आलेख समकालीन तमिल नाट्य : वस्तु एवं शिल्प प्रो. (डा.) ए. भवानी , अध्यक्ष हिन्दी विभाग , एम. एस. विश्वविद्यालय तिरुनेलवेली , तमिलनाडु 2...
आलेख
समकालीन तमिल नाट्य : वस्तु एवं शिल्प
प्रो. (डा.) ए. भवानी , अध्यक्ष हिन्दी विभाग , एम. एस. विश्वविद्यालय तिरुनेलवेली , तमिलनाडु
2500 वर्षॊं की प्राचीन तमिल भाषा आज भी अपने स्वेरूप को ज्यों का त्यों रखे हुए है। इसकी लिपि संस्कृत की तरह15 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से चली आ रही है। तमिल के पुराने व्याकरण " तोलकाप्पियम " में यहाँ की संस्कृति और सभ्यता का इतिहास निहित है। कुछ रचनाओं के आधार पर विद्वानों का मत है कि यह भाषा पहली शताब्दी से चली आ रही है। इसमें " मुत्तमिल " नाटकम के नाम से रचनाएँ उपलब्ध है। मुत्तमिल, अर्थात ऐसा साहित्य जो संगीतात्मक आनंद दे। तमिल साहित्य में इसे " कूत्तू " कहते है , जो गाँव की उपज है। ग्रामीण वातावरण में खुले मैदान पर रंगमंच सजाकर, गाँव के लोग सामाजिक विषय को लेकर नाट्य अभिनय के साथ साथ थोडे बहुत संवाद के साथ उसे खेलते थे। कुछ मिथकीय ग्रंदों का, जैसे " सिलप्पमतिकारम " का कलात्क नाट्य प्रदर्शन उन दिनों हुआ है। उस ग्रंद के नायक की प्रेमिका माधवी है , जो एक वैश्य कुल की है। इनके ग्यारह नित्य कलाएँ एवं आठ नाट्य अभिनय तमिल कूत्तू ' साहित्य में उपलब्ध है ।
चंपू नाटक ' तोलकाप्पियम ' के 999 पंक्ति में नाटक के विभिन्न् संवादों का वर्णन मिलता है। जिसमें तीन प्रकार विशेष उल्लेखनीय एवं प्रसिद्ध है। जैसे - 1. नेजोड कुरल, अर्थात अपने आप में बोलना या ऐसे संवाद जो खुद कहे जाते है। 2. केप्पोलक्कु उरैतल- अर्थात संप्रेषण द्वारा कथ्य को बढाना। 3.आकाश सोल्ल् , अर्थात दैवीय ध्वनियाँ जैसे कई से आवाज़ गूँजना- सुखभव: आदि। इसमें नौ प्रकार के भावों का भी सुंदर वर्णन मिलता है, जिसे हम नौ रस भी कह सकते है। तमिल में इसे ' पन्नै' कहते है। पल्लवन राजाओं के समय यहाँ नाटकों का प्रदर्शन मंदिरों तक सीमित रहा। इसमें संस्कृत भाषा का प्रभाव अधिक रहा। अठारहवीं शताब्दी के अंत तक नियमित नाट्य- कला का प्रादुर्भाव मना जाता है। उन्हीं दिनों लोक- नाट्य का आरंभिक काल रहा, जिसमें विशेष रूप से ऐतिहासिक विषयों का चयन हुआ है। कुछ उल्लेखनीय नाटकों में ' सर्वेन्द्रिय भूपाल कुरवंजी ' एवं ' नंदनार चरित्रम ' को लिया जा सकता है। ' सर्वेन्द्रिय भूपाल कुरवंजी ' में कृषकों की संपूर्ण जीवन- शैली का सुंदर वर्णन मिलता है और ' नंदनार चरित्रम ' में एक निम्न वर्ग के व्यक्ति का वर्णन है , जो शिव भक्त थे और तिरसठ नायन्मारों में से एक थे। तमिल साहित्य में नाटकों का प्रादुर्भाव मराठी साहित्य के प्रभाव से माना जाता है।
तंजावूर में अठारहवीं शताब्दी के आसपास ' संगली नाट्य कंपनी ' की स्थापना हुई, 19 वीं शताब्दी तक इस नाट्य कंपनी में पुरुषों की भागीदारी रही।पुरुष ही स्त्री का वेश धारण कर अभिनय करते थे। औरत,नाटकों में भाग नहीं लेती थी। परंतु तिरुनेलवेली के पास स्थित पत्तमडै गाँव के एक मंदिर में उययवल्थाल नाम की एक महिला रहती थी , जिसने एक अपनी नाट्य मंडली की स्थापना की , जिसमें महिलाओं ने डटकर भाग लिया। सुंदरम पिल्लै कृत ' लार्ड लिटिन ' की ' सीक्रेट वेवस ' का रूपाँतर मनोनमणियम नाटक इस नाट्य मंडली की उपज है। तमिल भाषा की वंदना का गीत ' ततमिल ताय मोळी ' इसी नाटक की देन है। इस नाटक का कथ्य तमिल संस्कृति एवं सभ्यता को प्रतिबिंबित करता है। 1867 से 1922 तक के तमिल नाटकों के प्रवर्तक शंकरदास स्वामी ने लगभग 40 नाटकों की रचना की। इन नाटकों में तमिल की प्राचीन संस्कृति को देखा जा सकता है। अधिकतर संवाद ' तिरुकुरल ' यानि दो पंक्तियों का रहा था। ' नालाडियार ' 4 पंक्तियों का रहा। ये नाटक रंगमंचीय प्रदर्शन केलिए भी अनुकूल रहा।
उन दिनों नाटकों में भाग लेने वाले सामान्य जन थे। उच्च कुल के लोग नाटकों को हेय दृष्टी से देखते थे। पम्मल संबंध मुदलियार पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सभ्य लोगों को भी रंगमंचीय नाटक में अभिनय करने का मौका दिया। उन्होंने लगभग 90 नाटकों की रचना की है। इन नाटकों का विषय प्राचीन और वर्तमान समाज का तुलनात्मक दृष्टी से प्रस्तुत करना रहा है। स्व. तंडलम नारायण शास्त्री , प्रसिद्ध साहित्यकार ता. ना. कुमार स्वामी के पिता ने भी उन दिनों नाटकों की रचना की , इसमें ' बोध चरित्रम ' उल्लेखनीय है। यह नाटक भाव- अनुभावों से भरा है। भरतनाट्यम की मुद्राओं और भावों को लेकर चलने वाला यह नाटक समकालीन समाज को दर्शाता है। इसमें काव्यात्मक संवाद प्रसिद्ध और उल्लेखनीय रहा। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में सुगुन विलास सभा के संस्थापक परिदीमल ने एक किताब ' नाटकवियळ ' निकाली, जिसमें नाटकों से संबंधित सभी विषयों का वर्णन मिलता है। उन्होंने ' कलावती ' और ' मानविजयम ' नामक नाटक रचा , जिसे पढने से आनंद का आभास मिलता है। कुछ ऐसे नाटकों की रचना भी हुई, जिनमें राष्ट्रीय स्वर की भावना देखा जा सकता है।
स्वतंत्रता की प्यास और विदेशी राज्य अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए स्वतंत्र भारत की कल्पना करने वाले अनेक वीरों की गाथा का नाटकों के कथ्य में प्रवेश हुआ। वीर पाँडिय कट्ट बोम्मन, जिन्हें तमिलनाडु का राजा कहते थे, जो एक राष्ट्र प्रेमी थे, पर आधारित रा. वेंकटाचलम का नाटक ' मुदल मुळवक्कम ' रचा गया। मुदल का अर्थ है पहला और मुळवक्कम का अर्थ युद्ध के पहले बजने वाला शंख नाद। वह अपने समय का प्रसिद्ध नाटक रहा। स्वामीनाथ कृत ' भानुपुरम वीरन ' एक ऐसा नाटक है, जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध व्यंग्य संवादों से भरा है। जिसका खंडन कई दिनों तक रहा। उन दिनों छोटे छोटे नाट्य मंडलों की स्थापना प्रसिद्ध था। सन् 1930 में नवाब राजभाषिक का नाट्य मंडल, ए.वी. सहस्त्रनाम का सेवास्टेज आदि उल्लेखनीय है। 1940 से 1960 तक के बीच ते. वो . कृष्णस्वामी पावलर का नाट्य मंडल यू.के. तक गया। तमिलशनाडु के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एवं सिनेमा जगत् का सूपर स्टार एम. जी रामचंद्रन, शिवाजी गणेशन, एन. एस. कृष्णन, मनोरम आदि सिनेमा जगत् के नायक- नायिकाओं का वैचारिक जीवन इन्हीं नाट्य मंडली में भाग लेकर , मंचीय नाटकों में अभिनय करके शुरु हुआ।
इन नाटकों में विषय के रूप में जातीय, सामाजिक कुरीति या सामाजिक चेतना जाग्रत करने वाले तत्व विद्यमान रहे। भाषागत विशेषताओं में हास्य का पुट अधिक रहा। पारिवारिक विषयों के नाटकों में ' व्येटनाम वीडु ' उल्लेखनीय है , जिसके निर्देशक के. बालचंद्रन थे। यह मंचीय नाटक कुछ समय बाद सुप्रसिद्ध फिल्म में रूपायित हुए , जिनमें के. बालचंद्रन का ' एदिर नीचल ' और विसु के ' मनल कयरु ' प्रसिद्ध है। 1970 में रामस्वामी ' चो ' ने व्यंग्यकार के रूप में नाटकों का सृजन किया। इसमें ऐतिहासिक नाटक ' मुहम्मद बिन तुगलक ' सामाजिक नाटक ' उण्मै उन विलै एन्न ' और ' एंगे ब्राह्म्णन ' उल्लेखनीय है। आजकल हास्य नाटकों की प्रथा चल पडी है। कुछ खोजपूर्ण नाटक भी लिखे गये , जैसे देवन कृत ' तुप्परियम चाम्बू ' नाटक जो हास्य मनोरंजन से युक्त संवादों से भरा है। 1980 के उत्तरार्द्ध में क्रेसी मोहन , ए.वी. शेखर जैसे कलाकारों ने सामाजिक विषय पर अनेक नाटक लिखे , जिसमें हास्य- व्यंग्य का पुट था। 1910 से 1960 के बीच की रामैया के 4 नाटकों का स्वागत, समाज ने किया। विशेष रूप से ग्रामीण जीवन पर आधारित मंल्लियम मंगलम एवं स्टेटज द्वारा रचिगत ' तेर ओटियम मगन ' आदि है। ते ओटियम मगन मिथकीय महाभारत के पात्र कर्ण के जीवन से संबंधित है।
उसी प्रकार कोमल स्वामीनाथन कृत ' कण्णीर कण्णीर ' में राजनीतिक और सरकारी कार्यालय में करनेवाले कर्मों पर प्रकाश डाला गया है। एक गाँव में पानी नहीं है , वहाँ के लोग कितनी मुसीबतों को झेलती है , और अपने गाँव में पानी लाने का प्रयास करते है , उस पर आधारित है उक्त नाटक। इस विचारात्मक नाटकों की श्रृंखला में अरिञर अन्ना कृत ' वेलैकारी ' ओरु इरवू ' नल्ल तंबी ' आते है। इसमें ' नीदि देवन मयक्कम ' सामाजिक कुरितियों को दर्शाती है। यह नाटक पढने में जितना रुचिकर रहा , उतना अभिनय में नहीं रहा। इसी प्रकार के नाटक थे पी.सी. कृष्ण मूर्ती कृत ' अन्दमान कैदी ' और नायायण दुरैकण्णन कृत ' उयिर ओवियम '। हास्य नाटकों की प्रथा 2000 से मनोरंजन हेतु प्रारंभ हुई , जिसमें सामाजिक कुरीतियों का तीखा व्यंग्य देखा जा सकता है। क्रेसी मोहन और मरीना के नाटक हास्य-मनोरंजन के लिए आज भी प्रसिद्ध है। विशेष रूप से क्रेसी मोहन के मधु ' धारावाहिक और पालवाक्कम के चोर ' नामक नाटक विचारात्मक हास्य के नाटक थे। ना. मुत्तु स्वामी के नेतृत्व में चिंतनशील नाटकों की रचना की गयी जिसमें प्रयोग के रूप में ' कूत्तु पट्टरै ' की रचना हुई। इसमें गंभीर चिंतन विषय पर ज़ोर दिया गया है। और इससे समाज में बदलाव लाने का क्षमता भी रही है।
इस प्रकार के नाटकों के शब्दों में ताकत थी , गहन अर्थवाले थे, और एकरूपता भी रही। बिना वेश- भूषा के मात्र अभिनय द्वारा रंगमंच पर इस प्रकार के नाटकों का प्रदर्शन भी हुआ। काव्य के रूप में अधिकाँश विषय बाल श्रम के विरुद्ध रहा , दहेज प्रथा का खंडन किया , शराब और नशा के विरुद्ध रहा। इन नाटकों में युव- छात्र छात्राओं ने भी डटकर भाग लिया। इसे तमिल नाट्य रंगमंच का प्रयोग काल कह सकते है। कुछ महत्वपूर्ण विषयों का लोक नाट्यकला के रूप में समकालीन विषयों को नुक्कड नाटक की तरह प्रदर्शित किया। इसमें पौराणिक कथा या पात्र जैसा कुछ भी नहीं रहा। मात्र एक महत्वपूर्ण विषय को लेकर विचारात्मक अभिनय किया गया है। इसके अलावा सूचनात्मक बातों का प्रदर्शन, जो माता बच्चे की सुरक्षा से संबंधित हो या वातावरण में प्रदूषण से जुडा हो या खास बीमारी जैसे टी.बी. या कैंसर से बचने की उक्ति हो या एड्स् जैसे खतरनाक बीमारी से बचने की सलाह दी गई हो या विद्यालय के बच्चों को नीतिपरख सीख या उपदेश हो जैसे लाभदायक नाटकों का प्रदर्शन रहा।
सन् 2000 से 2012 तक के नाटककारों बाम्बे चाणक्या , अरस्तों, विवेक शेखर, काताडी राममूर्ती अरुणागिरी, जी. वी. चंद्रमोहन, श्रीहरी आदि उल्लेखनीय है।इन्होंने प्रयोगात्मक रूप से संवादों का प्रयोग किया, जो मंचीय तकनीकी में नवीन रहा। सी. वी. चंद्रमोहन की कहानी और उन्हीं के निर्देशन में ' नेत्रदर्शनम ' 2008 में मंचीय नाटक के रूप में प्रदर्शित किया गया और 2011 में ' स्वासम ' नामक नाटक का प्रदर्शन हुआ। इसमें मध्य वर्गीय समस्याओं को उभारा गया। ' स्वासम ' में मित्र की उत्तम भूमिका रही। अगस्टो में समकालीन लेखक के वे गुण देखे गये , जिसमें मंचीय प्रदर्शन और अभिनेता के बीच सामज्स्य देखा गया। ' डोर नं.69 ' नाटक का प्रदर्शन इसका सुंदर उदाहरण है। ये मनोवैञानिक कथा पर आधारित है। एक बालक टेन्निस का खिलाडी बनना चाहता है , परंतु माता- पिता उसे डाक्टर बनाना चाहता है। बेचारा माता पिता का इच्छा पूर्ती करता है , परंतु ध्यान टेन्नीस पर लगा रहता है। इससे मरीज लोग मरने लगते है। यहाँ आधुनिक काल के माता पिता के गलतियों को उभारा है। बच्चा मनोविचार को प्राप्त कर पागल हो जाता है। आज Dhoni not out इसी प्रकार की एक फिल्म है।
एक और नाटक में रंगनाथ नामक एक फोटोग्राफर के जीवन से संबंधित कहानी है। यह उस समय के और आधुनिक युवकों की मानसिकता पर आधारित है। रंगनाथ फोटोग्रफर नहीं बन पाये , परिस्थितिवश कुछ और बन पाए , पर ऐसा समय आया, जब उसके द्वारा लिये फोटो की माँग हुई, तब अपना क्रोध प्रकट करते हुए उन फोटो के रहते हुए भी खूब रुलाकर लोगों को दिया। ऐसे नाटकों सिनेमा तकनीकी को अपनाने का सुंदर प्रयास हुआ है। श्रीहरी उनमें एक है। ' सुनामी ' जैसे दृश्यों को मंच पर दिखाने का सुंदर प्रयास आधुनिक नाटककारों ने किया है। श्री वेंकटेश्वर ने ' गुरुवायुरप्पन ' द्वारा भगवत् कथा का साराँश मंच पर प्रस्तुत किया। इसमें अस्त्र एवं शस्त्रों का प्रयोग मंच पर विशेष ध्वनि प्रभावों के साथ बिजली के सहायता द्वारा दर्शाया है। ये नई तकनीक आज के तमिल नाटकों की विशेषता है। कानाडी राममूर्ती कृत ' वादउरार ' में संत माणिकवासकम मंदिर बनाना चाहते थे। परंतु उनके पास धन की कमी थी। अत: राजा के धन को थोडा थोडा लेकर जमा करते गये और मंदिर की स्थापना की। राजा अपने धन से घोडा खरीदना चाहते थे। मारणिकवकम से जब राजा ने घोडे केलिए धन मागा तो उन्होंने कह दिया है कि एक हफ्ते में खरीद लेंगे। माणिकवासकम एक शिव भक्त थे , उन्हीं का मंदिर बनवाया।अब शिव से प्रार्थना करते है कि राजा के धन से मंदिर बना दिया। अब घोडा कैसे खरीदे तो शिवजी ने लोमडी को घोडे में बदलकर मायारूपी घोडे को राजा के सामने दिखा दिया। राजा के जाते ही सारे नकली घोडे पुन: लोमडी में बदल गये। राजा को माणिकवसकम की गलती का अंदाज़ा हुआ तो कडी धूप में रेत में खडा होने की सजा दे दी। माणिकवासकम शिव भक्त होने के कारण शिव अपने भक्त के चरणों को गंगा के शीतल जल से भिगो देते है। गंगा का मंच में प्रवेश करना और माणिवासकम के पैरों को भिगोना नई तकनीक है।
आज टी. वी. और सिनेमा की बाढ आ जाने के कारण मंचीय नाटकों में इस प्रकार के प्रयोग नाटक को एक नया जीवन देने के समान प्रतीत होता है। अभिनय में नयापन, संवाद मे नवीनता , मंचीय प्रदर्शन में नये तकनीक आदि के आ जाने से मंचीय नाटक आज तमिलनाडु में सफल है और इसके दर्शक भी हैI तमिल नाटकों में प्रह्लाद चरित्रम ' 2003 में पाँचाली शब्दम ' 2004 में,तेन्नाली रामन 2008 में ' चाणक्यम 2011 में ' सन्निदानम '2011 में विशेष उल्लेखनीय रहा। जैसे दूरदर्शन के आते ही रेडियो कार्यक्रम सुनना कम हुआ और सिनेमा के आते ही टी.वी. के दर्शक घटने लगे और उसी प्रकार एक कला के आते ही पहली की माँग कम होना स्वाभाविक है। किंतु यदि नवीन तकनीकी प्रयोगों को अपनाते रहेंगे तो अवश्य ये जीवित और लोक प्रिय बना रहेगा। तमिल नाटक भी उसी प्रकार का है। क्योंकि इनमें नवीन शैली, नवीन कथ्य और नवीन रंगमंचीय प्रयोगों को अपनाने लगा है। गर्मियों के दिनों में सरकारी संस्था द्वारा नाट्य कला उत्सव मनाया जाता है। तमिल नाट्य के प्रेमियों को ये आकर्षित करते है। युव जगत् और सिनेमा अभिनेतागण नाट्य कला को उभारने और प्रसिद्ध करने में योगदान देते है। विगत 10 वर्षों में नाट्य कथ्य का विषय हास्य, मनोरंजन, फैंटसी, खोजपूर्ण और मनोविञान से संबंधित रहा। मंच में विशेष कलात्मक प्रभाव का प्रादुर्भाव हुआ है।
Written by: - Prof. (Dr.) A. BHAWANI, HEAD OF DEPT. OF HINDI, M.S. UNIVERSITY THIRUNELVELI, TAMILNADU ,।NDIA.
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