राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष स्वामी विवेकानन्द की जीवनी व वाणी के माध्यम से छात्रों में सद्गुणों का विकास शशांक मिश्र भारती स्वामी ...
राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष
स्वामी विवेकानन्द की जीवनी व वाणी के माध्यम से छात्रों में सद्गुणों का विकास
शशांक मिश्र भारती
स्वामी विवेकानन्द जी की जीवनी एवं वाणी के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए हमें आत्मविश्वास, देशप्रेम, मानवप्रेम व सेवा एवं नैतिकता आदि सद्गुणों तथा मानवीय मूल्य बोध पर आधारित एक व्याख्यान माला का आयोजन शिक्षकों के लिये किया जाना चाहिए। उसके बाद बिन्दुबार तथ्यों को शिक्षकों के अर्न्तमन में समाहित कर उनसे छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए महत्वपूर्ण यह नहीं होगा, कि शिक्षक कितना समझ रहा है; बल्कि महत्व उसकी ग्राह्य शक्ति व प्रस्तुतिकरण की विधि होगी ।जिसके माध्यम से वह इन मूल्यों का बोध छात्रों को करा सकेगा। साथ ही इन मूल्यों के साथ ही साथ अपने व्यक्तित्व में निहित स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों की झलक भी बालकों के समक्ष प्रस्तुत कर सकेगा। आवश्यक छात्रों के लिए प्रेरणा नहीं होती है। उनमें ठूंस-ठूंस कर विचार भर देना नहीं होता है। उसको पीट-पीटकर अथवा निरन्तर भयभीत कर समझाना नहीं होता है; बल्कि शिक्षक द्वारा प्रेरणा के साथ ही प्राण शक्ति भी भरना होता है। उनके अन्दर घोड़े का चित्र देखकर आनन्दानुभूति की चर्चा चलाने से कार्य नहीं पूर्ण होने वाला, बल्कि यथार्थ के घोड़े की सवारी का रसास्वादन भी करवाना पड़ेगा। अलौकिक प्रतिभा या ईश्वरीय प्रेरणा के सहारे न रहकर स्वतः अर्जन को परिश्रम के द्वारा प्रतिभाओं को समझाना होगा।
स्वामी विवेकानन्द की जीवनी व उनके जीवन मूल्यों से छात्रों में निश्चय ही अप्रतिम राष्ट्र की उन्नति, प्रेम, सेवा एवं नैतिकता की भावना उत्पन्न की जा सकती है। उनमें स्वामी जी के आदर्श गुणों उनके अनुभवों को उतार कर वर्तमान परिस्थितियों में असंख्य विसंगतियों के बाद भी नूतन स्वरूप, नवीन आकांक्षाओं, परिकल्पनाओं को जन्म दिया जा सकता है। उनमें स्वामी जी के जीवन को मात्र पढ़ने का सन्देश भरा जाये उनको ज्ञान देकर ही सफल मान लिया जाये। तब कोई लाभ न होगा। बल्कि उनमें स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन को आदर्श रूप में अपनाने ,समाज एवं देश के सम्मुख प्रस्तुत करने की लगन व साहस भी उत्पन्न करना होगा। उनको इसके लिए प्रेरणा देनी चाहिए, कि किसी भी महापुरुष की जीवनी व वाणी को पढ़ने-समझने से महत्वपूर्ण उसको जीवन में उतारना होता है। स्वामी विवेकानन्द इस परिप्रेक्ष्य में छात्रों के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हो सकते हैं। उनके जीवन के अनुभव ज्ञानपरक तर्कसंगत भाषणों के अंश छात्रों को देश का भाग्य, समाज की स्थिति, परिवार की हानिप्रद परम्पराओं को बदलने का एक सफल माध्यम हो सकते हैं । उनका कहना कि-‘‘गरीब से गरीब लोगों के दरवाजों पर जाओ और उनकी मदद करो। ‘‘ बचपन से समाज की रुढि़वादिता के खिलाफ होने वाली मनोवृत्ति प्रेरणा दे सकती है। उनके जीवन की एक घटना कि- एक दिन नरेन्द्र अपने वकील पिता के यहां अलग-अलग जाति के लोगों के लिए होने वाली बैठक में आकर अलग-अलग लोगों के लिए अलग -अलग रखे हुए हुक्कों में एक-एक कर मुंह लगाने लगना और फिर पिता विश्वनाथदत्त्ा के पूछने पर कहना- देखना चाहता था कि जाति-व्यवस्था नहीं मानने से क्या होता।'' इसी तरह से एक स्थान पर उन्होंने कहा था- ‘‘ याद रखना , सभी देशों में ये जन साधारण ही राष्ट्र का मेरुदण्ड है।․․․․ दरिद्रों की कुटिया में ही भारतीय जाति का निवास है। परन्तु हाय! उनके लिए किसी ने कभी कुछ नहीं किया है।''․․․ उन्होंने यह मानते हुए कि जब तक सामान्य से सामान्य और पिछड़े जन का विकास नहीं होगा इस देश का समाज का कल्याण संभव नहीं है एक स्थान पर कहा- ‘‘मेरा विचार है कि जन साधारण की अवहेलना एक गहन राष्ट्रीय पाप है और हमारे अधः पतन के कारणों में से एक। राजनीति का कितना भी परिमार्जन किसी काम का नहीं है, जब तक भारत के जन साधारण को एक बार फिर से भली प्रकार शिक्षा व भोजन नहीं मिलता और भली प्रकार उनकी देख-रेख नहीं होती।'' इसी तरह से कुछ और स्पष्ट करते हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है- ‘‘ आधुनिक समय में भारतवर्ष के भीतर विवेकानन्द ने एक महती वाणी का प्रचार किया है। वह किसी आचार के अनुसार नहीं। उन्होंने देश के सभी को पुकार कर कहा था- तुम सभी में ब्रह्म की शक्ति है। दरिद्रों के भीतर देवता तुम्हारी सेवा पाना चाहते हैं। इस बात ने युवकों के चित्त को जगा दिया है। इसी कारण उस वाणी का फल देश की सेवा में आज विचित्र भाव से तथा विचित्र त्याग से प्रकट हो रहा है। उनकी वाणी ने मनुष्य को जहां सम्मान दिया है, वहीं शक्ति भी दी है․․․․ देश के युवकों में जो दुःसाहसिक अध्यवसाय का परिचय पाता हूं, उसके मूल में है स्वामी विवेकानन्द की वाणी।'' यह गुरुदेव के शब्द उस समय के हैं जब देश के युवक संसार की सबसे शक्तिशाली सत्ता से देश की आजादी के लिए जूझ रहे थे। वे आज भी देश की भूमि पर भूखी-अधनंगी भारतीय जनता के नये जीवन निर्माण में उतने ही प्रासंगिक हैं। प्रकाश पुंज हैं। स्वामी जी ने एक बार ललकारते हुए कहा था-‘‘ जब तक लाखों लोग भूखे और अज्ञान में रहते हैं, मैं हर उस व्यक्ति को गद्दार समझता हूं, जो उनके बूते पर शिक्षित होकर उनकी तनिक भी परवाह नहीं करता।‘‘ जीवन में उपयोगी हो सकती है।
स्वामी विवेकानन्द की वाणी बाहर से कितनी ही कठोर क्यों न हो अन्दर से सदैव मधुर ही रहती थी ।वह कभी -कभी कठोरता का व्यवहार कर देते थे, लेकिन बाद में सहानुभूति का प्रदर्शन करने में भी पीछे नहीं रहते थे। उनका पूरा जीवन संघर्षों से भरा रहा है, कटु-कटु सत्यों का सामना करते हुए भी सिद्धान्तों से कोई समझौता नहीं किया। ऐसा व्यक्तित्व हमें छात्रों के समक्ष लाना पड़ेगा। उन्हें बतलाना होगा। किस प्रकार वह नरेन्द्र देव से स्वामी विवेकानन्द बनें।
उनके जीवन में 1881 का साल रामकृष्ण से पहली मुलाकात के बाद ही उपयोगी बन गया उन्होंने प्रश्न पूछा ? क्या आपने ईश्वर को देखा है? रामकृष्ण ने तत्काल उत्त्ार दिया -हां मैंने ईश्वर को देखा है ठीक जैसे तुम लोगों को देखता हूं बल्कि इससे भी और अधिक स्पष्टता से।'' इसके बाद ही एक नये नरेन्द्र का जन्म हुआ और वर्ष 1885 तक वह पूरी तरह विवेकानन्द में रूपान्तरित हो गये कैसे उन्होंने मदुरै के राजा भाष्कर सेतुपति के विश्वधर्म संसद में भाग लेने के लिए शिकागो जाने का आग्रह स्वीकार किया। किस प्रकार 31 मई 1893 को मुंबई से शिकागो के लिए रवाना हो गए। इस यात्रा के दौरान जापान, चीन और कनाडा भी गये। विश्व धर्मसंसद में काफी मुश्किलों के बाद प्रवेश मिला। विषम परिस्थितियों में भी अमेरिका जाकर 11 सितम्बर 1893 को आर्ट इंस्टीटयूट ऑफ शिकागों में भारतीय सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया। उनका भाषण- बहनों और भाईयों के सम्बोधन से शुरू हुआ। उनके भाषण में भारतीय परम्पराओं, वेदों, और गौरवशाली आध्यात्मिक इतिहास का जिक्र था उनके द्वारा बेहतर मानव बनने पर जोर दिया गया था। जहां पर एक भी व्यक्ति परिचित न हो कार्यक्रम की औपचारिकता का ज्ञान न हो; कितनी प्रतिकूल परिस्थितियां आ सकती हैं समझा जा सकता है। इन सभी का स्वामी विवेकानन्द ने धर्म सम्मेलन की तिथि परिवर्तित होने पर एक माह तक झेला था। उस सभागार में भी अनेक भारतीय धर्माचार्यों द्वारा सभा में सम्बोधन से पीछे हट जाने के बाद स्वामी जी द्वारा बड़ी शालीनता से ओजस्वी भाव में एक-एक तत्व को समझाते हुए दिया गया भाषण किसी ऐतिहासिक क्षण से कम न था। जिसके बाद वह पूरे अमेरिका पर छा गये। अमेरिकी समाचार पत्रों में छा गये। विश्व धर्म संसद के 27 सितम्बर 1893 को समाप्त होने तक इनको अनेक बार भाषण का मौका मिला। शिकागों के अलावा बोस्टन और न्यूयार्क में भी उन्होंने भाषण और प्रवचन दिये। वहां के विभिन्न धर्माम्बलम्यिों को अपने तर्कोर्ं से निरुत्त्ार करते रहे। यूरोप और अमेरिका में असंख्य शिष्य-शिष्याओं को प्रेरणा दी। उन्होंने कहा-‘‘गरीब से गरीब लोगों के दरवाजों पर जाओ और उनकी मदद करो। ''इन सभी का ज्ञान जीवन में आदर्श रूप में अपनाना छात्रों के लिए जीवन की आवश्यकता बन सकता है स्वामी विवेकानन्द का जीवन जहां कटु अनुभवों व संघर्षों से भरा पड़ा है वहीं विभिन्न स्तरों, देशों, व्यक्तियों, धर्माचार्यों, राजा-महाराजाओं, ऋषि-मुनियों के संस्मरणों, अनुभवों व यात्राओं से भरा पड़ा है। उनके भाषणों का प्रभाव महात्मा गांधी, विपिन चन्द्र पाल, बालगंगाधर तिलक और सुभाषचन्द्र बोस पर व्यापक रूप से पड़ा।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था- स्वामी विवेकानन्द ही आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन के धर्म गुरू हैं।'' उनके भारतीय युवकों के प्रति संदेश ने ही 15 वर्ष के सुभाष में देश-प्रेम और त्याग की भावना के बीज बोए थे। नेताजी ने अपने आत्मचरित में लिखा है-‘‘ विवेकानन्द मेरे जीवन में जब प्रथम प्रविष्ट हुए, उस समय मेरी अवस्था 15 साल से कम थी उसके बाद मेरे भीतर एक प्रचण्ड विप्लव आया और मेरे सब कुछ विचार उलट-पुलट गए।․․․․․․․ मेरी अस्थि-मज्जा के भीतर एक अभिनव जागरण उत्पन्न हो गया।'' रोम्या रोला तो स्वामी जी को भारतीयता का पुरोधा-उत्थापक मानते थे। उन्होंने लिखा है-‘‘ स्वामी विवेकानन्द द्वारा स्थापित संघ का शुद्ध सामाजिक, लोकोपकारी तथा सार्वजनीन स्वरूप स्पष्ट ही है अधिकांश धर्म युक्ति, तर्क एवं आधुनिक जीवन की समस्याओं तथा आवश्यकताओं को श्रृद्धा विरोधी मानते हैं परन्तु उनकी जगह यह संघ विज्ञान के साथ ही स्तर पर खड़े होने को प्रस्तुत था, भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति में सहयोग देने वाला था।''
इन पर यथेष्ट सामग्री को इकट्ठा कर उसको छात्रों की रुचि के अनुसार उनके समक्ष परोसा जा सकता है। चाहें इसका माध्यम खेलकूद हों, भाषण, लेख, वाद-विवाद, प्रश्नोत्त्ार प्रतियोगिता, कविता, कहानी आदि किसी भी रूप में ।उसकी सफलता छात्रों की किस माध्यम में कितनी रुचि है इस बात पर निर्भर रहेगा।
स्वामी विवेकानन्द की वाणी से निकला एक-एक शब्द देश-प्रेम, मानवसेवा, नैतिकता एवं आत्मविश्वास से युक्त होता था। वह कहते थे कि मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सकवा है क्योंकि मानव ईश्वर का अंश है। उन्होंने एक बार कहा था-‘‘ सभी को छूट है कि उन्हें जो मार्ग अनुकूल हम मानव को वहां ले जाना चाहते हैं, जहां न वेद है, न बाइबिल और न कुरान, लेकिन यह कार्य वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय के द्वारा किया जाता है। मानवता को सीख देनी है कि सभी धर्म उस अद्वितीय मार्ग की ही विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं जो एकत्व हैं लगे, उसको चुन ले। ''उनका पूरा जीवन ही इन मूल्यों की स्थापना को समर्पित था,वह ऐसे धर्म के प्रसार का सपना देखते थे जिससे ठीक-ठीक मनुष्य तैयार हो सकें। जिसके लिए वह अमेरिका, यूरोप, जापान, चीन आदि देशों की यात्रा पर गए थे। कई बार अन्य धर्माचार्यों से वाद-विवाद भी हुआ था। अनेक बार रास्ता चलते लोगों का उपहास अपने तर्कों से निर्मूल कर देते थे। इन सभी से छात्रों को परिचित करवाकर उनमें राष्ट्र के प्रति सेवा भाव नैतिकता आदि सद्गुणों को पैदा किया जा सकता है। इसके लिए छात्रों के समक्ष शिक्षकों को कक्षाओं में विशेष वक्तव्यों को देना पड़ेगा। उनसे सम्बन्धित चित्रों, दृष्टान्तों व स्थानों को दिखलाना पड़ेगा। पूरे जीवन को एक झांकी के रूप में प्रस्तुत करना होगा। साथ ही यह भी स्मरण रखना होगा, कि छात्रों को जो दिया जा रहा है वह उसको एकाग्रचित होकर ग्रहण भी कर रहे हैं अथवा नहीं। यदि छात्रों में एकाग्रता लाये बिना शिक्षक कोई प्रयास करता है ,तो कदापि सफल नहीं होगा। भले ही अपने आपको वह सन्तुष्ट मान ले छात्र उसकी हां में हां मिला दें ,लेकिन परिणाम शून्य ही निकलेगा। समाज व देश को उचित प्रतिफल नहीं मिल सकेगा।
सभी गुणों चाहे वह आत्मविश्वास हो देशप्रेम व सेवा नैतिकता या मूल्यबोध को छात्रों के समक्ष स्वामी विवेकानन्द जी की जीवनी एवं वाणी के माध्यम से प्रस्तुत करने के पहले सभी शिक्षकों के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ेगा। यह देखना होगा, कि क्या वह शिक्षक इन सभी विशिष्टताओं से युक्त है उसने इन सभी से अपना हृदय आप्लावित किया है। यदि नहीं तो सर्वप्रथम हमें शिक्षकों में इन सभी का आत्मबोध करवाना होगा। स्वामी विवेकानन्द के जीवन दर्शन व वाणी से परिचित करवाना होगा। तभी यह सोचा जा सकता है, कि छात्रों के सामने कैसे प्रस्तुत किया जाये। साथ ही पूर्णनिष्ठा का प्रदर्शन या नाटक नहीं। चूंकि स्वामी विवेकानन्द जीवन के किसी भी पक्ष में दिखावे, ढोंग, प्रपंच, बनावटीपन के पक्षधर नहीं थे। इन सभी के लिए उनके हृदय में कोई स्थान भी न था। इसलिए उनकी शिक्षाओं-दर्शन का प्रसार करने वालों में भी इन सभी का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अन्यथा बीज बोये जाते रहेंगे, लेकिन उससे अंकुरण न होगा। प्रतिफल रूपी कोई स्वस्थ पौधा न दिखायी पड़ेगा।
आज के वैज्ञानिक उपलब्धियों से युक्त प्रत्येक विषय को तर्क की कसौटी पर कसने के समय में छात्रों की विश्वसनीयता विशेष महत्व रखेगी। अविश्वास की क्षणिक बूंद भी सारे प्रयासों को निरर्थक प्रमाणित कर सकती है। शिक्षकों के शिक्षण व शिक्षणेत्त्ार से किये गये समस्त प्रयास निरर्थक हो सकते हैं। क्षणिक सी असावधानी सतत् प्रयासों से प्रारम्भ हुए अवगाहन को रोक सकती है। इसके लिए हमको शिक्षा पद्धतियों में पूर्ण वैज्ञानिकता का समावेश करना होगा। जो आज के विज्ञान व उसकी उपलर्ब्धियों के सामने टिक सके। उसकी प्रमाणिकता का उदाहरण बन सके। अकाट्यता की अंगद चट्टान बन जाये। जिसके बाद समाज की क्षुभित प्रक्रियायें दिन-प्रतिदिन की परिवर्तनों के साथ पड़ती व्यसनों की मार उनको अपने पथ से किंचित भी डिगा न सकेगी ।साथ ही हृदय व मन का संगम जिस बिन्दु पर हो जाये, वहीं स्थिर रहकर उसी दिशा में अग्रसर हो, निरन्तरता के साथ स्वामी विवेकानन्द के जीवन दर्शन के बोध हेतु बढ़ता जाये। उसमें ऐसी ललक उत्पन्न कर दे, कि वह जितना जाने, समझे उतना ही अधिक जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती रही और स्वामी विवेकानन्द के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण वह स्वप्न भी तीव्रगति से साकार हों; कि भारत का नवयुवक राष्ट्रनिर्माण में सनातन धर्म की विशिष्टताओं को अपने में समाहित कर समाज की विसंगितयों व देश की गरीबी को तोड़ता हुआ विश्व जनमानस के समक्ष आ जाये। देश की गरीबी मिटाने का कोई रास्ता निकल आये जिस उद्देश्य को लेकर स्वामी जी अमेरिका गए थे। उन्होंने निर्धनता को अभिशाप मानते हुए कहा था- गरीब लोग इतने बेहाल हैं कि वे स्कूलों और पाठशालाओं में नहीं जा सकते। याद रखो राष्ट्र झोपड़ी में बसा है।‘‘यही नहीं वे राजनीति को भी उस समय तक असफल मानते थे जब तक भारत की जनता सुशिक्षित न हो और उसको भरपेट भोजन न मिले। रामकृष्ण के निधन के बाद उन्होंने व्यापक रूप से भारत-भ्रमण किया इस दौरान इनका परिचय गरीब और अभावग्रस्त जनता से हुआ। राता-महाराजाओं के अलावा वह साधारण किसानों-व्यापारियों के साथ रहे। जरूरत पड़ने पर उनका आत्मसम्मान अपने भाषणों-प्रवचनों से जगाते। वे कहते-और क्या, बस यही कि․․․․ भाई चारे की भावना का विकास होना चाहिए। यदि तुम्हारी तरह शिक्षित लोग गांव जाएं और कृषि कार्य करें, ग्रामीणों से मिलें-जुलें और उनके साथ अपनों जैसा व्यवहार करें, घृणा न करें, तुम देखोगे कि वे इतने अभिभूत हो जायेंगे कि तुम्हारे लिए अपने प्राण तक दे देंगे। और हम लोगों के लिए आज जो अत्यावश्यक हैं।
उनके उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए 1929 में बेलूड़ मठ में जन्मोत्सव पर भाषण देते हुए गान्धी जी ने कहा था-‘‘मैं यहां असहयोग आन्दोलन या चर्खा प्रचार करने नहीं आया हूं। स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस पर उनकी पुण्य स्मृति के प्रति श्रृद्धाज्ञापन करने के लिए ही आज मैं यहां आया हूं।‘‘ राष्ट्रपिता ने आगे कहा-‘‘ युवकों से मेरा यह अनुरोध है कि स्वामी विवेकानन्द जिस स्थान पर रहते थे और जहां उन्होंने शरीर छोड़ा है, इस स्थान की भाव धार थोड़ी बहुत भी ग्रहण करके खाली हाथ न लौट जाना। ''किसी देश को महान बनाने में मजबूत इच्छाशक्ति और अदम्य साहस की आवश्यकता होती है। इसीलिए प․ नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में स्वामी जी के वचनों को सामने लाते हुए लिखा है-किन्तु उनके भाषण और रचना के भीतर एक स्वर बराबर ध्वनित हो रहा है, वह है अभय हो जाओ, वीर बनो, दुर्बलता का परित्याग करो, उपनिषद की महान शिक्षा यही थी। स्वामी जी ने कहा है- जिनकी पेशियां लोहे की तरह दृढ़ और स्नायु फौलाद की तरह कठोर हों और जिनकी प्रचंड इच्छा शक्ति ब्रह्माण्ड के गूढ़तम रहस्य का भेदन करने में समर्थ हों।'' इसी के साथ वह देश के लिए किसी का भी विरोध और कोई भी कष्ट-अपमान तक सहने को तत्पर थे। इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने एक स्थान पर कहा था- यदि मैं अपने देशवासियों को जड़ता के कूप से निकालकर मनुष्य बना सका, यदि उन्हें कर्मयोग के आदर्श से अनुप्राणित कर जगा सका तो मैं हंसते हुए हजारों नरकों में जाने को राजी हूं। इसी के साथ एक बार उन्होंने युवाओं का आह्वाहन किया था- भाईयों, हम सभी को कठोर परिश्रम करना होगा। अब सोने का समय नहीं है। वह देखो भारत माता धीरे-धीरे अपने नेत्र खोल रही है।․․․․ उठो और नए जागरण तथा नवीन उत्साह से पहले की अपेक्षा महान गौरव से भूषित कर भक्ति भाव से उस अनंत सिंहासन पर प्रतिष्ठित करो।․․․
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि छात्रों की अभिरुचियों मनः स्थिति व वर्तमान युग की विशिष्टताओं को ध्यान में रखकर स्वामी विवेकानन्द की जीवनी व वाणी से ओतप्रोत शिक्षक ही छात्रों में स्वामी जी के आदर्शों व उनके उद्देश्यों को उनमें समाहित कर सकता है। साथ ही उनमें स्वामी जी की भांति ही स्वराष्ट्र, धर्म, जाति के गौरव, स्वाभिमान एवं गरीबी, अशिक्षा जैसी समस्याओं के उन्मूलन हेतु जाग्रति उत्पन्न कर सकता है।
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हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर उ․प्र․-242401
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