हिन्दी की संबोधन शब्दावली डॉ. रामवृक्ष सिंह यदि भाषा किसी समाज के व्यक्तियों के मध्य विचारों के परस्पर आदान-प्रदान का महत्त्वपूर्ण साधन ह...
हिन्दी की संबोधन शब्दावली
डॉ. रामवृक्ष सिंह
यदि भाषा किसी समाज के व्यक्तियों के मध्य विचारों के परस्पर आदान-प्रदान का महत्त्वपूर्ण साधन है, तो आदान-प्रदान की इस प्रक्रिया का आरंभ कितना महत्त्वपूर्ण होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। किसी भी संप्रेषण की शुरुआत अचानक नहीं होती, यानी संप्रेषण शुरू करने से पहले संप्रेषक अपने लक्ष्य और स्वयं के मध्य एक सेतु बनाता है। भाषिक संप्रेषण के लिए जिन शब्दों से हम किसी व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूह के साथ संवाद, संभाषण अथवा विचार-संप्रेषण की शुरुआत करते हैं, उन्हें संबोधन कहते हैं। प्रत्येक समाज में संबोधन की अपनी विशिष्ट शब्दावली होती है, जिसके माध्यम से उस समाज की मनोरचना और संबोधन-कर्ता तथा श्रोता की सामाजिक स्थिति व उनके अंतस्संबंधों का विश्लेषण किया जा सकता है। प्रस्तुत लेख में हम मानव-व्यवहार के कतिपय क्षेत्रों और हिन्दी-भाषी समाज में उन क्षेत्रों व स्थितियों में प्रयुक्त संबोधन शब्दावली पर विचार करेंगे।
कार्यालयीन संदर्भों में संबोधन- कार्यालयीन संदर्भ अत्यन्त औपचारिक होते हैं। वहाँ कार्यरत व्यक्तियों में पारस्परिक संबंध या तो अधिकारी-कर्मचारी व अधीनस्थ स्टाफ के होते हैं या बराबरी के। जहाँ अधिकारी अथवा उच्च पदस्थ व्यक्ति अपने से काफी कम हैसियत वाले अधीनस्थों को प्रथम नाम लेकर संबोधित करते हैं, वहीं अपने समवयस्क अथवा अधिक आयु वाले अधीनस्थों को सरनेम सूचक शब्दों के साथ ‘जी’ लगाकर, जैसे शर्माजी, गुप्ताजी, उपाध्यायजी आदि। अधीनस्थ कर्मचारी जब अपने ऊँचे अधिकारी को संबोधित करते हैं तो सर कहते हैं। यदि एक अधिकारी के सामने किसी और अधिकारी के बारे में बात करनी हो तो उनके नाम के साथ जी लगाते हैं, जैसे चौधरीजी, वर्माजी आदि। यदि अधिकारी का पद वक्ता से बहुत ऊँचा हो और संबोधनकर्ता अल्प-शिक्षित, तो साहब कहकर संबोधित करने की परंपरा है।
एक ही स्तर के पद वाले कर्मचारी अथवा अधिकारियों के मध्य यदि बहुत औपचारिक संबंध हों तो आप कहकर संबोधित करते हैं, अन्यथा तुम और तू कहकर भी परस्पर पुकार लेते हैं। संबोधन शब्द का चयन अनौपचारिक संबंधों की निकटता पर निर्भर करता है।
अरे, यार, सुनिये, डॉ. साहब आदि संबोधनों का प्रयोग भी यथावसर होता है। किन्तु कभी भी अपने से उच्च अधिकारी से बात आरंभ करते समय अरे, यार, सुनिये आदि नहीं कहा जाता। अलबत्ता यदि उच्च अधिकारी अपने कनिष्ठ सहकर्मियों के साथ थोड़ा औपचारिक वातावरण रखना चाहे तो वह अपने अधीनस्थ से कहेगा- ‘अरे, गुप्ताजी, आप तो आज दिल्ली जानेवाले थे।’ कोई निर्देश देना हो तो उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी से कह सकता है- ‘यार, गुप्ता, ज़रा देखना, उस चोपड़ा वाले मामले में कुछ हो सकता है, क्या?’ वरिष्ठ अधिकारी अपने अधीनस्थ को यार कहकर संबोधित कर सकता है, किन्तु अधीनस्थ अधिकारी अपने वरिष्ठ या उच्च अधिकारी को यार नहीं कह सकता। सच कहें तो यार शब्द का प्रचलन हाल के वर्षों में काफी बढ़ गया है। एक समय था जब यार केवल वारांगनाओं के हुआ करते थे। इस शब्द का प्रयोग सभ्य समाज में प्रायः वर्जित था। अब तो भद्र महिलाएं भी आपसी बातचीत के लिए, बाप अपने बेटे से बात करने के लिए और कार्यालयीन सहयोगी (चाहे वे महिला हों या पुरुष) आपस में बातचीत के दौरान प्रायः यार शब्द का इस्तेमाल संबोधन के लिए करते हैं।
बॉस चाहे कहीं भी रहे, बॉस ही रहता है। उसे सर या मैडम कहलाना पसंद है। अभी भारत में अमेरिका या यूरोपीय देशों जैसी खुलेपन की संस्कृति विकसित नहीं हो पाई है, कि आप बॉस को नाम से पुकार सकें। अधीनस्थ अधिकारी की हैसियत अच्छी हो तो वह बॉस या वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी को भाभी कहकह संबोधित करने का जोखिम चाहे उठा ले, किन्तु यदि बॉस बहुत खुर्राट टाइप का है और बीवी के प्रति बहुत पजेसिव है (जो स्वाभाविक भी है) तो अधीनस्थ की खैरियत इसी में है कि बॉस की बीवी को मैडम ही संबोधित करे। हिन्दी-भाषी भारत में भाभी का रिश्ता मज़ाक का माना जाता है। निरुक्त में देवर शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है- देवरः कस्माद् द्वितीयो वरः। इसलिए किसी महिला से भाभी-देवर का नाता जोड़ने का आशय मजाक का रिश्ता कायम करना माना जाता है और किस बॉस को गवारा होगा कि उसका अधीनस्थ कर्मचारी उसकी पत्नी से मज़ाक करने की ज़ुर्रत करे! वैसे बताते चलें कि आपसी बातचीत में दफ्तरों में अपने साथियों को बॉस कहकर संबोधित करने का काफी चलन है।
कार्यालयों में जब बाहरी व्यक्ति, ग्राहक आदि आते हैं तो वहाँ के अधिकारियों, कर्मचारियों आदि को वह प्रायः सर कहकर या यदि उनके सरनेम किसी माध्यम से ज्ञात हों तो उनका सरनेम बोलकर संबोधन कर सकते हैं, जैसे मिश्राजी, त्रिपाठीजी आदि। कई बार उनके पदनाम का उल्लेख करके भी संबोधन किया जाता है, जैसे मैनेजर साहब, कैशियर साहब, कंडक्टर साहब, ड्राइवर साहब, इन्स्पेक्टर साहब, दीवान जी आदि। मज़े की बात यह है कि छोटे से छोटे पद के साथ भी यहाँ साहब का पुछल्ला जुड़ जाता है। कई बार पदवियों या शैक्षिक उपलब्धियों का इस्तेमाल भी संबोधन के लिए होता है, जैसे- डॉक्टर साहब, इंजीनियर साहब। साहब का स्त्रीलिंगी है साहिबा।
लिखित पत्राचार में उक्त दोनों ही संदर्भों में बहुत कम विकल्पों का इस्तेमाल किया जाता है। शासकीय पत्राचार में पुरुषों के लिए जहाँ महोदय (अंग्रेजी में सर) और महिलाओं के लए महोदया (अंग्रेजी में मैडम) शब्द का इस्तेमाल होता है, वहीं अर्धशासकीय पत्राचार में प्रापक के पद के अनुसार माननीय, प्रिय आदि के साथ उक्त व्यक्ति का नाम या सरनेम लिखा जाता है, जैसे माननीय गुप्ताजी, प्रिय रामेश्वर, आदि।
बाज़ार-हाट में संबोधनः- बाज़ार हाट में भी संबोधन का अपना महत्त्व है। मार्केटिंग के विशेषज्ञ इस बात को स्वीकार करेंगे कि ग्राहक से सौदा पटाने के लिए उसे कैसे-कैसे संबोधनों से पुकारना पड़ता है। माल के बारे में बताने के साथ-साथ, विक्रेता को यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि ग्राहक का अहं किसी भी प्रकार संतुष्ट हो जाए, ताकि वह बेची जानेवाली वस्तु या सेवा को खरीद ले। यदि कोई पढ़ा-लिखा, संभ्रान्त-सा पुरुष दुकान की ओर मुखातिब हो तो दुकानदार कहेगा- आइए सर, अन्दर आइए न सर। दुकानदार को मालूम है कि पढ़ा-लिखा, दफ्तर में काम करने वाला व्यक्ति सर संबोधन सुनकर कुप्पा हो जाता है। सर बोलने से उसके अहं की तुष्टि होती है। वहीं ऐसे ग्राहक के साथ आई महिला को वह मैडम कहकर संबोधित करेगा। भोपाल, इंदौर, झांसी आदि इलाकों में भद्र महिलाओं को बाई या बाई साहब कहकर संबोधित करने का प्रचलन है। अतः वहाँ मैडम के साथ-साथ बाई साहब संबोधन भी सुनने को मिल जाता है।
ऐसे ही किसी विक्रेता के पास यदि कोई किसान ग्राहक पहुँचे तो वह उसे सर न बुलाकर चौधरी साहब, सरपंचजी या प्रधानजी कहेगा। किसी थोक विक्रेता के पास कोई फुटकर दुकानदार सामान लेने पहुँचे, तो ज़ाहिर सी बात है कि उसे सेठजी बुलाया जाएगा। वहीं ज्यादा मिलनसारिता दिखानेवाले ग्राहक से दुकानदार भाई साहब और भाभी जी या फिर बहन जी का नाता जोड़ने में गुरेज़ नहीं करेगा और उसे लगभग फुसला ही लेगा- ‘अरे भाई साहब, अरे भाभीजी आपकी ही दुकान है। जब मन करे आ जाइए। पैसों का क्या है, पैसे तो आते रहेंगे। आप सामान तो पसन्द कीजिए, दाम लग जाएँगे। बिलकुल आप वाले दाम लग जाएँगे।‘ अंकल, भइयाजी, दीदी आदि कहकर संबोधित करने के उदाहरण भी आपको मिल जाएँगे। उसका मन किया तो आपको मालिक, और हुजूर भी कह सकता है, जैसे- ‘मालिक, इतना कम नहीं हो पाएगा।‘
इसी प्रकार दुकानदार के संबोधन के समानांतर उसके ग्राहक का संबोधन भी बदलता रहता है। जैसे महिलाएं कहती मिलेंगी- ‘सुनिए! सुनिए, ज़रा वो फिरोज़ी साड़ी तो दिखाइए।‘ और उनके बिन्दास पुरुष साथी कह सकते हैं- ‘क्या यार, कोई ढंग की चीज़ दिखाओ।‘ यदि समवयस्क या अपने से कम उम्र का दुकानदार हुआ तो पुरुष ग्राहक बोल सकता है- ‘भइया, ज़रा इसके दाम तो बताओ।‘ और उसके अधिक वय का होने पर भाई साहब, सेठजी, चाचा, ताऊ, अंकल, लालाजी आदि संबोधन इस्तेमाल किए जा सकते हैं। वैसे आधुनिक दुकानों में लालाजी और सेठजी जैसे संबोधन कुछ कम सुनाई पड़ते हैं।
हिन्दी प्रान्तों में दुकानदार द्वारा पुरुष ग्राहक के लिए सबसे सुरक्षित संबोधन रहा है- बाबूजी। यह किसी भी वयस्क पुरुष के साथ फिट हो जाता है। इसी प्रकार शहराती महिलाओं के लिए मेम साहब बड़ा ही मुफीद संबोधन है। दुकानदार वयोवृद्ध हो और महिला ग्राहक अल्पवयस्का तो वह उसे बिटिया भी कह सकता है। बिटिया विवाहिता हो और ससुराल पक्ष के लोगों के साथ आई हो तो उसे बहूजी भी बुलाया जा सकता है।
रिक्शेवाले हों, छोटे दुकानदार, ठेलेवाले या कबाड़ी, मेहनतकश मजदूर हों या कामगार, सभी को भइया कहकर संबोधित किया जा सकता है। यह अलग बात है कि मुम्बई आदि शहरों में भइया शब्द ने अपनी गरिमा खो दी है और यहाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार से आए लोगों को भइया कहकर उनका मज़ाक उड़ाया जाता है। सुनने में आया है कि मुम्बई में बरतन-पोंछा करनेवाली बाई भी पूछकर आश्वस्त हो लेती है कि ‘आप लोग भइया तो नहीं हैं?’
फेरी वालों द्वारा संबोधनः- जब कोई फेरी वाला गली में या फ्लैटों के अहाते में पहुँचता है तो अपने संभावित ग्राहकों को अपने आगमन की सूचना देने के लिए किसी व्यक्ति विशेष को संबोधित नहीं करता, बल्कि वह ऊँची आवाज़ में चिल्लाना शुरू कर देता है, जैसे- आलू, मटर, गोभी, प्याज ले लो, जामुन काले- कालेरा.., फालसे ले लो फालसे। उसका उद्देश्य ग्राहकों को बुलाना और अपने माल के बारे में बताना होता है, किन्तु संबोधन के शब्दों का उच्चारण न करते हुए भी वह अपने ग्राहकों को संबोधित कर रहा होता है। जब ग्राहक अपने घऱ से बाहर आकर उससे मुखातिब होते हैं, तब वह उनको विशिष्ट शब्दों से पुकारकर संबोधित करता है- ‘मेमसाब, गोभी ले लीजिए’, या ‘साहब टमाटर ले लीजिए, बिलकुल ताजे हैं’। स्टेशन पर विभिन्न मदें बेचने वाले फेरी वालों का भी यही हाल होता है। वहाँ ग्राहक उनके सामने होते हैं, लेकिन संबोधन के लिए वह केवल अपने पण्य का नामोल्लेख करके चिल्लाते मात्र हैं, जैसे चाय... चाय... चाय गरम। बसों में कंडक्टर अपनी सवारियों को संबोधित करने के लिए कहते हैं- टिकट बोलो, टिकट। हाँ भई, टिकट बोलो टिकट। यह भी ग्राहकों को संबोधित करने का उसका तरीका है।
विशिष्ट सामाजिक संदर्भों में संबोधनः- विशिष्ट वातावरण और परिस्थिति के अपने संबोधन होते हैं, जैसे शहरी छात्र अपने पुरुष शिक्षकों को सर तथा महिला शिक्षक को मैडम या मैम कहते हैं। गाँव में हम अपने गुरुजी को मास्साब या मुंशीजी कहते थे। अन्य जातियों वाले लोग गाँव के पंडितजी को भी गुरुजी कहते थे, चाहे वे गुरुजी बिलकुल निरक्षर ही क्यों न हों। यही हाल ठाकुर यानी बाबू साहब और कायस्थ लोगों यानी लालाजी का था। ये जाति-सूचक संबोधन थे, जो तथाकथित बड़ी जातियों के लोगों को ही मयस्सर थे। दिल्ली में अल्प-शिक्षित लोग यह मानते हैं कि हर संबोधन के साथ जी जोड़ देने से वह आदर-सूचक हो जाता है। इसीलिए उधर के बहुत-से लोग अंकलजी, आंटीजी, सरजी और मैडमजी बोलते सुने जाते हैं। मूल रूप से पंजाबी-भाषी लोगों में यह प्रवृत्ति अधिक दिखती है। बल्कि वे तो बेटाजी संबोधन भी करते हैं। बेटा संबोधन केवल लड़कों के लिए रूढ़ हो, ऐसा नहीं है। बच्चियों को भी लोग बेटा कहकर संबोधित करते हैं। इसी प्रकार बेटियों को बिटिया रानी, गुड़िया, बेबी और बेटों को पप्पू, मुन्ना, बेटू, बिट्टू आदि नाम दे दिए जाते हैं जो संबोधन के लिए ही होते हैं। इन्हें बुलाने का नाम कहा जाता है, जिसे भाषा-शास्त्रीय अथवा व्याकरणिक शब्दावली में संबोधन-परक संज्ञा कहा जा सकता है। इनके असली नाम प्रमाण-पत्रों में दर्ज़ होते हैं।
जब हम किसी का न नाम जानते हैं, न उससे कोई परिचय होता है, लेकिन उसका ध्यान खींचना या उससे कुछ कहना ज़रूरी हो जाता है, तो हम हिन्दी में क्षमा करें, माफ कीजिए या अंग्रेजी में एक्स्क्यूज मी कहते हैं। कम पढ़े-लिखे लोग इनमें से कुछ भी कहकर अपने तरीके से संबोधित कर लेते हैं, जैसे- सुनना भाई, अरे भाई साब, अरे बैनजी, अरे काका, चाचाजी, ओरे ताऊ, माँजी, माताजी आदि।
भारत के किसी भी प्रान्त में चले जाइए, संबोधन के लिए किसी पारिवारिक रिश्ते का बोध करानेवाले शब्द का इस्तेमाल सबसे अधिक होता है, जैसे तमिल में अन्ना, अम्मा, तंबी, अक्का आदि संबोधन आम हैं। बांगला, उड़िया, अखमिया में दादा, भाई, दीदी मुनी, दादा मुनी आदि शब्दों का इस्तेमाल संबोधन के लिए आम तौर पर होता है। हिन्दी प्रान्तों में भी यही स्थिति है। इसी प्रकार गुजरात में नाना भाई, मोटा भाई, मोटा बेन, काका आदि संबोधन खूब चलते हैं। पंजाबी लोग प्रा..जी, प्रावाँ, बहणजी, बेब्बे आदि संबंध-सूचक संबोधनों का इस्तेमाल करते हैं। जातिसूचक सरनेम का उल्लेख करके संबोधित करने की प्रवृत्ति भी भारत के सभी राज्यों में देखने में आती है, जैसे शर्माजी, गुप्ताजी, गांगुली दा, रेड्डी गारू, तीरु वेणुगोपाल, राधा अम्मळ आदि। संबंध-परक संबोधन आयु और वय की सीमाओं का अतिक्रम करते दिखते हैं, जैसे लतादी/ लता ताई, ध्यानचंद दद्दा, या चाचा नेहरू, बापू, बा.. ये विभूतियाँ संबोधन करनेवाले से चाहे जितनी भी वयोवृद्ध हों, किन्तु संबोधन तो वही रहेंगे। आत्मीयता-सूचक इन संबोधनों का प्रचलन शायद दुनिया के इस क्षेत्र में ही अधिक है और आज से नहीं, सदियों से रहा है। इसीलिए इन्हें सुनकर हमें हैरत नहीं होती, किन्तु पश्चिम के लोग जब इन संबोधनों को सुनते हैं, तो भौंचक्के रह जाते हैं। इसीलिए 27 सितंबर 1883 को शिकागो की वर्ल्ड रिलीजन पार्लियामेंट में जब स्वामी विवेकानन्द ने श्रोताओं को लेडीज एंड जेंटलमेन कहकर संबोधित करने के बजाय भाइयो और बहनो कहा, तो श्रोताओं के आश्चर्य और आनन्द की सीमा नहीं रही। उन्हें यह उम्मीद ही नहीं थी, कि सगे भाई-बंधुओं से इतर दुनिया के किसी दूसरे व्यक्ति को ऐसे आत्मीय संबोधन से पुकारा जा सकता है। आत्मीयतापूर्ण संबोधन भारतीय उप-महाद्वीप की अपनी अमूल्य निधि हैं। कहीं न कहीं वे हमें वसुधैव कुटुंबकम की संकल्पना से जोड़ते हैं।
सामाजिक जीवन में जब रक्त-संबंध, पारिवारिक रिश्ते, आत्मीयतापूर्ण संबंधों की प्रतिष्ठा नहीं हुई होती, किन्तु वक्ता अपने श्रोता से जुड़ा हुआ अनुभव करता है और उससे अपने संबंध को परिभाषित करने की प्रक्रिया में होता है, या परिभाषित करना नहीं चाहता, किन्तु फिर भी अनाम-सा नज़दीकी संबंध बनाए रखना चाहता है, तब वह जी कहकर काम चलाता है। ‘जी, सुनिए, जी कहिए, जी जरा वो चीज दिखाइए।‘ ऐसे वार्तालाप प्रायः सुनने में आते हैं। बहुत-से हिन्दी-भाषी घरों में पत्नियाँ अपने पति को जी, एजी पुकारकर संबोधित करते हुए पूरा जीवन बिता ले जाती हैं। यह स्थिति केवल हिन्दी समाज नहीं, बल्कि अन्य भाषाओं में भी है, जैसे तेलुगु में –एमंडी, यानी क्याजी! पहले अपने यहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे को नाम लेकर नहीं पुकारते थे, तब इसी प्रकार महिलाओं को एजी, ओजी, सुनती हो, बच्चों की अम्मां, राजू की मम्मी, दुलहिन, बड़ी बहू, छोटी बहू आदि कहकर संबोधित किया जाता था। पुरुषों को राजू के बाबूजी, गुड्डू के पापा आदि कहकर पुकारा जाता था। संबंधों में बहुत रूमानियत होने पर जानम, जानू, डार्लिंग, जानेमन आदि कहकर संबोधन करने के प्रकरण भी देखने-सुनने में आते हैं।
कभी अपने नज़दीकी, बेहद अंतरंग और कम उम्र लोगों के प्रति बहुत प्रेम और लाड़-दुलार की अभिव्यक्ति के लिए अपशब्दों और गालियों के माध्यम से संबोधन के उदाहरण भी देखे जा सकते हैं। बैंडिट क्वीन में पुरुष डाकू अपनी महिला संगिनी से कहता है- ‘सा..ली, बहुत नखरे करती है।‘ पंजाबी लोगों द्वारा प्यार में अपने श्रोताओं को ‘ओ खोत्तया, चल टुर जा यहाँ से, या खोत्ते दी औलाद,’ आदि कहकर संबोधित करते सुना जा सकता है।
धार्मिक संदर्भों में संबोधनः-
जब भगवान को संबोधित करना हो तो हिन्दी भाषी प्रायः हे शब्द का इस्तेमाल करते हैं, जैसे ‘हे राम! हे माता! हे हनुमानजी!’ धर्म-गुरुओं को भी ‘हे गुरुदेव!’ कहकर संबोधित किया जाता है। यह परंपरा संस्कृत से हिन्दी में आई है। इसी प्रकार उर्दू में ‘ऐ मालिक! ऐ मेरे खुदावंद’ आदि कहकर संबोधित किया जाता है। हे और ऐ में अपनी लघुता ओर श्रोता की गुरुता या प्रभुता का भाव निहित होता है। कभी आदर देने या मनुहार के लिए भी ऐ संबोधन का इस्तेमाल होता है, जैसे ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’, या ‘ऐ मेरी ज़ोहराजबीं’, या ‘ऐ गुलबदन’। उर्दू में कभी-कभी ‘ऐ मेरे सरकार, ऐ हुजूर’ आदि संबोधन सुनने को मिल जाते हैं। इसके विपरीत है ‘रे’ संबोधन, जो श्रोता को छोटेपन, उसकी अज्ञानता आदि का अहसास कराने के लिए किया जाता है, जैसे ‘क्यों रे, तेरी इतनी मज़ाल,’ या ‘रे गंधी मति अंध तू, इतर दिखावत काहि’ (बिहारी)। इन संबोधनों में श्रोता की क्षुद्रता और अल्पज्ञता को उजागर किया गया है। कभी-कभी बहुत निकटता होने पर भी ‘रे’ संबोधन का इस्तेमाल कर लिया जाता है, जैसे ‘हाय रे, मेरे भगवान!’
सड़क किनारे या मंदिर के आगे बैठा भिखारी आबाल-वृद्ध, सबको बाबा कहकर संबोधित करता है- ‘दे-दे बाबा! भगवान के नाम पर.. दे दे!’ उसके लिए हर व्यक्ति बाबा है। वहीं रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी और केशव के लिए बाबा किसी बूढ़े व्यक्ति के लिए किया जानेवाला आदर-सूचक संबोधन है- ‘चंद्रवदन मृगलोचनी, मोते बाबा कहि-कहि जायँ’। बाबा कहने वाला भिखारी किसी के लिए आदर-सूचक क्रिया दीजिए का प्रयोग नहीं करता है। सबसे कहता है- दे-दे। वहीं मंदिर के पुजारी या तीर्थ-स्थलों पर तिलक-छाप लगाकर स्वस्ति-वाचन करनेवाले पंडे-पुजारी-पुरोहित के लिए ज्यादातर लोग बच्चा हैं। वे कहते हैं- ‘बच्चा, कल्याण हो। आओ बच्चा, तिलक लगा दूँ।‘ गिरजाघर में पादरी की भी कमोबेश यही स्थिति होती है। उसके तईं हर आदमी- ‘माई चाइल्ड’ है। इसलिए वे कहते हैं- ‘गॉड ब्लेस यू माइ चाइल्ड!’
आजकल समाज में धर्म-गुरुओं की बाढ़ आई हुई है। उनमें से कुछ तो बिलकुल तरुण ही हैं। वे एक सिरे से सभी को बच्चा संबोधित करने से बचना चाहते हैं। वे अपने पास आनेवाले व्यक्तियों को भाई और बहन, माता आदि कहकर संबोधित करते हैं। दीक्षा ले चुके शिष्यों को वे साधको, भाइयो और बहनो ही कहते हैं।
संबोधन-शब्दावली पर स्थानिक परिवर्तनों का प्रभावः-
संबोधन भाषिक संवाद की शुरुआत करने और संप्रेषण को अधिकाधिक असरदार बनाने के काम आते हैं। इसलिए स्थान-परिवर्तन के साथ संबोधन-शब्दावली में भी परिवर्तन का आना स्वाभाविक है। इस लिहाज़ से संबोधनों की स्थानिक भंगिमाओं का विहंगावलोकन करना समीचीन रहेगा। वक्ता जब अपने मुख से संबोधन का पहला शब्द उच्चरित करता है, तभी से उसके वतन, प्रान्त, शैक्षिक स्तर और सामाजिक हैसियत और उसकी तात्कालिक मनोदशा का कुछ आभास मिलना आरंभ हो जाता है। उदाहरण के लिए अफगानी पठान, लाले की जान के बिना कोई बात कहना शुरू ही नहीं कर सकता। पंजाबी सरदारजी ओए कहकर बात कहना शुरू करेंगे, जबकि लखनवी लोग अमां कहकर। भोजपुरी-भाषी को कुछ पूछना हो तो का हो बोलेगा। दिल्ली वालों ने भइया को भइये बना डाला है, जैसे- ‘भइये रख दे, भइये तुझसे नहीं होगा’। हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में भई भी खूब चलता है, जैसे ‘भई मैं तो चला, भई ऐसे कैसे जा सकते हो आप’! इस लिहाज से भई भी एक संबोधन ही है। वहीं तमिल लोग बात-बात पर अइयो रामा. अइयो-अइयो कहते हैं।
शहरों में कई बार हेलो का उपयोग संबोधन के लिए ही होता है। आजकल जब हम किसी को फोन मिलाते हैं तो उधर से या इधर से, यानी दोनों तरफ से हेलो बोलकर ही श्रोता को संबोधित किया जाता है। लक्ष्य श्रोता के अनुसार हेलो की तान-अनुतान बदलती रहती है। संबोधन की दुनिया में हेलो ने लंबी यात्रा तय की है।
संबोधन-सूचक शब्दों की फेहरिश्त लंबी हो सकती है। इनमें से कुछ सार्थक शब्द होते हैं, जबकि कुछ केवल ध्वनियाँ मात्र, जिनका कोशीय अर्थ हमें शायद ही मिले। सच कहें तो भाषा-वैज्ञानिक नज़रिए से संबोधन शब्दावली का सम्यक अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है। बड़े भाषा-समुदायों के समुचित सर्वेक्षण और विश्लेषण के उपरान्त संबोधन-शब्दावली संबंधी बहुत से रोचक तथ्यों के प्रकाश में आने की संभावना है। इसलिए इस विषय का विस्तृत अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।
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डॉ. आर.वी. सिंह
उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)/ Dy. G.M. (Hindi)
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक/ Small Inds. Dev. Bank of India
प्रधान कार्यालय/Head Office
लखनऊ/Lucknow- 226 001
लाजवाब जानकारी....आप का शोध प्रशंसनीय है...बहुत बहुत बधाई....
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-कुछ हमसे सुनो कुछ हमसे कहो
सुंदर आलेख !
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख है
जवाब देंहटाएंवाह सर, क्या बात है, इस विषय पर आलेख भी लिखा जा सकता है शायद ही किसी ने सोचा हो, यह आपकी पैनी दृष्टि एवं लेखक धर्म की सफलता है कि इस विषय पर इतना अच्छा आलेख मिला है। साधुवाद.
जवाब देंहटाएंआज दिन में किसी समय फोन करुंगा....
सादर
आपके लेख हमेशा ही ज्ञानवर्धक होते हैं . प्रशंसनीय
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