सृष्टि की रचना का श्रेय ब्रह्माजी को, वहीं उसके पालनहार का श्रेय श्री विष्णुजी को और संहारक के रुप में भगवान शंकर को माना गया है. इस तरह प्...
सृष्टि की रचना का श्रेय ब्रह्माजी को, वहीं उसके पालनहार का श्रेय श्री विष्णुजी को और संहारक के रुप में भगवान शंकर को माना गया है. इस तरह प्रकृति का संतुलन बना रहता है. श्री विष्णु और श्री ब्रह्माजी अपने-अपने लोक में बडॆ ही वैभव के साथ रहते हैं ,जबकि शिव श्मसान में घूनी रमाये रहते है. वस्त्र के नाम पर उनके शरीर से व्याघांबर होता है. पूरे शरीर पर भस्म लपेटे रहते हैं. और गले में सर्पों की माला डली रहती है. उनके चारों ओर भूत-पिशाचों का जमावडा रहता है. वे पद्मासन लगाये पल-प्रतिपल राम के नाम का जाप करते रहते हैं. भययुक्त वातावरण में रहने के बावजूद भी उनके भक्तों की संख्याँ कम नहीं है. देवों के देव महादेव अपने भक्तों पर असीम कृपा बरसाने वाले देव हैं. वे जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले देवता और अपने भक्तों को मनचाहा वरदान देने के लिए जगप्रसिद्ध हैं. महाशिवरात्रि का व्रत करने से उनकी कृपा और भी सघन रुप से उनके भक्तों पर बरसती रहती है.
शिवरात्रि का अर्थ वह रात्रि है जिसका शिवतत्व के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है.या यह कहें कि शिवजी को जो रात्रि अतिप्रिय है उसे “शिवरात्रि” कहा गया है.
रात्रि ही क्यों ?
भगवान शंकर संहारशक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता हैं, अतः तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह(लगाव) होना स्वाभाविक है. रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है. उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाश का संहार, जीवों की दैनिक कर्मचेष्टाओं का संहार और अन्त में निद्रा द्वारा चेतना का ही संहार होकर सम्पूर्ण विश्व संहारिणी रात्रि की गोद में गिर जाता है. ऎसी दशा में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रिप्रिय होना सहज ही हृदयंगम हो जाता है. यही कारण है कि भगवान शंकर की आराधना न केवल इस रात्रि में ही वरन सदैव प्रदोष (रात्रि के प्राम्भ होने) के समय में की जाती है
एक बार पार्वतीजी ने जिज्ञासावश भगवान शिव से प्रश्न किया कि “शिवरात्रि” क्या होती है, उस दिन शिवाराधना से किस फ़ल की प्राप्ति होती है और उसके करने का क्या विधान है ? भगवान आशुतोष ने उत्तर देते हुए कहा
फ़ाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथि स्याच्चतुर्दशी तास्यां या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका तत्रोपवासं कुर्वाणः प्रसादयति मां ध्रुवम न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तन्नोपवासतः
अर्थात-फ़ाल्गुन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी “शिवरात्रि” कहलाती है. जो उस दिन उपवास करता है, वह मुझे प्रसन्न कर लेता है. मैं अभिषेक, वस्त्र, घूप, अर्चन तथा पुष्पादिसमर्पण से उतना प्रसन्न नहीं होता जितना कि व्रतोपवास से.
ईशानसंहिता में बतलाया गया है कि फ़ाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को आदिदेव भगवान श्रीशिव करोडॊं सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंगरुप में प्रकट हुए.
शिवरात्रि व्रत की वैज्ञानिकता तथा आध्यात्मिकता
ज्योतिष शास्त्र के आनुसार फ़ाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है. अतः वही जीवनरुपी चन्द्रमा का शिवरुपी सूर्य के साथ योग-मिलन होता है. अतः इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को अभीष्टतम पदार्थ की प्राप्ति होती है. यही “शिवरात्रि” का रहस्य है.
महाशिवरात्रि का पर्व परमात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मंगलसूचक है. उनके निराकार से साकार रुप में अवतरण की रात्रि ही “ महाशिवरात्रि” कहलाती है. वे हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि विकारों से मुक्त करके परम सुख, शान्ति, ऎश्वर्यादि प्रदान करते हैं.
ईशानसंहिता में एक आख्यान प्राप्त होता है –पद्मकप्ल के प्रारंभ में भगवान ब्रह्माजी ने जब अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज एवं देवताओं आदि की सृष्टि कर चुके, एक दिन विचरण करते हुए क्षीरसागर जा पहुँचे. उन्होंने देखा कि भगवान श्री नारायण शुभ्र, श्वेत सहस्त्रफ़णमौलि श्री शेषजी की शय्या पर शांत अधलेटे हुए है. श्रीदेवी श्रीमहालक्ष्मीजी उनकी चरण-सेवा कर रही है. गरुड, नन्द, सुनन्द, गन्धर्व, किन्नर आदि विनम्रभाव से हाथ जोडॆ खडॆ हैं. यह देखकर ब्रह्माजी को अति आश्चर्य हुआ. ब्रह्माजी को गर्व हो गया था कि कि वे ही इस सृष्टि का मूल कारण, सबका स्वामी, नियन्ता तथा पितामह हूँ. वे मन ही मन सोचने लगे कि इन्होंने मुझे आया देखकर न तो प्रणाम किया और न ही अभिवादन किया. क्रोध में वे तमतमा उठे. उन्होंने निकट जाकर कहा:- “देखते नहीं...तुम्हारे सामने कौन खडा है ? मैं जगत का पितामह हूँ और तुम्हारा रक्षक. तुमको मेरा सम्मान करना चाहिए”
इस पर भगवान नारायण ने कहा:- सारा जगत मुझमें स्थित है. फ़िर तुम उसे अपना क्यों कहते हो ? तुम मेरी नाभि-कमल से पैदा हुए हो, अतः मेरे पुत्र हो” दोनो में विवाद होने लगा. ब्रह्माजी ने “पाशुपत: और श्री विष्णु ने “माहेश्वर” अस्त्र उठा लिया. दिशाएँ अस्त्रों के तेज से जलने लगीं, सृष्टि में प्रलय की आशंका हो गयी. देवगण भागते हुए कैलाश पर्वत पर भगवान विश्वनाथ के पास पहुँचे. अन्तर्यामी शिवजी समझ गए. देवताओं द्वारा स्तुति करने पर प्रसन्न होते हुए उन्होंने कहा:-“मैं ब्रह्मा-विष्णु के बीच चल रहे युद्ध को जानता हूँ. मैं उन्हें शांत कर दूंगा. ऎसा कहकर भगवान शंकर दोनो के मध्य में अनादि, अनन्त-ज्योतिर्मय स्तम्भ के रुप में प्रकट हुए. “शिवलिंगत्योभ्दूत्यः कोटिसूर्यसमप्रभः” .माहेशर, पाशुपत दोनों अस्त्र शान्त होकर उसी ज्योतिर्लिंग में लीन हो गए.
यह लिंग निष्फ़ल ब्रह्म, निराकार ब्रह्म का प्रतीक है. श्री विष्णु और ब्रह्मा ने उस लिंग की पूजा-अर्चना की. यह लिंग फ़ाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को प्रकट हुआ तभी से लिंगपूजा आज तक निरन्तर चली आ रही है.
श्री विष्णु और श्री ब्रह्माजी ने कहा_ हे प्रभु ! जब हम दोनों, लिंग के आदि-अन्त का पता न लगा सके तो आगे मानव आपकी पूजा कैसे करेगा ? इस पर कृपालु श्रीशिव द्वादशज्योतिर्लिंग में विभक्त हो गए. महाशिवरात्रि का यही रहस्य है. (ईशानसंहिता)
द्वितीय आख्यान ----
वाराणसी के वन में एक भील रहता था. उसका नाम गुरुद्रुह था. उसका कुटुम्ब बडा था. अतः वह प्रतिदिन वन में जाक्रर मृगों को मारता और वहीं रहकर नाना प्रकार की चोरियाँ करता था. अपने माता-पिता-पत्नि और बच्चॊं ने भूख से पीडित होकर उससे भोजन की याचना की. वह तुरंत धनुष-बाण लेकर जंगल में निकल पडा. सारे दिन जंगल में भटकता रहा,लेकिन उस दिन कोई भी शिकार हाथ नहीं लगा. सूर्य भी अस्त हो चुका था. अतः जंगली जानवरों के डर से बचने के लिए एक पेड पर चढ गया.
पेड की शाख पर बैठकर वह सो भी नहीं सकता था. खाली बैठे-बैठे वह कर भी क्या सकता था? अनायास ही वह पत्तियाँ तोडते जाता और नीचे गिराता जाता था. वह कोई साधारण पेड नहीं था, बल्कि वह बेल का पेड था. संयोग से उस दिन महाशिवरात्रि का दिन था और पेड के ठीक नीचे शिवलिंग स्थापित था. अनजाने में वह पूरी रात शिवजी की पूजा करता रहा था. श्री शिवजी प्रसन्न होकर उसके सामने प्रकट हो गए और उससे वर माँगने को कहा.” मैंने सब पा लिया” कहते हुए भील उनके चरणॊं में गिर पडा. शिवजी ने प्रसन्न होकर उसका नाम “गुह” रख दिया और वरदान दिया कि भगवान राम एक दिन अवश्य ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे. तुम मोक्ष को प्राप्त होगे.वही व्याध शृंगवेरपुर में निषादराज “गुह” बना, जिसने भगवान का आतिथ्य किया. शिवरात्रि पर्व का संदेश
भगवान शंकर में अनुपम सामंजस्य, अद्भुत समन्वय और उत्कृष्ट सद्भाव के दर्शन होने से हमें उनसे शिक्षा ग्रहणकर विश्व-कल्याण के महान कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए-यही इस परम पावन पर्व का मानवजाति के प्रति दिव्य संदेश है. शिव अर्धनारीश्वर होकर भी कामविजेता हैं, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं, हलाहल पान करने के कारण नीलकंठ होकर भी विष से अलिप्त हैं, ॠद्धि-सिद्धियों के स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं, भयंकर विषधरनाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं, मस्तक पर प्रलयकालीन अग्नि और सिर पर शीतल गंगाधारा उनका अनुपम शृंगार है, उनके यहाँ वृषभ और सिंह का तथा तथा मयूर एवं सर्प का सहज वैर भुलाकर साथ-साथ क्रीडा करना समस्त विरोधी भावों के विलक्षण समन्वय की शिक्षा देता है. इससे विश्व को सह-अस्तित्व अपनाने की अद्भुत शिक्षा मिलती है
इसी प्रकार उनका श्रीविग्रह-शिवलिंग ब्रह्माण्ड एवं निराकार ब्रह्म का प्रतीक होने के कारण सभी के लिए पूज्यनीय है. जिस प्रकार निराकार ब्रह्म रुप, रंग, आकार आदि से रहित होता है उसी प्रकार शिवलिंग भी है. जिस प्रकार गणित में शून्य कुछ न होते हुए भी सब कुछ होता है, किसी भी अंक के दाहिने होकर जिस प्रकार यह उस अंक का दस गुणा कर देता है, उसी प्रकार शिवलिंग की पूजा से शिव भी दाहिने होकर (अनुकूल होकर) मनुष्य को अनन्त सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं. अतः मानव को उपर्युक्त शिक्षा ग्रहणकर उनके इस महान महाशिवरात्रि-महोत्सव को बडॆ समारोहपूर्वक मनाना चाहिए.
गोवर्धन यादव
103,कावेरीनगर, छिन्दवाडा
(म.प्र.)480001
सम्मानीय श्री रविजी
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार
आलेख प्रकाशन पर हार्दिक आभार.
आशा है, सानन्द-स्वस्थ हैं.
श्री यादवजी..बहुत ही प्रेरक प्रसंग से परिचय कराया और शिवरात्रि के महत्त्व को बताया...आपको साधुवाद....प्रमोद यादव
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