कल्‍पना में चख भी लिया हो। अब चलिए रेलवे इंस्‍टीट्‌यूट घुमा लाऊं।

योरपीयन इंस्‍टीट्‌यूट में हम लोगों का जाना निषिद्ध था। शायद बता आया हूं कि उस इंस्‍टीट्‌यूट को हम दूर से बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखा करते थे। कभी कभी चोरी से खिड़कियों से झांक कर साहबों, मेम साहबों उनकी यौवन प्राप्‍त लड़कियों को स्‍कर्टस और चुस्‍त पोषाकों में झूमते डांस करते देख लिया करते थे। जबकि हमारा इंस्‍टीट्‌यूट मैला कुचैला अव्‍यवस्‍थित था। तो भी श्‍ााम को रौनक कम नहीं थी। कैरम बोर्ड, पिंगपांग, चिड़ीछिक्‍का और शायद ताश भी, इन्‍डोर गेम्‍स होते थे।

धीरे धीरे, अंग्रेज भारत छोड़ रहे थे। जब उनकी संख्‍या बहुत ही कम रह गई तो वह योरिपीयन इंस्‍टीट्‌यूट, हम लोगों को मिल गया। यानि वह वाला योरपीयन इंस्‍टीट्‌यूट 'इंडियन इंस्‍टीट्‌यूट‘ हो गया। लो कर लो बात। जैसे हमारी किस्‍मत बदल गई। परन्‍तु सचाई यही है कि किस्‍मत ने, खास तौर से हम बच्‍चों के साथ एक बड़ा मज़ाक किया था। किधर तो हम बच्‍चे, और बड़े भी, बहुत बड़े खुश हुए थे। पर देखा कि धीरे धीरे सब बड़ी बड़ी घडि़यां जो हर कमरे की दीवार से टंगी हुई थीं। एक को छोड़ कर, सब उतार ली गईं। आस पास भी वैसी की वैसी गंदगी छाने लगी जैसी कि 'इंडियन इंस्‍टीट्‌यूट‘ इलाके में थी।

तो मैं जो बात 'स्‍टैंडर्ड‘ की कर रहा था, वह स्‍पष्‍ट हो गई होगी।

न्‍याय की एक बात भी यहीं पर थोड़े में निपटा दें। देहरादून से बरेली लौटते हुए गाड़ी में मुझे एक बुजुर्ग सफेद दाढ़ी वाले सरदार जी मिले थे। बताया-पाकिस्‍तान में हमारे मुरब्‍बे ही मुरब्‍बे थे। वहां एक तरह का हमारा आतंक चलता था। मेरे भतीजे ने रंजिश खाकर किसी नौजवान का तलवार से कतल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट तक गए। फांसी की सजा बरकरार रही। अब एक ही रास्‍ता बचा था। हम राजधानी शिमला में पूरे ताम झाम डालियों के टोकरे के टोकरे रंगीन कागजों में लपेट कर अपने कई नौकरों से उठवाकर किसी तरह गोवर्नर के राज दरबार में पहुंचे-बच्‍चा ही तो है, गलती हो गई। आपसे रहम की दरख्‍वास्‍त लेकर आए हैं। उन्‍होंने हमें हकारत से देखा। हमारे लाख मनाने पर भी सारी कीमती सौगातें उठवा कर बाहर फिंकवा दीं। आखिरकार फांसी होकर रही। अब देखिए कुदरत के खेल। इधर आज़ाद हिन्‍दुस्‍तान आकर हमारा वही जिमीदारी वाला ध्‍ांधा वैसा ही चमका। हम जाट सरदारों का खून तो हमेशा गरम होता है। फिर मेरे किसी रिश्‍ते के अज़ीज ने किसी की हत्‍या कर डाली। और कुछ सौ या हजार देकर मज़े से छूट गया।

पिताजी की सुनाई हुई दो तीन घटनाएं। वे बताते थे कि वे लोग जोशोखरोश से खुश मिजाजी से लदे अपनी मेमों को गोदी में उठाए, झुलाते हुए, उन्‍हें स्‍टेशन पर 'सी अॉफ‘ करने आते थे। गाड़ी चलने से जरा पहले उन्‍हें सरे आम किस भी किया करते थे।

रावलपिंडी में एक अंग्रेज महिला किसी को विदाई देने प्‍लेटफार्म पर जा रही थी। पिताजी गेट पर खड़े थे। बिना प्‍लेटफार्म टिकट के किसी को स्‍टेशन पर प्रवेश ही नहीं करने दिया जाता था। पर आज गेट पर कोई टिकट कलैक्‍टर किसी जाते हुए को चैक नहीं करता। आती बार कभी कभी ही छापा मार कर कुछ से जुर्माना वसूल कर लिया जाता है। अरे भाई पहले जाने ही क्‍यों दिया। खैर पिताजी ने जब उस महिला से टिकट पूछा तो उसने मुंह बनाते हुए ''सारी मैं तो घर में पास भूल आई। कहा और वापस चल दी। थोड़ी देर बाद किसी ने पिताजी से कहा, ''वह तो डी․एस․ की वाइफ थी। कल तुम्‍हारी डी․एस․(मौजूदा डी․आर․एम․) के सामने पेशी होगी।

मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बल्‍कि सुनने में यह आया कि डी․एस․ ने उसे ही डांटा था-तेरे बाप की गाड़ी है। उसने अपनी ड्‌यूटी की।

एक और। एक बार एक अंग्रेज अफ़सर किसी गाड़ी से उतरा। सीधे ए․एस․एम․ के कमरे में जा घुसा। छोटे स्‍टेशन मास्‍टर से अंग्रेजी में ही बोला कि मैं इस पद का अफसर हूं। यहां एज ए इन्‍क्‍वायरी अफसर होकर आप पर लगे आरोपों की जांच करने आया हूं। ए․एस․एम․ ने बिना विचलित हुए उत्‍तर दिया- सारी सर। इस वक्‍त ट्रेनों के क्रॉसिंगका समय है। मैं बहुत बिजी हूं।प्‍वांइटस मैन से बोला-साहब को वेटिंग रूम में बिठाओ। पानी पिलाओ। और फिर काम में व्‍यस्‍त हो गया।

डेढ़ घंटे बाद जब काम कुछ हल्‍का हुआ, तब ए․एस․एम․ अपनी जगह किसी को तैनात कर वेटिंग रूम में पहुंचा। अदब से बोला-सर नाउ आई एम एट यौर डिस्‍पोजल। (अब मैं आपके हुक्‍म के लिए हाजिर हूं।)

इतना सुनते ही उस अंग्रेज अफसर ने कहा-देयर आर नो चार्जेज अगेंस्‍ट यू। केस फाइल्‍ड। तुम्‍हारे विरूद्ध तो कोई आरोप हो ही नहीं सकता। तुमने इतने बड़े अफसर की परवाह न करके, सिर्फ अपने काम की परवाह की है। तुम कोई गलती कर ही नहीं सकते।

आज के जमाने में हमारे अफसर और नेता कैसे हैं। किसी से छिपा नहीं है। ज़रा ज़रा से पार्षद, पत्रकार किन किन का नाम लूं․․․․․․․।

सिर्फ एक दृष्‍टांत। एक छोटे स्‍टेशन पर, ए․एस․एम․ को किसी नेताजी का फोन संदेश दूरदराज के इलाके से पहुंचा-नेताजी आठ वाली ट्रेन से जाएंगे। उनके आने से पहले ट्रेन रवाना नहीं होनी चाहिए। नेताजी बराबर लेट हो रहे थे और पैसेंजर बेचैन। उन्‍होंने प्‍लेटफार्म पर आकर नारेबाजी की। ए․एस․एम․ का नाक में दम कर डाला। उधर कंट्रोल फोन पर साथ के स्‍टेशनों वाले स्‍टेशन मास्‍टरों, और कंट्रोलर तक ने उसे चेतावनी देनी शुरू कर दी कि गाड़ी तुम्‍हारे अकाउंट पर लेट हो रही है। तुम्‍हें चार्जशीट मिलेगी।

आखिर बेचारे ए․एस․एम․ ने आठ बजे के स्‍थान पर, गाड़ी को पौने नौ या नौ बजे रवाना कर दिया। बाद में नेताजी आए तो बड़े आग बबूला हुए, ''तुम्‍हें देख लूंगा।‘‘ ए․एस․एम․ को चेतावनी दे डाली।

सचमुच उन्‍होंने कई वर्षों बाद, उस ए एस एम को देख लिया, जब वे रेल विभाग में कोई नेता या किसी बड़े पद पर पहुंचे। सबसे पहला नेक काम उन्‍होंने यही किया कि उस ए एस एम को सस्‍पैंड करवा दिया ․․․․․।

अंग्रेज अफसरों के पास बहुत अधिकार होते थे, जिन्‍हें वे सिर्फ न्‍याय तथा निपुण कार्यकर्ताओं के लिए इस्‍तेमाल करते थे।

एक बार किसी सिगनेलर (तार बाबू) को एक बड़े अफसर के नाम से मैसेज मिला। साहब गाड़ी में सफर कर रहे थे। गाड़ी स्‍टेशन पर पहुंचने ही वाली थी। तार बाबू ने तार के महत्‍व को समझते हएु, चपरासी को न भेज कर, स्‍वयं ही जाकर 'आफिसर कार‘ का दरवाजा ख्‍ाटखटाया। अफसर खुद ही प्रकट हुआ। तार पढ़कर पूछा- यह किसने लिखा है (किसका हैंड राइटिंग है) सिगनेलर ने कहा - सर मैंने ही इसे रसीव किया है।

- तो बैठो मेरे साथ। उन्‍होंने स्‍टेशन मास्‍टर को बुलाकर कहा- इसके घर वालों से कह देना। उसे साहब अपने साथ ले गए हैं।

बाद में पता चला। साहब ने उसे किसी बड़े पद पर प्रमोट करके अपनी ही कार्यालय में नियुक्‍त कर दिया था; कि इतने अच्‍छे हैंडराइटिंग वाला आदमी। और तार बाबू। मैं तो अपनी सारी टाइप मशीने तुड़वा दूं।

वे कहते थे। हमारा यहां पर कोई रिश्‍तेदार नहीं है एफीशेंसी (कार्य कुशलता) के आधार पर आउट अॉफ टर्न (बिना पारी वरिष्‍ठता के) हम प्रमोशन दे देते हैं।

सच, बातें और भी हैं जिन सबको लिखकर किताब को फालतू में ही मोटा नहीं करना चाहता।

हां रेवाड़ी में जब मैं सिगनेलर लगा था तो हमारे कुछ साथी एस․एस․एल․आर․ (शाहदरा सहारनपुर लाइट रेलवे) के कर्मचारी भी थे। यह और ऐसी कुछ और रेलवेज अंग्रेजों के जमाने में प्राइवेट कंपनियां चलाती थीं। रियासतों और इन रेलवेओं का भी विलय हुआ। इंडियन रेलवे में इन्‍हें शामिल कर लिया गया था। अंग्रेजों ने भारत सरकार से यह मांग मनवाई थी कि इन प्राइवेट रेलवे कर्मचारियों को कतई निकाला नहीं जाएगा। इन्‍हें अपने पूर्व पद के अनुसार इंडियन रेलवे में एडजैस्‍ट कर लिया जाएगा। और भी बातें हैं। शायद आगे चलकर आएं। इन्‍हें पढ़कर यह न समझा जाना चाहिए कि मैं अंग्रेजों के गुणगानों पर कोई अध्‍याय लिख रहा हूं। उनकी समय की पाबंदी तो जग जाहिर है। उनके अत्‍याचारों पर किताबें की किताबें खूनी अक्षरों से भरी पड़ी हैं। यह भी कि भले ही आपके पास फर्स्‍ट क्‍लास का टिकट या पास हो; आप अंग्रेज वाले डिब्‍बे में यात्रा नहीं कर सकते थे। इसकी वजह भी मैंने महसूस की। मैं अपने छोटे परिवार के साथ ग़ाजियाबाद से हरद्वार की यात्रा फर्स्‍ट क्‍लास में कर रहा था। दिन का सफर था। और कोई रेलवे फैमिली जिनके पास भी रेलवे का पास था, हमारे वाले केबिन में आ बैठे। उनके पास दूध से भरा एक बड़ा थाल था, जिसमें चीनी फूल सिन्‍दूर फुले और न जाने क्‍या क्‍या भरा था। उस थाल ने दोनों सीटों के फर्श को एक तरह से पूरा घेर लिया। आने जाने में तो हमें दिक्‍कत हो ही रही थी। साथ में असंख्‍य मक्‍खियां भी थाल के इर्द गिर्द होकर मंडराती हुई हम सबके चेहरे को खए जा रही थीं। बार बार के गाड़ी के हिचकोलों से दूध छलकता और सारे फर्श को चिपचिपा बना देता। अच्‍छी लैट्रिन की सुविधाहोते हुए भी उनके बच्‍चे इधर उधर गंदगी फैला रहे थे। हमारा सारा सफ़र कैसे बीता, हम ही जानते हैं। और आप भी खूब अच्‍छी तरह से समझ गए होंगे कि क्‍यों अंग्रेज ज्‍़यादातर हिन्‍दुस्‍तानियों को अपने निकट बरदाश्‍त, इसलिए भी नहीं करता है/था। और आज भी सुनने में आता है कि इंगलैंड में यही हालत कमोबेश मौजूद है। उनका यह 'अहं‘ कि हम राज करने वाले, और यह गुलाम आज भी कायम है ही।

अपनी गलती स्‍वीकार कर लेने वाले हिन्‍दुस्‍तानी, कर्मचािरयों को अंग्रेज अफसर सफाई से बचवा भी देते थे।

और बातें याद न आने लगें। इसलिए अच्‍छा है कि अपने अपने खेलकूद के, अपने दोस्‍तों के, विक्‍टोरिया रेलवे स्‍कूल के उन रस भरे दिनों में भाग दौड़ मचा दूं। पर समस्‍या वही है कि किसे भूलें किस याद करूं। किसे लिखूं। किसे छोड़ दूं।

यहां भी स्‍कूल टीचर्ज की आदतें, कमोबेश, कि़ला शेखुपुरा वाले मास्‍टर साहबों जैसी क्रूर थीं। अध्‍यापकों के नाम हम नहीं जानते थे। संस्‍कृत वाले पंडितजी उर्दू वाले मौलवी साहब। ड्रिल, हिन्‍दी, गणित वाले वगैरह वगैरह मास्‍साहब। यह सिलसिला लगभग डी ए वी हायर सैकेंड्री स्‍कूल तक कायम रहा। विक्‍टोरिया वाले संस्‍कृत-पंडित जी मुझे खास तौर से हकारत से देखते। और ओ पाकिस्‍तानी कहकर संबोधित करते। अंदर से मैं कितना भी घबराऊं, पर विरोध करना आज तक भी मेरे अंदर भरा है। अंततः एक दिन, तंग आकर मैंने पलटवार कर दिया। 'ओ पाकिस्‍तानी‘ सुनते ही मैंने पंडितजी को -'ओए मुसलमानी‘ ज़ोर लगाकर कह डाला। आग बबूला हो गए। आकर छड़ी से मेरी खबर ली। मार खाने के बावजूद में संतुष्‍ट था।

काली कलूची मेरी कक्षा वाली लड़की, जो सक्‍सेना साहब ए एस एम की बेटी थी और हमारे क्‍वार्टर से तीसरे क्‍वार्टर में रहती थी, ने हमारे क्‍वार्टर में आकर मजे़ ले लेकर चुगली खा डाली। माताजी से बोली-ताई ताईं, एक बात बताऊं। आज दरसन के खूब मार पड़ी। खूब मार पड़ी। मैंने उसी दम उर्मिला को पकड़ कर जमीन पर गिरा कर, दो तीन घूसे जमा दिए। सारा गुस्‍सा उसी पर निकाल डाला। वह भाग छूटी। तो माताजी ने बात पूछी। मुझे सब बताना पड़ा। पिताजी टूर से वापस लौटे तो माताजी ने उन्‍हें बता दिया। दूसरे दिन पिताजी हैड मास्‍टर साहब के कमरे में गए। इसके बाद पंडितजी ने मुझे कभी पाकिस्‍तानी नहीं कहा। बल्‍कि मेरा शुमार होशियारों में करने लगे।

ड्रिल मास्‍साहब हर वक्‍त अपनी गर्दन को नीचे ऊपर किया करते। हर शब्‍द को जैसे नाक 'उ․‘ के साथ बोलते। हैड मास्‍टर को हैंड मास्‍टर मास्‍टर। चालाक को चालांक इत्‍यादि। वे इंगलिश के अध्‍यापक न होते हुए भी, हमें समझाते कि अंग्रेज़ी कैसे बोली जाती है। जाे वाक्‍य हमें अंग्रेज़ी में बोलना होता है, तो पहले हम उसकी अंग्रेज़ी मन ही मन बना लेते हैं․․․․․․।

वे ज़रा सी भी बेढंगी परेड को बरदाश्‍त नहीं करते। क्‍लास रूम से पैंसिलें मंगवाते। उन पैंसिलों को हमारी अंगुलियों के बीच में रखते। फिर अपने पूरे जोर से हमारी अंगुलियों को दबाते। हमें 'ऊई ऊई‘ करने को मजबूर करते।

पढ़ने वालों का मन तरस आया होगा कि काश हमें भी ऐसी लाजवाब सजा मिलती। ग्राउंड के चक्‍कर भी कटवाते।

मैं उनकी नज़र में मैं एक निहायत शरीफ और साफ-सुथरा रहने वाला लड़का था। एक दिन वे हमारे नाखूनों का मुआयना कर रहे थे। हम पंक्‍ति बनाकर खड़े थे। बारी बारी से हर एक के नाखून देखकर, आगे बढ़ रहे थे। अपराधियों को उचित दंड देते हुए। जब मेरी बारी आई तो मैंने बड़ी सफाई से अंगुलियों में नाखूनों को छिपा लिया॥ वे संतुष्‍ट भाव से आगे बए़ गए। साथ के लड़के ने मेरा नाटक देख लिया। शिकायत करने के लिए 'मास्‍साब देखिए․․․․․․‘ कह ही रहा था कि मैंने झट से अपने बढ़े हुए उन्‍हीं नाखूनों से उसकी बाहों से खून निकाल दिया। अब तो वह लाइन से निकलकर शिकायत करने लगा। मास्‍साब देखइए सहगल ने मेरे खून निकाल दिया है।

ड्रिल मास्‍टर साहब ने उसी के जोर से चपत लगा दी-सहगल, और सहगल, ऐसा कर ही नहीं सकता।

इसे कहते हैं, इमेज। आप कितना ही घटिया लेखन क्‍यों न करें। मगर आपकी इमेज अच्‍छी होनी चाहिए। अगर यह इमेज है तो आपका दो कौड़ी का लेखन भी बढि़या, कहलाता है। आपके 'अपने‘ उस कविता जैसी इबारत में डुब्‍बकियां लगा लगाकर हीरे मोती चुग लाते हैं। वाह क्‍या खूब कविता है।

विक्‍टोरिया रेलवे स्‍कूल की असंख्‍य बातें हैं, जो अच्‍छी-बुरी मिलीजुली हर स्‍कूल में होती थीं, यह स्‍कूल भी शरारती चालाक लड़ाकों, गंदे शरीफ लड़कों अध्‍यापकों वाला ही तो था।

हां एक दो यादें फिर ताज़ा हो आई हैं। एक टीचर ने बताया था कि ईमानदारी की डिग्रियां/श्रेणियां सीमाएं हुआ करती हैं। हमारे स्‍कूल में प्रचलन था कि किसी भी छात्र छात्रा को कोई भी चीज ग्राउंड या और कहीं पड़ी मिले तो वह मंगतू चपरासी को दे देता। जिस का कुछ खोया होता, वह मंगतू के पास पहुंच जाता। दो एक प्रश्‍नों के बाद मंगतू वह पैसा/पैसे रबड़ पैमाने जैसी चीजे उसके हवाले कर देता।

टीचर ने कहा था कि अगर तुम्‍हें एक पैसा मिलता है तो तुम फौरन मंगतू को दे दोगे। दो पैसे एक आना भी शायद दे ही दोगे। मगर अगर कहीं पांच रूपए ही मिल जाएं तो तुम्‍हारा मन डांवाडोल हो उठेगा। दूं कि न दूं। यह वाक्‍य-दर्शन मैंने कभी नहीं भूला। वैसे अपवादों की कोई कमी नहीं।

दूसरी बात जो और मैं बताना चाहता हूं वह यह है कि एक बार हमारा स्‍काउटिंग का कैंप रामगंगा (बरेली के करीब छोटा स्‍टेशन) में लगा था। हम टेंटों में रहते थे। मैं बीमार हो गया। किसी को नहीं बताया। बुखार में भी दूर से पानी की बाल्‍टियां भर भर लाता रहा। इस बात का पता स्‍काउट मास्‍टर जी को चल गया। अंतिम दिन, अपने भाषण में मेरी प्रशंसा करते हुए मुझे चांदी का मैडल बतौर इनाम दिया।

एक और बात की प्रशंसा भी मुझे सारे स्‍टाफ से मिली। कभी किला शेखुपुरा में एक पंजाबी हास्‍य नाटक देखा था। जमादारजी।

जमादार जी, एक नौकर रखते हैं। नौकरी देने के साथ एक शर्त लगा देते हैं कि तू मुझसे जो भी बात करेगा। गा कर ही करेगा। नौकर ने यह शर्त स्‍वीकार कर ली।

जमादार जी जमादार जी

खाना हो गया तैयार जी

जमादार जी जमादार जी

आ गया अखबार जी

जमादार जी जमादार जी

ले आया फूलों का हार जी

इस प्रकार वह अपनी काव्‍य निपुणता से जमादार जी का दिल जीतने में सफल हो गया।

एक बार हुआ यह कि जमादार जी घर से बाहर कहीं दूर अपने मित्रों के साथ गप्‍पबाजी कर रहे हैं। पीछे जमादार जी के घर को आग लग जाती है। नौकर उन्‍हें ढूंढ़ता ढूंढ़ता उनके पास जा पहुंचता है।

जमादार जी जमादार जी

अग लग गई अंदर बार (बाहर) जी।

- शर्म नहीं आती। आग बुझाने की बजाए तो यहां इतनी देरी से आ पहुंचा। और बड़ी मस्‍ती से झूमझूमकर गा रहा है।

जमादार जी जमादार जी

शर्त ते (पर) करो इतबार जी।

इस नाटक का मैंने पंजाबी से हिन्‍दी अनुसार कर, दो चार लड़कों को साथ लेकर नाटक खेला था।

सब खुश। हँसी से लोट पोट। स्‍काउट कैंप खत्‍म हुआ। स्‍कूल में पहुंचकर मास्‍टर साहब ने हैडमास्‍टर साहब के सामने मेरी प्रशंसा के पुल बांध दिए कि सहगल ने वहां स्‍काउटिंग कैंप में एक लाजवाब हास्‍य नाटक कुछ लड़कों को लेकर किया था।

मुझे हैडमास्‍टर साहब के कमरे में बुलवाया गया और वापस वहीं थोड़ी सी जगह में उन्‍हीं लड़कों के साथ नाटक खेलने को कहा गया। मैंने अपने अदाकारों को बुलवा लिया।

थोड़े समय में, ज़रा सी जगह में, नाटक कर दिखाया।

नाटकर देखकर हैडमास्‍टर जी ने नाक भौं सुकेड़ ली। (मतलब बेकार बकवास) है। ऐसे थोड़े से शब्‍द कहे जिन्‍हें सुनकर हमारे मास्‍टर साहब का और मेरा चेहरा उतर गया।

ठीक इन्‍हीं दिनों किसी लेखक की कहानी गोष्‍ठी में मैंने यही कहा कि कहानी की दुनियां बड़ी विचित्र है। एक ही कहानी को एक जना उत्‍कृष्‍ट बताता है तो दूसरा एकदम बोगस। इसी तर्ज पर किसी मित्र बलदेव राज सुखीजा ने कहा था कि कोई भी आदमी आपके लिए अच्‍छा है यदि वह आपको सूट (मुआफिक) कर जाए। कहानी, कविता, नाटक की मीमांसा करना अलग बात है, पर इनका किसी पाठक दर्शक को अपील करना दीगर बात होती है।

तो मेरा ख्‍याल है कि अब हम लोग विक्‍टोरिया रानी जी को यहीं छोड़ कर दयानंद जी की शरण लें। पर ठहरिए, फिर एक छोटी सी घटना सुना देने की गुस्‍ताखी कर रहा हूं जिससे सिद्ध होता है कि जीवन में एक सी परिस्‍थिति में एक से सिद्धांत नियम लागू नहीं होते।

आठवीं में ही एक प्रकाश नामक लड़का था। पढ़ने-लिखने में अजहद नालायक। गांव का लड़का। मां बाप ने उसी छोटी उम्र में, उसकी शादी कर दी। दुल्‍हन आ गई। हम सब साथियों ने कहा - अब इसका पूरी तरह से भट्‌टा बैठ जाएगा। अब तो कभी पास भी नहीं होगा। लेकिन हुआ ठीक उल्‍टा। वही लड़का इतना होशियार हो गया, जिसकी कोई कल्‍पना भी नहीं कर सकता। आगे उसकी फस्‍र्ट क्‍लास आने लगी। कहा ना कि जीवन का कोई हार्ड एंड फास्‍ट नियम सिद्धांत नहीं हुआ करता। अब चलिए आगे। आठवीं जमाअत पास कर, मैंनेे डी․ए․वी․ स्‍कूल में दाखिला लिया था। हमारे कुछ साथियों ने सरस्‍वती देवी जी की शरण ली थी। दोनों स्‍कूल एक दूसरे से बिलकुल सटे हुए थे। अब भी शायद हैं। एक बार बीकानेर से 8/4/2000 को मोहवश बरेली के स्‍कूलों महल्‍लों, बाजारों को देखने बरेली, देखने चला गया था। शायद इस प्रसंग का विवरण आगे चलकर कुछ विस्‍तार से दूं। फिलहाल इतना ही कि नए निर्माणों से सारे रास्‍ते इस कदर सिकड़ गए हैं कि बावजूद काफी-कोशिश, अपना क्‍वार्टर टी 16ए नहीं मिल पाया। खुले मैदान में स्‍थित हमारा वह प्‍यारा स्‍कूल जैसे गलियों में जा दुबका है। वास्‍तव में ही वहां से महारानी विक्‍टोरिया जी जा चुकी हैं। अगर इन दिनों, मेरी उम्र को वापस खींच खींच कर बहुत छोटी कर दिया जाए तो मैं वहीं से नवीं दसवीं भी कर सकता हूं।

अब उसी स्‍कूल का नाम हो गया है। रेलवे हायर सैकेंड्री स्‍कूल। मैं चाहता था कि अपने स्‍कूल को अंदर जाकर देखू। मगर, हाय मगर वहां गेट पर एक शानदार लेकिन मेरे लिए बद्‌सूरत ताला झूल रहा था। स्‍कूल की छुटि्‌टयां चल रही थीं इन्‍हीं हालात से डीएवी गुजर रहा था।

मन की मन में ही रही,

बात न होने पाई।

बरेली कॉलेज पहुंचा तो वहां बड़े गेट के करीब दो तीन प्रोफेसर्ज कुर्सियां बिछाए आपस में गपशप में मशगूल थे। सहसा उनकी नजर हम पर (लेखक मित्र रतन श्रीवास्‍तव साथ थे।) पड़ी तो हमें रोका-कहां जाते हो। अंदर कोई नहीं जा सकता। इसीलिए तो हम लोग यहां बैठे हैं। अंदर एग्‍जामज चल रहे हैं

तब रतन जी ने स्‍थिति स्‍पष्‍ट की कि यह कभी यहीं पढ़ते थे। कॉलेज में थोड़ा घूमना/देखना चाहते हैं।

- ओह․․․․․․ वे थोड़े भावुक हो उठे-तो हो आइए। अगर आगे कोई पूछे तो यह बात उन्‍हें भी बता दीजिएगा। चलिए तिहाई सफलता तो मिली। पर जरा सोचिए, पुरानी जगहें जितना सुख देती है, उससे कहीं ज्‍यादा मन को द्रवित भी कर जाती हैं। बचपन कहां लौटता है। जवानी भी नहीं लौटती। और बुढ़ापा ? ऐ बुढ़ापा तू मरता क्‍यों नहीं। तूं हमें मार कर ही दम लेता है। जितनी जल्‍दी हो सके, सारे खेल खत्‍म कर दे। कभी यह बीमारी कभी वह बीमारी। अब यह आपरेशन, अब यह आपरेशन। डरते फिरो। अस्‍पतालों में बच्‍चों का सहारा लिये भटकते फिरो। जीवन-रक्षक दवाइयों को निगलते फिरो। कहो िक मैं जिंदा हूं। फिर देखते हैं; शरीर के साथ तो बीमारियां चिपकी हुई चलती हैं। कइयों को बहुत छोटी उम्र में ही बीमारियां अपाहिज सा किए देती हैं। फिर मेरी वही सोच। जीवन में सब कुछ सिलसिलेवार नहीं होता। कोई मेरे ऊंचा सुनने को, रास्‍तों और चेहरों ठीक से न पहचान पाने को, 'बड़ी उम्र का तकाजा‘ कहते हैं तो उन्‍हें मैं समझाता हूं-नहीं भाई ये सब मेरे साथ जन्‍मजात हैं। अब कुछ यादें डी․ए․वी․ कालीचरण हायर सैकेंड्री स्‍कूल बरेली की।

जैसे कि बता आया हूं कि एक ही रेलवे स्‍कूल के हम रेलवे कॉलोनी के छात्रों का जैसे पाकिस्‍तान, हिन्‍दुस्‍तान में बंटवारा हो गया। कुछ सरस्‍वती स्‍कूल में चले गए तो कुछ डी․ए․वी․ में। ऊपर से एक दूसरे को चिढ़ाते, हकारत भरे लहजे में हट सिड़यल स्‍कूल वाले। हट डिब्‍बा स्‍कूल वाले, कह कहर लताड़ते। मज़े लेते। अंदर से तो पूरी तरह से, एक दूसरे जुड़े हुए थे।

दोनों ही स्‍कूल रेलवे कॉलोनी से बहुत ज्‍़यादा दूर पड़ते थे। किसी के पास भी साइकिल नहीं हुआ करती थी। जिसके पास होती वह अमीर कहलाता। हम सब लोग साथ साथ अपने अपने क्‍वार्टर से निकलते। बस्‍ते उठाए पैदल मार्च करने लगते। रास्‍ते में विक्‍टोरिया स्‍कूल की लंबी थाेड़ी ऊंची दीवार, उसके पीछे लंबा चौड़ा मैदान पड़ता है। हम लोग उचक उचक कर दीवार से झांक लगाते। पिंकी मास्‍टर साहब यानी ड्रिल मास्‍टर साहब लड़कों से परेड करा रहे होते। हम एक दूसरे से कहते, हमारी तो बला टली। अब यह आफत इन लड़कों पर आ गई है।

तब कई लड़के एक साथ दीवार के सहारे ऊपर होकर ऊंचे स्‍वर में कहते-पिंकी मास्‍टर, अब तू हमारा क्‍या कर लेगा। रास्‍ते में बड़े बड़े इमली के पेड़ होते। मौसम में कच्‍ची पक्‍की इमली या पत्त्‍ाे भी चबाते। पाकड़ के भी बहुत बड़े बड़े पेड़ होते। जो अब बाद में मुझे और कहीं देखने को नहीं मिले। एक पाकड़ का पेड़ हमारे क्‍वार्टर के पास भी था। मैंने क्‍वार्टर के कोने में जगह खोदकर गिलों की गलो (बेल) लगाई थी। फिर किसी तरह पेड़ की ऊपर की मजबूत टहनियों पर तार बांध कर दीवार के सहारे अपने क्‍वार्टर में ले आया था। उस तार के सहारे दिनों दिनों में बेल पेड़ पर चढ़कर घनीभूत हो गई थी। उसका फोटो खींचा था। वह फोटो आज भी मेरी एलबम में मौजूद है। वाह क्‍या सीन है।

गुस्‍ताखी मुआफ करें। बहुत आगे निकल जाता हूं। पर सारी की सारी घटनाएं घनीभूत होकर एक दूसरे से सटी होती हैं। इसी लिए यह हो जाता है कि इसे अभी लिख डालो। किसे स्‍थगित करो।

हां कभी कभी हम छात्र, वर्कमैन शाप मीटर गेज ट्रेन में भी बैठ जाते। मीटरगेज मैंने जिंदगी में पहली बार ही बरेली आकर देखी थी। बहुत अच्‍छी लगती थी। हमारे क्‍वार्टरोंके एक दम पास। प्‍लेटफार्म से पुल पर चढ़कर अगले प्‍लेटफार्म पर ब्रॉडगेज आती थी।

यह वर्कमैन ट्रेने, कर्मचारियों को इज्‍़ज़त नगर पहुंचाती थीं। हम लोग बरेली सिटी स्‍टेशन पर उतर जाते और फिर लंबा रास्‍ता तय कर अपने अपने स्‍कूल के लिए चल देते। मैं कई बार अपने साथियों से कहता-रास्‍ता तो यह भी दूर ही पड़ता है। फिर ट्रेन से आने का क्‍या फायदा ?

फायदा बहुत बाद में मेरी समझ में आया। रास्‍ते में गर्ल्‍ज इन्‍टर कॉलेज पड़ता था। यह सिलसिला, बरेली कॉलेज तक भी चला था।

अब बहुत चौंकता भी हूं कि लगभग सारे लड़के कितने घटिया अल्‍फाज का इस्‍तेमाल, मिडल स्‍कूल से ही करते थे। हर तरह के विवरण वर्णन। उन्‍हें स्‍त्री पुरूष के संबंधों की पूरी जानकारी थी।

अब समझ में आता है कि यह सब क्‍यों था। एक एक कमरे के क्‍वार्टरों में बड़े बड़े परिवार गुज़र बसर करते थे। उन्‍हें रात को सब सुनाई देता होगा। कुछ कुछ दिखाई भी दे ही जाता होगा। हां याद भी आ गया। एक लड़का सब के सामने डींग मार रहा था। जीजाजी जीजी की खाट पर जा चढ़े थे। मैंने पास पड़ा सोटा उठाकर उन पर दे मारा।

हम जैसे, कुछ लड़के सुन लेते पर कुछ समझ नहीं पाते। मैं और मेरा छोटा भाई महल्‍ले में लड़कियों जैसे लड़के कहलाते थे। हां यह भी इतनी छोटी उम्र के लड़कों से कभी कभी सुनने को मिल जाता, कि फ्‍लानी लडकी ने फ्‍लाने लड़के को चिट्‌ठी लिखी है कि तुम्‍हें देखकर देखकर मैं पसीने पसीने हो जाती हूं। रात को फ्‍लाना लड़का उस लड़की की छातियां दबाकर भाग गया। लड़की हंस रही थी।

आगे चलकर डी․ए․वी․ स्‍कूल के बिलकुल सामने पड़ने वाले मकानों की लड़कियों को भी देखा। वे आधी छुट्‌टी के समय अपने दरवाज़ों में आ खड़ी होतीं। लड़के उन्‍हें एकदम भद्‌दे वाक्‍यों से पूछते-बोल․․․। वे शर्मा कर या शर्माने का नाटक कर घर में चली जातीं। लेकिन चंद मिनटों में वे फिर आ खड़ी होतीं। लड़के वही सब उगलते-बोल․․․․․ क्‍या चाहिए ? मैं लड़कों से कहता तुम लोगों को शर्म नहीं आती। ऐसा बोलते हो। इशारों से घटिया हरकतें करते हो।

वे जवाब देते सहगल तू भोला है। वे घर में जाकर वापस क्‍यों आ खड़ी होती हैं। कॉलेज में भी कोई लंबा लड़का हमारी सहपाठिनी के बारे में कुछ ऐसा ही अंटशंट बोल रहा था। तो मैं छोटे कद वाला, उछला और उसके गाल पर झापड़ लगा दिया। वह पलटवार नहीं कर सका। जानता होगा कि बात बढ़ने पर प्रिंसिपल या प्रॉक्‍टर साहब तक भी पहुंच सकती है। हां उसने गुस्‍से से मुझ यह पूछा था कि वह तुम्‍हारी क्‍या लगती है।

- कुछ भी नहीं। यहां पढ़ने वाली सब हमारी बहने हैं।

बरेली में कोई भाई साहब छोटी लाइन (मीटर गेज) के ए․एस․एम․ (असिस्‍टेंट स्‍टेशन मास्‍टर) थे। हमारे ठीक सामने के क्‍वार्टर में अपनी छोटी बहन के साथ रहते थे। प्रायः उन्‍हें दूसरे स्‍टेशन पर रिलीवर के रूप में जाना पड़ता। अकेले क्‍वार्टर में, मुझे अपनी बहन के पास रात को रहने का निर्देश या प्रार्थना कर जाते। आंगन में अलग अलग खाटों पर हम दोनों सोए रहते। क्‍या मजाल कि कभी किसी किस्‍म का जरा सा भी गलत विचार मन में पनपा हो। बहन ही तो थी। वे भाई साहब, तो उनकी बहन मेरी बहन।

मेरा यह बहनों वाला जवाब सुनकर आस-पास के सब लड़के खीं खीं करके हंसने लगे। हमारे कॉलेज के ज़माने में प्रायः छात्र छात्राएं आपस में बात नहीं किया करते थे।

चलिए थोड़ा और आगे बढ़कर फिर पीछे लौटेंगे। चंदौसी रेलवे ट्रेनिंग स्‍कूल के दौर में कभी कभी हम लड़के स्‍कूल से मंगलवार, हनुमान मंदिर चले जाते। भीड़ में खूब लड़कियां होतीं। उसी भीड़ में हमारे कुछ साथी उनकी छातियां दबाते। वे आगे निकल जातीं। फिर वही की वही लड़कियां थोड़ा चक्‍कर काटती हुई उन्‍हीं लड़कों से आ घिरतीं। यहां भी मैं विरोध करता तो यही सुनने को मिलता कि वे घूम फिर कर क्‍यों हमारे बीच आ जाती हैं। मजा लेने के लिए ना। कुछ समझा कर।

जम्‍मू या उधमपुर दोनों जगह खूब रहा। ठीक से याद नहीं आ रहा, कौन सी जगह की बात है। मुझसे बड़ी, मालिक मकान की लड़की, ताश में हारते ही पत्त्‍ाों को अपनी चोली में छिपा लेती। मैं बेबस हो जाता। पत्त्‍ाे खींच नहीं पाता। कभी कुछ उपन्‍यास पढ़ने को पकड़ा जाती। ऐसे वैसे स्‍थलों को रेखांकित किया होता। कुछ समझ कर भी समझ न पाता।

ठीक इन्‍हीं दिनों यहां बीकानेर में एक टीटीई मुझे समझा रहा था कि जितनी चाह या जरूरत हम पुरूषों को नारी की होती है। उतनी ही चाह/जरूरत औरतोें को हम पुरूषों की भी हुआ करती है। इन प्रसंगों, बातों को भले ही अब कुछ कुछ समझने लगा हाऊं। फिर भी इसके साथ यह भी सोचता हूं कि पचानवे सतानवें प्रतिशत प्रेम/विरह गीत, पुरूषों ही ने लिखकर नायिकाओं के मुंह से कहलवाए/गवाए हैं। यह पुरूषों की स्‍त्रियों के अपने प्रति आकर्षण की काल्‍पनिक गाथाएं हैं। बेचारी स्‍त्रियां अधिकांशतः कुछ कह/कर ही नहीं पातीं।

दरअसल लड़की मेरे मानस में शुरू से ही पवित्र नाजुक बहुत कोमल मन वाली सुन्‍दरता की देवी समान ही तो रही है। जब जब मैं बापों को अपनी बेटियों को डांटते डपटते, कभी कभी उन पर हाथ उठाते देखता था तो सोचता, यह कैसे बाप हैं जो देवीतुल्‍य बच्‍चियों पर अत्‍याचार करते हैं। लड़कियां कुछ गलत कर ही नहीं सकतीं। बहुत भोली होती हैं।

कभी कभी कॉलोनी की कोई लड़की मुझसे कोई प्रश्‍न पूछने या किताब लेने आती तो मैं एकदम घबरा जाता और अपने को उनके सामने इन्‍फिरिअर महसूस करता।

घर में मेरी छवि हमेशा बढि़या रही। एक लड़के ने आकर माताजी के सामने चुगली खा दी - आज मैंने दर्शन को सिटी सिनेमा के पास घूमते देखा। माताजी ने झट से उत्‍तर दिया- मुझसे पूछ कर गया था। इसी प्रकार मुहल्‍ले, स्‍कूल, कॉलेज में रेलवे में भी हमेशा मेरी शराफत का एक तरह से डंका सा बजता रहा। जिन जिन घरों में औपचारिक रूप से आज तक भी जाना होता रहा है, बस जिससे मतलब, उसी से मतलब। घर की औरतें कभी कभार बाजार वगैरह में मिलती हैं तो कहती हैं-अरे आप तो हमारे घर आए हुए हैं। आप हमारी गली से होकर ही तो फ्‍लाने के यहां जाते हैं। हैरान होता हूं कि इन्‍हें दुनियां भर की खबर कहां से रहती है। तब मैं इसे अपनी शराफत नहीं बुद्धूपन मानता हूं। अपने पूज्‍य प्रो․ डॉ․ रामेश्‍वर दयाल अग्रवाल के यहां, जब वे मेरठ कॉलेज मेरठ आ गए थे, सपत्‍नीक उनके निवास पहुंचा। तो उनकी श्रीमती जी मेरी श्रीमती जी को बताने लगीं-अरे इसे तो मैं देखते ही पहचान गई। यह लड़का बरेली में हमारे घर खूब आता रहता था। सच मैं तो गुरूआनी जी को जैसे जानता पहचानता ही नहीं था। लड़कियां तो मुझे बिगाड़ ही नहीं सकती थीं क्‍योंकि मैं अभिदा लक्षणा व्‍यंजना से एक दम नासमझ था। ओफफो कौनसा पचड़ा लेकर बैठ गया। अगर थोड़ा वापस विक्‍टोरिया स्‍कूल लौटने की इजाजत दें तो एक फन्‍नेखां प्रसंग यहीं सुना डालूं जिससे चाहता हूं कि आप मेरी कल्‍पना शक्‍ति की दाद दें।

स्‍काउटिंग कैंप में हमें अपना खाना या नाश्‍ता खुद बनाना पड़ता था। मैं एक सुबह पुरौंठा बना रहा था कि स्‍काउट मास्‍टर परौंठे की गंध से वहीं आ, ठिठक कर मेरे सामने खड़े हो गए-वाह खूब पुरौंठा बना रहे हो। हमें भी चखाओं। करारा पुरोंठा खाकर वे प्रसन्‍न हो गए। मेरी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।

घर लौटकर मैंने गदगद भाव से सारी घटना सुना डाली। तब से लेकर जरा सा भी कोई प्रसंग हो तो मैं उस घटना को यूं बयान करता हूं। जब मैं आठवीं में पढ़ता था, तो बहुत अच्‍छे पुरौंठे बनाया करता था। आगे मैंने कहानी बना रखी है। मास्‍टर साहब ने मेरे हाथ का पुरौंठा खाया था तो घर लौटकर अपनी पत्‍नी को डांट पिलाई थी कि तुझे पुरौंठे बनाने नहीं आते। देखो हमारे स्‍कूल का इतना छोटा सा लड़का गजब के पुरौंठे बनाता है। रोज रोज की डांट खाकर आखिरकार गुरूआनी जी ने मुझे अपने घर बुलाया था। और रिक्‍वैस्‍ट (प्रार्थना) की थी कि तुम कभी परौंठे मत बनाना। तब से मैंने पुरौंठे बनाने बंद कर रखे हैं। अब, जब जब मैं यह प्रसंग आरंभ करने लगता हूं- मैं जब आठवीं में पढ़ता था․․․․․․․ बच्‍चे कानों में अंगुलियां देने लगते हैं, बस बस कितने बार सुनें। जब आप आठवीं में पढ़ते थे। नयों के सामने भी नहीं सुनाने देते। यह ऊपर से लगने वाला मज़ाक, दरअसल हमारी रचनाशीलता ही हुआ करती है। जिसे लोग बाग सुन भर/या देखभर लेते हैं, वही किसी भी लेखक के लिए, प्‍लॉट बनते हैं। इसीलिए बच्‍चों की पत्र पत्रिकाओं में कुछ चित्र छापे जाते हैं कि इन्‍हें देखकर कहानी लिखो। यही दरअसल कल्‍पनाशीलता की परीक्षा होती। ऐसे कई और चित्र देखकर मैंने बच्‍चों और व्‍यस्‍कों की कहानियां लिखी हैं।

बरेली। वाह बरेली, तुझ में मैंने जीवन के मस्‍ती से भरे बहुत से दिन काटे हैं। एक एक दिन मेरे जीवन का कीमती दिन था। (बरेली पर संस्‍मरण लिखा है; 'टूटी हुई जमीन के बहाने ः बरेली‘) हुल्‍लड़ शोर शराबा। साथियों से लड़ना-झगड़ना। िफर एक हो जाना। मेरा हास्‍य संस्‍मरण संगह 'झूलता हुआ ग्‍यारह दिसंबर‘ उसमें बहुत से बरेली के संस्‍मरण है। उसमें जो नहीं है। यहां एकाध थोडे़ में सुना डालूं। पढ़ाकू आदत बचपन से ही थी। साहित्‍यकारों के नाम उनकी कृतियों के नाम तभी से रट गए थे। दुकानदारों से जाकर पूछता-चतुरसेन शास्‍त्री वृंदालाल की किताब आने वाली थीं। आई कि नहीं। कुछ किताबें किराए पर भी मिला जाया करती थीं। कोर्स में जो किताबें पढ़ाई जाती थीं, उसी विषय की अन्‍य किताबें भी कहीं से कबाड़ लाता। एक बार एक्‍नामिक्‍स के सर से कहा-मास्‍साब आपने गांव की गरीबी के छह कारण बताएं थे; जबकि सात कारण होते हैं। बताऊं ?

मास्‍साब हंसकर बोले-रहने दो। होते तो सात ही हैं। अगर मैं सातों ही बता देता तो तुम लोग सोचते/जितना मास्‍साब जानते हैं उतना हम भी जानते हैं। हम में और मास्‍साब में अंतर ही क्‍या है। और․․․․ वे जरा रूक कर बोले-और अगर तुम कोई आठवां कारण ढूंढ लाए तो कहोगे कि हम मास्‍साहब से ज्‍यादा जानते हैं।

हमारे सारे के सारे प्रोफेसर्ज बहुत ही संजीदा विद्वान थे। पूरी की पूरी किताबें जबानी रटी पड़ी थीं जो धारा प्रवाह बोलते चले जाते। अगले पीरियड की घंटी बोल जाती मगर किसी को सुनाई नहीं देती। अगले प्रो․ साहब पांच सात मिनट प्रतीक्षा करने के बाद चलते बनते। सिविक्‍स के प्रो․ साहब जिस किताब को रटे हुए थे, उस किताब का जिक्र क्‍लास रूम में कभी नहीं किया। लेकिन मैं बाजार से पता नहीं, कैसे ढूंढ लाया। वह प्रो․ केला की लिखी हुई थी। इसी प्रकार की कॉलेज की एक बात भी यहीं सुनाए डालता हूं।

रेलवे कॉलोनी तो मेरे लिए बरेली की जान थी। हम में से किसी के पास साइकिल नहीं हुआ करती थी। लेकिन साइकिल चलाने को मन मचलता था। कभी कभी हम में से कोई दो पैसे या एक आना घ्‍ांटे के हिसाब से किराए की साइ्रकिल ले आता, जिसे हम बारी बारी से चलाते। काला सुशील, ए․एस․एम․ का लड़का, हमारा सहपाठी तो उस साइकिल को ही किराए पर उठा देता जो उसके पिताजी के दोस्‍त की होती। दोस्‍त उसके पिताजी से लंबी हांक रहे होते। उन्‍हें क्‍या पता कि बाहर, जो साइकिल वे खड़ी कर आए हैं, किराए पर घूम रही है। किराए की साइकिलों से ही हमने साइकिल चलाना सीखा था। एक दूसरे को समझाते-सिखाते कि साइकिल कैसे चलाई जाती है। बस सामने देखते रहो और हैंडल को संभाले रहो। जो भी आदमी हमारे सामने से साइकिल चलाता हुआ गुजरता, हम लोग ज़रा मुंह फेरकर ऊंचे स्‍वर में पूछते-अबे हैंडिल संभालना आता है। एक बार जब मैं साइकिल चला रहा था, एक बुढि़या ठीक मेरी साइकिल के सामने पड़ गई। मैं घबरा उठा। बुढि़या भी घबरा गई- हाथ जोड़ती हुई 'नहीं‘ 'नहीं‘ करने लगी। इससे मैं अौर घबरा गया। हैंडिल डगमगा गया। और मैं साइकिल समेत उस बेचारी बुढि़या पर जा गिरा।

जब पहली बार साइकिल चलाकर कुतबखाना गया था। एक सांस ऊपर/एक सांस नीचे। दैट वाज ए वैरी एडवंच्‌यरियस डे (जोखिम भरा दिन) इन माई लाइफ।

तब से आज तक, मुझे लगता है कि मैं जिंदगी की साइकिल ही तो चला रहा हूं। आज तक जो मैं जी रहा हूं, इसका श्रेय मैं हमेशा सामने से आते साइकिल सवार स्‍कूटर, कार, ट्रक चालकों को ही दिया करता हूं, जो मुझ जैसे अपने ख्‍यालों में खोए हुए व्‍यक्‍ति को न जाने (कई बार खुद को भी थोड़ा जोखिम में डाल कर) कैसे बचा लेते हैं। सरे राहों में न जाने कितने खडे गडे उठाव चढ़ाव हैं। सांप, बैल, कुत्त्‍ाे, बीमारियां भूकंप अचानक स्‍ट्रीट लाइट्‌स का रात को गुल (बंद) हो जाना। उन्‍हीें में से तो अपनी जिंदगी की साइकिल निकाले चला आ रहा हूं। कौन ऐसा होगा, जो इस बात से इनकार करे कि वह एक बार नहीं, कई बार मरते मरते बचा। आश्‍चर्य इस बात में नहीं; कि कोई मर गया। आश्‍चर्य इस बात में है कि 'पल पल में संकट‘ में आदमी जि़ंदा कैसेे है। खैर․․․․․ बाद में हम दोनों भाइयों ने मिलकर अपनी जेब खर्चे से बचे हुए पैसों से हरकुलैस साइकिल नं․ NF 2409 रसीद नं․ 2302, 5 मई 1952 को खरीदी थी। एक दिन वह स्‍कूल ले जाएगा। एक दिन मैं कॉलेज। अगर कहीं साथ चलना होगा तो वह मुझे एक फेरा आगे बिठाकर चलाएगा। दूसरा फेरा मैं। मगर मैं साइकिल इतने धीमे चलाता कि वह आगे बैठा बैठा तंग आ जाता। कहता तेज़ चला। मैं कहता-मुझ में इतनी ताकत नहीं है। तू ही चला ले। वह कहता-नहीं। तेरी बारी है। ढंग से तेज चला। मैं कहता-चलो खूब तेज चलाता हूं पर सामने सड़क के किनाए वह फैल्‍ट पहने हुए आदमी गुजर रहा है ना; तू उसके सिर से फैल्‍ट उड़ा लेना। फिर देखना मैं तुझे हवाई जहाज की रफ्‍तार से घर पहुंचाता हूं। मुझे डर लगता है। - तो यह ले मजे। मैं साइकिल को स्‍लो साइक्‍लिनिंग रेस की मानिंद धीमे कर देता।

घर पर शिकायतों का आदान प्रदान होता।

कुछ रोज तक तो साइकिल की शानदार धुलाई पुछाई नई दुल्‍हन की तरह होती रही थी। फिर थोड़े ही दिनों बाद सफाई को लेकर झगड़ा। तू कर। तू कर। मैंने क्‍या ठेका ले रखा है। तो यह ले। साइकिल को एक करारी ठोकर। प्रतिक्रिया में दूसरे की भी उससे करारी ठोकर। हाय बेचारी साइकिल को क्‍या मालूम कि उसको क्‍यों पीटा जा रहा है। उस बेचारी का दोष क्‍या है ? दाेष इतना मात्र कि वह एक 'संयुक्‍त (सांझा) साइकिल‘ थी। लंबी गाथा है।

बाद में मैंने इसी साइकिल को लेकर दो कहानियां लिखीं। बड़ों के लिए 'बीच तूफान‘। बच्‍चों के लिए 'बच्‍चों ने राह दिखाई‘।

हम बच्‍चे मिलकर रेलवे कॉलोनी में, जब तब जी चाहता सुल्‍ताना डाकू जैसे नाटक और देशभक्‍ति के नाटक भी खेलते। दूर, आर्य समाज मन्‍दिर से अपने चार नाजुक क्‍यों कहूं , गठिले मज़बूत सिरों से भारी-भरकम तख्‍तपोश उठा लाते। स्‍टेज के लिए। सच उस ज़माने में हमें प्रोत्‍साहित करने के लिए पूरा का पूरा मुहल्‍ला आ इकट्‌ठा होता। खूब तालियां पिटतीं। नाटकीय परिधान में हमें पहचानते-अरे यह तो यह है। यह यह है। बड़े मजे लूटते। फिर तालियां।

छोटे-मोटे झगड़े बच्‍चों के बीच होना तो एक खुशनुमा मसालेदार जायकेदार मिर्चीली चाट के समान की चीज होती है, जो जल्‍द ही ज़बान से हट जाती है। एक लंबा लड़का था उसका नाम हमने हटका डाल रखा था। उससे कहते। पाकड़ की कलियां तोड़ दे। इमली इत्‍यादि तोड़ दे। मना करता तो हम चपत जड़ देते-तो साले तेरे लंबे होने का हमें क्‍या फायदा। हां ज़रा उछल के। हां ज़रा और ज्‍यादा उछल। शाबाश। सोशल फोर्स के सामने उसे आज्ञा-पालन करनी पड़ती। फिर लंबे दांत निकालकर फिसफिस करने लगता। वाह हटका।

एक लड़का लाट्री की टिकटें बेचा करता था। मन हमारा भी लाट्री-टिकट खरीदने को मचलता। क्‍या पता इससे हम भी रातोंरात लखपति बन जाएं। आज लाट्री को लेकर एक सोच बार बार प्रसन्‍न हो उठती है कि जिंदगी लाट्री खेले बिना जी ही नहीं जा सकती। लाट्री मतलब रिस्‍क। हर कदम पर हमें रिस्‍क तो उठाना ही पड़ता है। चाहे वह किसी भी प्रकार का क्‍यों न हो। इसके बिना कोई चारा नहीं। कहते हैं ना कि 'इट्‌स ए ग्रेट रिस्‍क, नॉट टु टेक एनी रिस्‍क‘। हाई वे ट्रेफिक में यदि हम रिस्‍क न उठाएं ताे कभी घर पहुंच ही न पाएं। पुरस्‍कार पाने के हम जैसे लालची, अपनी चार चार पुस्‍तकें लाट्री की तरह झोंक देते हैं। लंबे चौड़े फार्म श्रमपूर्वक भरकर रजिस्‍ट्रियां करवाते हैं। और तो और अपनी उम्‍दा कहानी या लेख भी लाट्री की मानिद अरसाल कर मारते हैं। शायद छप जाए। खैर एक रात बारह बजे पढ़ते पढ़ते सुस्‍ताने के बहाने मैं और गोविंद प्रसाद उसी लाट्री वाले लड़के के क्‍वार्टर जा पहुंचे। गर्मियों के दिन थे। ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। लोग बाग क्‍वार्टरों के बाहर खाटें बिछाए मजे़ की नींद ले रहे थे। हम उसके क्‍वार्टर के सामने जा पहुंचे। हमने उसकी चद्‌दर उठाई-लाट्री बेचे का ? वह हड़बड़ाकर उठ बैठा शायद कुछ कुछ डर भी गया कि कहीं छापा मारने वाले लोग तो नहीं हैं। हमने ग़ौर किया वह तो नरेन्‍द्र का बाप था।

- हम नरेन्‍द्र के दोस्‍त हैं।

- वह तो अंदर सो रहा है। अभी उठाता हूं।

- नरेन्‍द्र आंखे मलता हुआ, टार्च लेकर आया। हमें पहचाना-क्‍या है ?

- टिकट बेचेगा का ?

- सुबह आना। इतना कहकर वह वापस क्‍वार्टर में चला गया।

तो यह ये किशोरावस्‍था के, शरारतों से भरे दिन। ऐसी शरारते मैं आगे चलकर भी करता रहा, जो आज तक इस उम्र में भी कायम हैं। शरारतों मजाकों से मेरी जिंदगी भरी पड़ी है। सब को तो नहीं गिनवाया जा सकता। पर अब महसूस करता हूं कि अगर मैं अपनी जिंदगी से इन शरारतों मजाकों को ही निकाल दूं तो, इन 'मगरो‘ के बीच कैसे जिंदगी बसर कर पाऊं। चंदौसी रेलवे ट्रेनिंग स्‍कूल में एक लड़का, अपनी अंग्रेजी की विद्वता की बड़ी डींग मारा करता था। किसी अंग्रेजी शब्‍द का मुझसे अर्थ पूछ लो। एक दिन मैंने पूछा बिटकेकिन का अर्थ बताओं। सोच में पड़ गया। हां इसका तो मुझे ध्‍यान नहीं आ रहा। मैंने कहा-चलो कुछ तो रह ही जाता है। सैकिकोश्‍किो का अर्थ मुझे आता था। भूल गया। बता दो। कहने लगा-इसका अर्थ तो मैं भी भूल गया। तीसरे चौथे रोज फिर मैंने उसे कई लड़कों के बीच घेर लिया-ज़रा टीकम टेकियो फ्रांस का अर्थ बताना। अपनी इज्‍़ज़त बचाने के लिए उसने कह डाला यह फ्रांस का एक छोटा सा सूबा है। दूसरे ने कहा-नो नो डियर। मैंने जोग्राफी अच्‍छी तरह से पढ़ी है। वहां ऐसा कोई प्रदेश नहीं है। इसके बाद उसने डींग मारना बंद कर दिया।

हां उन कुछ मजाकों का, मुझे आज ज़रूर पश्‍चाताप सा होता है जिनसे कुछ लड़कों की भावनाएं आहत हुई थीं। वहीं ट्रेनिंग में एक लड़का था। हरनंदराम। बहुत सीधा चुपचपीता। उसकी अनुपस्‍थिति में हम सबके बीच सरनेमज को लेकर चर्चा हो रही थी कि तुम अपने नाम के साथ सहगल लगाते हो। यह शर्मा, वर्मा, उपाध्‍याय, जाफरी, कादरी वगैरह लगाते हैं। लेकिन हरनंदराम कुछ नहीं लगाता। मैंने कहा-वह इसलिए कि वह एक महान व्‍यक्‍ति है। कहता है कि ये कास्‍ट्‌स हमें राष्‍ट्रीय एक्‍ता से अलग अलग बांटती है। इसलिए हमें सरनेम का प्रयोग नहीं करना चाहिए। जिससे हम जाति-पाति में न बंट जाएं। वैसे उसका सरनेम मुझे पता है। मेरी कथा सुनकर सभी लड़के हरनंदराम के विचारों से बड़े प्रभावित हुए। फिर पूछने लगे-बता तो हरनंदराम का सरनेम।

मैंने उत्‍तर में कहा-कैटेगा।

प्रचलन के अनुसार सभी एक दूसरे से विश करते हुए हैलो त्रिवेदी, द्विवेदी, बेनर्जी कहकर हाथ मिलाया करते थे।

हरनंदराम को देखते ही-आइए केटेगा साहब का उच्‍चरण करने लगे। हैलो केटेगा साहब।

वह चिढ़ने लगा। बाद में जाकर वस्‍तुस्‍थिति स्‍पष्‍ट होने के बावजूद भी उसे सभी केटेगा ही बुलाते। इस बिगड़े हुए नाम से वह बेचारा दुःखी होता।

एक लड़के का सरनेम खन्‍ना था। उन दिनों जवाहर लाल नेहरू के पुनर्वास मंत्री भी खन्‍ना थे। वे रिफ्‍यूजियों को मकान अलॉट करते थे। उनका पूरा नाम एच․आर․ खन्‍ना यानी हंसराज खन्‍ना था। हो सकता है उस हमारे कोलीग का नाम एच․आर․ खन्‍ना रहा हो। हमें एच आर से कोई लेना देना नहीं था। बस मैं ट्रैनिंग-फैलो को, जब तब रास्‍ते में या क्‍लास रूम के बाहर बरामदे में रोक लेता। फिर हाथ जोड़कर बिनती के स्‍वर में कहता-हाय खन्‍ना साहब इक मकान तो दिलवा दें। वह नाक भौं चढ़ाकर दरगुज़र होता। मेरी देखा देखी तमाम स्‍टूडेंट्‌स भी यही कहने लगे-हाय खन्‍ना इक मकान तो दिलवा दे। तब वह होठों से बड़ बड़ जैसे ध्‍वनि निकालता फिर सबको गालियां बकने लगा। वह चिढ़ता। हम खुशी मनाते। इसके बाद हमने कोयले से दीवारों पर खास तौर से शौचालय की दीवारों पर खन्‍ना का जवाब लिख डाला ''खुद तो लैट्रिनों में रहकर गुजारा कर रहा हूं। तुम्‍हें मकान कहां से दिलवाऊं।

आज इस थोड़ी परिपक्‍वता के दौरदौरा में पश्‍चाताप सा होने लगता है मैंने ऐसा क्‍यों िकया। किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाकर हमें उसे दुःखी नहीं करना चाहिए। ऐसा नहीं कि मेरे साथ ऐसे भद्‌दे मज़ाक न किए गए हों। लेकिन अंदर से दिल कितना भी धड़कता हों, फिर भी सामने जाकर अकड़ कर खड़ा हो जाता-आ जा मैदान में। चलो दूसरों को तमाशा िदखाएं। तू पांच मार लेगा तो मैं भी दो तो मार ही दूंगा। मैं बाहें चढ़ाने लगता तो पहलवान फन्‍ने खां पीछे हट जाता-खीं, सहीं। संस्‍कृत वाले पंडित जी (मास्‍साब) का पाकिस्‍तानी वाला किस्‍सा तो सुना ही चुका हूं।

मेरा हाकी फुटबाल में थोड़ा दखल था। वालीबाल में कैप्‍टनशिप खूब की। जिसको टीम में न लो, वही खाने को दौड़े। एक बार क्‍लास मॉनीटर भी सब लड़कों की राय से चुना गया। जबकि इसमें मेरी केाई रूचि नहीं थी। हुआ यह था कि दो दबंगों के साथ अपने अपने लड़के थे। मास्‍टर साहब ने आखिर तंग आकर कहा-ऐसे में सहगल को ही क्‍यों न मनीटर बना दिया जाए। सारी क्‍लास मे एक गूंज हुई- यैस सर। यह तो सबसे शरीफ लड़का है। (मुझे गद्‌दी नहीं मिली तो न सही, उसे भी तो नहीं मिली। दोनों दावेदार संतुष्‍ट)

मगर भाई साहब! शरीफ होने से क्‍या होता है। दोनों ही बात बात पर मुझे धमकाने लगे। हमारी शिकायत करके देख। शिकायत भी कौन सुनता। बल्‍कि मास्‍टर साहब से मुझे भी यही सुनने को मिलता-तुम मनीटर हो। क्‍लास को कंट्रोल करना तुम्‍हारा काम है। इन सारी स्‍थितियों का खुलासा मैंने अपने हास्‍य संस्‍मरणों की किताब 'झूलता हुआ ग्‍यारह दिसंबर‘ में किया है 'डर का इतिहास‘ उसका शीर्षक है।

स्‍कूल से फिर एक बार अपने मुहल्‍ले कूचों की तरफ कूच करते हैं। पहले डर वाली बात ही किए देता हूं। स्‍कूल/मुहल्‍ले का एक दबंग लड़का था। उसके बारे में सुन रखा था। वह गलत कामों वाले रास्‍ते पर चलता है। एक दिन उसी दबंग लड़के ने मुझे एक क्‍लोरोफार्म की शीशी वापस पकड़ा दी। सहगल इसे तू रख ले। मैं चौथे दिन आकर, तुझसे ले जाऊंगा। मुझे डर के बावजूद वह शीशी लेनी पड़ी। और फिर उस शीशी को रसोई की छत पर रख आया। दिन गिनता रहा, जब तक कि उसेन आकर वह शीशी नहीं संभाली।

लड़के धडल्‍ले से मास्‍टर साहब के देखते, इम्‍तिहान में नकल कर रहे होते। लेकिन मैं पूछता-मास्‍साब मैं भी नकल कर लूं। नकल करने की परमिशन भला मास्‍साब अपने मुंह से कैसे देते। उन्‍होंने सुना नहीं। जब मास्‍साब चौथा या पांचवां राउंड लेते मेरे सामने से गुजरे तो मैंने कुछ ऊंचे स्‍वर में वही प्रश्‍न दोहरा दिया-मास्‍साब क्‍या हम भी नकल कर सकते हैं ? तो उन्‍होंने कहा-हम से क्‍या पूछते हो। मतलब स्‍पष्‍ट था कि जब सभी तुम्‍हारी मेरी आंखों के सामने नकल कर रहे हैं तो तुम्‍हें क्‍यों रोकूंगा।

आगे चलकर मैंने इस एहसान का बदला खूब चुकाया। मुझे एक बार रेलवे ने रेलवे भर्ती की परीक्षा देने वाले उम्‍मीदवारों की लिखित परीक्षा का अन्‍वेषक नियुक्‍त किया। कुछ नकल कर रहे थे। कुछ एक दूसरे से पूछ रहे थे। मैं अनदेखी कर रहा था। एक लड़के ने, अपने से आगे के डेस्‍क पर, बैठे लड़के की मुझ से शिकायत की कि यह बता नहीं रहा। मैंने आगे बैठे लड़के को बुरी तरह से डांट दिया-बताता क्‍यों नहीं है। नौकरी तो किसी को मिलनी नहीं है। सामान्‍य वैकेंसियां सिर्फ दो हैं। फिर भी पेपर तो अच्‍छा होने दो। शाबास हरदर्शन सहगल। जिन और दो तीन घटनाओं ने उसी उम्र में मुझे बच्‍चों की भ्‍ाावनाओं और अभिभावाकों के दायित्‍वों पर सोचने की सीख दी थी। वे यूं हैं।

अक्‍सर बच्‍चे अपने घर के हालात पर आपस में बात करते देखे जा सकते हैं। एक मेरा सहपाठी हरिशंकर हमारे क्‍वार्टर के सामने वाली लाइन में रहता था। मुझसे कहने लगा तुम्‍हारे मां बाप तो बहुत अच्‍छे हैं। मैंने उत्त्‍ार में कहा तुम्‍हारे भी तो․․․। उसने लंबी सांस खींचते हुए कहा-अगर हमारे भी अच्‍छे होते तो हम भी कबूतर उड़ा रहे होते।

-उसका उत्त्‍ार सुनकर मैं अचंभित रह गया। और सारा मामला समझ गया। ज्‍़यादातर घरों में कबूतर मुर्गियां पाली जाती थीं। मगर हरिशंकर की यह हसरत दिल के किसी कोने में दबी की दबी रह जाती; क्‍योंकि उसके पिता पंडित किस्‍म के छुआछात में विश्‍वास रखने वाले थे। हर बार हरिशंकर के तकाजों को सुनकर डपट देते। नहीं। बिल्‍कुल नहीं। हमें कबूतरबाज नहीं बनना। इसी पर वह अपने मां बाप को अच्‍छा नहीं मानता था।

दूसरा हमारा पड़ोसी लड़का, पूरा नाम भूल रहा हूं, सरनेम मनोचा था। उसके पिता बहुत सख्‍त, हर बात पर अनुशासन जमाए रहते थे। वे ड्‌यूटी टूर पर भी जाते थे। तब वह मनोचा स्‍पष्‍ट शब्‍दों में हमारे बीच बोलता था-बाप साला गया, गाड़ी में। मां को पटाना, बाएं हाथ का खेल है। अपन तो अब ऐश करेंगे। पिक्‍चर भी जाएंगे। और और․․․․․ जैसे कोई लिस्‍ट बना रखी हो।

यहीं से मेरे अन्‍दर सूक्ष्‍म रूप से 'मनोविज्ञान‘ ने जन्‍म लिया था। क्‍यों बच्‍चों के मन में अपने सगे मां बाप के प्रति द्वेष भावना जागृत होती है ? जबकि बड़े हमेशा यही कहते आए हैं कि वे हमेशा बच्‍चों के लिए जो करते हैं, वह अच्‍छा ही अच्‍छा होता है। जबकि ऐसा होता नहीं। परोक्ष रूप से बच्‍चे के अंतर्मन में अपने अभिभावकों के प्रति, अतिप्रबल गं्रथी जन्‍म ले रही होती है। इसी विषय को लेकर इन्‍हीं दिनों बच्‍चों तथा अभिभावकों को लेकर मेरा किशोरोपयोगी उपन्‍यास आया है ः 'मन की घंटियां‘। (इससे बड़े भी सबक ले सकते हैं) मेरी हालत दूसरी थी। मां बाप का फरमाबरदार बेटा। उन पर पूरा विश्‍वास।

हर जगह की तरह बरेली के महल्‍लों में भी सब्‍जी बेचने वाले आते थे। साथ में मीट मछलियों से भरी बड़ी बड़ी टोकरियां सिर पर लादे।

माताजी पिताजी दोनों किसी वजह से बरेली से बाहर थे। वे हमें बड़ी बहन जी सुमित्रा के संरक्षण में छोड़ कर गए थे।

मैं मछली लेने की जिद करने लगा। मैं दहाड़े मार कर रोने लगा- अगर माताजी होतीं तो कभी मना न करतीं। रोने की दूसरी वजह भी मेरे अंदर थी। मां बाप के लिए उदासी।

चलिए, थोड़ी देर के लिए ऐसी कुछ घटनाओं को छोड़कर आगे बढ़ते हैं। घटनाओं को कुरेद कुरेद कर याद करने की ज़रूरत ही क्‍या है। बेशक विक्‍टोरिया स्‍कूल छूट चुका है, महल्‍ला तो वही रेलवे काॅलोनी ही है। जहां हम चौमासे में आल्‍हाऊदल की वीर गाथा का आनंद लेते थे। वाह बरेली के होली के दिन। कई कई दिनों तक होली खेली जाती ः ऐसी ऐसी घटनाएं घटतीं कि बस। अतएव अपने जीते-जागते प्रसंगों का उल्‍लेख नहीं करूंगा। हां इतना कह कर विराम लूंगा कि होली के दिनों के हुड़दंग और आज की होली में, समय के साथ जबरदस्‍त अंतर आया है। पर इतना और कहना चाहूंगा - भले ही ऐसे दिन अगले के नाक में दम करने वाले दिन हुआ करते (यह कहते हुए हम लोग माफी भी मांगते चलते, ''बुरा न मानो होली है‘‘) लोगों में प्रकृतिजन्‍य सहनशीलता थी और भरपूर मस्‍ती थी। वह सब आज कहां ?

चौमासा के दिनों की मस्‍ती भरे दिनों का तो लिख ही आया हूं। फिर से अपने दोस्‍त हरिशंकर के बड़े भाई की जबरदस्‍त जीवनदर्शन की बात याद हो आई। वे बेहद पढ़ाकू थे। उस सस्‍ते जमाने में 25, 25 रूपए की पतली पतली अंग्रेजी की परामनोविज्ञानिक किताबें खरीद लाते। दिन रात उनका बारीकी से अध्‍ययन करते रहते। वे हमें बताते वास्‍तव में भूत होते हैं। मैं हर रोज़ प्रयोग करता हूं। पंडित/तांत्रिक भूतों को बुलाते हैं। उनसे भेद जान लेते हैं। यह सच है। वे पहले अपना कमरा गंगाजल अगरबत्त्‍ाी आदि से पवित्र करते हैं। तब बिनती कर उन्‍हें बुलाते हैं। बड़ी श्रृद्धा के साथ। लेकिन इसकी ज़रा भी ज़रूरत नहीं होती। मैं भी जब जिस समय चाहूं, भूतों को लताड़ पिलाकर बुला लेता हूं। गंदे स्‍टोर तक में। फिर डांट मारता हूं-अबे इधर आ। यह बता। यह बता। वे सहमते हुए सब, सवालों को जवाब दे जाते हैं। विधि आनी चाहिए विधि। इसके लिए बहुत साधना की ज़रूरत होती है। तुम लौंडे ऐसी साधना नहीं कर पाओगे। उनके स्‍वर में पूरा आत्‍मविश्‍वास टपकता था। वे पुरानी रूढ़ वादी परम्‍पराओं के घोर विरोधी एक प्रगतिशील आधुनिक युवक थे। वे झूठ कैसे बोल सकते थे। तब से मेरी रूचि परामनोविज्ञान में भी होने लगी। मैंने फ्रायड को पढ़ना शुरू कर दिया। वहां भी ऐसे जंजालों में उलझा। कहीं कहीं फ्रायड भी अंधविश्‍वासी से लगने लगते हैं। जो बात बहुत शुरू में कह आया हूं। वही सच लगती है। हमारे अपने अपने अनुभव के क्षेत्र हैं। इसीलिए हम उनसे अछूते, उन पहलुओं को झुठला देते हैं। हमें यह पता नहीं, कितने ब्रह्‌माण्‍ड कितने अजूबे हैं। हम सीमाओं के साथ पैदा होते हैं। उन्‍हीें परिवेशों सीमाओं में एक दिन इस 'अपने‘ संसार से चल बसते हैं। मैंने परमनोवैज्ञानिक कहानियां भी लिखी हैं। जिन बातों को मैं ऊपर से नहीं मानता होऊं। तभी शायद मुझ से ऐसी कहानियां भी लिखी गईं। यहां तक कि मैं स्‍वयं तक को भी एक अजूबा अबूझा प्राणी मानता हूं। यही कारण था कॉलेज में मैंने मनोविज्ञान विषय लिया था। बी․ए․ में दर्शन शास्‍त्र-जो पूरा न हो सका यानी बी․ए की डिग्री न ले पाया।

एक दिन कॉलेज से पैदल घर लौटते समय सहसा मेरी नजर एक बोर्ड पर पड़ी। लिखा था-गोवर्मेंट साइकालोजीकल ब्‍यूरो। मैं झट से दफ्‍़तर के अंदर जा घुसा। एक मि․ महरोत्रा साहब थे। दूसरे का नाम याद नहीं। तीसरे उनके इंचार्ज साहब थे जो अपने ठाटबाट वाले अलग कमरे में विराजते थे। महरोत्रा साहब ने अपनी कुर्सी से ज़रा उठकर तथा मुस्‍कराकर मुझे अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठने को कहा। मुझे लगा यह तो किसी सुनसान बंगले की तरह है, जहां कोई आता जाता न हो। मुझे अंत तक यानी कई चक्‍कर लगाने पर भी, वह नितांत शांत स्‍थान होने का आभास देता रहा था। अलबत्त्‍ाा कभी कभार कोई पिता अपने बच्‍चे को लेकर आता। या तो उनके साथ ऐसी वैसी मानसिक समस्‍या होती या उनका 'आई क्‍यू‘ Intellect auotidian (बुद्धि लब्‍धि) चैक करवाने या उनकी अन्‍य समस्‍या सुलझवाने आते, जैसे उनके स्‍वयं के दिमाग की कोई समस्‍या हो ही नहीं। परन्‍तु मेरे दिमाग की, बचपन से ही ऊल-जलूल सोचने हरकतें करने की ढेरों समस्‍याएं थीं। मैं क्‍यों हूं। ज़ुल्‍मोसितम से भरपूर यह दुनियां क्‍योंकर बनी है। मुझे क्‍या करना चाहिए, जिससे मैं भी औरों की तरह बिना सोचे, बिना किसी परवाह के सुखी रह सकूं। वरना मेरे जिंदा रहने का मकसद ही क्‍या है।

दोनों शख्‍स मुझे निहारने लगे। मुझे खुश करने के लिए हंसने लगे। ऐसे हिलमिल कर मेरे साथ व्‍यवहार कर रहे थे जैसे मुझे वे बचपन से ही जानते हों। घरेलू सा व्‍यवहार। बाद में समझ में आया कि मैं उनसे अपनी कोई भी बात न छिपाऊं, ताकि वे मुझे सही सही मार्गदर्शन दे सकें। कल फिर आना।

मैं दूसरे रोज भी जा पहुंचा। (काम को टालना आज तक मेरी फि़तरत में नहीं है) उन्‍होंने पूर्ववत्‌ गर्मजोशी से मेरा स्‍वागत किया। खूब इधर उधर की तथा परिवार संबंधी जानकारियां लीं। मैं मुखर स्‍वर में सब बताता चला गया।

(क्रमशः अगले भागों में जारी...)

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रचनाकार: हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : भाग 1
हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : भाग 1
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