वीर सावरकर के संस्मरण (विनायक दामोदर सावरकर) संकलनकर्ता - डॉ. एस. एस. तँवर एवं मृदुलता (एम.ए.) संकटों के पराभव की कहानी बतलाने का आनंद अनु...
वीर सावरकर के संस्मरण
(विनायक दामोदर सावरकर)
संकलनकर्ता - डॉ. एस. एस. तँवर एवं मृदुलता (एम.ए.)
संकटों के पराभव की कहानी बतलाने का आनंद अनुभव करने के लिए अत्यन्त उत्सुक होने पर भी परिस्थिति पुनः-पुनः मार्ग अवरूद्ध कर देती थी। तथापि, जो कुछ भी आधा-अधूरा अथवा अल्प-स्वल्प सद्यःकालीन परिस्थिति की परिधि बतलाने लायक होगा, उसे तो आपको कह देना ही होगा। (पृ0 17)
डोंगरी कारागृह - बंबई स्थित डोंगरी का कारागृह में सुपरिटेंडेंट आया और नियमानुसार परन्तु सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में मुझसे बोला, ''आगे से आपको बंदी के कपड़े तथा अन्न मिलेगा। आपका पचास वर्ष का दंड आज से लागू हो गया है।'' इतने में सिपाही ने एक लोहे का बिल्ला लाकर हाथ में दिया। यही वह 'क्रमांक' है जो प्रत्येक बंदी की छाती पर झूलता है। उस बिल्ले पर बंदी की मुक्ति का दिनांक अंकित होता है। मेरा मुक्ति दिनांक! मुझे मुक्ति भी है क्या? मृत्यु भी है क्या? मृत्यु ही मेरी मुक्ति का दिनांक है। कुछ जिज्ञासा, कुछ निराशा, कुछ विनोदमिश्रित भाव से मैंने उस बिल्ले की ओर देखा। मुक्ति का वर्ष था - सन् 1960। पल भर के लिए उसका कुछ भी अर्थ उजागर नहीं हुआ। पल-दो-पल में ही उसमें निहित भयंकर अर्थ उजागर हो गया। दंड सन् 1910 में और मुक्ति सन् 1960 में! (पृ0 22)
दूसरा दिन नित्य क्रमानुसार इसी तरह के विचारों में उलझा हुआ मैं व्यायाम कर रहा था। इनमें में एक हवलदार ने - जिसे मेरे लिए ही नियुक्त किया गया था - बताया, ''समय पूरा हो गया है, चलिए।'' मैं सीढ़ियां चढ़ता ऊपर कोठरी में आ गया। परन्तु जो विचार कर रहा था उसी में उलझा होने से वैसे ही बैठा रहा। उस निमग्नता में काफी समय व्यतीत हुआ कि पुनः दरवाजा खड़का और हवलदार ने भीतर प्रवेश किया। उसके साथ एक बंदी था, जिसके सिर पर एक गठरी थी। (पृ0 23)
मैंने पूछा, ''यह बोझा किसलिए?'' हवलदार ने हँसने की चेष्टा करते हुए कहा, ''कुछ नहीं, बस यूं ही। कानूनी तौर पर कुछ-न-कुछ काम तो देना ही है। आपसे जितना बने कीजिए, उसकी कोई चिंता नहीं है।'' उसने उस बोझे को नीचे उतारा। उसे खोला और उसके टुकड़े-टुकड़े किए। फिर मुझे दिखाया कि किस तरह उसे ठोक-धुनककर उसकी रस्सी बनाई जाती है। तो फिर यह है - सश्रम कारावास। (पृ0 24)
पहले पच्चीस वर्षों का दंड 14 दिसम्बर 1910 के दिन और दूसरे पच्चीस वर्षों का दंड 30 जनवरी 1911 के दिन दिया गया। (पृ0 27)
एक दिन जेल में यह हल्ला हुआ कि मेरे कारण किसी बड़े साहब की पेंशन बंद की गई है। यह क्या प्रकरण है? कुछ दिन पश्चात् 'केसरी' का एक टुकड़ा अचानक काल कोठरी में मेरे हाथ लग गया। उसके द्वारा इस वार्ता का तथ्य थोड़ा-बहुत समझ में आया। लंदन में नूतन वर्ष के उपलक्ष्य में वहां के भारतीय लोगों द्वारा एक गोष्ठी आयोजित की गई थी। उस समय सभा की भित्ति पर मेरी एक बड़ी सी तसवीर लगाई गई थी। गोष्ठी के प्रधान अतिथि सर हेनरी कॉटन जैसे जाने-माने सज्जन ने मेरी तसवीर को संबोधित करते हुए साहस, देशभक्ति की अत्युत्कटता आदि कुछ गुणों की प्रशंसा की थी और इसके लिए खेद भी व्यक्त किया था कि ऐसे गुणसंपन्न नवयुवक का जीवन मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में ही इस प्रकार नष्ट हो रहा है। उन्होंने यह आशा भी व्यक्त की थी कि कम-से-कम हेग का उच्चतम न्यायालय मत-स्वतंत्रता के अधिकारों को न कुचलकर मुझे फ्रांस वापस भेजने का निर्णय करेगा। सर हेनरी साहब के इस भाषण से ही सम्पूर्ण अंग्रेजी समाज बौखला गया। सावरकर के लिए सहानुभूति का प्रदर्शन! भले ही वह निंदागर्भित क्यों न हो, लेकिन थी तो सहानुभूति ही। किसी ने कहा, इस हेनरी कॉटन की 'सर' के कॉटन शब्द के आधार पर सावरकर ने यह उत्कृष्ट व्यंग्य रचना की है - कॉटन माने कपास, सरकी माने बिनौला - अर्थात् कॉटन का बिनौला निकाल डालो। किसी ने कहा उसकी पेंशन बंद करो। आखिर चाय की प्याली के इस तूफान के झोंके के साथ ही राष्ट्रीय सभा मंडप के भी डांवाँडोल होने का आभास होने लगा। तत्कालीन अध्यक्ष सर विलियम वेडर्बर्न तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने राष्ट्रसभा से वापस लौटते समय एक सार्वजनिक सभा में इस विषय का विशेष उल्लेख करते हुए सर हेनरी कॉटन के उद्गारों पर सफाई का हाथ फेरा और घोषित किया कि राष्ट्रीय सभा का सावरकर तथा उनके अनुगामियों के पथ से किसी प्रकार का संबंध तो दूर, रत्ती भर सहानुभूति भी नही है। 'केसरी' के जिस टुकड़े में मैंने यह वृत्तान्त पढ़ा था, उसी में केसरीवालों ने एक-दो टिप्पणियां लिखकर सर हेनरी साहब का बचाव करने का प्रयास किया था। 'केसरी' के लेख में मेरा नामनिर्देश एकवचनी संबोधन से किया गया देखकर मुझे मन-ही-मन आश्चर्य हुआ। 'सर साहब, यह सावरकर कौन? काला या गोरा, यह भी नहीं जानते।' ऐसा वाक्य सर हेनरी कॉटन के समर्थन में लिखा था। (पृ0 29-30) कोठरी के द्वार पर सलाखों से कोई झाँक रहा था, ''क्यों, कैसे हो बैरिस्टर, ठीक हो न!'' ''हाँ, आपके आर्शीवाद से ठीक हूँ।'' मैंने कहा।
''ना-ना, महाराज, कहां आप, कहां हम! कल ही यूरोप से आए अपने एक मित्र से मेरा संभाषण हुआ। उसने बताया, 'सारे यूरोप में सावरकर को एक हुतात्मा जैसा सम्मान मिल रहा है। फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के समाचार-पत्र आपकी तुलना बुल्फटोन-एमेट-मैजिनी के साथ कर रहे हैं। पुर्तगाल में भी समाचार-पत्र आपका चरित्र, जैसे भी उपलब्ध हो, छाप रहे हैं....। वे सज्जन आपसे मिलना चाहते थे परन्तु मैंने उन्हें बताया कि यह असंभव है। परन्तु कम-से-कम आपके दर्शन का तो लाभ हो - इस तीव्रतर इच्छा से वे आपके टहलने के समय उस सामने वाली चाल में खड़े रहेंगे, तनिक आप उधर नजर डालें। परन्तु कल बम्बई के एक ऐंग्लो-इंडियन पत्र ने हेग के विषय में निर्णय लिखते समय आपके लिए जहर उगला है।
''वह क्या? हाँ कहिए। स्तुति सुनने जैसा अपनी निंदा सुनना यद्यपि कार्यकर्ताओं को प्रिय नहीं होता, परन्तु सुनना आवश्यक होता है।''
''उस समाचार पत्र ने आपको दंड घोषित होने पर विशेष रूप से आनंद व्यक्त करते हुए लिखा है - The rascal has at last met with his fate. मैंने कहा, ''बस, इतना ही? चलो, यह तो अच्छा ही हुआ। यूरोप में मुझे (Martyr) शहीद कहा गया - उन्होंने मुझे Rascal (अधम) कहा। इन दोनों में आत्यंतिक निंदा-स्तुति के अनायास ही परस्पर काट हो जाने से मेरा अपना मूलभूत मूल्य ज्यों-का-त्यों अबाधित ही रहा।'' (पृ0 31)
द्वार खटका। असमय द्वार खटका था - स्पष्ट है, अपने बंदी बने भाग्य में कुछ नई बात लिखी जाने वाली है। जिज्ञासावश मैंने ऊपर देखा, तो हवलदार ने कहा, ''चलो, साहब बुलाते हैं।'' चाहे किसी बहाने भी क्यों न हो परन्तु इस एकान्त कोठरी से बाहर निकलने के लिए किसी भी कैदी का मन इतना तत्पर होता है कि 'चलो' शब्द कान में पड़ते ही बंदी के मन में वैसा ही उत्साह भर देता है जैसा तड़ाक् से टूटते हुए रस्से की आवाज उससे बंधे हुए चौपाये के मन में पल भर के लिए ही क्यों न हो, भरपूर चपलता भर देती है। मैं उठा। साहब किसलिए बुलाते हैं, यह पूछने का मन हुआ परन्तु जब तक कोई कुछ न कहे तब तक किसी भी अधिकारी से स्वयं कुछ भी पूछना नहीं चाहिए, ऐसी प्रथा होने के कारण मैं कुछ बोला नहीं। पर वह सुशील हवलदार ही धीरे से बोला, ''लगता है, कोई मिलनी आई है।''
कार्यालय में आते ही मैंने देखा, सलाखों की खिड़की के पास मेरे बड़े साले साहब खड़े हैं - साथ में मेरी धर्मपत्नी। बंदीगृह के वेश में, कैदी के दुःखद स्वरूप में, पैरों में जकड़कर ठोंकी हुई भारी बेड़ियों को यथासंभव सहज उठाए हुए मैं आज पहली बार उनके सामने खड़ा हो गया। मेरे मन में धुकधुकी हो रही थी। चार वर्ष पूर्व जब इसी बंबई से मैं इनसे विदा लेकर विलायत चला गया, उनकी आकांक्षा थी कि वापस लौटते समय मैं बैरिस्टरी के रोबदार गाउन (चोगा) में तथा उन भाग्यशाली लक्ष्मीधरों के मंडल से घिरा आशा एवं ऐश्वर्य की प्रभा से दमक रहा हूँगा। लेकिन आज मुझे इस तरह निस्सहाय, निराशा की बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखकर उन्नीस-बीस वर्षीय उस बेचारी युवा रमणी के हृदय को कितनी ठेस पहुंची होगी? दोनों सलाखों के पीछे खड़े थे। मुझे छूने के लिए भी उन पर प्रतिबद्ध लगाया गया था। पास ही पराए लोगों का कड़ा पहरा। मन में ऐसे भाव उमड़ रहे हैं, जिनको शब्दों का सान्निध्य भी संकोचस्पद होता है। हाय! पचास वर्षों के अर्थात् आजीवन बिछोह के पूर्व विदा लेनी है और वह भी इन विदेशी निर्दयी काराधिकारियों के स्नेहशून्य दृष्टिपातों की कक्षा में। इस जन्म में अब आपकी-हमारी भेंट लगभग असंभव ही है। ऐसा कहने वाली वह भेंट! आकाश आंधी-पानी से भर जाए, ऐसे विचार अचानक एक ही क्षण में हृदय में भर आए, परन्तु दूसरे ही क्षण हृदय की विवेक चौकी पर उन्हें रोका गया। उनके सारे झुंड छिन्न-विच्छिन्न किए गए और दृष्टि मिलते ही नीचे बैठकर मुसकराते हुए मैंने पूछा, ''क्यों, देखते ही पहचान लिया मुझे? यह तो केवल वस्त्र परिवर्तन हुआ है। मैं तो वही हूं। सर्दी का निवारण करना ही वस्त्रों का प्रमुख उद्देश्य होता है, जो इन कपड़ों द्वारा भी पूरा हो रहा है।'' थोड़ी देर में विनोद-निमग्न होकर वे दोनों इतने सहज होकर वार्तालाप करने लगे, जैसे वे अपने घर में बैठकर ही गपशप कर रहे हों। अवसर पाकर मैंने बीच में ही कहा, ''ठीक है, ईश्वर की कृपा हुई तो पुनः भेंट होगी ही। इस बीच कभी इस सामान्य संसार का मोह होने लगे तो ऐसा विचार करना कि संतानोत्पत्ति करना, चार लकड़ी-तिनके जोड़कर घोंसला बनाना ही संसार कहलाता हो तो ऐसी गृहस्थी कौए-चिड़िया भी बनाते हैं। परन्तु गृहस्थी चलाने का इससे भी भव्यतर अर्थ लेना हो तो मानव सदृश घरौंदा बसाने में हम भी कृतार्थ हो गए हैं। हमने अपना घरौंदा तोड़-फोड़ दिया, परन्तु उसके योग से भविष्य में हजारों लोगों के घरों से कदाचित् सोने का धुआँ भी निकल सकता है। उस पर 'घर-घर' की रट लगाकर भी प्लेग के कारण क्या सैकड़ों लोगों के घर-बार उजड़ नहीं गए? विवाह-मंडप से दूल्हा-दुल्हन को कराल काल के गाल में खदेड़कर नियति ने कितने जोड़ों को बेजोड़ा किया। इसी विवेक का दामन पकड़कर संकटों का सामना करो। मैंने सुना है, कुछ वर्षों पश्चात् अंदमान में परिवार ले जाने की अनुमति दी जाती है। यदि ऐसा हुआ तो ठीक ही है, परन्तु यदि ऐसा नहीं हुआ तो भी इस धैर्य के साथ रहने का प्रयास कि कुछ भी हो, इस समय को सहना ही होगा।''
''हम इस तरह का ही प्रयास कर रहे हैं। हम एक-दूसरे के लिए हैं ही। हमारी चिंता न करें, आप स्वयं का जतन करें, हमें सबकुछ मिल जाएगा।'' इस तरह हमारे प्रश्नोत्तर का अनुक्रम चल ही रहा था कि सुपरिंटेंडेंट ने 'समय समाप्त होने' का संकेत किया। अतः मैंने होंठों पर आए शब्दों को आधा-अधूरा ही छोड़कर इस भेंट को समाप्त किया। परन्तु जाते-जाते साले साहब ने जल्दी-जल्दी कहा, ''अच्छा, परन्तु एक नियम का अवश्य पालन करें। प्रतिदिन प्रातःकाल 'कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने् प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमोस्तु ते।।' - इस मंत्र का जाप नियमपूर्वक अवश्य करें।''उनकी ओर प्रशंसापूर्वक दृष्टि से देखकर मैंने उत्तर दिया, ''अवश्य।''
वे वापस लौट गए। मैंने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। उन लोगों को, जो वापस लौट रहे थे, यह दिखाने के लिए कि मुझे ये श्रृंखलाएँ कतई भारी नहीं लगतीं, चलते समय मैं हेतुपूर्वक उन्हें खनकाते हुए जेल के भीतर लौट आया। (पृ0 31-33) दंड प्रारंभ हुए प्रायः एक महीना बीत गया था। मुझे अभी भी वही भोजन मिलता था जो कच्चे बंदी को दिया जाता है, अतः मुझे दूध भी मिलता था। मैं अभी-अभी भोजन से निपटा ही था। इतने में हवलदार ने मुझे बाहर बुलाया और तभी सुपरिंटेंडेंट भी आया, ''अपना बोरिया-बिस्तर उठा लो।'' मैंने अपना बिस्तर उठाया। सोचा, यह क्या-कहीं अंदमान तो नहीं जा रहे हैं। द्वार के पास आया, वहां जेल की गाड़ी खड़ी थी। मैं भीतर बैठ गया, गाड़ी बंद हो गई, इतनी की बाहर का कुछ भी नहीं दिख रहा था। न दिशा, न मार्ग - केवल खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी। गाड़ी रुक गई - एक और जेल के पास अपने आपको खड़ा पाया। भीतर सोलह संस्कार किए गए, जो एक नए बंदी के लिए किए जाते हैं। आखिर कोठरी में बंद हो जाने के बाद देखा तो मैं एक ऐसे कारागृह में बंद हो गया था जो डोंगरी के कारागृह से भी कठोर एकांत तथा निर्जन स्थिति में है। हाँ, दूर एक बंदी वॉर्डर दिख रहा है। थोड़ी देर में भोजन आ गया। द्वार खोलते-खोलते उस अंग्रेज सार्जेंट ने, जिसे मेरे लिए भारतीय हवलदार के बदले हेतुपूर्वक भेजा गया था - इधर-उधर देखकर (Good day कहते हुए) राम-राम किया। मैंने धीरे से पूछा, ''यह कौन-सी जेल है?'' उसने साथ के भारतीय बंदी को पता न चले, इसलिए स्पेल करते हुए बताया - Byculla (भायखला)। (पृ0 45)
भायखला कारागृह - सायंकालीन भोजन आ गया। मेरे मन में राजनीति के विचारों से जो खलबली मची थी - अन्य विषय मिलने से वह कुछ शांत हो गई। भोजन से निपटकर, बर्तन मांजकर पुनः उस हाल ही में बंद हुए सलाखों वाले द्वार के निकट खड़ा रहा। सांझ हो गई। वही संध्या, वही रात, वही तात्त्विक विचारों से मिली हुई तात्कालिक शांति 'सप्तर्षि' कविता के उत्तरार्ध का विषय बन गई है। आज दो आवेदन-पत्र दिए थे। डोंगरी छोड़ते ही उधर जो थोड़ा-सा दूध मिलता था वह भी बंद हो जाने से तथा भायखला में केवल ज्वार की रोटी खाने से पेट खराब हो जाता था, अतः यह मांग की थी कि पुनः दूध दिया जाए। मुझसे अपने घर की तथा सरकार की सारी-की-सारी पुस्तकें छीन ली गई थीं। मेरी दूसरी मांग यह थी कि उनमें से कोई एक पुस्तक पढ़ने के लिए मिले। इस आवेदन पत्र का उत्तर मिल गया - दूध की कोई आवश्यकता दिखाई नहीं देती, बाइबिल के विषय में सोचें।
आखिर कुछ दिनों बाद बाइबिल मिल गई। बहुत दिन से पुस्तक न होने के कारण हाथ में आते ही लगा कि पढ़ा जाए। बाइबिल खोली, तभी प्रहरी ने बताया - पुस्तक कोठरी में नहीं रखी जाएगी, शाम के समय कामकाज समाप्त होने पर बस एक-दो घंटों के लिए ही मिलेगी। अतः उसे वापस लौटाया और पुनः कठोर परिश्रमार्थ जो काम दिया था, वह करने लगा। करते-करते मन-ही-मन कविता की रचना करता रहा। आखिर शाम के समय बाइबिल हाथ पड़ी। (पृ0 35-36)
यह क्या? आज इतना शीघ्र भोजन? कारागृह में भले ही जान चली जाए, परन्तु पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार ही चलना होता है। यहां पर सबके लिए इतना समयशील रहना होता है। भोजन के लिए, अन्न के लिए, मृत्यु आ जाए तो भी भोजन जल्दी नहीं आ सकता, यदि आवश्यक हो तो मृत्यु भोजन आने तक रुके। तो फिर भला आज यह असमय भोजन क्यों? अर्थात् कुछ-न-कुछ नया घटने वाला है। मैंने पहरे पर खड़े गोरे अधिकारी की ओर जिज्ञासु दृष्टि से देखा। उसने अपनी टोपी पीछे करने के बहाने अपने हाथ दूर तक पीछे ले जाकर दो बार हिलाए - अर्थात् हमें कहीं और पहुंचना है। भोजन हो गया। भित्ति पर एक नुकीले कंकर से कुछ कविताएं घसीटकर लिखी थीं - उन्हें जल्दी-जल्दी पढ़कर रगड़-रगड़कर साफ किया - जिससे किसी को उनका पता न चले। इतने में सिपाही ने 'चलो' कहते हुए द्वार खोला। गोरे सार्जेंट के अधीन हमें कारागार अधीक्षक को सौंपा गया, जैसे हम कोई निर्जीव वस्तु हों। मोटर-रेल, पुनः स्टेशन। यह पता चला - यह ठाणे है और हमें वहीं के कारागृह में जाना है। (पृ0 38)
ठाणे कारागृह - पूरा कठोर एकांत। भोजन आ गया। एक कौर भी गले से उतरना असंभव प्रतीत हो रहा था। बाजरे की घटिया रोटी और जाने कौन सी बहुत खट्टी भाजी, जिसे मुंह में भी नहीं डाला गया। रोटी का टुकड़ा तोड़ना, थोड़ा चबाना, उस पर घूंट भर पानी पीना और उसके साथ गटक जाना - इस तरह रोटी खाई। जल्दी ही शाम हो गई। कोठरी बंद करके लोगों के जाते ही निढाल होकर मैं बिस्तर पर लुढ़क गया। अंधेरा छाने लगा। इतने में कहीं से ऐसे मनुष्य की आवाज आई जिसे स्वयं सुनकर लोग भयभीत हो जाएं। धीरे से देखा, दुष्टों में दुष्ट जो वॉर्डर मेरे लिए नियुक्त किए गए थे, उनमें से एक बंदी वॉर्डर मुझे हौले से संकेत कर द्वार के निकट बुला रहा है। मैं चला गया। इधर-उधर देखकर उस बंदी वॉर्डर ने कहा, ''महाराज, आपकी वीरता की ख्याति हमने सुनी है। ऐसे शूर पुरुष के चरणों का मैं दास हूं। आपके लिए मुझसे जो भी बन पड़े, वह सब करूंगा। अब मैं एक समाचार देता हूं। परन्तु वह आपके पास से फूटना नहीं चाहिए अन्यथा मैं मारा जाऊंगा। आप वीर हैं, चुगली जैसा दुष्कर्म आप कदापि नहीं करेंगे, फिर भी आपको सावधान किया है।'' इस तरह बिना रुके परन्तु बहुत ही दबे स्वर में बोलते और अंदर घुसते हुए उसने कहा, ''आपका भाई यहीं पर है।''
''कौन सा भाई?'' ''छोटा।'' उसे संदेह हुआ, कोई देख तो नहीं रहा, वह झट से पीछे हट गया। मैं भी भीतर खिसक गया।
छोटा भाई! बीस की आयु के नीचे का वह लड़का, जिसे अहमदाबाद में लॉर्ड मिंटो पर बम फेंकने के आरोप में अठारह वर्ष की आयु में ही जेल में बंद होकर साहस के साथ उन यंत्रणाओं का सामना करने का अवसर मिला था। अहमदाबाद से उसे छोड़ा गया तो घर आकर बिस्तर पर जरा पीठ ही टिकाई थी कि राज्यक्रांति तथा राजनीतिक हत्या के गंभीर आरोपों में उसे पुनः पकड़कर कारागार में डाल दिया गया। लेकिन वर्ष भर एक के बाद एक यातनाओं, धमकियों तथा निर्दयता के आघात सहते हुए उस कोमल आयु में भी अपने कठोर निश्चय तथा अंगीकृत व्रत से वह लेशमात्र विचलित नहीं हुआ। वह मेरा अनुज। माता-पिता की छत्रच्छाया बाल्यावस्था में ही उठ जाने के कारण मैं ही उसका माता-पिता बन गया था। कल-परसों तक पल भर भी मुझसे दूर होने पर जो रोने लगता, वही मेरा छोटा भाई यहीं पर है, मेरी तरह ही बेड़ियों में जकड़ा हुआ तथा चक्की पीसने जैसा कठोर कार्य कर रहा है। मानो उसके ये सारे कष्ट कम थे, इसलिए उसे आज मेरे आजन्म कारावास का समाचार दिया जाएगा! मेरे आजन्म कारावास का उन्हें पता था, तथापि लगभग सभी को विश्वास था कि हेग में मैं छूट जाऊंगा और पुनः फ्रांस भेज दिया जाऊंगा। इसी आनंद में मेरे ये साथी अपने दुःख भूले हुए थे। परन्तु अब उनका अंतिम आशा-तंतु टूट जाएगा। मैं सचमुच ही कालापानी जाऊंगा और यह समाचार मैं स्वयं उन्हें दूंगा। एक बड़े भाई तो पहले ही आजन्म कारावास पर कालापानी चले गए थे। आज मेरा भी चिरवियोग होगा। आज हमारा यह बालक सचमुच अनाथ हो जाएगा। जब उसके मन में यह दारुण सत्य उतरेगा कि मैं लगभग फिर कभी न दिखन े के लिए अदं मान जाऊगं ा, तब उसके कोमल मन की कसै ी अवस्था होगी? आरै मुक्ति के पश्चात् वह कहां जाएगा? उसे कौन सहारा देगा? कौन उसकी शिक्षा पूरी कराएगा? यह नन्हा बालक जिस किसी द्वार पर पहुंचेगा, उसके द्वार उसी के सामने धड़ाधड़ बंद कर दिए जाएंगे। दुःखावेग में ये सारे विचार एक साथ तरंगित होकर पुनः डूब गए। उनमें कुछ विचार पुनः हृदय में उथल-पुथल मचाते रहे। (पृ0 39-40)
वही वॉर्डर फिर पास आया। काफी अंधेरा हो गया था। ''दादा!'' ''हाँ।'' ''यह लीजिए।'' कहते हुए उसने एक पाटी मेरे हाथ में दी और हिदायत दी कि सुपरिंटेंडेंट साहब ने सभी वॉर्डरों को यह आज्ञा दी है कि आपको आपके भाई का समाचार यदि किसी ने दिया तो उसे दस वर्ष का कालेपानी का दंड दिए बिना नहीं छोड़ा जाएगा। आपने अपने मुख से एक शब्द भी निकाला तो मैं मर जाऊंगा। (पृ0 40-41)
आधी नींद पूरी हो चुकी होगी। दरवाजे के सीखचों के पास धीमी खड़खड़ाहट सुनाई दी। मेरे कान खड़े हो गए, मैं चौंकते हुए उठ गया। देखा तो वॉर्डर दरवाजा खड़खड़ा रहा था। उसने हाथ से संकेत किया 'लिखिए' और लालटेन समीप ले आया। मुझसे एक शब्द भी बोलते हुए यदि वह पकड़ा जाता तो उसे दंड हुए बिना नहीं रहता। दुष्टों में दुष्ट समझे जाने वाले इस घातक डाकू के मन में भी मेरे लिए इतनी सहानुभूति है, यह देखकर मैं दंग था। यही अनुभव आगे चलकर मुझे बार-बार हुआ। मैं उसका आभार प्रदर्शित करने लगा, परन्तु जल्दी-जल्दी में उसने कहा, ''दादा, तुरन्त से पहले लिखकर दो।'' मैंने लिखा कि यदि अंदमान में वहां के नियमानुसार मुझे अपना परिवार पाचं -दस वषा र्ें के लिए ले जाने की अनुमति दी गई तो मैं अपना जीवन साधना में व्यतीत करूंगा और यदि मैं पुनः हिंदुस्थान की पावन धरती के तट पर अपना पैर नहीं रख सका, तो ततः प्राचेतसः शिष्यौ रामायणमितस्ततः मैथिलेयौ कुशलवौ जगतुर्गुरुचोदितौ की तरह ही, उन अभिनव कुमारों के कंठों से देश भर में प्रचार करूंगा। एक जीवन की सफलता के लिए बस यही एक कार्य समर्थ है। इस योजना के अनुसार मैं अंदमान में पच्चीस वर्ष व्यतीत करूंगा। परन्तु यह एक आजन्म कारावास भुगतने के पश्चात् भी यदि मुझे छोड़ा नहीं गया तो केवल छूटेंगे या यों ही मरेंगे, यही मेरा निश्चय है। तुम चिंता मत करना अथवा इस विचार से अपना मन छोटा नहीं करना कि जीवन विष हो गया। वाष्पयंत्र को सक्रिय करने के लिए अपनी देह को ईंधन बनाकर यदि किसी को जलते-सुलगते रहना ही है तो भला वह हम ही क्यों न हों? इस तरह मात्र जलते रहना भी एक कर्म ही है। इतना ही नहीं, अपितु महत्कर्म है।' वॉर्डर ने संकेत रूप में खाँसकर सूचित किया, 'जल्दी करो'। मैं पाटी को द्वार के निकट रख कर पीछे हट गया। (पृ0 41-42)
उसका वह गीत आज भी मेरे कानों में गूंज रहा है, 'अजब तेरी कुदरत अजब तेरा खेल, मकड़ी के जाल में फंसाया है शेर।' (पृ0 45)
आज कारागृह में जहां देखो वहां एक ही भगदड़ मची हुई थी। आज अंदमान का चालान आने वाला था। चालान हमारे काराशास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है। कालेपानी का दंड उन बदमाशों को दिया जाता है जिन्हें सारे इलाके में अन्य सभी अपराधियों से भयंकर तथा नृशंस समझा जाता है। (पृ0 46)
तीन बज रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति अपने निकटवर्ती बंदी से आतुरता से पूछता, ''अरे, अभी तक 'चालान' क्यों नहीं आया?'' इतने में कारागार के द्वार से बंदियों में से कुछ लोग अचानक इधर-उधर मुड़ते दिखाई देने लगे। 'चालान आ गया', 'कहां आ गया?', 'हाँ-हाँ, ठेठ द्वार पर है।', 'कितने हैं?', 'कैसे हैं?' आदि प्रश्नों तथा उत्तरों की झड़ी लग गई। (पृ0 47) रीति के अनुसार मेरा वजन लेकर मुझे कालेपानी भेजने की पात्रता निश्चित की गई। बगल में बोरिया-बिस्तर, हाथ में बरतन-बेड़ियाँ झनझनाते हुए मेरा भी जुलूस निकाला गया। मैं भी उस परकोटे के द्वार के भीतर घुस गया। उस द्वार की देहरी पर कालेपानी के सिंहद्वार की देहरी थी। मैंने उसे पार किया, हिंदुस्थान से नाता टूट गया। अंदमान के लिए मेरा प्रस्थान हुआ। (पृ0 49)
पोर्ट ब्लेयर अर्थात् अंदमान - यह ध्येय वाक्य होता - 'एन्जॉय टिल दाउ गोएस्ट मैड! एन्जॉय फॉर टुमारो वी डाय!!' (हँसो बेटा, इतना हँसो की उन्माद हो जाए, क्योंकि कल तुम्हें कराल काल का ग्रास जो बनना है!) (पृ0 51) दो-चार दिन में अंदमान प्रस्थान करने के लिए सभी बंदियों की उस सेना को बाहर निकाला गया। अन्य बंदियों के साथ मैं भी कोठरी के पास तैयार होकर खड़ा रहा। पैरों में बेड़ियॉ, अंदमान के लिए एक अंगोछा, एक चद्दर और एक बंडी - इस तरह का वेश, बगल में जैसे-तैसे दबाया हुआ टाट और कंबल का बिस्तर, जिसे उस टाट के खुरदरेपन तथा कठोरता के कारण लपेटना कठिन हो रहा था, और एक हाथ में टीन के 'थाल पाट'। पुनः वह टोली एक पंक्ति में तालबद्ध बेड़ियॉ झनझनाती हुई चली। जो कोई भी दिखे, उसे 'राम-राम, चले भैया कालापानी' कहते हुए राम-राम का आदान-प्रदान करती हुई वह टोली चल रही थी।
जेल के द्वार पर आते ही वह टोली बाहर निकली। सिपाहियों का बंदूक ताने पहरा सज्ज हो गया और उस पंक्ति को लेकर आगे बढ़ गया। स्टेशन तक वे पैदल चले, परन्तु मुझे उसमें सम्मिलित नहीं किया गया। भला ऐसा क्यों? मुझे चिंता होने लगी। इतने में एक मोटर आ गई। दो हट्टे-कट्टे गोरे अधिकारी काबहर निकले। मैं भीतर बैठ गया, फिर वे बैठ गए और मोटर बंद हो गई। न जाने कैसे परन्तु शहर और स्टेशन पर यह बात फैल गई थी कि मैं आज कालापानी प्रस्थान कर रहा हूं, जिस मार्ग से बंदी जाते हैं उस मार्ग पर मेरा भी दर्शन होगा, इसी आस में लोग हर प्रकार स े प्रयाय करके छिप-छिपकर टापते जमे हुए थे, अतः मुझे गुपचुप अन्य मार्ग से ले जाना आवश्यक था। यह एक कारण था और दूसरी बात यह कि मैं मार्सेलिस से भागा हुआ और वे गुप्त षड्यंत्र के दिन! न जाने कौन कहां कैसा षड्यंत्र रचकर मेरी मुक्ति का प्रयास करे - क्या कह सकते हैं। सहज डग भरते उन दिनों सुरंग उड़ती थी। ऐसी स्थिति में मार्सेलिस का प्रमाद फिर से न दोहराया जाए, इसलिए मुझे स्टेशन पर उस जन-समुदाय में से पैदल ले जाने की बजाय स्वतंत्र मोटर में ले जाया गया।
इस तरह जब-जब मुझे स्वतंत्र मोटर से विशेष व्यवस्था के साथ कहीं ले जाया जाता तब-तब उन बंदियों में मेरे संबंध में बड़प्पन की धारणा होती, 'वह क्या, वह तो भैया, राजा है राजा! देखो उसे मोटर दी गई। वह हमारे साथ पैर घसीटते पैदल थोड़े ही आएगा!' कोई कहता, 'सरकार उससे डरती है। देखो, कैसे मोटरकार ला दी।' मार्सेलिस के जहाज से भागने के प्रयासों के जो लाभ हुए उनमें से यह भी एक लाभ हुआ कि मोटर की खूब सैर हो गई और उससे बंदियों में मेरे संबंध में जो सकारण-अकारण आदरभाव था और जिसके लिए सरकारी अधिकारी डटकर प्रयत्नशील थे कि वह आदरभाव न बने, बढ़ता ही चला गया।
स्टेशन पर आते ही मुझे एक स्वतंत्र डिब्बे में ठूंसा गया। मेरे हाथों में जो हथकड़ी थी, उसका दूसरा सिरा एक भीमकाय अंग्रेज अधिकारी के हाथ से जकड़ा हुआ था। मेरे लिए उस बेचारे को हथकड़ी पहननी पड़ी। मेरे पैरों में बेड़ियॉ तो थीं ही, हाथ में हथकड़ी थी। इतना ही नहीं अपितु उसने मेरे दूसरे हाथ को भी कस लिया था। धोती खोंसनी हो तो उसके हाथ से खोंसनी पड़ती। उस अधिकारी के हाथ से मेरा हाथ बांधने के कारण शौच, लघुशंका सब विधियां साथ-साथ, सोना भी साथ-साथ। कई यात्राओं में इस प्रकार का घिनौनापन तथा कष्ट सहना पड़ा।
मुझे डिब्बे में ठूंसा गया। परन्तु ऐसा नहीं कि किसी ने मुझे देखा ही नहीं। जो लोग उधर उत्सुकतावश आए हुए थे उन्हें दूर खदेड़ा जाता। मेरे डिब्बे की खिड़कियॉ खोल दी गई। काफी गोरे लोग थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े थे। मैंने देखा, उनमें से कुछ लोगों ने उत्सुकता के आवेश में अपनी मेमों को कंधों पर उठाया हुआ था। एक ने मुझे संकेत किया, खिड़की के पास खड़े रहा। मैं खड़ा रहा तो ‘There’s he, that is Savarkar’ का हल्ला सुनाई दिया। ये गोर लोग भी, जिन्होंने मुझे देखने के लिए वहां भीड़ लगाई थी। (पृ0 55-56)
मद्रास आ गया। रेल से उतरते ही मुझे एक तरफ सभी बंदियों से अलग करके पहरे में रखा गया। गाड़ी के साथ एक यूरोपियन अधिकारी बड़ी दूर से आया था। हो सकता है, वह रेल का अधिकारी हो या पुलिस का। वह हर दो-तीन स्टेशनों के पश्चात् उन अधिकारियों में, जो मेरी निगरानी के लिए नियुक्त किए गए थे, किसी एक से कुछ बात करके मुझे देखकर वापस लौटता। संभवतः अब वह मुझे छोड़कर वापस लौट रहा हो। मेरे पास आकर वह बात करने लगा, उसका गला रुँधा हुआ था, “Good bye, Friend!” (अलविदा मित्र!) मुझे लगता है, आप प्रभु कृपा से दिसम्बर में राज्यारोहण के समय मुक्त होंगे।'' मैंने कहा, ''आपकी शुभकामना के लिए आभारी हूँ। परन्तु हमारे घाव इतने हरे हैं कि वह इतने शीघ्र कैसे भरेंगे? इस तरह की आशा पर निर्भर रहना मूर्खता ही होगी।'' उन्होंने इतने आश्वस्त स्वर में कहा, जैसे कि वह जताना चाहते थे कि अधिकारी होने के नाते वे कुछ विशेष जानते हैं, ''मुझ पर विश्वास रखो। आप अवश्य मुक्त होंगे। अच्छा, आपसे विदा लेता हूँ। आपके धीरोदात्त आचरण की अमिट छाप (This is your dignified courage) मेरे मन में अंकित हो गई है।'' (पृ0 57-58)
सागर में अंदमान का जलयान 'महाराजा' आया हुआ है। सारे बंदी एक बड़ी सी नाव में ठेलाठेली करके उधर रवाना किए गए। बस मैं ही शेष रह गया था। इतने में मुझे ले जाने के लिए ये और अन्य एक-दो अधिकारी एक छोटी नाव के साथ आ गए। मैं उस छोटी नैया में बैठ गया। मैं स्वयं अपनी ओर से कभी किसी से वार्तालाप प्रारम्भ नहीं करता, क्योंकि मैं ठहरा एक बंदी, कोई भी फटाक से डाँट पिलाएगा, 'चुप रहो।' (पृ0 59)
वह छोटी नौका, जो मुझे लेकर आई थी, अंदमान से आई हुई 'महाराजा' नामक विशाल वाष्पनौका से सट गई। मुझे हथकड़ी पड़ी हुई थी ही। उसके साथ ही उस जलयान की सीढ़ी पर कड़े पहरे में मुझे चढ़ाया गया। मैं ऊपर चढ़ ही रहा था कि उस समय जहाज में सवास हुए यात्री, नौकर-चाकर, अधिकारी तथा आस-पास की छोटी-छोटी नौकाओं में सवार होकर आए हुए दर्शक वह दृश्य देखने के लिए धक्कम-धक्का करने लगे और अंदमान के उस जहाज पर मुझे सवार होते हुए ऐसे देखने लगे जैसे हम किसी शव को अरथी पर चढ़ाते और ठीक तरह से बांधते हुए विस्मय और जिज्ञासापूर्वक देखते हैं।
उस 'महाराजा' जलयान पर किसी बंदी का, जिसे आजन्म कारावास हो गया है, सवार होना और शव को अरथी पर सजाना एक ही बात थी। आज तब जो सैकडों-हजारों बंदी आजन्म कारावास की सजा काटने इस भंयकर जलयान पर चढ़कर कालेपानी गए, उनमें से दस भी जीवित वापस नहीं लौट सके। अठारह-बीस वर्ष की चढ़ती आयु के युवकों पर इस जलयान पर पैर रखते ही अस्सी वर्ष के बूढ़ों जैसी मुर्दनी छा जाती। मनुष्य एक बार अरथी पर बांध लिया गया कि उसके परिजन समझते हैं कि यह इस संसार से सदा के लिए जा रहा है और भावना से दुःखित, विस्मित होकर शून्यवत् उसकी उस निकलती अरथी की ओर देखते रहते हैं - ठीक उसी दृष्टिकोण से वे मेरी ओर देख रहे थे। उनकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट परिलक्षित था कि मैं अब इस जगत् के लिए मर चुका - और यह भावना सत्य ही थी। सचमुच ही मुझे अरथी पर चढ़ाया जा रहा था। अंतर बस इतना ही था कि शव को अरथी पर चढ़ाते समय जो भावनाएं दर्शक मन को स्तंभित अथवा व्याकुल करके शवयात्रा की ओर खींचती हैं, वह शव उनका आकलन नहीं कर पाता। परन्तु मैं सबकुछ का आकलन कर रहा था कि मेरी अरथी सजाई जा रही है, मेरी अरथी निकल रही है। मुझे इस यथार्थ का भी बोध हो रहा था कि इन सैकड़ों दर्शकों की दृष्टि, जो मुझ पर टिकी हुई है, वह प्रायः निर्मम तथा तटस्थ है। जिस तरह राह चलते आकस्मिक रूप से किसी की निकली हुई अरथी हम देखते हैं, पल भर उसकी ओर देखते-देखते हम केवल इतना ही कहते हैं, लगता है कोई मर गया है, बस उसकी और देखते-देखते हम अपनी राह जाते हैं। उस समय इस बात का आकलन होने से कि मैं शव बन रहा हूं, मुझे इस यथार्थ-बोध का ही अधिक दुःख था कि हजारों देशबांधव मेरी ओर मात्र आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे हैं। काश, उनमें से एक भी मनुष्य मुझे इस तरह का ढाढ़स बंधा पाता कि 'जाओ बंधु, जाओ! तुम्हारे पीछे मैं और हम तुम्हारे व्रत को पूरा करके अपने इस हिंदुस्थान के......' तो मेरी वह अरथी मेरे लिए फूलों की सेज बन जाती। (पृ0 59-60)
कुछ देर बाद संध्या हो गई। गरमी से जान निकलती, तिस पर इतना भीड़-भड़क्का। उन चालीस-पचास लोगों में, जिनमें हिंदू-मुसलमान सब थे, कुछ तो घिनौने जीवन के अभ्यस्त बनकर निर्लज्ज बने हुए थे; चोर-उचक्के, डाकू, पापी-दुष्ट, असाध्य इंद्रिय रोग से ग्रस्त, कुछ ऐसे घिनौने, जिन्होंने वर्षों से दांत भी नहीं मांजे थे। इस तरह के चालीस-पचास आदमियों की बिछौनों पर बिछौने बिछाए हुए भीड़भाड़ में मैं भी अपना बिस्तर बिछाकर लेट गया। मेरे पैरों से किसी का सिर सटा हुआ था। मेरे सिर से ही नहीं अपितु मुंह के पास किसी की टांगे सटी हुई और तनिक उधर मुंह करे तो मुख से मुख सटा हुआ। पल भर चित लेटा। सामने ही एक बड़ा सा पीपा आधा काटकर रखा हुआ था। उधर थोड़ा रिक्त स्थान था। उस पिंजरे में अन्यत्र बहुत भीड़ हो गई थी, उसकी तुलना में मेरे कोने में कम भीड़ थी और इसी कारण मुझे इस कोने में बिस्तर बिछाने की सहूलियत दी गई थी। परन्तु इतने में सड़ी हुई दुर्गन्ध का इतना तीव्र भपारा आया कि नाक सड़ गई। मैंने अपनी नाक जोर से दबाकर बंद की। यह देख निकट के एक बंदी ने संकेत किया कि धुंधले उजाले में रखा वह पीपा देखो। देखा तो ज्ञात हुआ कि यह पीपा ही रात भर सभी प्राणियों को शौचकूप के स्थान पर काम आने वाला है। मेरी दृष्टि उधर जाते ही वह बंदी, जो उस पीपे पर बैठा था, बेचारा संकोचवश उठने लगा। परन्तु मैंने संकेत से उसे बैठने के लिए कहा, ''अरे, यह तो देहधर्म है।' (पृ0 62-63)
समर्थ रामदास स्वामी ने यह स्पष्ट कहा है -
'भक्षण करते ही सुग्रास अन्न। आधी विष्ठा आधा वमन।
पीते ही भागीरथी का जीवन। मूत्र होय तत्काल।' (पृ0 64)
अंदमान के सिपाहियों की वह टोली, जो बंदियों को लेने आई थी, उससे पूछते, क्योंकि वही इस विषय के प्रमुख अधिकारी और वही इसके ज्ञाता! कलेपानी का नाम लेते ही वे सबसे पहले 'बारी बाबा' की कहानी सुनाते। उनकी धारणा थी कि बारी बाबा ही कालापानी है। उन दंडितों में से जो अत्यन्त निर्दय बंदी होते, वे बिना किसी कारण हो-हल्ला करके आपस में गाली-गलौज करते, तब सिपाही क्रोधित हो कहते, 'अरे ठहर तू, बड़ी चढ़ी हुई है तुझे, समझता है तू ही सबसे बड़ा बदमाश है। अगर एक बार बारी बाबा को देखा तो सारा होश ठिकाने आ जाएगा - अरे धोती ढीली हो जाएगी, धोती में मूतोगे, समझे!' बारी बाबा और हमारी शीघ्र ही गहरी मैत्री होने वाली थी, अतः उन सिपाहियों का उस संबंध में अधिक कुरेदने में कोई तुक नहीं था। (पृ0 66)
हिन्दुस्थान के बाहर अर्वाचीन काल में हिंदू संस्कृति जिन-जिन नूतन भूखण्डों पर अपना आधिपत्य फैलाती जा रही है, उसमें अंदमान द्वीपपुंज की गणना करना अत्यावश्यक है।
यह द्वीप कलकत्ता से लगभग छह सौ मील की दूरी पर है। बीच में छोटे-छोटे द्वीपपुंज, थोड़ा सागर, पुनः द्वीपपुंज - इस क्रम से यह एक द्वीपमाला बंगाल के उपसागर में बिखरी हुई है। उसमें अंदमान सबसे बड़ा द्वीप है। वह तीन भागों में विभाजित है। इनको उत्तर अंदमान, मध्य अंदमान और दक्षिण अंदमान की संज्ञाएं दी गई हैं। इस द्वीप के मानचित्र में दी हुई आकृति देखकर यह स्पष्ट होता है कि उसका नाम अंदमान क्यों पड़ा। इस नाम की हनुमान शब्द से हुई व्युत्पत्ति हमने सुनी है, परन्तु अंडाकृत्ति होने के कारण इसका अंदमान नाम हमें संभवनीय प्रतीत होता है। उत्तर अंदमान की लंबाई इक्यावन मील (मील - दूरीसूचक शब्द है, जिसे अब किलोमीटर कहा जाता है), मध्य अंदमान की लंबाई उनसठ मील तथा दक्षिण अंदमान उनसठ मील लंबा है और रटलैंड द्वीप ग्यारह मील लंबा है। इस पुंज को बड़ा अंदमान कहा जाता है। उसके अतिरिक्त उसके उनतीस मील दक्षिण की ओर छोटा अंदमान है, जिसकी लंबाई तीस मील आरै चाडै ा़ ई सत्रह मील है। (पृ0 69)
अंदमान में जो वन्यजन हैं उसमें जावरा नामक जनजाति साधारणः चार-साढ़े चार फीट लंबी होती है। उनका वर्ण काला-कलूटा, केश कड़े, रूखे-रूखे से छोटे-छोटे गुच्छों में मुड़े हुए। इनकी दाढ़ी-मूँछ तो कभी निकलती ही नहीं। वे किसी साधु-महात्मा के समान नग्नावस्था में ही घूमते-फिरते हैं, वस्त्र परिधान का घोर पातक वे कभी करते ही नहीं। किसी साधु-महात्मा सदृश देह पर रक्तवर्णीय मिट्टी पोतकर वे शरीर की आच्छादन प्रवृति की तुष्टि करते हैं। उनकी स्त्रियों में इक्की-दुक्की ललना विलास-लोलुप निकलीं तो वृक्ष का एकाध पत्ता कटि के आगे लटका लेतीं। उन लोगोें की स्वप्नसृष्टि को, जो आजीवन विलासिता का तिरस्कार करते हुए सादगीपूर्ण रहन-सहन की माला जपते हैं, वास्तविक रूप देने वाले ये जावरा सर्वथा वन्य स्थिति में हैं और नागरी तथा मानुषिक जीवन स्थित प्रलोभनों से अभी तक दूर रहे हैं। जब वे दियासलाई और वस्त्र नहीं जानते तथा बैलगाड़ियों से भी परिचित नहीं है, तो रेलगाड़ी, हवाई जहाज, प्रचंड जलयान आदि मानवी पतितावस्थांतर्गत साधनों का उल्लेख ही नहीं करना चाहिए। उन्हें कुरसी, जूते, कोठी-बंगला, खेती-बाड़ी, खाद्यान्न, यंत्र, चरखा भी ज्ञात नहीं। सादगीयुक्त जीवन के भक्त संप्रदायी के अनुसार मनुष्य जाति के सभी संकटों का एकमात्र कारण सुधारणा है। इस सुधारणा के नाम से ही नहीं अपितु उसकी अभिलाषा से भी जावरा लोग अपरिचित हैं। (पृ0 73-74)
जावरे आज भी नरमांस भक्षक हैं। कुछ यूरोपियन साहसी यात्रियों ने उनके नरमांस भक्षक होने के बावजूद इन लोगों में घुसपैठ करके उनसे मित्रता की और उनके रहन-सहन, उनके रीति-रिवाजों और भाषा की मनोरंजक जानकारी संकलित की। अंदमान में दंडितों को भी जावरों की नरमांस लालसा का शिकार बनने की जगह उनके आतिथ्यपूर्वक भोजन का स्वाद उठाते हुए और उसके पश्चात् वहां से सही सलामत वापस लौटते हुए हमने देखा है। उनके वर्णनों से इस तरह अनुमान लगाया जा सकता है कि जावरा सहसा शरणागत की जान नहीं लेते। परन्तु अंग्रेज सरकार के अधिकारियों को ही नहीं अपितु अन्य अवन्य मनुष्य को भी, जो शहरी दिखाई देता है, वे अपना प्राकृतिक शत्रु समझते हैं और जंगल से निकलकर उसे अकेला देखकर उसके प्राण ले लेते हैं। कभी-कभी उनके मांस को वे कच्चा ही और कभी-कभी आग पर भूनकर खाते हैं। दिन निकलते ही हर कोई अपना-अपना तीर कमान संभालता हुआ शिकार के लिए निकल पड़ता है। महिलाएं भी मच्छीमारी अथवा छोटे-मोटे शिकार के लिए निकल पड़ती हैं। उनकी टोलियां एक साथ एक छत के नीचे रहती हैं। आखेट में जो शिकार मिलता है उसमें सभी की साझेदारी। जंगली शहद, फल हर कोई अपना-अपना ग्रहण करता है। दिन भर भटककर रात में आग जलाकर उस पर वे शिकार लटकाते हैं। पहला शिकार भुनते ही उसे फाड़कर सभी जन एक साथ बैठकतर खाते हैं। उसके पश्चात् कभी-कभी नर-नारी मिश्रित कोई नृत्य होता है। उसका एक राजा होता है जिसका सभी बड़ा सम्मान करते हैं। नृत्य समाप्त होने के उपरांत नर-नारियों के जोड़े अथवा सभी मिलकर उस आग के इर्दगिर्द वृत्ताकार नग्नावस्था में सो जाते हैं। (पृ0 75)
अंग्रेजों से मिलकर रहने वाले जावरों का प्रमुख व्यवसाय है सागर तट से अनेक सुंदर शंख, सीपियां तथा विविधाकृति चकमक पत्थर चुनकर अंग्रेजों की चौकी पर लाना - कुछ कांच के खिलौने, चीनी, तंबाकू लेकर उन वस्तुओं को बेचना - दो-चार निकटवर्ती इमारतों में, जो उनके लिए ही बनवाई गई थीं, रहते हुए और पुनः इस अभेद्य आरण्यक निबिड़ता में घुसकर अदृश्य हो जाना। वे जंगल से शहद लाकर उसे बेचते थे। इन सभी वस्तुओं को वहां से इकट्ठा करके सरकार उन्हें विदेश भेजती है। वहां से शंखों को ठीक तरह से घिसकर ऊपर से चांदी अथवा सुवर्ण की गढ़न के साथ भारी मोल लेकर उन्हें बेचा जाता। ये हिले हुए लोग अब एक छोटी सी लंगोटी पहनने लगे हैं। उनकी स्त्रियां एकाध पत्ता अथवा पर्णमाला कटि में लपेटती है। उपनिवेशीय लोगों से निकट संबंध हो जाने से उनमें एक मिश्रित संतति उत्पन्न होने लगी है। कभी-कभी गोरे सिपाही अथवा यूरोपियन व्यक्ति के संपर्क से उत्पन्न जावरा स्त्रियों की संतान गोरी और भारतीय पुरुषों के संसर्ग से उत्पन्न सांवली अथवा गेहुंआ वर्णीय दिखाई देती है। (पृ0 76)
जलयान अंदमान के बंदरगाह में आकर खड़ खड़ खड़ करता हुआ पानी में लोहे का लंगर डालकर खड़ा हो गया (वीर सावरकर 4 जुलाई 1911 के दिन अंदमान पहुंचे थे)। धीरे-धीरे बड़ी-बड़ी नौकाओं का, जो बंि दयो ं का े ले जाती ह,ैं आरै अधिकारियों की मोटरबोटों का जमघट उस जलयान के चारों और लग गया। उतरने के लिए हमें जहाज पर काफी समय खड़े रहना पड़ा। (पृ0 82)
भावी भारत के बलशाली युद्धपोतों का बेड़ा अंदमान के प्रांगण में समुद्री दुर्ग के आगे पहरा देता हुआ मेरी कल्पना तंरग में लहराने ही लगा था कि एक सिपाही बड़ी उद्डंतापूर्वक दहाड़ा, ''चलो, उठाओं बिस्तरा!'' क्योंकि एक यूरोपियन अधिकारी निकट ही खड़ा था। प्रत्येक हिंदू भारतीय पुलिस सिपाही तथा सैनिक की यही धारणा हो जाती है कि अंग्रेजों के सामने भारतीय राजनीतिक बंदियों के साथ जितना अधिक उद्डंतापूर्वक व्यवहार करें उतना ही अपनी पदोन्नति के लिए लाभदायक सिद्ध होगा। अंदमान में होने वाले अपमान का यह कटु वाक्य सूत उवाच ही था। उठ गया, अपना बिस्तर सिर पर उठाया, हाथ में थालीपाट थामा, पैरों की भारी बेड़ियां कमर से ठीक-ठीक कस लीं और खड़ा रहा। मुझे घाट से निकलकर एक चढ़ाई पर चढ़ने का आदेश दिया गया। पर बेड़ियों से जकड़े जुए नंगे पैरों के कारण चढ़ने में विलम्ब होने लगा। सिपाही 'चलो, जल्दी चलो' चिल्लाकर जल्दी मचाने लगा। किसी गोरे अधिकारी ने सिपाही से कहा, ''चलने दो उसे, जल्दी क्यों मचा रहे हो?'' चढ़ते समय मेरे मन में एक ही विचार मंडरा रहा था, 'सागर से यह राह चलकर मैं ऊपर चढ़ रहा हूं जो अंदमान जाती है। अंदमान से वापस भारत लौटने के लिए इसी मार्ग से मैं इस जन्म में पुनः सागर की ओर नीचे आ भी सकूंगा?''
थोड़ी ही देर मे ं चढा़ ई समाप्त हो गई आरै सिल्वर जेल का द्वार आ गया। लोहे की चलू ो ं से दाढ ़ कडक़ डा़ ने लगी। फिर उस कारागृह ने अपना जबड़ा खोला और मेरे भीतर घुसने के बाद वह जबड़ा जो बंद हुआ तो पुनः ग्यारह वर्ष बाद ही खुला। (पृ0 83-84)
दरवाजे के भीतर पैर रखते ही दो गोरे सार्जंटों ने मुझे दोनों हाथों से पकड़कर खड़ा किया। इतने में आस-पास के प्रहरियों में खुसुर-फुसुर प्रारम्भ हो गई - 'बारी साहब आ रहा है।' (पृ0 84)
मनोविकारों के बवंडर से किंचित् छुटकारा मिलते ही मैंने मुड़कर देखा तो एक मोटा-ताजा हृष्ट-पुष्ट गोरा अधिकारी हाथ में मोटा सा सोटा पकड़े मेरी ओर घूर रहा था। तो ये ही बारी साहब थे! उन्होंने हेतुपूर्वक अपने आगमन की बात मेरे कानों में डाली और अब वे नित्य के अनुभव के अनुसार इस अपेक्षा के साथ यहां आए थे कि यह बेचारा सहमी-सहमी नजरों से उनकी राह की ओर देखता होगा, परन्तु उसी समय मेरा मन उपर्युक् विजयी विचारों में मग्न था, अतः मुझे पता ही नहीं चला कि वे कब आ गए। उस कालावधि में उन्हें मेरी ओर देखते रहने की इच्छा हुई होगी। इस तरह मेरा गुपचुप निरीक्षण करते जैसे ही मेरी दृष्टि उन पर पड़ी वैसे ही वे मेरी और देखी-अनदेखी करते हुए उस सार्जेंट को आदेश देने लगे, “Leave him, he is not a tiger.” (छोड़ दो इसे, वह कोई बाघ नहीं है।) उसके बाद मेरी ओर उस सोटे को लक्ष्य करते हुए उन्होंने कहा, “Well, are you the man who tried to escape at Marseilles?” (तुम ही वह आदमी हो जिसने मार्सेलिस से भागने का प्रयास किया था?) उसके इस उद्धत स्वर में पूछे प्रश्न का उतने ही उद्धत परन्तु संयत स्वर में मैंने उत्तर दिया, “Yes, why?” (हाँ, क्यों?) मेरे उत्तर से बारी साहब का स्वर तनिक नरम हो गया। केवल कौतूहलपूर्ण स्वर में उन्होंने कहा, “Why did you do that?” (तुमने ऐसा क्यों किया?) मैंने कहा, ''इसके कई कारण हैं। उनमें से एक यह है कि इन सभी कष्टों से मुक्ति मिले।'' ''परन्तु इन कष्टों में तो तुम स्वयं ही कूदे थे न!''
''हाँ, यह सच है। क्योंकि इन कष्टों में कूदना मुझे अपना कर्तव्य लगा। और उन कष्टों से यथासंभव मुक्त होना भी मुझे कर्तव्य ही प्रतीत हुआ।''
''देखो,'' बारी साहब एकदम खुलकर हँसते-हँसते कहने लगा, ''मैं अंग्रेज नहीं हूँ, आयरिश हूँ। उसी कारण मेरे मन में तुम्हारे प्रति अनादर अथवा तिरस्कार उत्पन्न नहीं होता। इंग्लैंड में मैंने अपनी तरुणाई के दिन बिताए हैं और उन लोगों के सद्गुणों का मैं चाहने वाला हूँ। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि मैं आयरिश हूँ - बचपन में मैंने भी आयरलैंड को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए छिड़े स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था। परन्तु अब मेरे मन ने पलटी खाई है। और देखो, मैं तुम्हें मित्रता के नाते यह कह रहा हूँ। तुम अभी युवा हो, मैं तुमसे बड़ा हूँ, तुमसे अधिक दुनिया देखी है।'' (You are still young. But I am advanced in age.) मैंने मुसकराते हुए बीच में ही पूछा, “And don’t you think that perhaps that may be the reason of the change that has come over you? Not increasing wisdom but dwindling energy?” चकरात े हुए बारी साहब ने कहा, ''आप ठहरे बड़े बैि रस्टर और म ैं एक अनपढ़ जेलर, परन्तु मेरे इस उपदेश को तुच्छ मत समझना। हत्या हत्या ही होती है। हत्याओं से कभी स्वतंत्रता नहीं मिलेगी।'' (Murders are murders and they will never bring independence.)
''बिल्कुल सही है। परन्तु आप पहले यही पाठ आयरलैंड के सिनफिनवालों को क्यों नही पढ़ाते? आपको किसने बताया कि मैं हत्या का पक्षपाती हूँ।'' बात का रुख बदलते हुए उन्होंने कहा, ''अब सुपरिटेंडेंट साहब पधार रहे हैं। वास्तव में आपसे मेरा राजनीति विषयक चर्चा करना नियम बाह्य है। परन्तु आप जैसे विद्वान, युवा और विख्यात मनुष्य को इस तरह के मक्कार बदमाशों में देखकर अंतःकरण छटपटाता है, इसीलिए इतना कुछ कहा। अब पीछे जो हुआ सो हुआ। उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है। आप यहां के कारागृह के नियमों का पालन कीजिए। बस, मेरा काम हो गया। (पृ0 85-86) दूसरे दिन प्रातःकाल लगभग आठ बजे वे पठान वॉर्डर जल्दी-जल्दी मेरी कोठरी के सामने आकर बोले, ''साहब आता है, खड़े रहो।'' मैं द्वार के निकट आ गया। द्वार अर्थात् कोठरी की सलाखों का नित्य बंद रहने वाला द्वार।
''सरकार!'' वॉर्डर के चिल्लाते ही मैं वहां के नियमानुसार सीधा खड़ज्ञ रहा। कोठरी की सलाखों के छोटे द्वार में से बारी साहब के दिखने के पहले ही उनकी निकली हुई तोंद दिखाई देने लगती। क्योंकि उनकी वह तोंद, तो उनके सम्पूर्ण शरीर को पछाड़ती हुई और सम्पूर्ण विश्व को तुच्छतापूर्वक चुनौती देती हुई दिखती थी, उस गुब्बारे की तरह गोल-मटोल, जो स्कूलों में पृथ्वी का आकार दिखाने के लिए रखा जाता है, दो कदम उनके आगे भागती और उनकी इस तोंद पर मध्य तक चढ़ाए हुए पाजामे पर वह चमड़े का पट्टा भूमध्य रेखा की तरह शोभा देता।
बारी साहब ने प्रारंभ किया, ''लोगों ने आपको बताया ही होगा कि मैं आपका बंदीपाल हूँ।'' मैंने केवल सस्मित देखा। ''परन्तु मैं आपसे कहता हूँ कि मैं आपका एक मित्र हूँ।'' साथ में आए हुए अतिथि मौन थे, क्योंकि बारी साहब प्रत्यक्ष बोलने का अधिकार अपने विशेष चमचे को ही देता, अन्य लोगा ें को नही।ं ''मुझे आप जसै े शिक्षित, पढ़े-लिखे मनुष्य से संभाषण करना बड़ा अच्छा लगता है। अतः मैं इस तरह कभी-कभी यूं ही खुलकर वार्त्तालाप करने आ जाता हूँ। आपने सन् 1857 के उस दुष्टतापूर्ण विद्रोह का इतिहास लिखा है न!'' वे जब बोल रहे थे मैं केवल सस्मित मुद्रा में देख रहा था। मैंने भाँप लिया कि महाशय टटोलने पधारे हुए हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी सामान्य प्रवृत्ति को देखना ही उनका उद्देश्य है। मैं भी सोच रहा था - चलो, उनकी बात सुनने में समय का भार तो तनिक हलका होगा, जो इस काल कोठरी में भारी हो गया है। (पृ 92-93)
अंदमान में प्रथमतः जो आधुनिक राज्य क्रांतिकारी गए थे, उनमें माणिकतल्ला बगीचे के षड्यंत्र में सम्मिलित बंगाली सज्जन, उनके पीछे-पीछे महाराष्ट्र के श्री गणेशपंत सावरकर और श्री वामनराव जोशी थे। उनके आगे-पीछे ही बंगाल की एक राजनीतिक डकैती के संबंध में पांच-छः लोग आए थे। इन सभी राजबन्दियों में तीन बंगालियों और दो महाराष्ट्रियों को आजीवन कालेपानी का दंड प्राप्त हुआ था। शेष बंगाली लोग दस से तीस वर्षों तक के लिए दंड प्राप्त थे। मैं जब वहाँ गया था तब इन लोगों के अतिरिक्त इलाहाबाद के 'स्वराज्य' पत्र के चार संपादक भी वहॉ आए थे, जिन्हें सात से दस वर्षो का दंड हुआ था। परन्तु उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था, न कि राज्यक्रांति का।(पृ0 107)
मरते दम तक बारी साहब ने यही रट लगायी थी कि हम पॉलिटिकल प्रिजनर्स नहीं हैं। कोई बंदी उनके सामने राजकैदी कह देता तो साहब गरजते, 'हः यो? कौन राजकैदी? वो भी तुम्हारे माफक ही एक मामूली कैदी है। बदमाश कैदियों का 'डी' टिकट देखता नहीं तुम उनकी छाती पर?' बदमाशों में महाबदमाशों को 'डी' अर्थात् 'डेंजरस' (भयंकर) अर्थ का अक्षर खोदकर कपड़ों पर लगाने के लिए हमें एक बिल्ला दिया जाता। (पृ0 109)
'अरे बैठो मत। शाम तक तेल पूरा करना होगा। नही ंतो पिटोगे, सजा होगी सो अलग।' इस तरह उसके चीखते-चिल्लाते कइयों के गले से कौर नहीं उतरता, क्योंकि शाम तक तेल कम भरते ही नित्य लातों-घूंसों-सोटियों से बंदियों को कुटते-पिटते हर कोई देखता था। इस डर के कारण पेट में भले ही चूहे कूद रहे हों, कोल्हू घुमाते-घुमाते, उस थाली में से, जिसमें खड़े-खड़े पसीने की धार गिर रही है, ग्रास उठाकर मुँह में ठूंसते, जैसे-तैसे उसे निगलते और कोल्हू चलाते-चलाते ही भोजन करते अनेक बंदियों को मैंने कई बार अपनी ऑखों से देखा है। (पृ0 111)
अंत में उन्हें काम कम करने के लिए दंड दिया गया, कम भोजन दिया गया। आखिर सुपरिंटेंडेंट ने यह अनुबंध किया कि तीन दिन पूरा काम करेंगे तो आपको कोल्हू से हटा देंगे। उसके अनुसार श्रीमान ने वैद्यक शास्त्रीय नियम को उतने समय तक आले पर रखकर तीन दिन पूरा काम किया। परन्तु उन्हें इतना झुकते हुए देखकर बारी ने तोते की तरह आंखे फेरीं और अनुबंध तोड़कर उन्हें फिर कोल्हू पर भेजा। उन्होंने मुंहतोड़ उत्तर दिया, ''काम नही ं करगें े। हम बलै नहीं, मनुष्य हैं।'' यहीं से प्रथम हड़ताल का श्रीगणेश हो गया। राजबंदियों की पुनः दृष्टि बदलते तथा उन्हें हड़ताल तक आते देखकर बारी भी मन-ही-मन चौंक पड़ा।
जो राजबंदी हड़ताल में शामिल हो गए उन पर दंड़ों की भरमार होने लगी। आठ दिन हथकड़ी-बेड़ी, कोठरी बंदी आदि नियमांतर्गत दंड तो दिए ही गए, नियम विरुद्ध दंड भी दिए गए। उपर्युक्त श्रीमान सदृश जो निर्भीकतापूर्वक व्यवहार करते, उनका घमण्ड चूर-चूर करने के लिए उन्हें दस-दस, बारह-बारह दिन कांजी के अतिरिक्त अन्य कुछ खाने के लिए नहीं दिया गया। कारागृह में यह नियम नहीं है कि दस-दस दिन केवल कांजी पर रखा जाए। परन्तु इस आशा से कि इस तरह मात्र दो-तीन बार दिए गए मांड़ पर रहकर उनकी शक्ति क्षीण हो जाएगी और मनोबल टूट जाएगा, यह दंड दिया गया, पर किसी बंदी के दंड-पत्रक में उसे लिखा नहीं जाता। आगे चलकर जब हिन्दुस्थान सरकार की ओर से एक वरिष्ठ अधिकारी जांच-पड़ताल के लिए आए और नियम विरुद्ध दंड की ओर राजबंदियों ने उनका ध्यान दिलाया तो इसी दंड-पत्रक के आधार पर बारी ने यह आरोप सरासर मिथ्या सिद्ध किया और उन अधिकारियों ने उसे मान लिया। मुझे इन सहबंदियों ने शपथपूर्वक कहा था कि एक ओर उन्हें उस मांड़ पर रखा जाता, दूसरी ओर यदि विरोध किया गया तो कोयनेल के घूंट उनके गले में उंडेले जाते। उससे उन्हें चक्कर आ जाता, पेट में तीखी जलन होने से बहुत अधिक कष्ट होता। परन्तु इन सारे अत्याचारों के सामने हड़ताल वालों ने हथियार नहीं डाले। इतना ही नहीं, यह जानकर कि इन बंदियों का दृढ़ संगठन है और उनका धैर्य देखकर अन्य बंदियों पर भी बारी का जो अमानुषिक दबदबा था वह उड़न-छू हो रहा है, उन्हें यह आश्वासन दिया गया कि अब तुम्हें कोल्हू पर नहीं भेजा जाएगा। इतना ही नहीं अपितु अन्य बंदियों की तरह तुम लोगों को भी कारागृह के बाहरी टापुओं में काम करने के लिए छोड़ा जाएगा। राजबंदियों को कारागृह के बाहर के बंदी जो जानकारी देते, उससे ज्ञात था कि बाहर प्रचुर मात्रा में स्वतंत्रता है। इसके अतिरिक्त एक बार अपने बाहर निकलने के अधिकार पर मोहर लगवाई जाए तो फिर उसके अनुषंग से पांच वर्षों के पश्चात् स्वतंत्र काम करने का और दस वर्षों के पश्चात् 'टिकट' लेकर घर बसाने का अधिकार प्राप्त करने का प्रसंग आएगा - यह जानकर राजबंदियों की उत्कट इच्छा थी कि किसी प्रकार यहां से बाहर निकलें। तब यह सुनकर कि कम-से-कम तुम लोगों को एक वर्ष कारागृहवास पूरा करने से नियमानुसार बाहर छोड़ा जाएगा, लोगों ने भांप लिया कि हड़ताल का उद्देश्य सफल हो गया और एक-एक करके हड़ताल से हटकर वे काम पर जाने लगे। चंद ही दिनों में कुछ लोगों को बाहर निकाला गया। खाड़ी में छाती तक कीचड़ में उतरकर कीचड़ भरना, सड़क बुहारना, नारियल ढोना इस तरह के काम उन्हें दिए गए। कई लोगों को गाड़ी में जोता गया।
अंदमान में गाड़ी में सरकारी अधिकारी बैठते हैं और उसे खींचने के लिए बैल-घोड़े आदि पशुओं को जोतने से जो व्यय होता, उसे बचाने के लिए बंदियों को जोता जाता। लगातार भागते और बड़ी-बड़ी चढ़ाई से हांफते-हांफते गाड़ी खींचते और ऊपर से गालियां खाते बंदी आते-जाते दिखाई देते। मैं ऐसे एक-दो अंग्रेज अधिकारियों को जानता हूं जो इस रीति का नापसंद करते हुए बंदियों से गाड़ी नहीं खिंचवाते थे। परन्तु ऐसे किसी बंदी को नहीं जानता जो गाड़ी खींचने के लिए साफ मना करता। तथापि बारी की कुशाग्र न सही परन्तु मोटी बुद्धि ने वह भी सभी को दिखाया। सुपरिंटेंडेंट के मन पर यह अंकित करने के लिए कि राजबंदी कितने उपद्रवी, जिद्दी हैं, बारी ने हवलदार को सूचना दी थी कि उनमें से एक-दो अभिमानी तथा निर्भीक लोगों को बाहर निकालते ही गाड़ी में जोता जाए। अर्थात् गाड़ी खींचने का आदेश देते ही उन निडर लोगों ने टका सा जवाब दे दिया कि हम बैल नहीं जो मनुष्यों की गाड़ी खींचें। बारी ने तपाक से सुपरिंटेंडेंट से कहा, ''देखा, कितने बदमाश हैं ये लोग। कारागृह में इनकी रट थी हम कोल्हू नहीं पेरेंगे। अब इन्हें बाहर निकाला तो कहते हैं गाड़ी नहीं खींचेंगे। अब आप ही बताइए, इन सभ्य लोगों के लिए मैं ऐसा काम कहां से लाऊं जिसमें कोई दोष नहीं हो आरै यदि इन्हें इनकी शिकायतों को सुनकर मैं किसी अन्य सुलभ अथवा शिष्ट कार्य पर लगाऊं तो अन्य बंदियों की दृष्टि में पक्षपाती होकर दोषी नहीं कहलाऊंगा?'' (पृ0 123-125)
आज हम अवश हैं। आज जगत् में हमारा अपमान हो रहा है, परन्तु एक दिन कदाचित् ऐसा ही आएगा कि अंदमान के इस कारागार में राजबंदियों के पुतले खड़े होंगे और हजारों लोग इसे तीर्थ क्षेत्र मानकर इसकी यात्रा करेंगे कि यहाँ पर हिन्दुस्तान के राजबंदी रहते थे। (स्वा. वीर सावरकर की वाणी सत्य सिद्ध हुई। 30 दिसम्बर, 1943 के दिन नेताजी सुभाषचंद्र बोस की सेना ने अंदमान पर स्वतंत्र हिन्दुस्तान का ध्वज लहराया। उस समय उन स्वतन्त्रता सेनानियों की मानवंदना की गई जो वहाँ पर पहले दंड भुगत रहे थे। स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी सातवीं पाली की क्र. 42 की कोठरी में वीर सावरकर का चित्र लगवाकर वहाँ उनका छोटा सा स्मारक बनवाया है। राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, प्रधानमंत्री शास्त्रीजी ने उनका वंदन किया है।) (पृ0 129)
मेरे ज्येष्ठ बंधु और मैं - दोनों एक ही बंदीगृह में बंद थे, फिर भी आज तक हमने एक-दूसरे को देखा नहीं था। मेरे आने से उनके हृदय का आघात पहुंचा था। उन्हें कारागार में जो यातनाएं सहनी पड़ती, उन्हें सुनकर मेरा कलेजा फट जाता था। परन्तु एक दिन ऐसे प्रसंग का सामना करना पड़ा जिसके सामने ऐसा लगा कि वह दुःख कुछ भी नहीं है। इतने दुःखद जीवन में सुख कदाचित् ही प्रतिभासित होता है।
बंधु से मिलने की उत्कट इच्छा स्वाभाविक थी। वॉर्डर और पेटी अफसर की अनुनय करके देखा कि येन-केन उपायों से केवल उनकी एक सरसरी दृष्टि क्यों न हो, परन्तु गुप्त रूप से इसलिए कि मैंने अपने बंधु के संबंध में बारी साहब और सुपरिंटेंडेंट से भी कई बार पूछा। वे कहते, 'हम आपको यह भी नहीं बता सकते कि वे कारागृह में हैं या नहीं। फिर भेंट कराने की बात तो दूर ही रही।' एक बार सुना, भाई साहब का सिर पीड़ा के मारे फटा जा रहा है। तब सुपरिंटेंडेंट से पूछा, 'क्या यह सत्य है? तो फिर उन्हें रुग्णालय क्यों नहीं ले जाते? क्यों कोठरी में बंद रखते हो?' उत्तर मिला, 'आप अपने बारे में सोचिए, अन्य बंदियों के बारे में आप पूछताछ नहीं कर सकते।' ऐसा कहकर उलटे मेरी चाली के जमादार को वह वैसे ही गालियां बकने लगा, ''यह समाचार इस बंदी को कैसे ज्ञात हुआ? साला, तुम बंदोबस्त नहीं रखता। बताओ, किसने उसे यह बात बताई?'' मैं ऐसी अवस्था में गुप्त उपायों से लंबे समय से बिछड़े अपने ज्येष्ठ बंधु के पुण्य दर्शन पाने के प्रयास में था। विलायत जाते समय मुझे विदा करने जो लोग आए हुए थे, उसी समय मैंने ज्येष्ठ भ्राता के दर्शन किए थे। उसके पश्चात् इस बंदीगृह में उनका दर्शन करने का प्रसंग आया। मन-ही-मन सोचा, उन्हें अत्यन्त खेद होगा, अतः भेंट को टाला जाए। परन्तु इस तरह मुंह मोड़ना क्या दुःखों का सामना करने से जी चुराना नहीं है? दुःख का विशाल गजराज तो हृदय के पोखर में घुसा बैठा है, अब भला उसकी पूंछ से क्या डरना? और अपने अग्रज के पावन दर्शन के पुण्य कर्तव्य से इसलिए कतराना कि नेत्र जल की चार बूंदें अधिक झरेंगी, यह भीरुता होगी। उस अवस्था में उन पवित्र आंसुओं में मंगल-स्नान होना जन्म-जन्मांतर के पुण्य का ही फल होता है।
आखिर यह देखकर कि इस समय उनसे भेंट होना संभव है, मैंने एक वॉर्डर की सहायता से उसका प्रबंध करने का निश्चय किया। शाम को सभी बंदियों को एक साथ नहीं छोड़ा जाता था। परन्तु कभी-कभी एक विभाग के बंदियों को वापस भेजने से पहले ही जल्दी-जल्दी में दूसरे विभाग के बंदियों को छोड़ दिया जाता था। उस धांधली का लाभ उठाकर जब मेरे बंधु को नाप-तौलकर काम देने के समय मेरे विभाग के बंदियों को छोड़ा गया तो मैं भी उनमें घुस गया। तभी दूर से वापस लौटते समय मेरी और मेरे बंधु की आंखें चार हो गईं। विलायत जाते समय (9 जून 1906 के दिन सावरकर लंदन गए) उन्होंने मुझे देखा था। आज अब उन्होंने मुझे ऐसी करूणास्पद अवस्था में देखा जहॉ मेरी काया अपने भाग्योदय की लौकिक आशाओं की राख से सनी हुई थी, तो पल भर के लिए उन्हें जैसे काठ मार गया। उनके मुख से बस एक ही उद्गार फूटा, जो उनके मूक दुःखों, वेदनाओं का निष्कर्ष था, 'तात्या, तू यहाँ कैसे आया?' यह एक ही नुकीला मर्मभेदी उद्गार असह्य वेदनाओं-पीड़ाओं का तीक्ष्ण बाण था। वह मेरे हृदय में शूल की तरह घुस गया। परन्तु बंधु ने इन शब्दों का जोर से उच्चारण किया था, अतः यदि दोनों भाई एक-दूसरे से इसी तरह जोर-जोर से बोलने लगे तो अधिकारी का ध्यान इस ओर बंट जाएगा और सभी को एक साथ दंड मिलेगा। अतः मेरे विभाग के पेटी अफसर और वॉर्डर ने मुझे झट से पीछे खींच लिया। बस उसी एक क्षण बाद मुझे अपने बंधु से बिछुड़ना पड़ा। परन्तु वह उद्गार मेरे मन में उसी तरह नासूर बनकर रह गया। उमड़ते हुए दुःखों से भरी एक गुप्त चिट्ठी भी मेरे बंधु की ओर से मुझे भेजी गई - 'तू बाहर का कार्य सफल करेगा ही, प्रिय हिंदुस्थान का.....! बहुत विश्वास था मुझे। इस विश्वास के कारण मुझे कालेपानी का यह जो दंड मिला, उसका कुछ भी बुरा नहीं लगता। मन इस संकट को तुच्छ मानता था, क्योंकि जिस कार्य में यह बलिदान मैं कर रहा हूं वह...... (करने) तू बाहर है ही। यह कल्पना मुझे धीरज बंधाती थी, कष्टों की सफलता का आभास दिलाती थी। परन्तु पेरिस में रहते हुए भी तुम अब इनके हाथ कैसे आ गए..... उस बात का और....... कार्य का क्या होगा..... ? तुम्हारी योग्यता, कर्तव्य सब मटियामेट होगा न? और बाल (अनुज डॉना. दा. सावरकर) वह हमारा नन्हा बछड़ा.... किसका मुंह ताकेगा? प्रत्यक्ष देखकर भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा। समझ में नहीं आ रहा कि हाय! हाय! तुम यहां कैसे आ गए?'
मेरे मन की सहनशीलता को उतना तनाव कभी नहीं झेलना पड़ा था जितना उस चिट्ठी का उत्तर लिखते समय झेलना पड़ा। उनके हर प्रश्न के साथ मुझे अपने ही प्रश्न कचोटते जा रहे थे। अपनी लौकिक आशा-आकांक्षाओं के भाग्योदय के तहस-नहस होने की निराशा का कड़वा घूंट पीकर ऊपर बंधुओं को सांत्वना देना, अपने आपको धीरज बंधाकर दूसरे को भी देना था, तथापि विवेक की सहायता से कर्तव्य के हलाहल का वह घूंट भी मैंने पी लिया। मैंने उन्हें सूचित किया कि लौकिक तथा भाग्योदय की आशा-आकांक्षाओं की राख शरीर पर मलकर लड़ते रहना है।
तो फिर दुःख काहे का? मेरी योग्यता, कर्तव्य सब मटियामेट होता, यदि परीक्षा के क्षण में घटिया सिद्ध होता तो 'सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति। गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।' किंतु ऐसी अवस्था तब होती यदि मैं कर्तव्य-विमुख होता या किसी का विश्वासघात किया होता। परन्तु ऐसा कुछ भी न होते हुए यथा प्राप्त संकटों से सामना करने और स्वार्थ को जड़ से उखाड़ लोगों को कर्तव्य क्षेत्र में संकट भोगने के लिए जो कहा गया, वहीं प्रसंग आने पर उसी क्षेत्र में स्वयं निर्भीक चित्त से भोगने के लिए तैयार होने में ही आपका, हमारा और इन सभी का सच्चा कर्तृव्य और योग्यता प्रकट हो रही है। यशापयश संयोग की बात है। आजन्म युद्ध लड़ते, लोदी के पुल उतरते और आस्टर्लिट्ज पर विजय पाते हुए भी नेपोलियन आखिर खाट पर रोगग्रस्त होकर मरता है और एक रानी लक्ष्मीबाई दूसरी-तीसरी लड़ाई में ही तलवार के गहरे घाव से मरती है। कोई सैनिक तो पहली ही मुठभेड़ में गोली का शिकार बनकर धराशाही हो जाता है। प्रायः उसका कर्तव्य इस संयोग से सिद्ध नहीं होता। तो 'इस प्रथम भिड़ंत में ही मैं पीछे छिपकर जीवित रहूं और अन्य जन आगे बढ़कर मृत्यु मुख में चले जाएं और युद्ध में विजयी होने के पश्चात् उसकी सफलता देखने तथा भोगने के लिए शेष बचूं' इस तरह दुष्ट एवं जनहित विघातक कापुरुष कामना मन में रखते हुए, वह फौजी तब अवश्य अन्य लोगों के साथ युद्ध का सामना करता अचल, अडिग बनकर जूझता ही रहा न? इस प्रश्न पर उसका वास्तविक कर्तव्य निर्भर रहता है। मेरे विचार से इस कसौटी पर हम सभी सफल रहे हैं, और इसीलिए हम लौकिक एवं भाग्योदय के सुवर्ण-वलय में जितने कृतार्थ नहीं बनते उतने उस भाग्योदय की अलौकिक राख शरीर पर मलकर आज इस अवश और करुणास्पद अवस्था में वास्तविक रूप में चल रहे हैं। इन संकटों को सहना और इस तरह कारागार में सड़ते, सबसे अज्ञात रहते जिनके लिए इतने कष्ट झेले, उनकी भी गालियां खाते-खाते इस तरह मरना, यही अब हमारे जीवन का ध्येय है। यह भी उतना ही महान् है जितना बाहर रहकर कीर्ति, यश और दुंदुभि की ताल पर लड़ना। क्योंकि अंतिम विजय के लिए वह ज्ञात संघर्ष और दुंदुभि का वह निनाद जितना आवश्यक होता है उतना ही सुरंग का यह अश्रुत कराहना और अज्ञात प्राण त्याग भी होता है।
.........उस दिन जब हाईकोर्ट में मेरा दंड घोषित हो रहा था, इस संबंध में मैंने दंड के जबड़े में दरदराकर पीसे जाते समय अपने हृदय का विश्वास तथा भाव मुखरित करने वाला 'सारथि जिसका अभिमानी। कृष्णजी और राम सेनानी। ऐसी कोटि-कोटि तव सेना। वह ना रुके वह हमारे बिना।' .......इस आशय से भरा पत्र मैंने गुप्त रूप से बंधु को भेजा था। उस पत्र ने बंधु को तो सांत्वना दी ही, परन्तु उसे लिखते-लिखते मेरे विवेक का डगमगाता धीरज भी पुनः निश्चल होकर रोम-रोम में उत्साह का संचार करने लगा। (पृ0 130-133)
एक दिन बारी आया और इठलाते हुए कहने लगा, ''यह देखिए, आपके पास वाली कोठरी का बंदी दो बजे पूरा तीस पौंड तेल तौलकर देता है और आप शाम तक कोल्हू चलाकर भी पौंड-दो पौंड ही निकालते हैं, इस पर आपको शर्म आनी चाहिए।'' मैं बोला, ''शर्म तो तब आती जब मैं भी बचपन से ही उसके समान कुलीगिरी करने का आदी होता। यदि आप उसे एक घंटे के अंदर एक सुनीत (सॉनेट) रचने के लिए कहें तो क्या वह रच सकेगा? मैं आपको आधे घंटे के अन्दर रचना करके दिखाता हूँ। (पृ0 135)
विख्यात देशभक्त गोखले के स्वर्गवासी होने का समाचार जब मैं शाम का भोजन कर रहा था तब बारी साहब ने कारागार में आकर मुझे दिया - “Well, you always want news, Mr. Savarkar, here is something for you, Gokhale is dead.” (सावरकर, आप हमेशा कुछ समाचार प्राप्त करना चाहते रहते हैं न! तो लीजिए, समाचार यह है कि गोखले स्वर्गवासी हो गए।) क्षण भर को मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था - इतना अप्रत्याशित समाचार था वह। मेरे दुःखोद्गार निकलते देख बारी ने कहा, ''परन्तु वे आपके विरोधी थे न?'' मैंने कहा, ''ना-ना, मैंने उन्हीें के महाविद्यालय में शिक्षा पाई है। हाँ, मतभेद होंगे, विरोध नहीं। हमारे हिंदुस्थान की इस पीढ़ी के वे एक निस्सीम देशप्रेमी तथा देशसेवक थे।'' (पृ0 165)
कालांतर में मैंने एक बार वह टिप्पणी देखी। उसमें बारी साहब ने साश्चर्य एक बात लिखी थी और वही बात वे अन्यत्र भी करते थे कि 'ऊपर-ऊपर कितनी ही भिन्नता क्यों न हो, कितना भी विरोध क्यों न हो फिर भी ये सभी महाराष्ट्रीय अंतःकरण से एक हैं।'
यह बात स्मरण करते समय मुझे एक महान् देशभक्त की इसी तरह की एक उक्ति का स्मरण हो रहा है। वह बात जब मैं इंग्लैंड में था तब लाला हरदयाल ने कही थी, वे पुणे में तिलक से मिलने गए थे। उसके पश्चात् अपने प्रतिद्वंद्वी गोखले से भी मिलने गए। हिंदुस्थान में वे सर्वत्र विभिन्न प्रतिद्वंद्वी नेताओं से भी मिलते रहे। उस समय उन्हें प्रत्येक विपक्षी द्वारा परस्पर की जाने वाली निंदा सुननी पड़ती थी। परन्तु तिलक और गोखले ने हरदयाल जैसे होनहार तथा तेजस्वी युवक को देशसेवा के अपने-अपने मार्ग के लिए अनुकूल करने का प्रयास करते हुए भी एक-दूसरे के विरुद्ध निदं ा अथवा विद्वेष का एक अक्षर भी नही ं निकाला। उलटे एक-दूसरे के प्रति आदर भाव ही प्रदर्शित किया। तिलकजी ने कहा, 'एक बार गोखले से भी मिल लीजिए' और गोखले ने भी कहा, 'आप तिलकजी के यहां ठहरे हैं?' यह अच्छा ही किया। मैं जानता हूँ, युवा पीढ़ी उन्हीं के हाथों में जाने वाली है।' यह किस्सा सुनाते हुए हरदयाल कहते, 'पराए जनों के सामने खड़े रहते ही हममें एकता की भावना जाग्रत् होती है।' (पृ0 166)
अंदमान में कुछ राजबंदी ऐसे थे जो बड़े ही साहस से सारी यातनाओं, कष्टों को सह रहे थे उनमें बंगाल का एक सोलह-सत्रह वर्षीय संभ्रांत ब्राह्यण परिवार का एक नवयुवक नानी गोपाल भी था। बंगाल में एक बड़े यूरोपीय पुलिस अधिकारी की चलती कार पर बम फेंकने के अपराध में उसे चौदह वर्षों का दंड मिला था। कारागृह में सोलह वर्षीय कोमल लड़के को कोल्हू का कठोर काम नहीं दिया जाता, तथापि इसे कोल्हू में जोता गया। उससे संबंधित बहस छिड़ने पर उसने काम को नकारा। वह उन चार-पांच बंदियों में से एक था जिन्हें पिछली हड़ताल में सर्वाधिक यंत्रणाएं सहनी पड़ी। परन्तु वह बड़ा जीवित रहने की तीव्र इच्छावाला तथा दृढ़निश्चयी युवक था। झुकने के लिए वह किसी भी हालत में तैयार नहीं था। वह हथकड़ी में प्रायः खड़ा ही रहता। ज्यों-ज्यों उसे अधिकाधिक दंड दिया जाता त्यों-त्यों उसका क्षोभ अधिकाधिक बढ़ने लगा। काम छोड़ देने के कारण उसे दंड मिला। उसने कपड़े धोना भी बंद किया। इसलिए उसे दंडस्वरूप मोटे टाट के बोरे को फाड़कर बनाए हुए खुरदरे कपड़े दिए गए, तो उसने कपड़े पहनना ही छोड़ दिया। टाट के उन वस्त्रों को दो-चार लोगों ने उसे गिराकर बलपूर्वक पहनाया और लगभग सिलाई से उन्हें पक्का किया तो उसने रात में उन्हें फाड़ डाला। अतः रात में भी उसे हथकड़ियों में रखकर ताला ठोंक दिया गया; लेकिन उसने रात भर गुपचुप महत्प्रयास से हथकड़ियां तोड़ डाली। 'क्यों तोड़ डाली?' यह प्रश्न करते हुए उस पर गालियों की बौछार की गई तो महाशय ने उत्तर देना ही छोड़ दिया। अधिकारियों के प्रश्नों के उत्तर न देने को उद्दंडता के लिए उसे दंड दिया तो अधिकारी के आते ही उसने खड़ा रहना ही छोड़ दिया। इसके दंडस्वरूप उसकी कोठरीबंदी बढ़ाई गई तो किसी भी कार्यवश कोठरी से बाहर निकलना ही उसने बंद कर दिया। स्नान करने के लिए भी वह बाहर नहीं आता। तब उसे बलपूर्वक उठाकर नग्नावस्था में ही हौज में गिराकर भंगियों से उसे स्नान कराया जाता और नारियल के छिलके के टुकड़े से उसका शरीर इतना घिसा जाता कि उसकी पीठ रक्तरंजित हो जाती और भयंकर जलन होने लगती। परन्तु वह डटा रहा। दुष्ट पठान एकान्त में उसे वीभत्स गालियां देता। दिन में वह नग्न रहता, अतः रात में भी उसका एक कम्बल छीन लिया गया तो उसने दूसरा कंबल भी फेंक दिया। वैसा ही नंगधड़ंग वह दिन-रात सर्दी से ठिठुरता हुआ नंगी भूमि पर महीनों पड़ा रहा। उसकी प्रमुख मांग यह थी कि हम लोगों की राजबंदियों में गणना की जाए। (पृ0 210-211)
अन्न त्याग, अनशन करके स्वयं भूखों मरने की स्वपक्षविघातक युद्ध-पद्धति का मैं तीव्र विरोध कर रहा था। इसके परिणामस्वरूप अन्न त्याग की कल्पना का सभी ने परित्याग किया। सभी में नानी गोपाल को अन्न ग्रहणार्थ मना लेना दुश्कर था। सभी उपाय बेकार हुए। वह मरणावस्था पर पहुँच गया। अतः मैंने ऐसे धीरोदात्त पुरूष का जीवन मटियामेट न हो, इसके लिए अंतिम उपाय की योजना बनाई। मैंने उसे धमकी दी, यदि तुमने अन्न ग्रहण नहीं किया तो मुझे भी अन्न त्याग करना होगा। तुरन्त दूसरे ही दिन उसने मेरा कहना मानकर अन्न ग्रहण करने का निश्चय किया। मैंने उसे समझाया, ''मरना ही है तो इस तरह त्रिया हठ करके व्यर्थ मत करो। कुछ-न-कुछ....फिर मरो।''(पृ0 217) राजबन्दियों के कष्टों का वर्णन करते-करते 'सर' साहब के साथ आए हुए हमारे चीफ कमिश्नर ने कहा, ''परन्तु तुम राजबन्दियों ने अत्याचारी और खूनी षड्यंत्र रचा था। यदि हिन्दुस्तान पर आज रूसी लोगों का राज होता तो आप जैसे बागियों को वे साइबेरिया भेजते अथवा गोलियों से उड़ा देते। अतः आप अपना अहोभाग्य समझिए कि हम अंग्रेज आपके साथ इतना ही 'नृशंस' व्यवहार करते हैं।'' (पृ0 219)
भोजने परोसते समय घंटे भर के लिए राजबंदियों को खोलकर आंगन में लाया जाता। वे परस्पर संभाषण करेंगे, इसलिए बारी साहब लरजते-गरजते बीच में खड़े रहते। एक-दो दिन ठीक-ठाक बीत गए, परन्तु पांचवे दिन सभी राजबंदी एक पंक्ति में परन्तु दूरी पर थाली में भोजन ले रहे थे। इतने में सुश्राव्य अंग्रेजी में अचानक भाषण सुनाई देने लगा - ‘Brothers! We are all born free.’ चौंकते हुए सब ऊपर देखने लगे। नानी गोपाल ने अचानक खड़े होकर सार्वजनिक व्याख्यान शुरू किया। 'बोलना नहीं' जैसे बारी के नियम का सम्पूर्ण प्रतिशोध लेने के लिए ही उसने भाषण आरम्भ किया, ''बंधुओं! हम सब जन्म से ही स्वतंत्र हैं। प्रेमपूर्वक एक-दूसरे से बात करना मनुष्य का प्रकृति सिद्ध अधिकार है, और इसे भी यदि शत्रु छीनना चाहता है तो भला उसकी कौन सुनेगा? देखो, यह मैं बोल रहा हूं और बोलता ही रहूंगा।'' इस तरह वक्तृत्वपूर्ण कुछ वाक्य उसके मुंह से निकल ही रहे थे कि आंखों में चिनगारियां निकालते हुए बारी, मिर्जा खान, पठान वॉर्डर - सभी ने उस पर धावा बोल दिया। परन्तु हमारे वक्ता महोदय का भाषण उसी तरह धाराप्रवाह जारी था। उसके भाषण के विषय का तब तक समापन नहीं हुआ जब तक उसे कोठरी में बंद नहीं कर दिया गया। राजबंदी अपनी हंसी रोक नहीं पा रहे थे और बारी का गुस्सा अनियंत्रित हो रहा था। (पृ0 222)
यह कितने आश्चर्य की बात है कि इन हिंदू बंदियों की तरह उसी बंदी द्वीप में अवश और हताश पड़े मुसलमान बंदी अपने सह-बंदियों को भ्रष्ट करके उन्हें मुसलमान बनाने के लिए उन पर बलात्कार करते, उन पर अत्याचार करते, उन्हें बहकाने का प्रयास करते और वह ईसाई प्रशासन, जो स्वधर्म प्रसारार्थ स्वयं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं देता था, परधर्मीय मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों की उपेक्षा करता।
प्रत्येक मुसलमान को बचपन से ही यह मंत्र घुट्टी में पिलाया जाता है कि तुम आधा-पूरा जैसा भी हो, काफिर को मुसलमान बनाते रहो। इससे इस लोक में तुम्हारा सम्मान बढ़ जाएगा, परलोक में पापों की क्षमा होगी और तुम्हें स्वर्गीय अप्सरादि भोग प्राप्त होंगे। (पृ0 242)
अंदमान में पहले से ही धर्मांध और पापपरायण पठान, बलूची आदि मुसलमान बंदियों में से वॉर्डर आदि अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। उनमें भी राजनीतिक दंडित हिंदू ही होने के कारण जमादारादि के स्थानों पर मुसलमानों को ही नियुक्त करने की कट्टर परिपाटी थी। ये लोग हिन्दुओं को कठोर कामों में जुटाकर, कठोर दंड का हौवा दिखाकर, सतत सत्यासत्य अभियोग चलाकर उन्हें तंग करते और स्पष्ट रूप में यह कहते कि 'हमसे पिंड छुड़ाना चाहते हो तो मुसलमान बन जाओ।' (पृ0 245)
पतित, मद्यपी, कलहप्रिय, नीच लोगों में आप अपने धर्म का प्रचार करते हैं, वह क्यों? इसीलिए न कि उनकी आत्मा का उद्धार हो? तो फिर हम भी ऐसे दुष्ट, नीच, मद्यपी लोगों को अपने धर्म में रखने और उनके शुद्धिकरण का जो प्रयास करते हैं, वह इसीलिए कि 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः' उक्ति के अनुसार उनकी आत्मा का उद्धार हिंदू धर्म तथा संस्कृति द्वारा ही होना चाहिए।
यदि आप हिंदुओं को, फिर चाहे वे कितने ही पतित और नीच क्यों न हों, लोभ, काम, व्यसन का प्रलोभन दिखाकर या हमारे मौलवी साहब जैसे छुरी की नोंक पर धर्मभ्रष्ट करते हैं, वह आप अपना समाज एवं संख्याबल बढ़ाने के लिए, ऐहिक लाभार्थ ही भ्रष्ट करते हैं तो उसी तरह हम हिंदू भी अपना समाज और संख्याबल बढ़ाने और इसलिए कि अपनी संस्कृति क्षीणतर न हो और अन्य जातियों के सामने अपने जातीय जीवन की बलि न चढ़ाई जाए - भ्रष्ट किए गए हिन्दुओं का शुद्धिकरण करते हैं, फिर भले ही वे पतित, नीच क्यों न हों। (पृ0 247)
और इस तत्व पर विचार करते हुए कि चाहे वह हिंदू नीच हो, चोर-उचक्का हो, टुच्चा-मक्कार हो, अज्ञ हो, परन्तु मात्र हिंदू होने से उसे परधर्म में जाने नहीं दिया जाए और यदि वह चला भी गया तो उसे पुनः शुद्धिकरण के साथ हिंदू समाज में वापस लिया जाए। इसलिए शुद्धिकरण-सेना ने कमर कसी है। क्योंकि वह चोर भले ही हो - हिंदू संस्कृति के लिए हिंदू चोर मुसलमान चोर से कम हानिकारक है। हिंदू चोर केवल चोरी करेगा, मंदिर नहीं तोड़ेगा, न ही मूर्ति तोड़ेगा, न वेदों को जलाएगा। मुसलमान चोर चोरी तो करेगा ही, परन्तु जाते-जाते देवमूर्तियों को तोड़ेगा और यथासंभव कम-से-कम एक 'काफिर' के सिर पर केवल इसलिए कि वह काफिर है, डंडा बरसाकर स्वर्ग में उस चोरी के पाप प्रक्षालनार्थ लहू बहाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेगा। यह अंतर नित्य ही स्मरण रखें। उसका चोरी करना नहीं छूट रहा, मद्य पीना नहीं छूट रहा या वह लोभ नहीं छोड़ रहा, तो भी चिंता नहीं। फिर भी हिंदुत्व छोड़ना उचित नहीं है। हिंदू बने रहने के लिए पतितों को तैयार करना हिंदू संस्कृति एक जातीय जीवन की दृष्टि से आवश्यक है - यही सिद्ध होता है। परन्तु शुद्धिकरण का आंदोलन चोर-उचक्कों में भी जारी रखना चाहिए। इसके लिए उपर्युक्त कारणों से भी अधिक महत्वपूर्ण और समुचित कारण है।
चोरी करना छोड़ सको तो अच्छा ही है, परन्तु वह नहीं छूट सके तो कम-से-कम हिंदू चोर बनकर ही रहो, क्योंकि चोरी करना न छोड़ना पाप अवश्य है, तथापि हिंदू न रहना तो उस पाप से भी सौ गुना घोर राष्ट्रीय एवं सामाजिक पाप है, नैतिक पाप तो अवश्य है ही। कम-से-कम यह पाप तो मत करो। इस तरह हम प्रत्येक हिंदू मनुष्य को, फिर वह कितना ही रद्दी क्यों न हो, ऐसा कहें। इसके लिए कमर कसनी होगी, क्योंकि ऐसे ही 'बेकार' बंधुओं को हमारे पूर्वजों ने अपनी पवित्रता के घमंड में परधर्म में जाने दिया कि मुझे इससे क्या? जिसका धर्म उसके पास - वह दो कौड़ी का है? जाने भी दो। इस तरह अक्ल का अजीर्ण होकर आत्मघात की धारणा बनने से उन्हें गंवा दिया। देखिए, उसका परिणाम क्या हुआ। उस एक-एक बेकार मनुष्य को परधर्म में फेंक देने से आज सौ वर्षों के बाद उस बीज से हिंदू धर्म, संस्कृति एवं समाज के शताधिक कट्टर शत्रु उत्पन्न हो गए। औरंगजेव एक राजपूत नारी की इसी तरह की बेकार कोख से उत्पन्न हुआ था। मालाबार के ये मोपले आधे से अधिक रक्त-मांस-बीज से मूल हिंदुओं के वंशज हैं। परन्तु क्या अब उनमें यह पहचान शेष है कि उनकी माता कौन है? यह भयंकर अंतर उन मुसलमान मौलवियों के उस 'बचपन' का परिणाम है, जिन्होंने उन मूल हिंदुओं की चोटी बलपूर्वक काटकर दाढ़ी रखी थी। (पृ0 248-249)
अंदमान में हिंदुओं केा धर्मभ्रष्ट करने का साधारण क्रम इस तरह होता कि चालान आते ही अथवा उसके पश्चात् जैसे ही अवसर मिलता, तब सुकुमार बालकों या भीरु लोगों को मिर्जा खान जमादार कठोर परिश्रम के कामों पर भेजता, वहां के मुसलमान वॉर्डर अथवा पेटी अफसर उन्हें एक ओर ले जाते हुए मारपीट करते, डांट-डपट, गाली-गलौच करते। दूसरी ओर उन लोगों को, जो पहले हिंदू थे और अब धर्मभ्रष्ट हो गए हैं, चोरी-छिपे लाई गई मिठाई, तंबाकू आदि वस्तु देकर उनसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते। उन नए कैदियों के त्रस्त होकर रुआंसे होने पर उन्हें बताया जाता कि तुम क्यों मरते हो, तुम भी उस अमुक-अमुक की तरह मुसलमान बन जाओ, इससे तुम्हें भी इन सभी कष्टों से मुक्ति मिल सकेगी।
धीरे-धीरे ये बंदी उनके चंगुल में फंस जाते, उन्हें वही तंबाकू आदि वस्तु देकर अंत में एक दिन भोजन के समय खुल्लमखुल्ला मुसलमानों की पंक्ति में बैठाया जाता और मुसलमानी भोजन परोसा जाता। अंदमानी कारागृह में हिंदुओं तथा मुसलमानों का 'भंडारा' अर्थात् भोजन क्रमशः उन जातियों से अलग पकवाया जाता। एक बार ये हिंदू मुसलमानी पांत में भोजन करते हुए दिखाई दे जांए, फिर हिंदू ही उन्हें अपनी पांत में नहीं लेंगे - उन्हें इसका पूरा-पूरा विश्वास होने के कारण वे इस नवभ्रष्ट हिंदू के विषय में सर्वथा निश्चिंत हो जाते। केवल एक बार उसका नाम बदलकर मुसलमानी नाम रखते। कोई हिंदू भूल से भी अगर उसे उसके ंिहंदू नाम से पुकारने लगता तो मिर्जा खान और अन्य मुसलमानों हस्तक उन हिंदुओं को डांट पिलाकर कहते', 'खबरदार! वह मुसलमान हो गया है। उसे उसका मुसलमानी नाम लेकर ही बुलाया करो।' बस, यही थी मुसलमान धर्म की दीक्षा! कुरान, सुन्नत, नमाज आदि किसी की भी आवश्यकता नहीं होती। तंबाकू ही सुन्नत, कठोर काम ही कुरान और मुसलमानी भोजन ही नमाज! (पृ0 250-251) कभी-कभी कोई हिंदू स्त्री द्वारा मुसलमान पति स्वीकार किए जाने से वह मुसलमान बन जाती। परन्तु कोई मुसलमान महिला यदि हिंदू पति बनाए तो? क्या वह हिंदू धर्म स्वीकार नहीं करती? कदापि नहीं। उसे कौन हिंदू होने देगा? हिंदू लोग ही उस नारी को हिंदू समझने की अपेक्षा उस हिंदू पति को मुसलमान समझकर बहिष्कृत करते।
इस सर्वथा आत्मघातक प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाने के लिए हमने कमर कसी और सन् 1913 में मुसलमानों से घिरे एक ब्राह्यण बालक को बचाने के लिए प्रकट रूप में प्रयत्नरत रहे। उसी बात के कारण आगे चलकर जो मुठभेड़ हुई, उसका वर्णन इस प्रकार है - (पृ0 251-252)
एक उत्तर हिन्दुस्तानी ब्राह्यण युवक कोई बीसेक वर्ष का होगा। अब केवल सरेआम उसे मुसलमानी पंक्ति में बैठाना शेष रहा था। इतने में उसे एक व्यक्ति से संदेश भिजवाकर निवेदन किया, ''हिन्दुत्व का त्याग मत करो।'' उसने कहा, ''नहीं छोडूँ तो क्या करूँ? मिर्जा खान मुझे पुनः कोल्हू में भेजेगा।''(पृ0 252)
तब बारी ने कहा, ''हिंदू पेटी अफसर और तंडेल भी तो यहां हैं। भला वे क्यों नहीं हिंदू धर्म का पक्ष प्रस्तुत करते?'' मैंने खरी-खरी सुनाई कि हिंदू तंडेल आदि पर आप लोगों की वक्रदृष्टि है। दूसरी बात यह है कि हिंदू तंडेल हिंदू धर्म पर और मुसलमान तंडेल मुसलमान धर्म पर यदि व्याख्यान, विवाद करते रहे तो यह कारागृह धर्म प्रचार का एक अड्डा बन जाएगा। (पृ0 255)
उस पर्यवेक्षक की प्रवृत्ति सदाभिरुचिपूर्ण थी। वह यथासंभव निष्पक्ष व्यवहार करना चाहता था। कुछ अधिक न बोलते हुए उसने बस इतना ही कहा, ''आपकी बातों पर मैं विचार करूंगा। अभी मैं बस इतना ही आदेश देता हूं कि उस ब्राह्यण लड़के को हिन्दुओं के साथ ही भोजन करना होगा। यदि इसे किसी न े मुसलमानी भोजन दिया अथवा किसी भी तरह से तंग किया तो याद रखो। समझा, अंतिम बार समझो।'' यह शब्द उसने मिर्जा खान की ओर संकेत कर जैसे ही कहे, लगभग घुटनों तक सिर तथा हाथ झुकाते हुए उस पापासक्त खान ने थरथर कांपते हुए सलाम किया और फिर वह पर्यवेक्षक वहां से चला गया। (पृ0 256)
परन्तु अंत में धीरे-धीरे जितने भी हिंदू हमसे मिल गए थे, उनके पास हिंदू पंक्ति में वह बैठने लगा। बारी की यह चाह टॉय-टॉय फिस्स हो गई। (पृ0 257)
इसके बाद थोड़े ही दिनों में पर्यवेक्षक ने कमिश्नर की सम्मति से उपर्युक्त आशय का आदेश बंदीपाल बारी दे दिया और कामगारों में किसी भी हिंदू को खुलेआम धर्मभ्रष्ट करके मुसलमानों की पंक्ति में बैठाने अथवा धर्मांतरण करने की चर्चा छेड़ने पर पाबंदी लगाई गई। इस आदेश से कारागृह में मुसलमानों का सारा व्यवसाय ही ठप्प हो गया। हिन्दुओं ने वह व्यवसाय कभी आरम्भ ही नहीं किया था। कारागृह में मुसलमानी धर्मांधता की नाड़ी ढीली पड़ गई। (पृ0 263)
कुछ दिनों तक बारी के फुसलाने पर मिर्जा खान ने एक-दो मुसलमान वॉर्डरों को हमें वीभत्स, भद्दी गालियां देते हुए पूरे कारागार में घूमने का ही काम सौंप रखा था। ये नीच से नीचतम दंडित मुसलमान कारागार में जब जी चाहे तब, यहां-वहां कहीं भी आ-जा सकते थे, उन्हें कोई रोक-टोक नहीं थी। हमारी कोठरी के अथवा इमारत के सामने खड़े रहकर वे हमें अत्यन्त वीभत्स गालियां देते हुए घंटों खड़े रहते और मुसलमान अधिकारी यह तमाशा देखते हुए खी-खी करके दांत निपोरते। उनके साथ उसी बीभत्सता से लड़ना हमारे लिए तो असंभव था। यदि हम उन्हें वाहियात, अंट-शंट गालियां बक भी देते तो उन्हें किसी भी तरह का मानसिक कष्ट न होता। वे तो उसके अभ्यस्त थे ही। परन्तु उनकी हर गाली से हमारे मन पर चोट लगती, फिर भी हम उन्हें चुपचाप सह जाते। अंत में कुछ हिंदू गुण्डों ने, जो वीभत्सता तथा ओछेपन में निपुण थे, जब उन्हें पेंच में फांसा तब कहीं उनके थोबड़े बंद हुए। उन्हें बारी को उकसाना था, इसलिए उससे कोई प्रतिवाद न करते। एक हिंदू वॉर्डर ने उस मुसलमान वॉर्डर से छिपकर उसके बिस्तर में पैसे, छुरियां, तम्बाकू आदि कारागारीय निर्बंध-विरोधी वस्तुएं छिपाकर रख दीं और जिस दिन पर्यवेक्षक निरीक्षणार्थ आया, उसी दिन अचानक उसके सामने उस वॉर्डर का बिछौना पकड़वाया। अर्थात् निर्बंध-विरोधी वस्तुओं को पास रखने के अपराध में उस मुसलमान वॉर्डर को दंड मिला और उसे उस काम से हटाकर कारागार के बाहर एक कठिन कार्य के लिए भेजा गया। (पृ0 264-265)
सन् 1920 के आगे-पीछे गुजराती मुसलमानों के एक अत्यन्त बेहया, निर्लज्ज तथा उद्दड गुंडे ने अपने एक 'छोकरे' को पाला था और नियोजित पद्धति के अनुसार इस पालन का निश्चय हिन्दुत्व के श्मशान में जाकर उस हिन्दू लड़के को मुसलमान बनाने में होने वाला था। यह समाचार मिलते ही हमारे बंधु ने, जो उसी कक्ष में बंद थे, हर तरह के प्रयत्न से उस लड़के को उस गुंडे के चंगुल से निकाला। एक हिन्दू मुंशी ने हमारे कहने पर उस लड़के को उस कक्ष से बदलकर एक विश्वसनीय हिन्दू बंदी के पासवाली कोठरी दे दी। इससे आग-बबूला होकर उस मुसलमान गुंडे ने हमारे भाई पर उस समय हमला किया जब वे स्नान करके बदन पोंछ रहे थे। उसने उनकी नाक पर जोरदार मुक्का मारा। उस अचानक आक्रमण के आधात से हमारे बंधु को चक्कर आ गया, खून का फव्वारा फूट पड़ा। इतने में आसपास के राजबंदी तथा साधारण बंदी आ गए और वह गुंडा पकड़ा गया। परन्तु यह समाचार सुनकर हमारे बारी ने क्या किया? सबके सामने सस्मित बात करते हुए उस गुंडे की लगभग पीठ ठोंकी और एक-दो लोगों के सामने स्पष्ट उद्गार निकाले, ''कितना अच्छा हो, यदि सावरकर का घमंड भी इसी तरह तोड़ा जाए।''
परन्तु यह घमंड फाँसी की छाँव में भी नहीं टूटा तो इस तरह अंगुलियाँ चटकाने से कैसे टूटेगा? सावरकर का सार्वजनिक आंदोलन तो नहीं दबा, किन्तु उस गुंडे की मस्ती शीघ्र ही उतर गई। अन्य अपराधों के लिए आगे चलकर उसे दो बार बेंत खाने पड़े। वह जब हमारे पास की कोठरी में बंद हो गया तो एकदम गऊ बनकर हमें 'बाबा' कहने लगा और स्पष्ट किया - गणेश बाबू पर वार करने के लिए मुझे बारी ने फुसलाया था, अन्यथा मेरे बाप की भी हिम्मत नहीं होती। परन्तु वह या उसके बारी महाराज ही जानते हैं कि उस कथन में कहाँ तक सच्चाई थी।(पृ0 269-270) उसी समय पर्यवेक्षक दैनिक निरीक्षण के लिए आया और मुझसे पूछा, ''क्यों जी, क्या यह सच है कि हरदयाल आपके मित्र थे?'' मैंने स्पष्ट कहा, ''जी हाँ, मुझे उनकी मित्रता का सम्मान प्राप्त हो चुका है।'' वे बोले, ''उन्हें हत्या के अभियोग में पकड़ा गया है। दिल्ली के बम कांड में भी उनका हाथ है।'' मैंने कहा, ''होगा। ऐसा होने से भी उनके प्रति मेरे हृदय में जो स्नेह और सम्मान है उसमें रत्ती भर की कमी नहीं आएगी।'' 16 मार्च, 1914 के दिन हरदयाल पकड़े गए और जमानत पर बरी हो गए। बरी होते ही वे स्विट्जरलैंड खिसक गए।(पृ0 288-289)
हिन्दुस्तान के प्रख्यात नेताओं के विषय में अधिकारियों द्वारा इसी प्रकार के हेय व्यंग्योद्गार अधिकारियों द्वारा निकालने का एक और उदाहरण कालक्रम छूटने पर भी अनुसंधानार्थ रखता हूँ। हमारा स्वास्थ्य आगे बहुत ही गिर गया और हमने रूग्णशय्या पकड़ी। तब एक बार अंदमान के चीफ कमिश्नर हमें देखने आए थे। वे मुझसे नित्य शिष्टतापूर्ण व्यवहार करते। बातों-ही-बातों में उन्होंने कहा, ''कुछ ही दिन पूर्व मे यूरोप से हिन्दुस्तान आ रहा था कि मुझे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जहाज पर मिले थे। उनसे परिचय होते ही उन्होंने पूछा, 'सावरकर का स्वास्थ्य कैसा है? और उन्होंने यह भी पूछा कि यदि उनसे संवेदना प्रकट करने और राजबंदियों की स्थिति प्रत्यक्ष देखने अंदमान आना चाहूँ तो क्या मुझे अनुमति मिल सकती है?'' यह सुनकर मैंने चीफ कमिश्नर से पूछा, 'तो फिर आपने क्या कहा?' उन्होंने उत्तर दिया, ''मैंने कहा, आइए। परन्तु निश्चित उत्तर बाद में सूचित करूँगा। पर सावरकर, आपके सुरेन्द्रनाथ आ गए तो उन्हें ठहराने के लिए आपके साथवाली बंदी-कोठरी से अधिक सुविधाजनक स्थान अंदमान में हमारे पास नहीं है।'' मैंने भी उसी तरह सस्मित मुद्रा क े साथ कहा, ''क्यों? चीफ कमिश्नर की कोठी जो है। दो दिन चीफ कमिश्नर साहब इस बंदी-कोठरी में रहें, यद्यपि वह अतिथि महोदय की योग्यतानुरूप तो नहीं है, पर जो है, जैसी है, वह कोठी उनको सौंपे।''
यहाँ पर यह भी बताना हमारा कर्त्तव्य है कि बंगाल के इस वृद्ध योद्धा, सुरेन्द्रनाथजी ने आदि से अंत तक राजबंदियों और मेरे प्रति जिस आस्था का प्रदर्शन किया और 'बंगाली' से लेकर 'विधि मंडल' (कौंसिल) तक मेरी जो सहायता की, उसकी हिन्दुस्तान के अन्य किसी भी नेता ने कदाचित् ही की होगी। हमें रह-रहकर इस बात का खेद है कि हमारा यह आभार-प्रदर्शन सुनने के लिए आज वह देशभक्त नहीं रहा। (पृ0 289-290)
उस समय उस सम्पूर्ण आंदोलन के सुसंगत सूत्र में पिरोकर सन् 1909 के आरम्भ से लेकर महायुद्ध समाप्ति तक के कालखंड के भारतीय क्रांतिकारी रत्नों का एक संकलित इतिहास लिखने की हमें बार-बार इच्छा होने लगी। परन्तु कारागार में यह लिखना असंभव था। आगे कभी उस इतिहास को लिखने तक स्वतंत्रता और हमारी मुक्ति का अवसर प्राप्त होगा, उस समय तो यह उतना ही असंभव दिख रहा था। अतः जब हमारे सिख आदि सहयोगी मित्र अनुरोध करते कि आपको इस तरह का इतिहास लिखना ही होगा, तब हम गंभीर परन्तु विनम्र विनोद के साथ कहते, ''मित्रों, इतिहास निर्माण करना हमारी पीढ़ी का प्रमुख कार्य है और इतिहास लिखना गौण। कदाचित् वह काम भावी पीढ़ी करेगी।'' (पृ0 321)
भानसिंह नामक एक राजबंदी की तंडेल और पेटी अफसर से कुछ कहासुनी हुई तो उन्होंने भानसिंह को कोठरी में बंद किया और बारी को बुलाया। बारी के भानसिंह की कोठरी में घुसकर गालियाँ देते ही उसकी भी उलटकर बारी को गालियाँ दीं। इससे कुद्ध होकर बारी ने अपने पिट्ठुओं की सेना को संकेत दिया, 'ठीक करो इसको।' 'इसे ठीक करो' का अर्थ हमने पहले ही स्पष्ट किया है। संकेत मिलते ही पांच-दस तंडेल, पेटी अफसर आदि डंडे लेकर कोठरी में घुस गए और उन्होंने भानसिंह का कचूमर निकाला। (पृ0 337)
सरकारी टिप्पणियों में वे देख ही रहे थे कि सावरकर उसी कारागार में कुल मिलाकर आड़ी बेड़ियाँ, खड़ी बेड़ियाँ, जंजीरों की बेड़ियाँ, हथकड़ियाँ, कोठरीबंदी, अन्न-त्याग आदि सभी प्रकार के दंड भुगत चुके हैं। (पृ0 342) अंदमान में पांच वर्षों के पश्चात् दूसरी श्रेणी में बढ़ोतरी मिलने पर बंदी को अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती है। दस वर्षों के पश्चात् प्रथम श्रेणी में बढ़ोतरी मिलने पर वह स्वतंत्र 'टिकट' निकालकर अपने परिवार के साथ रह सकता है। सावरकर को 12 नबम्बर, 1916 के दिन द्वितीय श्रेणी दी गई। (पृ0 352)
पोर्ट ब्लेयर अर्थात् अंदमान में तपेदिक, अतिसार और मलेरिया प्रायः एक साथ हाथों में हाथ डालकर चलते थे। हम पर अतिसार तथा मलेरिया की कृपा हो ही गई थी। छः-सात महीनों के पश्चात् हमें ही नहीं, डॉक्टरों को भी तपेदिक का संदेह होने लगा, जो स्वाभाविक ही था। इस रूग्णालय में जहाँ अच्छे हष्ट-पुष्ट, दृढ़काय राजबंदी और साधारण बंदी भी जो हमारे आस-पास रहते, तपेदिक, अतिसार तथा मलेरिया के शिकार बनते थे। (पृ0 367)
एक सर्वथा क्षीण दिन जीवन से अंतिम विदाई लेने 'मरणोन्मुख शय्या पर' शीर्षक कविता लिखी। इसकी रचना करते हुए सचमुच ही हमें आशा नहीं थी कि हम उसे पढ़ने के लिए भी जीवित रहेंगे। मैं जब इंग्लैंड में पकड़ा गया तब फाँसी की छाया में 'मेरा मृत्युपत्र' और फाँसी का दंड दिया जाना जिस दिन संभव था, उस दिन 'पहली किश्त' कविता की रचना की थी। उसके पश्चात् मृत्यु की दहलीज पर खड़े रहकर उससे दो शब्द संवाद साधने का प्रसंग इस 'मरणोन्मुख शय्या पर' तीसरी कविता में आया था। ये तीनों कविताएँ ‘Echo from the Andaman’ पुस्तक में प्रकाशित हो चुकी हैं। (पृ0 373)
जहां तक हमें याद है, इसी बंदीपाल के हाथों अंदमान में नियम विरुद्ध अंतिम मारपीट की गई। साधारण बंदियों में से एक साहसी युवक पर, जो नित्य राजबंदियों की सहायता करके हमारे सार्वजनिक आंदोलन में मनोयोगपूर्वक भाग लेता था और जिसका उल्लेख हमने शुद्धि प्रकरण में भी किया है, अधिकारियों की नित्य नजर रहती। ज्ञानार्जन में उसकी विशेष रुचि थी। एक दिन काम के समय उसके हाथ में पुस्तक देखकर अथवा ऐसे ही किसी कारणवश क्रुद्ध होकर कचहरी में बुलाकर इन महाशय ने उसे ग्रामीण गाली दी। ग्रामीण गाली का अर्थ अंग्रेजी भाषा में नाम के पीछे उप-पद जैसे नियमपूर्वक आता है, इसी तरह का उप-पद लगाया। परन्तु बंदीपाल क्या जाने कि अंदमान के कारागार में लोगों के स्वभाव अब आठ वर्ष पहले जैसे नहीं रहे। उसके गाली बकते ही 'तुम्हारा बाप.....' कहते हुए उस हिंदू युवक ने इस बंदीपाल के पिताश्री को ही उस गाली का उपहार दिया। तब क्रोध में उफनता हुआ वह बंदीपाल उठ गया और उसने वॉडरों से उस बंदी को पकड़वाया और अपने हाथों से उसके मुंह तथा छाती पर मुक्के मारना शुरू किया। उसका मुंह सूज गया और खून बहने लगा, तब उसे छोड़ा। यहां इस बात पर गौर करना चाहिए कि उस बंदी को गंडमाला का रोग था। बंदीपाल को लगा - अच्छा हुआ, अच्छा मजा चखाया बच्चू को। अन्य कायर तथा लुच्चे लोग उससे कहने लगे - 'अरे भई, अंग्रेजों से तो राजबंदी ही टक्कर ले सकते हैं। भई, हम किस खेत की मूली? बस, अब जो हुआ सो हुआ। तुम डॉक्टर से कहना कि गिरने के कारण मेरे चेहरे पर सूजन आई है और खून बह रहा है, अन्यथा, उलटे तुम दंड भुगतोगे।' परन्तु वह धीर वीर था। उसकी आंखों और होंठों पर बहुत सूजन आई थी। उसने डॉक्टर से कहा कि बंदीपाल के मारने से सूजन आई है। परन्तु डॉक्टर ने बंदीपाल के भय से उधर ध्यान नहीं दिया। बंदीपाल ने पर्यवेक्षक से उसकी भेंट नहीं होने दी। तब हममें से एक राजबंदी ने यह पोल खोलने की ठान ली। यह देखकर कि उसी सप्ताह सयं ागे से चीफ कमिश्नर भी आ रहे थे - बंदीपाल के होश उड़ गए। वह गिड़गिड़ाने लगा, परन्तु चीफ कमिश्नर के सामने उस अत्याचार को प्रस्तुत करने में वह हिंदू युवक जरा भी नहीं हिचका। बंदीपाल के अच्छी तरह कान उमेठे गए। (पृ0 390-391)
उधर हिंदुस्थान में एक जेल कमीशन की नियुक्ति का समाचार मिला। इस आयोग के सामने जो समस्याएं थीं, उनमें एक तो यही थी कि अंदमान उपनिवेश का आगे क्या करना चाहिए? 1 जनवरी 1920 को नियुक्त आयोग के संबंध में और विशेष रूप से अंदमान के उपनिवेश की स्थिति की जाँच करके उसके भविष्य पर विचार करने का प्रश्न मुख्यतः उसके सामने प्रस्तुत करने के पीछे हमारे अंदमानीय आंदोलन तथा आठ-नौ बरसों से उसकी दुर्दशा की कहानी हिंदुस्थान एवं विश्व भर में उजागर करने का प्रयास ही विशेष कारगर हुआ था। (पृ0 392)
न केवल उपनिवेशीय बंदियों को बल्कि वहां के स्वतंत्र लोगों का भी हमसे सतत अनुरोध होने लगा कि इन सभी प्रमुख बातों का प्रतिनिधित्व करने का कार्यभार हम अपने कंधों पर लें। उनका भावुकतापूर्ण विश्वास था कि जिस कुशलता और जिस भाषा में सटीक तर्क प्रणाली तथा निर्भीकता के साथ उनकी मांगें हम आयोग के सामने प्रस्तुत करेंगे, वैसा कोई अन्य नहीं कर पाएगा।
परन्तु दूसरे पक्ष में एक महत्वपूर्ण बाधा हमारे सामने थी। यदि अन्य बंदियों से संबंधित कुछ बात करे अथवा किसी बंदी का पक्ष लेते हुए उसकी वकालत करे, तो उसे एक अपराध समझा जाता था। यदि वह ऐसा साहस करे भी तो उसका मुंह यह कहते हुए बंद किया जाता कि दूसरे से तुम्हें क्या लेना-देना? तुम अपनी कहो अगर कहना चाहते हो तो। (पृ0 393)
हमें यह मालूम था कि वह आयोग एक विशेष उद्देश्य से राजबंदियों का निरीक्षण करने आ रहा है। विशेष उद्देश्य यह है कि अंदमानीय अधिकारियों के उस संबंध में प्रस्तुत प्रतिवेदन का और स्वयं प्रमुख राजबंदियों का निरीक्षण कर हिंदुस्थान सरकार को प्रतिवेदन करना कि कौन बरी करने योग्य है और कौन नहीं। यदि हमने चुनिंदा अधिकारियों से भरे इस आयोग के सामने अंदमानी अधिकारियों अर्थात् हिंदुस्थान सरकार के, जो उनका समर्थन कर रही थी - तत्कालीन बंदीशाला विभागांतर्गत दुष्टतापूर्ण नीति तथा पीड़ादायी व्यवहार की कटु आलोचना की तो स्पष्ट है, यह धृष्टता इन शिष्टजनों को असहनीय होगी। इसका अर्थ यह है कि इस तरह अगवानी करना हमारे मुक्तिमार्ग में रोड़े अटकाना है। यह जाँच हम सभी के सतत प्रयासों से, हमारे द्वारा सहे गए अत्याचारों, यंत्रणाओं के विरुद्ध किए गए प्रतिवादों से ही हो रही थी। यदि और कोई यह कार्य करता तो वह इतना परिणामकारी नहीं होता, यह अन्य हजारों बंदियों की तरह हमें भी लग रहा था, इसलिए आयोग के सामने गवाही देना हम अपना कर्तव्य समझने लगे। (पृ0 394)
अंदमान में हम अपने आचरण का बिंदु नित्य ही मुक्ति और राष्ट्रहित दो छोरों के बीचोबीच रखते कि अंदमान में जो कुछ राष्ट्रहित साध्य होगा, वह इतना महत्वपूर्ण कभी नहीं हो सकता जितना मुक्ति के पश्चात् हिन्दुस्तान में जाकर साध्य होगा। परन्तु इसके लिए मुक्ति हेतु कोई भी विश्वासघाती, निन्दनीय, नीच तथा चापलूसी भरा आचरण, जिससे देश अथवा जाति का स्वाभिमान कलंकित हो, कभी समर्थनीय सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उस योग से होने वाली मुक्ति राष्ट्र के लिए अधिक हितकारी होने की अपेक्षा अधिक राष्ट्रविघातक ही सिद्ध होगी। अतः इस तरह का आचरण टालते हुए यदि मुक्ति का निश्चित अवसर मिल रहा हो, तो वह हम साध्य करके ही रहेंगे। (पृ0 394)
तब से, जिस दिन हमने अदं मान मे ं पावं रखा, हमें प्रतीत होता रहा ह ै कि अदं मान हिंदुस्थान का एक जलदुर्ग ह।ै आज नही ंतो कल, यहां हवाई तथा सागरिका केन्द्र भी प्रस्थापित किया जाएगा और यदि हिंदुस्थान पर कभी पूर्व दिशा की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का अन्यायपूर्ण आक्रमण हुआ तो उसके सामुद्रिक बेड़े तथा हवाई जहाजों को अंदमान का दुर्ग रोकेगा।
इस प्रकार और अन्य तथ्यों से भरा एक आवेदन हमने आयोग को भेजा। हमारी मौखिक चर्चा तथा आवेदन-पत्र में वर्णित अंदमान के जलदुर्ग की नई दृष्टि से योग्यता एवं भविष्यवाणी सुनकर आयोग के कई लोग ऐसे चौंके जैसे उन्होंने कुछ अद्भुत सुना हो। कुछ लोग ऐसे हँस पड़े जैसे उन्होंने कुछ संदेहास्पद सी बात सुनी हो। फिर भी उस सूचना की उन पर ऐसी छाप लगी कि उसकी स्मृति रहे। क्योंकि उसके पश्चात् हमारे कई पर्यवेक्षक महीनों उस पांच नम्बर के निरीक्षणार्थ आते समय सनक में हों तो सागर की ओर निर्देश करते हुए व्यंग्य से कहते, 'सावरकर, वो देखा, अंदमान के आपके भावी जलदुर्ग स्थित रणतरियां इधर-उधर पहरा दे रही हैं।' मैं भी सस्मित मुद्रा में कहता, 'आप या मैं शायद न देख सकें, परन्तु हमारी संतान उन्हें अवश्य देखेंगी।' (वर्तमान में अंदमान में भारतीय नौ सेना का अड्डा है।)
यह घटना सन् 1919-20 की है। उस समय मैंने जिसकी आशा व्यक्त की थी कि भविष्य में हमारी संतानें यह देखेंगी, वह दिखाई देने की संभावना आज अर्थात् सन् 1926 में ही प्रतीत हो रही है, क्योंकि परसों नवम्बर के एक पत्र में पढ़ा कि 'अंदमान द्वीप का भविष्य में अपराधियों के उपनिवेश के लिए उपयोग न करते हुए उसे स्वपोषणार्थ समर्थ उपनिवेश बनाने तथा नौ-साधन विभाग के नौ सेना या नौ सेना (आरमेडा) यंत्रों के कार्यों की दृष्टि से इस द्वीप की जो उपयोगिता है, उससे लाभ उठाने के लिए हिंदुस्थान सरकार ने प्रतिवर्ष 411 लाख रुपए व्यय करने की योजना बनाई है।' (पृ0 401-402)
मुक्ति मिल गई - पैरों की लोहे की बेड़ियाँ टूट गई। परन्तु मन में घिरी हुई, उससे जकड़ी हुई कामना, इच्छा-अभिलाषा की बेड़ी नहीं टूटी। बंदीगृह की पत्थर की दीवार के बाहर मैं खड़ा रहा, परन्तु तृष्णा के क्षितिज का दुर्लघ्य परकोटा अभी भी आत्मा को बंद किए खड़ा है। (पृ0 479)
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बहुत सुंदर संस्मरण !
जवाब देंहटाएंइस मैराथन संस्मरण को पढ़ा. संस्मरण रोचक और रोमांचक है. पढ़कर स्वतंत्रता सेनानियों के उस जज्बा का अनुमान होता है जिसका स्वतंत्रता प्राप्ति में अभूतपूर्व योगदान है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही स्तुत्य प्रयास ...
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