पढ़े-लिखे मूर्ख बेटा पूरे परिवार की इज्जत अब तुम्हारे हाथ में है, हम तो पेट काटकर तुम्हें पढ़ा रहे है अगर तुम अपने क्लास में कम अंक लाए...
पढ़े-लिखे मूर्ख
बेटा पूरे परिवार की इज्जत अब तुम्हारे हाथ में है, हम तो पेट काटकर तुम्हें पढ़ा रहे है अगर तुम अपने क्लास में कम अंक लाए तो परिवार की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी, मणिशंकर वर्मा इन्हीं शब्दों से अपने पुत्र को प्रोत्साहित कर रहे थे․
हालांकि मणिशंकर वर्मा खूद पढ़े-लिखे क्लर्क थे पर बनना चाहते थे आइएएस, नहीं बन सके इसलिए अब अपनी महत्वाकांक्षा को तलवार बनाकर अपने ही बेटे आदित्य के गर्दन पर लटका रखा था․ आदित्य का बचपन कहीं खो चुका था, वह पहले स्कूल जाता था, स्कूल से आने के बाद कोचिंग क्लासेज के लिए जाता था, वहां से लौटने के बाद स्कूल और कोचिंग के होमवर्क करता था यानी कि अव्वल आने के लिए आदित्य के पिता ने उसे शिक्षा के भट्ठी में झोंक दिया था․
मणिशंकर वर्मा जानते थे कि आइएएस बनने के लिए किस स्तर की तैयारी की जरूरत है, उनका सपना अब आदित्य पूरा करेगा․ खेलना-कूदना आदित्य भूल चुका था․ अपने सपने को भूल कर वह पिता के सपने को पूरा करने के लिए तनावग्रस्त रहने लगा था․ मासूमियत, चुलबुलापन, बचपन की शरारतें कुछ भी आदित्य में नजर नहीं आता था․ बचपन में ही आदित्य तनावग्रस्त जीवन जीने के लिए अभिशप्त था․
मणिशंकर वर्मा कभी यह जानने की कोशिश नहीं किए कि आदित्य क्या करना चाहता है, उसका रूझान किस ओर है․ प्रतियोगिता और जीवन संघर्ष का भयावह वातावरण तैयार कर दिया था मणिशंकर वर्मा ने अपने बेटे आदित्य के लिए․ वे हमेशा अपने बेटे को कहा करते थे कि बेटे मैं तुम्हें भविष्य में आइएएस से एक इंच कम बर्दाश्त नहीं कर सकता․ मैं आइएएस नहीं बन सका इसकी भारपाई तुम करोगे, आदित्य․ लोगों को पता तो चले कि मैं भी आइएएस मेकर हॅूं․ यही मेरे जीवन का सपना है जिसे अब तुम्हें पूरा करना है․
आदित्य बेचारा क्या करता, चुपचाप सूनता था और मन ही मन सोचता काश् पापा समझ पाते और मुझे कविता और कहानियां पढ़ने देते․ तनाव के पलों में आदित्य कविता लिख कर ही कुछ चैन पाता․ कभी जब अपनी लिखी कविता आदित्य अपने पापा को पढ़ कर सुनाता, तो वे रूष्ठ हो जाते और कहते बेटा बेकार की मगजमारी मत किया करो․ कविता लिखने में कोई भविष्य नहीं, भूखो मरोगे․
आदित्य बेचैन सा हो जाता कविता के विरूद्ध बातें सुनकर․ लेकिन कविता लिखना उससे नहीं छूटता, उसे जब भी तनाव सा महसूस होता, ह्दय भारी सा लगता, वह अपनी भावनाओं को शब्दों के माध्यम से कागज में बिखेर देता․ कई कविताओं को आदित्य अखबारों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेज देता जो गाहे-बगाहे प्रकाशित भी हो जाता․
12वीं की परीक्षा में आदित्य अपने पिता के मुताबिक अच्छे नंबर हासिल नहीं कर पाया, उसे रिजल्ट देखने के बाद बहुत ही आत्मग्लानि हुई, उसने लिखा
‘‘ पापा, चाहिए तो था कि
मेरे सपने करते आप पूरे
पर अफसोस आपके सपने
कर न सका मैं पूरे ''
मौत को गले लगाने से पहले आदित्य ने यही आखिरी कविता लिखा था․ अपने एकलौते बेटे को खोकर मणिशंकर वर्मा पढ़े-लिखे मूर्ख की तरह जार-जार आंसू बहा रहे थे․
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एक पगली
कचहरी के प्रांगण में इधर-उधर भटकती वो पगली कभी दौड़ पड़ती, तो कभी गालियां बकने लगती तो कभी रोने लगती․ कचहरी प्रांगण के एक भी चेहरे उस पगली की ओर ध्यान नहीं देते बल्कि फुर्सतिया लोग उसके क्रियाकलाप से आनंदित होते․ यहां तक कि मैदान में बैठे वकीलों के टेबुल पर जा-जा कर भी वह पगली अगर कुछ बोलती तो भी वकीलों में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, सभी उसे चलता कर देते․
वो पगली कुछ देर इधर-उधर देखती और अनुमान लगाती कि कोई उस पर ध्यान नहीं दे रहा है तो वह वहां से दौड़ती हुई भागती मानों कहीं उसे तुरंत पहुंचना हो․
पगली की आवाज कर्कश हो गयी थी, गालियां जब देती तो गालीबाज मर्द भी बंगले झांकने लगते․ एक छड़ी लेकर उसे हवा में ऐसे चलाती जैसे अपने दुश्मनों के गर्दन काट रही हो․ थक जाती तो रोने लगती और किसी कोने में जा बैठती, सुसताने लगती․
बात वास्तव में यह थी कि यह पगली हमेशा से पागल नहीं थी․ कचहरी वो अपने पति के साथ आना शुरू की थी․ उसके पति पर शहर में हुए दंगा के दौरान लूट-पाट, हत्या, आगजनी का इल्जाम लगाया गया था․ उसका पति चिखता-चिल्लाता रहा कि वो बेगुनाह है, उसके खुद के झोपड़े दंगा के आग के हवाले हो चुके, पांच मुर्गियां, एक बकरी, दस चुजे आगजनी की भेंट चढ़ गए․ उसका पति जेल चला गया, उसकी पत्नी अपने पति को जेल से रिहा करवाने में अपना सबकुछ धीरे-धीरे गंवा दिया․ कचहरी जिसे न्याय का मंदिर कहा जाता है आखिर ऐसा क्यों है जहां की दीवार भी पैसा मांगती है ? वो बेचारी क्या करती, इधर-उधर बर्तन मांज-धोकर जो भी कमाती वकील और मुंशी के चरणों में अर्पित कर देती․ वकील और मुंशी उसे लगातार यह कहते रहे कि उसका पति रिहा हो जाएगा परंतु आठ-दस साल तक मूकदमा लड़ते-लड़ते हो चुके पर पति की रिहाई की कोई सूरत नहीं निकली बल्कि उसके पति को दंगा भड़काने, हत्या, आगजनी जैसे सभी इल्जामों में युक्त पाया गया․ शहर के दंबग लोग और छुटभई नेतागण मूकदमें से रिहा कर दिए गए, फंसा रह गया तो पगली का पति और उसके जैसे बिना रसूख वाले लोग․
अपने पति को जेल से रिहा न कर पाने को दिल पर ले लिया था उस औरत ने․ पति जेल गया, झोपड़ा जल गया, रहने के लिए घास-फूस का झोपड़ा हालांकि उसने डाल लिया था पर जब पति को जेल हो गयी तो उस औरत ने अपने झोपड़े में रहना छोड़ दिया और कचहरी के प्रांगण को ही अपना घर समझ लिया था․ वहीं रहती, दौड़ती-भागती, चिल्लाती, गालियां बकती और रात को कचहरी के बाहर फुटपाथ के किसी कोने पर सिमटी-दुबकी पड़ी रहती․
बहुत दिनों तक वह पगली अपना हाल बेहाल किए कचहरी प्रांगण में नजर आती रही फिर एक दिन अचानक सर्द जाड़े की रात में वह पगली फुटपाथ के एक कोने में गठरी में तब्दील हो गयी․ कचहरी प्रांगण की रौनक बदस्तूर वही है․ कचहरी प्रांगण के किसी भी चेहरे पर पगली के गठरी में तब्दील हो जाने के बाद शिकन तक नहीं․
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लगभग आत्महत्या
बात बहुत पुरानी नहीं है․ अवर न्यायाधीश के पद पर कोई एकाध वर्ष हुआ होगा वे आसीन हुए थे․ धुन के बड़े पक्के और समय के पाबंद․ लोग उनके इजलास में आने के समय से अपनी घडि़यां मिलाते थे․ पेशकार, अरदली, चपरासी सभी जानते थे कि अगर समय के पाबंद वे न हुए तो साहब उन्हें कारण-पृच्छा नोटिस कर देंगे लिहाजा सभी समय से न्यायालय में हाजिर होते․
उन दिनों अवर न्यायाधीश महोदय एक दीवानी मुकदमे की दलीलें सुन रहे थे․ चालीस एकड़ जमीन का मुकदमा था․ दोनों पक्षों के वकील अपनी दलीलें पेश कर चुके थे․ अब उन्हें निर्णय देना था․
अपने आवासीय कार्यालय में बैठे साहब सोच रहे थे, ईश्वर का न्याय भी कितना विचित्र है․ जिस मुकदमें में उन्हें निर्णय देना है उसके पक्षकारों के पास चालीस एकड़ जमीन है जिसकी कीमत करोड़ों में है और एक मैं हॅूं जो सब-जजी में केवल परिवार का पेट पाल रहा हॅूं․ गांव का जीर्ण-क्षीण पैतृक मकान कब से मरम्मत की गुहार लगा रहा है․ मर्णिका, उनकी बेटी शादी के लायक है․ पिताजी का बाइपास सर्जरी करवाना निहायत आवश्यक है․ माँ कब से पिताजी के साथ चारों धाम की यात्रा और पत्नी अपने जन्मदिन पर हर वर्ष सोने के कंगन की रट लगा रही है․ सब के लिए धन चाहिए पर वेतन से सबकुछ करना संभव नहीं․
धीरे-धीरे लोभ पांव पसारने लगा․ मन में विचार आया कि क्यों नहीं निर्णय के एवज में एक पक्षकार से कीमत वसूली जाए․ उन्होंने दोनों पक्षकारों के वकीलों को टटोला․ मुद्दई के वकील कीमत देने से साफ इंकार कर दिया परंतु मुदालय पक्ष के वकील मुकदमें में जीत हासिल करने की कीमत पचास हजार देने को तैयार हो गए․ मुदालय पक्ष निर्णय से पहले ही गांव में अपनी जीत का जश्न मना रहे थे․ निर्णय हुआ और मुद्दई जीत की कीमत नहीं देने के कारण मुकदमा हार गया․
मुद्दई हारने के बाद कलप-कलप कर इजलास के बाहर रोने लगा और न्यायाधीश महोदय को सुना कर इतना ही कहा कि हुजूर न्याय की कुर्सी पर न्यायाधीश परमेश्वर होता है, गलत फैसला करना उपरवाले की अदालत में पाप है जिसका दंड़ भुगतना पड़ता है और वह चला गया․
गैरकानूनी निर्णय देने के एवज में लिए गए रकम का अभी इस्तेमाल भी नहीं कर पाए थे न्यायाधीश महोदय कि उनका एकलौता बेटा पीलिया रोग से ग्रसित हो गया और रूपया पानी की तरह बहाने के बाद भी उसे बचाया नहीं जा सका․ एकलौते बेटे की लाश पर दहाड़ मारकर गिर पड़े न्यायाधीश महोदय और मूर्च्छित हो गए․ होश आने पर अपने एकलौते बेटे की लाश से लिपट गए․ बेटे के क्रियाकर्म करने के बाद जब न्यायाधीश महोदय अपने डयूटी पर लौटे तो अर्द्धविक्षिप्त से हो गए थे․
डयूटी खत्म होते ही घर जाना छोड़कर श्मशान घाट में स्थित काली माँ के मंदिर में जा बैठते, मद्यपान करते और जलती चिता के ज्वाला को अपलक देखते रहते․ इजलास में मुकदमों की कार्रवाई देखते-सुनते पर निर्णय देना अब उनके बस की बात नहीं रह गयी थी․ मद्यपान इतना अधिक करने लगे थे कि मानो दुनिया को मद्यपान के नशे में भूल जाना चाहते हों․ बामुश्किल दोएक महीना बीता होगा कि वे खुद बीमार पड़ गए, बाल-दाढ़ी दोनों ही बढ़ चुकी थी․ चिकित्सकों ने जांच के बाद उन्हें लीवर सिरोसिस से ग्रसित पाया․
अस्पताल में भर्ती करवाए गए․ राज्य भर के न्यायालयों में साथी न्यायाधीशों ने उनके इलाज के लिए चंदा इकट्ठा कर उनकी पत्नी को दिया परंतु वे ज्यादा दिन बच नहीं पाए और उनका पुत्र-वियोग में देहांत हो गया․ इतने कम दिनों के घटनाक्रम में उन्होंने जो भी किया उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे बीमारी से नहीं मरे बल्कि उन्होंने लगभग आत्महत्या ही किया था․
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा
गिरिडीह-815301
झारखंड़
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