श्याम गुप्त १. तेरे कितने रूप गोपाल । सुमिरन करके कान्हा मैं तो होगया आज निहाल । नाग-नथैया, नाच-नचैया, नटवर, नंदगोपाल । मोहन, मधु...
श्याम गुप्त
१.
तेरे कितने रूप गोपाल ।
सुमिरन करके कान्हा मैं तो होगया आज निहाल ।
नाग-नथैया, नाच-नचैया, नटवर, नंदगोपाल ।
मोहन, मधुसूदन, मुरलीधर, मोर-मुकुट, यदुपाल ।
चीर-हरैया, रास -रचैया, रसानंद, रस पाल ।
कृष्ण-कन्हैया, कृष्ण-मुरारी, केशव, नृत्यगोपाल |
वासुदेव, हृषीकेश, जनार्दन, हरि, गिरिधरगोपाल |
जगन्नाथ, श्रीनाथ, द्वारिकानाथ, जगत-प्रतिपाल |
देवकीसुत,रणछोड़ जी,गोविन्द,अच्युत,यशुमतिलाल |
वर्णन-क्षमता कहाँ 'श्याम की, राधानंद, नंदलाल |
माखनचोर, श्याम, योगेश्वर, अब काटो भव जाल ||
२.
ब्रज की भूमि भई है निहाल |
सुर गन्धर्व अप्सरा गावें नाचें दे दे ताल |
जसुमति द्वारे बजे बधायो, ढफ ढफली खडताल |
पुरजन परिजन हर्ष मनावें जनम लियो नंदलाल |
आशिष देंय विष्णु शिव् ब्रह्मा, मुसुकावैं गोपाल |
बाजहिं ढोल मृदंग मंजीरा नाचहिं ब्रज के बाल |
गोप गोपिका करें आरती, झूमि बजावैं थाल |
आनंद-कन्द प्रकट भये ब्रज में विरज भये ब्रज-ग्वाल |
सुर दुर्लभ छवि निरखे लखि-छकि श्याम’ हू भये निहाल ||
३.
कन्हैया उझकि उझकि निरखे |
स्वर्ण खचित पलना चित-चितवत केहि विधि प्रिय दरसै |
जहँ पौढ़ी वृषभानु लली, प्रभु दरसन कौं तरसै |
पलक पांवड़े मुंदे सखी के, नैन कमल थरकैं |
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों, फर फर फर फरके |
तीन लोक दरसन कौं तरसें, सो दरसन तरसै |
ये तो नैना बंद किये हैं, कान्हा बैननि परखे |
अचरज एक भयो ताही छिन, बरसानौ सरसे |
खोली दिए दृग भानुलली,मिलि नैन, नैन हरषे|
दृष्टिहीन माया, लखि दृष्टा, दृष्टि खोलि निरखे|
बिन दृष्टा के दर्श श्याम, कब जगत दीठ बरसै ||
४.
कान्हा तेरी वंसी मन तरसाए |
कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये |
ज्योति दीप मन होय प्रकाशित, तन जगमग कर जाए |
तीन लोक में गूंजे यह ध्वनि, देव दनुज मुसकाये |
पत्ता-पत्ता, कलि-कलि झूमे, पुष्प-पुष्प खिल जाए |
नर-नारी की बात कहूँ क्या, सागर उफना जाए |
बैरन छेड़े तान अजानी , मोहनि मन्त्र चलाये |
राखहु श्याम’ मोरी मर्यादा, मुरली मन भरमाये ||
५.
बाजै रे पग घूंघर बाजै रे ।
ठुमुकि ठुमुकि पग नचहि कन्हैया, सब जग नाचै रे ।
जसुमति अंगना कान्हा नाचै, तोतरि बोलन गावै ।
तीन लोक में गूंजे यह धुनि, अनहद तान गुंजावै ।
कण कण सरसे, पत्ता पत्ता, हर प्राणी हरषाये |
कैसे न दौड़ी आयं गोपियाँ घुँघरू चित्त चुराए |
तारी दे दे लगीं नचावन, पायलिया छनकैं |
ढफ ढफली खड़ताल मधुर-स्वर,कर कंकण खनकें |
गोल बनाए गोपी नाचें, बीच नचें नंदलाल |
सुर दुर्लभ लीला आनंद मन जसुमति होय निहाल |
कान्हा नाचे ठुम्मक ठुम्मक तीनों लोक नचावै रे |
मन आनंद चित श्याम’, श्याम की लीला गावै रे ||
----डा श्याम गुप्त, के-३४८, आशियाना, लखनऊ
--------.
मोतीलाल
वह अकारण ही
रोने लगती है
फूल सजाते हुए
या आंगन बुहारते हुए ।
वह जब हंसती है
ताजगी की जगह
पतझड़ सा मौन पसर जाता है
उसके सीने में
या फिर देहरी की ओट में ।
अनायस ही कहीं
उसके अपने वजूद में
घुलमिल जाती है
एक लंबी मौन
और घुटते रहने की त्रासदी
सेंकती रहती है
घुंघट की ओट में ।
जीने की प्रक्रिया में वह
पीसती रहती है
सुबह से सांझ तक
एक टूकणा किरण के लिए
जो नितान्त अपना हो
सिर्फ अपना ।
जब नहीं पाती है यह क्षण
चुप्पी साध लेती है वह
ताकि औरत होने की चिंता
सुलगते रहने जगह
खामोशी की आवाज
कोई तो सुन सके ।
* मोतीलाल/राउरकेला
------------.
विजय वर्मा
स्व की खोज
हम क्यूँ नहीं सुन पाते
प्रकृति के उस स्वर को
जो छिपी है जल-धारा में ,
तरु-पत्रों की खिलखिलाहट में
सरसराती हवाओं में ,
पहाड़ों की दुआवों में ?
क्यूँ खींचती नहीं है
आसमां की ऊँचाई
सागर की गहराई
सूरज की लालिमा
क्षितिज की गरिमा ?
दूसरों से हम करते हैं बातें ,
खुद से क्यूँ कर नहीं पाते ?
हम क्यूँ नहीं भूल पाते
स्त्री या पुरुष होने को
या सच कहूँ तो ' होने' को ?
क्या 'होना' इतना अनिवार्य है ?
क्या 'खोना ' इतना कठिन है ?
खुद को याद रखने कि
भला ऐसी भी क्या बाध्यता है?
खुद को खोना ही तो
खुद को पाने की पात्रता है।
--
v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
---------------.
दीप्ति शर्मा
1.कुबड़ी आधुनिकता
मेरा शहर खाँस रहा है
सुगबुगाता हुआ काँप रहा है
सडांध मारती नालियाँ
चिमनियों से उडता धुआँ
और झुकी हुयी पेडों की टहनियाँ
सलामी दे रहीं हैं
शहर के कूबड पर सरकती गाडियों को ,
और वहीं इमारत की ऊपरी मंजिल से
काँच की खिड़की से झाँकती एक लड़की
किताबों में छपी बैलगाड़ियाँ देख रही है
जो शहर के कूबड पर रेंगती थीं
किनारे खड़े बरगद के पेड़
बहुत से भाले लिये
सलामी दे रहे होते थे।
कुछ नहीं बदला आज तक
ना सड़क के कूबड़ जैसे हालात
ना उस पर दौड़ती /रैंगती गाड़ियाँ
आज भी सब वैसा ही है
बस आज वक़्त ने
आधुनिकता की चादर ओढ़ ली है ।
2. दमित इच्छा
इंद्रियों का फैलता जाल
भीतर तक चीरता
माँस के लटके चिथड़े
चोटिल हूँ बताता है
मटर की फली की भाँति
कोई बात कैद है
उस छिलके में
जिसे खोल दूँ तो
ये इंद्रियाँ घेर लेंगी
और भेदती रहेंगी उसे
परत दर परत
लहुलुहाल होने तक
बिसरे खून की छाप के साथ
क्या मोक्ष पा जायेगी
या परत दर परत उतारेगी
अपना वजूद / अस्तित्व
या जल जायेगी
चूल्हें की राख की तरह
वो एक बात
जो अब सुलगने लगी है।
--------.
जसबीर चावला
ईश्वर 'तू' रास्ता भटक गया
------------------------
ईश्वर 'तू' रास्ता भटक गया
बचा सके तो बचा ले
ख़ुद को
'इन'खिदमतदारों से
'तू' तो अब 'तू' न रहा
बदल चुका
पवित्रस्थलों में अंदर बाहर
हर कहीं
विचार आत्मा में
ग्रंथो की व्याख्या
न मेल खाती तुझसे न भावना से
तेरे नाम पर ढोंग स्वांग
दांव पर साख
कहाँ अब राम कृष्ण ईसा
सपने में भी आते तेरे फ़िल्मी किरदार
पोस्टर पुतले
नानक अब विचार नहीं
न क्रांति न सुधार
खाली कर्मकांड
फोटू
'सो किओ मंदा आखिए जितु जंमहि राजान'*
'मानस की जात सभे एकै पहिचानबो'*
बस पढ़ने की बाणी
तेरे से स्पर्धा तेरी 'तू' ही रहा हार
कोई सौ साल पहले था बाबा सांई
फक्कड़ फ़क़ीर
उसे बनाया अरबपति अमीर
लादा सोने से
हो गया भगवान
मूर्ति में जड़ कर विचार से मुक्त किया
अवैध दीवार जो गिरती है गांव में
सारे मुल्क में हंगामा
'तूने' तो हर जगह अतिक्रमण किया
पार्क सड़क धर्म का ढाबा
'तू' तो वैध है
आराधना स्थल अवैध क्यों
क्या मर्ज़ी से हुआ
तुझे तोड़ मरोड़ दिया
बाबाओं ने कहाँ से कहाँ जोड़ दिया
खुदा बन अपने बुत तराशे
धर्म पंाच सितारा हुआ आश्रम सैरगाह
पलायनवादी चेनल
प्रचार अपना नाम तेरा
'तू'शोर हुआ रे
मौन साधना से परे
लाउडस्पीकर बन धर्म पर टंगा
अंर्तमन के सूफ़ी रिश्ते आतंकी जुलूस बने
'निराकार' विकृत होकर निर्लज्ज विकार हुआ
ईश्वर जो'तू'अब न सँभला मिट जायेगा
'बिग धर्म बाज़ार'
माल खुली है
शोकेस में 'तू' होगा चाँदी काटते मेनेजर
*(महिलाओं को बुरा क्यों कहते हो-उन्होंने ही राजाओं को जन्म दिया है-गुरूनानक.
मानवकी प्रजाति ही उसकी जाति और पहचान है और सब एक हैं-गुरू गोविंद सिंह)
***
समुद्र मंथन तब और अब
----------------------
अंततःअसुरों की हार हुई
तय थी
समुद्र मंथन में
असुर जो ठहरे
उन्हीं का सहारा
अमरत्व का झाँसा
वे हारे
छल / धोखे से
रणनीतिक साझेदार
भगवान विष्णु कच्छप
वासुकि नाग रस्सी
मन्दराचल पर्वत मथानी
भीषण गर्जन हुआ
चौदह रत्नों को निकलना ही था
कामधेनु ऋिष ले गये
एरावत इन्द्र
विष्णुजी को स्वयं वरा माँ लक्ष्मी ने
अप्सरा रंभा
देवलोक गई
इन्दर सभा में रिझानें
बाक़ी रत्नों का भी देव न्याय हुआ
असुरों के हाथ लगा अमृतघट
बल से
देवत्व हताश हुआ
भगवान मोहनी बने
नैन बाण चलाये रिझाया
असुरों को सोमरस पिला मदहोश किया
अमृत पंात में जा बैठा चालाक राहू
कंठ से अमृत उतार न पाया
धड़ से सिर कटवा बैठा
'सुदर्शनचक्र' के वार से
राहूू-केतु होकर पड़ा है अभी
भुनभुनाता आकाश की किसी लूप लाईन में
प्रभु तेरी लीला अपंरम्पार
तेरी माया तू ही जानें
**
छल आज भी हुआ
'आम' आदमी के संग
नाम उसका लिया
वैश्विकरण के अनुष्ठान / विकास मंथन में
हाशिये पर बैठाया
दंुदुभि बजी प्रचार हुआ
विचार विहीन मंथन
रत्नों का ज़ख़ीरा निकला
स्विस बैंक लाकर की चाबी
स्वर्ण भंडार / करंसी चेस्ट / कुर्सियाँ
कोयला खदानें / गैस भंडार / खनिज / स्काच
भू सम्पदा / जंगल / स्पेक्ट्रम
एअरपोर्ट / पावर स्टेशन / थाई मसाज
सुख के केप्सूल
मंथन के साझेदार
क़िस्म क़िस्म के अपराधी नेता
उद्योगों के'पति'
देशी विदेशी कंपनियाँ
'सेज'की सजी सेज
सत्ता का मक्खन
तश्तरी में लिये सरकारें
'खास' वर्ग'के हाथ
सुमरनियां भी मिली
बीस सूत्रीय / ग़रीबी हटाओ / फ़ीलगुड
मंदिर बनाओ
लाओ मंडल भगाओ कमंडल
साम्प्रदायिक ज़हर
कुछ साफ्टवेयर नौकरियाँ
पैंसठ वर्ष के जवान सपने
मनरेगा बीपीएल कार्ड
खजुराहो सेफई महोत्सव
राखी सांवत
लाड़ली योजना / मुफ्त तीर्थ यात्रा
पोलियो का टीका
आम जन की छाछ
ता ता थैया
'छछिया भरी छाछ पे नाच नचावे'
मध्यमवर्ग फेरने लगा माला
जोड़ने लगा ईएमआई
चंद सुख के टुकड़े उछले भुक्कड़ो की जमात में
मच गया शोर सारी नगरी में
मंथन अभी चल रहा उम्मीद टूटी नहीं
टकटकी बांधे आँखें
क्या पिक्चर अभी बाक़ी है
***
गोरैया : अब मकान भी चुप रहता है
-------------------------------
जब मकान थे कच्चे पक्के
घर के अंदर घर था
गोरैया चिड़ीया का घर
लटकी फ़ोटो / छत की संधि / पड़छत्ती गट्ठर के पीछे
उसके भी हिस्से का घर था
टूटी खिड़की दफ़्ती लगाते
किसी तरफ़ से घुस आती
जीत उसी की
उड़ कर आती तिनके बिखराती
झाड़ू देती माँ नाराज़
डाँट खाते बच्चे अंडों को जो छू लेते
फूटता कोई अंडा सबके दुखी चेहरे
पंखे से टकरा कभी कट जाती गोरैया
पानी पिलाते
मर जाती तो शोक मनाते
नन्हें बच्चों की चीं चीं
दाना दुनका खाते
घर किलकता कलरव कोलाहल होता
बेदख़ली का कभी ख़्याल न आया
मन के कोने में
आत्मकेंद्रित हुए अब
मन मकान
दिखी कब से गोरैया याद नहीं
बरसों से नहीं चिंचियाई बेटी सी घर में
और अब मकान भी चुप रहता है
***
महलों में भी लोग मरते हैं
----------------------
अचानक परम सत्य उद्घाटित हुआ
बच्चे बूढ़े कैंप में ही नहीं
महलों में भी मरते हैं
मंत्री बोले
सचमुच किसी को नहीं पता था
पच्चिस सौ साल पहले
तथागत ने देखा
बच्चों को जवान बूढ़ा होकर मरते
यशोधरा को महल में छोड़ा
राजपाट त्यागा
भटके परम सत्य की तलाश में
गौतम बुद्ध कहलाए
हर कहीं आनी है मौत
इस इलहाम के बाद
क्या रखा है मंत्री पद में
रहो कैंप में खुले आसमान के नीचे
राजवंश के साथ
पहनों ख़ैरात के कपड़े इमदाद की रोटी
टपकता पानी / ठंड
सबके सामने रोओ गिड़गिड़ाओ
बेबसी / लाचारी / माँगो भीख
बे पर्दा होने दो अपनी ज़ीनत को
और बिना इलाज दवाई के मर जाओ एक दिन
ताकि कह सको मरना तो अटल सत्य है
मौत हर जगह आती है
***
सही कौन
---------
ज्ञानी कहता
अजर अमर है
आत्मा
कभी मरती नहीं
*
'मूर्ख' कहता
शरीर मरेगा बाद में
आत्मा
पहले ही मर चुकी
***
सब कुछ
-------
सब कुछ तो दिया
भगवान ने
गाड़ी
बंगला
बैक बेलेंस
पत्नि
बच्चे
डायबिटिज
ब्लड प्रेशर
ह्रदय रोग
फिर भी दुखी हैं
***
बेटी बेटे
-------
उन्होंने बेटियों को
बेटों समान पाला
*
किसी बेटे को नहीं
बेटी समान पाला
***
===========.
कृष्णा कुमारी
धूप
कितनी अच्छी लगाती धूप
सुबह -सुबह की कच्ची धूप
सात रंग ज्यों सातों सुर
इक सम्पूर्ण रागिनी धूप
सुबह उतर कर सीढ़ी से
शाम पड़े चढ़ जाती धूप
खूब शरारत करती है
दिन भर नटखट बच्ची धूप
कौन पकड़ पाया इस को
कैसी चंचल तितली धूप
दबती है न किसी शै से
हरदम ऊपर रहती धूप
कल फिर आऊँगी कह कर
किस ने जाती देखी धूप
जीवन इक ,महबूबा तीन
बरखा ,वायु ,सुहानी धूप
किसी परी सी लगती है
'कृष्णा 'छ्त पर बैठी धूप
------
तलवंडी ,कोटा [राज। ]
==============
अनिल उपहार
जो झपट रहें है कुर्सी पर उनसे ये मेरा गीला है |
अधिकार बहन कों जीने का क्यों अब तक नही मिला है |
(१)
डोले भी इनके मंगवाएँ, और कोठों पर भी पहुंचादी |
जब इसने होठ हिलाए तो,दीवार में जिन्दा चुनवादी |
खामोश देखिये कहता हूँ,अब हरगिज़ नही रहूँगा |
फांसी पर भी लटकादो तुम,फिर भी यही कहूँगा |
सबसे बड़ा दुश्मन इनका,दिल्ली का लाल किला है |
(२)
ठोकर से इसको ठुकरादी,और हिस्सों में भी बांटी है |
जब इसने प्यार जगाया तो,फिर नाक भी इसकी काटी है |
दासी सा व्यव्हार किया और जुएँ में भी हारी |
भरी सभा में हम लोगों ने जबकि इसे उघारी |
अपनी अपनी कुर्सी से,कोई तिल भर नहीं हिला है |
(३)
सूखे में हमें सुलाये है,ये खुद गीले में सोयी है |
कांटा जब लगा हमारे तो,यह फूट फूट कर रोई है |
पहलें हमने अग्नि परीक्षा तक इससे दिलवादी|
उसके बाद फिर धक्के देकर घर से इसें भगादी |
बोलो इनके अहसानों का क्या बस् यही सिला है |
---
औरत
रोज की भागम भाग,
सीने में दबाये दहकती आग
वक़्त की मार,
तानों की बोछार,
दोहरी जिंदगी कों
ढो रही सदियों से |
अपनों से छली गई,
तंदूर में तली गई,
समर्पण की त्रासदी कों
कब तलक पीती रहेगी ?
हाँ
यह औरत है |
सब कुछ सहती रहेगी |
बीबी किसी की
बेटी किसी की
बहन किसी की
सब कुछ लुटाकर
अपनों के बीच
खुद कों मिटाकर
देहरी के दीप सी
जलती रहेगी |
हाँ
यह औरत है
सब कुछ सहती रहेगी |
--
आस्था,आलम्बन,विश्वास,
सदियों से यही तो चाहा था,
तुमसे इस समाज ने |
कभी तुम ययाति की बेटी
माधवी बन,उत्सर्ग करती रही |
कभी त्रेता की रेणुका बन,
नही पूछ पाई कोई प्रश्न
अपने पति या पुत्रों से |
कभी तुम अहिल्या बन,
युग युगों तक इन्द्र के पाप का
दण्ड भोगती रही-
जबकि जानते थे सब,
की तुम छली गई हो,
द्रोपदी के चीर हरण से लेकर
सामूहिक बलात्कार कांड तक |
हर बार तुम्हीं होती रही,
सामाजिक एवं मानसिक रुग्णता की
शिकार |
तुम्हारी इस दशा के लिए
आखिर कौन है जिम्मेदार ?
समाज की सामंत वादी सोच
या
सुन्न पड़ी संवेदना |
कभी तुम कबीर की वाणी का
आधार बनी,
तो कभी जायसी के स्वच्छंद प्रेम
की अभिव्यक्ति-
फिर भी,हर बार तिल तिल कर
मरती रही हो तुम, और
यह समाज हर बार शब्दों के मरहम से
भुनाता रहा तुम्हें |
निर्भया |तुम्हांरी मौत ने
खड़े किये है अनेक सवाल |
वो सारे प्रश्न है आज भी
अनुत्तरित |
जो शाश्वत,सार्वभौमिक,और सर्वकालिक
उत्तर अवश्य ही ना बन पाए |
इन्हीं में गुम है तुम्हारी रूह के
ताज़ा ज़ख्म,
जो बयां कर रहें है-
औरत होने की अंत हीन पीड़ा को |
----
उनके सियाह बालों में, अब भी महक तो है |
बस सिर्फ़ रंग बदला है लेकिन चमक तो है |
मैं क्या बताऊँ अब, मेरे महबूब की कमर |
पतली नही तो क्या हुआ ,उसमे लचक तो है |
हम जैसे बद नसीबों कों ,यारों जहांन में |
जीने का हक नहीं है तो ,मरने का हक तो है |
मिलने कों बेकरार है कंगन से चुडियां |
माना ये दोनों दूर है फिर भी खनक तो है |
माना कि उनका रंग है ,उपहार साँवला |
सब कुछ है फिर भी चेहरे के ऊपर नमक तो है |
---
आज की रात जुबा पर ना लगाओ ताले
वरना बदनाम हमें कर देंगे दुनियां वाले |
रात दिन दिल में यही फ़िक्र लगी रहती है
जान ले ले ना मेरी ये तेरे गेसू काले |
दिल मैं हसरत है यही मैं तेरा दीदार करूं
भेज कर खत मुझे इक बार तो घर बुलवाले |
तेरे कदमों में मैं खुद कों भी निछावर करदूं
आजा आजा मेरी तकदीर बदलने वाले |
मैं ये समझूंगा मेरी जीत यक़ीनन होगी
अपने उपहार कों इक बार जो तू अपनाले |
----(अनिल उपहार )
'काव्यांजलि' पिडावा जिला
झालावाड (राज.)326034
best regards
Anil Jain Uphar
kavi, geetkar
9413666511
aniluphar123@gmail.com
--------------
कल्याणी कबीर
सुनो सियासत के शातिर मदारी ,,
एक दिन मेरी भूख तुम्हारे दरवाज़े पर जाकर चीखेगी ,चिल्लाएगी ,,शोर मचाएगी
छीनेगी तुम्हारे पालतू कुत्ते से अपने हिस्से की रोटी
और हमारी उदास आँखें तुम्हारी गाड़ियों से भी तेज़ ख्वाब बुनेंगी
उस दिन अपनी नफ़रत को स्याही बनाकर
हम लिखेंगे दास्ताने बर्बादी तुम्हारी
और फिर उस बगावत के सारे हर्फ़
तैरेंगे फ़िज़ाओं में गीत बनकर
करेंगे हमारे हक़ की बात
बताएँगे कि जम्हूरियत तुम्हारे घरों की दीवारों पर लटका कैलेण्डर नहीं है
जिसे तुम पलट दो अपने फ़ायदे देखकर
बल्कि ये पन्ने हैं हमारी तक़दीर के
जिसे हम ही लिख सकते हैं
अपनी ताकत , हिम्मत और कोशिश की कलम से
और गर जरुरत पड़ी तो
तलवार से भी
-----------.
चन्द्र कान्त बंसल
जरा ध्यान से
जब भी मुंह खोलो जरा सोच समझ के बोलो
मुंह से निकलते ही अपनी ही बात पराई हो जाती है
देखो कितनी शिद्दत से वो शमा के चक्कर काटता है
ऐसे ही नहीं किसी से एक दो दिन में आशनाई हो जाती है
हाकिम के दरबार में मैं अक्सर चुप ही रह जाता हूँ
क्योंकि जब भी मैं सच बोलता हूँ हाकिम की रुसवाई हो जाती है
बड़े बुजुर्गों की हर बात को जरा ध्यान से सुनना
कभी कभी साधारण सी बात में भी बड़ी गहराई हो जाती है
अनुभव को छोड़ के सिर्फ नए हौसलों के सहारे उड़ाने
ऐसे में कई फाख्ताये अपने आशियाने तक लौट नहीं पाती है
ग़ज़ल
खुद ही खुद को तबाह किया मैंने
न जाने कौन सा गुनाह किया मैंने
इश्क की राह होती है काँटों भरी
इस पर चलने से पहले खुद को आगाह किया मैंने
ये है मेरी जिंदगी की तमाम खुशियाँ
ले जा इनको खुद ही तेरी निगाह किया मैंने
तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूँ बस इतना समझ ले
सपने में भी तुझे देख के लिल्लाह किया मैंने
दुश्वारी के ऐसे भी दिन आ गए है ग़ज़ल ख्वारी में
अपने ही शेर पढ़ के खुद ही वाह वाह किया मैंने
मुझे खबर है बड़े बुजुर्गों की दुआएं साथ देती है
इसलिए माँ बाप की नसीहतों को सदा हमराह किया मैंने
चन्द्र कान्त बन्सल (09453729881)
निकट विद्या भवन, कृष्णा नगर कानपूर रोड लखनऊ
------------.
प्रमोद यादव
किससे करें नमन की बातें.../
आओ करें जलन की बातें
जलते हुये हवन की बातें
हर पत्थर केवल पत्थर है
किससे करें नमन की बातें
नफ़रत तो सबकी बोली है
हम तुम करें लगन की बातें
जिसने छू ली चाँद की धरती
भूला वही अमन की बातें
तुम बहार हो तुम्हें मुबारक
बुलबुल और चमन की बातें
xxxxxxxxxxxxx
तीन मुक्तक /
मैं कुंवारी चूड़ियों का आचमन हूँ
देव-चरणों पर झुका जो वह नमन हूँ
छू न पाया हो मलयानिल जिसे कभी –
वह तुम्हारे द्वार पर मैं आगमन हूँ
मन की यह आसक्ति नहीं, जाप है
पूजा स्वर में अनुगुंजित आलाप है
बंद करो मत प्रीत ह्रदय के कारागृह में-
संबंधों की चोरी करना पाप है
मैं नहीं लाक्सित किसी अवरोध में हूँ
या नहीं चर्चित किसी प्रतिशोध में हूँ
हूँ अबोले गीत का बिखरा हुआ स्वर-
किन्तु वर्णित आज मैं युगबोध में हूँ
-----------------.
कविता मानसिंघानी
कारवाँ निकलता है रोज़ मेरे अरमानों का ,
पता भी मिलता है सिर्फ कोयले की खदानों का ,
उसमें भी की है कोशिश हीरा ढूँढने की ,
लेकिन नज़ारा भी मिलता है तो सिर्फ राख के ख़ज़ानों का !
---
अमित कुमार गौतम ''स्वतंत्र''
जन गीत
प्यारा है हम सब का वतन ।
मेरा देश हो या कोई वतन ॥
हम बंधे हुए इक दूजे से ।
हिंदू मुस्लिम सिक्ख इसाई से ॥
प्यारा है हम सब का वतन ...........३३३३३ण्
हरियाली की क्रांति है लाता ।
मेरा देश कृषि प्रधान कहलाता ॥
हम युवा जन सब मिलकर ।
करते घुल मिल वृक्षारोपण ॥
प्यारा है ....................................३३३३३३ण्ण्
खडा हुआ ये हिमालय पर्वत ।
जिससे उदगम होती गंगा निर्मल ॥
जड़ी बूटियों का संग्रह गृह है।
जिससे मिलता जीवन सबको ॥
प्यारा है ..........................................................................
डटे हुए उन वीर जवानों को ।
करता हर देशभक्त सलाम ॥
हम सबकी जो रक्षा करता ।
कहलाता वह देश की शान ॥
प्यारा है .....................................................................
अमित कुमार गौतम ''स्वतंत्र''
ग्राम-रामगढ नं़2,तहसील-गोपद बनास
जिला-सीधी(म.प़) 486661,
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देवेन्द्रसिंह राठौड़ (भिनाय),
अपनी आजादी की खातिर वो जतन करते गये,
मरते गये, मिटते गये, वन्दे वतन करते गये ।
राह ऐ आजादी में दी है सैकड़ों कुर्बानियां,
मानकर इसको हवन दी, सैकड़ों आहुतियाँ ।
हँसकर कटाया अपना सर, माँ को नमन करते गये,
मरते गये, मिटते गये, वन्दे नमन करते गये ।
लेकर वो,”तिनका” हाथ में टकरा गये तूफान से,
प्यारी थी, आजादी उन्हें..था,प्यार अपनी आन से ।
खा-खा के लाठी, गोलियां जख्मी वो तन करते गये,
मरते गये, मिटते गये, वन्दे वतन करते गये ।
हौसले फौलाद जिनके क्या बिगाड़े आँधियां,
रुख बदल देती हवा जब वो करे रोशन दिया ।
करके खुद को खाक वो, रोशन चमन करते गये ।
मरते गये, मिटते गये वन्दे वतन करते गये ..
अपनी आजादी की खातिर वो जतन करते गये,
मरते गये, मिटते गये, वन्दे वतन करते गये ।
धरती ने ओढी चुनर लाल-लाल,
धरती ने ओढी चुनर लाल-लाल,
बेटे बहाये लहू आन पे,
जैसे कि कोई उड़ाये गुलाल ।
धरती ने ओढी चुनर लाल-लाल..
खतरे में देखो पड़ी माँ की लाज,
कि दूध का ऋण चुकाना है आज ।
खेलेंगे हम, अपनी जान पे,
दुश्मन का बन जाना है हमको काल ।
धरती ने ओढी चुनर लाल-लाल..
रंगलो “बसन्ती बदन” शान से,
धरती ये प्यारी हमे प्राण से ।
कुर्बान हो जाओ सम्मान पे,
माता कि खातिर मिटे माँ के लाल ।
धरती ने ओढी चुनर लाल-लाल...
माथा हिमालय का उँचा रहे,
फिर चाहे जीवन रहे ना रहे ।
हँसते रहे लुटते अरमान पे,
ऐसे “बेटों” को पा के हुई माँ निहाल ।
धरती ने ओढी चुनर लाल-लाल,
बेटे बहाये लहू आन पे,
जैसे कि कोई उड़ाये गुलाल ।
संपर्क :- देवेन्द्रसिंह राठौड़ (भिनाय),
395, बी.के.कौल नगर अजमेर
Email:- dsrbhinai@gmail.com
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बाल कवि 'हंस'
'हंस' के दोहे
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क्या कहेंगे लोग मुझे
एक बड़ा है रोग
काम अधूरा रह गया
मिला नहीं सहयोग ।
शादी-तिलक की बातें
रहा झूठ का खूंट
पीकर मरता जा रहा
'हंस' खून का घूँट ।
जन्म-मृत्यु तक का सफ़र
यश-अपयश या भोग
'महाभोग' ये कर्म के
'भटकन' में हैं लोग ।
भाई-भाई अब नहीं
घर-घर में जयचंद
सारा जीवन है पड़ा
स्वार्थ-लोभ में बंद ।
मछली या कांटे मिले
जूठी रोटी-खीर
मिले प्रेम से पेट में
ऐसा 'हंस' फ़क़ीर ।
पता- L 4/ 50, डिस्पेन्सरी रोड, कदमा, जमशेदपुर-५
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नितेष जैन
झूठी खुशी ........
जब कभी ये दिल यूं उदास होता है
खुद को छोड़ अपनों को याद करता है
कभी कुछ सोचता है, कभी कुछ करता है
बीते लम्हों को याद कर पल-पल गुजारता है
एक आस लेकर ही दिन की सुबह होती है
और शाम का सूरज ढलता है
इस बीच कभी ये दिल चैन पाता है
तो कभी यूं ही ज़ोर के धड़कता है
कभी चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है
कभी आंखें नम हो जाती है
हर लम्हा लगता जैसे एक तन्हा जिन्दगी है
चेहरे पर होती है तो बस एक झूठी खुशी ..........
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निधि जैन (एक गुमनाम कवियत्री)
तेरा होने की चाहत में
किसी के ना हो सके हम
ना खुल के हंस सके
ना खुल के रो सके हम
जिसको हमने चाहा था
वो किसी और का था पहले ही
ना उसको पा सके
ना उसको खो सके हम
कर्मों ने खेला
ज़िन्दगी का खेल ये निराला
जिसमें हारे ही हारे हैं
पर कभी ना जीत सके हम
अपना अपना कहते कहते जिनको
हमने ये जीवन गुजारा
उन अपनों के कभी
"अपने" ना हो सके हम
गालियां ही पाना था शायद
नसीब में हमारे
पर कभी किसी की
दुआ ना पा सके हम
आँख खुली तो हर तरफ
तन्हाई थी, उदासी थी
चाह कर भी कभी
मुस्कुरा ना सके हम
देखे थे कुछ ख्वाब
सजाये कुछ सपने थे हमने भी
सपने सपने ही रह गए
उन्हें हकीक़त ना कर सके हम
दिल के जख्म धीरे धीरे
नासूर हो गए
चाह कर भी कभी उन पे
मलहम ना लगा सके हम
सोचा था कुछ ऐसा
कहेंगे हम भी अपना हाल सबसे
सुना बहुत कुछ सबसे
पर कभी किसी से कुछ कह ना सके हम
ज़िन्दगी की कविता
अधूरी की अधूरी ही रह गयी
कोशिश तो बहुत की
पर उसे पूरा ना कर सके हम
ना खुल के हंस सके
ना खुल के रो सके हम
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बच्चन पाठक 'सलिल'
वे गरीबी बेचते हैं
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आज के साहित्यकार और कलाकार
नेता और अभिनेता
गरीबी बेचते हैं ।
झुग्गी झोपड़ियों की दुर्दशा पर
घड़ियाली आँसू बहाते हैं
लोगों के द्वारा संवेदनशील कहलाते हैं ।
हजारों और लाखों में लेते हैं फीस
नाटकीय मुद्रा में गरीबों को जगाते हैं
होटलों में लेते हैं बढ़िया डिनर
इस प्रकार गरीबों को संवेदना पहुंचाते हैं ।
कविता में, कहानी में बाजारबाद का रोना है
पर अपने इम्पोर्टेड टुथ पाउडर से मुंह धोना है
रोटी और लंगोटी तो चली गयी गांधी के साथ
अब तो ऐश करना है, मंच पर गरीबों के लिए रोना है ।
ऐ कलमकारों और कलाकारों सोचो--
यह दोगली नीति कब तक चलेगी?
कब तक गरीबी बेचोगे
क्या ऐसी कला समाज को नहीं खलेगी?
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हम भी फूल बनें
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फूल सदा प्रसन्न रहता है
बांटता है सुरभि, दिगदिगन्त में
वह अपना परिवेश नहीं देखता
पास में गोबर हो, कीचड़ हो या हों झाड़ियाँ
फूल सदा मुस्कुराएगा
दूसरों को सुख पहुंचाएगा
और हम मनुष्य
अपने अभाव का रोना रोते हैं
परिवेश को दोष देते हैं
भूल जाते हैं यह तथ्य
कि अपनी उदासी से हम भी
परिवेश प्रदूषित करते हैं
फूल स्वधर्म का पालन करता है
अतः विवाह मंडप से लेकर
शव यात्रा तक समान आदर पाता है ।
-- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
आदित्यपुर, जमशेदपुर-१३
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जगदीश पंकज
छोटी सी छंदमुक्त रचना-
'पानी बचाओ'
पानी की
एक -एक बूँद
अमूल्य है -
पानी बचाओ .
कुछ लोगों की
आँखों में भी पानी नहीं है
और कुछ पानीदार लोग
उन पर ऊँगली उठा रहे हैं
कुछ लोग ,
जीवन रक्षा के लिए
पानी -पानी चिल्ला रहे हैं .और
कुछ लोग
अपना पानी बचाते हुए
चिल्लाते लोगों को
संयम की भाषा
सिखा रहे हैं .
जब असंख्य लोग
पानी के लिए तरस रहे है ,
कुछ लोगों का पानी
उतर रहा है ,और
एक -एक बूँद का
हिसाब चल रहा है
पानी की हर बूँद
अमूल्य है
पानी बचाओ.
-जगदीश पंकज
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मनोज 'आजिज़'
गहरी याद
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खिड़कियों से दस्तक दी
तुम्हारी याद
चूँकि चाँद नज़र में उतर आया
और अपनी रौशनी से
मेरा दिल जीतना चाहता था
पर, ग़लतफ़हमी थी उसे
लाख कोशिशों के बाद भी
हासिल न कर सका कोई जगह
मेरे दिल में
धीरे-धीरे मुंह छिपाकर
मेरी नज़रों से
ओझल होता गया ।
कुछ पल छीन जरुर लिया
ज़ख्मों को कुरेद जरुर दिया
रात और तुम्हारी याद ही तो
साथ थे,
पर एक और साथी दे गया ---
तुम्हारी गहरी याद !
पता -- इच्छापुर, ग्वालापाड़ा , पोस्ट- आर. आई टी
जमशेदपुर - १४ , झारखण्ड
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अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
ऐसे ही
मैंने फ़ोन लगाया
फूल को कली ने उठा लिया
बोली क्या चाहिये अंकल जी
मैंने फोन काटा
दुबारा फ़ोन लगाया फूल को तो
कांटे ने उठा लिया
बोला कौन साहब बोल रहे हैं
मैंने फिर फ़ोन काटा
एक बार और भाग्य अजमाया
फ़ोन फिर फूल को लगाया
और देखो भाग्य मुस्कराया
फूल ने खुद फ़ोन उठाया
बोली हमारे अहोभाग्य
आपने याद तो फ़रमाया
इतने दिन के बाद
हमारा ख्याल तो आया
जाओ हम आप से नहीं बोलते
अपने दिल की तमाम परतें
आपके सामने नहीं खोलते
बस इतना ही प्यार करते हो हमें
कितना तरसाते तडपाते हो हमें
याद भी है हम
पिछली बार कब मिले थे
और मिलकर जीवन की
मधुर चाशनी का रस पिये थे
तुम तो हरजाई हो
भूल गए हमें
और हम तुमसे जोड़ कर मन
सच्चा प्यार कर बैठे
मैंने कहा पगली फ़ोन पर
ऐसी बातें नहीं करते
दिल की बातें केवल आपस मे
आँखों से आँखे जोड़
हाथों से हाथों को जकड
एकांत में ही करते है
वो बोली तो फिर
ठीक से समझाओ न
अरे मौका निकाल
मिलने आ जाओ न
मैंने कहा हाँ ये हुई बात
फिर मैं आता हूँ
तुम को ठीक से समझाता हूँ
पर बताओ लाइन कब किलियर है
यह तो तुम ही बताओगी
और फ़ोन भी अगली बार
तुम ही लगाओगी
अचानक फ़ोन कट गया
वो साला कांटा
अचानक वहाँ आ गया
हमारे दिलों की डोर झटके से तोड़
हमारे प्यार की नैय्या मज़धार में डुबो
हमारे दिलों में वो
नश्तर की तरह चुभ गया
सब गुड गोबर कर गया
काश भगवान कांटे न बनाता
तो उसका क्या बिगड़ जाता
और हम जैसों का जीवन धन्य हो जाता
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नवीन विश्वकर्मा ‘गुमनाम पिथौरागढ़ी'
मिसकॉल
अजीब शख्स था वो
सिर्फ मिसकॉल करता था
हालांकि शब्दों का जादूगर था
पर परहेज करता था शब्दों से
कहता था ‘‘ये लफ्फाजी अर्थों का अनर्थ करती है''
जाने क्या हुआ
पिछले कई रोज से
मिसकॉल आई न खबर
फोन डैड हुआ जाने वो
पर फोन हो या जिंदगी
रिचार्ज करना ही पड़ता है
और जरूरी हो जाती है लफ्फाजी
क्योंकि जीवित रहने के लिए
करने होते है कुछ कॉल
कुछ मिसकॉल........................................................
....0...................
2
इस बार
इस बार
कुछ ना लिखना खत में
टपका देना
दो चार आंसू
बूढ़े मां बाप की खांसी का बलगम
इधर-उधर
रख देना लिफाफे में
कुछ दुकान की उधार की पर्चियां
कपड़ों के पैबन्द के टुकड़े
और इस बार
बना देना लिफाफे में एक खिड़की
ताकि सांस लेती रहें
बेचैनी,बेबसी,मजबूरी.....................................................
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नवीन विश्वकर्मा ‘गुमनाम पिथौरागढ़ी'
ग्राम कुमौड़
वाह एक से बढ़कर एक !
जवाब देंहटाएंbahut manmohak hai kavitaye, ak se ak
जवाब देंहटाएंनवीन "गुमनाम"अंदर तक छूती हैं आपकी कविताएँ . बेबसी लाचारी किस खिड़की से प्राणवायु पायेंगी जब आज सब तरफ़ खिड़कियाँ हैं नहीं या बंद हैं.
जवाब देंहटाएंSushil ji aur Amit ji dono ko hi dhanyavad!
जवाब देंहटाएंManoj 'Aajiz'
mkp4ujsr@gmail.com
अधिकाँश कविताएं सुन्दर व भाव परवान हैं ----हाँ कुछ कथन योग्य हैं--
जवाब देंहटाएं१.समुद्र मंथन वर्णन ---गलत उदाहरण है ...क्या लेखक आज के आम आदमी को असुरों की श्रेणी में रखता है ... और देव-न्याय क्या अन्याय था ????
२.प्रमोद की नमन की बातें ..सुन्दर कथ्यांकन हैं...
३.कांटे... वाली कविता विशुद्ध बकवास है ...
४.बच्चन पाठक ..की कविता ...सटीक है ...
कविता तो अब मेरी जिन्दगी की आखरी उम्मीद है जो कवियों के दिलों के ख़जाने सेनिकल लोगों को न सिर्फ नयी आशा और दिशा देती हैअपितु उनमे जीने की चाह भी जगाती है ऐसे सभी कवियों और रचनाकारों को मेरा नमन और आशीर्वाद
जवाब देंहटाएंकमाल है जो कविता लाखों दिलो को गुदगुदाती है
जवाब देंहटाएंवोही कविता एक प्रबुद्ध पाठक को विशुद्ध बकवास
नज़र आती है, अन्य पाठकों की राय अवश्य जानना
चाहूँगा वैसे मैं तुकबंदी नहीं करता हूँ और दिल की
आवाजपर लिखता हूँ जो दिल को अवश्य छूतीं हैं