गुणशेखर ग़ज़ल जो भी चाहा जिसने उसको वह सब नहीं मिला जहाँ खिला था फूल ख्वाब में काँटा वहीं मिला ठनी भाग्य से जब - जब मेरी, उसने यही क...
गुणशेखर
ग़ज़ल
जो भी चाहा जिसने उसको वह सब नहीं मिला
जहाँ खिला था फूल ख्वाब में काँटा वहीं मिला
ठनी भाग्य से जब - जब मेरी, उसने यही कहा
दुनिया भर की सब झीलों में नीरज नहीं खिला
सिलने और सिलाने वाले तन के घाव, मिले
दिल के घाव सिले जो सर्जन ढूँढ़े नहीं मिला
हिला- हिला कर हाथ जोर से मेरे मिलने वाले
दुःख में देख भगे ऐसे कि रस्ता नहीं मिला
औरों को हम बात-बात में रहे कोसते लेकिन
अपने पर पड़ते ही गायब शिकवा और गिला
(डॉ.गंगा प्रसाद शर्मा )
हिन्दी विभाग ,
गुआन्दांग अंतर्रराष्ट्रीय विश्व विद्यालय(वैश्विक अध्ययन) ,
ग्वन्ग्ज़्हाऊ ,चीन.
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विजय वर्मा
ग़ज़ल
कैसी-कैसी अदा आती है उन्हें सताने की
उठकर चल दिये,सुनकर मेरे आने की.
ना रहमो-करम की,ना ही मुँह फेर लिया
बात ऐसी कुछ भी तो नहीं है बताने की.
मेरे शब्दों को पत्थर की लकीर मानने वाले
ये क्या सूझी तुझे आज मुझे आजमाने की.
मुझपर यकीं ना था,खुद पर तो किया होता,
दोनों से भली लगी क्यूँ बात ज़माने की?
प्यास लगी तो भर दी,नहीं तो फ़ेंक दिया,
हर युग में यही तो मुक़द्दर रही है पैमाने की.
कितने दिन गुजारे है,सोगवार बनके.
अब तो ज़रा मौसम ला दो मुस्कुराने की.
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v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
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मोहसिन 'तन्हा'
ग़ज़ल- 1 .
ये कैसी बात बताते हो ।
रोते-रोते भी हँसाते हो ।
हमसे पूछकर सारे राज़,
अपना ग़म ही छुपाते हो।
नफ़रतों से भरे लोगों में
बात मुहब्बत की सुनाते हो।
प्यासे हैं यहाँ ख़ून के,
चश्में यूँ ही बहाते हो।
नापाक़ हो गए छूने से
शक्ल कैसी बनाते हो।
'तन्हा' न समझूँ ख़ुद को,
कहाँ दोस्ती निबाहते हो।
ग़ज़ल- 2.
सरकार कोई भी आए।
ठगी तो जनता ही जाए।
कुछ तो कम हो लेकिन,
बोझ तो बढ़ता ही जाए।
हो कैसे गुज़र सोचते हैं,
बदन घुलता ही जाए।
हो यहाँ क़ायम रौशनी,
सूरज ढलता ही जाए।
कब तक होगा ख़ाब पूरा,
सब्र पिघलता ही जाए।
दरिया में कहाँ बैठेगा,
परिंदा उड़ता ही जाए।
क़र्ज़ कम न होता दर्द का,
क़िश्त भरता ही जाए।
दो रोटी की भागदौड़ में,
दम निकलता ही जाए।
मोहसिन 'तन्हा'
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
एवं शोध निर्देशक
जे. एस. एम्. महाविद्यालय,
अलीबाग (महाराष्ट्र)
402201
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जसबीर चावला
समाज व राजनीति पर चोट करती धारदार कविताएँ
काग भगोड़ा -१
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
काग भगोड़ों ने
खो दी अपनी साख
प्रासंगिकता
बस प्रतीक ही हैं
अब नहीं डरते पंछी उनसे
चुग लेते खेत
उनके सिर हाँथों पर बैठते
जब चाहें
मँडराते ठोंगे मारते
वे ताकते टुकुर टुकुर
खो दी अपनी ज़मीन
अपना खेत
**
उनका प्रमाण पत्र
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
तुम्हें पानी नहीं लेने दिया जाता कुँए से
उन्होंने ठप्पा लगा दिया
अमिट स्याही से
कि तुम शूद्र हो
अपिवत्र हो जायेंगे बर्तन
तुम्हारे छूने भर से
*
मरे ढोर तुम उठाओगे
और चमड़ा भी
मल मूत्र
सफ़ाई भी तुम
तुम में ही देवदासियाँ होंगी
और देव तो पत्थर के होते हैं
हम देव होंगे
सब शास्त्रों में लिखा है
शास्त्र विधी का विधान हैं
*
विजातीय हो
पूरी क़ौम ही विदेशी
होंगे दफ़्न तुम्हारे पुरखे यहाँ
धर्म बाहर से आया
संस्कृति मेल नहीं खाती तुम्हारी
हम बतलायेंगे
*
हम ही तय करेंगे
तुम्हारी नागरिकता का दर्जा
झेलना पड़ेगा दंश
सहनें होंगे अत्याचार
छींटाकशी प्रहार
*
जानता हूँ
वे नहीं सुनते किसी की बात
फिर भी बोलता रहूँगा सतत
लड़ूँगा मिलाकर कंधा
करूंगा पीड़ा साँझी
**
प्रजातंत्र : किस देवता की उपासना करें हम
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
जिस पथ महाजन जायें
अनुसरण करें वही पथ
पंचतत्र में लिखा
*
महाजनी सभ्यता का प्रजातंत्र
आभा चकाचौंध चर्चित
महिमामंडित महाजन टोला
ढोंगी संतो के आश्रम में
पत्रकारिता की चौखट पर
तहलका मचाता
*
कुछ भ्रष्ट उद्योग जगत की ओर
पलायनवादी फ़िल्मों में कुछ
झांसेबाज ज़मीन / भवन के धंधे में
कई रास्ते खुलते
माफ़ियाओं के अड्डे
साहित्य कला की दुकानें
खिड़कियाँ
पद्म पुरस्कारों के दरवाज़े
सब खुलते / मिलते
कुटिल राजनीति के 'राज'-मार्ग
पगडंडियाँ
अदालतों / जेल में
कुछ विधान सभाओं / संसद में
*
कोई मुझे बताये
किस राह चलें
किस महाजन के पथ का अनुसरण करें हम
किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
**
काग भगोड़ा -२
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
निशस्त्रिकरण का मुद्दा
धुँआधार चर्चा
आणविक शक्ति
बहस पर बहस
महिला मुक्ति / कन्या भ्रूण
दलित / जाति / गहन चिंतन
समाजिक मुद्दों पर भाषण
माओ मार्क्स मंडेला की तस्बीह फेरते
मंच / महफ़िल में तान मुट्ठियाँ
परास्त करते चिंतक
समाज सेवी / बुद्धिजीवी
छुपा है उनके अंदर
सजग शातिर काग
तुरंत भाँप लेता सीमा
कब पलायन / उड़ान
तन का मन से िवद्रोह
भाग लेते
बांस कपड़े का बेजान बिजूका भर नहीं वे
सच्चे काग
सच्चे भगोड़ा
**
पता ः
48,आदित्यनगर
ए बी रोड़
इन्दौर 452001
chawla.jasbir@gmail.com
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सीमा स्मृति
दीमक
कैसा लगा दीमक
आज समाज में
गलने लगा, सड़ने लगा
हर रिश्ता! संबंध !एहसास
गुरू-शिष्य
पति-पत्नी
बाप-बेटी
भाई-भाई
भाई-बहन
जनता-नेता
चीखते पुकारते
करते हैं सवाल
कहां से आया दीमक
खोजो इलाज
वरना बिखर जाएगा
टूट जाएगा
मिट जाएगा---- समाज
क्या देगें हम अपनी नस्लों को
क्या सिर्फ दुर्गन्ध
रूक जाओ ----
ठहर जाओ ----
थम जाओ -----
खोजो इलाज----
बचा लो
ये टूटता-बिखरता समाज
बचा लो - बचा लो
खुद ही को इस दीमक से।
लाइव
नोचे गए रिश्तों
भाई –भाई
बहन- भाई
गुरू- शिष्य
जनता –नेता
पत्रकार-पत्रकारिता
पति-पत्नी
हर सामाजिक रिश्ते की लगती है,नुमाइश
रोज रात नौ बजे
बैडरूम, ड्राइंग रूम,दुकानों और चौराहों पर
लटके टी.वी के हर चैनल पर
बहस के दौर चलते हैं-----लाइव
ना जाने कहां गई लाइफ
कार्यक्रम की रेटिंग का सवाल है
कौन सोचे कहां गई लाइफ
कहां गई मेरे दोस्त, लाइफ
२७.११.२०१३
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सीमा सक्सेना
हायकू
(1)
हम तुम हैं
ज़जबातों से भरे
फिर भी तन्हा
(2)
याद आते हो
भूलने की कोशिश
नकाम करके
(3)
ढाई आखर
समुंद्र से गहरा
नभ से ऊंचा
(4)
तुम्हारा आना
पतझड़ में पत्ते
कोमल हरे
(5)
बदलते रिश्ते
मॉ बाप की लाड़ली
पति की प्यारी
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कैलाश यादव "सनातन"
सिक्का सच का चलता है
आज़ाद भारत में कितनी महान हस्तियाँ हुई किन्तु हमारे नोट पर महात्मा गांधी की तस्वीर ही छपती है क्योंकि सच्चाई से बड़ा कोई धन नहीं होता।इसी सच्चाई और महात्मा गांधी को समर्पित :-
मन का मीत कितनों को मिला है , फिर भी जीवन चलता है
मन का गीत कितनों ने लिखा है, फिर भी गायन चलता है
जीवन तो मिलता है सबको ,
कितनों ने जिया है जीवन ? फिर भी जीवन चलता है।
जिसने समझी पीर पराई ,उसकी दौलत सच्ची है
अरबपति अनगिनत हैं जग में ,पर सिक्का सच का चलता है।
अच्छाई का अंत है अच्छा , ऐसा सुनते आए हैं
अच्छे और बुरे का अंतर आओ मिलकर ध्यान करें
सच को झूठ बताए जो, वही असत्य का धारी है
सच की रक्षा करने हेतु , झूठ कवच का धारण कर ले
वही सत्य का स्वामी है , हम सब उसका मान करे
भला बुरा मालूम है सबको फिर भी सब कुछ चलता है
अरबपति अनगिनत हैं जग में , पर सिक्का सच का चलता है।
प्राणवायु है भगवन जैसी , भक्त जैसे रक्त
भक्त गढ़ते भगवन को, भगवन रचते भक्त
ज्ञान और विज्ञान का , परिणाम है संघर्ष
अध्यात्म अंतिम सत्य है
श्रंगार मानवमन का, मानवता का उत्कर्ष।
राजा रंक सभी है जग में, परमसत्य सुन लो जग वालो
जग, जनसाधारण से चलता है
अरबपति अनगिनत है जग में, पर सिक्का सच का चलता है।
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सीताराम पटेल
सोन चिरैया
1ः-
सोन चिरैया
दिल भीतर बसे
तुम ही प्राण
तुमसे है जीवन
मरा हुआ मैं
2ः-
परिवर्तन
शाश्वत है विकास
आता नर्तन
जीवन में सबके
एक ही बार
3ः-
परमेश्वरी
भगवती शारदा
नीलम योग
सप्त स्वर संगीत
जीवन गीत
4ः-
प्रेम वासना
कीचड़ है वासना
प्रेम कमल
प्रकाशित मानस
प्रेम ईश्वर
5ः-
सच्ची प्रशंसा
अमृत के समान
करें प्रशंसा
कीमती उपहार
प्रेम प्रेरणा
6ः-
दिल का दीया
जलाए रखें हम
न जानें कब
आ जाएंॅगे देवता
अपने द्वार
7ः-
विरह आग
जलाती है रहती
साबूत बचें
कहना है मुश्किल
करो स्वीकार
8ः-
चुंबक शक्ति
किशोर किशोरियां
विचित्र प्रेम
तन बदन योग
अबोध हत्या
9ः-
मस्त रहिए
व्यस्त रहिए सदा
रफू चक्कर
होती है सारी पीड़ा
अनोखी दवा
10ः-
हो पहचान
औरों से बेहतर
सम्मान मिले
उच्चतम पद हो
धनकुबेर
11ः-
राम की लीला
संसार है सपना
योग मायावी
भगवान की माया
मृग मारीच
12ः-
अकेला चना
भाड़ नहीं फोड़ता
देवत्व मान
असुरता का अंत
परिवर्तन
13ः-
कीड़े मकोड़े
दीपक में जलना
एकात्म प्रेम
परस्पर जलना
जलो नियति
14ः-
चाहत तेरी
हारिल की लकड़ी
सागर पंछी
घूमघाम के आवे
सागर प्रेम
15ः-
प्रभु की तेज
सविता का प्रकाश
आत्मा में धरे
भारत की संस्कृति
सर्वस्व पूजा
16ः-
सत्य अहिंसा
बापू का हथियार
भरे किरण
बनाता है अभय
मिली आजादी
17ः-
हुए बेकार
तो प्यार कर बैठे
प्रिय प्रतीक्षा
हम हैं बरबाद
पाएं प्रसाद
18ः-
प्रेम पटाखा
माटी तेल दीपक
विजय पर्व
भगवान श्रीराम
रावण वध
19ः-
भूखा गरीब
हारा हुआ जिन्दगी
हरा ही हरा
अपवादों का घाव
मवाद भरा
20ः-
खुली खिड़की
जागते अरमान
नाचते मन
परकटा परिन्दा
खिड़की बंद
21ः-
ध्रुव सितारा
सबको राह दिखा
नयन योग
बढ़ाते धड़कन
शुक्र सितारा
22ः-
देख बदन
हुआ मैं परवाना
जले मानस
नाचती दीपशिखाएं
हुआ दीवाना
23ः-
मुर्दा मानव
मुर्दा को ही खाएंगे
मुर्दा ही होंगे
दो चाहे गीता ज्ञान
मुर्दा संतान
24ः-
महाभारत
धर्म अधर्म युद्ध
धर्म की जीत
कहना है कठिन
अधर्म हारा
25ः-
दूरी दर्शन
दिखाता नंगा नाच
समझो सांच
सभी ओर तमस
जीवन कांच
26ः-
प्रेम प्रतिमा
मानस में स्थापित
अनन्य प्रेम
चातक की चीत्कार
स्वाति सलिल
27ः-
अधराधर
अमृत रस पान
तपता तन
चमकते कंचन
जीवन साथी
28ः-
तुलसीदास
सुन लो रत्नावली
तन बदन
चलो करे मिलन
योग जीवन
29ः-
महासंगम
होता है सचमुच
महासंग्राम
जीतना है चाहते
प्रत्येक जंग
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नन्द लाल भारती
श्रमवीर/कविता
अपनी ही जहां में ,
घाव डंस रही पुरानी
शोषित संग दुत्कार,
भरपूर हुई मनमानी ,
लपटों की नहीं रुकी है शैतानी ,
शोषित भी खूंटा गाड़ खड़ा हो जायेगा
ढह जायेगी दीवारें,
रुक जायेगी मनमानी
तिल-तिल जैसे तवा पर ,
जलता पानी ।
अंगारों में जलता ,
कंचन हो गया है राख ,
हड़फोड़ नित-नित पेट की,
बुझाता आग ,
रोटी और जरूरतें नहीं ,
वह चाहे सम्मान
जीवन में झरता पतझर उसके
बूढ़े अम्बर को ताकता,
कहता बख्शो पानी।
मेरे अंगना अब कब बसंत आएगा
शोषित जग को गति देता ,
वंचित की गति को,
विषमता करती बाधित ,
खेत खलिहान या
कोई हो निर्माण का काम ,
पसीने के गारे पर थमता शोषित के ,
द्वार दहाड़ता मातमी गीत हरदम ,
भूख,अशिक्षा ,भेदभाव की बीमारी ,
बेरोजगारी और भूमिहीनता ,
ढकेलती रहती दलदल में सदा,
श्रेष्ठता का दम भरने वालों हाथ बढ़ाओ
शोषित की चौखट सावन आ जाएगा।
ऋतुओं की तकदीर संवारता,
खुद जीता वीरानों में ,
दिल पर वंचित के घाव नित हरा ,
नई घाव से नहीं घबराता ,
क्योंकि चट्टान उसके सीने को कहते हैं ,
थाम लिया समता की मशाल ,
डटकर तो शोषक घबरा जाएगा।
शोषित दलित श्रमवीर,
उसके कंधे पर दुनिया का भार ,
तकदीर में लिख दिया
आदमी अंधियारे का आतंक,
थम गए हाथ अगर तो होंठ पर,
नाचेगी स्याह ,
समानता के द्वार खोलो,
ना दो शोषित श्रमवीर को कराह ,
मिटा दो लकीरें वरना ,
वक्त धिक्कारता रह जाएगा।
--
विष बीज/कविता
चक्रव्यूह में फंसा हूँ ,
आखिरकार ,
वह कौन सी योग्यता है ,
मुझमे नहीं है जो ,
ऊँची -ऊँची डिग्रिया है ,
मेरे पास ,
सम्मान पत्रो की ,
सुवास भी तो है ,
अयोग्य हूँ फिर भी क्यूँ……… ?
शायद अर्थ की तुला पर
व्यर्थ हूँ ,
नहीं नहीं। .......
पद की दौलत मेरे पास नहीं है
बड़ी दौलत तो है ,
कद की ,
सारी दौलत उसके
सामने छोटी है
फिर भी,
अस्तित्व पर हमला ,
जुल्म शोषण,
अपमान का जहर
भेद की बिसात ..........
ये कैसे लोग है ?
भेद के बीज बोते है ,
बड़ा होने का दम्भ भरते है
अयोग्य होकर ,
कमजोर की योग्यता को,
नकारते है ,
आदमी को छोटा मानकर,
दुत्कारते है
सिर्फ जन्म के आधार पर,
कर्म का कोई स्वाभिमान नहीं ………
ये कैसा दम्भ है ,
बड़ा होने का ,
पैमाईस में छोटा हो जाता है ,
ऊँचा कर्म ऊंचा कद और
सम्मान भी।
कोई तरीका है ,
विषबीज को नष्ट करने का ,
आपके पास
यदि हां तो श्रीमानजी,
अवश्य अपनाये
गरीब,वंचित, उच्च कर्म
और
कदवांन को
कभी ना सताने की,
कसम खाये ,
सच्ची मानवता है यही
और
आदमी का फ़र्ज़ भी। ...........
तस्वीर/कविता
ये कैसी तस्वीर उभर रही है ,
आँखों का सकून ,
दिल का चैन छिन रही है .
अम्बर घायल हो रहा है
अवनि सिसक रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
चहुंओर तरक्की की दौड़ है
भ्रष्टाचार,महंगाई ,
मिलावट का दौर है ,
पानी बोतल में,
कैद हो रहा है ,
जनता तकलीफों का
बोझ धो रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
बदले हालत में
मुश्किल हो रहा है
जहरीला वातावरण,
बवंडर उठ रहा है
जंगल और जीव
तस्वीर में जी रहे है
ईंट पत्थरों के जंगल की
बाढ़ आ रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
आवाम शराफत की चादर
ओढ़े सो रहा है।
समाज,भेदभाव और
गरीबी का
अभिशाप धो रहा है।
एकता के विरोधी ,
खंजर पर धार दे रहे है ,
कही जाति कही धर्म की ,
तूती बोल रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
--
नागफनी सरीखे उग आये है
कांटे ,
दूषित माहौल में
इच्छायें मर रही है नित
चुभन से दुखने लगा है,
रोम-रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है
चुभन कुव्यवस्थाओं की
रिसता जख्म बन गया है
अब भीतर-ही-भीतर।
सपनों की उड़ान में जी रहा हूँ'
उम्मीद का प्रसून खिल जाए
कहीं अपने ही भीतर से।
डूबती हुई नाव में सवार होकर भी
विश्वास है
हादसे से उबार जाने का
उम्मीद टूटेगी नहीं
क्योंकि
मन में विश्वास है
फौलाद सा ।
टूट जायेगे आडम्बर सारे
खिलखिला उठेगी कायनात
नहीं चुभेंगे ,
नागफनी सरीखे कांटे
नहीं कराहेगे रोम-रोम
जब होगा ,
अँधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की,
तुला पर तौलकर
भले ही दुनिया कहे व्यर्थ…………………
आदमी बदल रहा है /कविता
देखो आदमी बदल रहा है ,
आज खुद को छल रहा है,
अपनो से बेगाना हो रहा है ,
मतलब को गले लगा रह है ,
देखो आदमी बदल रहा है …………
औरों के सुख से सुलग रहा है ,
गैर के आंसू पर हस रहा है,
आदमी आदमियत से दूर जा रहा है
देखो आदमी बदल रहा है …………
आदमी आदमी रहा है
आदमी पैसे के पीछे भाग रहा है ,
रिश्ते रौंद रहा है ,
देखो आदमी बदल रहा है …………
इंसान की बस्ती में भय पसर रहा है ,
नाक पर स्वार्थ का सूरज उग रहा है ,
मतलब बस छाती पर मुंग दल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है …………
खून का रिश्ता धायल हो गया है
आदमी साजिश रच रहा है
आदमी मुखौटा बदल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है …………
दोष खुद का समय के माथे मढ़ रहा है ,
मर्यादा का सौदा कर रहा है ,
स्वार्थ की छुरी तेज कर रहा है ,
देखो आदमी बदल रहा है …………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15 एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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राजीव आनंद
खो गया यौवन
टूट गयी है लयबद्धता
प्रकृति और हमारे बीच
पेड़ पौधे नहीं हहराकर हरियाती
पक्षियां नहीं गाती है गीत
कट चुके है जड़ों से हम
रसहीन हो चुकी जिंदगी
चुका रहे बड़ी कीमत विकास की
ठूंठ जैसी हो गयी जिंदगी
प्रकृति के विरूद्ध चलकर
किया है हमने कथित विकास
मदमस्त हुए समझ नहीं पाते
प्रकृति जब हम पर करती उपहास
मूल से टूटे जड़ से कटे
ठूंठ बन गया जीवन
युवा सीधे हो जाते बुढ़े
तनाव में कहीं खो गया यौवन
सभ्य-असभ्य
इंसान
जब आग जलाया
तो सभ्य कहलाया
और
जब आग लगाया
तो असभ्य कहलाया
किताब
शब्दों से भरी
चकोर सी है होती
बंद सी दिखने वाली
कई खिड़की-दरवाजे है खोलती
सीमित शब्दों वाली ये चकोर सी
असीमित कार्य है करती
हवा है बदल देती
सदियों तक असर करती
नई क्षितिज है खोलती
सोच के दायरे बढ़ा देती
लिख रहा आज कौन ऐसी किताब
जो खुद को है पढ़ा लेती
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शशांक मिश्र भारती
हाइकु
01ः-
स्वार्थ दमके
वायदे ही वायदे
है राजनीति।
02ः-
आज के खेल
आधार जोड़-तोड़
फेल ही फेल।
03ः-
पिसते रोज
गरीब ही गरीब
इनके राज।
04ः-
वादों में मिले
झूठ के आश्वासन
तो नींद कहां ?
05ः-
शैशव हंसा
खिला रोम ही रोम
प्रभु को पाना।
06ः-
बूंद से बूंद
सागर से सागर
अपने में ही।
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मानस खत्री ‘मस्ताना’
हास्य-व्यंग्य कविता
घड़ी
शहर के नामी ‘मॉल’
के खूबसूरत ‘शोरूम’
में लगे ‘पोस्टर’ पर नजर पड़ी,
5 लाख की घड़ी!
देखकर आंखें हो गई बड़ी।
इससे पहले की हटाते नज़र,
खूबसूरत सी एक ‘सेल्स’-कन्या ने आ कर कहा,
‘मे आई हेल्प यू सर’?
‘हेल्प’ हमने कहा मैडम...ये कैसी लूट है?
रेशमी बालों पर हाथ फिराते मैडम बोलीं,
सिर्फ आज के लिए,
इस शानदार घड़ी पर
5 प्रतिशत की छूट है|
हमने कहा, वाह...ऑफर धमाकेदार है,
सही घड़ी पर आए हैं,
हम ही इसके हकदार हैं।
जरा दिखलाइए...
इस घड़ी में क्या है खास, ये भी बताइए,
इतना सुनकर मैडम मुस्कुराने लगीं,
‘कैलकुलेटर’ से शुरू हुईं,
‘कम्पयूटर’ तक के गुण गिनाने लगीं।
हमनें पूछा, मैडम ये घड़ी है या घंटाघर?
पहले ये बताइए, क्या ये समय बताती है?
मैडम नें ऊपर से नीचे तक देखा,
बोलीं, समय तो 50 वाली
‘लोकल’ घड़ियाँ भी बतलाती है,
ये बहुमूल्य घड़ी आपका समय
दूसरों को बताती है।
हमनें फौरन मैडम से पूछा,
तो फिर ये घड़ी हमारे काम कैसे आती है?
मैडम बोलीं, आप जिस भी देश में जाइए,
ये वहां के समय में
‘ऑटोमैटिक’ ढल जाती है।
हमने कहा मैडम, आम आदमी तो कबसे ही,
समय के हिसाब से ढल रहा है,
फिर भी बाजार में उसका भाव
आम ही चल रहा है।
आम आदमी की बात सुनते ही
मैडम जोश में आईं,
घड़ी वापस अपने हाथ में उठाई,
बोलीं जब लेनी ही नहीं
तो फिर कैसी सफाई|
हमने कहा मैडम,
आम को घड़ियों का क्या काम?
आम का तो घड़ियाँ ही तय करती हैं दाम।
मुख्य मार्ग पर लगी एक घड़ी पर,
कब से बजे हैं बारह,
देश में बढ़ती महंगाई का भी यही है नज़ारा।
समय से घंटों पीछे चल रही घड़ियाँ,
देश की प्रगति की रफ्तार बता रही हैं,
वर्षों से बिना सुई के ही चलती घड़ियाँ,
देश का आर्थिक पतन दिखा रही हैं।
सबसे पुरानी एक घड़ी पर तो,
मिनट-वाली सुई ही नहीं है,
लोकतंत्र में आम आदमी की जगह,
कभी हुई ही नहीं है।
भ्रष्टाचार और आतंक की घड़ियों के कांटें,
समय से भी आगे हो गए हैं,
आम आदमी को जगाने वाली घड़ियों के ‘अलार्म’,
अब खुद ही सो गए हैं।
मैडम, बड़ी दिक्कत है ‘सिस्टम’ बदहाल है,
अब तो कुछ ही घड़ियाँ बताती हैं समय,
बाकी बताती देश का हाल हैं।
जरुरत है कि कोई ऐसी घड़ी बनाई जाए,
प्रलय से पहले जिसका ‘अलार्म’ बज जाए।
आदमी को आदमी की जगह मिल जाए।
एक बार फिर वो समय आये,
अपना भारत, ‘सोने की चिड़िया’ कहलाये।|
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गुरु कृपा सदन, एच.आई.जी – ३१, कोशलपुरी कॉलोनी, फेज़ – १, फैज़ाबाद. २२४००१|
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चन्द्र कान्त बन्सल
हैरान है
अब तो यहाँ छतें भी हैरान है
कि पतंगे भी हिन्दू मुसलमान है
बेटियों की भी जिंदगी ये क्या जिंदगी
खुद ही अपने घर में एक मेहमान है
पहले वजहुल और अब अब्दुल रशीद
ये फेरहिस्त तो गलतियों की एक खान है
आतंकी क्यों हूँ यह कहना होगा आपको मुश्किल
आतंकी हूँ मगर यह कहना बहुत आसान है
आज़ादी के इतने साल बाद भी अंग्रेजी नहीं छुट पाई
अंग्रेजों का आखिर हमसे यह कैसा लगान है
आज के दौर में ख्वातिनों का घर से निकलना
जैसे फाख्ताओं को नए पंख नयी उड़ान है
मिली शहर में नौकरी तो सारे खुश थे
सिवा मेरी माँ के जो आज तलक भी हलकान है
भ्रष्टाचार में डूबा अपना गर्वित समाज
इसमे सादा जीवन जीना तो आफत में एक जान है
मैं भुला नहीं हूँ अपनी फाकाकशी का दौर तभी
मेरे महल के सामने एक फकीर का मकान है
वो देखो एक आदमी फिर अनशन पर बैठ गया
लगता है मुल्क में गूंजी एक और अजान है
लगता है इस शहर में कोई खुद्दार नहीं
कितना सूना शहर का इकलौता कब्रिस्तान है
ज़मीर रखा तो खाक में मिले हम
ज़मीर बेचा तो संग हमारे आसमान है
रिश्वत और भ्रष्टाचार का आलम यह हो रहा है
बेहुनर को कुर्सियां और बाहुनर को पान की दूकान है
शहरे अमीर के घर मौत से हुआ यकीं
पैसा बहुत है पर नहीं हर आफत का समाधान है
सच मत बोलो सच मत कहो सच मत सुनो
वाकई तरक्की का रास्ता कितना आसान है
नहीं जा तल्खी मेरी जबान से मत जा
आखिर ‘रवि’ की ये ही अमिट पहचान है
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निकट विद्या भवन, कृष्णा नगर कानपुर रोड लखनऊ
ईमेल पता chandrakantbansal@gmail.com
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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
बालगीत
अम्मू ने फिर छक्का मारा
गेंद गई बाहर दोबारा,
अम्मू ने फिर छक्का मारा|
गेंद आ गई टप्पा खाई|
अम्मू ने की खूब धुनाई|
कभी गेंद को सिर पर झेला,
कभी गेंद की करी ठुकाई|
गूंजा रण ताली से सारा|
अम्मू ने फिर छक्का मारा|
कभी गेंद आती गुगली है|
धरती से करती चुगली है|
कभी बाउंसर सिर के ऊपर,
बल्ले से बाहर निकली है|
अम्मू को ना हुआ गवारा|
अम्मू ने फिर छक्का मारा|
साहस में न कोई कमी है|
सांस पेट तक हुई थमी है|
जैसे मछली हो अर्जुन की,
दृष्टि वहीं पर हुई जमी है|
मिली गेंद तो फिर दे मारा|
अम्मू ने फिर छक्का मारा|
कभी गेंद नीची हो जाये|
या आकर सिर पर भन्नाये|
नहीं गेंद में है दम इतना,
अम्मू को चकमा दे जाये|
चूर हुआ बल्ला बेचारा|
अम्मू ने जब छक्का मारा|
सौ रन कभी बना लेते हैं|
दो सौ तक पहुंचा देते हैं|
कभी कभी तो बाज़ीगर से,
तिहरा शतक लगा देते हैं|
अपने सिर का बोझ उतारा|
अम्मू ने फिर छक्का मारा|
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मनोज 'आजिज़'
जीवन - सूत्र
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प्रेम, दया, करुणा ही सबको
एक सूत्र में बाँध रखे
जीवन-यात्रा में हमेशा
सुख-दुःख में सम्हाल रखे ।
मानव जब मानव से करता
प्रेम, प्रीति का व्यवहार
तब जाकर जगत में होता
सुख- शान्ति का बौछार ।
निर्मल हृदय मन परिष्कृत
अगर व्यक्ति का सदा रहे
श्री वृद्धि हो तब जन-जन का
राष्ट्र-विकास की गंगा बहे ।
जीएं हम सब सदाचार से
जीने भी दें अधिकार से
यही सूत्र हो जीवन का तो
बच जायेंगे हम अनाचार से ।
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पता-- आदित्यपुर- २,जमशेदपुर
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