युवावर्ग और रचनात्मकता एक दूसरे के पूरक हैं , युवा संरक्षक है तो रचना अथवा साहित्य विरासत/धरोहर। भारतीय समाज में इस साहित्यिक विरासत...
युवावर्ग और रचनात्मकता एक दूसरे के पूरक हैं, युवा संरक्षक है तो रचना अथवा साहित्य विरासत/धरोहर। भारतीय समाज में इस साहित्यिक विरासत का विशेष महत्व प्रारम्भ से रहा है। भारतीय समाज को साहित्यिक पाठशाला कहा जाता है। इसी पाठशाला से दीक्षित होकर बच्चा बड़ा होकर हिन्दी साहित्यिक रचनात्मकता से जुड़ जाता है। वह समझ जाता है कि साहित्यकार समाज अथवा युग की उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकि साहित्यकार की दृष्टि में साहित्य ही अपने समाज का स्वर और संगीत होता है। इसी उद्देश्य को जीवन्तता प्रदान करने के लिये वह लेखन से जुड़ जाता है। यही लगाव रचनात्मकता और पुस्तक संस्कृति की विरासत बन जाता है। वर्तमान समय में भी युवावर्ग की जुडा़व रचनात्मकता से है। रचनात्मकता की कई विधायें हो सकती है परन्तु मैं हिन्दी साहित्य के परिपेक्ष्य में विचार साझा कर रहा हूं। आधुनिक व्यावसायिकता की दौर में युवावर्ग का हिन्दी लेखन से मोहभंग हो रहा है क्योंकि हिन्दी रचनाकारों को वह सब कुछ यानि शोहरत और दौलत नहीं मिल रहा है, सम्भवतः जो अंग्रेजी के लेखकों को मिल रहा है।
यही वजह है कि युवावर्ग को हिन्दी साहित्य लेखन आकर्षित नहीं कर पा रहा है। कुछ उत्साही युवा हिन्दी साहित्य से जुड़ने का जोखिम उठा रहे है,जिसके कारण वर्तमान समय में पुस्तक संस्कृति जीवित है। पुस्तकें भी छप रही है परन्तु आलमारी में सजने तक ही समिति है। इसके कई कारण है वर्तमान समय दूरसंचार क्रान्ति का दौर है,युवावर्ग अर्न्तजाल के गिरफ्त में है,पाठकों की कमी है। दूसरी तरफ वैश्वीकरण एवं भूमण्डलीयकरण के वर्तमान दौर में सामाजिक ,सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्य झंझावतों के शिकार हो गये हैं। युवावर्ग नैतिक मूल्यों एवं पढ़ने की आदत से दूर,अनिश्चितता तथा बेचैनी के दौर से गुजर रहा है। सामाजिक तथा चारित्रिक मापदण्डों में भी बदलाव आने लगे हैं। ऐसे समय में विवेकानन्दजी की सोच-हमें ऐसी शिक्षा-दीक्षा की आवश्यकता है, जिससे चरित्र-निर्माण हो,मानसिक शक्ति बढ़े, बुध्दि विकसित हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे और शिक्षा पुस्तक संस्कृति ही दे सकती है। यह तभी सम्भव होगा जब युवावर्ग हिन्दी साहित्य और पुस्तक संस्कृति के महत्व को समझेगा और कल्पनाशीलता और रचनात्मकता के साथ साहित्य सृजन से जुड़ेगा।
युवा वर्ग में बढ़ती हिंसक प्रवृति पर विचार करने पर यह जरूर उभर कर आता है कि युवा वर्ग/छात्रों का साहित्यिक पुस्तकों से दूर जाना अथवा दूर रखने में संयुक्त परिवार की टूटन और रिश्तों में सिकुड़न काफी हद तक जिम्मेदार हैं। कुछ दशक पूर्व बच्चे दादी-दादी,नाना-नानी एवं नजदीकी रिश्तेदारों के सान्निध्य में पलते बढ़ते और पढ़ते थे। आज बच्चों को न लोककथाओं पर आधारित कहानी किस्से एवं लोरियां सुनने को मिल रहे हैं और ना ही पारम्परिक खेल खिलौने की वस्तुयिं। वर्तमान दौर में हिन्दी की उपेक्षा देश की उपेक्षा है। आजादी के बाद हिन्दी की जो राजनैतिक स्तर पर जो दुर्दशा हुई है,वह तो जगजाहिर है,इसके बाद भी हिन्दी विश्वपटल पर ग्राह्य हुई है परन्तु हिन्दी को अपने ही देश में राष्ट्रभाषा होने का अधिकारिक दर्जा नहीं प्राप्त हुआ है । संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषाओं में शामिल करना विश्वस्तरीय संगठन संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा किया जाना है। देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का अधिकारिक दर्जा न मिलना सचमुच आश्चर्य का विषय है। यह हिन्दी लेखन एवं साहित्य से विमुख करने का कारण भी है।
भारतीय समाज की रचनात्मकता आदिकाल से ही सम्वृद्ध है,इस साहित्यिक सम्पन्नता के उदाहरण के तौर पर पौराणिक कथायें और ग्रन्थ है। भारतीय साहित्य में आजादी के आन्दोलन के प्रारम्भिक काल से साहित्यिक संगठनों को बढावा मिला क्योंकि संगठनों के माध्यम से भारतीय समाज ,राष्ट्रीय एकता और गुलामी की जंजीरे तोड़ने के लिये लेखक निडर लिख रहे थे और उनका साहित्यिक योगदान भारतीय मानव-मन को स्वाभिमान की आक्सीजन से उत्साहित कर उर्जावान बना रहा था । आजादी के दीवाने विजय पथ पर निरन्तर आगे बढ़ रहे थे । कहा जाता है कि तलवार से अधिक ताकतवर कलम होती है। इस मान्यता में विश्वास रखने वालों ने साहित्यिक संगठनों को मजबूत कर स्वराज के लिये खूब लिखा और काल के गाल पर अमर हुए । भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रारम्भ से आजादी के बाद तक साहित्यिक योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । नामचीन लेखकों को छोड़ दिया जाये तो और भी ऐसे अनजान युवा लेखक आजादी के लिये लेखनी की ताकत देश पर न्यौछावर किये, वे तमिल, मराठी, बंगाली, गुजराती ,पंजाबी या अन्य भाषा-भाषी होकर भी संगठनात्मक रूप से जुड़े रहे और उन्हें हिन्दी आजादी के भाषा और राष्ट्र की भाषा के रूप में मान्य थी परन्तु व्यावसायिककरण के इस दौर में हिन्दी साहित्य हाशिये पर आ चुका है,जिसके लिये प्रकाशक,पाठकभारतीय समाज और सरकारें जिम्मेदार है।
भारतीय समाज में अनेक युवा लेखन कर रहे हैं परन्तु हिन्दी लेखन से युवावर्ग का जुड़ाव कम होता जा रहा है। जाहिर है बिना वजह यह नहीं हो रहा है,इसके पीछे कई कारण भी है। वर्तमान शिक्षा पद्धति जो अंग्रेजी को पोषित कर रही है,को प्रमुख कारण माना जा सकता है। इस कारण हिन्दी लेखन के प्रति युवावर्ग का जुड़ाव कम हो रहा है। इसे हिन्दी भाषा और साहित्य पर अतिक्रमण के रूप में देखा जाना चाहिये। पाश्चात्य प्रवृति की बढ़ती देखा-देखी के अनुसरण के कारण रहन-सहन,आचार-विचार के साथ ही हिन्दी साहित्य को भी हाशिये पर रख दिया है,इसमें बड़ी भागीदारी युवावर्ग की है। कैरिअर में बढ़ती प्रतिस्पर्धा भी कारण है परन्तु माता मातृभूमि और मातृभाषा को रोजगार के तराजू पर तौलना उचित तो नहीं लगता। कई भाषाओं में विशेषज्ञता हासिल करना विद्वता की परिचायक है परन्तु स्वयं की मातृभाषा-राष्ट्रभाषा को नजरअंदाज कर देना आर्थिक एवं दिखावे की पाश्चात्य सांस्कृतिक सम्पन्नता का द्योतक तो हो सकता है परन्तु राष्ट्र और राष्ट्र भाषा के प्रति न्याय तो नहीं कहा जा सकता। इसके लिये दोषी कोई और नहीं भारतीय शिक्षा पद्धति और नीतियां ही है। अंग्रेजी को रोजगार की भाषा घोषित कर देने की वजह से अंग्रेजी शिक्षा की ओर रूझान इतनी बढ़ गया है कि हिन्दी पद्धति से शिक्षा प्राप्त युवा स्वयं को पिछड़ा हुआ पाता है। यकीनन इस वजह से हिन्दी साहित्य से युवावर्ग का मोह शनै-शनै कम होता जा रहा है।
रचनात्मकता अथवा लेखन की जहां तक बात है युवा वर्ग जिस भाषा में शिक्षा प्राप्त करता है,उनकी विचार प्रक्रिया,रचनात्मकता,सृजनात्मकता क्षमता उसी भाषा में कुसुमित होने लगती है। बोलचाल की भाषा हो या लेखन की सामान्यतः अपनी मातृभाषा में ज्यादा अनुकूलता के साथ व्यवहार सम्भव होता है। हिन्दी भाषा सम्पन्न एंव विश्वबन्धुत्व की भाषा है,ऐसा कदापि नहीं है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में योग्यता की कमी है परन्तु अंग्रेजी को सिरमौर्य साबित करने का प्रयास ही घातक साबित हो रहा है। इसी वजह से पठन-पाठन की रूचि में कमी आने लगी है। संक्षेप में कहा जाये तो इसके लिये भारतीय समाज,प्रकाशक और काफी हद तक इसके लिये सरकारें जिम्मेदार हैं। आज युवावर्ग अपने भविष्य को लेकर ज्यादा चिन्तित है,इस चिन्ता को घोटालेबाज और बढ़ा रहे है, मध्य प्रदेश का पी․एम․टी․फर्जीवाड़ा इसका ज्वलन्त उदाहरण है,पी․एम․टी․के फर्जीवाड़े के जिम्मेदारों को फांसी की सजा भी कम लगती है। इस तरह के फर्जीवाड़े युवावर्ग के सामने संकट पैदा कर देते है। युवावर्ग कैसे रचनात्मक कार्यों से जुड़ सकेगा कहीं ना कहीं भारतीय समाज भाषा,जाति,क्षेत्र एवं अन्य मुद्दों से जुड़े रहकर युवावर्ग को दिशाहीन बना रहा है। लेखन एवं साहित्यिक पुस्तक संस्कृति की ओर न उत्प्रेरित कर भटकाव पैदा कर रहे हैं।
होना तो ये चाहिये कि रोजगारोन्मुखी शिक्षा के साथ युवावर्ग को साहित्यिक,सांस्कृतिक एवं नैतिकमूल्यों को पोषित करने वाली पुस्तकें पढ़ने के लिये प्रेरणा दी जानी चाहिये,ऐसा नहीं होने की उपज ही तो है अनाथ आश्रम,वृद्धाश्रम एवं अन्य उद्धारगृह। आज रंग बदलते परिवेश में सब कुछ कैरिअर के ऐनक से देखा जा रहा है। जैसाकि मान्य है कि साहित्य में अन्य क्षेत्रों की तुलना स्थापित होने में ज्यादा समय लगता है क्योंकि यहां भी कुर्सी मोह पालथी मारे रहता है,सम्भवतः इसलिये भी युवावर्ग इस ओर ध्यान देने की बजाये दूसरे क्षेत्रों की चकाचौध की तरफ सरपट भागने लगा है।
वर्तमान में साहित्य क्षेत्र भी बाजारवाद एंव स्वार्थ की भेंट चढ़ चुका है। लेख है कि लीक से हटना भी नहीं चाह रहे हैं। इन ढेर सारी मुश्किलों के बाद भी हिन्दी साहित्य वीरान नहीं हुआ है,अभी भी सम्वृद्ध एवं सम्पन्न है परन्तु इसे युवावर्ग के साथ की जरूरत है और युवावर्ग को समर्थ हिन्दी रचनाकारों के सहयोग की तभी युवावर्ग हिन्दी रचनात्मकता को नया क्षितिज प्रदान कर जीवन्तता प्रदान कर सकेगा। वर्तमान में अनेक युवालेखकों द्वारा रचनात्मक हिन्दी साहित्य लिखा जा रहा है परन्तु उन्हें मंच नहीं मिल रहा है,उनकी पुस्तकों को प्रकाशक नहीं मिल रहे,प्रकाशक मिल रहे हैं तो लेखक से पूरी कीमत वसूल रहे है,यह जोखिम हर लेखक उठा नहीं सकता है,अखबारों में हिन्दी साहित्यिक पन्ने खत्म हो गये हैं या नहीं के बराबर हो गये हैं परिणाम स्वरूप पाठकों तक पुस्तकें/रचनायें पहुंच नहीं पा रही है। इससे युवावर्ग की रचनात्मकता को ग्रहण लग रहा है। दूसरी ओर जो पुस्तकें आ रही हैं अधिकतर उनकी विषय वस्तु स्त्री-पुरूष सम्बन्धों एवं शहरी जीवन के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है। वर्तमान में आ रही पुस्तकों से ग्राम्यजीवन कोसों दूर हो गया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय साहित्यिक,सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखना है तो युवावर्ग और उसकी रचनात्मकता को पहचान देने के भारतीय समाज और सरकार को आगे आना होगा।
डां नन्दलाल भारती
डॉ․नन्दलाल भारती 08․12․2013
एम․ए․ ।समाजशास्त्र। एल․एल․बी․ । आनर्स ।
पी․जी․डिप्लोमा-एच․आर․डी․
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