ठिठुरन मनोज सिंह जादौन रे ल्वे स्टेशन पर अब भीड़ नहीं थी, क्यों कि ट्रेन तो सुबह छ; बजे ही चली जाती है और फिर दोपहर बारह बजे जाती है अब तो...
ठिठुरन
मनोज सिंह जादौन
रेल्वे स्टेशन पर अब भीड़ नहीं थी, क्यों कि ट्रेन तो सुबह छ; बजे ही चली जाती है और फिर दोपहर बारह बजे जाती है अब तो बस वे ही लोग स्टेशन पर होते हैं, जो किसी न किसी वजह से वहीं रहते हैं स्टेशन मास्टर, ऑफिस क्लर्क और जीआरपी वाले तो नौकरी की वजह से सारी सुविघाओं के साथ वहॉ रह रहे हैं, लेकिन कुछ लोग वहीं बसेरा करते हैं, खुशी से नहीं वरन मजबूरी में उनमें से भी बढ़ती ठंड में जो लोग कहीं सुरक्षित जगह पर जा सकते थे वे चले गये बस इन दो अभागों को कहीं ठौर नहीं था पगलूराम और कचरो।
पगलूराम को पगलूराम नाम भी स्टेशन वालों ने ही दिया है,उसका असली नाम कोई नहीं जानता दरअसल वह है कौन कोई नहीं जानता। हां वह किसी के लिये हानिकारक नहीं था,सो किसी को कोई समस्या नहीं थी, सिवाय जीआरपी के एक हवलदार मोहनबाबू के। हालांकि ये खुद मोहनबाबू भी नहीं जानता था कि वो पगलूराम से क्यों चिढ़ता है।
मोहनबाबू पिछले दस साल से इसी स्टेशन पर पोस्टेड था, ये राज वो किसी को नहीं बताता कि कैसे उसका ट्रांसफर इन दस सालों में कहीं और नहीं हुआ ,पर इन दस सालों में इस प्लेटफार्म पर उसका एकछत्र राज रहा है यदि किसी को स्टेशन पर कुछ घंघापानी करना हो,तो उसे मोहनबाबू का सिगरेट और पौवा का खयाल रखना होता था,ये एक अलिखित नियम सा था कचरा तो फिर भी कुछ दे देता था, पर पगलूराम से ही कोई उम्मीद न थी, शायद ये एक कारण हो सकता है पगलूराम से चिढ़ने का हालांकि ये बात मोहनबाबू ने कभी किसी से न कही थी।
कचरा दस साढ़े दस साल का इकहरे बदन वाला लड़का जितनी दुनिया कचरा ने अब तक देखी है शायद उतनी ही जानकारी से उसकी जिंदगी कट जाती पर दुनिया उसे नित नये सबक सिखाने पर आमादा थी। कचरा की मां इसी शहर की थी , इसी प्लेटफार्म पर रहती थी जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही उस बिन मॉ बाप की लडकी को उसी के किसी रिश्तेदार ने मां बना दिया था। उसने कभी भी कचरा को पसंद नहीं किया, कचरा को देखते ही उसे अपने साथ हुये की याद आ जाती थी। जब कचरा चार या पॉच साल का था तब उसकी मां कचरा को स्टेशन पर ही छोडकर लोहपीटा युवक के साथ भाग गयी। कुछ ही दिनों क बाद वह युवक तो वापस आ गया पर कचरा की मां नहीं लौटी। सुना है वह युवक उसे कहीं बेच आया था खैर उसकी मां के जाने क बाद कुछ दिन तक तो लोग दया दिखाते रह उसे कुछ न कुछ खाने के लिये देते रह, पर ये ज्यादा दिन नहीं चला, तब कचरा स्टेशन क बाहर एक चाय की दुकान पर कप प्लेट धोने का काम करने लगा,फिर कुछ दिन बाद बाल मजदूरी रोकने की मुहिम के चलते ये काम भी छूट गया ,बेचार चाय वाले को जेल की हवा खानी पडी। कचरा को फिर खाने के लाले पड़ गये जाने कहां से उसने कचरा से कबाड़ बीनने का काम सीख लिया, तब से कचरा का दाना पानी इसी से चलने लगा।
पगलूराम को खाने की कोई चिन्ता नहीं थी। जब उसे भूख लगती वह किसी नास्ते की दुकान से कुछ मांगने लगता और उसे क्षुघा शांत करने को कुछ न कुछ मिल जाता था। लेकिन फिर एक दिन पगलूराम एक दुकान से खाने को कुछ मांग रहा था, दुकानदार अपने ग्राहकों में व्यस्त था, पगलूराम से रहा नहीं गया,उसने हाथ बढाकर तीन चार समोसे उठा लिये बसे यही गलती कर दी उस दिन खूब मार पड़ी और खाना देना बंद हो गया। रात को जब कचरा होटल से लाया खाना खाने क लिये बैठा तो अपनी चोटों पर हाथ फेरता पगलूराम उसके पास बैठ कर कुछ खाने के लिये मांगने लगा। तब से एक अधोषित समझौते क तहत कचरा नियमित रुप से अपने साथ-साथ पगलूराम क लिये भी खाना लाने लगा। पता नहीं क्यों ऐसा करके उसे अच्छा लगता था।
खाली समय में पगलूराम को परेशान करना मोहनबाबू का प्रिय शगल बन गया था कभी पगलूराम की पोटली छीनकर उसे दौङाना, कभी किसी और की खुन्नस में उसकी पिटाई कर देना। एक दिन तो हद ही हो गयी जब शराब क नशे में मोहनबाबू ने पगलूराम क बालों में जलती हुई सिगरेट डाल दी। पगलूराम सो रहा था जब आग उसकी खाल तक पहुंची तब बिलबिला कर वह इघर-उघर भागने लगा। शोरशराबा सुन कर जब कचरा जागा तो उसने किसी तरह पानी डालकर आग बुझाईे। सुबह स्टेशन मास्टर को ये बात कचरा से पता चली तो उन्होंने मोहनबाबू को खूब डांटा। तबसे मोहनबाबू कचरा से भी खार खाने लगा था।
हालॅाकि अभी रात क आठ बजे थे। ट्रन आ के आघा धंटा ही हुआ था लेकिन दिसंबर की ठंड की वजह से सन्नाटा खिंच गया था रात को ट्रेन यहीं रुकती थी और सुबह यही ट्रेन जाती थी। प्लेटफार्म बिल्कुल खाली था, कुत्ते भी न जाने कहॉ दुबककर बैठे थे। हाँ एक कोने में पगलूराम बैठा रो रहा था,और प्लेटफार्म की सबसे आरामदायक कुर्सी पर एक रजाई ओढ़ मोहनबाबू सो रहा था। वैसे मोहनबाबू जीआरपी के स्टाफ रुम में सोता था पर आज पता नहीं क्यों एसी ठंड में बाहर सो गया था। उसके सोने की मुद्रा से ये तो स्पष्ट था कि वह पूर नशे में था। कचरा जब आया तो रोता हुआ पगलूराम उसके पास आ गया।
कचरा को जोरों की भूख लग रही थी सो खाने का अपना हिस्सा लेकर बाकी का पगलूराम को द दिया। पगलूराम भी जल्दी जल्दी खाने लगा। खाना खा चुकने क बाद जब कचरा ने कोने वाली उस जगह की ओर देखा जहां उसके ओढ़ने बिछाने क कपड़े रखे होते थे। वे वहां नहीं थे। कचरा दौड़कर वहां गया। आसपास भी उसने देखा लेकिन उसके वे कपड़े वहां नहीं थे। कचरा सिर पकड़कर वहीं बैठ गया,तब पगलूराम वहां आया और कचरा का हाथ पकड़कर स्टेशन क बाहर की तरफ ले गया और वहां पास की नाली की ओर हाथ से इशारा करने लगा। कचरा ने देखा उसके कपड़े और पगलूराम की पोटलीं और कपड़े नाली में पड़े थे।
कचरा ने दौड़कर कपड़े उठाये। पगलूराम ने भी उसका अनुकरण किया अपने कपड़े उठा लिये। दोनों के कपड़े पूरी तरह से भीग चुके थे। कचरा ने पगलूराम से पूछा तो पगलूराम ने मोहनबाबू की ओर इशारा कर दिया। कचरा सारा माजरा समझ गया। आज सुबह ही तो उसने मोहनबाबू की शिकायत स्टेशन मास्टर से की थी, और स्टेशन मास्टर ने मोहनबाबू को बुरी तरह से डॉटा था। उसी का बदला लिया था मोहनबाबू ने। आज अपनी बेबसी पर बहुत रोना आ रहा था। कचरा को ये कड़ाके की ठंडी रात कैसे कटेगी ये चिंता सता रही थी। उसे इतनी धबराहट कचरा को जीवन में दूसरी बार हो रही थी। पहली बार जब उसकी मां उसे छोडकर गयी थी। उसे लगा था कि अब तो वह मर ही जायेगा। लेकिन इस सख्त जीवन ने उस नन्ही सी जान को छोड़ना गवारा न किया। ऐसे ही चिन्ता करते-करते कब आँख लग गयी पता ही न चला।
सुबह आसपास के शोर को सुनकर कचरा की आँख खुली तो उसने पाया कि उसके ऊपर तो रजाई पड़ी है जिसे नींद में ही उसने अच्छी तरह लपेट लिया था और पगलूराम भी उसके साथ रजाई में सो रहा था। जब कचरा ने गौर से देखा तो पता चला कि ये तो मोहनबाबू की रजाई है। वह उठकर उस ओर गया जहां मोहनबाबू सो रहा था। पर ये भीड़ कैसी है और ये पुलिस। कचरा भीड़ के बीच से वहां तक पहॅुचा तो देखा कि मोहनबाबू उकडू उसी कुर्सी पर मरा पड़ा था जिस पर वह सोया था।
दरअसल रात को पगलूराम ने जब अपने मुहाफिज को ठंड से ठिठुरते देखा तो वह मोहनबाबू की रजाई उठा लाया था और मोहनबाबू चूंकि नशे में था सो उसे कुछ पता ही न चला, और बेरहम ठंड ने अपना काम कर दिया था।
पुलिस की बेरहमी और अन्य लोगो की बेरुखी का सच बताती एक कहानी , पढने से ऐसा लगता है सचमुच सामने घटित हो रहा है .बहुत तारीफ़ के लायक है ये रचना ! - रेनिक बाफना [मेरे ब्लॉग : renikbafna.blogspot.com / renikjain.blogspot.com]
जवाब देंहटाएंरेनिकजी ,धन्यवाद आपकी समीक्षा ने मुझे बहुत ही प्रेरित किया है ,आगे भी आपकी निष्पक्ष टिप्पणी की आशा करता हूं.एक बार फिर धन्यवाद :-मनोज सिंह जादौन
हटाएंजिस ठण्ड में ठिठुरने के लिए मोहन बाबु ने कचरा और पगलूराम को छोड़ दिआ था , उसी ठण्ड ने उनकी जान ली । काफी सराहनीय रचना थी ।
जवाब देंहटाएंजिस ठण्ड में ठिठुरने के लिए मोहन बाबु ने कचरा और पगलूराम को छोड़ दिआ था , उसी ठण्ड ने उनकी जान ली । काफी सराहनीय रचना थी ।
जवाब देंहटाएंविकास नैनवालजी ,आपने कहानी को सराहा इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद :-मनोज सिंह जादौन
हटाएंविकास नैनवालजी ,प्रशंसा के लिए अनेक-अनेक धन्यवाद :-मनोज सिंह जादौन
जवाब देंहटाएंप्रिय विकास नैनवालजी ,आपने कहानी को सराहा इसके लिए अनेक-अनेक धन्यवाद ,ऐसी ही सराहना लेखक को आगे लिखने की प्रेरणा देती है.आगे भी आपसे यही अपेक्षा है.:-मनोज सिंह जादौन
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