सौमित्र बहसें मुझे बचपन से सिरदर्द की तकलीफ़ रही है। पर इसका समाजवाद की अवधारणा से कोई सम्बन्ध नहीं है, बल्कि यह बहुत हद तक अलर्जिक मा...
सौमित्र
बहसें
मुझे बचपन से सिरदर्द की तकलीफ़ रही है। पर इसका समाजवाद की अवधारणा से कोई सम्बन्ध नहीं है, बल्कि यह बहुत हद तक अलर्जिक मामला है। जब कभी किसी दिन तेज़ धूपवाली दुपहरी में बाहर घूम लूँ, बरसाती दिन की उमस में घर में बन्द बैठा रहा जाऊँ या सर्दी में बिना मफलर टोपी के फिरूँ, तो यह तय है कि मुझे भयंकर सिरदर्द अपनी चपेट में लेने वाला है। हालत बदतर इसलिए भी हो जाते हैं क्योंकि वक़्त के साथ साइनस और अस्थमा ने भी शरीर में जड़ें गहरी कर ली हैं। यानी बारहों महीने जुकाम से माथे-कनपटी में जकड़न और मौसम के फेरों के साथ साँस फूलने का उपक्रम। मैं अक्सर गर्म पानी में घोलकर दो डिस्प्रिन ले लिया करता हूँ। बीस मिनट में आराम आ जाता है। पर अब बहुत डरने लगा हूँ कि कोई ऐसा वक़्त न आये जब ये डिस्प्रिन भी असर करना बन्द कर दे। इसलिए आजकल दवा लेने से पहले बहुत देर तक दर्द को सहने की कोशिश करता हूँ। जबकि मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि दर्द नहीं रुकेगा किसी भी सूरत में डिस्प्रिन के बिना इस समय कुछ ऐसा ही दर्द सिर में हो रहा है। यह दिसम्बर के महीने की काली अँधेरी रात हैं। ठंड भी जैसे बीत रहे बरस जून में झोंकी आग का हिसाब बराबर कर रही है। कोहरा बहुत कुछ लील गया है। बहुत कुछ मसलन सैकड़ों इंसानों की जि़न्दगी। दिमाग़ की तहों से निकलकर दर्द की तरंगें माथे पर रेंगती हुइर्ं कनपटी में बिफर जा रही हैं। ऐसा लग रहा जैसे भीतर कुछ लपलपा रहा है। किस फाउन्दरी के अलाव में उबलती हुई किसी धातु की तरह। ड्राप․․․ ड्राप․․․ मैंने जेब की पुडि़या में पड़ी डिस्प्रिन की एक गोली के कई टुकड़े लिये हैं और एक बेहद गहरी सोच में डूबकर कुछ समय के लिए जैसे जड़ हो गया हूँ।
हाल के वर्षों की स्मृतियाँ आँखों पर उतर रही हैं।
सन 2009 को समाप्त होने में कुछ ही दिन शेष हैं। पूँजीवाद और मुक्त बाज़ार व्यवस्था की पराजय का उद्घोष हो चुका है। ऐसा सुनने में आ रहा है कि अपने भीतर के कैंसर से खोखला हुआ इतिहास का सबसे शक्तिशाली, अमानवीय और शायद निर्मम तंत्र अब मृत्यु के कगार पर है। मैं याद कर रहा हूँ वो दिन जब पहली बार चरणजीत सिंह या ठीक से कहूँ तो कामरेड चारु से मिला था। कई वर्ष हो चुके हैं इस बात को।
मैं दिल्ली में फिजिक्स में मास्टर्स की पढ़ाई के लिए नया-नया पहुँचा था। शौकिया लिख लेता था। शहर के चार-पाँच कवियों के नाम मालूम हो गये थे। हम ऐसे मिले थे कि एक आयोजन में उनका कविता-पाठ था। मैं यों ही चला गया था कि शायद मुझे भी कुछ पढ़ने का मौका मिल जाए। साधारण-सा परिचय हुआ था। पतों और फोन नम्बरों का लेन-देन। उसके बाद कुछ दो-तीन महीनों बाद वो फिर एक बार एक आर्ट-गैलरी में मिले, और पुराना परिचय फिर दुहरा गय। अगले रविवार मैं उनके घर पहुँच गया और उनसे आधुनिक कविता पर बहस छेड़ बैठा। मैं अपनी फुटकर कविताओं से भरी डायरी लेकर गया था। सोचा था कि स्थापित आदमी है, हो सकता है बिठवा दे कभी किसी दिन किसी गोष्ठी में मंच पर। पर किस्मत को और भी बहुत कुछ मंजूर था। बहस गर्म हो गयी। हुआ यों कि मैं अपनी नासमझी में उनसे किसी बात पर यह कह बैठा कि यद्यपि मैं वामपन्थी विचारधारा को सही नहीं मानता, पर फिर भी वामपन्थियों का सम्मान करता हूँ। चारु भड़क गये। एक लम्बे एकालाप में उन्होंने लगातार बोलना शुरू कर दिया, “मुझे नहीं मालूम तुम किसे वामपन्थी विचाराधारा कहते हो, पर जब तुमने यह शब्द इस्तेमाल कर हीलिया है तो सुनो। मुझे अगर जानना चाहते हो तो एक अनार्किस्ट के रूप में जानो। जो बाकुनिन, क्रोपोत्किन, एम्मा गोल्डमन, मार्क्स, एंगेल्स, त्रोत्स्की, माओ, फ्रेडरिक डगलस, मैल्कम, अक्स, चे ग्वेरा आदि से प्रेरणा लेता है। साथ ही नानक, कबीर, टैगोर, अम्बेडकर, निराला, नागभूषण पटनायक और शंकर गुहा नियोगी को भी आदर्श मानता है मैं गाँधी से भी प्रभावित होता हूँ, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। हालाँकि मैंने उन्हें बहुत से गाँधीवादियों से ज्यादा पढ़ा है।”
मैं उनकी बात सुनकर सकते में आ गया। चारु बोलते रहे, “पर मेरी कविताओं को किसी विचारधारा की चिन्ता किये बिना पढ़ा जा सकता है। दक्खिन या वाम, सोच आ ही जाती है जब हम लिखते हैं।”
पहली मुलाकात में मैंने थोड़ी सभ्यता बनाए रखने के लिए उनकी बात को सिरे से काटने कि कोशिश नहीं की। हालाँकि मुझे लगा था कि यह बहुत बड़ी ग़लती होगी, मैं यथासम्भव सभ्य बनके बहस में डटा रहा।
“विचारों का नस्लवाद! दादा यही सही नहीं है। कोई भी विचारधारा मुकम्मल नहीं है। हर एक में खोट है क्योंकि उसके मध्य में आदमी है जो अपनी प्रकृति के कारण कहीं न कहीं कमजोर, लालची और ग़लत है।”
“तुम कहना चाहते हो कि मनुष्य से तुम्हारा भरोसा उठ चुका है।” उन्होंने इतना सुनते ही मेरी बात बीच में काट दी।
“नहीं दादा, मेरा यह मतलब नहीं था, पर मेरा किसी भी विचाराधारा में विश्वास नहीं है। माफ़ कीजिएगा। कभी आप दूसरों की भी सुनते हैं या अपनी ही गाते रहते हैं!”
चारु मेहमान लिहाज़ देर तक नहीं करते हैं यह मैंने उस दिन बखूबी समझा। “तो क्या करूँ? तुम्हारे जैसे कार्टूनों से बकवास सुनूँ। तुम्हें क्या चाहिए-डिग्री पूरी करने के बाद किसी बड़ी कम्पनी में लाखों की नौकरी, मोटा दहेज, गोरी सुन्दर गृह कार्य में दक्ष लड़की?”
मैं भी भड़क गया, “आपकी बातों में वही पूर्वाग्रह है दादा जो अकसर बिल्ला छाप मार्क्सवादी कवियों की कविताओं में होता है। हर उस व्यक्ति को जो आपसे सहमत नहीं है आप समझते हैं कि वो नामुराद, बुर्जआ, इतिहास को बोझ है Either you are with us or against us आप भी बुश के भूत से प्रताडि़त हैं क्या?”
“तुम समझते हो कि तुम मेरे घर से मेरी ही भर्त्सना करके निकल जाओगे और मैं चुपचाप ऐसा होने दूँगा!”
मेरा मुँह उतर गया।
उसके बाद चारु एक अट्टहास करके हँसे।
थोड़ी देर बाद हम बाक़ायदा एक-दूसरे पर बरसने लगे थे। चारु के घर के बाकी लोग दरवाज़ों की चौखटों पर सर टिकाकर तमाशा देखने लगे थे। पर जो भी हो बहस का फ़ायदा हुआ। चारु को ज़रूर लगा होगा की लड़के में दम है। उसके बाद हम दोस्त बन गये। मैंने उन्हें अपने हॉस्टल का पता दिया और सम्मान से बोला, “आपसे इतनी बात की, इतना समय आपने दिया, इसके लिए शुक्रिया।” चारु बाले “जाम लगाए बिना जा रहे हो?”
“फिर कभी दादा।” मैं हँस दिया।
एक साल में हमारी दोस्ती ने गहरी जड़ें पकड़ लीं। मुझे चारु के व्यक्तित्व ने जीत लिया और उन्हें शायद यह ख़्याल कि एक दिन वो मुझे जीत लेंगे अपने व्यक्तित्व से। साइंस का छात्र होने के कारण किसी भी पोलिटिकल थिओरी की पेचीदगियाँ मेरी समझ के बूते से बाहर थीं। जो किताब चारु मुझे पढ़ने को देते वो मैं शान्ति से कमरे की रैक पर रख देता। वो मुझे एशिया और अफ्रीका के मेहनतकशों के बारे में बताते रहते। साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, बाज़ारवाद के विरोध में बोलते रहते। किसी एक यूटोपियन समाज जहाँ सर्वहारा वर्ग का राज होगा, उसकी कल्पना में खो जाते। मुझे यह बात बहुत अद्भुत लगती कि चारु जैसे प्रखर दिमाग़वाले लोग किस एक चीज़ से आकर्षित होकर वामपन्थ की ओर झुके होंगे। वे अकेले नहीं हैं उनकी पूरी-की-पूरी टीम है। जो किसी तरह की क्रान्ति को उतारू हैं। क्यों इतनी निष्ठा से बैठे ठाले क्रान्ति की बातें ये लोग बोलते हैं। ऐसे जैसे क्रिकेट का आँखो देखा हाल बूझ रहे हों। क्यों शायरी इन लोगों कि ज़ुबान पर हर समय रखी रहती है। रातों में शराब के नशे में धुत चारु किसी मुद्दे की बात पर तब्सिरा करते रहते और शायरी करते रहते हैं। जबकि पीछे के घर में कोई स्त्री अपने नशेड़ी पति से ठीक उसी समय पिटकर चीख रही होती। उनके रास्ते का विरोधाभास मुझे भ्रमित रखता। मुझे लगता कि शायद मैं ही हूँ जो चीज़ों को अपने कच्चे नज़रिये के कारण नहीं समझ पाता हूँ। शायद वामपन्थियों के पास कोई विशेष दृष्टि है जो सिर्फ़ उन्हीं के पास है। अगर आप उनके सम्पर्क में नहीं आते हैं तो वो दृष्टि आपको नहीं मिलेगी। इतने दिनों में मैं यह जान गया था कि मार्क्स और लेनिन बहुत भले आदमी थे। पर भले आदमी तो मैं और चारु भी हैं। इस बात पर हैरानी होती कि दूर देश में उनको लोग इतने सालों बाद भी क्यों याद करते हैं। शायद उनकी दी हुई थिओरी बहुत विलक्षण है। पर वो व्यवस्था तो दशकों पहले ही ख़्ाारिज हो चुकी है। मैं पूरे ग्लोब पर एक सरसरी मानसिक दृष्टि फेरकर सोचता कि कोई एक ऐसा मुल्क जहाँ कभी सफल हुआ हो। जहाँ की अवाम वहाँ की व्यवस्था से पूरी तरह खुश और शोषणमुक्त हो। ऐसा मुझे अपनी साधारण दृष्टि से तो नहीं दिखाई देता। आज मुक्त बाज़ार व्यवस्था की भयावह विफलता के बाद क्या ज़रूरी है कि हम वापस उसी ओर मुड़ें। क्या हम इतिहास के प्रेतों को बार-बार जीने के लिए अभिशप्त हैं। क्या कोई नयी सोच नहीं पैदा की जा सकती। पीपल के नीचे चींटियाँ चिपक रही हैं तो भागकर बरगद के नीचे चलते हैं।
चारु बोलते कि सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति की सफलता के बाद एक ऐसा समय आएगा जब एक तरह का अधिनायक तन्त्र सत्ता पर काबिज़ होगा। और वो कालान्तर में एक सच्ची समाजवादी व्यवस्था को जन्म देगा जिसमें न कोई राज्य होगा न कोई क्लास। मैं उनसे कहता, “दादा मान लो ऐसा नहीं हुआ तो। क्रान्ति को अंजाम देने वालों की नीयत बदल गयी तो? आप तो दारू पीकर शायरी करने लगोगे- ‘ये वो सहर तो नहीं कि जिसकी आरजू लेकर चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं-न-कहीं'।”
चारु दृढ़ होके कहते, “ऐसा नहीं होगा, गाँधीवादियों और हममें यही भेद है। पर बीच में एक संक्रमणकाल आएगा जब लगेगा कि सबकुछ एक तानाशाही व्यवस्था में तब्दील हो गया है।”
जार्ज ओरवेल का उन्नीस सौ चौरासी मेरे मस्तिष्क में कौंध जाता। मैं हँसके बोलता, “दादा मैं आपकी तानाशाही नहीं सहूँगा, गोली मार दूँगा आपको। मैं आपका वजूद ख़्ात्म करने के लिए अपनी खुद की क्रान्ति करूँगा।”
इन्हीं बहसों-मुबाहिसों के बीच कई साल बीत चुके थे।
आज शाम चारु की आवाज़ भर्राई हुई थी। आकर बैठे भी नहीं और बोले, चलो मेरे साथ। मैं हैरानी में कपड़े लादने लगा। टोपी, मफलर, दस्ताने चढ़ाने के बाद एक मोटी जाकेट निकाली और पहनकर यह सुनिश्चित किया कि अब ठंड कहीं से भीतर नहीं घुस सकती। चारु आगे-आगे चल रहे थे। हॉस्टल की सड़क खत्म होने के बाद एक स्थान पर उनकी मोटरसाइकिल खड़ी था। उसे चालू करने के बाद उन्होंने मुझे पीछे बैठने का इशारा किया। मैं सवार हो गया। कोहरे में पचास कदम आगे देखना भी मुश्किल था। विश्वविद्यालय से सटी यमुना की तलहटी की तरफ़ में सिर्फ़ बादल होने का गुमान हो रहा था। हम लोग किसी वीरान सड़क पर बहुत-सी झोंपड़ट्टियों वाले इलाकों से गुज़रकर चल रहे थे। यमुना के ब्रिज को पार करके किसी मोहल्ले के एक छोटे-से मकान के बाहर उन्होंने गाड़ी रोक दी।
“अशफ़क़, आज मैं तुमसे बहुत बात करने वाला हूँ।”
चारु ने एक बड़ा ताला खोलकर किवाड़ को ठोकर से उढ़का दिया। “हमारा संघर्ष गहरा गया है। हथियार से काडर कोलामबन्द करने के बाद हमें․․․ बल्कि मुझे यह लग रहा है कि जैसे लड़ाई का केस बिगड़ गया है। तुम्हें कभी स्पष्ट कहा नहीं, पर मैं एक माओवादी पार्टी का कार्यकर्ता हूँ। इस जगह हमारे बहुत से हथियार रखे हैं।”
मैंने चारों तरफ़ दृष्टि घुमाकर देखा। भय से मैं काँप गया।
चारु ने अट्टहास किया, “डर गये, मज़ाक कर रहा हूँ।”
मुझे मज़ाक ज़रा भी पसन्द नहीं आया था। चारु मुझे मकान के पिछवाड़े से निकालकर बाहर ले गये। वहाँ अच्छा-खासा जंगल था। मैंने अनुमान लगाया कि थोड़ी ही दूर पर कहीं यमुना भी होगी जो कोहरे में अभी ओझल मालूम देती है। चारु उसी जंगल के भीतर आगे चलने लगे। मैं सोच रहा था कि किस सनकी से दोस्ती कर बैठा हूँ। एक कच्ची सड़क आने पर वो मुड़ गये। मुझे बारिश होने का अन्देशा होने लगा था। बारिश की ठंडक की कल्पना से ही मेरे दाँत किटकिटाने लगे। थोड़ी दूर पर कुछ कच्चे घर और झोंपडि़याँ नज़र आने लगीं। ज़्यादातर घरों में मिट्टी के तेल के लैम्पों का उजाला था जो बाहर के धुएँ में फैलकर अलग रंग का लग रहा था। पर सब घर यथासम्भव बन्द मालूम देते थे। चारु एक पेड़ के पास आकर रुके, और मेरी तरफ़ देखकर बोले, “दोस्त! तुमने कभी किसी से प्यार किया है?” मेरा माथा ठनका। तय हो चुका था कि आज लम्बा फँसा हूँ।
“हाँ, किया है। पर लगता नहीं उस सबके लिए मैं अब जि़न्दा रह पाऊँगा।”
“तब ठीक है।” इतना कहकर वो उसी पेड़ के नीचे जाकर बैठ गये। मैं तब और चौंका जब उन्होंने जूते खोलने शुरू कर दिये। जूतों के बाद मोज़े भी उतारकर वो गीली ज़मीन पर तलवे चपटाकर सीधे खड़े हो गये। मैं चिल्लाकर बोला, “ये क्या कर रहे हैं। ठंड सर में चढ़ जाएगी।”
चारु ने स्वेटर उतरा, फिर कमीज़, बनियान और उसके बाद जींस भी उतार दी। केवल जाँघिये में आकर, एक बारगी शरीर खींचकर पेड़ के नीचे आसन जमाकर बैठ गये।
मैंने उनसे बातें करना छोड़ दिया। कहीं से भी नहीं लग रहा था कि चारु नशे में हैं। सोचने लगा कि माजरा क्या है? चारु के शरीर के रोंए रोंए धीरे-धीरे खड़े हो रहे थे। टप-टप गिरती ओस की बूँदों से उनका शरीर नहाने लगा था।
गहरी खुमारी के मध्य चारु ने बोलना शुरू किया, “देखो अशफ़ाक़! अनजान लोग मोटे तौर पर समझते हैं कि समाजवाद का मतलब है छीनना। जैसे तुम्हारे पास यदि सौ रुपये हैं, तो सामने खड़े भिखारी का यह हक़ बनता है कि वो तुमसे किसी भी तरह पचास छीन लेता कि सम्पत्ति का बराबर बँटवारा हो सके क्योंकि भिखारी को भिखारी बनाने वाला वह तन्त्र है जिसका तुम हिस्सा हो, तुम यानी तुम्हारी क्लास के लोग। पर सबसे मूल रूप में समाजवाद का लक्ष्य हर तरह के शोषण को खत्म कर अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को भरना है।”
मैं चुपचाप पास आकर उनकी बात सुनने लगा।
“तुमने कहा था एक दिन कि मैं उस चीज़ को आयात की गयी किताबों में क्यों पढ़ू जो मेरे खून में है। जो लोकगीत मेरी माँ गाती है उन्हें मैं रूसी फोल्क लोर्स में क्यों तलाशूँ?
कहा था न․․․
देखो चीज़ें कई रूपों में होती हैं। फिर रास्ते भी होते हैं कई एक ही जगह जाने के लिए। तुमने सुनायी थी न वो कच्ची-सी एक कविता�
पहले ओढ़ो मरहम
कायनात के ज़ख़्मों का․․․
सो हम जो रास्ता चुनते हैं वह हमारे शरीर पर किस अनुभव की खाल पड़ी है उस पर बहुत कुछ ठहर जाता है।”
मेरा दिमाग़ चक्कर खाने लगा। कैसा आदमी है ये? क्या सि( करना चाह रहा है। आधे घंटे में बहुत कुछ अनपेक्षित देख चुका था। मुझे अपने सिरदर्द का डर हो आया। इस मौसम में वैसे ही मैं परेशान रहता हूँ। उस पर ये खुला ठंडा आसमान। इस मौसम में वैसे ही मैं परेशान रहता हूँ। उसपर ये खुला ठंडा आसमान। जेब में डिस्प्रिन भी नहीं है शायद।
“अश, यहीं रुकते हैं, यादगार रात रहेगी।” चारु ने आँखें बन्द कर लीं। जैसे सोने लगे हों। मैं और दुविधा में पड़ गया। चारु के पागलपन पर क्रोधित हो मैं उन्हें वहीं छोड़कर जाने की सोचने लगा। फिर सोचा, अच्छा दोस्त हैं अभी बहक गया है। ऐसे में इन्हें छोड़कर जाना कितना गम्भीर धोखा होगा। पर करूँ भी तो क्या- यहाँ तो प्राण निकल जाएँगे। मैंने देखा की चारु पूरी तरह निश्चिंत सोने लगे हैं। खुदा जाने कैसे इन्हें नींद आ रही है। ठंड ने और प्रचंड रूप ले लिया था। मुझे एक झन्नाटेदार छींक आयी। उसके बाद एक-एक करके कोई पच्चीस-तीस बार मैं छींक गया। थूक निगलने में दिक़्क़त शुरू हो गयी। अलर्जी ने हमला शुरू कर दिया था। मैंने मन-ही-मन सोचा, यह सब तो झेल जाऊँगा पर यदि सर दर्द शुरू हो गया तो․․․ मैंने मफलर उतारा और साफे की तरह माथे के चारों तरफ़ बाँध लिया। ऊपर से टोपी और कसके चढ़ा ली। चारु को देख-देखकर ही मुझे ठंड चढ़ रही थी। मैंने उनके कन्धे पर हाथ रखा। बिलकुल बर्फ़ की सिल्ली मालूम देता था। नाक नीली पड़ने लगी थी। सर के बाल बेंत की तरह खड़े दिख रहे थे। पर चेहरे पर ज़रा भी शिकन नहीं थी। कामरेड चारु पत्थर की प्रतिमा की तरह बैठे हुए थे। मैंने हिम्मत करके पास पड़ी दो ईंटें जुगाड़ीं और बैठ गया। इस इन्तजार में कि शायद ये परेशान होकर उठ ही जाएँ। घंटा भर होने आया था यहाँ पहुचे हुए। रात पूरी तरह चढ़ चुकी थी। आसपास कुछ भी दिखना मुश्किल हो गया था। मैं डर रहा था कि कहीं कोई हमला ही न कर दे अँधेरे में।
चारु को कुछ होश आया। गफ़लत में दोहराने लगे, “हर विचारधारा नाभि के नीचे कमज़ोर है। उसमें भविष्य का बीज तो छिपा है पर शरीर का वह अंग भी जहाँ से हर तरह का व्यभिचार किया जा सकता है! वह वो ग़ुलाम स्त्री है जिसे कोई भी अपने घर की कुठरिया में बन्द कर सकता है� कोई भी․․․ पूँजीपति, गाँधीवादी, बुद्धिजीवी, क्रान्तिकारी․․․ बलात्कारी․․․ और अपना खुद का वंश बीज बो सकता है।”
मैं चौंका। यह चारु मेरी बातें क्यों दोहरा रहे हैं। ऐसा तो मैंने कभी एक लम्बी बहस में चिढ़कर उनसे कहा था। चारु बड़बड़ाते रहे, “मुक्तिबोध की कुछ रचनाएँ कमतर कवियों में बँटवा दो। मेरे नाम से भी छपवा दो। कला का बँटवारा क्यों नहीं हो सकता जब सम्पत्ति का हो सकता है। क्या पूँजी खड़ी करना, मिलें डालना कला नहीं है। फिर पूँजीपतियों को उस दृष्टि से क्यों नहीं देखा जा सकता? क्रिएशन ऑफ़ वेल्थ इज अन आर्ट।”
“अ फकिंग आर्ट!”
“अश! आज तुम बहस में जीत रहे हो।” चारु भीषण अट्टहास के साथ खिलखिलाकर हँसे और फिर बेहोश हो गये।
बहसवाली वह शाम मेरे सामने तिरने लगी। बात यह थी कि चारु गाँधी को नकार रहे थे। मुझे यह बात पच नहीं रही थी। “गाँधी से बड़ा समाजवादी कोई है क्या? अपना सारा जीवन समाज के सबसे वंचित व्यक्ति की तरह रहकर जिया। चरखे के माध्यम से इतिहास की सबसे अद्भुत ग्रास रूट अर्थव्यवस्था खड़ी की। It was astoundingly creative”, पर मैं पिछड़ रहा था बहस में।
“केवल साम्यवाद की विचारधारा ही मनुष्यता के सबसे क़रीब है।”
“पर दादा, पिछली सदी के कितने नरसंहार साम्यवादियों के हाथों हुए। उन्हें आप क्यों भूल जाते हैं?”
“यह सब प्रोपगैंडा और पूँजीपतियों का षड्यंत्र है।”
“सही! दुनिया के कुछ षडयंत्र ऐसे हैं जिनका सिर्फ़ कम्युनिस्टों को पता है। और कुछ नरसंहार ऐसे हैं जिनका कम्युनिस्टों को छोड़कर सबको पता है। दादा उँगली उठाना मेरा मकसद नहीं पर दरअसल बड़ा सवाल आदमी की नीयत का है। उस रास्ते का नहीं जिस पर वो चल रहा है․․।”
“अश!” चारु की बेहोशी फिर टूटी। “आज सोचा था कि एक शाम गाँधी की तरह जी जाए।
“हद करते हो दादा! क्या आज़ाद को जीने का मन होगा तो सरकारी खज़ाना लूटने चल दोगे।”
“उसमें क्या बड़ी बात है․․․ खैर! विद्रोह और प्रतिहिंसा का सुनिश्चित उद्देश्य होना चाहिए। जब वो रैंडम हो जाती है तो सही में विचारधारा आहत होती है।”
मेरे दिमाग़ में सुबह की खबर कौंधी। “पश्चिम बंगाल में माओवादियों ने रेल की पटरियाँ हटाइर्ं। सवारी गाड़ी डिरेल। सैकड़ों मुसाफ़िरों की मौत”।
चारु का चेहरा निर्जीव होकर एक तरफ़ लुढ़क गया।
उस समय तक रात के बारह बज चुके थे। पर सामने के घरों में कुछ हलचलें अब भी होती मालूम दे रही थीं। मेरे सर में यकायक तीव्र दर्द उठा। पूरे हिस्से में दर्द की तरंगें उठने लगीं। यह निश्चित था कि यदि यहाँ घंटे दो घंटे और रुकना पड़ गया तो मैं अचेत हो गिर पड़ूँ। कहीं दूर तक किसी दुकान या पक्के घर का चिह्न नहीं था। मैं खोजने केलिए पेड़ से आगे निकल आया। ठंड की विभीषिका से मेरी घिघ्घी बँध गयी थी। मैं सोचने लगा था कि कैसे लाखों लोग बिना छत ऐसे मौसम में रहते हैं। बारिश की बूँदें धीरे-धीरे टपककर माहौल और भी भयावह बना रहीं थीं। हिपोथेर्मिया से दो नौजवानों की मौत। मुझे लोकल अखबार की भीतर के पन्ने की एक सम्भावित ख़्ाबर दिखाई देने लगी। आज शायद डिस्प्रिन भी नहीं है जेब में․․․ मैंने अपने सारे कपड़े टटोले। कमीज़ की जेब में डिस्प्रिन की खाली पट्टी में हल्की एक गोली मुझे दिखाई पड़ी। मुझे इस घड़ी में हँसी का एक दौरा आया। “आज इतनी भी मयस्सर नहीं मैख़्ााने में।” मुझे लगा कि मुझपर भी चारु की शायरी का असर हो गया है। उसी की तरह का रोमांटिक पगलापा मुझपर दिखने लगा है। मैं। यहाँ क्या कर रहा हूँ इस घड़ी। यदि चारु की बातों ने मुझपर असर नहीं किया है तो फिर यह क्या है? खुदा न खास्ता कहीं चारु सही में माओवादी या नक्सलवादी निकले तो! कहीं सही में उस घर में उनका असलहा हो अगर यदि मैं भी चारु के साथ पकड़ा गया तो․․․ सारी वैचारिक हेकड़ी, बहसबाज़ी धरी-की-धरी रह जाएगी। पर वह सब तब, जब जि़न्दा रहूँगा।
पता नहीं कहाँ से एक साइकिलवाला आ रहा था। कोहरे में यह भी पता करना मुश्किल था कि जवान है या बुजुर्ग। वो पास आया और खुद ही रुक गया। मैंने उसे नज़र गड़ाके देखा और बोला, “ये नहीं दद्दा, दवा․․․ दवा सिरदर्द की․․․” अबके उसने इशारा करके पास का एक घर दिखाया जहाँ जहाँ से किसी ढिबरी के जलने से पैदा हुआ प्रकाश आ रहा था। मैं समझा शायद अपना घर दिखा रहा है। जो भी हो मैंने एक झटके में पीकर वो बोतल खाली कर दी। गर्मी की एक तीव्र सिहरन मेरे सारे शरीर में दौड़ गयी। थोड़ा बेहतर महसूस हुआ।
उसका दिखाया हुआ घर एक झोंपड़ी-सी थी। पन्नी के गट्ठर छप्पर पर लदे हुए थे। बाहर एक रिक्शा खड़ा था। मुझे वहाँ दवा मिलने की कोई उम्मीद नहीं नज़र आयी। पर फिर भी यह सोचकर कि इस आदमी को घर ही छोड़ आऊँगा, मैं उसे साइकिल पर लादकर चल दिया। घर के चबूतरे पर पहुँचकर मैंने दरवाज़े का कुंडा खटखटाया। आदमी वहीं ज़मीन पर चित लेट गया था। कई बार खटखटाने पर भी जब कोई बाहर नहीं आया तोमैंने आर-पार बने आले से दीवार के भीतर झाँका। हल्की-सी रोशनी में एक औरत उघड़ी हुई पड़ी थी। एक कम्बल में उसके दो-तीन बच्चे सिकुड़े-से लेटे थे। वो नींद में बारी-बारी से अपनी ओर कम्बल खींचते। मालूम होता था कि औरत बिलकुल निढाल है। बेहोशी में एक हाथ अपने एक बच्चे के ऊपर फेर लेती। मैं पसीज गया। इतनी भयंकर सर्दी में कैसे पड़े हैं ये लोग! कँपकँपी और भय की एक सिहरन फिर दौड़ गयी। मैंने दरवाज़े को जोर से धक्का दिया। इत्तेफाकन वो बड़े आराम से खुल गया। मैं घसीट के शराबी को अन्दर ले गया और फिर देखने लगा कि कहीं कुछ मिल जाए जो इस औरत पर डाल दूँ। इधर-उधर देखने पर एक पन्नी में कोई किलो-दो किलो आटा रखा मिला। बासी चूल्हा और एक गन्दा तवा। दूसरी तरफ़ एक पुराना डालडे का डिब्बा जिसमें शायद पानी होगा। एक ज़गह थोड़ी लकडि़याँ जमा थीं पर कहीं भी कुछ कपड़ेनुमा नहीं दिख रहा था। मैंने औरत के हाथ को छुआ। बिलकुल बर्फ़ मालूम देता था। माथा छूने पर तेज़ ताप का अंदेशा हुआ। मैं फिर काँपा। थोड़ा सोचा। फिर अपना मफलर उतारा और कसके उसके सिर पर साफे की तरह बाँध दिया। बच्चे ऊँघ रहे थे पर किसी को होश न था। मैं वहाँ से जाने को तैयार हुआ। शराबी पूरी तरह बेहोश था। सोचा ये साला तो दारू से गरम होगा। इसकी क्या चिन्ता करूँ। मैं किवाड़ शान्ति से बन्द करके वापस चल दिया। एकाएक लगा जैसे सर बहुत भारी हो गया है। कई घंटे हो गये थे इस भीगी रात में घूमते। लगता था की शीत पूरी तरह मुझे लीलने वाला हैं अब कोई नहीं रोक सकता मेरे दर्द को विकराल होने से। मैं जान फ़ोकट में गँवाने के डर से घबराया। औरत का चेहरा एक बार फिर मेरे सामने घूम गया। उसकी पीड़ा की कल्पना से दहशत का एक और झोंका-सा मुझे आया। मेरे कदम उस घर की और लौट पड़े। मैं इस बार तटस्थ सा फिर उस चबूतरे के पास पहुँचा और चढ़कर आले के पार देखने लगा। औरत वैसे ही पड़ी थी। शायद इतनी देर में उसने करवट भी नहीं ली थी। पर बच्चों में से एक ने कम्बल अपनी ओर ज्यादा खींच लिया था। कोई सात-आठ साल की एक लड़की का उघड़ा हुआ शरीर मुझे अँधेरे में नज़र आया। उसकी फटी फ्रॉक से मटमैली पीठ झाँक रही थी। मैं अपने आपको रोक नहीं पाया। दरवाज़ा धकेलकर अन्दर आ गया और सोचने लगा कि अब क्या क्या करूँ? मेरे सर का दर्द अपनी जडें बहुत गहरी कर चुका था। सर में किसी उबलती हुई धातु के टपकने का अहसास शुरू हो गया था। ड्राप․․․ ड्राप․․․ ड्राप․․․।
जाने क्या सोचकर मैंने अपनी जैकेट उतारकर उस औरत पर फैला दी। फिर कुछ देर बाद। बाजुओं में से उसका एक हाथ बाहर निकाला। एक तरफ़ से उसे उठाकर जाकेट औरत के नीचे बिछा दी․․․ फिर दूसरे बाजू से हाथ निकलकर जाकेट पूरी तरह उसे पहना कर बन्द कर दी। औरत निश्चेष्ट थी। फिर अपनी टोपी उतारकर पास पड़ी लड़की के बाल समेटकर उसे पहना दी। सोचा जितना कर सकता था कर चुका। मैं चलने को हुआ। कौतुहलवश मैंकम्बल पूरा हटाके देखने लगा की जान सकूँ कि भीतर और कौन लेटा है। मैं उस दहशत से चीखने ही वाला था जब उस काली-सी बहुत छोटी-सी देह ने आँखें खोलीं। वो एक बहुत उम्रदराज़ बुढि़या थी। बिना ब्लाउज़ के एक धोती में लिपटी थी और मुझे देखके न जाने क्या सोचके हँस दी थी। एकदम मिनिस्कुल सा अस्तित्व था उसका ऐसे जैसे इस सृष्टि से परे की चीज़ हो। पास में दुबका हुआ एक चार-पाँच साल का बच्चा लेटा था। मैं काफ़ी देर तक कम्बल उठाये उन्हें निहारता रहा। जाने क्या-क्या घूम गया आँखों के आगे। मैंने कुछ निश्चय करके अपना स्वेटर उतारा, कमीज़ उतारी। दोनों कपड़े उस देह पर चादर की तरह पीठ के नीचे खोस दिए। वो बिना प्रतिरोध के सबकुछ करवाती रही। थोड़ा है। कुछ देर बाद वो लड़की मेरी गरम पैंट को बेतरतीब चढ़ाए सो रही थी और मैं शराबी के साफे को एक लुंगी की तरह नंगे बदन लादे था। कम्बल अब बच्चों पर बराबर था। इस पूरी कसरत में बीस-पच्चीस मिनट लग गये। मुझे सिरदर्द की एक और तरंग जोर से उठी। मेरी मुट्ठी में डिस्प्रिन की पुडि़या थी जिसमें सिर्फ़ एक गोली थी। मैंने अपने चारों तरफ़ देखा, “इस गोली के कितने टुकड़े करूँ? अगर पूरी गोली इस औरत के मुँह में रख दूँ तो भी इसे आराम नहीं आएगा। ज़्यादा से ज़्यादा घंटे दो घंटे को। अगर मैं पूरी खुद खा लूँ तो मैं पापबोध में डूब जाऊँगा। या इसे यूँही कहीं फेंक दूँ! क्या फ़र्क पड़ेगा। मैंने उस गोली के कुछ टुकड़े किये और मेरी तन्द्रा टूटी। समाजवाद की अवधारणा पर ज़ोर की मुझे हँसी आयी। “To distribute the wealth, it needs to be created in the first place” किवाड़ फेरकर मैं बाहर निकल आया।
तीर-सी आती ठंडी हवा ने जब बदन छुआ तो सैकड़ों चाकू से भेद गये। सिरदर्द अपने सबसे बर्बर स्वरूप में था। पर मैं शान्त था। उसी अवस्था में भारी-भारी डग बढ़ाता हुआ चारु के पास चल दिया। न जाने कैसा हल्कापन दिमाग़ के गोशे-गोशे में तैरने लगा था। मैं ऐसे सुन्न था जैसे अनास्थीसिया की डोज़ लेकर ऑपरेशन टेबल पर लेटा मरीज होऊँ। पेड़ के पास पहुँचा। चारु घास में औंधे पड़े थे। साँस तेज़ चल रही थी। सारा शरीर कोहरे में गहरा काला प्रतीत हो रहा था। मैंने जोर से चारु को हिलाया। कामरेड चारु ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। मेरी ओर एक निर्जीव दृष्टि से देखा। मैंने दोनों हाथ खींचकर ऊपर उठाए और चीखकर बोला। “चारु! समाजवाद का मतलब छीनना ही होता है। जिसके पास ज़रूरत से ज़्यादा हो, उससे छीन लेना․․․ ताकि सम्पत्ति का बँटवारा बराबर हो सके․․․ देखो! मैं भी छीन के आ रहा हूँ․․․ शीत, बीमारी,․․․ मौत․․․ जैसे प्यार करना सीख गया हूँ․․․।”
फिर अपनी ही सोच की दुविधा पर एक साथ हँसा और बेचैन हुआ। What the freaking hell! चारु के गर्म कपड़े अब भी पेड़ के नीचे पड़े थे। मैंने वो कपड़े समेटे और एक दूसरी झोपड़पट्टी की ओर चल दिया।
बी-302, पवनी पार्कवेस्ट अपार्ट्मेंट्स
इनर सर्कल, व्हाइटफील्ड
बैंगलौर-560066
COMMENTS