राक्षसी छछूंदर मैं भी उन्हीं लोगों में से हूँ जिन्हें एक साधारण छछूंदर को देख बेहद घिन होने लगती है, लेकिन हमारे इलाके के गाँवों में कुछ ...
राक्षसी छछूंदर
मैं भी उन्हीं लोगों में से हूँ जिन्हें एक साधारण छछूंदर को देख बेहद घिन होने लगती है, लेकिन हमारे इलाके के गाँवों में कुछ वर्षों पूर्व दिखी राक्षसी छछूंदर को देखकर तो उनकी साँस ही रुक जाती, जिसके कारण एक प्रकार की प्रसिद्धि ही हमारे इलाके को मिल गई थी। आज वह सब लोग भूल चुके हैं और वह घटना धुँधलके में चली गई है और जो स्वतः भी अस्पष्ट रही आई है। लेकिन यह तो स्वीकारना ही होगा कि जनसामान्य ने समझने की भरसक कोशिश की थी और इसीलिए उस वर्ग ने जिसने पूर्णतः उदासीनता दिखलाई थी, जिन्हें वास्तव में पूरी रुचि लेनी चाहिये थी और जो पता नहीं कितनी ढेरों छोटी-छोटी बातों में उत्साहपूर्वक कार्य दिखलाते रहे हैं, परिणामस्वरूप यह पूरा मामला बिना किसी जाँच के भुलाया जा चुका है। यह सच है कि गाँव तक रेल से पहुँचा नहीं जा सकता, इस बहाने को तो स्वीकार नहीं किया जा सकता। बहुत बड़ी संख्या में लोग बहुत दूर-दूर से मात्र उत्सुकतावश यहाँ आए थे, उनमें कुछ विदेशी भी सम्मिलित थे, यह अवश्य है कि वे लोग अवश्य ही नहीं आए जिनमें कुछ करने की क्षमता थी। सच तो यही है कि यदि कुछ सीधे-सादे साधारण सामान्य लोगों ने, ये ऐसे लोग थे जिनकी दिनचर्या में एक मिनट की भी फुर्सत नहीं हो-ऐसे लोगों ने बिना किसी विशेष रुचि होने के बावजूद यदि रुचि नहीं दिखलाई होती तो यह प्राकृतिक घटना स्थानीय सीमा के बाहर तक भी नहीं जा पाती। सच यही है कि अफवाहों को तो बाँध कर रखा नहीं जा सकता, इस मामले में गति पर्याप्त धीमी थी, यदि इसे वास्तव में जोरदार धक्का
दिया जाता तो यह फैलती ही नहीं। इस मामले की जाँच के लिए मात्र इतना ही पर्याप्त न था, इसके विपरीत इस दूसरी घटना की भी जाँच या परीक्षा अवश्य ही की जानी चाहिए थी। बहरहाल हुआ यह कि बूढ़ा स्कूल शिक्षक ही बचा रह गया था जिसने इस घटना को विस्तार से लिख डाला हालाँकि वह अपने व्यवसाय में पर्याप्त बुद्धिमान था, किन्तु सीमित गुण और साधनों से उसके लिए यह असम्भव था कि वह कोई विस्तृत वर्णन उस घटना का कर सके और जो कालान्तर में दूसरों के लिए आधार का काम कर सके। उसका छोटा-सा पेम्फलेट प्रकाशित हुआ और उसकी कुछ प्रतियों को गाँव में बाहर से आनेवालों को बेचा भी गया था, परिणामस्वरूप कुछ जन-स्वीकृति भी प्राप्त हुई थी, लेकिन शिक्षक इतना बुद्धिमान तो था कि यह समझ लेता कि उसके श्रम को जिसमें किसी का कोई योगदान नहीं था, वास्तव में मूल्यहीन ही है। किन्तु इसके बावजूद वह शान्त नहीं बैठा रहा और अपने जीवन भर के कार्य पर प्रश्न-र्चिी लगाता रहा, हालाँकि साल-दर-साल वह और अधिक व्यर्थ होता गया, यह मात्र यही तो प्रदर्शित करता है कि उस राक्षसी छछूंदर का मात्र दिखना ही कितना प्रभावशाली था और दूसरी ओर एक अनजान से गाँव के बूढ़े शिक्षक के विश्वास और श्रम में देखा जा सकता है। लेकिन उसने कितनी आन्तरिक वेदना और कष्ट सहा होगा उस समय तक जब सभी लोग यह भी भूल चुके होंगे कि वह पेम्फलेट था किस विषय पर। उसके पहले पेम्फलेट या ब्रोशर के साथ अधिकारियों ने जो ठण्डा व्यवहार किया था, जिसे उसने कई वर्षों के बाद तैयार किया था। इस ब्रोशर में उसने शिकायत की थी लोगों की समझदारी पर, जबकि उसे इसकी कतई आशा नहीं थी, उसमें शिकायतें थीं, जिस पर उसे पूरा विश्वास था। ऐसे लोगों के विषय में उसमें लिखा था, “वह मैं नहीं हूँ, वरन ‘वे' ही हैं जो गाँव के बूढ़े शिक्षक की तरह बात करते हैं।” इसके साथ ही उसने एक विद्वान का कथन भी लिखा था, जिनसे उसने इस विषय पर सम्पर्क किया था। उस विद्वान का नाम तक नहीं बतलाया गया था, किन्तु विभिन्न परिस्थितियों को देख हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि वे थे कौन? शिक्षक कई बाधाओं के बाद जब उससे मिला था तो जिस ढंग से उसका स्वागत किया उससे उसे अहसास हो गया कि वे उक्त विषय में पहले से ही पूर्वग्रस्त है। जिस निस्पृह रुचि के साथ उन्होंने वह लम्बी रिपोर्ट सुनी थी जिसे शिक्षक ने हाथ में लिए पेम्फलेट से पढ़कर सुनाया था, उसकी परख तो उसी एक वाक्य से हो जाती है जो उन्होंने शिक्षक के बोलने के बीच में कुछ पल रुकने पर कहा था ः “आपके इलाके की काली मिट्टी तो पर्याप्त उपजाऊ है, है न, उसी से छछूंदरों को पर्याप्त ऊर्जा मिल जाती है और इसीलिए वे असामान्य रूप से बड़ी हो जाती है।”
“लेकिन इतने विशाल आकार की तो कतई नहीं!” शिक्षक ने कहते हुए दीवार की दो गज की लम्बाई को हाथ से बतलाते हुए कहा था। अपनी निराशा में उसने छछूंदर की लम्बाई कुछ ज्यादा ही बतला दी थी। “ओह! लेकिन क्यों नहीं?” स्कालर ने सहजता से उत्त्ार दिया था, जो इस पूरे मामले को एक मज़ाक से ज्यादा अहमियत नहीं दे रहा था। इस निष्कर्ष के साथ ही शिक्षक अपने घर-गाँव लौट आया था। वह बतलाया करता है कैसे उसकी पत्नी और छै बच्चे सड़क के किनारे बर्फ में बैठे उसकी राह देखते बैठे रहे थे और कैसे उसने उन्हें अपनी आशाओं पर तुषारापात की सूचना दी थी।
जब मैंने बुजुर्ग के प्रति स्कालर के बारे में पढ़ा था, तब तक मैंने वह पेम्फलेट न तो देखा था और ना ही पढ़ा था। लेकिन तभी मैंने यह निर्णय कर लिया था कि इस मामले से सम्बन्धित सभी तथ्यों को मैं एकत्र करूँगा। यदि मैं स्कालर के विरुद्ध शारीरिक शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता तो कम से कम शिक्षक के पक्ष में लिख तो सकता ही हूँ, नहीं शायद यह कहना अधिक सही होगा कि मैं एक ईमानदार सीधे-सादे साधारण व्यक्ति के सद्उद्देश्य को तो प्रस्तुत कर ही सकता हूँ। आज मुझे स्वीकारने में कोई शर्म नहीं है कि इस निर्णय पर मुझे बाद में पछताना पड़ा था क्योंकि कुछ ही समय बाद और कुछ कदम बढ़ने के बाद ही विचित्र-सी परेशान करने वाली दुखद स्थितियों से मुझे दो-चार होना पड़ा था। एक ओर तो मेरा व्यक्तिगत प्रभाव विद्वत्जनों में नहीं था, दूसरे सामान्य जनता को शिक्षक के पक्ष में कर सकने की सामर्थ्य भी मुझमें नहीं थी, साथ ही शिक्षक को बहुत जल्दी ही यह पता चल जाएगा कि मेरी रुचि उसके वास्तविक उद्देश्य अर्थात् विशालकाय छछूंदर के अस्तित्व में नहीं थी जिसे बड़ी संख्या में लोगों ने देखा था, वरन् मात्र उसके ईमानदार प्रयास पर ही केन्द्रित है- और इसके लिए किसी गवाही की आवश्यकता ही नहीं है, उसकी तो यही मान्यता थी और इसलिए जो होगा वह कुछ इस प्रकार होगाः शिक्षक मेरे उद्देश्य की गलत व्याख्या करेगा, हालाँकि मेरा उद्देश्य उसके निष्कर्षों को मैं अन्य सबूतों के द्वारा सिद्ध करूँगा और बजाय उसकी सहायता करने के मुझे स्वयं सहायता की आवश्यकता होगी, जो स्वाभाविक है मुझे प्राप्त नहीं होगी। इसके साथ ही मेरा यह निर्णय मुझ पर काम का अतिरिक्त बोझ भी डालेगा। यदि मैं सामान्य लोगों को विश्वास दिलाना चाहता हूँ तो मुझे शिक्षक को अलग रखना ही होगा, क्योंकि वह स्वयं उन्हें विश्वास दिलाने में असमर्थ रहा है। उसके लिखे पेम्फलेट को पढ़कर तो मैं भटक जाऊँगा, यही सोच-विचारकर मैं उसे पढ़ने से बचता रहा हूँ, कम से कम जब तक मैं अपना काम पूरा नहीं कर लेता। यही नहीं शिक्षक से व्यक्तिगत मुलाकात भी मैंने नहीं की। हालाँकि सच यह है कि उसे मध्यस्थों से मेरी पूछताछ के बारे में पता चल गया था, लेकिन उसे इसका कोई अन्दाज़ नहीं है कि मैं उसके पक्ष में काम कर रहा हूँ या विरोध में। सम्भावना तो इसी की अधिक है कि वह यह मान रहा है कि मैं उसके विरोध में हूँ, हालाँकि बाद में उसने इससे इन्कार कर दिया था किन्तु मेरे पास इसके पर्याप्त प्रूफ हैं कि उसने मेरी राह में बहुत-सी बाधाएँ खड़ी की थीं। और यह करना उसके लिए बेहद सहज था, क्योंकि मेरी मजबूरी थी कि मैं सभी उपलब्ध जानकारियों को नए सिरे से एकत्र करूँ जो उसके पास पहले से ही थीं। स्वाभाविक है वह मुझसे आगे था। यही एकमात्र दोषारोपण मुझ पर किया जा सकता था, लेकिन आत्म स्वीकृति में मैं यही कह सकता हूँ कि यही एकमात्र सावधानीपूर्ण तरीका था जिससे मैंने अपने कुछ निष्कर्ष निकाले और उनमें से कुछ सितारों की तरह चमकने लगे। लेकिन उनके अलावा मेरा पेम्फलेट शिक्षक से पर्याप्त प्रभावित था। लेकिन सच यह था कि इस दृष्टिकोण से देखने पर मेरे शब्दों को पढ़ कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता था कि इसके पहले इस विषय पर किसी ने कोई जाँच नहीं की है और मैं पहला व्यक्ति था जिसने उन लोगों से सम्पर्क किया जिन्होंने छछूंदर को देखा था या उसके बारे में सुना था, मैं ही वह पहला व्यक्ति था जिसके सबूतों और गवाहों से संबंध स्थापित किया, साथ ही जिसने निष्कर्ष भी निकाले थे। इसके बाद जब मैंने शिक्षक का पेम्फलेट पढ़ा तो उसका शीर्षक परिस्थितिसूचक था - “एक छछूंदर इतनी विशाल जितनी इसके पहले कभी देखी ही नहीं गई” - मुझे पढ़कर ऐसा ही लगा था। हम दोनों ही अपने प्रमुख बिन्दुओं पर एकमत नहीं थे, हालाँकि हम दोनों ने ही अपनी उपपत्ति को सिद्ध किया था- छछूंदर के अस्तित्व को। सोच के इस अन्तर में शिक्षक के साथ मेरे दोस्ताना सम्बन्ध स्थापित होना सम्भव ही नहीं था, हालाँकि व्यक्तिगत स्तर पर विरोधाभासों के बावजूद मैं उनसे अच्छे सम्बन्ध का पक्षधर था। जहाँ तक उनका प्रश्न था वे विरोधी या शत्रुतापूर्ण भावना से भरे हुए थे। यह सच है कि वे मुझसे सदैव सम्मान और विनम्रता के साथ मिलते रहे, लेकिन इसी के चलते उनकी वास्तविक भावनाएँ और स्पष्ट दिखने लगती थीं। दूसरे शब्दों में उनकी राय में मैंने उनकी विश्वासनीयता को हानि पहुँचाई है जबकि मेरे विचार से मैं उनकी सहायता कर रहा था - यह सहजता का श्रेष्ठतम रूप है, लेकिन वास्तव में कुछ अधिक धृष्टता या चालाकी भरी है। वे प्रायः ही यह कहा करते थे कि उनके पूर्व शत्रुओं ने तो विरोध प्रकट किया था अथवा पूरी तरह उपेक्षा की थी या फिर प्राइवेट में मात्र शब्दों द्वारा प्रकट किया था, जबकि मैंने अपने विरोध को सीधे-सीधे प्रकाशित ही कर दिया। उनके कुछ विरोधियों ने जो इसी विषय पर भले ही केन्द्रित रहे थे भले ही दिखावे के लिए, उन सबने उन्होंने कम से कम शिक्षक की राय को सुना तो था अपनी राय प्रकट करने के पहले, जबकि मैंने अपने अत्यवस्थित ढंग से एकत्र और गलत ढंग से समझे सबूतों के सहारे निष्कर्ष भी प्रकाशित करा दिए थे, भले ही वे प्रमुख विषय पर केन्द्रित थे, उनसे जनता और पढ़े-लिखे लोगों में अविश्वसनीयता ही फैलेगी। किन्तु छछूंदर के अस्तित्व को ले जो संकेत दिए गए थे, वे विश्वास के लायक नहीं थे- यही इस विषय की सर्वाधिक घटिया बात थी।
इन निन्दाओं को, भले ही वे पर्दे के अन्दर थीं, उनके उत्त्ार मैं आसानी से दे सकता था - जैसे उनका अपना पेम्फेलेट अविश्वसनीयता के स्तर तक पहुँच गया था, उनके लगातार सन्देहों के बीच यह अधिक सहज था, और यही वह कारण था जिसके कारण उनसे व्यवहार में मैं कहीं अधिक सतर्क था। अपने हृदय में उनका यह विश्वास दृढ़ था कि मैं उन्हें उनकी प्रसिद्धि से वंचित करना चाहता हूँ। छछूंदर की न्यायसंगत उपस्थिति को दर्ज करने के प्रथम और एकमेव व्यक्ति होने के नाते जिस पर उनका एकाधिकार था। हालाँकि फिलहाल सच तो यह था कि उनके साथ कोई प्रसिद्धि थी ही नहीं, जो कुछ वह एक अस्पष्ट-सी कुख्याति या बदमाशी ही है, जो क्रमशः संकुचित होती चली जा रही है और जिसके साथ प्रतिद्वन्द्विता में मेरी कोई रुचि नहीं है। इसके अलावा मैंने अपने पेम्फलेट के प्रारम्भ में लिखी भूमिका में स्पष्ट रूप से लिख दिया था कि शिक्षक ही हमेशा छछूंदर के अन्वेषक (खोजी) के रूप में स्वीकारे जावें। जबकि वे थे नहीं-उनके दुर्भाग्य के प्रति मेरी सद्भावना ने मुझे यह लिखने को प्रेरित किया ः ‘इस पेम्फलेट का उद्देश्य, और उसका अन्त मेलोड्रामे से भरी भावनाओें के साथ किया जो उस समय मेरे मन में थीं- “यह है कि शिक्षक की पुस्तक को विस्तृत प्रचार मिले, जिसके वे अधिकारी हैं। यदि मैं इस काम में सफल होता हूँ तो मेरा नाम जिससे मैं अनुभावातीत और अपरोक्ष रूप से जुड़ा पाता हूँ, उसे तत्काल रोक दिया जावे।” इस प्रकार इस विषय में मैंने किसी भी प्रकार का श्रेय लेने से इन्कार कर उनकी सहायता ही की थीः जैसे मैंने पहले से ही मान लिया हो कि शिक्षक को मुझसे शिकायतें होंगी ही। इसके बावजूद उन्हें एक अध्याय में मेरे विरुद्ध एक फाँस मिल गई और मैं इससे इन्कार नहीं करता कि वे जो कुछ कह रहे थे उसमें हल्का-सा सच का पुट था, जिसकी ओर उन्होंने अपनी राय व्यक्त की या संकेत किया। मेरे सामने यह सच प्रायः ही प्रकट होता रहा कि जहाँ तक मेरा प्रश्न था उन्होंने कटु चोट करने का प्रयास किया, किन्तु वे इतने कठोर पेम्फलेट के अपने तथ्यों को लेकर नहीं थे। उनकी यह निश्चित राय थी कि मेरी भूमिका दोमुखी थी। यदि वास्तव में उनके पेम्फलेट का प्रचार करना मेरा उद्देश्य था तो मैं पूर्णतः उनके और उनके पेम्फलेट के साथ क्यों नहीं था, मैंने उसके गुणों की ओर इशारा क्यों नहीं किया, उसकी अकाट्यता को क्यों नहीं बतलाया, मैंने उस अन्वेषण के महत्त्व को प्रतिपादित क्यों नहीं किया और उसका विश्लेषण क्यों नहीं किया, आखिर मैंने अन्वेषण पर ही विशेष ध्यान क्यों केन्द्रित रखा और उनके पेम्फलेट की पूरी तरह जानबूझकर उपेक्षा की। क्या अन्वेषण या खोज पहले ही नहीं हो चुकी थी? क्या इस दिशा में कुछ करने को शेष था भी? किन्तु यदि मैं वास्तव में यह अनुभव करता था कि मुझे एक बार फिर से खोज करने की आवश्यकता है तब मैंने अपनी भूमिका में पर्याप्त गम्भीरता से इस बात पर विशेष बल क्यों नहीं दिया था। यदि इसे कोई मेरी नकली शालीनता समझे तो? यह तो और भी अधिक नुकसानदायक है। मैं तो उस खोज को ही अमहत्त्वपूर्ण सिद्ध करने पर उतारूँ हूँ, उस पर ध्यान आकर्षित कर मैं वास्तव में उसका अवमूल्यन कर रहा हूँ। जबकि दूसरी ओर उन्होंने उसकी न केवल जाँच-परख की थी वरन् उसे स्थापित भी किया था। वैसे तो छछूंदर को ले सारा मामला ही लोग भूल चुके थे, लेकिन मैंने उस विषय पर पुनः शोर-शाराबा करना शुरू कर दिया और साथ ही शिक्षक की स्थिति पहले से कहीं बदतर कर दी है। भला वह इस बात की परवाह क्यों करें कि उसके ईमानदार प्रयास का समर्थन किया गया है अथवा नहीं? मूल विषय मात्र से उसका सम्बन्ध था और किसी बात से नहीं। मैं तो उसका (छछूंदर के अस्तित्व का) दुरुपयोग कर रहा हूँ क्योंकि वास्तविकता से तो मेरा कुछ लेना-देना था ही नहीं। मैं उसके असली महत्व को समझता ही नहीं हूँ। साथ ही मेरे मन में उन्हें ले कोई सद्भावना भी नहीं है। यह मेरे बौद्धिक स्तर के बहुत ऊपर की बात जो ठहरी। वह, मेरे सामने बैठा मुझे देखे जा रहा था। उसका झुर्रियों से भरा बूढ़ा चेहरा पर्याप्त शान्त था, लेकिन इसके बावजूद वह यही सब सोचे जा रहा था। यह भी सच था कि उसका लगाव मात्र उस वस्तुभर से था, प्रसिद्धि का वह तीव्र आकाँक्षी था साथ ही इस पूरे व्यापार से कुछ पैसे कमा लेना चाहता था, जो उसके बड़े परिवार को देख समझ में भी आता था। उसकी तुलना में इस मामले में मेरी रुचि बेहद सामान्य थी। उसे लगा कि बिना गम्भीरता से सच से दूर रह वह घोषित कर सकता है कि उसकी कोई रुचि नहीं है। और उधर मेरे मन के सन्देह शान्त ही नहीं हो रहे थे। स्वयं से कई बार कहने के बावजूद कि सामने वाले की शिकायतें मात्र इसलिए हैं क्योंकि वह अपनी छछूंदर से कसकर लिपटा हुआ है, कहना चाहिए दोनों हाथों से, और स्वाभाविक है जो भी उस पर उँगली रखेगा, वह उसे गद्दार घोषित कर देगा। किन्तु यह सच नहीं था उसके व्यवहार को लोभ लालच मात्र कह सिद्ध नहीं किया जा सकता था। वरन् उसकी भावुकता जन्मी थी उसके श्रम और उससे प्राप्त सफलता से। किन्तु उसकी भावुकता से हर बात स्पष्ट नहीं हो जाती थी। सम्भवतः इस विषय पर मेरी रुचि तुच्छ और नगण्य ही थी। शिक्षक में अजनबियों के प्रति रुचि का पूर्ण अभाव था। वह इसका कारण संसार में व्याप्त पाप वृत्ति को मानता था लेकिन व्यक्तिगत रूप से उसकी इसमें कतई कोई रुचि नहीं थी। और आश्चर्य की बात है कि अब एक व्यक्ति प्रकट हुआ है जो इस मामले को उठा रहा है और वह इसे समझा नहीं पा रहा था। इस प्रकार के आक्रमण से मैं कोई रक्षा नहीं कर सकता था। मैं कोई प्राणी-शास्त्री तो हूँ नहीं, फिर भी यदि मैंने यह खोज की होती तो पूरी शक्ति के साथ जुट गया होता, लेकिन सच तो यही था कि खोज मैंने नहीं की थी। इतनी विशालकाय राक्षसी छछूंदर तो वास्तव में एक चमत्कार ही है, फिर भी कोई यह आशा तो नहीं कर सकता कि पूरी दुनिया इसी एक विषय पर ध्यान केन्द्रित किए रहे, यदि उसका अस्तित्व पूर्णरूपेण और निस्सन्देह रूप से बिना शंकाओं-कुशंकाओं के स्थापित किया जा चुका हो और साथ ही तब जब उसे शारीरिक रूप से प्रस्तुत भी नहीं किया जा सकता हो और मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि यदि मैं वास्तव में उसका अन्वेषक होता तो उतनी प्रसन्नता के साथ छछूंदर के पक्ष में नहीं खड़ा हो जाता जितना शिक्षक हो गया था।
मेरे और शिक्षक के बीच की गलतफहमियाँ बहुत जल्दी ही दूर हो जातीं यदि मेरे पेम्फलेट को कुछ सफलता प्राप्त हो गई होती। किन्तु सफलता का तो कहीं दूर-दूर तक अता-पता ही नहीं था। सम्भवतः वह अच्छी भाषा-शैली में नहीं लिखी गई थी, न ही प्रेरित करने में सफल हुई थी, आखिर मैं ठहरा एक व्यवसायी। सम्भवतः इस प्रकार के पेम्फलेट का आकार-प्रकार और योजना मेरी क्षमताओं के बाहर की बात है उस शिक्षक की तुलना में। हालाँकि जिस प्रकार की बुद्धि की इस विषय में आवश्यकता है, उसकी तुलना में मैं कहीं अधिक सामर्थ्य रखता हूँ। साथ ही मेरी असफलता को दूसरे दृष्टिकोण से भी समझा जा सकता है। जिस समय पेम्फलेट प्रकाशित हुआ वह अपशगुनी समय था। छछूंदर की खोज जिस समय हुई थी, उस समय जनता के बीच उसके प्रति रुचि या आकर्षण अधिक मात्रा में जाग्रत नहीं हुआ था, हालाँकि उस घटना को हुए अधिक समय नहीं बीता है, कि लोग उसे पूरी तरह से भूल ही गए हों, अतः मेरे पेम्फलेट से उनमें रुचि आसानी से जाग्रत हो सकती है, हालाँकि दूसरी ओर इतना समय तो व्यतीत हो ही चुका है शुरुआत में जो थोड़ी बहुत रुचि जाग्रत हुई थी, उसे लोग पूरी तरह से भूल ही गए हों। जिन लोगों ने मेरे पेम्फलेट को गम्भीरता से लिया उन्होंने पढ़कर बोरियत भरे अन्दाज में स्वयं से वही कहा जो इस वाद-विवाद में प्रारम्भ से ही प्रतिक्रिया स्वरूप कहा गया था- लो अब इस थकान भरे प्रश्न पर फिर से चर्चा होगी, कुछ ने तो इसे शिक्षक का पेम्फलेट ही मान लिया। एक प्रसिद्ध कृषि जर्नल में निम्नलिखित टिप्पणी प्रकाशित हुई- सौभाग्य से उसके बिल्कुल अन्त में और वह भी छोटे-छोटे टाइप में- “उस विशालकाय राक्षसी छछूंदर पर लिखी पेम्फलेट एक बार फिर हमारे पास भेजी गई है। वर्षों पहले हमें अच्छी तरह याद है हमने इस पर खूब ठहाके लगाए थे। तब से अब तक न तो यह अधिक बुद्धि सम्पन्न हुई है और न ही हमें इसे समझने में कोई कठिनाई ही हो रही है, लेकिन एक बात तय है कि इस पर हम दोबारा हँसने को किसी कीमत पर भी तैयार नहीं हैं। वरन् इसके विपरीत हम अपने शिक्षक सहयोगियों को यह सुझाव देंगे कि विशालकाय राक्षसी छछूंदर की तलाश करना छोड़ हमारे ग्रामीण शिक्षकों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों को रेखांकित करें।” पहचान का एक अक्षम्य विभ्रम। इन लोगों ने न तो पहला पेम्फलेट पढ़ा और न ही दूसरा। इन सज्जनों के लिए मात्र ‘विशालकाय राक्षसी छछूंदर' और ‘देहाती शिक्षक' शब्द ही पर्याप्त थे इस निष्कर्ष पर पहुँचने के, कि यह सब पब्लिसिटी के लिए किया जा रहा कोई शगूफा है। इस आक्रमण का विरोध किया जा सकता था और सफलता के साथ किया जा सकता था, किन्तु शिक्षक और मेरे बीच में समझदारी के अभाव से इस दिशा में कदम उठाने से मैं हिचकता रहा। बल्कि इन समीक्षाओं को उसके सामने न पहुँचने की हर सम्भव कोशिश करता रहा। लेकिन उन्हें कुछ ही दिनों में इन आलोचनाओं का पता चल गया जैसे ही मुझे उनका बड़े दिन की छुट्टियों में मिलने की सूचना का पत्र मिला। उनके पत्र में लिखे एक वाक्य से मुझे यह आभास हो गया जिसमें उन्होंने लिखा था ः “संसार दुर्भावना से भरा है और लोग उसके लिए रास्ता आसानी से बना देते हैं।” वाक्य के इन शब्दों से वे यह कहना चाहते थे कि मैं उन्हीं दुर्भावनाग्रस्त लोगों में से हूँ तथा अपनी दुर्भावना मात्र से सन्तुष्ट न होकर पूरी दुनिया के लिए उस राह को सपाट चौड़ी करने में लगा हूँ। दूसरे शब्दों में, मैं ऐसी हरकतें कर रहा हूँ जिससे दुर्भावना न केवल फले-फूले वरन् विजयी भी हो। बहरहाल मैंने जो संकल्प या दृढ़ निश्चय किया था, उसी पर अडिग रहा और शान्ति से उनके आने की प्रतीक्षा करता रहा और जब वे आए तो पूरे सम्मान के साथ मैंने उनका स्वागत किया था। वे इस बार सामान्य से कुछ कम ही अपने व्यवहार में विनम्र थे। उन्होंने अपने पुराने फैशन के पैड वाले आवेरकोट के बे्रस्ट पॉकेट से वह जर्नल निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया। “मैं देख चुका हूँ”, कह बिना पढ़े मैंने जर्नल को उन्हें वापिस करते हुए कहा था। “अच्छा, तो तुम देख चुके हो”, उन्होंने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा, पुराने शिक्षकों की तरह व्यर्थ वाक्यों को दोहराने की उनकी भी आदत थी। “इसे मैं चुपचाप सहन नहीं करूँगा”, उन्होंने जर्नल को उँगली से टहोका मारते और मुझे पैनी नज़रों से देखते हुए कहा, जैसे मैं कोई दूसरी राय रखता होऊँ। सम्भवतः उन्हें कुछ अन्दाज था कि मैं क्या कहने वाला हूँ, ऐसा मेरा ख्याल है, शब्दों से अधिक वे मेरे व्यवहार से ज्यादा, हालाँकि वे उससे न तो सहमत होते हैं और न ही अपने उद्देश्य से विचलित ही होते हैं। मैंने जो कुछ कहा, उसे मैंने शब्द दर शब्द लिख दिया था इस भेंट के बाद। “आप जो कुछ भी करना चाहते हैं, अवश्य ही करें”, मैंने कहा था, “इस क्षण से तो हमारे रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं। मेरे विचार से तो यह आपके लिए न तो अनपेक्षित है और न ही अस्वागतेय ही है। इस जर्नल में प्रकाशित टिप्पणी का मेरे निर्णय से कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसने उस पर अन्तिम मोहर ही लगा दी है। वास्तविकता यह है कि पहले मेरा विचार था कि मेरे विरोध से सम्भवतः आपको कोई सहायता मिलेगी, लेकिन फिलहाल तो मुझे लगता है कि मैंने आपको हर तरह से नुकसान ही पहुँचाया है। यह कैसे हुआ, मैं नहीं कह सकता, सफलता या असफलता के कारण हमेशा दुर्बोध होते हैं, लेकिन उसके मूल कारणों को मेरी कमजोरियों या दुर्बलताओं में कृपया ढूँढ़ने की चेष्टा न करें ः आपका उद्देश्य श्रेष्ठ था और फिर भी यदि कोई उस विषय पर निरपेक्ष भाव से दृष्टि डाले तो आप अपने उद्देश्य में असफल रहे हैं। मेरा उद्देश्य उसे एक मजाक के रूप में लेने का कतई नहीं था, यदि ऐसा किया गया तो मज़ाक मेरे स्वयं के ऊपर ही हो जाएगा। आपका मुझसे सम्पर्क दुर्भाग्य से असफलताओं के रूप में ही स्वीकारा जायेगा। यह न तो कायरता है और न ही विश्वासघात, यदि इस पूरे मामले से अब मैं अपने को पूरी तरह हटा लूँ तो सच तो यह है कि इसमें कुछ अंशों में आत्मत्याग भी है- मेरा पेम्फलेट इस बात का सबूत है कि व्यक्तिगत रूप से मैं आपका कितना आत्मसम्मान करता हूँ, एक अर्थ में तो आप मेरे शिक्षक ही हैं और मैं इस छछूंदर को पसन्द करने लगा हूँ। बहरहाल मैंने इस मामले से अलग होने का निश्चय कर लिया है, आप ही उसके अन्वेषक हैं, और आपकी सम्भावित प्रसिद्धि में बाधा ही तो उपस्थित करता रहा हूँ, जबकि मैं आकर्षित करता रहा हूँ असफलता को, और उसे आपकी ओर भेजता रहा हूँ। कम से कम आपकी तो यही राय है। बस यह सब बहुत हो गया। एक मात्र प्रायश्चित जो मैं कर सकता हूँ, वह सबसे पहले आपसे क्षमा-याचना है और यदि आपकी इच्छा हो, तो मैं उसे प्रकाशित भी करने को तत्पर हूँ, मेरा तात्पर्य है इसी जर्नल में वह सब जो मैंने आपसे अभी-अभी कहा है।”
ये थे मेरे शब्द, ये पूर्णतः विश्वसनीय तो नहीं थे, किन्तु उनमें ऊपरी तौर पर विश्वसनीयता स्पष्ट दिखती थी। मेरे इस कथन का उन पर वही प्रभाव पड़ा जिसकी मैंने अपेक्षा की थी। अधिकाँश वृद्धों में कुछ दुराव-छिपाव, कुछ विश्वासघाती तत्त्व छिपे रहते हैं, कम से कम दूसरे व्यक्तियों के साथ व्यवहार में, विशेष कर कम उम्र पीढ़ी के साथ, आप उनके साथ निहायत प्रेम से सम्बन्ध बनाए रखे रहते हैं, आप उनके पूर्वाग्रहों से अच्छी तरह परिचित हो चुके होते हैं, उनसे लगातार मैत्री का आश्वासन पाते रहते हैं, सब कुछ को स्वीकार कर चुके होते हैं, और जब कभी कोई निर्णयात्मक क्षण आता है और वे शांतिपूर्ण प्रेम सम्बन्ध जो एक अंतराल में पनपे और बड़े होते हैं और एक प्रभावपूर्ण निर्णय की अपेक्षा उनसे की जाती है, तभी अचानक वे वृद्ध आपके सामने अपरिचितों की तरह व्यवहार करने लगते हैं और अन्तरतम में कहीं गहरे छिपे दृढ़ विश्वासों को सामने रख देते हैं, और इस प्रकार तब वे पहली बार आपके सामने अपने असली झण्डे फहराते हैं। और आप उनसे आतंकित हो उनके लिखे नए नियमों को पढ़ते हैं इस भय या आतंक का कारण होता है यह तथ्य कि जो कुछ वे वृद्ध आज कह रहे हैं, वह अधिक न्यायसंगत और बुद्धिमत्ता पूर्ण है- उन सभी पूर्वकथनों से जो उन्होंने पहले कहे थे, जो स्वतः सिद्ध हैं, उसके औचित्य की मात्रा अलग-अलग है और उनके पूर्व में कहे शब्दों की तुलना में आज कहे अधिक स्वयं सिद्ध हैं किन्तु अन्तिम विश्वासघात छिपा होता है उन शब्दों में, कि यही तो मूल विषय था जिसे वे पहले से कहते आ रहे थे और जिसे वे आज दोहरा रहे हैं। मैंने अवश्य ही शिक्षक के व्यक्तित्त्व को गहराई से समझा होगा, यह मुझे उस समय समझ में आ गया जब मैंने उनके अगले शब्दों को सुना और जिन्हें सुन मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। ‘बेटे', उन्होंने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख थपथपाते हुए कहा, “अच्छा यह तो बतलाओ तुम्हारे मन में इस बारे में काम करने का विचार भला आया कैसे? मैंने, तो जब इस छछूंदर के बारे में सुना तो मैंने सबसे पहले अपनी पत्नी से इस विषय पर चर्चा की थी।” कह उन्होंने अपनी कुर्सी को टेबल से दूर खिसकाया और खड़े हो गए, अपने हाथ फैलाए और फर्श को एकटक कुछ ऐसे देखने लगे, जैसे उनकी छोटी-सी ठिगनी पत्नी वहीं खड़ी हो और वे उसी से बातचीत कर रहे हों। “हम अभी तक अकेले लड़ते रहे हैं”, उन्होंने पत्नी से कहा, “इतने वर्षों तक लेकिन अब ऐसा लगता है कि कोई सम्पन्न रईस हमारे पक्ष में शहर में खड़ा हो गया है, एक सफल उद्योगपति मिस्टर फलां-फलां हमें स्वयं को धन्यवाद देना चाहिए, देना चाहिए न? शहर के उद्योगपतियों से हम अकारण ही घृणा करते रहे हैं, यह पूरी तरह गलत है। एक गँवार किसान जब हमारी बात का विश्वास करता है और उसे कहता भी है, तो उससे हमारा कोई भला नहीं होता, क्योंकि एक किसान जो कुछ कहता या करता है उसका कोई अर्थ होता ही नहीं है, चाहे वह यह कहे कि वृद्ध शिक्षक सही है या फिर घृणा से थूक दे, दोनों का ही परिणाम एक-सा ही होता है और यदि एक किसान की जगह दस हजार किसान भी हमारे पक्ष में खड़े हो जावें, तब भी परिणाम इससे अच्छा नहीं हो सकेगा। लेकिन दूसरी ओर शहर के एक उद्योगपति के पैर दूसरे ही जूतों में होते हैं, ऐसे व्यक्ति के पास अच्छे-खासे सम्पर्क होते हैं, जो बातें वह यों ही कह देता है बिना सोचे-समझे भी, उन्हें भी गौर से सुना जाता है और फिर वह दोहराई जाती है, उस प्रश्न पर नए पक्षधर रुचि लेने लगते हैं।, उनमें से एक मान लो कहता है, “आप चाहें तो देहात के वृद्ध शिक्षक से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं” और दूसरे दिन लोगों की पूरी भीड़ एक-दूसरे से यही कहती मिलेगी, ऐसे लोगों के मुँह से जिनसे आप कल्पना भी नहीं कर सकते। अगला कदम-व्यवसाय के लिए रुपयों की व्यवस्था, एक सज्जन एकत्र करते घूमते हैं और सभी उन्हें सहर्ष रकम दे देते है, फिर वे निर्णय करते हैं कि ग्राम शिक्षक को उनके अज्ञातवास से जर्बदस्ती बाहर निकालना आवश्यक है, फिर वे आते हैं, वे उसकी चाल-ढाल, रूप-रंग की कतई परवाह नहीं करते वरन् उसे सीने से लगा लेते हैं और चूँकि उसकी पत्नी और बच्चे उसी पर निर्भर हैं अतः वे उन्हें भी अपना लेते हैं। कभी तुमने नगरवासियों को ध्यान से देखा है। वे लगातार बिना रुके बकवास करते रहे हैं। जब वे कहीं एकत्र होते हैं तो उनकी बातचीत दाएँ से बाएँ और फिर दाएँ, ऊपर और नीचे इस ओर से दूसरी ओर होती रहती है और इस प्रकार बकवास करते-करते वे हमें कोच में धक्का दे बैठा देते हैं, कुछ इतनी जल्दी में कि हमें ग्रामवासियों का अभिवादन और अलविदा कहने का भी समय नहीं मिलता। कोच की ड्राइवर की सीट पर बैठे सज्जन अपना चश्मा सँभालते उसे ठीक करते हैं और हवा में कोड़े को सपाक् से चलाते हैं और हम आगे बढ़ जाते हैं। वे सभी गाँव को अलविदा कहते कुछ ऐसे हाथ हिलाते हैं जैसे हम उन्हीं के बीच में खड़े हों, उनके साथ न हों। शहर के महत्त्वपूर्ण सम्पन्न सज्जनगण हमसे मिलने के लिए कोचों में बैठ शहर के बाहर चले आए हैं। जैसे ही हम शहर के पास पहुँचते हैं कोचों की गद्देदार सीटों में बैठे वे खिड़कियों से गर्दनें बाहर निकालते हैं। जिन सज्जन ने रुपए इकट्ठे किए हैं, वे पूरी व्यवस्था सुव्यवस्थित और सुरुचिपूर्ण ढंग से करते है। जब तक हम शहर के भीतर पहुँचते हैं तब तक हमारे साथ बग्घियों ;कोचोंद्ध का जुलूस-सा बन जाता है। हम मन में सोचते हैं कि जनता का स्वागत हो गया है लेकिन नहीं, वास्तव में तो उसका अभी श्रीगणेश ही हुआ था जब तक हम होटल पहुँचते हैं। हमारे वहाँ पहुँच जाने की नगर घोषणा होते ही वहाँ जनसमूह पहले से एकत्र है। जिस किसी में एक की रुचि होती है उसी में सभी की तुरन्त हो जाती है। वे एक-दूसरे से राय-मशवरा करते हैं और उन्हें अपनी सलाहें मान वे स्वीकार लेते हैं। वे सभी जो बग्घियों में हमारे स्वागत के लिए बाहर किन्हीं व्यस्तताओं के चलते नहीं पहुँचे थे वे सभी होटल के सामने हमारी प्रतीक्षा करते मिले हैं, कुछ अन्य जो आ सकते थे किन्तु वे कुछ अधिक अहंकारी थे, वे वहीं खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे, यह सभी कुछ चमत्कारपूर्ण है, जैसे वे सज्जन जिन्होंने रुपए एकत्र किए हैं, वे हर कोने-अतरे पर नज़र रखे हैं और मार्गदर्शन कर रहे हैं।”
पूरी शान्ति के साथ मैं उन्हें सुनता रहा, स्वाभाविक है, जैसे-जैसे वे कहते गए, मेरी उदासीनता बढ़ती गई। मैंने टेबल पर अपने पेम्फलेट की सभी प्रतियाँ इकट्ठी कर रखी थीं। वहाँ मात्र कुछ प्रतियाँ ही नहीं थीं, वितरित की गई प्रतियों की वापिसी के लिए मैंने पिछले हफ्ते ही एक सर्कुलर भेज दिया था, जिनमें से अधिकांश मुझे मिल भी गई थीं। सच है कुछ स्थानों से मुझे विनम्रता के साथ पत्र लिख सूचित किया गया कि फलाँ-फलाँ को याद ही नहीं है कि कभी कोई ऐसा पेम्फलेट उन्हें मिला भी था और यदि वह आया भी होगा तो वे स्वीकार करते हैं कि सम्भवतः वह कहीं खो गया है। ये लिखे नोट्स भी संतुष्टिप्रद थे, अपने दिल में इससे बेहतर की मैं कामना भी नहीं करता था। मात्र एक पाठक ने उस पेम्फलेट में उत्सुकता होने से रखने की अनुमति देने की प्रार्थना की थी। साथ ही यह कसम भी खाई थी कि मेरे सर्कुलर की भावनाओं को ध्यान में रख वह उसे बीस वर्षों तक किसी से न तो चर्चा करेगा, न किसी को दिखाएगा और न ही किसी को पढ़ने ही देगा। ग्राम शिक्षक ने अभी तक मेरा सर्कुलर देखा नहीं था। मैं बहुत प्रसन्न था उसके शब्दों के कारण उसे दिखाते मुझे निहायत खुशी हो रही थी। बहरहाल अब मैं बिना किसी उद्विग्नता के यह कर सकता था, ठीक जैसे मैंने उनके हितों को ध्यान में रखकर वाक्य संरचना की थी। सर्कुलर का सबसे महत्त्वपूर्ण पैराग्राफ इस तरह शुरू हुआ था ः “मैं पेम्फलेट को इसलिए वापस करने को नहीं कह रहा हूँ क्योंकि उसमें दिए गए तथ्य अथवा साक्ष्य मिथ्या हैं अथवा प्रदर्शन योग्य नहीं है, मेरी प्रार्थना पूर्णतः व्यक्तिगत और अति आवश्यक होने के कारण है, किन्तु कोई भी ऐसा निष्कर्ष न निकालें कि उक्त विषय में मेरी राय बदल गई है और इसलिए मैं उसे वापिस माँग रहा हूँ। आपसे इस विषय पर विशेष ध्यान देने का मेरा निवेदन है, साथ ही मुझे प्रसन्नता होगी यदि आप इस तथ्य से सभी को परिचित करा देंगे तो।”
फिलहाल तो मैंने अपना हाथ सर्कुलर के ऊपर ही रखा रहने दिया और कहा, “आप मुझे पूरे दिल से घृणा करते हैं क्योंकि आपने जैसी कल्पना की थी, वैसी घटनाएँ नहीं घटीं। आप ऐसा क्यों कर रहे हैं भला? हमारी अन्तिम भेंट में इतना जहर क्यों घोल रहे हैं। इस पूरे प्रकरण को इस दृष्टिकोण से क्यों नहीं देखते आप, यह सच है कि आपने एक अन्वेषण किया है या नई खोज की है, वह किसी अन्य खोज या अन्वेषण से भिन्न नहीं है, परिणामस्वरूप जिस अन्याय के आप शिकार हुए हैं, वे दूसरों पर हुए अन्यायों से किसी मायने में अलग नहीं है। मेरा सम्पर्क बुद्धिजीवियों से नहीं हैं अतः मुझे उनके क्रिया-कलापों का न तो कोई अन्दाजा है और ना ही कोई अनुभव ही है, किन्तु इसके बावजूद मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि आपने अपनी पत्नी को जो स्वागत की कल्पना बतलाई थी, वैसा सम्मान कभी भी किसी भी हालत में आपको नहीं मिलता। जबकि मैं अपने पेम्फलेट से कुछ न कुछ आशा बाँधे हूँ। अधिक से अधिक मैं यह उम्मीद करता हूँ कि मेरे पेम्फलेट पर किसी प्रोफेसर की दृष्टि हमारे मामले पर पड़ेगी और फिर वे अपने किसी छात्र को इसकी जाँच-पड़ताल करने को कहेंगे और यह छात्र आपसे मिलने आता और अपने तरीके से आपकी और मेरी स्थापना की जाँच करता और यदि उसे निष्कर्षों में कुछ सम्भावनाएँ आगे खोजने योग्य लगेंगी तो- लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रायः सभी छात्र शक्की होते हैं वह खोजकर अपना एक पेम्फलेट निकाले जिसमें आपकी खोज को वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करे। बहरहाल यदि इतनी उम्मीद भी गर पूरी हो गई तब भी कोई विशेष उपलब्धि होने वाली नहीं। ऐसी अजीब-सी खोज के समर्थन में निकले छात्र के पेम्फलेट को बकवास और शर्मनाक ही घोषित किया जाएगा। अब इस कृषि जर्नल के इस उदाहरण को ही देख लें, तो आपकी समझ में आ जाएगा कितनी सहजता से उसकी उपेक्षा की जाएगी। विद्वान पत्रिकाएँ तो इस विषय में कुछ अधिक ही स्पष्टवादी तथा निःसंकोची होती हैं और उनका यह दृष्टिकोण समझ में आता भी है। प्रोफेसरों का उत्तरदायित्व स्वयं के प्रति, विज्ञान के प्रति और अमरत्व की ओर अधिक होता है, अतः प्रत्येक खोज अथवा अन्वेषण को तुरन्त गले से लगा लेना उनके लिए सम्भव नहीं होता, उनकी जगह पर हम जैसे लोग ही लाभ की स्थिति में होते हैं। चलिए एक मिनट को इस तर्क को छोड़ मैं यह स्वीकार लेता हूँ कि छात्र के पेम्फलेट को हर वर्ग से स्वीकृति मिल जाती है। इसके बाद फिर कौन-सी सम्भावनाएँ हमारे सामने आती हैं - सम्भवतः आपका नाम ससम्मान लिया जावे, आपका शिक्षक होना आपके पक्ष को मजबूत करेगा, लोग कहेंगे, “हमारे गाँवों के शिक्षकों की दृष्टि पर्याप्त तीव्र है”, और यह जर्नल, यदि जर्नलों की स्मृति होती है तो सार्वजनिक रूप से क्षमा याचना प्रकाशित करेगा और कोई सज्जन प्रोफेसर आपको किसी प्रकार की स्कालरशिप भी दिला सकता है, और यह भी संभव कि वे आपको शहर बुलवा लें और किसी स्कूल में आपकी नियुक्ति भी करवा दें और इस प्रकार आपको शहरों में उपलब्ध वैज्ञानिक संसाधन उपलब्ध करा दें ताकि आप तरक्की कर सकें। लेकिन यदि आप मेरी बेबाक राय जानना चाहें, तो मेरे विचार से उन्हें यह सब करने से कुछ सन्तुष्टि मिलेगी अतः वे आपको बुलवाएँगे, और आप उपस्थित होंगे एक साधारण से आवेदक के रूप में, दूसरे सैकड़ों उपस्थित लोगों की तरह, किसी राजकीय सम्मान के साथ नहीं, वे आपसे वार्तालाप करेंगे और आपकी ईमानदार कोशिश की प्रशंसा करेंगे, किन्तु वे साथ में यह भी तो देखेंगे कि आप वृद्ध हैं और इस उम्र में किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक कार्य करना आपके लिए असम्भव है, साथ ही यह भी कि जो कुछ खोज या अन्वेषण आपने किया है वह योजनाबद्ध नहीं वरन् मात्र एक चाँस की बात है, साथ ही आपकी इस विषय में आगे कुछ करने की कोई महत्त्वाकांक्षा भी नहीं है। इन सभी कारणों के चलते वे आपको सम्भवतः पुनः गाँव में भेज देना पसन्द करेंगे। आपकी खोज या अन्वेषण पर आगे काम किया जाएगा, क्योंकि वह कोई साधारण तो है नहीं और उसे स्वीकृति मिल जाने के बाद उसे एक बार फिर भुला दिया जाएगा। तत्सम्बन्ध में आपको कभी कोई समाचार नहीं मिलेगा और जो कुछ भी आप सुनेंगे वह आपकी समझ के परे होगा। प्रत्येक खोज या अन्वेषण को स्वीकृति देने के उपरान्त तत्काल उसे पूर्व संचित सम्पूर्ण ज्ञान में समाहित कर लिया जाता है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि इसके बाद उसके परीक्षण के लिए व्यक्ति के पास वैज्ञानिक दृष्टि अपरिहार्य रूप से होनी चाहिए। क्योंकि वही मूल सिद्धान्तों से सम्बन्धित होती है जिनके अस्तित्व के सम्बन्ध में हमें कोई ज्ञान ही नहीं होता। इन वैज्ञानिक परिसंवादों में इन सिद्धान्तों को बादलों की ऊँचाई तक उठाया जाता है! भला, आप और हमसे यह सब कुछ समझने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। प्रायः जब भी हम कोई बौद्धिक बहस सुनते हैं तो हम यह मानकर चलते हैं कि यह सब आपकी खोज के सम्बन्ध में हो रहा होता है और जब कभी हम यह समझते हैं कि चर्चा किसी अन्य विषय पर हो रही है, जबकि वह किसी अन्य विषय पर हो रही है, हमारे विषय पर नहीं, तब हमें बाद में पता चलता है कि यह तो केवल हमारे विषय पर ही हो रही है।
आप यह देख-समझ रहे हैं न? आप अपने गाँव में होंगे। अतिरिक्त आय से आप अपने परिवार की देख-भाल अच्छी तरह से कर रहे होंगे, किन्तु आपकी खोज आपके हाथों से ली जा चुकी होगी, और अन्याय के प्रति आप कोई विरोध या प्रतिक्रिया प्रकट तक नहीं कर पावेंगे, क्योंकि अन्तिम मुहर तो शहर में ही लगेगी न! और लोग आपके प्रति पूरी तरह कृतघ्न भी नहीं होंगे। हो सकता है वे उस स्थान पर जहाँ खोज की गई थी, एक स्मारक बनवा दें और गाँव का वह एक दर्शनीय स्थल बन जाए और वे आपको उसकी चाबियाँ भी सौंप दें, ताकि आपको यह अहसास हो कि आपका सम्मान किया जा रहा है, साथ ही आपको टोकन स्वरूप आपको एक छोटा-सा मैडल भी दे दें, जिसे आप कोट पर लगा सकें जैसे वैज्ञानिक संस्थानों के सहायक लगाते हैं। इस सबकी पर्याप्त सम्भावना है, किन्तु क्या आप ऐसा होने की अपेक्षा कर रहे थे?
बिना एक मिनट सोचने-विचारने के लिए रुके वे मेरी ओर मुड़े और बोले, “तो यह सब कुछ था जो तुम मुझे दिलाना चाहते थे?”
“शायद”, मैंने कहा, “जब मैं इस विषय पर काम कर रहा था, उस समय सम्भवतः इतना स्पष्ट नहीं था, जितना फिलहाल है, मैं आपकी सहायता करना चाहता था, किन्तु मेरी कोशिश असफल रही और अभी तक जितनी भी असफलताएँ मुझे अभी तक मिली हैं उनमें यह सबसे बड़ी असफलता है। इसीलिए अब मैं अपने कदम वापिस खींच लेना चाहता हूँ और जो कुछ भी मैंने किया था उसे अनकिया करना चाहता हूँ।”
“यही बेहतर होगा”, शिक्षक ने कहते हुए अपना पाइप निकाला और अपने सभी पाकेटों में यों ही रखी तम्बाखू को निकाल उसमें भरने लगे। “तो तुमने यह आभारहीन काम अपनी इच्छा से लिया और अपनी ही इच्छा से वापिस ले लेना चाहते हो, फिऱ ठीक है़”
“मैं कोई जिद्दी व्यक्ति नहीं हूँ”, मैंने कहा, “मेरे इस प्रस्ताव में आपको आपत्तिजनक कुछ दिखता है क्या?”
“नहीं, कतई नहीं, बिल्कुल नहीं”, शिक्षक ने कहा। पाइप जल गया था। मुझे उस गीली तम्बाखू के धुँए से चिढ़ थी, अतः मैं खड़ा हो गया और कमरे में चहल-कदमी करने लगा। पिछली भेंटों के कारण मैं शिक्षक के अतिवादी व्यवहार से परिचित था, साथ ही यह भी जानता था कि एक बार भीतर आने के बाद वे कमरे से जल्दी जाना पसन्द नहीं करेंगे। उनकी इस हरकत से मैं पहले भी परेशान हो चुका हूँ। वे और कुछ भी चाहते हैं, मुझे ऐसा लगता रहा है। मैं उन्हें कुछ रुपए दे भी सकता हूँ, जिसे वे आराम से स्वीकार भी कर लेंगे, लेकिन जाते तो वे तभी हैं जब उनका मन होता है। प्रायः तब तक वे पूरा पाइप पी चुके होते हैं और फिर वे बाकायदा अपनी कुर्सी को सलीके से सरकाएँगे, उसके चक्कर लगाएँगे और कोने में जा अपनी राख का पौधा खड़ा करेंगे, मेरे हाथ को गर्म जोशी से मिलाएँगे और तब कहीं जाएँगे-किन्तु फिलहाल उनका बैठा रहना मेरे लिए सज़ा जैसी था। जब कोई किसी से अलविदा कर लेता है, जैसा मैं कर चुका हूँ, जिसे सौजन्यता के साथ स्वीकारा जा चुका है, तब द्विपक्षीय सौजन्यता की खानापूर्ति जल्दी ही कर ली जानी चाहिए। उनके पीछे यही सब सोचता खड़ा हूँ जबकि वे आराम से बैठे हैं, लगता है उन्हें दरवाज़ा दिखाना मेरे लिए असम्भव ही है।
--
अनुवाद - इन्द्रमणि उपाध्याय
--
COMMENTS