ग़ज़ल 1 हाथ बाँध लो, चिल्लाओ मत, ये भी कैसी मुश्किल है, झण्डे, परचम, लहराओ मत, ये भी कैसी मुश्किल है। सच,इर्मान, वफ़ा, सीधापन, नेकी, प...
ग़ज़ल 1
हाथ बाँध लो, चिल्लाओ मत, ये भी कैसी मुश्किल है,
झण्डे, परचम, लहराओ मत, ये भी कैसी मुश्किल है।
सच,इर्मान, वफ़ा, सीधापन, नेकी, प्यार, सयानापन,
इनको अपने घर लाओ मत, ये भी कैसी मुश्किल है।
बारिश, बून्दें, बादल, जुगनू और हवा भी उनकी है,
दिल को अपने धड़काओं मत ये भी कैसी मुश्किल है।
अपने हक़ के उजियारे को जिसने मेरे नाम किया,
उसको अपना बतलाओ मत, ये भी कैसी मुश्किल है।
रूख़ पर पर्दा, नज़रें नीची, लब ख़ामोश रहें हरदम,
जब वे बोलें तब मुस्काओ, ये भी कैसी मुश्किल है।
रूठी खुश्बू, उलझे धागे, बिगडे रिश्ते, दर्द बढ़े,
अब आशीष सुनाओ ये मत, ये भी कैसी मुश्किल है।
ग़ज़ल 2
झूठ की पगडंडियों पर चल रहा है आदमी,
बोलता है सच यहाँ वो खल रहा है आदमी।
आपने उसकी हँसी को खैरियत समझा मग़र,
देखिए, भीतर ही भीतर जल रहा है आदमी।
आज दुनिया को तिमिर के जाल में उलझा रहा,
यूँ किसी की आँख का काजल रहा है आदमी।
आपसी विश्वास की बुनियाद तक हिलने लगी,
यूँ जो हर पल आदमी केा छल रहा है आदमी।
जब कभी दुःखती रगों पे हाथ उसने धर दिया,
बस उसी पल से सभी को खल रहा हैं आदमी।
उसने जब आशीष अपने दिल का सौदा कर लिया,
तो किसी भी प्रश्न का ना हल रहा हैं आदमी
ग़ज़ल 3
लोग तिरछे हैं, चाल तिरछी हैं,
अब मुहब्बत कहाँ पे मिलती है।
कोई मेहनत करे भला अब क्यूं ?,
आज कुर्सी यहाँ पे बिकती है।
अब अंधेरा दिलों पे छाया है,
अब सियासत यहाँ पे बदली है।
मेरे हमदम तू कैसा रहबर है,
क्या तेरा प्यार भी ये नकली है?
एक सोचूं तो लाख आएँगी,
तेरी ख्वाहिश बहुत ही पगली है।
तेरी दुनिया अजीब है आशीष,
क्यूँ परिन्दे पे वार करती है ?
ग़ज़ल 4
बीते पल की यादों में ही खोयी रहती अक्सर दादी,
बैठी हैं आँचल में अपने अरमानों को रखकर दादी।
दुनिया की हर एक खबर को आँख गड़ाकर पढ़ती है,
सोती है तकिये के नीचे अपनी दुनिया धरकर दादी।
अपने सपने, अपने रिश्ते, आँखों में आ जाते हैं,
अपनी यादों के जलसे में खुश होती है चलकर दादी।
चेहरे की हर एक लिखावट, दिखलाती है रूप नया,
गुमसुम, चंचल, नटखट, नाज़ुक, शोख-सलोनी, सुंदर दादी।
अपने पन की आहट सिमटी, दीवारों के दर्द बढ़े,
ऊपर तो है खुश्बू जैसी, तन्हा-तन्हा भीतर दादी।
कभी नसीहत, कभी प्यार से समझाती दुनियादारी,
देती है आशीष सदा ही, अपनों को जी भरकर दादी।
ग़ज़ल 5
बहने लगा है वक्त के धारों में आज तू,
करता है गुफ्तगू भी इशारों में आज तू।
गुमनामियों का ग़म यहाँ करता है किसलिए,
मशहूर है नसीब के मारों में आज तू।
तारीफ तेरे ज़र्फ की जितनी करूं है कम,
सच बोलता है कैसे हज़ारों में आज तू।
अच्छा नहीं है सब्र के दामन को छोड़कर,
उलझा है इंतिकाम के खारों में आज तू।
कश्ती अभी हयात की बेशक भंवर में हैं,
खुद को न कर शुमार सितारों में आज तू।
आशीष दी हुई ये अमानत किसी की हैं,
साँसे जो ले रहा है, बहारों में आज तू।
गजल 6
य़ाद करती है तुझे माँ की बलैय्या आजा,
ज़िन्दगी हैं यहाँ इक भूल-भुलैय्या आजा।
ये चमक झूठ की तुझको नहीं बढ़ने देगी,
छोड़ अभियान, अहम और रूपैय्या आजा।
सर झुकाने को मुनासिब है यही संगे-दर,
यहीं होंगे तेरे अरमान सवैय्या आजा।
अपने अहसास की पतवार मुझे तू दे दे,
इन दिनों डोल रही है मेरी नैय्या आजा।
लोग फिर दामने-अबला के पड़े हैं पीछे,
चाहे जिस रूप में आए तू कन्हैय्या आजा।
दिल में ग़म इतने हैं जितने कि फलक पे तारे,
भर गई अश्क से आशीष तलैय्या आजा।
ग़ज़ल 7
सिमटा है सारा मुल्क ही कोठी या कार में,
आशीष तो खड़ा हुआ कब से कतार में।
बाज़ार दे रहा यहाँ ऑफर नए-नए,
ख्वाबों की मंजिलें यहाँ मिलती उधार में।
मिलते रहे हैं रोज ही यूँ तो हज़ार लोग,
मिलता नहीं है आदमी लेकिन हजार में।
पल भर में मंजिलें यहाँ हसरत की चढ़ गए,
संभले कहाँ है आदमी अक्सर उतार में।
जिसने ज़मी के वास्ते अपना लहू दिया,
गुमनाम कर दिये गए जश्ने-बहार में।
छू कर हवा गुज़र गई परछाईं आपकी,
खुशबू तमाम घुल गई कैसी बयार में।
जज़्बात को निगल लिया मैसेज ने यहाँ,
आती कहाँ है ख्वाहिशें चिठ्ठी या तार में।
आशीष क्या अजीब है मेरे नगर के लोग,
अम्नो-अमा को ढूंढते खंजर की धार में।
गजल 8
लफ्ज़ आए होंठ तक हम बोलने से रह गए,
इक अहम रिश्ते को हम यूँ जोड़ने से रह गए।
अब शिकारी आ गया बाज़ार के ऑफर लिए,
फिर परिन्दे अपने पर को खोलने से रह गए।
हर कहीं देखी निगाहें आँसुओं से तरबतर,
खुद के आँसू इसलिए हम पोंछने से रह गए।
बारिशें तो थीं मग़र बस्ते का भारी बोझ था,
कश्तियाँ काग़ज की बच्चे छोड़ने से रह गए।
बेरहम दुनिया के जुल्मों की हदें ना पूछिए,
शाख पर वे फल बचे जो तोड़ने से रह गए।
आज फिर देखी किताबे-ज़िन्दगी आशीष तो,
पृष्ठ कुछ ऐसे मिले जो मोड़ने से रह गए।
गजल 9
ये ग़म ये सितम और ये सदमा नहीं होता,
मुँह फेर के वो मुझसे जो गुज़रा नहीं होता।
तहरीर ज़माने की कई ऐब लिये है,
बिन्दी नहीं होती कहीं नुक्ता नहीं होता।
दुनिया जो अगर अम्न का गुलज़ार सजाती,
अंगारों से लबरेज ये रस्ता नहीं होता।
मंज़िल का कोई ख्वाब भी आँखों में न होता,
आईने को रहबर जो बनाया नहीं होता।
कीमत अदा न कर सके हम माँ के दूध की,
ये कर्ज़ ही ऐसा है जो चुकता नहीं होता।
परवाज़ के सौदे वही करते हैं ज़मी पर,
अपने परों पे जिनको भरोसा नहीं होता।
पत्थर तुझे भी बोलते आशीष सब यहां,
फूलों को देख दिल तेरा धड़का नहीं होता।
ग़ज़ल 10
बेहतरी पर ये नज़र जाती नहीं है,
साथ में अच्छाइयां लाती नहीं है।
तीरगी को देख मुफलिस पूछता है,
रोशनी इस ओर क्यूं आती नहीं है।
कल के ज़ख्मों को भुलाया है यहां पर
दिल की धड़कन भी यहां गाती नहीं है।
है मेरे शे‘रों में दिल के दर्द भी,
ये मेरे अशआर जज़्बाती नहीं है।
भाव के बढ़ने से बढ़ी हैं धड़कनें
दाल-रोटी भी मुझे भाती नहीं है।
आएगा सूरज यक़ीऩन आसमां पर,
मेरी जिद यूं मात भी खाती नहीं है।
सौंपती है पोटली आशीष की जब,
मां किसी बच्चे को बहलाती नहीं है।
ग़ज़ल 11
ज़माना यूं नहीं करता यहां गुणगान चिड़ियां का,
परिन्दों में है क्या रूतबा कभी पहचान चिड़ियां का।
इसे धन की नहीं चाहत मकानों की नहीं हसरत,
बना है क्यूं भला दुश्मन यहां इन्सान चिड़ियां का।
इमारत ,गाड़ियां पा ली , कटी डाली,जले जंगल,
सभी मसरूफ हैं खुद में ,किसे है ध्यान चिड़ियां का।
नहीं रहती कोई ताकत यहां उसकी उड़ानों में,
अगर करता नहीं कोई कभी सम्मान चिड़ियां का।
कभी घर में फुदकती,गुनगुनाती,पास आती थी,
हमारी नस्ल ने लेकिन किया अपमान चिड़ियां का।
किये कितने करम हमपे यहां आशीष चिड़ियां ने,
मगर हमने ही माना कब यहां अहसान चिड़ियां का।
-आशीष दशोत्तर
39, नागर वास, रतलाम
रतलाम (म.प्र.) 457001
E-mail-ashish.dashottar@yahoo.com
भई वाह ... हर गज़ल अलग अंदाज़ और नयापन लिए है .. वाह वाह निकलता है हर शेर पे ... कुर्बान इन लाजवाब गज़लों पे ...
जवाब देंहटाएंआशीषजी,अनेक-अनेक वाह-वाहियाँ और तालियाँ सहज,सरल,सरस,ग़ज़ल सलिला , एक के बाद एक तीर वो भी बिलकुल सही निशाने पर .ऐसे ही लिखते रहिये.अभिनन्दन.
जवाब देंहटाएंबारिशें तो थीं मग़र बस्ते का भारी बोझ था,
जवाब देंहटाएंकश्तियाँ काग़ज की बच्चे छोड़ने से रह गए
आदरणीय समस्त ग़ज़लों में सबसे जानदार शे'र यह लगा ।ग़ज़लें अच्छी हैं , भाव बहुत अच्छे हैं । आपको बधाई !!! पर ऐदोस्त रदीफ़ काफ़ियों की गड़बड़ियाँ भी हैं । आप उन्हें सुधार लीजिएगा । यह आपकी कमी नहीं बता रहा हूँ बल्कि मित्र भाव से कह रहा हूँ ।
आपका
डॉ. मोहसीन खान
www.sarvahara.blogspot.com
बारिश, बून्दें, बादल, जुगनू और हवा भी उनकी है,
जवाब देंहटाएंदिल को अपने धड़काओं मत ये भी कैसी मुश्किल है।
एक सोचूं तो लाख आएँगी,
तेरी ख्वाहिश बहुत ही पगली है।
बहने लगा है वक्त के धारों में आज तू,
करता है गुफ्तगू भी इशारों में आज तू
शानदार रचनाएं बहुत२ बधाई
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंवाह सर क्या खूब ग़ज़ल कही है ,,,,,,,,,,,, एक खूबसूरत ग़ज़ल ,,,,, बधाई
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