जब कोई कलाकार अपने कला के प्रदर्शन से जिंदगी से भी ज्यादा जींवत यथार्थ को फिल्मों में उतारने में सफल हो तो उस कलाकार को लीजेंड नहीं ईश्...
जब कोई कलाकार अपने कला के प्रदर्शन से जिंदगी से भी ज्यादा जींवत यथार्थ को फिल्मों में उतारने में सफल हो तो उस कलाकार को लीजेंड नहीं ईश्वर की संज्ञा दी जाने लगती है और ऐसा ही कुछ किया था सुचित्रा सेन ने, जो 17 जनवरी को 82 वर्ष की उम्र में हम सभी को छोड़कर चली गयी․
बंगाल में माँ दुर्गा और माँ सरस्वती की मूर्ति निर्माण में कलाकार सुचित्रा सेन के चेहरे का अक्स देना पंसद करते थे तो एमएफ हुसैन ने सुचित्रा सेन की तस्वीरों को ध्यान में रखकर एक स्केच तैयार किया था जिसे हुसैन ‘मैसकिटो' कहा करते थे․ ऐसी थी उनकी लोकप्रियता जो उन्हें जीतेजी देवी बना दिया था․ ये सच है कि सुचित्रा सेन 1978 के बाद से खुद को बाहरी दुनिया से अलग कर लिया था फिर भी उनका रहना एक सुकून देता था, उनके जाने के बाद वह सुकून भी जाता रहा․ मुझे फिल्म ममता में सुचित्रा सेन पर फिल्माए गाने ‘रहे न रहे हम महका करेंगे' और ‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से प्यारों की तरह' की याद बड़ी शिद्त से आ रही है․ जिसने भी फिल्म ममता नहीं देखा वे सभी सौंदर्य और कला के संपूर्णता को एक साथ देखे जाने से वंचित रह गए है और आज भी फिल्म देखने से एक सुखद एहसास में दर्शक डूब जायेंगे, यह मेरा विश्वास है․
चालीस की दशक की सर्वाधिक लोकप्रिय स्वीडिश नायिका ग्रेटा गारबो और सुचित्रा सेन में यद्यपि उम्र में ढाई दशक का अंतर होने के बावजूद दोनों नायिकाओं में कई सामानताएं थी जैसे दोनों ही सिल्वर स्क्रीन की लीजेंड, अथाह सौंदर्य की मल्लिका, सफलतम फिल्मी करियर के बाद फिल्म से सन्यास लेना जिसके पश्चात् ग्लैमर से दूर गुमनामी के अंधेरे में रहस्मयी एकांतवास․ ग्रेटा गारबो फिल्मों से सन्यास के बाद न्यूयार्क की एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग में 35 वर्षों तक एकांतवास में रही, सुचित्रा सेन ने भी 1978 में फिल्मों से सन्यास लेने के बाद लगभग 35 वर्षों तक कोलकाता के बेलीगंज सरकुलर रोड के चार अपार्टमेंट में एकांतवास में रही․ ग्रेटा गारबो 1990 में तकरीबन 84 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को छोड़ गयी तथा सुचित्रा सेन भी 82 वर्ष की उम्र में इसु दनिया को अलविदा कहा․ ग्रेटा गारबो से एक डिग्री आगे रहते हुए सुचित्रा सेन ने हिन्दी फिल्मों के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फालके पुरस्कार का 2005 में आए प्रस्ताव को सिर्फ इसलिए ठुकरा दिया था क्योंकि पुरस्कार लेने वह घर से बाहर नहीं जाना चाहती थी․
सुचित्रा सेन का एकांतवास दरअसल अध्यात्मवास था, उन्होंने रामकृष्ण मिशन से दीक्षा ले रखा था और आध्यत्मिकता को ही उन्होंने जिया․ हाँ अथाह सौंदर्य की मल्लिका होने की वजह से उन्हें यह मंजूर नहीं था कि बुढ़ापे की छाप उनके चेहरे पर कोई देखे इसलिए अपने 35 सालों के एकांतवास में वह सार्वजनिक तौर पर गिने चुने अवसरों पर ही देखी गयी․ पहली बार 24 जुलाई 1980 को जब बांग्ला फिल्म के महानायक और उनके को-स्टार उत्तम कुमार का निधन हुआ था, फिर उन्हें 1982 में कोलकाता में चल रहे फिल्मोत्सव के दौरान एक फिल्म देखते हुए देखा गया था तथा 1989 में रामकृष्ण मिशन के भरत महाराज के निधन पर श्मशान घाट तक चल कर वो गयी थी․ अपनी निजता की रक्षार्थ सुचित्रा सेन ने ग्रेटजाली नुमा टोप और बाद में बुर्के का भी इस्तेमाल करती थी․ यही वजह है कि अंतिम यात्रा और श्रद्धांजलि कार्यक्रम में भी उनका चेहरा फूलों से ढका रहा और उनकी वर्तमान तस्वीर नहीं ली जा सकी․ अपने जीतेजी उन्होंने अपर्ण सेन को जो उनके एकांतवास और उसके कारणों पर डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहती थी कभी डॉक्यूमेंट्री बनाने की इजाजत नहीं दी․
रमा दासगुप्ता के नाम से 1952 में बांग्ला फिल्मों में कदम रखने वाली यह नायिका आगे चलकर सुचित्रा सेन के नाम से प्रसिद्ध हुई․ उनकी पहली फिल्म 1952 में ‘शेष कोथाय' थी जो प्रदर्शित नही हो सकी थी․ रिलीज फिल्म ‘सात नंबर कैदी 1953 में समर राय के साथ आई․ इसी वर्ष उतम कुमार के साथ सुचित्रा सेन ‘साढ़े चुआतर' में आई और न सिर्फ फिल्म को पंसद किया गया बल्कि उतम कुमार के साथ उनकी जोड़ी इतनी लोकप्रिय हुई कि 1953 से 1975 के दौरान ये जोड़ी 32 फिल्मों में खूब सराही गयी․ सुचित्रा सेन ने अपने 26 साल के करियर में 52 बांग्ला और सात हिन्दी फिल्मों में यादगार अभिनय किया․ अपनी अभिनय का लोहा मनवाने वाली सुचित्रा सेन ने तारीख की समस्या के कारण सत्यजीत राय की फिल्म ‘देवी चौधुरानी' में काम करने से इंकार कर दिया तो सत्यजीत राय ने यह फिल्म बनाई ही नहीं․ ग्रेट शोमैन राजकपूर ने भी फिल्मों में सुचित्रा सेन को लेना चाहते थे पर उन्होंने इंकार कर दिया था․ सुचित्रा सेन ने हमेशा सादगी और सौम्यता का साथ बनाए रखा और साथ ही अपनी गरिमा भी बनायी रखी․ जिस नारी सशक्तिकरण की बात आज हम करते है उसका अक्स सुचित्रा सेन ने पर्दे पर जीवंत किया․
फिल्म ममता में सुचित्रा सेन ने मॉ और बेटी दोनों के किरदार जिसमें माँ का किरदार एक तवायफ की थी और बेटी अपर्णा का किरदार बिल्कुल विपरीत था, दोनों ही किरदारों को सुचित्रा सेन ने बखूबी निभाया जैसे दोनों किरदारों को अलग-अलग अभिनेत्रियां निभा रही हों․ कम लोगों का ही मालूम हो कि बांग्ला में 1963 में प्रदर्शित ‘उतर फाल्गुनी' में सुचित्रा सेन तवायफ पन्नाबाई का किरदार निभा चुकी थी और पन्ना बाई के मृत्यु का दृश्य सिने दर्शक आज भी नहीं भूल पाए है․ दिलीप कुमार के साथ फिल्म ‘देवदास' में सुचित्रा सेन का सौंदर्य इतना निखर कर श्वेत और श्याम पर्दे पर आया था कि लोग आज भी उनके दीवाने है․ वर्ष 1959 में प्रदर्शित बांग्ला फिल्म ‘दीप जोले जाए' में सुचित्रा सेन के अभिनय के नये आयाम दर्शकों को देखने को मिले․ इसी फिल्म का हिन्दी रिमेक वर्ष 1969 में ‘खामोशी' के नाम से आया जिसमें सुचित्रा सेन के किरदार को वहीदा रहमान ने निभाया था․ 1960 में प्रदर्शित राज खोसला की ‘बंबई का बाबू' सुचित्रा सेन के फिल्मी करियर की ‘देवदास' के बाद दूसरी सूपर हिट हिन्दी फिल्म साबित हुई जिसमें उन्होंने देवआनंद के साथ काम किया था․ आज भी लोग सोचते है कि सुचित्रा-देवआनंद की जोड़ी उसके बाद फिर कोई दूसरी फिल्म में क्यों नहीं आयी ? हिन्दी फिल्मों में विमल राय की ‘मुसाफिर', नंदलाल-जसवंतलाल की ‘चंपाकली', शंकर मुखर्जी की ‘सरहद', आसित सेन की ‘ममता' और गुलजार की ‘आंधी' में सुचित्रा सेन ने यादगार अभिनय किया․
उनकी बहुचर्चित बांग्ला फिल्म ‘सात पाके बांधा' के लिए 1963 में उन्हें मास्को फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ फिल्म अभिनेत्री के पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था․ 1972 में उन्हें भारत सरकार ने पद्यश्री से सम्मानित किया तथा 2012 में बंगाल सरकार की तरफ से बंग विभूषण से सम्मानित किया गया था․
भारतीय सिनेमा में सुचित्रा सेन को एक भावप्रवण अभिनेत्री के रूप में याद किया जाएगा․ सुचित्रा सेन के निधन से बांग्ला और हिन्दी सिनेमा के एक युग का अंत हो गया पर उनकी स्मृतियों का अंत रहती दुनिया में कभी नहीं होगा․ उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि․
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा
गिरिडीह-815301
झारखंड़
अच्छा लेख है .बधाई
जवाब देंहटाएंलेख अच्छा लगा,काफी जानकारी थी।
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