कहानी निमन्त्रण (इरावती के जुलाई-सितम्बर 2013 अंक में प्रकाशित) लेखक-शैलेन्द्र नाथ कौल मार्च में पानी बरसेगा बिल्कुल अनपेक्षित ही था । ...
कहानी निमन्त्रण
(इरावती के जुलाई-सितम्बर 2013 अंक में प्रकाशित)
लेखक-शैलेन्द्र नाथ कौल
मार्च में पानी बरसेगा बिल्कुल अनपेक्षित ही था । बाबा खड़क सिंह मार्ग के एम्पोरियम वाली साइड से निकल कर विकास तेज़ क़दमों से रीगल बिल्डिंग के बरामदे में आ गया पानी से बचने के लिए । बून्दें तेज़ नहीं थी मगर भिगोने के लिए काफ़ी थीं । वही एक जगह उसे समझ में आयी जहां वह कुछ देर खड़ा हो सकता था । बहुत से लोग बरामदे में जमा हो गए थे । तभी एक ओर से आयी आवाज़ ‘‘विक्की‘‘ । वह चौंका और सोंचने लगा, यहाँ उसे विक्की कौन कह सकता है ? आवाज़ की दिशा में देखने का प्रयास किया परन्तु भीड़ के कारण कुछ दिखा नहीं । कुछ ही क्षणों में कमर में गुदगुदी करने के अन्दाज़ में उंगलियों की छुवन महसूस हुयी तो बिना देखे ही उसके मुंंह से निकला ‘‘सन्तू‘‘ । यह है उसके बचपन के दोस्त सन्तोष का मिलने का अन्दाज़ जो चालीस पार करने पर भी बरक़रार है ।
कस कर गले लगने के बाद सन्तोष बताने लगा कि उसका ट्रांसफ़र दिल्ली हो गया है और द्वारका में एक फ्लैट देखने जा रहा है । फ्लैट का फाइनल हो जाये तो मंजरी और बच्चों को जयपुर से यहां शिफ्ट करेगा । मेट्रो पकड़ कर जाने की सोंच ही रहा था कि तुझ पर निगाह पड़ गयी और पुरानी गुदगुदी याद आ गयी । यह बिल्कुल नहीं बदला इतने सालों में लेकिन विकास की हंसी बहुत खिंच कर आती है और आते ही गुम हो जाती है । ख़ुशी तो उसे भी बहुत हुई सन्तोष से मिलकर किन्तु एक अजीब सा डर भी यकायक मन में घिर आया कि कहीं सन्तू उसके घर चलने के लिए न कह दे । द्वारका में अगर रहेगा तो मिलना तो पड़ेगा ही ? इतने पुराने दोस्त से दूरी बनाने का कारण सीधा नन्दिनी की ओर जायेगा । यह वह नहीं होने देना चाहता था ।
जब भी कोई परिचित मिलता है तो विकास को एक भय घेर लेता है अपनी इज़्जत की फ़ज़ीहत होने का । नन्दिनी की बेसुरी शहनाई तो हमेशा बजती ही रहती है, और किसी के घर आने पर पर ऐसी तान निकालती है कि आने वाला अजीब पसोपेश में फंसा निकल भागने को सोचने पर मजबूर हो जाता है । घर का माहौल इतना तल्ख़ हो जाता कि विकास प्रण कर लेता कि अब किसी को घर नहीं आने देगा । जोशी तो अक्सर कहता है कि व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं सामाजिक, असामाजिक या सन्यासी । जो सामाजिक नहीं है वह या तो असामाजिक है या फिर सन्यासी । यह वर्गीकरण पहले तो बड़ा विचित्र लगता था लेकिन धीरे-धीरे विकास को इसकी व्यावहारिकता नन्दिनी के साथ रहते स्वीकार करनी पड़ी । कितना विवश है कि शादी के ग्यारह वर्षों में ठहाका लगा कर हंसने को तरस गया । विचार श्रंखला को तोड़ते थोड़ा नार्मल होने के इरादे से विकास ने कहा - ‘‘चलो मलिक की चाय पीते हैं ।‘‘
दोनों पानी की बून्दों से बेपरवाह बरामदे से निकल पीछे की तरफ़ बढ़ गए । कनाटप्लेस में मलिक की चाय सालों से जानने वालों के लिए एक आकर्षण रखती है । एक कोने की मेज़ पर दोनों ने आसन जमा दिया और चाय के साथ पकौड़ी भी आर्डर कर हाथों को रगड़ते तीस साल पीछे उड़ते चले गए ।
‘‘हम लोग शायद दस साल बाद मिल रहे हैं, क्यों सन्तू?‘‘ - विकास ने कहा ।
‘‘हाँ, दस तो हो ही गए होंगे । भोपाल के बाद तो मैंने कई शहरों की ख़ाक छान डाली । यह मार्केटिंग की लाइन ही ऐसी है यार कि, होश ही नहीं रहता कि हम कहाँ हैं और घर कहाँ । दस-दस दिन घर और बीबी की सूरत को तरस जाते हैं । बच्चे तो मज़ाक में कहते हैं मम्मी टूर वाले पापा आ गए क्या ? पर मेरे यार यह दस दिन बाद बच्चों और बीबी से मिलना हमें तो लगता है कि हमारी शादी फिर से हो गयी है । सेल का टारगेट पूरा करके दो तो ट्रांसफर कि दूसरी टैरीटरी ठीक करो और टारगेट पूरा न हो तो भी ट्रांसफर का पनिश्ोमेन्ट । यानि हर हाल में पनिशमेन्ट ।‘‘ सन्तोष अपने मस्तमौला अन्दाज़ में पूरा वही सन्तू लग रहा था जैसा डी0ए0वी0 कालेज में हुआ करता था और लगातार बोलता जा रहा था ।
‘‘बच्चे अब कितने बड़े हो गए?‘‘ - विकास ने कुछ बोलने के लिए पूछ तो लिया लेकिन डर भी गया कि कहीं अगर सन्तोष ने उसके घर और बीबी बच्चों का हाल चाल जानना चाहा तो क्या वह सच बोल पायेगा ? पिछले दस सालों मेें कोई सम्पर्क न होने के कारण जो बातें दबी छुपी थीं वह सामने आ जायेंगी इसके यहां आने से ।
‘‘रिंकू सात का है और नेहा अभी चार की है ।‘‘ - सन्तोष ने कहा और विकास का हाथ पकड़ लिया - ‘‘बट आई ऐम रिअली ग्रेट फ़ुल टु गॉड कि मंजरी सब संभाल लेती है । घर भी और बच्चे भी, मुझे तो पता ही नहीं है कि घर में क्या होता है । मैं तो बस यह जानता हूँ कि बीबी हो तो बस मंजरी जैसी हो वरना न हो ।‘‘
खिंच कर आती हंसी को सम्भालने में होंठों ने विकास का साथ छोड़ दिया क्योंकि दिमाग़ में नन्दिनी की सूरत घुस रही थी । काश वह भी कह पाता कि बीबी हो तो बस नन्दिनी जैसी वरना न हो ।
चाय और पकौड़ी आ गयी थी । ‘‘हाँ, तू बता तेरा वाला कितना बड़ा हो गया और नन्दिनी भाभी के क्या हाल हैं? वैसी ही हैं बिल्कुल स्लिम हिरोइन सी या कुछ मोटी हो गयीं? मंजरी तो मोटी हो गयी नेहा के बाद ।‘‘
‘‘तर्रण आठ का है और नन्दिनी वैसी ही है कोई अन्तर नहीं है ।‘‘ - विकास ने कम से कम शब्दों में ही कहना ठीक समझा ।
‘‘कोई अन्तर नहीं है, क्या मतलब? पहले कौन सी ख़राबी थी जो अब नहीं है या कौन सी अच्छाई थी जो अब नहीं है ? क्या बात है तू बड़ा सीरियस हो गया है ?‘‘ विकास को लगा सन्तोष ने उसके अन्दर के चोर को पकड़ लिया है उसके शब्दों से । ‘‘मुझे नन्दिनी भाभी से शिकायत करनी पड़ेगी कि उन्होंने मेरे यार को इतना बदल कैसे डाला ?‘‘
कुछ खिसियाया सा वह बोला ‘‘मुझ में कोई चेंज नहीं है । मुझे तो लगता है कि तू ही कुछ ज़्यादा बोलने लगा है ।‘‘
‘‘बोलना पड़ता है । यह मार्केटिंग की लाइन ही ऐसी है और फिर जब अल्लाह मेहरबान हो तो आदमी खिल के खुल के बोलेगा ही । पर तेरा मामला कुछ डगमगा रहा है एण्ड आई विल
हैव टु मेक सम इनवेस्टिगेशन । चल तेरा मूड ठीक करने के लिए तुझे एक ब्लाग की कापी देता हूँ मैंने आज ही प्रिन्ट किया अॉफ़िस में मंजरी को दिखाने के लिए । उसे फिर दिखा दूंगा या डाइरेक्ट नेट पर पढ़ा दूंगा । तू पहले भाभी को दिखाना और मुझे रिएक्शन बताना ।‘‘ सन्तोष ने जेब से एक कागज़ निकाल कर उसकी ओर बढ़ाया ।
विकास ने कागज़ ले उसे पढ़ने का प्रयास किया तो सन्तोष ने उसका हाथ दबा कर कागज़ मोड़ दिया । ‘‘आराम से पढ़ना भाभी के साथ । जिसने भी लिखा है बहुत बड़ा जे0डी0 है, जला दिल ।‘‘
चाय खतम हो गयी थी । विकास ने कहा - ‘‘चलो चलते हैं घर पहुँचते-पहुँचते देर हो जायेगी । पानी भी रुक गया है । मार्च में पानी, कमाल है । सब कुछ उलट पलट हो रहा है ।‘‘
‘‘चलो, चलो । मुझे भी घर देखने जाना है । तू किधर रहता है यह तो मैंने पूछा ही नहीं?‘‘
‘‘मैं रोहणी में हूँ ।‘‘ - कांपती आवाज़ से विकास ने झूठ बोला पर डर गया कि सन्तोष पकड़ न ले । गुस्सा आने लगा कि वह क्यों सहज नहीं हो पा रहा है ।
‘‘फिर तो यहीं से विदा लेते हैं । नाइस मीटिंग, अब तो एक शहर में हैं तो मिलना तो होगा ही । मैं थोड़ा सेट हो जाउ्रँ । फ़ोन पर बातें करके मज़ा नहीं आता । ओके, बाय ।‘‘ सन्तोष चला गया एक महक छोड़ कर जिसे विकास अन्दर भर लेना चाहता था ।
राजीव चौक से द्वारका की मेट्रो में बैठते ही विकास ने जेब में हाथ डाल कर वह काग़ज़ निकाला और डरते हुए पढ़ना शुरु किया - ‘‘उन्नीस सौ बयासी में ऐशियन खेलों के दौरान जब से टी0वी0 रंगीन हुआ मध्यम वर्गीय पतियों का जीवन रंगहीन हो गया । कारण यह, कि ऐसी-ऐसी रंगीन फ़ारमाइशें हैंं कि पति बेचारा लाख घूस ले और बेईमानीे करे तो भी उनको पूरा नहीं कर सकता और घर में कलह होना निश्चित ही है । बत्तीस चौकीदारों के बीच से निकल कर पत्नी की दुधारी तलवार जो वार करती है, उनको ईमानदारी की ढाल से पति बेचारा कभी भी अपने आपको बचा नहीं पाता । बिना ख़ून निकले अन्तर्मन पर हुए घाव उसे कभी-कभी जीवन लीला समाप्त करने की कगार तक पहुंचा देते हैं । उन घावों पर नमक का काम करते हैं चारित्रिक लांछनों के बांण । जिनका आत्मबल कमज़ोर होता है वे भ्रष्टाचार के दलदली रास्ते पर चल देते हैं और फिर फंसते चले जाते हैं उन भौतिक सुखों की मरीचिका में जिससे आज तक कोई निकल नहीं पाया । मज़बूत आत्मबल भले सच्चाई के रास्ते से न डिगा सके परन्तु प्रतिदिन की प्रताड़ना उसे एक निरीह प्राणी बना देती है क्योंकि उसके तर्कसंगत विचारों का पत्नी के सामने कोई भी महत्व नहीं होता । पति बेचारा रोज़ घायल होता है वाक बाणों से परन्तु अगर कभी पलट कर हाथ उठा देता हैं तो आजीवन अपनी अमानवीयता की आत्मग्लानि की पीड़ा झेलता रहता है । यदि मामला बढ़ गया तो घरेलू हिंसा नियम के अर्न्तगत जेल की हवा खाने को भी अभिशप्त होता है ।‘‘
कांपती उंगलियों से उसने तुरन्त काग़ज़ के टुकड़े-टुकड़े कर जेब में रख लिया कि बाहर निकलने पर फेंक देगा । नन्दिनी को दिखाने का तो प्रश्न ही नहीं है क्योंकि उसे इस तरह के
मज़ाक पसन्द ही नहीं आते । और फिर यह मज़ाक कहाँ यह तो एक हक़ीक़त है एक ऐसी कड़वी हक़ीक़त जिसमें उसके जैसे झुलस रहे हैं बिना आह निकाले । नन्दिनी तो फट के बरसेगी ।
विकास ने फ्लैट का दरवाज़ा खोला तो नन्दिनी की आवाज़ बेडरुम से आ रही थी । वह शायद किसी से फ़ोन पर बात कर रही थी । तरुण अपने कमरे में टी0वी0 देख रहा था और बाबूजी बालकनी को पी0वी0सी0 की चादरों से घेर कर बनाये अपने कोठरीनुमा कमरे में ही थे । दरवाज़ा खोलने आने पर हमेशा चिड़चिड़ाती नन्दिनी से छुटकारा पाने के लिए विकास अब फ़्लैट की चाबी लेकर ही अॉफ़िस जाता है । अॉफ़िस क्या कहीं भी जाए तो वह चाबी हमेशा साथ ही रखता है जिससे नन्दिनी को उठ कर दरवाज़ा खोलने की परेशानी न उठानी पड़े । यकायक उसे बाग़बान फिल्म की पूजा याद आने लगती है जो जूते की आहट पर अपने पति के लिए दरवाज़ा खोल देती थी और उसके पति यानि राज मल्होत्रा को कॉलबेल बजाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी । क्या ऐसा प्रेम फ़िल्मों तक ही सिमट कर रह गया है? नारी मुक्ति, संवैधानिक बराबरी और नारी शोषण के विरुद्ध आन्दोलनों ने जो फ़िज़ा बनायी है उसमें काम से लौटे़ घर आने वाले पति के लिए दरवाज़ा खोलना क्या केवल दासी कर्म की परिभाषा में आता है या आपसी प्रेम का संकेत है जिसमें प्रतीक्षा की घड़ियों में मिलन की मधुर कल्पना की ख़ुशबू होती है ?
नारीवादी अलख जगा रहे हैं और क्या सुखा नहीं रहे हैं सम्बन्धों की बेलों जो वर्षों से हर आंगन में लहालहा रही थी । धत् यह क्या सोंचने लगा अगर नन्दिनी को पता चला तो ऐसी चिकोटियां काटेगी की जलन जाने में सप्ताह नहीं तो कई दिन तो लग ही जायेंगे ।
तीन कमरों के इस एपार्टमेन्ट में बाबूजी कैसे एडजेस्ट होंगे यह सवाल नन्दिनी ने सबसे पहले उठाया था । दिल्ली ऐसा शहर है जहां कोई न कोई आता ही रहता है । अम्मा के स्वर्गवास के बाद बाबूजी का कानपुर में अकेले रहना सम्भव नहीं था । एक कमरा तो गेस्ट रुम रहेगा ही क्योंकि जो आएगा तो वह कहां रहेगा? एक कमरा तरुण और एक कमरा हम लोगों का, अब बाबूजी की व्यवस्था कैसे हो? नन्दिनी नहीं चाहती थी कि बाबूजी उनके पास आकर रहें परन्तु लोग क्या कहेंगे इस डर से खुल कर मना भी नहीं कर सकती थी ।
कई दिनों के सोंच के बाद नन्दिनी ने ही हल सुझाया । जो बड़ी बालकनी है उसे पी0वी0सी0 की चादरों से घेर देते हैं बाहर की तरफ़ एक खिड़की लगा देंगे हवा और रौशनी के लिए । वैसे भी पी0वी0सी0 की चादर से बहुत रौशनी आती रहती है । बालकनी है भी तो बहुत बड़ी, दस बाई पांच की । और क्या चाहिए इस उमर में ? बहुत से लोगों ने बालकनी इसी तरह घेरी हुई है और जगह का पूरा इस्तेमाल कर रहे हैं ।
विकास को झटका लगा था । बाबूजी उस पी0वी0सी0 की चादरों से घिरी बालकनी में रहेंगे और अन्दर कमरा खाली रहेगा । जब कोई आएगा तो हम लोग एडजेस्ट कर लेंगे लेकिन बाबूजी को तो सम्मान के साथ ही रखना होगा । जिन लोगों ने बालकनी घेरी है वह उसमें फ़ालतू सामान रखते हैं, कूड़ा कबाड़ा । उसमें रहते नहीं है । उसमें जगह कहां है कि कोई रह सके । और फिर बाबूजी कोई नौकर नहीं है कि कहीं भी ठूंस दिया जाए। ऐसे तो कोई नौकर भी नहीं रहेगा । वह मेरे पिता हैं जिन्होने ने मुझे पढ़ाया लिखाया और इस योग्य बनाया कि मैं सुख से रह सकूं । किस योग्य बनाया कि चार कमरों का घर भी नहीं ले सकते, नन्दिनी ने कटाक्ष मारा । गर्मी भी कितनी होगी बालकनी में विकास ने कहा था । गर्मी तो तीन महीने की होती है एक
कूलर लगा देना ठंडक हो जाएगी । वैसे भी कौन सी गर्मी बची है बदन में जो बाहर की गर्मी असर करेगी । जितनी गर्मी होगी हडि्डयां मज़बूत रहेंगी । बहस और इन दलीलों में हमेशा की तरह नन्दिनी ही जीती और वही हुआ जो वो चाहती थी ।
शर्म से डूब गया था विकास जिस दिन बाबूजी ने बालकनी में अपनी एक अटैची टिकायी थी । बड़ी देर उसने निगाहे नहीं उठायीं और शान्त खड़ा रहा । बाबूजी को समझते देर नहीं लगी इस व्यवस्था के पीछे वह निमर्म सत्य है जिसे आज की पीढ़ी झेलने को मजबूर सी है । कहां कमी रह गयी और कौन करेगा इस पर शोध ? कोई भी सामान वहां कानपुर से नहीं आएगा सिर्फ़ उनके कपड़ों के क्यों कि यहां रखने की जगह नहीं है, यह फ़रमान नन्दिनी ने पहले ही जारी कर दिया था । फिर विकास हिम्मत नहीं जुटा पाया कि बहस को आगे बढ़ाए । घर की शान्ति के लिए समझौता, बेटे को सौहार्द पूर्ण माहौल देने के लिए समझौता और रात भर सो सके जिससे अगले दिन फिर से सबके लिए रोटी के प्रबन्ध के लिए जुड़ी जिन्दगी की जद्दोजहद के लिए समझौता । बस वह समझौते ही करता चला गया नन्दिनी के अतार्किक व्यवहार को लेकर । यह समझौतावादी दृष्टि कोण उसके अस्तित्व को लील जाएगा ऐसा उसने कभी सोंचा न था । अब तो बहुत देर हो चुकी है हालात में किसी प्रकार के बदलाव के लिए । विद्रोह वह भी अपने ही घर में अपनी नन्दिनी के विरुद्ध यह कैसे हो सकता है ? घर के बाहर एक अनुशासन प्रिय, मेहनती और ईमानदार विकास घर आकर नन्दिनी के सामने बस मेमना बन जाता उसकी जीभ की तलवार से हरदम कटने को हाज़िर ।
अन्दर आते ही हमेशा की तरह विकास बालकनी की ओर मुड़ गया जहां बाबूजी अपने दीवान नुमा छः फु़ट बाई ढाई के स्पेशल साइज़ बेड पर अधलेटे कोई पत्रिका पढ़ रहे थे । एक कोने में रैक पर उनकी किताबें लगी थीं और पास ही एक अटैची रखी थी । गर्म कपड़े और उनकी रज़ाई उस दीवान नुमा बेड के अन्दर रखी गयी थी । स्टूल पर एक सुराही में पानी और एक गिलास । बस यही है उसके पिता की गृहस्थी अम्मा के जाने के बाद । बाबूजी अधिक तर सुराही पसन्द करते हैं जिससे बार-बार फ्रिज खोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । एक ग्लानि, एक संताप घिर रहा था मन में उन स्थितियों के प्रति जो उसने शान्ति के बदले पैदा कर दीं थीं । एक पिता अपने पुत्र के घर में सम्मान पूर्वक नहीं रह सकता क्योंकि पुत्र वधू एक कमरा आने वाले मेहमानों के लिए रिजर्व रखना चाहती है । नन्दिनी बाबूजी को इस बात की स्वतंत्रता नहीं दे सकी कि वह घर में सबके साथ बैठ सकें, इसीलिए उनका अधिकतर समय अपने बेड पर या फिर सुबह नीचे पार्क में हम उम्र लोगों के साथ बतियाने में बीतता है । शाम को पार्क में वह नहीं जा सकते क्योंकि विकास घर पर नहीं होता है और नन्दिनी को दरवाज़ा खोलना बन्द करना अखरता है । इसीलिए आफ़िस से लौट कर विकास सीधा उनके पास बालकनी में आ जाता है । कुछ देर उनके पास बैठ कर ही कपड़े चेंज कर नन्दिनी के साथ चाय पीते वक़्त तरुण की पढ़ाई के विषय में बातें प्रारम्भ होती हैं । बात क्या होती है? हमेशा एक जैसा प्रलाप कि वह घर पर बैठे बोर हो रही है और विकास को उसका कोई ध्यान ही नहीं है ।
तुम अपने को व्यस्त रखने के लिए कुछ करती क्यों नहीं ? विकास ने कई बार कहा परन्तु नन्दिनी की रुचि किस काम में है यह वह आज तक समझ नहीं पाया । कितने गर्व से कह रहा था सन्तोष कि बीबी हो तो मंजरी जैसी । सब की सब बीबियां तो नन्दिनी जैसी नहीं होतीं ? फिर उसके पल्ले यह कहां से पड़ गयी । उसके घर में किसी को भी कोई अपेक्षा नहीं थी । दहेज़ का कोई मुद्दा कभी नहीं रहा कि वह अपने बाप के पैसे पर इतरा रही हो ।
नन्दिनी को आपत्ति है कि उसकी प्राथमिकता तरुण क्यों नहीं ? तरुण के आगे भविष्य है और बाबूजी, उनका क्या कोई भविष्य है जिसके विषय में सोंचा जाए ? जो भी हो इसी एक प्वाइंट पर विकास ने समझौता नहीं किया और हमेशा पहले बाबूजी के पास बैठने का क्रम लाख उलाहनों के बाद भी जारी है । तरुण भी यदाकदा इंगलिश ग्रामर, हिस्ट्री और ज्योग्राफ़ी समझने के लिए उनके पास जाता रहता है और बाबूजी अत्यधिक प्रसन्नता से उसे समझाते हैं । यही उनका पारिवारिक सम्पर्क है । चाय-नाश्ता और खाना वह अपने बालकनी नुमा कमरे में ही करते हैं । नन्दिनी को उनका नाक सुड़कना और एक पैर मोड़ कर कुर्सी पर रखना अच्छा नहीं लगता है । जिस परिवेश में बाबूजी पले बढ़े उसमें डाइनिंग टेबिल पर खाने का चलन नहीं था । सब चौके मेंं पैर मोड़ कर आराम से बैठ कर खाते थे । वही आदत उनकी बनी रही और इसीलिए कभी-कभी वे पैर मोड़ कर कुर्सी पर रख लेते थे । बढ़ती उम्र में किसी व्यक्ति को यदि दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अपनी जीवनचर्या बदलनी पड़े तो वह स्वयं प्रसन्न नहीं रह पाएगा । हो सकता है कि जीवन की श्ोष घड़ियां ही दूभर हो जायें ।
बरेली से आए पड़ोसी सक्सेना साहब क्या इसी तरह घिर गए थे अपनी बहू के नियमों में, जो पत्नी की मृत्यु के छः महीने बाद घूमने निकले तो फिर लौट कर ही नहीं आए ? कुछ अता पता ही नहीं चला आज तक । बाबूजी भी कहीं घिर तो नहीं रहे हैं जिसकी परणति भयानक हो ?
पता नहीं यह कौन से नियम बना दिये हैं कि एक औरत ही सतायी हुई दिखती है लेकिन बन्द दरवाज़ों के पीछे वह जो करती उसे कोई नहीं देख पाता । क्यों है नन्दिनी ऐसी ? क्या कोई गांठ है कहीं जो वह अपनी ज़बान पर कोई नियन्त्रण नहीं रख पाती ? हर समय फिज़ूल की बातों पर उलझना और अपनी सुप्रीमेसी सिद्ध करना । जीवन एक धधकती मांद बन गया है ।
वाक बांण यही तो हथियार है एक स्त्री के पास जिसे वह जी भर प्रयोग कर रही है । इसे प्रयोग नहीं दुरुपयोग कहना ही उचित होगा क्योंकि किसी भी वस्तु का प्रयोग हानिकारक नहीं होता वरन् दुरुपयोग होता है । यह दुरुपयोग सत्ता का हो, अधिकार का हो या हथियारों का ।
‘‘आज जानती हो कौन मिला?‘‘ - विकास ने खाना खाने की मेज़ पर बैठते हुए कहा । नन्दिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो वह चुप ही रहा । लोगों से मेल जोल का दायरा इसीलिए सिमट गया है क्योंकि जैसे आप हर दिन आप अपने घर में रहते हैं और व्यवहार करते हैं वह आपके चेहरे पर लिखा होता है और किसी से छिप नहीं सकता । सन्तोष ने अगर द्वारका में घर ले लिया और किसी दिन मेट्रो पर टकरा गया तो उसका झूठ पकड़ा जायेगा । और कहीं अगर वह घर आने को कहने लगा और आ ही गया तो वह तो हंसता रहेगा और नन्दिनी शामिल नहीं होगी किसी बात में । फिर बाबूजी जिस हालात में रह रहे हैं यह देख कर वह क्या सोंचेगा ?
‘‘पापा कौन मिला, आपने बताया नहीं‘‘ - तरुण ने पूछ लिया ।
बिना नन्दिनी की ओर देखे विकास ने कहा - ‘‘बेटे, वह मेरे बचपन के एक दोस्त है सन्तोष अंकल वह मिल गये कनाटप्लेस में । उनका ट्रांसफर यहां दिल्ली हो गया है । हम लोग साथ पढ़ते थे कानपुर में । अपनी-अपनी सर्विस के कारण अलग शहरों में चले गए । आज दस साल बाद मुलाक़ात हो गयी ।‘‘
‘‘वह नचनियां, गपोड़ी । मुझे तो उसकी शक्ल से भी नफ़रत है ।‘‘ - नन्दिनी ने ऐसी कटार चलायी कि तरुण की समझ में कुछ नहीं आया ।
‘‘संतोष अंकल में क्या बुराई है ? पापा के दोस्त हैं मैं भी उनसे मिलूंगा ।‘‘
‘‘तुम खाना खाओ और पढ़ने चलो ।‘‘ - नन्दिनी ने वार्तालाप पर पूरा नियन्त्रण कर दिया और हमेशा की तरह एक सन्नाटे में घिरे परिवार के तीन सदस्य पेट में निवाले डालने लगे ।
रविवार के कारण बाज़ारों में ज़्यादा भीड़ होती है । पार्किंग में कार लगा कर विकास ने सामान की लिस्ट निकाली और कुछ क्षण रुक लिस्ट देखते यह सोंचने लगा कि ख़रीदारी किधर से प्रारम्भ करे । सोंच को करेंट लगा चार सौ चालीस वोल्ट का जब परिचित उंगलियों ने कमर में गुदगुदी कर दी । सन्तोष से उसने झूठ कहा था कि वह रोहिणी में रहता है । इतनी जल्दी झूठ पकड़ा जायेगा इसकी उसे आशा नहीं थी । अभी दस दिन की ही तो बात है जब सन्तोष मिला था रीगल के बरामदे में । यहां द्वारका में मिल रहा है इसका अर्थ है कि उसने वह फ्लैट ले लिया है जिसके विषय में वह बात कर रहा था ।
‘‘यहां क्या कर रहे हो बाबू ? रोहणी से सामने लेने द्वारका इतनी दूर ? तुमने जिस तरह कहा था कि रोहिणी में रहते हो मैं उसी से ही समझ गया था कि तू कटना चाहता है । मैं उसी मेट्रो की पिछली बोगी में था जो तूने राजीव चौक से पकड़ी । शादी के बाद दोस्तों से कटने के कारण केवल दो ही होते हैं कि या तो आप कोई ग़लत काम कर रहे हैं या पत्नी के साथ आपकी टयूनिंग वह नहीं है तो एक पत्नी के साथ होनी चाहिए । अगर पत्नी के साथ टयूनिंग ठीक नहीं है तो आप अवसाद से घिरे रहते हैं और यही उस ब्लाग का मर्म था जो मैंने तुम्हें दिया था । मैं जानता हूँ कि तुमने वह नन्दिनी भाभी को नहीं दिखाया । मैं भी नहीं दिखाता क्योंकि मेरा भी हाल वही है जो तुम्हारा है ।‘‘
‘‘सन्तोष, यह बात नहीं है .......‘‘
‘‘यह बात न वो बात । है बात तो सिर्फ़ यह कि तुम अकेले नहीं हो जो घिरे हो तल्ख़ शब्दों के जाल में । तुम्हारे जैसे बहुत हैं लेकिन तुमने इसे अपनी नियति मान लिया है, यही ग़लत है और यह एक पुरुष के आचरण के अनुरुप नहीं है । यह बाबा सन्तोषानन्द का विचार है ।‘‘
‘‘तुम भी‘‘
‘‘हाँ, मैं भी उसी तरह जिह्नया रुपी तलवार के ज़ख़्मों से घायल होता रहता हूँ । अभी अपने देश में, अपवादों को झोड़ कर स्त्री इतनी शक्तिशाली नहीं हुई है कि शरीर को ज़ख़्म दे सके इसलिए सिर्फ़ मन ही घायल होता है । मैंने वह ब्लाग का पेज जो तुम्हें दिखाया था वह मैंने ही लिखा है और तुम से झूठ बोला था कि मंजरी को दिखाने के लिए प्रिन्ट लिया है ।‘‘
‘‘तुम कैसे हंस लेते हो इतना ?‘‘
‘‘मेरा ज़्यादा हंसना एक बीमारी है यह मैं जानता हूँ । तुम भी बीमार हो गए हो और एक ख़ामोश, अंधेरी सुरंग में घुसते जा रहे हो । तुम्हारी बीमारी मेरी बीमारी से ज़्यादा घातक हो सकती है अगर समय पर इलाज नहीं किया गया । वैसे इलाज है भी नहीं सिवा इसके कि हम श्ोयर करें अपने मन के बोझ को बिना किसी को चोट पहुँचाए ।‘‘
‘‘इन लोगों को यह समझना चाहिए कि बिना कारण ....‘‘
‘‘तुम दूसरों को समझाने के चक्कर में मत पड़ो । कारण जानने के लिए भी सर खपाने की ज़रुरत नहीं है । जो क्षण तुम्हारे अपने हैं उन्हें अपने तरीके़ से जीओ । किसने कहा काले बादलों के डर से घर के बाहर ही न निकला जाए । बादल बरसेंगे तो भीग जायेंगे । जब बरसना बन्द होंगे तो सूख जायेंगे । यह सामने का पार्क हमारा है रोज़ शाम को यहां मिलो तो फिर मैं तुम्हें दिखाता हूँ, दिखाता क्या मिलाता हूँ उन ढेरों फंसी, घिरी आत्माओं से जिन्होंने मुझे वह ब्लाग लिखने के लिए प्रेरित किया । ऐसी आत्मायें देश के हर शहर में हैं । कानपुर, जयपुर, भोपाल हो या दिल्ली, हर शहर में हैं चूहे और बिल्ली । मैं फंसी, घिरी आत्माओं को मुस्कुराहटों के महत्व को समझा कर कुछ क्षणों के लिए ही सही अंधरी सुरंग से निकालना चाहता हूँ, समझे मेरे यार ।‘‘
विकास को लगा कि व्यर्थ ही वह नन्दिनी के आगे कमज़ोर पड़ रहा था । सन्तोष एक ऐसी महक की लहर है जो उसे सुरंग के अंधेरों से बाहर आने का निमन्त्रण दे रही है ।
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(शैलेन्द्र नाथ कौल)
(अक्टूबर-दिसम्बर 2013 के ‘‘इरावती‘‘ में प्रकाशित)
वाह... उम्दा कहानी ...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी