राम नरेश उज्ज्वल जंगी पूरा जंगली था। ज्यादातर जंगल में ही रहता। पशु-पक्षियों का शिकार करता। उन्हें पका कर खाता। इस काम में उसे बड़ा म...
राम नरेश उज्ज्वल
जंगी पूरा जंगली था। ज्यादातर जंगल में ही रहता। पशु-पक्षियों का शिकार करता। उन्हें पका कर खाता। इस काम में उसे बड़ा मजा आता।
उसके परिवार के लोग समझाते-‘‘देखो,जीव-जन्तुओं को मारना पाप है। इनमें भी हम लोगों की तरह जान होती है। इन्हें दर्द होता है। इन्हें भी जीने का अधिकार है। इन्हें मारना-खाना ठीक नहीं।''
‘‘इन्हें दर्द होता है,तो मैं क्या करूँ ? मुझे इनका गोश्त अच्छा लगता है। ये जब तड़प-तड़प कर मरते हैं, मुझे बहुत मजा आता है।''
वहीं पर एक चुहिया फुदक-फुदक कर खेल रही थी। जंगी की नजर उस पर पड़ गयी। उसने झपट कर उसे पकड़ लिया। चुहिया चीं-चीं करने लगी।
जंगी ने उसकी पूँछ बाँधकर उल्टा लटका दिया। नीचे आग जला दी। चुहिया चीं-चीं कर रही थी। जंगी उसे घुमा-घुमा कर आग की लौ में पका रहा था। कुछ देर में चुहिया शान्त हो गई।
अब नरम-नरम गोश्त पककर तैयार था। जेब में वह हर समय नमक-मिर्च की पुड़िया रखता ही था।
जंगी आज जंगल में भटकते-भटकते काफी दूर निकल आया। अभी तक कोई शिकार नहीं मिला था। चारों तरफ सन्नाटा था। नजरें शिकार ढूँढ रही थीं।
उसी समय जंगी की कनपटी पर वार हुआ। वह धड़ाम् से जमीन पर मुँह के बल गिर गया। जैसे ही उठने लगा, फिर वार हुआ। जंगी धूल चाट गया। किसी ने उसकी पीठ पर भारी-भरकम पैर रख दिए। जंगी कराहने लगा।
‘‘क्यों बे, पुलिस का आदमी है ?''एक कड़कती हुई आवाज सुनाई दी।
जंगी की साँस फूल रही थी। बड़ी मुश्किल से बोल पाया-‘‘नहीं।''
‘‘फिर यहाँ क्या कर रहा है?''वही आवाज आई।
‘‘शिकार करने''......जंगी की बात अधूरी रह गई।
‘‘साले!शिकार के बच्चे।''एक जोरदार लात पड़ी। जंगी लुढ़क गया। उसके सामने आठ-दस काले-कलूटे आदमी खड़े थे। जंगी ने उन्हें देखकर अंदाजा लगाया-‘हो न हो ये लुटेरे ही होंगे। यही गाँवों में अक्सर लूट-पाट मचाते हैं। पुलिस भी इनकी तलाश में रहती है।'
जंगी ने पीछा छुड़ाने की गरज से कहा-‘‘माफ कर दीजिए,फिर नहीं आऊँगा।''
एक कलूटे आदमी ने जंगी के सीने पर पैर रखते हुए कहा-‘‘हम अपना शिकार छोड़ते नहीं बच्चू।''
जंगी थर-थर काँप रहा था। लुटेरों ने उसे मजबूत रस्सी से बाँध दिया। वह हिल भी नहीं सकता था। एक कलूटे ने जंगी की तलाशी ली। नमक-मिर्च के अलावा कुछ नहीं मिला। उसे गुस्सा आ गया। उसने जंगी के पाँव में चाकू से चीरा लगा दिया। जंगी बड़ी जोर चीख पड़ा।
दूसरे कलूटे ने जंगी के मुँह में कपड़ा ठूँस दिया,कहा-‘‘चीखना मत।''
पहले कलूटे ने जंगी के जख्म में नमक-मिर्च भर दिया। जंगी अन्दर ही अन्दर चीख कर रह गया। आवाज बाहर नहीं निकाली। दोनों कलूटों ने कहा-‘‘शाबाश!''
फिर उन्होंने जंगी को उठा कर घोड़े की पीठ पर लाद दिया। जंगी की आँखों में डर देखकर सब एक साथ हँसने लगे। जंगी के मुँह में कपड़ा ठुँसा था,वरना उसकी चीख फिर निकल जाती।
एक कलूटे ने घोड़े को थोड़ी दूर जाकर ही लाठी से कोंचा। वह दौड़ने लगा। जंगी ने डर कर आँखें बन्द कर लीं। जंगी घोड़े से नीचे गिर गया। उसने आँखें खोलीं। घोड़ा वापस जा रहा था। वह एक गड्ढे में गिरा पड़ा था।
जंगी खूब कसमसा रहा था। रस्सी मजबूती के साथ बँधी थी। तभी आसमान में हजारों गिद्ध मँडराने लगे।
धीरे-धीरे गिद्ध नीचे उतर आए। जंगी ने सोचा-‘अरे! ये तो मुझे मुर्दा समझ रहे हैं।' चार-पाँच गिद्धों ने उसे चोंच मारना शुरू कर दिया। जंगी जोर-जोर से चीख रहा था। मगर आवाज बाहर नहीं आ पा रही थी। मुँह में कपड़ा जो ठुँसा था।
‘मैं हिल भी नहीं सकता हूँ। नहीं तो गिद्ध जान जात,े कि मैं जिन्दा हूँ। तब ये सब दुम दबा कर भाग जाते।' जंगी सोच रहा था-‘रोज मैं इनका शिकार करता था,आज ये मेरा शिकार कर रहे हैं।'
जंगी का मांस खाने के लिए गिद्ध लड़ रहे थे। एक गिद्ध जंगी के मुँह पर बैठ गया। जंगी दोनों आँखों से उसे टुकुर-टुकुर निहार रहा था। गिद्ध भी इधर-उधर मुँह घुमा-घुमा कर उसकी चलती-फिरती आँखें ताक रहा था।
‘कहीं यह मेरी आँखें तो नहीं खाना चाहता ?' जंगी ने यही सोचकर आँखें मूँद लीं। वह लहू-लुहान हो गया था। गड्ढा भी जैसे नाप कर बनाया गया था। जंगी उसमें लुढ़क भी नहीं सकता था। करवट बदलने की उसकी सारी कोशिशें बेकार हो गईं ।
जंगी के हाथ-पैर बँधे थे । वह मन ही मन गिड़गिड़ा रहा था-‘भगवान, अबकी बचा लो। अब जीव-जन्तुओं का शिकार नहीं करूँगा।'
उसी समय हाथ के पास कुछ गुलगुल-गुलगुल महसूस हुआ। जंगी ने सोचा-‘लगता है,शायद भगवान आ गए।'
एक गिद्ध जंगी के कान खींचने लगा। जंगी अन्दर ही अन्दर बिलख पड़ा-‘हे भगवान,मुझे मुर्दा करके ही मानोगे क्या ?'
थोड़ी देर बाद उसने कुछ ढीलापन महसूस किया। लगा,जैसे हाथ खुल गए। जंगी ने हाथ निकालने की कोशिश की, फटाक् से हाथ बाहर आ गए। जंगी ने पहले मुँह से कपड़ा निकाला,फिर चीख पड़ा।
सारे गिद्ध मुर्दे को जिन्दा देखकर भाग खड़े हुए। जंगी कराहते हुए उठ गया। अपने शरीर के सारे बंधन खोल डाले। फिर घूमकर गड्ढे में देखने लगा। एक छोटी सी चुहिया फुदक रही थी। वह बड़ी खुश थी।
जंगी समझ गया-‘इसी की वजह से मेरी जान बची।'
जंगी को उस नन्हीं चुहिया में एक दयावान और समझदार आत्मा दिखाई पड़ रही थी। उसकी आँखों से आँसू बह चले। वह उसे उठाकर चूमने लगा। चुहिया भी पूँछ हिला रही थी,जैसे जंगी की भावनाएँ समझ रही हो।
‘अब मैं किसी जीव का शिकार नहीं करूँगा।' जंगी ने मन ही मन निश्चय किया और चुहिया को गड्ढे में छोड़ दिया। चुहिया पूँछ हिलाती हुई अपने बिल में घुस गई।
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- राम नरेश ‘उज्ज्वल'
मुंशी खेड़ा,
पो0-अमौसी एयरपोर्ट,
लखनऊ-226009.
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