फ्रेंज काफ़्का की कहानी - कायान्तरण

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कायान्‍तरण ए क सुबह ग्रेगोर सम्‍सा जब बेचैनी भरे सपनों के बाद जागा तो उसने अपने आप को पलंग पर दानवाकार कीड़े के रूप में पाया। वह अपनी कवच ज...

कायान्‍तरण

क सुबह ग्रेगोर सम्‍सा जब बेचैनी भरे सपनों के बाद जागा तो उसने अपने आप को पलंग पर दानवाकार कीड़े के रूप में पाया। वह अपनी कवच जैसी कठोर पीठ के बल लेटा था और जब उसने अपना सिर हल्‍के से उठाया तो उसने गुम्‍बद जैसे भूरे पेट को देखा जिस पर कड़े महराब जैसे टुकड़े लगे थे और जिन पर रजाई बमुश्‍किल ठहर पा रही थी और पूरी तरह नीचे गिर जाने वाली थी, उसके ढेरों पैर जो शरीर के आकार की तुलना में बेहद दुबले थे, उसकी आँखों के सामने निराश हो हिल रहे थे।

मुझे हो क्‍या गया है? उसने सोचा। यह सपना तो था नहीं। उसका कमरा, किसी भी व्‍यक्‍ति का, साधारण-सा बेडरूम हालाँकि कुछ ज्‍यादा ही छोटा, चार परिचित दीवारों से घिरा था। टेबिल के ऊपर कपड़ों के सेम्‍पल (नमूने) फैले हुए थे- सम्‍सा एक व्‍यापारिक एजेण्‍ट यात्री है- वहीं पर कुछ समय पहिले सचित्र पत्रिका में से काटी एक पिक्‍चर सुन्‍दर से फ्रेम में लगी रखी है। उसमें फर कैप और फर का ही दुपट्टा पहिने एक सुन्‍दर स्‍त्री थी जो दर्शकों के सामने बहुत बड़े फर का दस्‍ताना पहिने बैठी थी, जिसमें उसका हाथ पूरी तरह छिप गया था।

ग्रेगोर की आँखें खिड़की की ओर घूमीं, बादलों से भरे आकाश की ओर, कोई भी खिड़की पर पड़ती पानी की बूँदों को सुन सकता था- उदासी उस पर छा गई। इस सब बकवास को भूल क्‍यों न कुछ देर और सोया जाए, उसने सोचा

लेकिन यह सम्‍भव था नहीं क्‍योंकि उसकी आदत दाहिने करवट ले सोने की थी और अपनी वर्तमान स्‍थिति में करवट लेना उसके वश में था ही नहीं। पूरी ताकत लगाकर उसने दाहिनी ओर घूमना चाहा लेकिन अपनी प्रत्‍येक कोशिश के बाद वह अपने आप पीठ के बल हो गया। उसने कम से कम सौ बार कोशिश की अपनी आँखें बन्‍द कर संघर्ष करते पैरों को न देखने की और तभी रुका था जब उसे अपनी बगल में हल्‍का-सा दर्द महसूस होने लगा- ऐसा दर्द जैसा उसने पहिले कभी अनुभव ही नहीं किया था।

हे भगवान! उसने सोचा, कितना थकान भरा काम मैंने चुना है। यात्रा और यात्रा, रोज-ब-रोज चलते रहना। गोदाम में काम करने की तुलना में यह अधिक थकान भरा काम है और उसके ऊपर लगातार यात्रा करते रहना, अगली ट्रेन के समय का काम करते हुए ख्‍याल रखे रहना, बदलते पलंग और अनियमित भोजन, साधारण-सा परिचय जो हमेशा औपचारिक ही बना रहता है, कभी आत्‍मिक नहीं हो पाता। शैतान की गाज इन पर गिरे। उसे अपने पेट में हल्‍की-सी खुजली महसूस हो रही थी इसलिए धीरे से सिर उठाया ताकि आराम से सिर रख सके और खुजली की जगह को पहचान सके। वह स्‍थान बहुत से सफेद दागों से भरा था, जिनका कारण और स्‍वभाव उसे पता ही नहीं था और अभी उसने उस जगह को छुआ ही था कि उसने तुरन्‍त अपना पैर पीछे खींच लिया क्‍योंकि छूते ही पूरी देह एक ठण्‍डी लहर से सिहर गई थी।

सरक कर वह पहिली जैसी स्‍थिति में लेट गया। जल्‍दी उठ जाने से उसने सोचा आदमी ठगा-सा महसूस करता है। आखिर एक आदमी को पूरी नींद की जरूरत भी तो होती है न। दूसरे व्‍यापारी तो हरमों की औरतों की तरह रहते हैं। उदाहरण के लिए-एक सुबह जब मैं मिले आर्डरों को लिखने के विचार से डाइनिंग हॉल में आया, तब वहाँ वे बैठे ब्रेकफास्‍ट कर रहे थे। इस तरह की कोई हरकत मैंने की होती तो मेरा चीफ मुझे उसी समय नौकरी से निकाल देता। वैसे हो सकता है ऐसा होना मेरे हित में हो, कौन कह सकता है? यदि मुझे माता-पिता के कारण अपने हाथ को रोके रखने की मजबूरी न होती तो मैंने बहुत पहिले ही नौकरी छोड़ने का नोटिस दे दिया होता। मैं चीफ के पास पहुँचा होता और जो कुछ भी उसके बारे में मेरी दिली राय है उससे कह देता। सुनकर वह अपनी डेस्‍क पर ही गिर पड़ा होता। अच्‍छा-खासा अजीब-सा तरीका ही है, डेस्‍क के ऊपर बैठकर नीचे बैठे अधीनस्‍थों से बात करने का, विशेषकर तब जब उन्‍हें बेहद पास बैठना पड़े क्‍योंकि चीफ को कम सुनाई पड़ता है। बहरहाल आशा से आसमान टँगा है, बस एक बार मैं इतनी रकम बचा लूँ कि मैं अपने माँ-बाप को दिया उसका कर्ज भर चुका दूँ बस, इसमें कम से कम पाँच या छः वर्ष तो लग ही जाएँगे, यह तो मैं करूँगा ही। और फिर मैं पूरी तरह बन्‍धन मुक्‍त हो जाऊँगा। लेकिन फिलहाल तो मेरे लिए यही बेहतर होगा कि मैं उठ बैठूँ, क्‍योंकि मेरी ट्रेन पाँच बजे जाने वाली है।

उसने बक्‍से पर रखी टिक्‌-टिक्‌ करती अलार्म घड़ी को देखा। हे भगवान! उसने सोचा, साढ़े छः बज चुके थे और घड़ी के हाथ चुपचाप चलते चले जा रहे थे, आधा घण्‍टे से भी ज्‍यादा हो चुका है, पौने सात बजने वाले हैं। क्‍या अलार्म बजा ही नहीं था? पलंग से तो कोई भी यह देख सकता है कि चार बजे का अलार्म लगा है, अवश्‍य ही अलार्म बज चुका होगा। ऐसा ही हुआ होगा लेकिन क्‍या उस कानफोडू आवाज के बीच सोए रहना सम्‍भव है? वैसे उसे नींद अच्‍छी तो नहीं आई थी, मेरा तात्‍पर्य है गहरी नींद। लेकिन अब उसे करना क्‍या चाहिए? अगली ट्रेन सात बजे जाती है, उसे पकड़ने के लिए उसे पागलों की तरह काम करना होगा, फिर अभी उसे सेम्‍पल भी तो पैक करना होगा, और हालत यह है कि वह ताजा दम महसूस ही नहीं कर रहा है। और इतनी सारी मशक्‍कत के बाद वह ट्रेन पकड़ भी ले तब भी चीफ से झगड़ा होना तो तय ही है, क्‍योंकि गोदाम का पोर्टर (दरबान) तो पाँच बजे की ट्रेन के हिसाब से रास्‍ता देखता रहा होगा और उसके न पहुँचने की सूचना दे चुका होगा। पोर्टर चीफ का आदमी है रीढ़विहीन और मूर्ख। वैसे यदि वह सूचना दे दे कि वह बीमार पड़ गया है तो? किन्‍तु यह कुछ अधिक दुखदायी ही सिद्ध होगा और विश्‍वसनीय तो कतई नहीं क्‍योंकि पाँच वर्षों की नौकरी में वह एक बार भी बीमार नहीं पड़ा है। निश्‍चित तौर पर समझ लो कि चीफ सिक-इंश्‍योरेन्‍स डॉक्‍टर को लेकर तुरन्‍त यहाँ आ टपकेगा, उसके माता-पिता को आलसी-कामचोर बेटे को पैदा करने के लिए भला-बुरा कहेगा। और सारे बहानों को भूलकर उस इंश्‍योरेन्‍स डॉक्‍टर के पास भेज देगा, जो पूरी मानव जाति को पूर्ण स्‍वस्‍थ और बीमारी का बहाना करने वाला मानता है। और उसके बारे में वह ज्‍यादा गलत भी तो नहीं होगा? ग्रेगोर को कोई तकलीफ तो थी नहीं, अच्‍छा-खासा महसूस कर रहा था, बस कुछ अलसाई नींद भर थी जो लम्‍बी नींद के बाद होती ही है, साथ ही उसे तेज भूख भी लग रही थी।

जब यह सब उसके मन में उमड़-घुमड़ रहा था और वह बिस्‍तर छोड़ने के बारे में निश्‍चय नहीं कर पा रहा था-तभी अलार्म घड़ी ने पौने सात बजाए, साथ ही उसके पलंग के पीछे के दरवाजे पर खटखटाहट हुई। ‘ग्रेगोर', आवाज आई, आवाज उसकी माँ की थी, “पौने सात बज गए हैं। तुम्‍हें ट्रेन पकड़ना है ना?” कोमल आवाज। ग्रेगोर चौंक गया जब उसने अपनी आवाज को उत्तर देते सुना, बिलाशक-उसकी आवाज, यह सच था लेकिन एक भयानक किकयाहट भरी चींचीं उसके अन्‍त में थी जिसके शब्‍द शुरू में तो स्‍पष्‍ट सुनाई पड़ रहे थे लेकिन फिर अपना अर्थ खो रहे थे, इससे सुनने वाला निश्‍चित रूप से यह नहीं कह सकता था कि उसने जो कुछ भी सुना है, वह सही है भी या नहीं। ग्रेगोर विस्‍तार से सबकुछ बतलाना चाहता था किन्‍तु वर्तमान परिस्‍थिति में मात्र उसने इतना ही कहा, “हाँ․․․हाँ, धन्‍यवाद मम्‍मा, बस मैं उठ रहा हूँ।” उनके बीच की लकड़ी के दरवाजे ने उसकी बदली आवाज को बाहर नहीं जाने दिया होगा क्‍योंकि माँ उसके उत्तर से सन्‍तुष्‍ट हो आगे चली गई होंगी। लेकिन शब्‍दों के इस संक्षिप्‍त से आदान-प्रदान से परिवार के अन्‍य सदस्‍यों को पता चल गया होगा कि ग्रेगोर अभी घर में ही है, जिसकी वे आशा नहीं करते थे और एक अन्‍य दरवाजे को उसके पिता खटखटाने लगे थे धीरे-धीरे लेकिन मुट्ठी बाँधकर। ‘ग्रेगोरऽ ग्रेगोरऽऽ', उन्‍होंने कहा, “तुम्‍हें हुआ क्‍या है?” फिर कुछ देर बाद उन्‍होंने भारी-सी आवाज में उसे पुकारा था, “ग्रेगोरऽ ग्रेगोर।” दूसरे दरवाजे से उसकी बहन धीमे किन्‍तु उदास स्‍वर में कह रही थी, “ग्रेगोर? क्‍या तुम्‍हारी तबियत ठीक नहीं है? क्‍या तुम्‍हें कुछ चाहिए?” उसने दोनों को ही तुरन्‍त एक साथ उत्तर दिया, “बस, मैं तैयार हो रहा हूँ।” उसने अपनी आवाज को पूरी शक्‍ति से सहज और सामान्‍य बनाने की कोशिश में प्रत्‍येक शब्‍द के बाद पर्याप्‍त अन्‍तर दे दिया। उत्तर सुन उसके पिता नाश्‍ता करने चले गए लेकिन उसकी बहन ने फुसफुसा कर कहा, “ग्रेगोर, दरवाजा खोलो।” लेकिन वह दरवाज़ा खोलने की कतई नहीं सोच रहा था और मन ही मन स्‍वयं को धन्‍यवाद दिया उस आदत के लिए जो उसने यात्राओं से सीखी है- रात में प्रत्‍येक दरवाजे को बन्‍द करने की, यहाँ तक कि घर में भी।

उसकी इच्‍छा तुरन्‍त बिना परेशानी के चुपचाप कपड़े पहिनने के बाद नाश्‍ता करने की थी और फिर उसके बाद निर्णय करने की, कि अब उसे आगे क्‍या करना है, क्‍योंकि वह जानता था कि बिस्‍तर पर पड़े-पड़े सोचने-चिल्‍लाने से किसी समझदारी भरे निष्‍कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता था। उसे स्‍मरण हो आया कि प्रायः बिस्‍तर पर उसे हल्‍का दर्द होता रहता है, सम्‍भवतः ऊटपटाँग ढंग से सोने के कारण, जो उठकर खड़े होने पर काल्‍पनिक सि( हुआ करता था, वह उत्‍सुकता के साथ राह देख रहा था इस सुबह के भ्रम के टूटने की। उसमें हुआ परिवर्तन सर्दी के कारण है जो प्रत्‍येक सेल्‍समैन की निश्‍चित बीमारी होती है, इसमें उसे कोई सन्‍देह ही नहीं था।

पलंग से उठना बेहद सहज था, उसे बस अपने को फुलाना भर था और यह सर्दी स्‍वयं गायब हो जाएगी। लेकिन अगला कदम कठिन था क्‍योंकि वह असामान्‍य रूप से चौड़ा हो गया था। उसे हाथों और बाँहों की आवश्‍यकता थी उठने के लिए। उनकी जगह उसके पास अनगिनत छोटे-छोटे पैर थे जिन्‍होंने हर दिशा में लगातार हिलना कभी बन्‍द ही नहीं किया था और जिन्‍हें रोकना भी उसके वश में न था। जब उसने उनमें से एक को मोड़ना चाहा तो वह सीधा तन गया, तो क्‍या वह सफल हुआ था वह करने में, जो वह करना चाहता था, लेकिन उसके साथ ही बाकी बचे पैर और तेजी से हिल नाराजगी दिखाने लगे थे। “लेकिन इस तरह आलसियों की तरह पलंग पर पड़े रहने का उपयोग क्‍या है भला,” ग्रेगोर ने स्‍वयं से कहा।

उसने सोचा शायद बिस्‍तर पर से अपना निचला भाग पहिले उठाना अधिक सरल होगा, लेकिन निचला भाग जिसे उसने अभी तक देखा तक नहीं था और जिसका कोई स्‍पष्‍ट आकार भी उसके मन में नहीं था, उसे हिलाना भी उसने पर्याप्‍त कठिन पाया। वह इतने धीमे से उसे हिला पा रहा था और अन्‍त में पशुवत्‌ क्रोध से उसने अपनी शक्‍ति एकत्र कर उसे उठाने के लिए अन्‍धाधुन्‍ध तरीके से आगे बढ़ाया लेकिन उसने दिशा पर ध्‍यान नहीं दिया और पलंग के निचले भाग से जोर से टकराया और फिर जो मर्मान्‍तक पीड़ा उसे हुई उसने सूचित कर दिया कि देह का निचला भाग ही इस समय सर्वाधिक संवेदनशील है।

इसलिए उसने अब ऊपर के भाग को पहिले उठाने की कोशिश और पूरी सावधानी के साथ अपने सिर को पलंग के किनारे सरकाकर ले आया। यह कुछ ज्‍यादा सहज था, साथ ही अपने वजन और चौड़ाई के बावजूद शरीर का अधिकांश हिस्‍सा भी उसके सिर के साथ ही हिला। लेकिन जब सिर पलंग से अलग हो गया तो वह आगे बढ़ने से डरने लगा क्‍योंकि यदि उसने इसी तरह अपने को गिरने दिया तो उसके सिर को चोट लगने से कोई चमत्‍कार ही रक्षा कर सकता था और कुछ भी हो, किसी भी कीमत पर उसे अपनी चेतना को नहीं खोना है- अतः फिलहाल तो पलंग पर रहना ही बेहतर है।

एक बार फिर उन्‍हीं क्रियाओं को दोहराकर वह अपनी पुरानी स्‍थिति में पहुँचा और लम्‍बी साँस ले अपने छोटे-छोटे पैरों को तेजी से चलते देखने लगा। क्‍या इसमें स्‍वतः प्रेरित क्रिया से कोई क्रमबद्धता लाना सम्‍भव है। उसने अपने आपसे कहा कि बिस्‍तर पर पड़े रहना तो असम्‍भव ही है, अतः इस खतरे को उठाकर इस सबसे बचने के लिए उसे समझदारी भरा तरीका अपनाना ही होगा। इसके साथ ही वह यह भी नहीं भूला अपने को याद दिलाने की, कि वह ठण्‍डी परछाईं, सर्वाधिक सर्दी इस दुस्‍साहसी प्रयास से बेहतर थी। अनिर्णय के इन क्षणों में उसने अपनी आँखों को खिड़की पर स्‍थिर किया लेकिन दुर्भाग्‍य से सुबह के कोहरे ने संकरी गली के सामने के भाग को भी घेर रखा था, यह देख उसे बेहद कम उत्‍साह और आराम मिला। “सात बज चुके हैं”, उसने अपने आप से कहा जब अलार्म घड़ी से दोबारा अलार्म की आवाज आई, “सात बज चुके हैं और फिर भी इतना गहरा कोहरा।” कुछ देर आराम से वह खामोश लेटा रहा इस उम्‍मीद के साथ कि इस विश्राम के बाद सब कुछ अपनी वास्‍तविक और स्‍वाभाविक स्‍थिति में आ जाएगा।

लेकिन तभी उसने स्‍वयं से कहा, “इसके पहिले कि सवा सात बजे मुझे बिस्‍तर से बाहर हो जाना चाहिए बिना किसी गलती के, क्‍योंकि इसकी पूरी सम्‍भावना है कि इस बीच कोई गोदाम से मुझे बुलाने आ जावेगा क्‍योंकि वह तो सात बजने के पहिले ही खुल जाता है।” उसने अपने पूरे शरीर को फुलाना शुरू कर दिया, इस विचार के साथ कि इस तरह फूलकर वह बिस्‍तर से उतर जाने में सफल होगा। यदि उसने इस तरह अपने शरीर को हवा में उछाला तो अपने सिर को सम्‍भावित चोट से बचाने के लिए उसे एक खास कोण पर रखेगा जब भी पलंग से बाहर गिरेगा। उसकी पीठ तो कठोर महसूस हो रही थी और कार्पेट पर गिरने से ज्‍यादा चोट नहीं लगेगी। उसकी सबसे बड़ी चिन्‍ता उस रोज-ब-रोज होने वाली टक्‍कर से थी, जिसे रोकना उसके लिए सम्‍भव ही न था, जानने की, उत्‍सुकता की सम्‍भावना, जो प्रत्‍येक दरवाजे के उस पार मौजूद थी। फिर भी उसे खतरा तो उठाना ही होगा।

वह आधे पलंग को पार कर चुका था। यह तरीका खेल अधिक था कोशिश कम क्‍योंकि उसे केवल अपने को आगे-पीछे झुलाना भर ही तो था- उसे लगा यह कितना सहज और सरल होता यदि उसे कुछ सहायता मिल गई होती तो। दो स्‍वस्‍थ व्‍यक्‍ति-उसने अपने पिता और नौकरानी के विषय में सोचा, पर्याप्‍त थे, उन्‍हें बस अपने हाथों को मेरी मुड़ी पीठ पर लगा लीवर की तरह पलंग से उठाना भर पड़ता, वजन को लिए झुकते और उसे धीरज के साथ फर्श पर रख पलटने का मौका देते और यहीं वह आशा करता था कि इसके बाद उसके पैरों को अपना काम करने का अवसर मिल जाएगा। यह भूलकर कि सभी दरवाजे भीतर से बन्‍द हैं, क्‍या उसे फिर भी सहायता के लिए आवाज देनी चाहिए? अपनी परेशानियों के बीच इस विचार मात्र से वह मुस्‍कराहट को आने से रोक नहीं सका।

वह इतनी दूर तक तो आ गया था कि अपना बैलेंस वह बमुश्‍किल बनाए रख पा रहा था। जब उसने तेजी से अपने को झुलाया तो उसे न केवल स्‍वयं को संयत रखना था अपने को अन्‍तिम निर्णय के लिए क्‍योंकि पाँच मिनट के बाद, सवा सात बज चुके होंगे और तभी घर के बाहर की घण्‍टी बजी। “कोई गोदाम से ही आया होगा,” उसने स्‍वयं से कहा और साथ ही तन गया जबकि उसके नन्‍हें-नन्‍हें पैर और भी तेजी से चलने लगे थे। एक पल को सब कुछ शान्‍त हो गया। “वे दरवाज़ा खोलने वाले नहीं हैं” ग्रेगोर ने अपने आपसे अतार्किक आशा के साथ कहा। लेकिन हमेशा की तरह नौकरानी भारी कदमों के साथ दरवाजे की ओर बढ़ गई थी और दरवाज़ा खोल दिया था। ग्रेगोर को आने वाले की ‘गुड मार्निंग' भर सुननी थी कि उसे पता लग जाना था कि वह है कौन? - हैड क्‍लर्क स्‍वयं। क्‍या भाग्‍य है, ऐसी फर्म में काम करने की सजा जहाँ जरा-सी गलती पर गम्‍भीरतम सन्‍देह के घेरे में आदमी आ जाता हो। जहाँ के सभी कर्मचारी नम्‍बर एक के बदमाश हैं, क्‍या उनमें एक भी भलामानुस नहीं है। हालाँकि उसने फर्म का एक घण्‍टे से कुछ ज्‍यादा का समय बर्बाद कर दिया है, लेकिन वह करे भी तो क्‍या करे, वह इतना आत्‍म-पीडि़त है कि उसका दिमाग घूम गया है और वह वास्‍तव में बिस्‍तर छोड़ने के लायक नहीं रहा है। क्‍या किसी एपरेंटिस (प्रशिक्षु) को भेजना पर्याप्‍त नहीं होता खोज-खबर लाने के लिए, यदि पता लगाना इतना ही आवश्‍यक था तो-क्‍या इस तरह स्‍वयं हैड क्‍लर्क ने आकर पूरे परिवार को यह इशारा नहीं कर दिया है- एक निर्दोष सीधे-सादे परिवार को, कि इस सन्‍देहास्‍पद परिस्‍थिति की जाँच उसके सिवाय करने वाला वहाँ कोई है ही नहीं। मन में उठते इस तूफान से उत्‍पन्‍न क्रोध से, न कि इच्‍छा के कारण ग्रेगोर ने अपने को पूरी शक्‍ति से झुलाकर पलंग से बाहर कर लिया। एक जोरदार धप्‍प की आवाज हुई, लेकिन वह टकराहट से नहीं उपजी थी। कार्पेट के कारण गिरने का प्रभाव कुछ कम हुआ था, उसकी पीठ भी अधिक कठोर न थी, जैसा उसने सोचा था उससे कम ही कठोर थी और इसीलिए केवल एक हल्‍की-सी धप्‍प की आवाज़ हुई थी, जो चौंकाने वाली तो कतई नहीं थी। लेकिन सावधानी को भूल उसने अपने सिर को पर्याप्‍त ऊपर नहीं उठाया था इसलिए वह टकरा गया था, उसने उसे दर्द के कारण घुमाया और क्रोध के कारण उसे रगड़ दिया।

“वहाँ कुछ न कुछ गिरा है,” हैड क्‍लर्क ने पास के बाएँ कमरे में कहा। ग्रेगोर ने स्‍वयं से कहा, जैसा उसके साथ आज हो रहा है, वैसा किसी दिन हैड क्‍लर्क के साथ भी तो हो सकता है, इसकी सम्‍भावना से तो इन्‍कार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस विचार के प्रत्‍युत्तर में जैसे पास के कमरे में हैडक्‍लर्क दो कदम तेजी से आगे बढ़ा तो उसके पेटेंट चमड़े के जूते चरमराए। दाहिने कमरे से उसकी बहन फुसफुसाकर उसे परिस्‍थिति को समझाते हुए कह रही थी, “ग्रेगोर हैड क्‍लर्क आ गया है।” “मुझे पता है,” उसने स्‍वयं से धीरे से कहा, लेकिन वह अपनी आवाज़ इतनी बढ़ा नहीं सकता था कि उसकी बहन सुन सके।

“ग्रेगोर”, बाईं ओर के कमरे से उसके पिता बोल रहे थे, “हैड क्‍लर्क आए हुए हैं और वे जानना चाहते हैं कि तुमने सुबह की ट्रेन क्‍यों नहीं पकड़ी। हमें तो कुछ पता है नहीं, कि क्‍या उत्तर देना है। साथ ही वे तुमसे व्‍यक्‍तिगत रूप से बात करना चाहते हैं। इसलिए प्‍लीज़ दरवाज़ा खोल दो। अब इतने सज्‍जन तो वे हैं कि तुम्‍हारे कमरे की अस्‍त-व्‍यस्‍तता के लिए वे तुम्‍हें माफ कर ही देंगे।”

“गुड मार्निंग मिस्‍टर सम्‍सा”, इस बीच हैड क्‍लर्क मिलनसारिता भरी आवाज में कह रहा था। “उसकी तबियत तो ठीक है”, उसकी माँ ने मेहमान से कहा, लेकिन इधर उसके पिता दरवाज़े पर खड़े हो कहे जा रहे थे, “मेरा विश्‍वास कीजिए वह बीमार है। भला और क्‍या कारण हो सकता है ट्रेन न पकड़ने का। हमारा बेटा तो काम के सिवाय और कुछ सोचता ही नहीं है। जिस तरह वह शामों को कहीं बाहर नहीं जाता, यह देखकर तो मैं उससे बेहद नाराज हूँ। यह सिलसिला पिछले आठ दिनों से चल रहा है जब वह हर शाम घर में ही बन्‍द रहा है। बस, चुपचाप बैठा या तो अखबार पढ़ता रहता है या फिर रेलवे टाइमटेबिल को पलटता रहता है। एक मात्र मनोरंजन वह केवल नक्‍काशी के काम में ही पाता है। अब देखिए न, दो-तीन शामों में वह लगातार एक छोटे से पिक्‍चर-फ्रेम को काटता रहा है, आप देखेंगे न उसे, तो उसकी सुन्‍दरता को देख आश्‍चर्यचकित रह जाएँगे- वह उसके कमरे में ही टँगा है, उसे आप अभी एक मिनट बाद ही अपनी आँखों से देख लेंगे जब ग्रेगोर दरवाज़ा खोल देगा। मुझे आपको यहाँ देखकर बेहद खुशी हुई है सर। हम तो कभी उससे दरवाज़ा खुलवाने में सफल हो ही नहीं सकते थे, वो इतना अकडू जो हैः और मुझे पूरा विश्‍वास है कि उसका स्‍वास्‍थ्‍य ठीक नहीं है, हालाँकि इस सुबह उसे ऐसा होना तो नहीं चाहिए था।” “बस, मैं आ रहा हूँ” ग्रेगोर ने पूरी सावधानी के साथ धीरे से बिना एक इंच भी हिले-डुले कहा, उसे डर था कि कहीं बातचीत का एकाध टुकड़ा सुनने से वंचित न रह जाए। “मैडम, इसके अलावा और किसी कारण की तो मैं कल्‍पना भी नहीं कर सकता”, हैड क्‍लर्क ने कहा, “उम्‍मीद करता हूँ कि कुछ गम्‍भीर बीमारी नहीं होगी, हालाँकि दूसरी ओर मैं यह भी कहूँगा कि हम व्‍यापारियों को सौभाग्‍य से कहिए या दुर्भाग्‍य से- हमें छोटी-मोटी बीमारियों को अनदेखा करना ही पड़ता है क्‍योंकि जिस-जिससे मिलना तय किया है, वहाँ तो पहुँचना ही होता है न!” - “हाँ, तो क्‍या अब हैड क्‍लर्क जी भीतर आ सकते हैं।” ग्रेगोर के पिता ने धीरज खोते हुए दरवाजे को खटखटाते हुए कहा। ‘नहींऽ अभी नहीं', ग्रेगोर ने उत्तर दिया। बाएँ ओर के कमरे में दर्द भरा सन्‍नाटा पसर गया इस इंकार को सुनने के बाद और दाहिने ओर के कमरे में उसकी बहन सुबकने लगी।

उसकी बहन उन लोगों के पास जा क्‍यों नहीं रही है? शायद वह अभी-अभी बिस्‍तर से उठी है और शायद उसने अभी कपड़े नहीं पहने हैं। वैसे, वह रो क्‍यों रही है?- क्‍योंकि वह उठ नहीं रहा है और हैड क्‍लर्क को भीतर नहीं आने दे रहा है, क्‍योंकि उसकी नौकरी जाने का खतरा सिर पर खड़ा है और क्‍योंकि हैड क्‍लर्क उसके माँ-बाप से पुराने कर्जे का तकाजा करेगा? कम-से-कम इन सब बातों पर फिलहाल तो चिन्‍ता करने की आवश्‍यकता नहीं है। ग्रेगोर अभी तो घर में था और घर छोड़ने के बारे में कतई नहीं सोच रहा था। सच तो यह था कि इस पल वह कार्पेट पर पड़ा था और जो कोई भी इन परिस्‍थितियों से परिचित होता तो उससे यह अपेक्षा नहीं करता कि वह हैड क्‍लर्क को भीतर आने देगा। लेकिन इस जरा से असौजन्‍यतापूर्ण व्‍यवहार से, जिसे बाद में आराम से समझाया जा सकता था, ग्रेगोर को तत्‍काल नौकरी से तो नहीं ही निकाला जा सकता था। होना तो यह चाहिए था कि ग्रेगोर को इस अवसर पर शान्‍ति से सामना करने के लिए छोड़ देना अधिक समझदारी भरा काम था बजाए टसुए बहाने और डाँटने के। लेकिन इस सबके बावजूद यह अनिश्‍चितता सभी को परेशान कर रही थी और उन्‍हें उनके इस व्‍यवहार के लिए क्षमा कर देना चाहिए था।

“मिस्‍टर सम्‍सा”, हैड क्‍लर्क इस बार जोर से बोला, “तुमको हुआ क्‍या है? एक ओर तो तुम अपने को कमरे में बन्‍द करे हो और हाँ, नहीं में उत्तर दे अपने माता-पिता को व्‍यर्थ चिन्‍ता में डाल रहे हो- मैं इतना अपनी ओर से अवश्‍य कहूँगा कि तुम अपने व्‍यावसायिक कर्त्त्‍ाव्‍यों की अवहेलना कर रहे हो। मैं, तुम्‍हारे माता-पिता की ओर से और तुम्‍हारा अधिकारी होने के नाते कह रहा हूँ। मैं तुमसे पूरी गम्‍भीरता से कह रहा हूँ कि तुम मुझे तुरन्‍त सही-सही उत्तर दो। तुम्‍हारे व्‍यवहार से मैं तो आश्चर्यचकित हूँ। अभी तक तो तुम्‍हारे बारे में मेरी राय थी कि तुम एक शान्‍त और विश्‍वसनीय व्‍यक्‍ति हो लेकिन तुम तो निहायत बेशर्मी भरा बर्ताव कर रहे हो। साहब ने मुझे सुबह-सुबह तुम्‍हारे गायब रहने का एक सम्‍भावित कारण बतलाया था- उस नगद पेमेण्‍ट के बारे में जो तुम्‍हें देने को कुछ समय पहिले दिया गया था- लेकिन मैं तुमसे कसम खाकर कह रहा हूँ, मैंने उनसे कहा था, कि यह तो हो ही नहीं सकता, मैंने उनसे शपथ खाकर यही कहा था। लेकिन अब तुम्‍हारी इस हठधर्मिता को देख तुम्‍हारा पक्ष लेने का मेरा कोई इरादा नहीं है। और यह भी समझ लो कि फर्म में तुम्‍हारा होना अनिवार्य कतई नहीं है। मैं तो तुमसे भलमनसाहत के चलते खुद चलकर तुमसे अकेले में चर्चा करने आया था, लेकिन चूँकि तुम मेरा समय बर्बाद कर रहे हो और इस अपमान को भूल भी जाऊँ तो, और हाँ, इसमें भी मुझे कोई बुराई नहीं दिखती कि तुम्‍हारे माँ-बाप भी सुन लें और समझ लें कि पिछले दिनों तुम्‍हारा काम सन्‍तोषजनक नहीं रहा है। सच है कि यह बाजार उठने का समय नहीं है- यह तो हम स्‍वीकार करते हैं लेकिन ऐसा मौसम भी नहीं है कि व्‍यापार बिल्‍कुल ही न हो- कि उसका अस्‍तित्‍व ही न हो, धन्‍धा मन्‍दा है फिर भी है।”

“लेकिन सर”, ग्रेगोर अपनी समस्‍या को भूल गुस्‍से में चीखा, “मैं, बस एक मिनट में दरवाजा खोलने वाला हूँ। कुछ तबियत-सी खराब थी मेरी, चक्‍कर आने से मैं जल्‍दी नहीं उठ पाया। मैं तो अभी बिस्‍तर पर ही लेटा हूँ। लेकिन पहिले से बेहतर महसूस कर रहा हूँ। मैं उठने ही जा रहा हूँ। एक-दो मिनट और दे दीजिए प्‍लीज। मेरा स्‍वास्‍थ्‍य उतना अच्‍छा है नहीं जितना मैं समझ रहा था। लेकिन सच यह है कि अब मैं बिल्‍कुल ठीक हूँ। बीमारी कब हमला कर दे, इस बारे में कौन निश्‍चित तौर पर कह सकता है? पिछली रात मैं बिल्‍कुल ठीक था, मेरे माता-पिता आपको यह बतला देंगे, हालाँकि मुझे कुछ पूर्वाभास-सा था। कुछ चिन्‍ह मुझमें जरूर ही रहे होंगे। इसीलिए तो मैं गोदाम में नहीं पहुँचा था! यह तो कोई भी नहीं सोचेगा कि बीमारी घर में बिना रूके ठीक हो सकती है। प्‍लीज़ सर, मेरे माता-पिता को क्षमा कर दें! आप जो आरोप लगा रहे हैं वे बेबुनियाद हैं, उस सम्‍बन्‍ध में एक शब्‍द भी किसी ने नहीं कहा है। शायद आपने उस पिछले आर्डर को नहीं देखा है, जो मैंने भेजा था। बहरहाल, अभी मैं आठ बजे वाली ट्रेन पकड़ सकता हूँ, कुछ घण्‍टों के आराम के बाद मैं निहायत बेहतर महसूस कर रहा हूँ। सर, मैं आपको अब नहीं रोकूँगा, और बहुत जल्‍दी ही अपने काम पर निकल जाऊँगा। प्‍लीज इतनी कृपा और करें कि मेरी कही बातें उन तक पहुँचा दें और मेरी ओर से क्षमा माँग लें।”

और इस बीच जब घबराहट में वह यह सब बके जा रहा था, बिना सोचे-समझे, तभी वह धीरे-धीरे चेस्‍ट (तिजोरी) के पास अनजाने में पहुँच गया था, शायद बिस्‍तर से वहाँ तक पहुँचने की अपनी आदत के कारण और उसकी सहायता से सीधा होने की पुरजोर कोशिश कर रहा था। वह दिल से दरवाज़ा खोलना चाह रहा था और उसका सामना करना चाहता था, साथ ही हैड क्‍लर्क से रूबरू बात करना चाहता था। सभी इतना जोर दे रहे हैं दरवाज़ा खोलने के लिए तो वह भी यह जानने को उत्‍सुक था, कि उसे देखकर उनकी प्रतिक्रिया क्‍या होगी। यदि वे डर जाते हैं तो उसकी जिम्‍मेदारी नहीं होगी और वह शान्‍त रह सकता है। लेकिन यदि उन्‍होंने सामान्‍य व्‍यवहार किया जैसे कुछ हुआ ही न हो, तब उसे परेशान होने की कोई आवश्‍यकता नहीं और फिर वह आराम से आठ बजे की ट्रेन पकड़ लेगा, लेकिन उसे सब कुछ जल्‍दी ही करना होगा। शुरू में तो वह कई बार चेस्‍ट की चिकनी सतह पर फिसला, लेकिन अन्‍त में वह सीधा खड़े होने में सफल हो गया, उसने अपने शरीर के निचले हिस्‍से में होते दर्द की ओर कोई ध्‍यान ही नहीं दिया। लेकिन उधर बाहर वे लोग बढ़ते आ रहे थे। उसने स्‍वयं को पास रखी कुर्सी की पीठ पर गिर जाने दिया और अपने नन्‍हें पैरों से उसकी कोरों को कसकर पकड़ लिया। इससे उसे अपने ऊपर कण्‍ट्रोल हो गया। यह सब करते अभी तक वह बोले जा रहा था, लेकिन अब चुप हो गया क्‍योंकि अब वह सुन सकता था कि हैड क्‍लर्क कह क्‍या रहा था।

“तुम्‍हारे भेजे में एक शब्‍द भी घुसा है, जो मैंने कहा था?” हैड क्‍लर्क कहे जा रहा था, “यह तो निश्‍चित है कि यह हम सबको मूर्ख नहीं बना रहा है।”

“हे भगवान,” उसकी माँ की आँखों में आँसू आ गए थे और वे सुबकते हुए कह रही थीं, “वह शायद बहुत गम्‍भीर रूप से बीमार है और हम उसे परेशान किए जा रहे हैं। ग्रीटी! ग्रीटी।” कह वे जोर से बोलीं, “हाँऽऽमाँ”, उसकी बहन ने दूसरी ओर के कमरे से कहा। वे दोनों ग्रेगोर के कमरे के बाजू के दो अलग-अलग कमरों से बात कर रही थीं। “तुम तुरन्‍त डॉक्‍टर के पास जाओ। ग्रेगोर बीमार है। उसे बुलाने जरा जल्‍दी से भागो। तुमने सुना नहीं वह कैसे बोल रहा था?” “वह किसी मनुष्‍य की आवाज तो नहीं ही थी”, हैड क्‍लर्क ने माँ की चीखती आवाज की तुलना में धीमी आवाज में कहा, “अन्‍ना! अन्‍ना!! उसके पिता हाल से किचन की ओर मुँह कर हाथ मलते हुए कह रहे थे, “लुहार को तो जरा जल्‍दी से जाकर पकड़ लाओ! अभी!!” और दोनों लड़कियाँ अपने स्‍कर्टों को फड़फड़ाती हाल से निकलीं। इतनी जल्‍दी उसकी बहन ने भला कपड़े कैसे पहन लिए होंगे? और तेजी से सामने का दरवाजा अब खोल रही थी। लेकिन उसके बन्‍द होने की आवाज तो आई नहीं, स्‍वाभाविक है उन्‍होंने उसे खुला ही छोड़ दिया है, जैसा उन घरों में प्रायः होता है जहाँ कोई अनहोनी दुर्घटना हो जाती है।

लेकिन ग्रेगोर अब अधिक शान्‍त था। जो भी शब्‍द वह बोल रहा था, स्‍वाभाविक है वे समझ से परे थे, हालाँकि वे उसे स्‍पष्‍ट सुनाई दे रहे थे, पहिले से अधिक स्‍पष्‍ट, शायद इसलिए क्‍योंकि उसके कान उन स्‍वरों को सुनने के आदी हो गए थे। बहरहाल इतना तो हो ही गया था कि सभी यह समझ गए हैं कि उसके साथ कुछ-न-कुछ गड़बड़ हुआ जरूर है और उसकी सहायता को तत्‍पर हो गए हैं। ये जो कुछ सकारात्‍मक कदम उठाए गए हैं उनसे उसे कुछ राहत महसूस हुई एक बार फिर उसने अपने को मनुष्‍यों के घेरे में पाया और महत्त्‍वपूर्ण परिणामों की प्रतीक्षा करने लगा, दोनों डॉक्‍टर और लुहार से। हालाँकि वह उन दोनों में निश्‍चित अन्‍तर नहीं कर पा रहा था। अपनी आवाज़ को निर्णयात्‍मक बातचीत के लिए जो अति आवश्‍यक हो गई थी, जितनी सम्‍भव थी उतनी स्‍पष्‍ट कर कहने के विचार से वह जितना धीरे हो सका पहिले खाँसा, क्‍योंकि यह खाँसी का स्‍वर भी मनुष्‍यों की खाँसी से मिलता-जुलता नहीं भी तो हो सकता था। इस बीच पास के कमरे में पूरी खामोशी थी। सम्‍भवतः उसके माता-पिता हैड क्‍लर्क के साथ टेबिल को घेरकर फुसफुसा कर बातें कर रहे हैं। शायद वे सभी दरवाजे से कान सटाए सुनने की कोशिश कर रहे हैं।

ग्रेगोर ने कुर्सी को दरवाज़े की ओर सरकाया और फिर उसे छोड़ सहारे के लिए दरवाजे को पकड़ लिया- उसके नन्‍हें पैरों के तलुए चिपचिपे से थे- कुछ देर तक वह दरवाजे के सहारे खड़ा रहा। फिर मुँह से चाबी पकड़ ताले को खोलने की कोशिश में लग गया। अपने मुँह में दाँतों को न पा उसे दुख हुआ- आखिर वह चाबी को पकड़ेगा कैसे? -लेकिन दूसरी ओर उसके जबड़े बहुत कड़े थे, उनकी सहायता से चाबी घुमाने में वह सफल हो गया, उसने इस बात की चिन्‍ता नहीं की कि इससे उनमें चोट भी लग सकती है, क्‍योंकि उसके मुँह से भूरा-सा द्रव चाबी से बहते हुए फर्श पर गिर रहा था। “जरा ये आवाज तो सुनो”, दूसरी ओर हैड क्‍लर्क कह रहा था, “वह चाबी घुमा रहा है।” यह ग्रेगोर के लिए पर्याप्‍त उत्‍साहवर्धक था, लेकिन वे उसकी कोशिश पर उसका उत्‍साह भी तो बढ़ा सकते थे, उसके पिता और माँ भी। ‘शाबाश! ग्रेगोर लगे रहो', उन्‍हें चिल्‍लाकर कहना चाहिए। ‘घुमाते रहो, चाबी को कसकर पकड़े रहो' और इस विश्‍वास के साथ कि वे उसकी कोशिश पर कान लगाए हैं, उसने अपने जबड़े से पूरी ताकत लगा चाबी को पकड़ लिया। जैसे-जैसे चाबी घूम रही थी, वह ताले के साथ घूम रहा था, केवल मुँह से पकड़ चाबी को जितना आवश्‍यक था उतना घुमाते या फिर शरीर के पूरे वजन से उसे नीचे घुमाते हुए! अन्‍तिम क्‍लिक की आवाज़ से ताले के खुलने को तैयार होते देख ग्रेगोर की गति तेज हो गई। एक लम्‍बी साँस ले उसने स्‍वयं से कहा, “लो, मुझे लुहार की आवश्‍यकता तो नहीं ही है।” और अपना सिर हैण्‍डिल को घुमाने के लिए उस पर रख दिया।

चूँकि उसे दरवाज़े को भीतर की ओर खींचना था, इसलिए दरवाजा तो पूरा खुल चुका था लेकिन वह स्‍वयं अभी अदृश्‍य ही था। उसे धीरे-धीरे स्‍वयं को दरवाज़े के बीच में ले जाना था लेकिन एक सावधानी भी रखनी थी ताकि दहलीज पर पीठ के बल गिरने से बचा जाए। इस असम्‍भव से कठिन काम को सही रूप में करने में वह बिना कुछ देखे जुटा था, तभी उसने हैड क्‍लर्क के मुँह से तेज ‘ओह! ऽऽ' सुनी- वह हवा के झौंके की तरह थी- और अब वह उसे देख सकता था, क्‍योंकि वह दरवाजे़ के सबसे पास खड़ा था, एक हाथ अपने खुले मुँह पर रखे और धीरे-धीरे पीछे हटते हुए जैसे कोई अदृश्‍य दबाव उस पर पड़ रहा हो। उसकी माँ के बाल, वहाँ हैड क्‍लर्क के होने के बावजूद सँवरे होने की बजाए बिखरे हुए थे- उसने पहिले अपने दोनों हाथों को एक-दूसरे से कसकर पकड़ा और उसके पिता को देखा, फिर दो कदम ग्रेगोर की ओर बढ़ा फर्श पर चारों ओर फैले स्‍कर्ट के साथ धड़ाम से गिर गई, उनका चेहरा उनकी छातियों में छिप गया था। उसके पिता ने चेहरे पर विकृत भावों के साथ मुट्ठी कसी, जैसे वे ग्रेगोर को कमरे में धकेल देना चाहते हों, फिर लिविंग रूम को अनिश्‍चय के भाव से देखा और अपनी आँखों को हथेलियों से ढँक रोने लगे, जब तक उनका सीना तेजी से हाँफने न लगा।

ग्रेगोर लिविंग रूम में नहीं गया वरन्‌ आधे बन्‍द दरवाजे से सटकर खड़ा रहा ताकि उसका मात्र आधा भाग ही दिखे, उसका सिर दूसरों के सामने एक ओर को झुका था। इस बीच रोशनी बढ़ गई थी, सड़क के दूसरी ओर कोई भी लम्‍बी अँधेरी बिल्‍डिंग को देख सकता था- वह एक अस्‍पताल था, जिसमें निश्‍चित दूरी पर छिपी हुई खिड़कियों की पंक्‍तियाँ थीं, बारिश अभी भी हो रही थी लेकिन बड़ी-बड़ी बूँदों में स्‍पष्‍ट दिख रही थी। टेबिल पर नाश्‍ते की प्‍लेटें लगी हुई थीं क्‍योंकि ग्रेगोर के पिता के लिए नाश्‍ता दिन का सबसे महत्त्‍वपूर्ण भोजन था, जिसमें वे घण्‍टों बैठे विभिन्‍न अखबारों को पढ़ते रहते हैं। ग्रेगोर के ठीक सामने दीवार पर लेफ्‍टिनेंट की यूनीफार्म में उनका फोटो टँगा था, फोटो में तलवार की मूठ पर हाथ रखे, निश्‍चिन्‍तता भरी मुस्‍कराहट के साथ कुछ इस अन्‍दाज में थे जैसे वर्दी और सेना दोनों को सम्‍मान करने की अपेक्षा वे हर एक से करते हों। हाल की ओर दरवाजा खुला हुआ था और कोई भी देख सकता था कि मेन दरवाज़ा खुला हुआ था जिसके उस पार चबूतरा और नीचे जाती सीढि़याँ थीं।

“हाँऽऽ तो फिर,” ग्रेगोर ने इस विश्‍वास के साथ कहा जैसे वहाँ वह अकेला हो जो सामान्‍य व्‍यवहार करने में समर्थ हो। “मैं जाकर कपड़े पहिनता हूँ और सेम्‍पल्‍स पैक कर चल देता हूँ। क्‍या आप मुझे जाने देंगे? आपने देख लिया न कि मैं घमण्‍डी नहीं हूँ और मैं काम करने के लिए पूरी तरह तैयार हूँ, लगातार यात्रा करते रहना पर्याप्‍त कष्‍टप्रद होता है लोगों के लिए, लेकिन मैं तो उसके बिना रह ही नहीं सकता। सर, आप कहाँ जा रहे हैं? आफिस ही ना! हाँऽऽ! क्‍या आप यहाँ का यथार्थ वर्णन वहाँ कर देंगे? आप तो जानते ही हैं कि कोई भी व्‍यक्‍ति कुछ समय के लिए काम करने में असमर्थ हो सकता है, लेकिन ऐसे समय में ही उसके द्वारा की गई पिछली सेवाओं को याद कर लेना चाहिए, साथ ही यह भी स्‍मरण रखना चाहिए कि बाद में असमर्थता अथवा अस्‍वस्‍थता दूर होने पर, वही व्‍यक्‍ति अधिक मेहनत और लगन से काम भी तो करेगा। आप यह तो अच्‍छी तरह जानते हैं कि मैं चीफ की सेवा करने के लिए वचन-ब( हूँ। इसके साथ ही मुझे अपने माता-पिता और बहन की आवश्‍यकताओं की पूर्ति भी तो करनी है। मैं कुछ ज्‍यादा ही दिक्‍कतों और परेशानियों से ग्रस्‍त हूँ, लेकिन मैं उनसे मुक्‍ति पा लूँगा। वे जितनी है उतनी ही रहने दें, प्‍लीज उन्‍हें और न बढ़ावें। फर्म में मेरा साथ दें प्‍लीज। एजेण्‍टों के बारे में वहाँ राय अच्‍छी नहीं है, मैं यह जानता हूँ। सभी का सही विचार है कि वे बोरे भर-भरकर नोट कमाते हैं और ऐश करते हैं। एक पूर्वग्रह है जिसमें परिवर्तन के कोई आसार दिखते भी नहीं हैं। लेकिन सर, आपको सब पता ही है, दूसरों की तुलना में आपको अधिक जानकारी है विशेषकर चीफ की तुलना में। वे चूँकि मालिक हैं अतः आसानी से किसी भी नौकर के प्रति विद्वेष की धारा में बह जाते हैं। आप तो जानते ही हैं एक ऐजेण्‍ट जो साल भर आफिस में दिखाई नहीं देता, वह सरलता से दुर्भाग्‍य और अफवाहों का शिकार हो सकता है, साथ ही बेसिर-पैर की शिकायतों का भी, जिनके बारे में उसे कुछ भी पता नहीं चलता जब तक वह परिक्रमा लगाकर और पूरी तरह चूर होकर लौट नहीं आता और आते ही उसे दुष्‍परिणामों को झेलना पड़ता है जिनकी जड़ों का उसे सिर-पैर तक पता नहीं चल सकता। सरऽ सरऽऽ सहानुभूति के कुछ शब्‍द तो जाते-जाते कह जावें कि आपकी राय में, मैं सही हूँ कम से कम कुछ सीमा तक।”

लेकिन ग्रेगोर के मुँह से निकले पहिले शब्‍द को ही सुन हैड क्‍लर्क घबरा कर पीछे हट गया था और उचकते कन्‍धों और खुले मुँह के साथ उसे एकटक देखे जा रहा था। और जब ग्रेगोर लगातार बोल रहा था, तब वह एक मिनट को भी एक स्‍थान पर रुका नहीं रहा था, वरन्‌ धीरे-धीरे दरवाजे की ओर ग्रेगोर पर आँखें जमाए पीछे सरकता जा रहा था, लेकिन एक बार में केवल एक इंच जैसे कमरे को छोड़ने के रहस्‍यात्‍मक आदेश का पालन कर रहा हो। वह हॉल तक पहुँच चुका था और जिस तेजी से उसने अन्‍तिम कदम लिविंग रूम से उठाया उसे देखने वाला यही कहता कि शायद उसका पैर गलती से जलते अँगारों पर पड़ गया था। हॉल में पहुँच उसने अपना दाहिना पैर सीढि़यों की ओर कुछ ऐसे अन्‍दाज में उठाया जैसे कोई असामान्‍य शक्‍ति उसकी प्रतीक्षा कर रही हो।

ग्रेगोर यह तो समझ ही गया था कि वर्तमान स्‍थिति में हैड क्‍लर्क को किसी भी कीमत पर जाने नहीं देना है यदि फर्म में उसकी स्‍थिति को खतरे में नहीं पड़ने देना है तो? उसके माता-पिता तो इस समस्‍या की गम्‍भीरता को समझ ही नहीं पा रहे थे। पिछले कुछ वर्षों में उन्‍होंने अपने को यह विश्‍वास दिला रखा था कि ग्रेगोर इस फर्म में अब आजीवन काम करता रहेगा, इसके अलावा वे अपनी रोज-ब-रोज की परेशानियों में इतने उलझे हुए थे कि भविष्‍य को लेकर उनकी दृष्‍टि लुप्‍त प्राय ही हो चुकी थी। किन्‍तु ग्रेगोर के पास यह दृष्‍टि अभी भी थी। हैड क्‍लर्क को येन-केन-प्रकारेण रोका ही जाना चाहिए, शान्‍त किया जाना चाहिए और बहला-फुलसलाकर अपने पक्ष में करना ही पड़ेगा क्‍योंकि ग्रेगोर और उसके परिवार का भविष्‍य इसी पर निर्भर था। काश! उसकी बहन यहाँ होती! वह बुद्धिमान थी, वह उस समय रोने लगी थी, जब ग्रेगोर पीठ के बल आराम से लेटा था। उसने फ्‍लैट के हाल का दरवाज़ा बन्‍द कर उसके भय को निर्मूल कर दिया होता। लेकिन वह तो यहाँ थी ही नहीं। स्‍वाभाविक है अब ग्रेगोर को ही स्‍थिति सम्‍भालनी होगी। बिना यह याद रखे कि उसमें चलने-फिरने की कितनी क्‍या क्षमता है, यह भी भूलकर कि उसके शब्‍द, इसकी पूरी सम्‍भावना है समझ से परे होंगे-उसने दरवाजे के पल्‍ले को छोड़ दिया और अपने को आगे धक्‍का दे हैड क्‍लर्क की ओर बढ़ा दिया, जो दोनों हाथों से अजीब से तरीके से रेलिंग को पकड़े था और जब वह सहारा ढूँढ़ रहा था, तभी ग्रेगोर अपने नन्‍हें-नन्‍हें पैरों के साथ चीखकर नीचे गिर गया। अभी वह गिरा ही था कि सुबह से पहिली बार उसे शारीरिक रूप से कुछ आराम मिला, उसके पैरों के नीचे स्‍थिर ज़मीन थी और वे पूरी तरह आज्ञाकारी थे। उसने प्रसन्‍नता के साथ ध्‍यान दिया कि वे किसी भी दिशा में ले जाने की योग्‍यता रखते हैं, जहाँ भी वह क्‍यों न जाना चाहे और अब उसे यह विश्‍वास हो गया कि उसकी परेशानियों का हल निकट आ गया है। लेकिन इसी क्षण जब उसने स्‍वयं को फर्श पर पाया था, उत्‍साह से चलने-फिरने, हिलने-डुलने को तत्‍पर, उसने अपने को माँ से कुछ ही दूरी पर पाया, वे उसके ठीक सामने थीं, वे वहीं ढेर हुई पड़ी थीं, अचानक अपने पैरों पर उछलकर वे खड़ी हो गईं उनके हाथ और उँगलियाँ फैली हुई थीं और वे चीख रही थीं, “बचाओऽऽ भगवान के लिए बचाओ।” उनका सिर नीचे की ओर झुका हुआ था जैसे वे ग्रेगोर को स्‍पष्‍ट रूप से देखना चाहती हों, लेकिन वे अकारण ही पीछे हट रही थीं और यह भूल चुकी थीं कि उनके पीछे भी टेबिल है, हड़बड़ी में वे उसी पर बैठ गईं। बेख्‍याली में जब वे उससे टकराईं थीं, और उन्‍हें यह भी होश नहीं था कि उनके पास की कॉफी का बड़ा पाट रखा है, जो लुढ़क गया है और कार्पेट पर गिरकर कॉफी की बाढ़ लगा रहा है।

“अम्‍माऽ, अम्‍माऽऽ”, ग्रेगोर ने धीमी आवाज में कहते उनकी ओर देखा। हैड-क्‍लर्क उसके मन से उस समय बाहर था, और कॉफी को देख उसके जबड़े चलने लगे थे। यह देख उसकी माँ एक बार फिर चीखीं और टेबिल से उठकर तेजी से भागीं और पिता की बाँहों में गिर पड़ीं, जिन्‍होंने उन्‍हें पकड़ने में तेजी दिखाई। इधर ग्रेगोर के पास अपने माता-पिता के लिए समय था ही नहीं, हैड क्‍लर्क सीढि़यों के पास तक पहुँच चुका था और पलटकर अन्‍तिम बार देख रहा था। ग्रेगोर ने यह सोच छलाँग लगाई कि वह उसे पकड़ लेगा, हैड क्‍लर्क ने अवश्‍य ही उसकी नीयत को भाँप लिया होगा, क्‍योंकि वह सीढि़यों को छलाँगते हुए उतरा और गायब हो गया। वह अभी भी ‘उफ्‌ऽऽऽ' कह रहा था, जिसकी गूँज अभी भी सीढि़यों से उसके जाने के बाद भी गूँज रही थी। ग्रेगोर के पिता जो अभी तक शान्‍त रहे आए थे, बजाय उस आदमी के पीछा करने या फिर ग्रेगोर के रास्‍ते में बाधा लगाने के, उन्‍होंने हैड-क्‍लर्क द्वारा छोड़ी बेंत को कुर्सी से उठाया, फिर हैट और ग्रीनकोन और बाएँ हाथ से टेबल पर रखा अखबार उठाया और ग्रेगोर को बेंत और अखबार के सहारे उसे कमरे के भीतर करने की कोशिश में लग गए। ग्रेगोर की सारी मिन्‍नतें बेकार गईं, बल्‍कि वे तो उनकी समझ में ही नहीं आईं थीं, भले ही उसने विनम्रता प्रदर्शित करते हुए सिर झुकाया, लेकिन उसके पिता धरती को जोर-जोर से पीटते रहे। उसके पिता के पीछे उसकी माँ ने सर्दीली हवाओं के बावजूद खिड़की खोल दी और अपने हाथों से चेहरे को ढाँके वे बाहर की ओर झुक गईं। सड़क से सर्दीली हवा का एक झौंका सीढि़यों से होता भीतर आ गया- खिड़की का पर्दा जोर-जोर से फड़फड़ाने लगा, टेबिल पर रखा अखबार खड़खड़ाने लगा और उसके पन्‍ने फर्श पर गिर यहाँ-वहाँ उड़ने लगे। निर्दयता के साथ ग्रेगोर के पिता ने उसे हिस्‍स और शूऽऽ कर निहायत जंगली तरीके से उसे कमरे के भीतर कर दिया। लेकिन ग्रेगोर उल्‍टे पैरों से चलने का आदी न था, यह अच्‍छा-खासा धीमा काम था। यदि उसे घूमकर सीधे होने का मौका मिल जाता, तो वह अपने कमरे में तुरन्‍त ही चला गया होता, लेकिन अपनी धीमी उल्‍टी चाल के बावजूद वह पिता की नाराजगी को बढ़ाना नहीं चाहता था क्‍योंकि किसी भी क्षण पिता के हाथ की बेंत से उसकी पीठ या सिर पर मारक चोट की आशंका भी तो थी। अन्‍त में उसके पास कुछ भी नहीं बचा था क्‍योंकि उसने आतंकित हो देखा कि उल्‍टे पैरों चलते वह दिशा का ध्‍यान नहीं रख सका था और इस आशंका के साथ एक आँख से पिता के कन्‍धे के ऊपर से झाँकते हुए, उसने जितनी तेजी से सम्‍भव हो, घूमने की कोशिश की। जो वास्‍तव में बेहद धीमी गति से थी। शायद उसके पिता ने उसके नेक इरादे को समझ लिया था और इसलिए वे बेंत की नोंक से दूर से ही मात्र उसकी गल्‍तियों को सुधार भर रहे थे। काश! वे हिस्‍सऽऽ जैसी असहनीय आवाज निकालना बन्‍द कर देते, उसे सुन ग्रेगोर का सिर घूम रहा था। वह एक प्रकार से पूरी तरह घूम ही चुका था जब उस हिस्‍स आवाज से घबराकर वह गलत दिशा में मुड़ गया। लेकिन जब उसका सिर ठीक दरवाजे की ओर था, तभी उसे अहसास हुआ कि उसकी देह दरवाज़े की सन्‍ध से कुछ ज्‍यादा ही चौड़ी है। स्‍वाभाविक है अपनी वर्तमान स्‍थिति में उसके पिता यह तो सोचने की स्‍थिति में नहीं थे कि वे दरवाज़ा खोल ग्रेगोर के लिए रास्‍ता बना दें। उनके मन में तो एकमात्र विचार ग्रेगोर को जल्‍दी से जल्‍दी कमरे के भीतर करने का था। उन्‍होंने कभी यह पसन्‍द नहीं किया होता कि ग्रेगोर बमुश्‍किल खड़ा होवे और फिर सरककर भीतर जावे। वे तो कुछ अधिक ही शोर कर रहे थे ग्रेगोर को भीतर करने के लिए जैसे वहाँ कोई बाधा ही न हो। इधर ग्रेगोर के पीछे से आती आवाजें मात्र पिता भर की नहीं लग रही थीं। यह कोई मजाक न था लेकिन ग्रेगोर ने सब कुछ भूल बिना परिणाम की चिन्‍ता किए अपने को दरवाजे़ के भीतर सरकाया। उसकी देह का एक हिस्‍सा एक कोण से दरवाज़े से उठ गया, उसका एक हिस्‍सा पर्याप्‍त छिल रहा था, गन्‍दे दाग सफेद दरवाजे़ पर लग गए थे उसके छिलने से, फिर वह जल्‍दी ही फँस गया और अपने आप को आगे बढ़ाना उसके वश में ही नहीं रहा था, उसके नन्‍हें-नन्‍हें पैर एक ओर हवा में फड़फड़ा रहे थे और दूसरी ओर के फर्श से बुरी तरह दब गए थे, तभी उसके पिता ने उसे एक जोरदार धक्‍का दिया- बस वह मुक्‍ति थी और वह कमरे में भीतर गिरा खून टपकाते हुए। उसके पीछे दरवाज़ा बेंत से जोर से बन्‍द कर दिया गया और फिर वहाँ खामोशी फैल-पसर गई।

ः 2 ः

पौ फटने के बाद ग्रेगोर की नींद खुली, वह नींद से अधिक बेहोशी थी। अपने आप तो वह बहुत देर बाद ही सोकर उठा होता। उसे पर्याप्‍त आराम मिल गया था और उसे गहरी नींद भी आई थी, लेकिन हॉल में चलते कदमों की आहट और दरवाजे़ बन्‍द होने की आवाजों से उसकी नींद टूट गई थी। सड़क में जल रहे बल्‍ब से पीली रोशनी की पट्टियों की चमक सीलिंग और कमरे में रखे फर्नीचर के ऊपरी हिस्‍से पर पड़ रही थी जबकि जहाँ वह लेटा था वहाँ अंधेरा था। अब वह क्रमशः स्‍पर्श शक्‍ति की प्रशंसा करने लगा था। सब कुछ को समझ वह धीरे-धीरे दरवाजे के पास यह जानने के लिए पहुँचा कि बाहर हो क्‍या रहा है? उसका बायाँ बाजू एक लम्‍बे घाव जैसा था और अपने पैरों की दो कतारों से वह लँगड़ा कर चल रहा था। एक पैर पूरी तरह से उस सुबह की कोशिशों में बुरी तरह घायल हो गया था। यह चमत्‍कार ही था कि मात्र एक पैर ही घायल हुआ था- वह बेकार-सा पीछे लटकता हुआ चल रहा था।

जब वह दरवाजे के पास पहुँच गया, तब जाकर उसे अहसास हुआ कि वह उसकी ओर क्‍यों खिंचा-सा चला आया थाः भोजन की गन्‍ध। वहाँ बेसिन में ताजा दूध रखा जिसमें सफेद रोटियों के टुकड़े तैर रहे थे। वह प्रसन्‍नता से भर हँस ही दिया होता, क्‍योंकि वह सुबह की तुलना में कुछ अधिक ही भूखा था और उसने अपना सिर पूरी तरह झुका लिया था और आँखें सीधे दूध पर टिकी थीं। लेकिन शीघ्र ही निराशा में भर वह हट गया, क्‍योंकि पीने में उसे न केवल कष्‍ट हो रहा था अपने चोट खाए बाएँ बाजू के कारण और पूरी धड़कती देह के साथ ही दूध में भीतर जाना पड़ता था, साथ ही उसे दूध पसन्‍द भी नहीं आ रहा था, हालाँकि दूध उसे सर्वाधिक प्रिय है और सम्‍भवतः उसकी बहन ने उसके लिए वहाँ रखा होगा। घृणा से भर वह मुड़ कर कमरे के बीच में पहुँच गया।

वह दरवाजे की संध से लिविंग रूम में जलते गैस-स्‍टोव को देख पा रहा था, हालाँकि यह वह समय था जब उसके पिता अपरान्‍ह के अखबार जोर-जोर से पढ़ कर माँ को सुनाया करते हैं और कभी-कभार बहिन भी वहीं बैठ जाती है, लेकिन अभी एक शब्‍द भी सुनाई नहीं पड़ रहा था। हो सकता है कि उसके पिता ने जोर से पढ़ने की आदत ही छोड़ दी हो, जैसा उसकी बहन उसे चिट्ठियों में लिखती रहती थी। चारों ओर मौन पसरा था हालाँकि फ्‍लैट रहने वालों से खाली नहीं था। “हमारा परिवार कितनी शान्‍ति से जीवन यापन कर रहा है” ग्रेगोर ने स्‍वयं से वहीं अँधेरे में बैठते हुए कहा। उसे अपने आप पर गर्व हो आया कि इस शानदार फ्‍लैट में अपने माता-पिता और बहन को कितने सुविधापूर्ण जीवन की व्‍यवस्‍था उसने कर रखी है। लेकिन तब क्‍या होगा जब यह शान्‍ति, व्‍यवस्‍था और निश्‍चिन्‍तता का अचानक अन्‍त हो जाए तो? इन नैराश्‍यपूर्ण विचारों में खो जाने से स्‍वयं को बचाने के लिए वह कमरे में चारों ओर घूमने लगा।

उस लम्‍बी साँझ में दूसरी ओर एक दरवाजा कुछ खुला था और फिर जल्‍दी ही बन्‍द हो गया था, इसी प्रकार दूसरी ओर का दरवाजा भी बन्‍द हुआ था। स्‍वाभाविक है कोई न कोई भीतर आना चाहता है लेकिन उसने शायद फिर अपना इरादा छोड़ दिया था। ग्रेगोर स्‍वयं लिविंग रूम की ओर के दरवाजे के निकट इस निश्‍चय के साथ खड़ा था कि जो भी अन्‍दर आएगा उसकी आशंकाओं को दूर कर देगा, किन्‍तु दोबारा दरवाज़ा खुला ही नहीं और वह व्‍यर्थ ही आशा लगाए रहा। जबकि सुबह जब दरवाजे़ बन्‍द थे तो वे सभी अन्‍दर आना चाहते थे और अब जब उसने एक दरवाज़ा पूरा खोल दिया है और दूसरा दिन में खुल गया है, बाब कोई भी नहीं आ रहा था, जबकि दरवाज़े की चाबियाँ दूसरी ओर ही लगी हैं।

देर रात में लिविंग रूम में रोशनी देता गैस स्‍टोव बंद हो गया और ग्रेगोर निश्‍चिन्‍त रूप से कह सकता था कि उसके माता-पिता और बहन तब तक जागते रहे थे, क्‍योंकि वह उनकी पदचापों को सुन सकता था। अब सुबह तक तो उससे मिलने कोई आने वाला है नहीं, यह तो तय था, अतः उसके पास पर्याप्‍त समय था अपनी जिन्‍दगी को नए सिरे से शुरू करने के बारे में मनन करने का। लेकिन ऊँचे और सुनसान कमरे में, जिसके फर्श पर वह लेटा था उसी कमरे में जिसमें वह पाँच वर्षों से रह रहा था। आशंकाओं से घिरा था अर्ध चेतना में बिना किसी संकोच के वह सोफे के अन्‍दर सरक गया, वहाँ उसे अच्‍छा महसूस हुआ, हालाँकि उसकी पीठ कुछ दब रही थी और वह अपना सिर ऊपर नहीं उठा पा रहा था लेकिन उसकी देह कुछ ज्‍यादा ही चौड़ी थी और पूरी तरह सोफे के अन्‍दर नहीं जा रही थी, लेकिन उसे उसका कोई पश्‍चाताप न था।

सारी रात वह वहीं रहा आया, कुछ समय हल्‍की नींद में जो भूख के चलते टूटती रही थी और कुछ उन चिन्‍ताओं आशाओं आशंकाओं के कारण जो एक ही निष्‍कर्ष पर पहुँचा रहे थे- कि फिलहाल तो उसे धैर्य रखना होगा और परिवार जिन समस्‍याओं का सामना उसके कारण करने बाध्‍य होगा, उसे अपने परिवार को धैर्य रखने में सहायता करनी होगी।

दूसरी सुबह के बहुत पहिले जब रात का अंधेरा गाढ़ा था ग्रेगोर को अपने नए निश्‍चय से शक्‍ति मिली थी और वह कुछ विश्राम करने में सफल हुआ था, तभी उसकी बहन ने प्रायः पूरे कपड़े पहन हॉल की ओर का दरवाज़ा खोलकर भीतर झाँका। वह उसे तत्‍काल तो नहीं देख पाई, फिर भी जब उसने उसे सोफे के अन्‍दर देख लिया- उसे कहीं न कहीं तो होना ही था, वह उड़कर तो नहीं ही जा सकता था, है न! तो इतना घबरा गई कि बिना सोचे-विचारे और एक मिनट की देर किए उसने दरवाज़ा जोर से बन्‍द कर दिया। लेकिन शायद फिर अपने व्‍यवहार पर शर्मिन्‍दा हो उसने तुरन्‍त ही दोबारा दरवाज़ा खोला और पँजों के बल चलकर भीतर आ गई, जैसे वह किसी अपाहिज से मिलने आई हो या फिर किसी अजनबी से। ग्रेगोर अपना सिर सोफे के अन्‍तिम छोर तक बाहर निकाल उसे देख रहा था। क्‍या वह इस बात पर ध्‍यान देगी कि उसने दूध को बिना पिए ही छोड़ दिया है- भूख न होने के कारण नहीं। और क्‍या वह और कुछ खाना उसकी रुचि के अनुसार लाएगी? यदि उसने अपने आप यह नहीं किया तो वह उसका ध्‍यान आकर्षित करने के बजाए भूख से मरना पसन्‍द करेगा, हालाँकि उसके मन में यह विचार तेजी से उठ रहा था कि उसे सोफे से जल्‍दी बाहर निकल कर उसके पैरों के पास जाकर जल्‍दी से कुछ भी खाना लाने के लिए चिरौरी करना चाहिए। किन्‍तु उसकी बहन का ध्‍यान तुरन्‍त ही चला गया था कि बेसिन में अभी भी दूध भरा हुआ है। सिवाय कुछ दूध के जो बाहर गिर गया था, उसने उसे उठा लिया था नंगे हाथों से नहीं वरन्‌ कपड़े से और बाहर चली गई। ग्रेगोर यह जानने को उत्‍सुक था कि अब वह खाने के लिए क्‍या लाएगी, उसने बहुत से कयास लगाए। लेकिन उसने वास्‍तव में क्‍या किया अपने ममता भरे दिल के चलते, इसका तो वह अन्‍दाज लगा ही नहीं सकता था। उसकी पसन्‍दगी को जानने के लिए वह कई प्रकार का भोजन एक पुराने अखबार पर रखकर ले आई थी। वहाँ, बासी आधी सूख चुकी सब्‍जियाँ, पिछली रात के भोजन की बची हड्डियाँ जिन पर सफेद चटनी लगी थी जो अब तक जम चुकी थी, कुछ किशमिश और बादाम, चीज का टुकड़ा जो कड़ा हो चुका था जिसे ग्रेगोर ने दो दिन पहिले ही खाने के लिए बेकार कह दिया होता, एक सूखी रोटी का रोल, मक्‍खन लगा रोल और एक और रोल में नमक और मक्‍खन लगा हुआ था। इसके अलावा वह बेसिन (कटोरे) में रख कुछ पानी भी भर कर ले आई थी और फिर यह सोचकर कि उसकी उपस्‍थिति में ग्रेगोर खाएगा नहीं, वह तेजी से बाहर चली गई और दरवाजे को चाबी से बन्‍द भी कर दिया, ताकि वह समझ जाए कि वह आराम से अपनी रुचि के अनुसार खा ले। ग्रेगोर के सभी पैर खाने की ओर चल पड़े। उसके घाव अवश्‍य ही सूख चुके होंगे, इसके साथ ही उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा भी नहीं हो रही थी। इससे उसे आश्‍चर्य ही हुआ और उसे याद आया कि करीब एक माह पहिले उसकी ऊँगली चाकू से कट गई थी और उस चोट में परसों तक रह-रहकर टीस उठती रही थी। क्‍या अब मैं कम सम्‍वेदनशील हो गया हूँ? उसने सोचा और मरभुक्‍कों की तरह चीज को चूसना शुरू कर दिया। वहाँ रखे खानों में सबसे पहिले उसी ने उसे अपनी ओर खींचा था। आंखों में आँसू लिए उसने एक के बाद एक चीज, सब्‍जियों, चटनी को निगल लिया, दूसरी ओर ताजे भोजन की ओर उसमें कोई इच्‍छा नहीं थी, उसे तो उसकी गन्‍ध भी बर्दाश्‍त नहीं हो रही थी। सच तो यह था कि जो कुछ उसे खाना था, उसे वह घसीटकर वहाँ से कुछ दूर ले गया था बहुत पहिले खाना समाप्‍त कर वहीं आराम से लेट गया था। जब उसकी बहन ने धीरे से चाबी घुमाकर यह इशारा किया कि अब वह छिप जावे। वह तुरन्‍त उठ गया और नींद आने के बावजूद फिर से सोफे के नीचे छिप गया। सोफे के अन्‍दर रहे आने के लिए उसे आत्‍म नियंत्रण की आवश्‍यकता थी, भले ही कुछ सीमित समय के लिए जब तक उसकी बहिन कमरे में थी, क्‍योंकि भुखमरों की तरह खाने से उसकी देह फूल गई थी और उसे साँस लेने में तकलीफ हो रही थी और उसकी आँखें उसके सिर से बाहर निकली पड़ रही थीं- जब वह अपनी संदेहरहित बहन को झाड़ू से सब कुछ करते देख रहा था, वह न केवल वे पदार्थ उठा रही थी जो खाने के बाद, जिसके कुछ अंश वहाँ छूट गए थे, वरन्‌ वह भी जिन्‍हें उसने छुआ तक न था, जैसे वह किसी के लिए भी कोई उपयोग का न रह गया हो, उसने जल्‍दी से सब कुछ उठा बाल्‍टी में डाला और उसे लकड़ी के ढक्‍कन से ढाँक लेकर चली गई। बमुश्‍किल अभी उसकी बहन घूमी ही थी कि ग्रेगोर ने सोफे के नीचे से खींचकर अपने को बाहर निकाल लिया।

इस प्रकार गेग्रोर को भोजन कराया जाने लगा था, पहली बार सुबह-सुबह जब उसके माता-पिता और नौकरानी अभी सो ही रहे थे और दूसरी बार जब दोपहर के भोजन के बाद उसे माता-पिता की दोपहरी की झपकी के बीच नौकरानी को किसी काम के बहाने बाहर भेज दिया जाता था, उनकी मंशा मुझे भूखा मार डालने की कतई नहीं थी, लेकिन शायद वे उसे भोजन करते देख नहीं पाते, बजाए सुनने के या शायद उसकी बहन जहाँ तक सम्‍भव हो इन छोटी-छोटी परेशानियों से उसे दूर रखना चाहती थी क्‍योंकि उसके पास वैसे भी बहुत-भी परेशानियाँ पहले से ही थीं।

कौन से बहाने से डॉक्‍टर और लुहार को वापिस किया गया था पहली सुबह, ग्रेगोर को यह पता नहीं चल सका था। क्‍योंकि वह जो कुछ भी बोलता था उसे दूसरे समझ ही नहीं पाते थे, लेकिन उनमें से किसी को भी यह समझ नहीं आया था, यहाँ तक कि उसकी बहन को भी कि वह स्‍वयं उनकी बातों को अच्‍छी तरह सुन और समझ सकता है और इसीलिए जब भी उसकी बहन कमरे में आती थी उसे मात्र उसकी बीच-बीच में निकलती आहों और सन्‍तों की प्रार्थनाओं से ही सन्‍तुष्‍ट रहना पड़ता था। बाद में, जब वह परिस्‍थितियों की आदी हो गई थी- हालाँकि पूरी तरह तो वह इनकी आदी होने वाली थी नहीं- गाहे-बगाहे वह एकाध वाक्‍य बोल दिया करती थी- दया से भरा जिसे माना जा सकता था। ‘वाह! आज डिनर पसन्‍द आया', वह कहा करती थी जब भी वह भोजन पूरा समाप्‍त कर देता था, और जब वह नहीं खाता था, जो क्रमशः अधिक होने लगा था, तब वह पीड़ा से भर कहा करती थी, “अरे! आज फिर कुछ वैसा का वैसा पड़ा रह गया है, लगता है छुआ तक नहीं गया है।”

हालाँकि ग्रेगोर को नए समाचार सीधे तो मिलते नहीं थे, वह कमरों में होती चर्चा से बहुत कुछ जान लेता था। जब भी उसे आवाजें सुनाई पड़तीं, वह उस कमरे के दरवाज़े के पास तुरन्‍त दौड़ जाता था और पूरी देह दरवाज़ों से सटा दिया करता था। शुरूआती दिनों में विशेषकर ऐसी कोई भी बात नहीं होती थी, जो उसके सम्‍बन्‍ध में हो, भले ही सीधे न हो। पूरे दो दिन तो सुबह-शाम भोजन के समय परिवार के सदस्‍य आपस में यही सलाह करते रहे थे कि अब क्‍या करना चाहिए, यही नहीं दिन के बीच में भी इसी विषय पर चर्चा होती रहती थी, क्‍योंकि कम से कम दो सदस्‍य तो हमेशा घर में रहा ही करते थे, क्‍योंकि अकेले फ्‍लैट में कोई भी रहने को तैयार न था और सभी के बाहर जाने की तो कल्‍पना भी नहीं करते थे। इन दिनों के पहले दिन ही कुक (महराजिन)- यह स्‍पष्‍ट नहीं था कि वह वस्‍तुस्‍थिति के बारे में क्‍या और कितना जानती है- ने माँ के पास घुटनों के बल बैठकर छुट्टी देने की प्रार्थना की थी और जब वह पन्‍द्रह मिनट बाद जाने लगी थी तो आँसू भरकर नौकरी से निकालने के लिए धन्‍यवाद दिया था जैसे उस पर बड़ा भारी उपकार किया गया हो और बिना किसी के सुझाए उसने भगवान की सौगन्‍ध खाकर कहा था कि वह एक शब्‍द भी जो कुछ भी इस घर में हुआ है, के सम्‍बन्‍ध में किसी को भी नहीं बतलाएगी।

अतः अब ग्रेगोर की बहन को खाना बनाना पड़ रहा था और माँ की सहायता करनी पड़ रही थी। वास्‍तविकता यह थी कि खाना बनाना कोई खास परेशानी का काम नहीं था क्‍योंकि वे लोग बमुश्‍किल कुछ कौर गले से नीचे उतार पा रहे थे। ग्रेगोर प्रायः ही अपने परिवार के किसी सदस्‍य से खाने का इसरार करता सुना करता था और बस एक ही उत्तर हर बार सुना करता था, “धन्‍यवाद, मुझे जितना खाना था, मैंने ले लिया।” यह या ऐसा ही कोई अन्‍य वाक्‍य प्रायः ही उसके कानों में पड़ता था। शायद उन्‍होंने ड्रिंक लेना भी बन्‍द कर दिया था। बार-बार उसकी बहन पिता से पूछती रहती थी कि क्‍या वे बियर लेना पसन्‍द करेंगे और स्‍वयं जाकर लाने को तत्‍पर भी हो जाती थी, लेकिन जब वे चुप रह आते थे तब वह सुझाव दिया करती थी कि वह चौकीदार को लाने के लिए कह देती है, ताकि उन्‍हें अहसान जैसा न लगे, लेकिन एकमात्र शब्‍द जो पिता के मुँह से निकलता था वह था ‘नहींऽऽ' और फिर इस विषय में आगे कोई बात नहीं होती थी।

पहले ही दिन ग्रेगोर के पिता ने परिवार की माली हालत और भविष्‍य को उसकी माँ और उसकी बहन के सामने आइने की तरह रख दिया था। बीच-बीच में वे उठकर उसे छोटी-सी तिजोरी से कोई वाउचर या मेमोरेंडम तलाशने लगते थे जिसे पाँच वर्ष पहले व्‍यापार ठप्‍प होने पर उन्‍होंने बचा लिया था। कोई भी उस गूढ़ ताले को खुलने और कागजों की खरखराहट के बाद तिजोरी को बन्‍द करते सुन सकता था। उसके पिता द्वारा की गई यह स्‍पष्‍ट घोषणा पहली प्रसन्‍नतादायक सूचना थी जिसे ग्रेगोर ने अपनी कैद के बाद सुना था। उसकी अपनी राय तो अभी तक यही थी कि पिता के व्‍यापार में से कुछ भी नहीं बचा है, कम से कम पिता ने इसके विषय में कभी भी कुछ भी नहीं कहा था, लेकिन यह भी सच है कि उसने उनसे कभी दो टूक पूछा भी नहीं था। उस समय तो ग्रेगोर की एकमात्र इच्‍छा यही थी कि वह परिवार की सहायता कर उन्‍हें उस विपत्ति को भूल जाने में सहायता करे जिससे व्‍यापार चौपट हुआ था और उन सभी को निराशा की गर्त में फेंक दिया था। और इसीलिए विशेष उत्‍साह से वह काम में जुट गया था और छोटे बाबू की जगह फटाफट सेल्‍समैन (कमर्शियल ट्रैवलर) बन गया था, जिसमें अच्‍छा पैसा कमाने के अवसर थे और उसकी सफलता शीघ्र ही गोल-गोल सिक्‍कों में बदल गई थी, जिन्‍हें टेबल पर रख वह परिवार को आश्‍चर्यचकित और प्रसन्‍न दोनों ही कर दिया करता था। वे अच्‍छे दिन थे, लेकिन उन्‍होंने कभी भी दिखावे के लिए खर्च नहीं किया, हालाँकि बाद में ग्रेगोर ने इतनी कमाई करना अवश्‍य ही शुरू कर दिया कि घर के सभी खर्चों का बोझ वह अकेला ही उठाने लगा था और वह भी निहायत आराम से। फिर कुछ दिनों में वह रूटीन हो गया था परिवार और ग्रेगोर दोनों के लिए, पैसा सम्‍मान के साथ स्‍वीकारा जाता था और प्रसन्‍नता के साथ दिया जाता था, लेकिन किसी भी प्रकार की ऊष्‍मा का पूरी तरह अभाव था। अपनी बहन से उसकी अन्‍तरंगता थी। उसने मन ही मन योजना बना रखी थी कि वह, बहन को जिसे संगीत से बेहद लगाव था, और वायलिन बहुत अच्‍छा बजाया करती थी, उसे अगले वर्ष कंसरवेटोरियम में संगीत शिक्षा के लिए भेज देगा, हालाँकि यह पर्याप्‍त खर्चीला होगा लेकिन जिसे वह किसी अन्‍य तरीके से पूरा कर लेगा। यात्राओं के बीच के संक्षिप्‍त गृह-निवास में वह बातचीत के दौरान बहन से वह प्रायः ही कंसरवेटोरियम के बारे में कहा करता था, लेकिन एक सुन्‍दर स्‍वप्‍न की तरह जो कभी पूरा नहीं किया जा सकता था और उसके माता-पिता इन मासूम सन्‍दर्भों से प्रायः निरुत्‍साहित किया करते थे, लेकिन इसके बावजूद ग्रेगोर ने अपने मन में दृढ़ निश्‍चय कर लिया था और पूरी गम्‍भीरता के साथ ‘बड़े दिन' पर इसकी घोषणा करने वाला था।

ये थे वे विचार जो उसकी वर्तमान स्‍थिति में पूरी तरह हवा में उड़ गए थे लेकिन जो उसके सिर में लगातार चक्‍कर लगा रहे थे, जब वह दरवाज़ों से सटकर खड़े हो सुनने की कोशिश करता रहा था। कभी-कभार थकान से भर वह सुनना बन्‍द कर दिया करता था और अपने सिर को दरवाजे़ से हटा लिया करता था, लेकिन वह हमेशा सजग हो जाया करता था क्‍योंकि उसके सिर की जरा-सी जुम्‍बिश से उत्‍पन्‍न आवाज़ दूसरी ओर सुन ली जाती थी और बातचीत तुरन्‍त बन्‍द हो जाया करती थी, “वह अभी कर क्‍या रहा होगा?” कुछ देर की खामोशी के बाद उसके पिता कहा करते थे। स्‍वाभाविक है दरवाज़े की ओर देखते हुए और फिर चुप्‍पी और फिर कुछ देर बाद बातचीत के तागे फिर उठा लिए जाते थे।

ग्रेगोर को अब जाकर खबर लगी थी, जितनी बार चाहता वह इसे सुन सकता था- क्‍योंकि उसके पिता प्रायः ही स्‍पष्‍ट किया करते थे और सम्‍भवतः इसलिए भी क्‍योंकि बहुत समय बाद वे इस सम्‍बन्‍ध में निर्णय कर रहे थे और इसलिए भी कि उसकी माँ तत्‍काल समझ नहीं पाती थीं- कि एक विनिवेश राशि, एक छोटी-सी राशि, यह सच है कि उनके सौभाग्‍य से व्‍यापार की बर्बादी के बाद भी न केवल बच गई है वरन्‌ कुछ बढ़ भी गई है क्‍योंकि डिवीडेंड (लाभ) छुआ ही नहीं गया था। इसके अलावा जो रकम ग्रेगोर हर माह घर लाया करता था- उसमें से वह अपने लिए बहुत कम डालर बचाकर रखा करता था-घर में दी गई रकम पूरी खर्च नहीं होती थी और फिलहाल वह राशि भी एक पूँजी हो गई है। दरवाज़े के पीछे ग्रेगोर ने उत्‍सुकता और उत्‍साह से भर सिर हिलाया और इस अनपेक्षित कंजूसी और अग्रिम सोच के सबूत से वह प्रसन्‍नता से भर गया था। सच तो यह है कि इस अतिरिक्‍त बचत राशि से उसने अपने पिता द्वारा चीफ से लिए )ण की कुछ और राशि चुका दी होती और इस प्रकार वह दिन और निकट ला सकता था जब वह नौकरी छोड़ने की स्‍थिति में हो जाता, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि उसके पिता के द्वारा लिया गया निर्णय ही बेहतर था।

लेकिन इस पूँजी के ब्‍याज से परिवार अधिक समय तक नहीं चल सकता था, एक वर्ष या शायद पेट काट कर दो वर्ष तक चल सकेगा, बस। यह ऐसी पूँजी थी जिसे छुआ ही नहीं जाना चाहिए और उसे दुर्दिनों के लए बचाकर रखना चाहिए- दैनिक और मासिक खर्चों के लिए तो कमाई की ही जानी चाहिए। उसके पिता स्‍वस्‍थ तो हैं लेकिन बूढ़े है और उन्‍होंने पिछले पाँच वर्षों में कोई काम नहीं किया है, साथ ही उनसे अधिक श्रम की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इन पिछले पाँच वर्षों में अपनी असफल किन्‍तु दिन-रात ऐड़ी का पसीना माथे से चुचआती जिन्‍दगी में उन्‍हें पहली बार कुछ आराम मिला था, लेकिन उससे वे मोटे और आलसी हो गए हैं। ग्रेगोर की बूढ़ी माँ, भला वे अपने दमे के साथ कैसे कमाई कर सकती हैं, दमा जो उन्‍हें फ्‍लैट में केवल चलने भर से हँफा देता और हर दूसरे दिन उन्‍हें सोफे पर साँस लेने के लिए खुली खिड़की के पास आराम करने को विवशकर देता है! तो अब क्‍या उसकी बहन को मजदूरी करनी होगी जो अभी मात्र सोलह वर्ष की लड़की है और जिसकी जिन्‍दगी अभी तक हँसी-खुशी से भरी थी जिसमें सजना-सँवरना, देर तक सोना, घर के काम में कुछ सहायता कर देना, कभी-कभार किसी पारम्‍परिक मनोरंजन में भागीदारी और इन सबके ऊपर वायलिन बजाना भर रहा आया है? शुरुआत में जब भी हॉल में पैसे कमाने की बात उठा करती थी तो वह दरवाजे़ को गुस्‍से से छोड़ ठण्‍डे चमड़े के सोफे पर गिर जाया करता था और शर्म और दुख से वह तपने लगता था।

प्रायः बिना नींद के वहीं लम्‍बी रातों में वह पड़ा रहता था और चमड़े को देह से घण्‍टों रगड़ता रहता था या फिर पूरी ताकत लगा किसी तरह आर्म चेयर को खिड़की के पास घसीट कर ले जाया करता था और खिड़की की दहलीज से काँच से उस पार झाँकने लगता था। बाहर देख उसे एक प्रकार की आजादी का अनुभव होता था। जबकि सच यह था कि उसे सभी कुछ धुँधला दिखने लगा था। सड़क के उस पार बने अस्‍पताल को वह आसानी से देख लिया करता था और यदि उसे स्‍मरण न होता कि वह शेरोलेट स्‍ट्रीट में रहता है जो एक शान्‍त सड़क है लेकिन है तो शहर की सड़क तो वह यह विश्‍वास कर लेता है कि उसकी खिड़की के उस पार एक बंजर जमीन है जहाँ आकाश और भूरापन आपस में मिल गया है। उसकी चतुर बहन को बस दो बार यह देखने की आवश्‍यकता थी कि आर्म चेयर खिड़की के पास लाई गई है, उसके बाद तो जब भी वह कमरे की सफाई करती, तो उसे हमेशा सरका कर खिड़की के पास रखने लगी थी, साथ ही खिड़की को भीतर से खुली छोड़ दिया करती है।

काश! वह उससे कह सकता और आभार प्रकटकर सकता उस सब कुछ के लिए जो वह उसके लिए कर रही है तो उसका और बेहतर ध्‍यान वह रख पाती। सच तो यह था कि इस सबसे उसकी परेशानी और बढ़ गई थी। हालाँकि वह अपनी ओर से पूरी कोशिश करती थी कि उसके कामों में जो भी उसे पसन्‍द नहीं थे, उन्‍हें जल्‍दी-जल्‍दी और हल्‍के-हल्‍के किया करती थी, जैसे-जैसे समय व्‍यतीत होता गया वह सफल होती चली गई थी। लेकिन इस बीतते समय ने ग्रेगोर के ज्ञान में भी तो वृद्धि की थी। जिस तरह वो आया करती थी उससे वह परेशान हो जाया करता था। कमरे में कदम रखते ही वो तुरन्‍त खिड़की के पास तेजी से पहुँच जाया करती है, दरवाज़े को बन्‍द करना भूलकर, जैसा वह ग्रेगोर को दूसरों की नजरों से बचाने के लिए पहले किया करती थी और जैसे उसका दम घुट रहा हो, वह फटाक से खिड़की खोल देती है, जल्‍दी-जल्‍दी उँगली चलाकर। और फिर कुछ देर तक उस खुले बर्फीले मौसम में खड़ी रह, रूहकंपाती सर्दियों के बीच वो लम्‍बी-लम्‍बी साँसें लेती है। दिन में दो बार उसकी इस शोर भरी हरकत से वह परेशान हो जाया करता है। वह हमेशा सोफे के नीचे काँपते हुए खड़ा रहता है, यह सोचते कि कम से कम बहन उसे इस भयानक उत्‍पात से तो आसानी से बचा ही सकती थी यदि वो उसके कमरे में कुछ समय बिना खिड़की खोले बिताती तो।

कायान्‍तरण के एक माह बाद जब ग्रेगोर के अनुसार उसे देख चौंकने या घबराने जैसी कोई बात होनी ही नहीं चाहिए थी, अपने तयशुदा समय से वो कुछ जल्‍दी ही कमरे में आ गई तो उसने उसे खिड़की के बाहर स्‍थिर हो एकटक देखते हुए पाया था एक भूत (बोगी) की तरह। ग्रेगोर को न तो कोई आश्‍चर्य होता और न ही आपत्ति ही होती यदि वो आज आती ही नहीं तो, क्‍योंकि तब वह उसके वहाँ खड़े होने के कारण तत्‍काल खिड़की न खोल पाती, लेकिन वह, न केवल चौंक कर पीछे की ओर उछली थी वरन्‌ पलट कर दरवाजे को जल्‍दी से बंद भी कर दिया था किसी अजनबी ने तो यही सोचा होता कि उसे डराने के लिए ही तैयारी किए बैठा था। स्‍वाभाविक है वह तुरन्‍त ही सोफे में छिप गया था, लेकिन उसके दोबारा आने की उसे दोपहर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी थी और जब वो आई तो सामान्‍य से कुछ अधिक असहज महसूस कर रही थी। इससे उसे अहसास हो गया कि वह अवश्‍य ही घिनावना दिखता होगा और वह घृण्‍य ही रहा आएगा और उसकी बहन को उसके जरा सा भी हिस्‍सा दिखते ही भागने की तीव्र इच्‍छा को रोकने में कितनी मशक्‍कत करनी पड़ती होगी। इस संकट से उसे बचाने के लिए उसने एक चादर को किसी तरह पीठ पर लादा और उसे किसी तरह सोफे तक ले आया- इस काम को पूरा करने में उसे पूरे चार घंटे लगे थे - फिर उसे ऐसे जमा लिया था ताकि वह पूरी तरह छिपा रहे ताकि यदि बहन को झुकना भी पड़े, तब भी उसकी नज़र उस पर न पड़े। यदि बहन ने चादर को अनावश्‍यक माना होता तो उसने तुरन्‍त ही सोफे से उसे हटा दिया होता, क्‍योंकि यह तो स्‍पष्‍ट ही था कि अपने को छिपाए रखने के लिए ही यह पर्दा व्‍यवस्‍था उसके लिए सुविधाजनक नहीं ही रही होगी, लेकिन उसने चादर को छुआ तक नहीं और ग्रेगोर को उसकी आँखों में आभार के भाव की झलक मिली थी जब उसने चादर को जरा-सा हटाकर उसकी प्रतिक्रिया को जानने की कोशिश की थी।

पहले पखवारे में तो उसके माता-पिता उसे कमरे के अन्‍दर आने का साहस ही नहीं बटोर पाए थे। उसने उन्‍हें प्रायः ही बहन की प्रशंसा करते ही सुना जबकि इसके पहले वे उसे नाकारा और कामचोर बेटी ही घोषित करते रहते थे। लेकिन इन दिनों दोनों ही दरवाजे़ के बाहर खड़े उसकी राह देखा करते थे जब उसकी बहन उसके कमरे की सफाई करती रहती थी और जैसे ही वह कमरे से बाहर निकलती उसे तत्‍काल कमरे के बारे में विस्‍तार से उन्‍हें बतलाना पड़ता है- ग्रेगोर ने क्‍या खाया, आज उसका व्‍यवहार कैसा था और क्‍या उसकी हालत में कोई सुधार हुआ है। हालाँकि उसकी माँ ने कुछ ही दिनों बाद उससे मिलने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की थी लेकिन उसके पिता और बहन ने उनका विरोध किया था और जिन्‍हें ग्रेगोर ने ध्‍यान से न केवल सुना ही था वरन्‌ उन तर्कों से पूर्णतः सहमत भी था। लेकिन बाद में तो उन्‍हें जबर्दस्‍ती रोकना पड़ा था जब वे चीखकर बोली थीं, “मुझे ग्रेगोर के पास जाने दो, वो आखिर मेरा अभागा बेटा है! मैंने उसे नौ महीने पेट में रखा है कि नहीं?” ग्रेगोर की भी यही राय थी कि उन्‍हें आने देना चाहिए हर दिन न सही तो कम से कम हफ्‍ते में एक बार, वे परिस्‍थिति को भली-भाँति समझती हैं, कम से कम उसकी बहन से तो बेहतर ही, जो अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद अभी थी तो बच्‍ची ही, हालाँकि उसने इस कठिन काम को अपने हाथ में बिना सोचे-विचारे बच्‍चों की तरह ले लिया है।

अपनी माँ को देखने की इच्‍छा ग्रेगोर की जल्‍दी ही पूरी हो गई थी। दिन के समय खिड़की में जाकर स्‍वयं को दिखाने की उसकी कतई इच्‍छा नहीं थी- अपने माता-पिता के बारे में सोचकर, लेकिन जितनी भी गज जमीन उसके आसपास थी, उसमें रेंगने में भी उसकी रुचि नहीं थी, ना ही वह पूरी रात आराम से सोने के लिए ही तैयार था, इन दिनों उसकी रुचि भोजन में तेजी से खत्‍म होती जा रही थी, इसलिए मात्र मनोरंजन के लिए उसने दीवार और सीलिंग पर आड़े-तिरछे चलना शुरू कर दिया था। सबसे ज्‍यादा आनन्‍द उसे सीलिंग में लटकने से मिलता था, फर्श पर लेटने से वही कहीं बेहतर था, वहाँ ऊपर आराम से साँस ली जा सकती थी और देह आराम से आगे-पीछे झूलती रहती थी और इस लटके रहने में उसे आनन्‍द आता था और जब वह सीलिंग छोड़ फर्श पर टप्‍प से गिरता था तो उसे बहुत मजा आता था। अब वह अपनी देह को भली-भाँति समझने लगा था और उस पर उसका अधिकार पहले से अधिक हो गया था। साथ ही इतने ऊपर से गिरने के बावजूद उसे चोट नहीं लगती थी, न ही कोई नुकसान ही होता था। उसकी बहन ने ग्रेगोर की इस नई आदत को जल्‍दी ही समझ लिया था-क्‍योंकि वह जहाँ से भी रेंगकर गुजरता था, उसके नीचे चिपचिपे द्रव की एक परत वह छोड़ता चला करता था- इसे देख बहन के मन में आया कि रेंगने के लिए उसे अधिक से अधिक जगह देने के लिए कमरा कुछ खाली करने के लिए बीच में रखे फर्नीचर को हटा दे तो कैसा रहेगा, ताकि उसे रेंगने में कोई बाधा न रहे, जैसे लिखने वाली टेबल और दराजों वाली मेज। बस इससे अधिक तो उसकी क्षमता के बाहर था। वो अपने पिता से सहायता माँगने की तो हिम्‍मत बटोर नहीं सकती थी और जहाँ तक नौकरानी का प्रश्‍न था- सोलह वर्षीया-जिसने महराजिन के जाने के बाद रुकने का साहस दिखलाया था, उससे तो सहायता के लिए कहने का तो प्रश्‍न ही नहीं उठता था क्‍योंकि उसने पहले ही किचन के दरवाजे को हमेशा बन्‍द रखने की अनुमति माँग ली थी और बुलाने पर ही दरवाज़ा खोला करती है, अतः उसके पास कोई राह नहीं बची थी सिवाय माँ से सहायता माँगने के, उस एक घण्‍टे में जब पिता बाहर जाते हैं और वे सहर्ष तैयार हो गई थीं प्रसन्‍नता और उत्‍सुकता के साथ और जो ग्रेगोर के कमरे की दहलीज पर कदम रखते ही कपूर की तरह उड़ भी गई थी। यह तो स्‍वाभाविक ही था कि पहले ग्रेगोर की बहन ही यह सुनिश्‍चित करने भीतर गई थी स्‍थिति का जायजा लेने के लिए-माँ के आने के पहले। हड़बड़ाहट में ग्रेगोर ने चादर को मोड़-तोड़ कर ऐसे लटका दिया था जैसे उसे यों ही सोफे पर फेंक दिया गया हो और माँ को देखने के लिए इस बार वहा झाँका भी नहीं। उसने माँ को देखने के आनन्‍द को दबाए रखा था और यही सोच गद्‌गद्‌ रहा आया था कि वे कम से कम कमरे में आईं तो। “आइए, भीतर जा जाइए वो दिखाई नहीं देगा”, उसकी बहन ने माँ का हाथ पकड़ भीतर लाते हुए कहा था। ग्रेगोर दो स्‍त्रियों के द्वारा वजनदार पेटी को उठाते-सरकाते सुन रहा था, हालाँकि मेहनत बहन ही अधिक कर रही थी। वह माँ की शिकायतों को भी नहीं सुन रहा था जो अधिक थक जाने की आशंकाएँ व्‍यक्‍त कर रही थीं। उन्‍हें उठा-धरी में बहुत समय लग गया था। पन्‍द्रह मिनट तक पेटी को हिलाने-डुलाने और सरकाने के बाद उसकी माँ ने पेटी को वहीं छोड़ देने को कहा-एक तो वह बहुत वजनदार थी और साथ ही उसे पिता के आने के पहले तक उचित जगह पर पहुँचाया भी नहीं जा सकता था और इस तरह कमरे में बीचों-बीच छोड़ देने से मात्र ग्रेगोर के चलने-फिरने में परेशानी ही बढ़ेगी। दूसरी ओर यह भी तय नहीं था कि पूरे फर्नीचर को हटाने से ग्रेगोर को कोई विशेष सहायता मिल ही जाएगी। उनकी अपनी सोच थीः खाली दीवारों को देख जब उनका दिल भारी हो घबराने-सा लगता है तो ग्रेगोर को भी तो ऐसा ही महसूस हो सकता है और यह भी तो सच है कि वह इतने दिनों से अपने फर्नीचर के साथ रह रहा है, कहीं ऐसा न हो कि उसके हटाने से उसका अकेलापन और बढ़ जावे “और तुम्‍हें ऐसा नहीं लगता”, उन्‍होंने बेहद धीमी आवाज़ में अपनी बात पूरी की, सच तो यह था कि वे शुरू से फुसफुसा कर बोल रही थीं, जैसे चाहती हो ग्रेगोर न ही सुने तो बेहतर है, जिसके कमरे में होने के सही स्‍थान से वे पूरी तरह अनजान थीं-वे चाहती थीं कि उनकी आवाज़ उसके कानों में न ही पड़े, क्‍योंकि उन्‍हें पूरा विश्‍वास था कि वह उनके शब्‍दों को न तो सुन सकेगा और न ही समझ सकेगा। “तुम्‍हें नहीं लगता कि फर्नीचर को हटा कर हम यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि हमने उसके सामान्‍य होने की उम्‍मीद पूरी तरह छोड़ दी है और उसे भाग्‍य के भरोसे छोड़ दिया है। मेरे विचार से तो उसके कमरे को जस का तस छोड़ देना चाहिए, ताकि जब वह लौटे तो उसे अपना कमरा ज्‍यों का त्‍यों मिले, इससे उसे बीच में जो कुछ भी हुआ है उसे भूलने में मदद मिलेगी।” अपनी माँ के शब्‍दों को सुन ग्रेगोर को अहसास हुआ कि पूरे दो महीने तक मनुष्‍यों की तरह बात न करने और जीवन की एकरसता से वह विभ्रम में पड़ गया है अन्‍यथा वह स्‍पष्‍टतः इस निष्‍कर्ष पर पहुँच जाता कि वह पूरा कमरा तहे दिल से खाली ही चाहता है। क्‍या वह वास्‍तव में चाहता था कि उसका आरामदायक ऊष्‍मा से भरा कमरा, जिसमें पुराना परिचित फर्नीचर यथास्‍थान रखा है वह उसे नंगे डेन में परिवर्तन करा देना चाहता है ताकि वह बिना किसी विघ्‍न-बाधा के सभी दिशाओं में रेंग सके-लेकिन इसके साथ ही पूर्व मानवीय जीवन को पूरी तरह भूलकर? वह विस्‍मृति की कगार पर था और अपनी माँ की आवाज़ को जिसे उसने बहुत समय से नहीं सुना था, उसे वापिस खींच लिया है। नहीं, उसके कमरे से कुछ भी बाहर नहीं ले जाया जाना चाहिए, हर वस्‍तु जस की तस रखी रहनी चाहिए। मानवीय स्‍थिति के लिये उसके फर्नीचर को यों ही रहना आवश्‍यक था और यदि फर्नीचर से उसके व्‍यर्थ गोल-गोल रेंगने में बाधा पड़ती है तो वह कोई बाधा नहीं है वरन्‌ अन्‍ततः हितकर ही सिद्ध होगा।

दुर्भाग्‍य से उसकी बहन की राय विपरीत थी, अकारण ही उसकी यह राय नहीं बनी थी कि वो ग्रेगोर के विषय में अपने माता-पिता की तुलना में कुछ ज्‍यादा ही जानती-समझती है इसलिए माँ की राय विरुद्ध उसने निश्‍चय कर लिया था कि कमरे से पेटी और लिखने की टेबिल को तो यहाँ से हटाया ही जाना चाहिए, साथ ही सोफे को छोड़, सबकुछ को यहाँ से उठाना ही है। यह निश्‍चय कैशौर्य सुलभ जिद से नहीं जनमा था, वरन्‌ पिछले दिनों के अनुभव से उत्‍पन्‍न हुआ था, उसकी समझ में आ गया था कि ग्रेगोर को रेंगने के लिए अधिक स्‍थान की आवश्‍यकता है, साथ ही उसने ग्रेगोर को कभी भी किसी फर्नीचर का उपयोग करते हुए नहीं देखा था। दूसरा कारण था वह उत्‍साह जो किशोरावस्‍था का गुण होता है जिसके अनुसार ग्रेटी अपने भाई की परेशानियों की कल्‍पना कर कुछ अधिक सहायता करना चाहती थी। इस कमरे में खाली दीवारों के बीच जिसमें ग्रेगोर अकेला रहता है उसमें उसके अलावा और कोई पैर रखने की भी हिम्‍मत नहीं करेगा।

और इसीलिए वो अपने निश्‍चय पर अडिग रही थी। माँ के लाख समझाने-बुझाने के बावजूद जो ग्रेगोर के कमरे में वैसे भी कुछ घबराई होने से अनिश्‍चित की स्‍थिति में थीं, अन्‍ततः वे थक हारकर चुप हो गई और अपनी बेटी की सहायता पेटी सरकाने में भरसक करती रहीं थीं। अब पेटी के बिना तो ग्रेगोर काम चला सकता था लेकिन लिखने की डेस्‍क तो उसे किसी भी सूरत में रोकनी ही थी। जैसे ही दोनों महिलाएँ काँखती-कराहती पेटी को कमरे के बाहर ले गईं, ग्रेगोर ने सोफे के नीचे से सिर बाहर निकाला यह सोचते हुए कि पूरी सावधानी के साथ इसमें कैसे बाधा पहुँचाए। अब यह उसका दुर्भाग्‍य ही समझिए कि उसकी माँ कमरे में पहले लौट आईं ग्रेटी को पेटी को दूसरे कमरे में सरकाने और जमाने के लिए छोड़कर, हालाँकि वह अकेली उसे हिला पाने में भी समर्थ नहीं हो पा रही थी। अब माँ की आदत तो उसे देखने की थी नहीं, उसे देख तो वे बीमार भी पड़ सकती थीं, इसलिए ग्रेगोर घबराकर सोफे के दूसरे कोने की ओर भागा लेकिन इसके बावजूद हिलती चादर तो वह छोड़ ही गया था। बस, इतना पर्याप्‍त था उन्‍हें सावधान होने के लिए। वे एक क्षण को स्‍थिर खड़ी रहीं और फिर तुरन्‍त ही उल्‍टे पैर ग्रेटी के पास चली गईं थीं।

हालाँकि ग्रेगोर लगातार स्‍वयं को आश्‍वस्‍त करता रहा था कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है, जो बहुत चिन्‍तनीय हो, बस फर्नीचर को ही तो यहाँ से हटाया जा रहा है। लेकिन नहीं, उसे बहुत जल्‍दी ही स्‍वीकारना पड़ा कि इन दोनों स्‍त्रियों के बार-बार यहाँ-वहाँ घूमने, उनकी लम्‍बी साँसें, फर्नीचर के फर्श से रगड़ने की आवाजें़, उसके चारों ओर बढ़ता शोर, सब मिलकर उसकी सहनशक्‍ति के बाहर होता जा रहा है और वह कितना ही अपने सिर और पैरों को सिकोड़े-उसने स्‍वयं से कहा ‘वह इसे अधिक समय तक बर्दाश्‍त नहीं कर पाएगा।' वे उसके कमरे को पूरी तरह साफ करने में जुटी थीं, उस प्रत्‍येक वस्‍तु को वे हटा रही थीं जिनसे उसे प्‍यार रहा है, वह चेस्‍ट जिसमें अपना नेलकटर और दूसरे आवश्‍यक औजार रखता रहा है- उसे तो वे पहिले ही घसीट कर ले जा चुकी थीं ओर अब वे राइटिंग टेबिल को ढीला करने में व्‍यस्‍त थीं जो एक प्रकार से फर्श पर गड़ ही गई है, डेस्‍क जिस पर उसने अपना पूरा होम वर्क किया है, जब वह कमर्शियल अकादमी और ग्रामर स्‍कूल में था- अब उसके पास दोनों माँ और बहन की सदिच्‍छा के विषय में सोचने का समय नहीं था, उनके अस्‍तित्‍व को ही वह एक प्रकार से भूल चुका था क्‍योंकि वे इतनी पस्‍त हो चुकी थीं कि वे चुपचाप मेहनत किए जा रही थीं और केवल उनके पैरों की भारी आवाज़ें ही सुनाई पड़ रही थीं।

बस, वह तेजी से भागा-दोनों स्‍त्रियाँ उस समय अगले कमरे में राइटिंग टेबिल पर झुक अपनी साँसें सम कर रही थीं- उसने चार बार दिशा बदली क्‍योंकि उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि पहले किसे बचाए, सामने की दीवार की ओर गया जो पहले ही खाली हो चुकी थी- वहाँ उसने फर से लदी महिला की फोटो को टँगा हुआ देखा, तुरन्‍त रेंग कर वह वहाँ पहुँचा और उसके काँच से सटगया जो पकड़ने के लिए अच्‍छी सतह थी और जो उसके गर्म पेट को आराम भी दे रही थी। यह फोटो जो पूरी तरह उसके नीचे छिपी है, इसे वह किसी को भी हटाने नहीं देगा, उसने लिविंग रूम की ओर के दरवाजे़ से दोनों स्‍त्रियों को आते हुए देखने के लिए सिर घुमा लिया।

वे अधिक आराम किए बिना वापिस आ रही थीं, ग्रेटी अपनी माँ को हाथों से सहारा दे रही थी। “अच्‍छा तो अब हम क्‍या उठाएँगे?” ग्रेटी ने चारों ओर देखते हुए कहा। उसकी आँखें दीवार पर ग्रेगोर से मिलीं। वह घबराई नहीं बल्‍कि शांत रही आई क्‍योंकि माँ वहाँ थीं। उसने माँ की ओर सिर घुमाया ताकि वे ऊपर न ही देखें और लरजती आवाज़ में कहा, “आइए हम कुछ देर लिविंग रूम में चलकर बैठें।” उसका इरादा ग्रेगोर ने समझ लिया, वह माँ को आराम से सुरक्षित बैठा कर उसे दीवार से भगाना चाहती थी। ठीक है, उसे कोशिश करने दो-वह फोटो से चिपका रहेगा। उसे छोड़ने का उसका कोई इरादा नहीं था। सीधे उड़कर वह ग्रेटी के चेहरे पर जाएगा।

ग्रेटी के शब्‍दों से माँ बेचैन हो गई थीं और एक कदम एक ओर रख उनकी दृष्‍टि भूरे बड़े वॉल पेपर पर पड़ी और इसके पहले कि वे निश्‍चिन्‍त हो कि उन्‍होंने जो देखा है वह ग्रेगोर ही है, वे घर्राती आवाज़ में जोर से चीखीं, “हे भगवान! ओऽफ भगवान” और हाथ पसारकर सोफे पर धम्‍म से गिर पड़ीं जैसे उन्‍होंने भूत देख लिया हो। “ग्रेगोर” उसकी बहन ने उसे घूरते हुए मुट्ठी हिलाई। यह पहली बार था कायान्‍तरण के बाद जब उसने उससे सीधे बात की थी। ग्रेटी तेजी से दूसरे कमरे में माँ को होश में लाने के लिए कोई गन्‍ध (स्‍मेलिंग साल्‍ट) लेने चली गई। ग्रेगोर उसकी सहायता करना चाहता था लेकिन वह फोटो को बचाना भी चाहता था- लेकिन वह काँच से चिपक गया था, उसे स्‍वयं को जोर से खींचना पड़ा और फिर वह बहन के पीछे अगले कमरे की ओर दौड़ पड़ा था, जैसे बहन को सलाह देने वाला हो, जैसा वह हमेशा करता आया था, लेकिन उसके पीछे जाकर असहाय-सा खड़ा हो गया था, जो वहाँ रखी छोटी बोतलों को उठा-उठाकर देख रही थी और जब उसने यों ही मुड़कर देखा तो उसे वहाँ देख चौंक गई थी, हाथ में पकड़ी बोतल हाथ से छूटी और फर्श पर तड़ाक से गिर टूट गई, काँच का एक टुकड़ा ग्रेगोर के चेहरे पर लगा और कोई हानिकारक दवा छपाक्‌ से उस पर पड़ी। बिना एक मिनट रुके ग्रेटी ने सभी बोतलें हाथों में उठाईं और उन्‍हें ले माँ के पास चली आई और कमरे के भीतर होते ही पैर के धक्‍के से दरवाज़े को बन्‍द कर दिया। ग्रेगोर अपनी माँ से दूर हो चुका था जो शायद उसी के कारण मृत्‍यु के मुँह में पड़ी थी। बहन के आतंकित हो जाने की आशंका से वह दरवाज़ा खोलने का दुःसाहस नहीं कर सकता था और आत्‍मभर्त्‍सना और माँ की स्‍थिति से परेशान हो वह लगातार रेंगने लगा, दीवारों पर, फर्नीचर पर और सीलिंग पर। निराशा के कारण पूरा कमरा चारों ओर घूमने लगा था और फिर वह बीच में रखी टेबिल पर गिर गया था।

कुछ देर तक ग्रेगोर वैसे ही पड़ा रहा। वह कमजोरी महसूस कर रहा था और चारों ओर फैली खामोशी शायद एक शुभ संकेत ही थी। तभी दरवाज़े की घण्‍टी बजी। नौकरानी किचन में बन्‍द थी इसलिए ग्रेटी को दरवाज़ा खोलना पड़ा। पिता थे। “ये सब क्‍या हो रहा है?” भीतर आते ही उनके पहले शब्‍द थे। शायद ग्रेटी के चेहरे ने उन्‍हें सब कुछ बतला दिया था। ग्रेटी ने भरे गले से उनके सीने में मुँह छिपाते हुए कहा, “माँ बेहोश हो गई थीं लेकिन अब वे ठीक हैं। ग्रेगोर छूट गया है।” “बस इसी का तो मुझे डर था।” उसके पिता ने कहा, “यही तो मैं तुमसे बार-बार कहता आ रहा था न, लेकिन तुम औरतों की जात सुनती कहाँ है किसी की।” ग्रेगोर को अन्‍दाजा हो गया कि उसके पिता ने ग्रेटी की बात से अर्थ का अनर्थ निकाल लिया है और यह स्‍वीकार लिया है कि ग्रेगोर ने कोई न कोई खतरनाक काम को अवश्‍य ही अन्‍जाम दे दिया है। स्‍वाभाविक है ग्रेगोर को अपने पिता को सान्‍त्‍वना देनी ही होगी, चूँकि उसके पास न तो समय था और न ही सन्‍तुष्‍टि का कोई साधन ही। अतः वह जो कर सकता था उसने किया, उड़ा और अपने कमरे के दरवाज़े के पास पहुँच दुबक कर बैठ गया, ताकि जब भी वे हॉल में इधर आएँ तो उसे देख लें कि उनके बेटे के इरादे नेक हैं और वह अपने कमरे में जल्‍द से जल्‍द चला जाना चाहता है और उसे जबर्दस्‍ती वहाँ ले जाने की आवश्‍यकता नहीं है, बस दरवाजे़ के खुलने भर की देर है और वह भीतर चला जाएगा।

किन्‍तु उसके पिता इतने अच्‍छे मूड में थे नहीं ‘ओहऽऽ!' भीतर आते ही उनके मुँह से निकला, क्रोध और प्रसन्‍नता से भरी आवाज़ थी उनकी। ग्रेगोर ने अपना सिर दरबाजे से उठाया और अपने पिता की ओर देखा। यह सच था कि ये उसके पिता नहीं थे, जैसी उसने कल्‍पना की थी, वह जानता था कि पिछले दिनों वह लगातार सीलिंग पर रेंगते रहने के मनोरंजन में कुछ अधिक ही व्‍यस्‍त रहा आया था, उसने फ्‍लैट में होती गतिविधियों और बातचीत में पहले की तरह रुचि नहीं ली थी और उसे इस बीच हुए परिवर्तनों को स्‍वीकारने के लिए तत्‍पर रहना था। लेकिन! लेकिन क्‍या यही उसके पिता हैं? वह व्‍यक्‍ति जो पलंग पर थका हुआ-सा दिखा करता था, जब भी ग्रेगोर अपनी व्‍यावसायिक यात्राओं पर बाहर निकलता था, जो शाम को लम्‍बी आराम कुर्सी पर ड्रेसिंग गाऊन में बैठे उसका स्‍वागत करते थे और जो अपने पैरों पर ठीक से खड़े भी नहीं हो पाते थे, बस हाथ उठाकर स्‍वागत करते थे।

उन कुछ गिने-चुने अवसरों पर जब वे परिवार के साथ बाहर जाया करते थे तो ग्रेगोर और उसकी माँ के बीच में चला करते थे। माँ जो बेहद धीमी चाल से चलती थीं, लेकिन वे तो और भी धीमे चला करते थे, अपने ओवर कोट में ढँके, एक-एक कदम बेंत के सहारे किसी तरह चलते थे, बेंत को वे प्रत्‍येक कदम के बाद सावधानी से रखा करते थे और जब भी उन्‍हें कुछ कहना होता था वे रुक जाया करते थे और जो भी उनके पास होता था उसका सहारा ले लिया करते थे और जब वे वहाँ खड़े थे पूरी तरह स्‍वस्‍थ, सोने के बटनों वाले नीले यूनीफार्म में, जैसे बैंक के सन्‍देश-वाहक पहनते हैं, उनकी दोहरी ठोढ़ी जैकेट के कालर को ढाँकती हुई, झाडि़यों जैसी भौंहों से उनकी काली आँखें पैनी ओर ताजगी भरी थीं, उनके पहले के बिखरे सफेद बाल कंघी से बराबर दो भागों में बँटे थे। उन्‍होंने अपनी केप उतारी जिस पर सुनहरा मोनोग्राम बना था- शायद किसी बैंक का बैज, और उसे ऐसे अंदाज में फेंका कि पूरे कमरे का चक्‍कर लगा सोफे पर जाकर गिरी, फिर ओवरकोट को पीछे कर हाथों को पेंट की जेब में डाले वे गम्‍भीर मुद्रा में ग्रेगोर की ओर बढ़े। लग तो यही रहा था कि उन्‍हें पता ही नहीं था कि वे क्‍या करना चाहते हैं, बहरहाल उन्‍होंने अपने पैर कुछ ज्‍़यादा ही ऊपर उठाए और ग्रेगोर उनके असामान्‍य जूतों के आकार को देख मूढ़-सा देखता रहा था। लेकिन ग्रेगोर उनके सामने खड़े होने की हिम्‍मत नहीं कर सकता था। अपने नए जीवन के पहले दिन से उसे पता था कि उसके पिता उसे कठोर दण्‍ड देने के पक्षधर रहे हैं, और इसलिए पिता के कुछ करने के पहले ही वह दौड़ पड़ा। उनके रुकने पर रुकता और उनकी जरा-सी हरकत के साथ ही आगे बढ़ जाता था। इस प्रकार उन दोनों ने कमरे के कई चक्‍कर बिना किसी निर्णयात्‍मक घटना के लगाए, लेकिन यह पूरा घटनाचक्र पीछा करना भी नहीं लग रहा था क्‍योंकि सब कुछ बेहद धीमी गति से हो रहा था। ग्रेगोर ने फर्श को नहीं छोड़ा क्‍योंकि उसे डर था कि कहीं उसके दीवार या सीलिंग पर जाने को दुःसाहस न समझ लिया जाए। लेकिन इस तरह वह अधिक समय तक नहीं चल सकता था क्‍योंकि जहाँ उसके पिता एक कदम ही रख रहे थे, उसे बहुत कुछ करना पड़ता था उतने समय में। वह बेदम हो रहा था, ठीक वैसे ही जैसे अपनी पिछली जिन्‍दगी में वह फेफड़ों पर ज्‍़यादा निर्भर नहीं रह पाया करता था। लड़खड़ाते हुए दौड़ने में वह पूरी शक्‍ति लगा रहा था, साथ ही अपनी आँखें बमुश्‍किल खुली रख पा रहा था। अर्धबेहोशी में केवल आगे बढ़ने के सिवाय और किसी रास्‍ते के बारे में वह सोच ही नहीं पा रहा था। वह यह भूल ही चुका था कि उसके पास दीवारों की स्‍वतंत्रता अभी भी मौजूद है, इस कमरे में रखे फर्नीचरों में मुट्ठे और दरारें पर्याप्‍त थीं- अचानक उसके पीछे कुछ धीरे से गिरा और लुढ़क कर सामने आ गया, ग्रेगोर डर कर रुक गया, दौड़ने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था क्‍योंकि उसके पिता ने बमबारी का निर्णय कर लिया था। उन्‍होंने प्‍लेट में रखे फलों को जेब में भर लिया था और लगातार बिना निशाना लगाए एक के बाद दूसरा सेब उसकी ओर फेंक जा रहे थे। छोटे-छोटे लाल सेब फर्श पर ऐसे लुढ़क रहे थे जैसे उनमें चुम्‍बक लगा हो और वे एक के पीछे एक सटते जा रहे थे। बिना ताक़त के फेंका एक सेब ग्रेगोर की पीठ पर लगा फिर लुढ़क कर आगे बढ़ गया। लेकिन उसके बाद आने वाला सेब पीठ पर जोर से लगा। ग्रेगोर स्‍वयं को आगे घसीट ले जाना चाहता था, जैसे भयंकर दर्द को पीछे छोड़कर जा सकता हो, लेकिन उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसी स्‍थान पर उसे कील से ठोंक दिया गया है। वह वहीं अपनी इन्‍द्रियों को भूल लेटा रह गया। अपनी चेतना के अन्‍तिम क्षण में उसने अपने दरवाज़े को आवाज़ करते खुलते और उसकी माँ, चीखती हुई बहन के आगे झपटती हुई बाहर निकलीं। वे अपने अधोवस्‍त्रों में थीं क्‍योंकि उनकी बेटी ने उन्‍हें आराम से साँस लेने के विचार से पहने हुए कपड़ों को ढीला कर दिया था, ताकि वे होश में आ सकें। उसने माँ को पिता की ओर तेजी से बढ़ते देखा, आगे बढ़ते हुए उनका पेटीकोट खिसककर फर्श पर गिरा और उसमें उलझ कर वे सीधे पिता के ऊपर गिरीं और उन्‍हें बाँहों से पकड़ लिया-लेकिन यहीं पर ग्रेगोर की दृष्‍टि धुँधली हो गई, उस समय माँ के हाथ पिता की गर्दन पर थे और वे बेटे की जिन्‍दगी की दुहाई माँग रही थीं।

ः 3 ः

ग्रेगोर को लगी चोट ने उसे एक माह से अधिक समय तक अपाहिज बनाए रखा था- सेब उसकी देह में अभी भी उस दिन की स्‍मृति दिलाता चिपका था, चूँकि किसी ने भी उसे निकालने की कोशिश नहीं की थी- साथ ही उसके पिता को याद दिलाता रहता था कि ग्रेगोर अपने अपने वर्तमान घृणित कायान्‍तरण के बावजूद अभी भी परिवार का सदस्‍य है और उससे दुश्‍मनों जैसा व्‍यवहार करने की आवश्‍यकता नहीं, वरन्‌ पारिवारिक जिम्‍मेदारियों को देखते हुए घृणा को किसी भी कीमत पर रोके रखना है और चाहिए धैर्य और केवल धैर्य।

हालाँकि चोट ने शायद उसे हमेशा के लिए अपाहिज कर दिया था और फिलहाल उसे कमरे में रेंगने में कई-कई मिनट लग जाते थे, दीवार पर रेंगने का तो प्रश्‍न ही नहीं रहा था- लेकिन इसके बावजूद उसकी अपनी राय में असहायावस्‍था के बदले में वह अदृश्‍य हो गया था, क्‍योंकि शाम होते ही लिविंग रूम का दरवाज़ा जिसे वह घण्‍टे-दो घण्‍टे तक घूरता रहता था, अब खुला रहने लगा था, परिणाम स्‍वरूप अपने कमरे के अँधेरे में परिवार के लिए अदृश्‍य रह वह उन्‍हें लेंप की रोशनी में बैठा बातें करता देखता रहता था, स्‍वाभाविक है यह पहले के कान लगाकर सुनने से तो भिन्‍न था।

यह सच था कि उनकी बातचीत में पुराने दिनों की जीवन्‍तता का अभाव है, जिसकी उसे होटलों के छोटे-छोटे दड़बेनुमा कमरों में हमेशा याद आया करती थी, जब वह थककर चूर हो गीले बिस्‍तर पर लेटता था। फिलहाल तो यहाँ खामोशी पसरी रहती है। रात के भोजन के बाद उसके पिता आर्मचेयर पर लेटे-लेटे सो जाया करते हैं, उसकी माँ और बहन एक-दूसरे को चुप रहने के लिए झिड़कती रहती हैं, उसकी बहन जिसने सेल्‍सगर्ल की नौकरी कर ली है, शाम को फ्रेंच और शार्ट हैण्‍ड की क्‍लास में भविष्‍य के विचार से जाने लगी है। कभी-कभार उसके पिता की नींद टूट जाती है और जैसे उन्‍हें याद ही न हो कि वे सो रहे थे, वे माँ से कहते हैं, “आज तुम कितनी ढेर-सी सिलाई कर रही हो?” कह वे फिर नींद में चले जाते हैं, इस बीच दोनों स्‍त्रियाँ थकी हुई मुसकान एक-दूसरे की ओर बीच-बीच में फेंकती रहती हैं।

अजीब-सी अडि़यल धुन में उसके पिता घर में भी यूनीफार्म पहने बैठे रहते हैं और उनका ड्रेसिंग-गाउन खूँटी पर यों ही टँगा रहता है और वे पूरी तरह से तैयार बैठे-बैठे सो जाया करते हैं, जैसे वे अपने अधिकारियों के आदेश की प्रतीक्षा करते बैठे हों। फलस्‍वरूप उनका यूनीफार्म जो वैसे भी नया तो था नहीं, माँ और बहन द्वारा बार-बार धुलाई के बाद गन्‍दा दिखने लगा था और ग्रेगोर पूरी शाम ड्रेस में लगे ग्रीस के दागों को घूरता रहता है, जिसकी सुनहरी बटनें हमेशा पालिश होने से चमकती रहती हैं जिसे पहने उसके बूढ़े पिता परेशान हाल होने के बावजूद चैन से सोते रहते हैं।

जैसे ही घड़ी दस बजाती है उसकी माँ उसके पिता को हौले से हिलाकर उन्‍हें बिस्‍तर पर जाने के लिए कहती हैं क्‍योंकि वहाँ बैठे रहने से तो नींद पूरी होगी नहीं और जिसकी उन्‍हें बहुत जरूरत है क्‍योंकि उन्‍हें सुबह छह बजे ड्‌यूटी पर भी तो जाना है। लेकिन हठ या जिद जो उनका फिलहाल मूल स्‍वभाव का अंग हो गया है जब से वे बैंक मैसेंजर बन गए हैं, वे टेबल पर देर तक बैठे रहने की जिद करते हैं, हालाँकि वे वहीं सोते हुए बैठे रहते हैं और अन्‍त में ढेरों मिन्‍नतों के बाद ही आर्मचेयर से उठ बिस्‍तर पर जाते हैं। ग्रेगोर की माँ और बहन उन्‍हें लगातार याद दिलाती रहती हैं और वे पन्‍द्रह मिनट तक सहमति में आँखें बन्‍द किए सिर हिलाते बैठे रहते हैं और खड़े होने से इंकार करते रहते हैं। वे उनकी बाँहों को खींचती हैं, कान में प्रेम से बोलती हैं, बहन अपनी पढ़ाई छोड़ माँ की सहायता करती है, किन्‍तु पिता तैयार नहीं होते। वे कुर्सी में और भीतर धँस जाते हैं। आखिर थक-हारकर दोनों स्‍त्रियाँ उन्‍हें दोनों ओर के बाजू से उठाती हैं तब वे आँखें खोल बारी-बारी से दोनों को देख कहते हैं, “यही है जिन्‍दगी, यही है बुढ़ापे की शांति और मौन” कह दोनों पर झुक वे अपने को खींचकर बमुश्‍किल खड़ा करते हैं जैसे वे स्‍वयं के लिए बड़ा-सा बोझ हो, दरवाज़े पर पहुँच हाथ हिला अकेले भीतर चले जाते हैं, जबकि माँ अपना कढ़ाई का काम करने लगती हैं और बहन पिता के पीछे उनकी सहायता के लिए साथ चलती जाती है।

काम के बोझ से लदे थके-हारे परिवार में भला किसे परवाह थी ग्रेगोर की जब तक कोई विशेष आवश्‍यकता न हो। घर के नौकर कम किए जा रहे थे, नौकरानी की छुट्टी कर दी गई थी और एक बड़ी-सी कद-काठी की कोयले वाली अपने उड़ते सफेद बालों के साथ सुबह-शाम ऊपर भारी काम करने के लिए आने लगी थी। घर के सभी काम ग्रेगोर की माँ किया करती है, साथ ही सिलाई-कढ़ाई का बोझ तो उन पर था ही। घर के पारिवारिक जेवरात जिन्‍हें उसकी माँ और बहन गर्व के साथ पार्टियों और त्‍यौहारों पर पहना करती थीं, बेच दिए गए थे, यह उस दिन ग्रेगोर को पता चला था जब वे बेचने के बाद मिली रकम को ले चर्चा कर रही थीं। लेकिन घरवाले सबसे ज्यादा परेशान फ्‍लैट को छोड़ने की असफलता को लेकर थे, जो वर्तमान स्‍थिति में पर्याप्‍त बड़ा था, उनकी परेशानी ग्रेगोर के स्‍थान परिवर्तन को लेकर थी, हालाँकि ग्रेगोर अच्‍छी तरह समझ रहा था कि उसका स्‍थान परिवर्तन इतनी बड़ी समस्‍या थी नहीं क्‍योंकि वे आराम से उसे एक बॉक्‍स में छेद कर ले जा सकते थे। दूसरे छोटे फ्‍लैट में जाने की उनकी मजबूरी दुर्भाग्‍य की ऐसी मार थी जैसी उनके किसी रिश्‍तेदार या परिचित को नहीं भोगनी पड़ी थी। वे वह सब कुछ करने को बाध्‍य थे जिसकी अपेक्षा निर्धनों से पूरी दुनिया करती है। पिता बैंक के छोटे बाबुओं का खाना ला रहे थे, माँ पूरी शक्‍ति अपरिचितों के लिए अण्‍डरवियर बनाने में लगा रही थीं और बहन ग्राहकों के आदेश से एक काउण्‍टर से दूसरे पर तेजी से भाग-दौड़ कर रही थी, किन्‍तु सबसे बड़ी बात यह थी कि यह सब करने के लिए उनमें से किसी के पास भी ऊर्जा और शक्‍ति का पूर्ण अभाव था और ग्रेगोर की पीठ का घाव कुछ अजीब से नए अंदाज़ में परेशान करने लगता है जब उसकी माँ और बहन पिता को बिस्‍तर पर लिटा कर लौट अपने काम छोड़ एक दूसरे के गाल से गाल लगा थककर बैठ जाया करती हैं। और दिन भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद कुछ देर आराम कर माँ उसके कमरे की ओर इशारा कर कहती हैं, “वो दरवाज़ा बन्‍द कर दो ग्रीटी” और वह एक बार फिर अँधेरे में अकेला रह जाता है, जबकि दूसरे कमरे में बैठी दोनों एक-दूसरे के आँसुओं को मिलाती या फिर सूखी आँखों से टेबल को तकती बैठी रहती हैं।

ग्रेगोर को न तो रातों को नींद आ रही थी और न ही दिन में बस, एक ही विचार लगातार उमड़ता-घुमड़ता रहता था कि अगली बार जब दरवाज़ा खुलेगा तो वह घर-परिवार की जिम्‍मेदारी एक लम्‍बे समय के बाद फिर वैसे ही उठा लेगा जैसे पहले उठाए था। उसे चीफ और बड़े बाबू दिखते, कमर्शियल ट्रेवलर्स और एपरेंटिस, वो ढीला-ढाला पोर्टर, दूसरी फर्मों के दो या तीन दोस्‍त, एक देहाती होटल की चेंबर मेड (नौकरानी), खुशबू से भरी प्‍यारी स्‍मृति, चक्‍की की दुकान की कैशियर जिसे पूरी ईमानदारी से उसने प्‍यार किया था लेकिन मन ही मन-ये सभी एक-एक कर आते, इनके साथ ही अपरिचित और ऐसे लोग जिन्‍हें वह पूरी तरह भूल ही चुका था। उसकी या उसके परिवार की सहायता के लिए वे बहुत दूर थे और ये सब जब गायब हो जाया करते थे तो वह राहत की साँस लिया करता था। कभी-कभी वह परिवार की परेशानियों के बारे में कतई नहीं सोचता था, वरन्‌ उनके द्वारा उसके प्रति बरती जा रही लापरवाही से क्रोध से भर जाया करता था। हालाँकि उसे पता नहीं था कि वह खाना क्‍या चाहता है, लेकिन फिर भी भण्‍डारघर में जा अपने हिस्‍से का भोजन खाने की योजना बनाने लगता था, जो उसका अधिकार था हालाँकि उसे भूख नहीं लगी होती थी। उसकी बहन अब उसकी पसन्‍द का खाना लाने की चिन्‍ता नहीं करती थी वरन्‌ सुबह और दोपहर हड़बड़ी में दरवाज़े को पैरों से खोल जो भी खाना होता, रखकर चली जाया करती थी और फिर शाम को एक झटके से झाडू से साफ कर दिया करती है बिना यह देखे कि उसने खाना खाया है या नहीं। खाना बिना छुए क्‍यों रखा है इसकी परवाह किए बिना फटाफट चली जाती है। उसके कमरे की सफाई, जल्‍दबाजी में सम्‍भव थी ही नहीं, लिहाज़ा दीवारों पर धूल की परतें जम गई थीं, कमरे में यहाँ-वहाँ धूल और गन्‍दगी की गेंदें पड़ी रहती हैं। गन्‍दगी के शुरुआती दौर में वह उसे डाँटने के उद्देश्‍य से गन्‍दगी भरे कोने में ही खड़ा हो जाया करता था, लेकिन भले ही वह वहाँ हफ्‍़तों बैठा रहता लेकिन बहन इस विषय में न तो कुछ सोचती, न कुछ करती। वो भी गंदगी देखती तो होगी जैसे वह देखता है लेकिन उसने तो जैसे सफाई न करने का निश्‍चय ही कर लिया था। लेकिन एक नये प्रकार की भावुकता उसमें आ गई थी, जिसने पूरे परिवार को ग्रस्‍त कर रखा था- ग्रेगोर के कमरे की एकमात्र केयरटेकर उसने स्‍वयं को मान लिया था। हुआ यों कि एक दिन माँ ने उसके कमरे की पूरी सफाई कर डाली थी कई बाल्‍टियों भर पानी से-कमरे के गीलेपन से ग्रेगोर बेहद परेशान हो गया था और सोफे पर बिना हिले-डुले फैल कर पड़ा रहा था- लेकिन इसके लिए उन्‍हें पर्याप्‍त सजा मिली थी। जैसे ही उसकी बहन का ध्‍यान उसके कमरे की सफाई पर गया था, बस तुरन्‍त ही वो गुस्‍से में भर लिविंग रूम में माँ के शान्‍त करते हाथों के बावजूद जोर-जोर से रोने लगी थी, जबकि पिता घबराकर कुर्सी से खड़े हो आश्‍चर्य से देखते रह गए थे और फिर वे भी माँ को डाँटने लगे थे कि उन्‍होंने ग्रेगोर के कमरे की सफाई बहन के लिए भला क्‍यों नहीं छोड़ी और साथ ही भूलकर भी ग्रेगोर के कमरे की सफाई न करने की हिदायत दी थी, जबकि माँ, पिता का हाथ पकड़ उन्‍हें बेडरूम में ले जाने की कोशिश कर रही थीं क्‍योंकि क्रोध में वे अपने होशोहवास खो चुके थे और उधर बहन रोने की जगह अब सुबकते हुए टेबल पर अपनी छोटी-छोटी मुट्ठियों से टेबल पर घूँसे मार रही थी और ग्रेगोर गुस्‍से में जोर-जोर से हिस्‍स की आवाज़ निकाल रहा था क्‍योंकि किसी को भी उसका कमरा बन्‍द करने का ध्‍यान न था, ताकि वह इस शोरगुल भरे दृश्‍य को देखने से तो कम से कम बच सके।

बहरहाल यदि उसकी बहन दिन भर कड़ी मेहनत के बाद थकान के मारे ग्रेगोर का उतना ध्‍यान नहीं रख पा रही थी जितना वो पहले रखा करती थी, तब भी माँ को इसमें टाँग अड़ाने की जरूरत नहीं थी, न ही ग्रेगोर पर ध्‍यान देने की आवश्‍यकता थी। कोयले वाली भी तो वहाँ थी। बूढ़ी विधवा जिसकी अकड़ चुकी हड्डियों ने जिन्‍दगी में बहुतेरे उतार-चढ़ाव देखे हैं, कम से कम ग्रेगोर को देख सहमने या भयभीत हो जाने वालो में नहीं थी। बिना किसी विशेष उत्‍सुकता के उसने उसका दरवाज़ा खोल दिया था और ग्रेगोर को देखा था, जो उसे देख तेजी से यहाँ-वहाँ भागने लगा था, हालाँकि उसका पीछा कोई कर नहीं रहा था, लेकिन वो तो आराम से हाथ बाँधकर देखती खड़ी रही थी। उस दिन से रोज सुबह-शाम जरा-सा दरवाज़े की फाँक खोल वो उसे देख लिया करती थी। शुरूआत में तो वो उससे दोस्‍ताने ढंग से बोला भी करती थी जैसे, “आ भी जाओ गोबर कीड़े” या “अहा! जरा देखो तो बुढ़ऊ गुबरैले को।” इस प्रकार के वाक्‍यों का ग्रेगोर कोई उत्तर नहीं दिया करता था, वरन्‌ जहाँ भी होता था वहीं दरवाज़ा खुलते ही चुपचाप खड़ा हो जाता था। इससे तो बेहतर यही होता कि कोयलेवाली को उसके कमरे की रोज की सफाई का काम ही दे दिया जाता। एक सुबह बरसात तेजी से खिड़की के काँच पर पड़ रही थी, जैसे वसन्‍त का मौसम आने वाला हो, ग्रेगोर का मन खराब था उस मौसम को देख कि तभी कोयलेवाली उससे फालतू बकवास करने लगी, तो वह तेजी से उसकी ओर बढ़ गया था हालाँकि कमजोरी के कारण पर्याप्‍त धीमी गति से बढ़ा था, लेकिन कोयले वाली ने डरने की जगह कुर्सी उठा ली थी जो दरवाज़े के पास ही रखी थी और जब वो वहाँ मुँह खोले कुर्सी उठाए खड़ी थी, तो यह स्‍पष्‍ट ही था कि वो कुर्सी उसकी पीठ पर मार कर ही दरवाज़ा बन्‍द करेगी। “तो तुम पास आने वाले हो नहीं?” उसने ग्रेगोर को मुड़कर जाते देख कहा था और कुर्सी कोने में रख दी थी।

आजकल ग्रेगोर बमुश्‍किल से ही कुछ खा रहा था। जब कभी वह रखे भोजन के पास से गुजरता था तभी एकाध टुकड़ा यूँ हो निगलने के ख्‍़याल से मुँह में रख लिया करता था, और एकाध घण्‍टे बाद उसे थूक दिया करता था। पहले तो उसने सोचा कि शायद कमरे की दशा से उत्‍पन्‍न झुँझलाहट उसे खाने से रोक रही है, लेकिन कुछ ही समय में उसने कमरे में हो रहे परिवर्तन को स्‍वीकार लिया था। पिछले दिनों से घर के सभी सदस्‍य दूसरे कमरों की अनुपयोगी वस्‍तुओं को उसके कमरे में धकिया कर लाते थे और उसके कमरे में कहीं भी छोड़ जाने लगे थे और फिलहाल वहाँ बहुत-सा अंगड़-खंगड़ जमा हो गया था, क्‍योंकि एक कमरे में तीन लोगों को पेइंगगेस्‍ट के रूप में रख लिया गया था। वे गम्‍भीर युवक थे-तीनों ने दाढि़याँ बढ़ा रखी थीं। ग्रेगोर ने दरवाज़े की संध से एक दिन उन्‍हें अच्‍छी तरह देख लिया था-तीनों व्‍यवस्‍था प्रिय थे, न केवल अपने कमरे की और अब चूँकि वे घर के सदस्‍य जैसे ही हो गए थे, सो घर के हर काम में भी विशेषकर किचन में वे गाहे-बगाहे सहायता किया करते थे। फालतू दिखावटी और गन्‍दी वस्‍तुएँ तो उन्‍हें जरा-सी बर्दाश्‍त नहीं होती थीं। साथ ही वे अपनी जरूरत की आवश्‍यक वस्‍तुयें भी ले आए थे। बस, इसीलिए घर का सामान अनुपयोगी हो गया था, लेकिन जिन्‍हें बेचा भी नहीं जा सकता था और फेंका भी नहीं जा सकता था। ऐसे सभी सामान को रखने की जगह केवल ग्रेगोर के कमरे में ही थी- राखदान और कचरे की बाल्‍टी की तरह। जो भी वस्‍तु उस क्षण आवश्‍यक नहीं होती थी उसे कोयलेवाली को पकड़ा दिया जाता था और वो उसे ग्रेगोर के कमरे में पटक जाया करती थी। क्‍योंकि उसकी आदत तो फटाफट काम करने की थी। सौभाग्‍य से ग्रेगोर वस्‍तु और उसे पकड़े हाथ भर को ही देख पाता था। शायद वो उस अवसर और समय की राह देख रही थी जब उन्‍हें वापस ले जाया जाएगा या फिर उन्‍हें इकट्ठा कर रही थी और मौके की तलाश में थी जब उन्‍हें उठा कर कचरे के ढेर में जाकर फेंक आएगी। लेकिन सच तो यह था कि वो जहाँ फेंक जाती थी वह वहीं पड़ा रहता था, बस ग्रेगोर ही उन्‍हें थोड़ा बहुत यहाँ-वहाँ कर दिया करता था क्‍योंकि उसके पास रेंगने के लिए जगह ही नहीं बची थी लेकिन फिर बाद में तो उसे इसमें भी मजा आने लगा था, हालाँकि इस भूलभुलैया के चक्‍कर लगाने के बाद वह न केवल थक जाया करता था वरन्‌ दुखी हो घण्‍टों शान्‍त पड़ा रहा था। और चूँकि पेइंग गेस्‍ट रात का भोजन लिविंग रूम में बैठकर ही किया करते थे, इसलिए शामों को उसका लिविंगरूम की ओर का दरवाज़ा बन्‍द ही रहने लगा था- इसलिए ग्रेगोर ने बन्‍द दरवाज़ों की शान्‍ति को स्‍वीकार लिया था क्‍योंकि जब कभी किसी शाम को उसका दरवाज़ा खोला भी गया तो वह कमरे के कोने में ही रहा आया था और घरवाले उसे देख नहीं पाये थे। लेकिन एक दिन उसे कोयलेवाली ने ग़लती से दरवाजा खुला ही छोड़ दिया और वह उस समय भी खुला रहा आया जब किराएदार खाने पर बैठे और लेम्‍प जल चुका था। वे डाइनिंग टेबल पर वहीं बैठे थे जहाँ कभी ग्रेगोर, उसके पिता और माँ बैठा करते थे, बैठकर उन्‍होंने नेपकिन खोलकर बिछाए और हाथों में चाकू और काँटा उठा लिया। तुरन्‍त ही उसकी माँ दूसरे दरवाजे़ से गोश्‍त और बहन आलू का भुर्ता ले आई। दोनों से खासी भाप निकल रही थी। तीनों कुछ इस अन्‍दाज में झुके जैसे वो खाने के पहले देख परख रहे हों। जो व्‍यक्‍ति बीच में बैठा था जो दिखने में उनका नेता लगता था, उसने प्‍लेट में रखे गोश्‍त को कुछ ऐसे अन्‍दाज़ में काटा जैसे वह यह निर्णय करने वाला हो कि गोश्‍त नर्म है या नहीं या फिर उसे वापस किचन में भेज दिया जाए। उसके चेहरे पर सन्‍तुष्‍टि का भाव छा गया और ग्रेगोर की माँ और बहन जो व्‍यग्रता के साथ उसे देखे जा रही थीं उन्‍होंने आराम की लम्‍बी साँस ली और मुस्‍कराने लगीं थीं।

घर के सदस्‍य अब किचन में ही खाने लगे थे। इसके बावजूद ग्रेगोर के पिता किचन में जाने के पहले लिविंग रूम में हाथ में कैप लिए पूरी तरह कमर झुकाए डाइनिंग टेबल का चक्‍कर लगाया करते थे। किराएदार खड़े हो कुछ बुदबुदाया-सा करते थे, फिर एकान्‍त होने पर वे चुपचाप खाना खाया करते थे। ग्रेगोर को यह सोच आश्‍चर्य हुआ करता था कि टेबल से उठती आवाज़ों में उसे दाँतों से चबाने की आवाजे़ं स्‍पष्‍ट सुनाई देती थीं, जैसे वे ग्रेगोर को इशारा करती हो कि खाने के लिए व्‍यक्‍ति को दाँतों की आवश्‍यकता होती है और दाँत के बिना सबसे अच्‍छे-कड़े जबड़ों से कुछ भी किया जाना सम्‍भव नहीं है। “मुझे बहुत भूख लगी है।” ग्रेगोर ने स्‍वयं से कहा, “लेकिन उस खाने की नहीं। देखो तो किराएदार कैसे भकोसे जा रहे हैं और इधर मैं हूँ जो भूख से मरा जा रहा हूँ।”

उस शाम के पहले तक ग्रेगोर ने वायलिन की आवाज़ नहीं सुनी थी, लेकिन उस शाम उसने किचन से आती वायलिन की आवाज़ सुनी। किराएदारों ने भोजन समाप्‍त कर लिया था और बीच में बैठा व्‍यक्‍ति एक अखबार ले आया था और अपने दोनों साथियों को एक-एक पेज दे दिया था और अब वे आराम कुर्सी पर पीठ टिकाए सिगरेट पीते हुए पढ़ रहे थे। जब वायलिन से धुन निकलने लगी तो उनके कान खड़े हो गए। कुर्सियों से उठ वे पंजों के बल चलते हुए हॉल के दरवाज़े तक पहुँच गए और एक दूसरे से सटकर खड़े हो गए। अवश्‍य ही ग्रेगोर के पिता को उनकी आहट मिल गई होंगी, इसीलिए उन्‍होंने भीतर से आवाज़ लगाईं, “सज्‍जनों यदि वायलिन से आप परेशान हो रहे हों, तो कृपया कह दें, हम उसे तुरन्‍त बन्‍द कर देंगे।” इसके विपरीत बीच वाले किराएदार ने कहा, “हमारी तो यह इच्‍छा है कि फ्राउलिन (कुमारी) साम्‍सा हॉल में हमारे बीच आकर बजाएँ, तो बेहतर होगा, वहाँ पर्याप्‍त स्‍थान भी है” यह कह किराएदार लिविंग रूम में आ इन्‍तजार करने लगे थे। कुछ ही देर बाद ग्रेगोर के पिता म्‍यूजिक स्‍टैण्‍ड और माँ संगीत पुस्‍तक तथा बहन वायलिन ले भीतर आ गईं। उसकी बहन ने सब कुछ व्‍यवस्‍थित किया और वायलिन बजाना शुरू कर दिया। उसके माता-पिता जिन्‍होंने इसके पहले किराएदार रखे नहीं थे, अतः किराएदारों के सम्‍मान को ले वे अतिवादी थे। यही सोच वे अपनी कुर्सियों पर नहीं बैठे थे, उसके पिता दरवाजे़ से टिककर खड़े थे, उनका दाहिना हाथ लिवरी कोट की दो बटनों के बीच में फँसा था, जबकि कोट के पूरे बटन बन्‍द थे, लेकिन उसकी माँ से किराएदारों ने कुर्सी पर बैठने का विशेष आग्रह किया तो उन्‍होंने जहाँ कुर्सी लाकर रखी गई थी, वहाँ न बैठ उसे कोने में ले जाकर बैठना पसन्‍द किया था।

ग्रेगोर की बहन बजा रही थी और दोनों ओर खड़े पिता और माँ उसके हाथों को गौर से देख रहे थे। संगीत से आकर्षित हो ग्रेगोर धीरे-धीरे आगे बढ़ता चला गया और यहाँ तक कि उसका सिर लिविंग रूम के भीतर आ गया। दूसरों का लिहाज न करने की अपनी इस हरकत पर उसे कोई आश्‍चर्य नहीं हुआ, हालाँकि एक समय था जब वह दूसरों की भावनाओं की चिन्‍ता करने के अपने गुण पर गर्व किया करता था। साथ ही यह एक ऐसा अवसर था जब अपने को छिपाए रखने के उसके पास एक से अधिक कारण थे क्‍योंकि उसके कमरे में अटी पड़ी धूल की परत इतनी गहरी थी कि जरा-सी हवा चलने पर वह उड़ने लगती थी। वह स्‍वयं भी धूल से ढँका था, बाल और रोएँ और खाने के कतरे उसके पीछे सरकते हुए चल रहे थे, जो उसकी पीठ और दोनों ओर चिपके थे। हर वस्‍तु के प्रति उसकी लापरवाही उसके अन्‍दर इतनी अधिक थी कि पलट कर अपनी पीठ कार्पेट से रगड़कर साफ कर लेने का विचार भी उसके मन में नहीं आया, जैसा वह पहले दिन में कई बार किया करता था। अपनी बदहाल हालत के बावजूद उसे आगे बढ़ने में कोई शर्म नहीं आ रही थी, वह भी साफ-सुथरे लिविंग रूम में।

यह निश्‍चित था किसी को भी उसकी उपस्‍थिति का आभास तक न था। परिवार एकाग्रचित्त हो वायलिन वादन सुन रहा था और किराएदार जो पहले म्‍यूजिक स्‍टैण्‍ड के पीछे जेबों में हाथ डाले म्‍यूजिक स्‍टैण्‍ड पर रखे संगीत को भी पढ़ते जा रहे थे- जिससे स्‍वाभाविक है उसकी बहन को कुछ असहजता का अहसास हो रहा था- लेकिन कुछ ही समय बाद वे खिड़की की ओर चले गए थे और वहीं सिर झुकाए खड़े हो फुसफुसाकर बातें कर रहे थे, जबकि उसके पिता उनकी ओर उत्‍सुकता के साथ बीच-बीच में देख रहे थे। वे अपने क्रिया-कलापों से स्‍पष्‍ट कर रहे थे कि वे संगीत से निराश हुए हैं, क्‍योंकि वादन न तो सुन्‍दर ही था और ना ही आनन्‍द उठाने योग्‍य ही। उनका मन उससे उचट चुका था और मात्र सौजन्‍यता वश ही वे वहाँ रुके थे, हालाँकि उनकी शान्‍ति भंग हो रही थी फिर भी मन मारकर वे खड़े थे। जिस ढंग से वे अपने सिगार का धुँआ नाक और मुँह से सिर उठाकर फेंक रहे थे वह उनकी अप्रसन्‍नता को प्रकट कर रहा था। इधर ग्रेगोर की बहन पर्याप्‍त सुन्‍दरता के साथ वादन किए जा रही थी। उसका चेहरा एक ओर को झुका हुआ था और उसकी आँखें संगीत के नोट्‌स पर टिकी थीं। ग्रेगोर रेंगकर कुछ आगे बढ़ा और अपना सिर उसने फर्श से सटा लिया ताकि उसकी आँखें बहन की आँखों से मिल सकें। क्‍या वह तुच्‍छकीट था जबकि संगीत का उस पर इतना प्रभाव पड़ा रहा है? उसे अहसास हुआ कि उसके सामने एक अजानी-सी भूख की नई राह खुल रही है जिसके लिए वह तड़प रहा था। उसने निश्‍चय किया कि वह आगे बढ़ता जाएगा जब तक बहन के पास नहीं पहुँचता और फिर उसके स्‍कर्ट को खींचकर समझाएगा कि उसे उसके कमरे में आकर वायलिन बजाना चाहिए, क्‍योंकि यहाँ उसके संगीत की प्रशंसा करने वाला कोई है ही नहीं, जितनी वह कर सकता है। वह उसे अपने कमरे से भी बाहर जाने नहीं देगा, कम से कम जब तक वह जीवित है, डरावना स्‍वरूप पहली बार उसे उपयोगी लगा- वह अपने कमरे के सभी दरवाज़ों पर बराबर नज़र रखेगा और अतिक्रमण करने वालों पर थूक दिया करेगा, लेकिन उसकी बहन पर कोई बन्‍धन नहीं होगा, वह स्‍वेच्‍छा से उसके साथ रहेगी, वो उसके साथ सोफे पर बैठा करेगी और अपने कान उसके पास लाएगी और वह पूरे विश्‍वास के साथ कहेगा कि उसने उसे कसोर्टियम में भेजने का दृढ़ निश्‍चय कर लिया है और इस दुर्घटना के कारण, पिछले बड़े दिन पर, जिसे बीते भी बहुत समय हो गया है? उसने तो घोषणा कर ही दी होती और किसी के भी विरोध को वह स्‍वीकार नहीं करता। इस आत्‍मस्‍वीकृति के बाद उसकी बहन स्‍वाभाविक है इतनी भावुक हो जाती कि उसकी आँखों में आँसू आ जाते और फिर ग्रेगोर उसके कन्‍धे तक जाता और उसकी गर्दन को चूम लेता, जो अब बिना किसी कालर या रिबल के है, क्‍योंकि उसे नौकरी पर जाना पड़ता है।

“मिस्‍टर सम्‍सा!” बीच वाले किराएदार ने जोर से ग्रेगोर के पिता से बिना एक शब्‍द को बर्बाद किए ग्रेगोर की ओर उँगली उठा दी, जो धीरे-धीरे आगे बढ़ता आ रहा था। वायलिन के स्‍वर रुक गए, बीच वाले किराएदार ने सिर हिलाते हुए अपने साथियों की ओर मुस्‍करा कर देखा और एक बार फिर ग्रेगोर को देखा, ग्रेगोर को भगाने की जगह उसके पिता ने किराएदारों को शान्‍त करने की आवश्‍यकता अनुभव की, हालाँकि वे कतई नाराज नहीं दिख रहे थे बल्‍कि उसकी उपस्‍थिति से उनका मनोरंजन वायलिन वादन से अधिक हो रहा था। पिता उनकी ओर तेजी से हाथ फैलाते बढ़ते उससे अपने कमरे में जाने का निवेदन करने लगे, साथ ही उन्‍होंने ग्रेगोर को उनकी नज़रों से छिपाने का प्रयास भी किया। किराएदार पर्याप्‍त अप्रसन्‍न दिखने लगे थे क्रोधित होने की हद तक-अब यह तो कोई नहीं कह सकता था यह बूढ़े के व्‍यवहार के कारण था या ग्रेगोर जैसे पड़ोसी की उपस्‍थिति से। उन्‍होंने उसके पिता से इस सबका उत्तर माँगा, उन्‍हीं की तरह उन्‍होंने भी हाथ फैलाए, अपनी दाढ़ी पर बेसब्री से उँगलियाँ डालकर उन्‍हें नोंचा और फिर निहायत असन्‍तुष्‍ट हो अपने कमरे में चले गए। इस बीच ग्रीटी ठगी-सी खड़ी रह गई थी वायलिन बजाना बन्‍द कर। एकाएक उसे होश आया और एक पल में सामान्‍य हो हाथ में पकड़े वायलिन और बो को माँ की गोद में रख दिया था, जो कुर्सी पर बैठीं दमे के दौरे से लड़ती साँसों के लिए तड़प रही थीं, तेजी से दौड़कर वो किराएदारों के कमरे में उनसे पहले पहुँच गई जिन्‍हें उनके पिता घेर कर धीरे-धीरे ले जा रहे थे। कोई भी उसे तेजी से तकिए जमाते और कंबल तह कर रखती उँगलियों को देख सकता था। इसके पहले कि किराएदार भीतर पहुँचते उसने बिस्‍तर ठीक कर दिए थे और धीरे से बाहर आ गई थी।

बुढ़ऊ एक बार फिर अपने अडि़यलपन के मूड में आ गए थे और किराएदारों के साथ किए जाने वाले सामान्‍य सौजन्‍य और सद्‌भाव को भूल गए थे। वे उन्‍हें धकियाते-ठेलते गए जब तक वे अपने बेडरूम के दरवाज़े तक नहीं पहुँच गए और वहाँ पहुँच बीच वाले किराएदार ने जोर से आवाज़ करते पैर पटका, तो वे रुक गए थे। “मुझे एक निर्णय की घोषणा करना है”, ग्रेगोर की माँ और बहन को देखते हुए उसने कहना जारी रखा। “मैं यहीं इसी क्षण आपको नोटिस दे रहा हूँ। स्‍वाभाविक है मैं आपको एक पैसा भी इस घर की घृणित परिस्‍थितियों के कारण उन दिनों का नहीं दूँगा, जितने दिन भी मैं यहाँ रहा हूँ, यही नहीं मैं आपके विरुद्ध मानहानि का मुकदमा भी दायर करूँगा। विश्‍वास रखें इसे मैं सबूतों से सिद्ध भी कर दूँगा।” पूरी ताकत लगा एक साँस में इतना कह वह रुक गया और सामने देखने लगा था जैसे वह कुछ अपेक्षा कर रहा हो। उसके दोनों मित्रों ने भी तुरन्‍त उसके स्‍वर में स्‍वर मिलाते हुए कहा, “और हम भी इसी मिनिट आपको नोटिस देते हैं।” इतना कह दरवाजे का हैण्‍डिल पकड़ उसने धड़ाक से बन्‍द कर दिया था।

ग्रेगोर के पिता ने हाथों से टटोलकर कुर्सी पकड़नी चाही और लड़खड़ा कर अपनी कुर्सी पर धम्‍म से गिर गए। लग तो ऐसा रहा था जैसे वे अपनी रोजाना की शाम की नींद ले रहे हों, लेकिन उनका बार-बार हिलता-घूमता सिर जिसे रोकना उनके वश में न था, उससे स्‍पष्‍ट था कि वे नींद से बहुत दूर हैं। इस बीच ग्रेगोर उसी जगह पर रुका हुआ था जहाँ किराएदारों की नज़र उस पर पड़ी थी। अपनी योजना के असफल होने के साथ बढ़ती भूख से उसके लिए हिलना तक सम्‍भव नहीं रहा था। वह भयभीत था इस अहसास के साथ कि किसी भी पल उस पर सामूहिक क्रोध उंड़ेल दिया जाएगा। इसी की अपेक्षा करता वह वहीं पड़ा रहा। उसने वायलिन के जमीन पर गिरने से हुई ट्‌वैंग पर भी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की, जब वायलिन माँ की गोद से उनकी बुरी तरह काँपती उँगलियों से छूट झनझनाता हुआ नीचे गिर गया था।

“मम्‍मीऽ पापाऽऽ” उसकी बहन ने टेबल पर जोर से हाथ पटकते अपनी ओर ध्‍यान खींचते हुए कहा, “इस तरह तो ज्‍़यादा दिनों तक चल नहीं सकेगा। शायद आप इसकी गम्‍भीरता का अहसास नहीं कर पा रहे हैं किन्‍तु मैं बहुत सोच-विचार के बाद यह कह रही हूँ कि इस प्राणी के सामने मैं अपने भाई का नाम कभी नहीं लूँगी, लेकिन यह अवश्‍य कहूँगी कि हमें इससे छुटकारा पा लेना चाहिए। जितना सम्‍भव था हमने इसकी देखभाल कर ली और जितना किसी भी आदमी के लिए सम्‍भव है हमने अपनी तरफ से पूरी-पूरी उतनी कोशिश की है, मुझे पूरा विश्‍वास है कि कोई भी हमें गैर-जि़म्‍मेदार नहीं कहेगा।”

“सही तो कह रही है ये”, ग्रेगोर के पिता ने स्‍वयं से कहा था। उसकी माँ अभी भी साँस लेने के लिए लड़ती हुई खाँसे जा रही थीं। अपनी हथेलियों को मुँह में लगा सूखी खाँसी के साथ आतंकित आँखों से माँ देखे जा रही थीं।

उसकी बहन तेजी से उनके पास गई और उनका माथा पकड़ लिया। उसके पिता के बेतरतीब वाक्‍यों की अस्‍पष्‍टता ग्रीटी के शब्‍दों को सुन गायब हो गई थी! वे सीधे तन कर बैठ गए थे और किराएदारों की खाली प्‍लेटों के बीच रखी सर्विस कैप पर उँगलियाँ घुमाते बीच-बीच में ग्रेगोर को स्‍थिर खड़ा देख रहे थे।

“हमें इससे छुटकारा पाना ही होगा,” इस बार उसकी बहन ने स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कुछ जोर से कहा क्‍योंकि माँ इतनी जोर से खाँस रही थीं कि वे एक शब्‍द भी सुनने लायक नहीं थीं। “नहीं तो आप दोनों की मौत निश्‍चित है। मैं उसकी आहट को सुन ही नहीं रही, देख भी रही हूँ। फिर जैसी मेहनत हम लोग कर रहे हैं न, उसके बाद इस घर में होती यातना को हम बर्दाश्‍त नहीं कर सकते। कम से कम मेरे लिए तो नाकाबिले बर्दाश्‍त हो गया”, इतना कह वह जोर-जोर से रोने लगी और उसके आँसू माँ के चेहरे पर टपकने लगे थे जिन्‍हें उसने आदत के अनुसार पोंछ लिया था।

“मेरी प्‍यारी बिटिया”, बूढ़े पिता ने उसकी भावनाओं को समझते हुए पूरी सहानुभूति के साथ कहा, “लेकिन हम कर ही क्‍या सकते हैं?”

ग्रेगोर की बहन ने असहायता व्‍यक्‍त करते कन्‍धे झटकाए जिसने उसके पूर्व आत्‍मविश्‍वास की जगह कब्‍जा कर लिया था।

“काश! वह हमारी परिस्‍थिति को समझ सकता”, उसके पिता ने कुछ-कुछ प्रश्‍न-सा करते हुए कहा। सुबकती हुई ग्रीटी ने जोर-जोर से हाथ हिलाते हुए कहने की कोशिश की कि यह विचार ही व्‍यर्थ है।

“काश! वह हमारी परिस्‍थितियों को समझ सकता,” बुढ़ऊ ने आँखें बन्‍द कर अपनी बेटी के विश्‍वास की असम्‍भाव्‍यता को पूरी तरह समझते हुए कहा, “तो हम किसी-न-किसी हल पर पहुँच सकते थे, लेकिन हाल-फिलहाल तो․․․”

“उसे जाना ही होगा”, ग्रेगोर की बहन ने चीखते हुए कहा, “बस, यही एकमात्र रास्‍ता बचा है पापा। आप इस विचार को अपने मन से निकाल कर फेंक दें कि यह ग्रेगोर है। इतने लम्‍बे समय तक यह विश्‍वास करना ही इस समस्‍या की जड़ है। लेकिन, यह भला ग्रेगोर हो कैसे सकता है? यदि यह ग्रेगोर होता तो उसने पहले ही यह समझ लिया होता कि मनुष्‍य जाति ऐसे प्राणी के साथ भला कैसे रह सकती है और बहुत पहले ही अपने आप चला गया होता और तब मेरा भाई और आपका बेटा नहीं होता न, लेकिन हम उसकी यादों के सहारे आसानी से जिन्‍दा रहे आते, लेकिन फिलहाल हालात ऐसे हैं कि वह हमें सजा देने पर उतारू है, हमारे किराएदारों को भगाना चाहता है मुझे तो यही लगता है कि वह पूरा अपार्टमेण्‍ट अपने लिए ही चाहता है और चाहता है कि हम लोग जाकर गटर में सोएँ। उफ․․․ जरा देखो तो पापाऽऽ”, वो एक बार फिर चीखी, “वो कैसे हरकत कर रहा है”, कहते उसने भयभीत हो, ऐसी हरकत की जिसे ग्रेगोर भी नहीं समझ सका। उसने माँ को छोड़ दिया और एक प्रकार से कुर्सी को धक्‍का दे दिया और माँ को ग्रेगोर के पास रहने को विवश कर वह तेजी से पिता के पास चली गई जो उसकी परेशानी देख हाथ फैलाए खड़े हो गए थे, जैसे वे उसकी रक्षा करने तत्‍पर हों।

लेकिन ग्रेगोर के मन में किसी को भी भयभीत करने की कोई इच्‍छा या विचार नहीं था, बहन का तो प्रश्‍न ही नहीं उठता। उसने तो इसलिए चक्‍कर लगाना शुरू किया था ताकि रेंगकर अपने कमरे में वापिस लौट जाए, लेकिन स्‍वाभाविक है देखने वालों के लिए तो वह भयभीत करने वाली हरकत थी, हालाँकि अपाहिजों जैसी उसकी अवस्‍था थी, उसमें जल्‍दी मुड़ना उसके लिए सम्‍भव ही नहीं था। बस वह सिर को बार-बार उठाकर जमीन में पटक कर धीरे-धीरे रेंग ही सकता था। एक पल रुक उसने चारों ओर देखा। उसे लगा जैसे उसकी नेकनीयती को वे समझ गए हैं और चिन्‍तित होना क्षणिक था। वे उसे निराशा भरी खामोशी से देख रहे थे। उसकी माँ अपने तने और जुड़े दोनों पैरों के साथ कुर्सी पर निढ़ाल पड़ी थीं, उनकी आँखें थक कर बन्‍द हो रही थीं। उसके पिता और बहन पास-पास बैठे थे और उसकी बहन की बाँहें पिता की गर्दन पर थीं।

शायद अब मैं अपना चक्‍कर लगा सकता हूँ, ग्रेगोर ने सोचा और अपनी कोशिशें फिर शुरू कर दीं, हालाँकि उसका दम फूल रहा था और उसे बार-बार रुककर अपनी साँस सम करना पड़ रहा था, अब उसे कोई परेशान नहीं कर रहा था और वह पूरी तरह आजाद था। पूरा चक्‍कर लगा लेने के बाद वह पीछे की ओर सीधा रेंगने लगा। अपने कमरे से इतनी दूर निकल आने पर उसे आश्‍चर्य हो रहा था। उसे तो विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि अपनी इस दुर्बल अवस्‍था में वह इतनी दूर कैसे आ गया था बिना किसी परेशानी के। उसने रेंगते हुए यह भी ध्‍यान नहीं दिया कि उसके परिवार ने इस बीच न तो एक शब्‍द बोला था, न ही कोई हरकत ही की थी और ना ही उसकी राह में कोई बाधा ही उपस्‍थिति की थी। जब वह दहलीज पर पहुँच गया, तब जाकर उसने सिर घुमाया, पूरा नहीं क्‍योंकि उसकी गर्दन की नस अकड़ गई थी, बस वह इतना देख पाया कि उसकी बहन खड़ी हो गई है और फिर उसकी आँखें माँ पर पड़ीं जो पूरी तरह नींद की गोद में थीं।

बमुश्‍किल वह कमरे के भीतर हुआ ही था दरवाज़ा फटाक से बन्‍द हो गया था और साँकल चढ़ाकर उसमें ताला लगा दिया गया था। उसके पीछे हुई आवाज़ इतनी तेज़ थी कि उसके नीचे के नन्‍हे-नन्‍हें पैरों ने जवाब ही दे दिया। यह उसकी बहन थी जिसने जल्‍दबाजी दिखलाई थी। इन्‍तजार करती वो पूरी तरह से तैयार थी और एक छोटी-सी छलाँग लगा दरवाज़े पर पहुँच गई थी इतने हल्‍के से कि उसने उसके आने की आहट तक नहीं सुनी थी। ताले में चाबी घुमाते उसने जोर से माता-पिता से कहा, “लो झंझट खत्‍म।”

“और अब?” ग्रेगोर ने चारों ओर अँधेरे में देखते हुए स्‍वयं से कहा। बहुत जल्‍दी उसे अहसास हो गया कि अपना एक अंग भी हिलाना उसके लिए सम्‍भव नहीं है। उसे कोई आश्‍चर्य नहीं हुआ, वरन्‌ उसे तो यही अस्‍वाभाविक लगा कि इन कमजोर दुर्बल नन्‍हें-नन्‍हें पैरों से भला उसने इतना अधिक चल कैसे लिया था। इसके साथ ही दूसरी ओर वह पर्याप्‍त राहत महसूस कर रहा था। यह सच था कि उसकी पूरी देह ही दर्द कर रही थी, लेकिन उसकी पीड़ा क्रमशः कम हो रही है और उसे विश्‍वास है कुछ समय बाद वह पूरी तरह ठीक भी हो जाएगा। उसकी देह पर चिपका सड़ा सेब और उसके चारों ओर जलता घेरा जिसमें पतली धूल भर गई थी, फिलहाल उसे परेशान नहीं कर रही थी। उसने अपने परिवार के बारे में प्‍यार और स्‍नेह से सोचा। यह निर्णय कि उसे हमेशा के लिए गायब हो जाना चाहिए एक ऐसा निर्णय था जिसे वह अपनी बहन से अधिक स्‍वयं स्‍वीकारता था- काश! यदि यह सम्‍भव हो पाता तो। इस खामोश ध्‍यान मग्‍न अवस्‍था में वह तब तक रहा आया जब तक घण्‍टाघर ने सुबह (रात) के तीन नहीं बजा दिए। संसार में फैलती रोशनी उसकी चेतना पर भी एक बार पड़ी और फिर उसका सिर फर्श पर अपने आप धीरे-धीरे लुढ़क गया और उसकी नाक से साँस की अन्‍तिम लौ निकल गई।

कोयलेवाली औरत ने सुबह आते ही अपनी जल्‍दबाजी के चलते जोर-जोर से दरवाज़ों, को धड़ाम-धड़ाम खोलना, बन्‍द करना रोज की तरह शुरू कर दिया, भले ही उसे कई बार चेताया गया हो कि वो ऐसा न करे, क्‍योंकि उसकी इस हरकत से उसके आने के बाद कोई भी आराम की नींद नहीं सो पाता है- उसने जब ग्रेगोर के कमरे में झाँका तो उसे कुछ भी अस्‍वाभाविक नहीं लगा। उसे देख उसने सोचा कि वह जान-बूझकर बहाना बनाए पड़ा है। वह ग्रेगोर को पर्याप्‍त बुद्धिमान मानती थी। चूँकि उसके हाथ में लम्‍बे दस्‍ते वाली झाडू थी, अतः उसने दहलीज से ही उसे गुदगुदाने की कोशिश की। जब इससे कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उसने उत्‍साहित हो उसे कसकर टोंचा मारा और जब धक्‍के से भी हरकत होती नहीं दिखी, तब जाकर उसने गौर से देखा। उसे सच समझने में अधिक समय नहीं लगा। उसकी आँखें फैल गईं और मुँह से लम्‍बी सीटी निकली। लेकिन उसने व्‍यर्थ समय बर्बाद नहीं किया वरन्‌ तेजी से जा सम्‍सा के बेडरूम का दरवाज़ा धड़ाक से खोल अँधेरे में ही चिल्‍लाकर कहा, “अरे, जरा देखो तो इसे, यह मर गया है, ये वहाँ मरा पड़ा है, ख्‍़ात्‍म हो गया है।”

मिस्‍टर और मिसेज सम्‍सा अपने बैड पर चौंककर उठ बैठे और इसके पहले कि वे कोयलेवाली के शब्‍दों में निहित भावार्थ से उपजे अर्थ से सम्‍भल सकें, वे कुछ पलों तक जड़वत्‌ रहे आए। लेकिन फिर पलंग के एक ओर से न उतर अलग-अलग ओर से उतरे थे। मिस्‍टर सम्‍सा ने कम्‍बल अपने कन्‍धे पर डाल लिया लेकिन मिसेज सम्‍सा अपने नाइट गाउन में ही उतरीं और दोनों ग्रेगोर के कमरे की ओर चल दिए थे। इस बीच लिविंग रूम का दरवाज़ा भी खुल गया था जिसमें किराएदारों के आने के बाद ग्रीटी सोने लगी थी, वो पूरे कपड़े पहिने थी जैसे सोयी ही न हो और जो उसके चेहरे के पीलेपन से साफ दिख रहा था। “मर गया”, मिसेज सम्‍सा ने कोयले वाली को प्रश्‍न करती निगाहों से देखते हुए कहा, हालाँकि वे स्‍वयं भी इसका पता लगा सकती थीं और फिर सच तो इतना स्‍पष्‍ट था कि किसी प्रकार जाँच की आवश्‍यकता ही नहीं थी। “मैं तो यही कहूँगी”, कहते हुए कोयलेवाली ने अपने शब्‍दों को सिद्ध करने के लिए ग्रेगोर की लाश को झाडू से एक ओर सरकाते हुए कहा था। मिसेज सम्‍सा ने उसे रोकने की अपनी इच्‍छा को जबर्दस्‍ती रोका। “चलो”, मिस्‍टर सम्‍सा ने कहा, “ऊपर वाले की कृपा है।” कहते उन्‍होंने हाथ से क्रास का निशान बनाया और तीनों स्‍त्रियों ने उनका अनुकरण किया। ग्रीटी जिसकी आँखें लाश पर से एक मिनट को भी नहीं हटी थीं, उसने कहा, “देखो न, वह कितना दुबला हो गया है। कितने दिनों से तो उसने खाना ही नहीं खाया था। जो भी खाना रखा जाता था, जैसे का तैसा वापिस आ जाता था।” ग्रेगोर की पूरी देह सूखी और चपटी थी, जैसी अब वो दिख रही थी क्‍योंकि अब उसे पैरों का सहारा था ही नहीं और कोई भी उसे आराम से देख सकता था।

“ग्रीटी प्‍लीज़ कुछ देर के लिए हमारे पास आ जाओ बेटी।” मिसेज सम्‍सा ने थरथराती मुस्‍कराहट के साथ कहा। मुड़ते-मुड़ते ग्रीटी ने एक बार और लाश को देखा और फिर माता-पिता के साथ उनके बेडरूम में चली गई। कोयले वाली ने दरवाज़ा बन्‍द कर खिड़की पूरी खोल दी। हालाँकि पौ अभी-अभी फटी ही थी लेकिन हवा में ताजगी की तरलता थी। आखिर मार्च का महीना जो समाप्‍त हो रहा था।

किराएदार अपने कमरे से निकल आए थे और टेबल पर नाश्‍ता न देख उन्‍हें ताज्‍जुब हुआ था, जैसे उन्‍हें पूरी तरह भुला ही दिया गया हो। “हमारा नाश्‍ता कहाँ है?” बीचवाले किराएदार ने कुछ हिचकते-सहमते हुए कोयलेवाली से पूछा। उत्तर में उसने तुरन्‍त ओंठों पर एक उँगली रख श․ऽऽ․श․ऽऽ․ करते रखी और बिना एक शब्‍द बोले इशारे से समझाया कि वे ग्रेगोर के कमरे में जाकर देख लें। उन तीनों ने यही किया था और अपने कुछ गन्‍दे कोटों में हाथ डाल वे ग्रेगोर की लाश के चारों ओर खड़े हो गए थे, जहाँ कमरे में पर्याप्‍त रोशनी थी।

कुछ समय बाद बेडरूम का दरवाज़ा खुला था और मिस्‍टर सम्‍सा अपने यूनिफार्म पहने बाहर निकले थे। उन्‍होंने एक हाथ से पत्‍नी को और दूसरे से बेटी को घेर रखा था। उन्‍हें देखकर स्‍पष्‍ट दिखलाई दे रहा था कि तीनों रोते रहे हैं, कुछ देर बाद ग्रीटी अपना चेहरा पिता की बाँह में छिपा रही थी।

“हमारा घर अभी इसी वक्‍़त खाली करो”, बिना स्‍त्रियों पर से हाथ उठाए उन्‍होंने दरवाज़ों की ओर इशारा करते हुए कहा। “क्‍या मतलब है आपका?” बीच वाले किराएदार ने कुछ घबराकर लेकिन हल्‍की-सी मुस्‍कुराहट के साथ कहा। बाकी के दोनों किराएदारों ने अपने हाथ पीछे कर लिए और जोर-जोर से हथेलियों को रगड़ने लगे, जैसे वे जीतने की पूरी उम्‍मीद कर रहे हों। “मेरा वही मतलब है जो आप समझ रहे है,” कहते हुए मिस्‍टर सम्‍सा अपने परिवार सहित सीधे किराएदारों की ओर बढ़े। कुछ मिनट तक किराएदार वहीं अपनी जगह शान्‍त खड़ा फर्श को देखता रहा, जैसे उसके मन में कोई नए विचार आकार ले रहे हों। “अच्‍छा ठीक है, तब हम चले जाएँगे”, कहते उसने मिस्‍टर सम्‍सा को देखा जैसे अभी भी निर्णय में उसे परिवर्तन की आशा हो। मिस्‍टर सम्‍या ने अर्थपूर्ण आँखों के साथ दो-तीन बार सिर हिलाया। किराएदार लम्‍बे डग रखता हॉल में पहुँच गया, उसके दोनों दोस्‍त सब कुछ सुन चुके थे, उन्‍होंने हाथ रगड़ना बंद कर दिया था और उसके पीछे खामोश चलते जा रहे थे जैसे उन्‍हें डर हो कि कहीं मिस्‍टर सम्‍या तेजी से बढ़ उन्‍हें उनके नेता से अलग न कर दें। हॉल में पहुँच तीनों ने रैक से हैट निकाले और छाता-स्‍टैण्‍ड से बेंत और चुपचाप सिर झुकाकर अपार्टमेण्‍ट से बाहर निकल गए। आशंकित होने के बावजूद जिसकी आवश्‍यकता कतई नहीं थी, मिस्‍टर सम्‍सा और दोनों स्‍त्रियाँ उन्‍हें सीढि़यों से नीचे उतरते देखते आगे बढ़ गए। सीढि़यों के जंगले को पकड़ वे तीनों को धीरे-धीरे उतरते देखते रहे, हर मोड़ के बाद उनका दिखना बन्‍द हो जाता था हर माले के बाद, लेकिन कुछ ही देर बाद वे फिर दिखने लगते थे, उनके आकार जितने अस्‍पष्‍ट और धुँधले होते आ रहे थे, उतनी ही सम्‍सा परिवार की रुचि धुँधला रही थी और जब कसाई का लड़का सिर पर टे्र लिए अकड़ कर आता दिखा, तब मिस्‍टर सम्‍सा और दोनों स्‍त्रियों ने जंगला छोड़ दिया, जैसे उनके सिर से भी भारी बोझ उतर गया हो और फिर वे अपने अपार्टमेण्‍ट में चले गए थे।

उन्‍होंने आज का दिन पूरी तरह आराम करने और टहलने जाने के लिए तय कर लिया था। उन्‍हें अपनी व्‍यस्‍तता से आराम की बेहद आवश्‍यकता थी। इसीलिए तीनों टेबिल पर बैठ अवकाश की अर्जी लिखने बैठ गए। मिस्‍टर सम्‍सा ने अपने बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट को, मिसेज सम्‍सा ने अपने नियोक्‍ता को और ग्रीटी ने अपनी फर्म के इंचार्ज को। जब वे पत्र लिख रहे थे तभी कोयले वाली उनसे यह कहने आई कि उसका काम पूरा हो गया है और वह जा रही है। शुरू में तो उन्‍होंने बिना सिर उठाए ही सिर हिला दिया था, लेकिन इसके बाद भी जब वो वहीं खड़ी रही तो उसे नाराजगी से देखते मिस्‍टर सम्‍सा ने कहा, “कहो?” कोयलेवाली वहीं दहलीज पर मुस्‍कराती हुई खड़ी रही जैसे उसके पास उन्‍हें बतलाने के लिए परिवार के लिए सुखद समाचार हो, लेकिन जिसे वह तभी बतलाएगी जब बाकायदा पूछा जाएगा। उसके हैट पर लगा शुतुरमुर्ग का पंख सीधा खड़ा था, जिसे देख मिस्‍टर सम्‍सा का माथा उसी दिन से घूमने लगा था, जिस दिन से वो उनके यहाँ काम कर रही है- वह पंखा हर दिशा में प्रसन्‍नता के साथ घूम रहा था। “हाँऽऽ तो बतलाओ क्‍या बात है?” मिसेज सम्‍सा ने पूछा जिन्‍हें कोयले वाली दूसरों की अपेक्षा अधिक सम्‍मान किया करती थी। “ओह”, कोयले वाली ने अशिष्‍ट ढंग से हँसते हुए कहा, जैसे वो तुरन्‍त कहने को तैयार न हो, “बात यह है कि उस कमरे की वस्‍तु को फेंकने के सम्‍बन्‍ध में आपको चिन्‍ता करने की कतई जरूरत नहीं है, वो सब कुछ मैंने पहले ही कर दिया है।” मिसेज सम्‍सा और ग्रीटी अपने पत्रों पर झुक गईं, जैसे वे बहुत अधिक व्‍यस्‍त हों। मिस्‍टर सम्‍सा ने समझ लिया कि वो विस्‍तार से सुनाने की इच्‍छुक है, अतः निर्णयात्‍मक ढंग से हाथ हिलाकर उसे चुप करा दिया था। अब चूँकि उसे विस्‍तार से कहानी सुनाने का मौका नहीं मिल रहा था, उसे तत्‍काल जल्‍दी जाने की याद आ गई अतः फटाक से, “अच्‍छा अलविदा सबको” कह तेजी से घूमी और जोर से आवाज़ कर दरवाज़े को बन्‍द कर और बाहर निकल गई थी।

“आज रात इसे भी नोटिस दे दिया जाएगा”, मिस्‍टर सम्‍सा ने कहा, लेकिन अपने कथन पर न तो उन्‍हें पत्‍नी की प्रतिक्रिया मिली और न ही बेटी ने कोई उत्तर दिया, क्‍योंकि कोयलेवाली ने उनकी शान्‍ति भंग कर दी थी जिसे उन्‍होंने बमुश्‍किल प्राप्‍त किया था। वे तीनों कुर्सी से उठे और खिड़की की ओर बढ़ गए और वहाँ कुछ देर तक एक-दूसरे को पकड़े खड़े रहे। मिस्‍टर सम्‍सा फिर वहाँ से मुड़े थे और धीरे-धीरे चल अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गए थे और उन दोनों को चुपचाप देखते रहे थे। फिर लम्‍बी-सी साँस ले बोले थे, “जो हो गया सो हो गया, अब आगे की सोचें लेकिन फिलहाल तो तुम लोगों को मेरे बारे में कुछ सोचना चाहिए।” दोनों ने ही सहमति में सिर हिलाया और उनके पास पहुँच उन्‍हें धीरे से थपथपाया और अपने-अपने पत्र जल्‍दी से पूरा करने में जुट गईं थी।

इसके बाद उन तीनों ने एक साथ अपार्टमेंट छोड़ा जैसा उन्‍होंने पिछले कुछ महीनों से नहीं किया था। वे ट्राम से शहर के बाहर देहात के खुले आसमान में पहुँच गये। ट्राम में वे अकेले यात्री थे और वहाँ सूरज की ऊष्‍मा से भरी रोशनी ही उनकी साथी थी। सीट पर आराम से सिर टिका उन्‍होंने भविष्‍य को ले बातें करना शुरू कर दिया और अपनी वर्तमान परिस्‍थिति को देख उन्‍हें लगा कि उनकी हालत कतई बुरी नहीं है, क्‍योंकि जो नौकरियाँ वे हाल-फिलहाल कर रहे हैं जिनके सम्‍बन्‍ध में उन्‍होंने कभी एक बार भी आपस में चर्चा नहीं की थी, सभी अच्‍छी खासी है और आगे चलकर उनमें पर्याप्‍त सम्‍भावनाएँ हैं, लेकिन सबसे पहले तो नए मकान की समस्‍या थी, वे छोटा, सस्‍ता और अच्‍छी कॉलोनी में मकान चाहते थे, जो इस मकान से बेहतर हो जिसे ग्रेगोर ने चुना था। जब वे इसी विषय पर बातचीत कर रहे थे, मिस्‍टर और मिसेज सम्‍सा को अचानक एक साथ अहसास हुआ जब बेटी की बढ़ती जीवन्‍तता पर उनकी नज़रें गईं। पिछले दिनों की समस्‍याओं और वेदनाओं से उसके गाल पीले पड़ गए थे, वही अब एक सुन्‍दर लड़की में बदल चुकी थी, जिसकी देहयष्‍टि में पर्याप्‍त आकर्षण है। वे खामोश हो गए और अनजाने में ही सहमति में नज़रों की अदला-बदली करने लगे, क्‍योंकि वे इस निष्‍कर्ष पर पहुँच गए थे कि उन्‍हें जल्‍दी ही उसके लिए एक होनहार पति की तलाश करनी होगी और उनके इस नए सपने और विचार के परिणाम स्‍वरूप यात्रा के अन्‍त में उनकी बिटिया सबसे पहले फटाक‌ से अपने पैरों पर खड़ी हुई और अपनी देह को हाथ ऊपर उठा उसने पूरा खींचा था

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अनुवाद - इंद्रमणि उपाध्याय

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर 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फ्रेंज काफ़्का की कहानी - कायान्तरण
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