लघु कथा लिव-इन रिलेशन ... अरुण कुमार झा [ यह एक काल्पनिक कहानी है। इसके सभी पात्र , स्थान और घटनाएँ काल्पनिक हैं जिनका किसी जीवित अथवा मृत...
लघु कथा
लिव-इन रिलेशन ...
अरुण कुमार झा
[ यह एक काल्पनिक कहानी है। इसके सभी पात्र, स्थान और घटनाएँ काल्पनिक हैं जिनका किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति या किसी स्थान विशेष से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी को ऐसी किसी भी प्रकार की समानता का भ्रम होता हो तो यह एक महज संयोग हो सकता है। ]
मुझसे मत पूछिए,… हम नहीं बता पायेंगे। वह अब है नहीं, जो प्रेम के होने या न होने की तसदीक कर सकती थी। कौन जाने!... प्रेम है?… होगा?… नहीं है?… होता है?... बचपन में तो यही सुना था कि प्रेम बड़ी ऊँची चीज है। यह जीवन को जीने के काबिल बनाता है।...आसमान से भी बड़ा, रंग बिरंगी, इंद्रधनुषी परछाँई वाला । ... फिर, रुलाता क्यों है यह?
पहला वाकया तब का है जब वह पहली बार मेरे घर आयी थी और मेरे सावन के झूले पर मेरे सामने पेंग मारने बैठ गई। मैं उसे देखता रहा, … रोकने, टोकने या मना करने की बात मेरे मन में नहीं आयी। ... उसकी उमर तब छह-सात साल रही होगी और मेरी यही कोई आठ-दस साल।
दूसरा वाकया उन दिनों का है जब गाँव में आम के बगीचे में वह हमदोस्तों के साथ गिल्ली-डंडा तो कभी डोल-पात खेला करती थी। इन खेलों में जीत के लिए मेरे सिवा किसी में उसे चैलेंज करने की हिम्मत नहीं थी - ऐसा उसका मानना था गो हकीकत में हर बार बाजी मेरी हाथ से फिसल जाती और उसकी विजयी थिरकन में मैं रम जाया करता था । इन मौकों पर बड़ी शिद्दत से वह मुझे देखती थी। मुझे लगता – हार वह गई है, जीता मैं हूँ । मेरे दोस्तों की राय थी कि कैरम के खेल में मुझे हराने के लिए कौशल चाहिए । मुझे किसी ने हराया हो, याद नहीं - सिवाय उसको छोड़कर । मेरे दोस्त मुझे हारता देख हाँक लगाते, परेशान होते और जीत का सेहरा वह अपने सिर बाँध ले जाती । उसे सामने पाकर मैं अपने सारे कौशल भूल जाता, उसकी जीत को अपनी जीत मानता । ... मेरी उम्र तब पंद्रह-सोलह की होगी और उसकी यही कोई बारह-चौदह।
यह बाद की बात है ।...
हमारे वालिदैन शहर आ बसे थे। पढ़ाई-लिखाई हम दोनों की एक ही कालेज में शुरु हुई । वह मुझसे एक क्लास पीछे थी, हालां हमारा विषय एक था । जूलॉजी के प्रैक्टिकल क्लास में एक दिन उसी के उकसावे में आकर मैंने क्लोरोफार्म सूंघ लिया और मुझे आज भी यकीन नहीं है कि मैं बेहोश हुआ था । बेसब्र तो मुझे डॉ. एस. डी. भट्टाचार्य, एच. ओ. डी. जूलॉजी लगे जो उस दिन उस पर इसलिए बरस रहे थे कि मेरी जान क्लोरोफार्म सूंघने के कारण जा सकती थी । मेरी आँख कब बंद हुई ठीक से नहीं बता सकता, पर जब खुली तो उसका हाथ मैंने अपनी हथेली में पाया । वह अपने हाथ से मेरी हथेली को जोर-जोर से रगड़ रही थी और पसीना-पसीना हो रही थी। मेरा मन किया, इस बाहोशी से कभी न उबरूं ।... तब मेरी उमर चौबीस-पच्चीस रही होगी और उसकी बाइस-तेईस के आस-पास।
..... आगे के बारह-चौदह साल झिलमिलाते तारों के बीच गुजर गए । जब वह सामने होती, चाँद दिखाई पड़ता। बाकी समय तारे झिलमिलाते रहते ।
एक रोज जब मैं बिजनेस हाऊस में अपने सेक्रेटरी को डिक्टेशन दे रहा था तभी उसके नाम का विजिटिंग कार्ड दरवान मुझे दे गया और वह जैसे ही कमरे के अंदर आयी, मैं अपनी सीट छोड़कर उसकी अगवानी में लग गया हालां, मैं जानता था कि वह मेरे ही मातहत ड्यूटि करने आयी है । - “श्रीमान् मैं आपसे हिंदी में ही बोलूंगी । परिवार नियोजन के सरकारी आदेशों पर अमल करने का एक तरीका यह है कि शादी न की जाए ।” - वह जमाना संजय गांधी का था और परिवार नियोजन देश की बढ़ती जनसंख्या को कम करने का एक बेहतर तरीका प्रचारित हुआ था । जन संपर्क मेरे कर्म-क्षेत्र का अभिन्न अंग रहा है । लोगों की कथनी और करनी के बीच के फर्क को मैंने देखा-जाना और समझा है। पर यह लड़की! इसने तो सचमुच शादी नहीं की – मेरे लाख कहने के बावजूद । ... बचपन में किसी दिन उसने वायदा किया था - जब उसकी डोली सजेगी, मौर मेरे सिर पर होगा।
तकरीबन चालीस-पैंतालिस की उम्र तक वह मेरे घर बेखौफ आया-जाया करती थी । उसे सामने पाकर मुझे नूर की बारिश होने का एहसास होता । मैं सब भूल जाता - खुद को, अपनी जिम्मेदारियों को, घर- परिवार को, तमाम दुनिया को । मेरी नजरों के आगे केवल वह होती, उसके जेहन में मैं होता । मैं होता, वह होती ।
कुछ दिनों बाद…
एक छोटा बच्चा तुतलाते हुए मुझसे पूछता है – मैं आपको पापा बुला सकता हूँ?... और वह लड़की जो कभी मेरी ब्याहता नहीं रही, मुझे बताया गया, अपने बच्चे को मेरा नाम देना चाह रही है । मैं कैसे मान लूं? मेरी बात पर विश्वास भी कौन करेगा?
मामले को कोर्ट में जाना ही था, … गया भी । डी.एन.ए. टेस्ट समेत सारे तिकड़म हुए । पर यह सब होते-हवाते मेरी उम्र ढलान पार कर गई। कोर्ट ने काफी रियायतें बरतीं । पर, उस नामुराद ने मेरे मकान से दो-तीन फर्लांग की दूरी पर अपनी माँ के लिए इस दौरान एक बड़ा बंगला बनवा दिया । हमारा आमना-सामना होना अदालती कार्रवाई की ओट में पहले ही बंद हो चुका था । मैं बुझा-बुझा सा रहता । मुझसे पूछे बगैर बँगला बनवाने की बात पर मुझे गुस्सा भी आता। पर, शिकायत मैं किससे करता?
एक दिन अचानक एक खत मुझे मिला - लिखावट उसकी ही थी, कांपते-थरथराते हाथों लिखी हुई - “मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा । अब जा रही हूँ । मेरे मरने के बाद मेरा नाम लेकर एक लोटा पानी गिरा देना, मुझे तृप्ति मिल जाएगी।”
घरवालों की मनाही के बावजूद मैं उसकी श्राद्धस्थली तक गया । पंडित जी श्राद्धकर्त्ता से कुल-गोत्र पूछ रहे थे। मेरी आँखों में अचानक बाढ़ आ गई, आँसू बेलाग बहने लगे ।***
अरुण जी की कहानी महज़ लिव इन रिलेशन से ज्यादा और बहुत कुछ है वोह बचपन का प्यार किशोरावस्था का प्यार जब खेल में निपुण होते हुए भी प्रेमिका से व्यक्ति
जवाब देंहटाएंजान बूझ कर हरता है की वो प्रेमिका को सदा खुश देखना चाहता है उन दोनों के बीच एक अलौकिक प्यार
का एहसास दिलाता है ऐसे में उसका श्रध्हांजलि स्थल
पर जाना अनिवार्य था प्यार बेशक बिछुड़ जाय पर दिल
के किसी कोने में सदा रहता है बच्चे का पूंछना कि क्या मैं आपको पापा बुला सकता हूँ इस कहानी का मार्मिक हिस्सा है इतनी सुंदर कहानी केवल उन छ्णों को जिया
व्यक्ति हो लिख सकता है खैर अरुण जी को इस सुंदर
रचना के लिये बधाई और शुभेच्छा
ऐसा प्रतीत होता है कि आपको यह कहानी अच्छी लगी है | बधाई मै आपको भी देना चाहता हूँ कि आपने अपना समय इस कहानी को दिया और इसकी समीक्षा की |
जवाब देंहटाएंशुभकामनाओं के लिए आभार प्रकट करता हूँ |
-अरुण कुमार झा