त्यौहार, विवाह या कोई भी समरोह, सब परिवर्तन के ही द्ध्योतक हैं। मानव ने बहुत ही सोच – समझ कर दैनिक एकरसता को दूर करने के लिए इन का विधान र...
त्यौहार, विवाह या कोई भी समरोह, सब परिवर्तन के ही द्ध्योतक हैं। मानव ने बहुत ही सोच – समझ कर दैनिक एकरसता को दूर करने के लिए इन का विधान रचा है। ताकि जीवन में उमंग – तरंग का संचार होता रहे। नवीन वस्त्र, नए – नए व्यंजन, गाना – बजाना, आदि के मूल में यही धारणा निहित है।
परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है। क्षण – क्षण घटित होते परिवर्तन में ही नवीनता के बीज अंकुरित होते हैं और नूतनता में ही जीवन का समग्र आनन्द अपने स्वरुप को अक्षुण्ण बनाए रखता है। नवीनता की कोई सीमा नहीं होती, यही मानव समृद्धि की धुरी है। इसे ही सौन्दर्य से अभिहित किया गया है –
“क्षणे – क्षणे यन्तवता मुपैति,
तदैव रुपं रमणीय तायाः”।
अर्थात् जो निरन्तर बदलता रहता है, प्रतिक्षण नए – नए रुप धारण करता रहे, वह सुन्दर है। मानव पुरातन का मोह त्याग कर सदैव नए के अभिनन्दन में आँखें बिछाए रहता है।
जाहिर है पर्व की तरह हम नव वर्ष के प्रथम दिवस को भी त्यौहार के रुप में मनाते हैं। यह पर्व समय का है। समय को मापने की सब से छोटी इकाई (मोटी गणनानुसार) ‘पल’ है जो सतत् परिवर्तनशील है। यानी हर पल को पर्व की तरह मनाने का अवसर है नया वर्ष। यही ना कि हर क्षण को हम त्यौहार की तरह सम्पूर्ण उल्लास व आनन्द के साथ जिएं। नाचें, कूदें, गाएं, बजाएं। एक शब्द में कहें तो यही ज़िन्दगी है। हम नया वर्ष मनाते हैं क्योंकि आदमी ने कुछ बातें, कुछ यादें, कुछ घटनाएं याद रखने के लिए समय को पाबन्द कर दिया है। सप्ताह, माह, वर्ष, शताब्दी, युगों आदि में। यह सब इसलिए है कि परिवर्तन होते रहना चाहिए।
इस प्रकार नव वर्ष का समारोह हुआ समय को समझने का। उस समय को जो महाबली है। जिस के समक्ष बड़े – बड़े धुरन्धर भी नहीं टिक पाते। यह पल भर में राजा को रंक व रंक को राजा बना देता है। कितने ही हिटलर, रावण इस से मुँह की खा चुके हैँ। ज़रा – सी देर में वक़्त सारी दुनिया में उथल – पुथल मचा देता है। सब कुछ बदल देता है तो वहीं आनन्द के स्रोत भी प्रस्फुटित कर देता है। मेरा ही शैर –
“व्यर्थ ही करता है क्यूँ अभिमान प्यारे
वक़्त होता है बड़ा बलवान प्यारे”
वक़्त के बदलाव को ले कर एक शैर पुरुषोत्तम यकीन का और देखिए –
“वक़्त के साथ जो हालात बदल जाते हैं
एक पल गुज़रा कि जज़्बात बदल जाते हैं”
यह समय ही है जो ठोकर देता है तो उठाता भी है। जख़्म देता है तो मरहम भी लगाता है। चलना भी सिखाता है। जो इस का साथ निभाता है उस की हर मुराद पूरी कर देता है। ये हमें हँसाता भी है, रुलाता भी है। प्यार करना सिखाता है तो नफ़रत का ज़हर भी यही भर देता है। जो इसे तवज्जो नहीं देता उस की तो ख़ैर ही नहीं।
आखिर समय है क्या ? क्या धन है ? नहीं समय धन नहीं हो सकता। यह तो इस से बहुत छोटा हो गया है कि धन तो हाथ का मैल होता है और समय तो अनमोल है जो एक पल को ठहरता नहीं है। महाभारत में कृष्ण ने बलराम से कहा है कि समय न अतिथि किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। गया हुआ एक पल दुनिया की सारी दौलत के बदले भी नहीं लौटाया जा सकता है। इसलिए महावीर स्वामी ने कहा है – “क्षण भर भी प्रमाद मत करो” अर्थात् एक पल का भी समय व्यर्थ मत करो। उन्हीं का सूत्र है – “काले कालम् समाचरे” यानी जिस समय जो काम उचित हो उस समय वही काम करना चाहिए। तात्पर्य यही है कि एक घड़ी भी ऐसी नहीं होती जिस के लिए निर्धारित कार्य को फिर किया जा सके। यही है इस का मूल्य। मुँह से निकले वचन या बहते हुए पानी की तरह यह कभी मुड़ कर नहीं देखता। यह तो सूरज है, चाँद है, नदी है, मुर्ग़े की बाँग है, निरन्तर गतिमान है, न ठहरता है, न ही थकता है। चलते – चलते कभी जख़्म देता है तो भरता भी यही है। हाँ कभी यह असफल भी हो जाता है। शायर यक़ीन का मानना है कि –
“मयस्सर कुछ नहीं तो वक़्त का मरहम गनीमत है
किसी भी तरह आख़िर जख़्म दिल के भर ही जाऐंगे”
समय पर किए गए काम का बड़ा महत्व होता है। समय पर सोना ही कितना कितना महत्व रखता है –
“Early to bed and early to rise
Makes a man healthy wealthy and wise”
समय पर बोले गए एक – एक शब्द का बड़ा असर होता है और बेवक़्त की बकवास एकदम फिज़ूल, कभी – कभी अत्यन्त दुखदायी भी हो जाती है। कहा भी गया है कि हर काम व बात समय पर ही अच्छी लगती है। एक श्लोक याद आ रहा है –
“अप्राप्त काल वचने वृहस्पतिरपि ब्रुवन ।
लभते बुद्धयव ज्ञानं व मानं च भारत”।।
अर्थात् हे भरतवंशीय (धृतराष्ट्र)! यदि बृहस्पति भी समय को समझ कर बात नहीं करता और बेमौके ही बोलता है तो वह मूर्ख ही माना जाता है और अपमानित होता है। अतः समय देख कर ही बात करना चाहिए। जब बृहस्पति का ही ये हाल है तो फिर साधारण आदमी की तो औकात क्या और बिसात ही क्या है। वैसे भी समय पर बोलने का धीरज किस में होता है। सब अपनी – अपनी कहते हैं, सुनता कौन है आजकल।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जो समय से पीछे चलता है वह पिछ़ड़ जाता है। जो आगे दौड़ता है, ठोकर खा कर गिर पड़ता है, जो इस से कदम मिला कर चलता है वही छूता है कामयाबी की मंजिल। अतः समझदारी इसी में है कि इस की अँगुली पकड़ कर चला जाए। क्यों कि एक बार मुट्ठी से निकल गया तो – अब पछताए होत क्या...... या आषाढ़ का चूका किसान और डाल का चूका बन्दर कहीं का नहीं रहता। अच्छा हो समय हमें बदल डाले, उस से पहले उसे हम अपने अनुकूल कर लें। लेकिन ये आसान कार्य तो नहीं है जितना लगता है। क्यों कि समय बड़ा ही क्रूर भी होता है। इसी ने राम को बनवास दिलाया, राजा हरिश्चन्द्र से हरिजन के घर पानी भरवाया, पाण्डवों को अज्ञातवास भेजा, मीराँ को, सुकरात को ज़हर पिलाया।
लेकिन यह मासूम भी होता है, बिल्कुल बच्चों की तरह। बुद्ध को बुद्ध समय ही बनाता है। विवेकानन्द को विवेकानन्द भी इसी ने बनाया है। सब वक़्त – वक़्त की बात है, समय का फेर है। इस बात पर कवि वल्लभदास की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं –
“समय स्यार, सिंग होत, निर्धन कुबेर होत,
यारन में बैर होत जैसे केर – काँटे कौ
धीर तो अधीर होत, मंत्री बेपीर होत,
कामधेनु चोर होत नादेश्वर नारी कौ
पुन्न करत पाप होत, बैरी सगौ बाप होत,
जेबरी कौ साँप होत अपने हाथ बाँटी कौ
कहै कवि वल्लभदास, तेरी गति तू ही जानै
दिनन के फेर ते सुमेरु होत माँटी कौ”
समय सदा हमारा साथ दे, हमारा ख़याल रखे इस के लिए इस के प्रति हमारी भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ बनती हैं। जैसे हम नियमित जीवन जिएं। अपने आहार – विहार, चिन्तन, मनन, व्यायाम, द्वारा नियमित दिनचर्या को अपनाएं। अपना ध्यान रखें, तरोताजा, प्रफुल्लित, प्रसन्नचित्त व स्वस्थ रहे क्यों कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। कम खाएं, कम बोले, साथ ही गम खाना भी सीखें। स्वाध्याय को जीवन में विशेष स्थान दें। इस से विचारों में परिमार्जन होगा, दृष्टिकोण विशाल होगा, चिन्तन में प्रखरता, उदारता बढ़ेगी, ज्ञानार्जन भी होगा। दूसरों के गुण व अपने दोष देखें क्यों कि “मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिए जिए”। “स्व” से “पर” का अनुसरण करते हुए “सर्वे भवन्तु सुखिनाः” एवं “वसुधैव कुटुम्बकम्” की सुरसरि का अवगाहन करें। सम्यक जीवन – यापन हेतु जरुरी है कि कर्मवीर भी हम बनें। कार्य ही पूजा है एवं “कर्मण्येवाधिकारस्ते .....” का ध्येय रहे क्यों कि चारों वेदों में कर्म का विशेष स्थान है। स्वयं से प्यार करें, स्वयं की सहायता करें, ताकि ईश्वर हमारी मदद करे। आत्मनिरीक्षण भी सुन्दर जीवन की कुंजी है। हमें चाहिए कि हम समय को साधें, सारी सिद्धियाँ हमें स्वयं मिल जाएंगी। इस की पूजा करें, मनचाहा वरदान प्राप्त होगा। इस से दोस्ती करें, कृतार्थ हो जाएंगे। इसे दुलराऐंगे, पुचकारेंगे, गोदी में बिठाएंगे, प्यार करेंगे तो देखेंगे कि ये हम पर कैसा बलिहारी जाता है।
इन बातों के साथ – साथ ज़रुरी है कि हम उचित अवसर की प्रतीक्षा भी करना सीखें और मिलने पर उस का भरपूर स्वागत करें, पूर्ण लाभ उठाएं। उस का मिज़ाज जान कर ही काम करें। किसी भी सूरत में उसे छोड़ें नहीं, ठुकराएं नहीं, एक बार निकल जाने पर वह फिर नहीं आता। स्वामी विवेकानन्द ने कहा भी है कि “अवसर दुबारा नहीं आता”। एक कहावत है कि समय से पहले कुछ नहीं मिलता या समय पर जो हो जाए वही ठीक है, और समय निकल जाता है बात रह जाती है। तात्पर्य यही है कि हर वक़्त, वक़्त का ही महत्व है वो भी वर्तमान में जीने का।
कभी – कभी क्या ऐसा नहीं लगता है कि काश ! समय स्थिर होता, न कुछ पुराना होता न कोई बुढ़ाता, केवल यौवन ही छाया रहता। सृष्टि की उस समरसता में भी एक आनन्द होता, कितना अच्छा होता, कितना अच्छा होता यह सब। लेकिन हमारे सोचने से क्या होता है। होता वही है जो ये कमबख़्त चाहता है। इस की एक और चालाकी देखिए, स्वयं तो प्रतिक्षण नव रुप ग्रहण करता जाता है और दुनिया की हर वस्तु को उतना ही पुराना करता जाता है। विरोधाभास की भी हद होती है।
जो भी हो ये वक़्त भी बड़ा महान है भाई ! ब्रह्म की तरह अमूर्त, अगोचर, अगम, अतीन्द्रिय। जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। कभी – कभी तो लगता है कि ये है भी कि नहीं ..... । लेकिन नहीं होता तो कुछ भी पुराना कैसे होता, बुढ़ापा भी कैसे। बहुत शातिर है ये समय भी, सब को बूढ़ा कर के स्वयं चिर युवा रहता है।
समय को वैसे तो महसूस भी नहीं कर पाते। वो तो भला हो चाँद – सूरज का, जो रोजाना आते हैं और चले जाते हैं। इन के आवागमन से दिन – रात होने से, समय का हम अहसास कर लेते हैं। इन्हीं से ‘पल’ से लेकर ‘कल्पों’ तक की गणना करने का माप भी बन गया वर्ना हमें यह भी कैसे ज्ञात होता कि कब दिन बीता, कब रात आई, कब हमारा जन्म – दिन आएगा, हम कितने वर्ष के हो गए, किस दिन हमें क्या करना है, कब कहाँ जाना है।
तब महबूब की प्रतीक्षा भी नहीं कर पाते। उस के इन्तज़ार में कैसे राह पर पलकें बिछाए बैठे रहते, कैसे उस से झगड़ा करते कि पिछले चार घण्टों से बैठे हैं, तुम अब आए हो। ऐसे में न हम पिक्चर देखने जा पाते, न कोई धारावाहिक देख पाते, न बस – ट्रेन पकड़ पाते। आलसी लोग तो सोते ही रहते और कुछ लोग लगातार काम ही करते रहते। यानी समय की सारी पाबन्दियाँ ख़त्म। बड़ा मजा आता। ये हज़ारों टेंशन, झंझट ही नहीं होते। मसलन, समय पर उठो, समय पर सो जाओ, खाना खाओ, समय पर स्कूल जाओ, समय पर ऑफिस जाओ।
बच्चे तो एकदम प्रसन्न रहते, समय पर उन्हें कुछ भी न करने पर पड़ने वाली डाँट कभी नहीं पड़ती। समय बिगाड़ना, समय पर कार्य करना, इस तरह की सारी मुसीबतों से निजात मिल जाती। बस जब जो मर्ज़ी होती, कर लेते। लेकिन ये अच्छा होता या नहीं ये समय ही बताता।
जहाँ तक समय की प्रतीक्षा का सवाल है, सब के अपने – अपने मत हैं। कुछ लोग जो निराशावादी हैं। जिन्हें समय पर भरोसा नहीं हैं, कल किसने देखा है। इसीलिए कबीरदास जी कह गए कि –
“काल करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगौ कब्ब”
इन के अनुसार ‘कल’ कभी आता ही नहीं। सच भी है, हमारे पास हमेशा आज ही होता है। लेकिन सवाल ये भी है कि कल का काम आज कैसे होगा। आज तो आज का काम ही होगा ना। पता नहीं लोग भी क्या – क्या कह जाते हैं। कुछ का कहना है कि समय की प्रतीक्षा मत करो, उसे अपने अनुरुप कर के चलों। इस ओर अब्दुल रहीम खानखाना अपना ही राग अलापते नहीं थकते –
“रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन के फेर
जब नीके दिन आत हैं, बनत न लागत देर”
इन का तो यही मानना है कि बुरे दिनों में हो – हल्ला मत करो। सही वक़्त की प्रतीक्षा करो, अपने आप सब काम बन जाएंगे। इन में सही क्या है और ग़लत क्या। ईश्वर जाने या ये समय ही जाने।
हमारी अल्प बुद्धि में तो इतना ही आता है कि जिसे जो करना होता है वो कर के ही रहना है और ऐसे शख़्स की कद्र वक़्त भी ज़रुर करता है। ऐसे ही लोग शुहरत पाते हैं, कालातीत बन जाते हैँ। समय भी उन्हें कभी नहीं भुलाता, हमेशा याद रखता है, चिरन्जीवी बना देता हैं। और कुछ लोग जो आलसी और निकम्मे होते हैं “आराम बड़ी चीज़ है .....” का फोलो करते हैं वे हमेशा बात – बात पर, समय ही नहीं मिलता का रोना ही रोते रहते हैं। ऐसे निठल्ले लोगों को समय भी कोई तवज्जो नहीं देता।
आख़िर समय ही तो जीवन है तभी तो इस को ले कर अनेक कहावतें प्रचलित हुई हैँ, जैसे – वक़्त – वक़्त की बात है, समय लौट कर नहीं आता, समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, समय किसी का गुलाम नहीं होता, समय कह कर नहीं आता, जो वक़्त पर हो जाए वही ठीक है, वग़ैरह – वग़ैरह। अब हम समय की कीमत व महत्व की बात करें तो हम इस की कितनी क़द्र करते हैं ये तो एक वाक्य से ही ज़ाहिर हो जाता है जो कहावत बन चुका है – इण्डियन टाइम यानी कम से कम दो घण्टे विलम्ब।
सच तो यह है कि ब्रह्माण्ड में दो ही महान् हैं, एक तो परम् शक्ति दूसरा समय। जब कुछ नहीं था तब भी ये शक्तियाँ थीं, जब कुछ नहीं रहेगा तब भी ये मौजूद होंगी। यह भी वक़्त ही बताएगा कि समय कब तक ब्रह्माण्ड को अपनी अँगुली पर नचाएगा। किन्तु पुरुषोत्तम यकीन कहते हैं कि – “और कब तक? यूँ ही सतायेगा
वक़्त ! आख़िर तू हार जायेगा
खुद ही रोयेगा ख़त्म कर के मुझे
फिर मेरा कुछ बिगाड़ न पायेगा”
arey wah ..kya baat hai !!
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