सौमित्र सक्सेना लड़ैती लड़ैती ः मेरी प्रिय कहानी यह कहानी मुझे कई कारणों से बहुत प्रिय हैः सन् 2006 लेखन के मामले में लगभग सूखा-सा च...
सौमित्र सक्सेना
लड़ैती
लड़ैती ः मेरी प्रिय कहानी
यह कहानी मुझे कई कारणों से बहुत प्रिय हैः
सन् 2006 लेखन के मामले में लगभग सूखा-सा चला गया था। यह बात बहुत साल रही थी कि अपने लिये रखे कुछ लक्ष्य अधूरे रहे गये। उनमें एक था कुल मिला के साल भर में दस कहानियाँ लिखने का। 20 दिसम्बर के आस-पास एक रात पैड, काग़ज़ और पेन लेकर बैठ गया, मन में यह निश्चय करके कि आज कुछ ना कुछ अच्छा लिख ही उठूँगा। तब इस कहानी ‘लड़ैती' का जन्म हुआ।
इस कहानी में दृश्य-अदृश्य रूप में मेरा पूरा परिवार है। बहुत-सी बातें है, बहुत लोगों की जिन्हें मैंने घोल-मेल के यह कथा बुनी है। कोई पाँच वर्ष पहले यहाँ अमेरिका आ गया था। जड़ें जो उस वक्त कट-सी गयीं थीं। अभी-भी पूरी तरह सूखी नहीं हैं। पौध में अभी-भी वही पुराना दृश्य जीवित है। मैं खुद को अप्रवासी के रूप में पहचाने जाने को अभी भी गलत मानता हूँ। अवचेतन मस्तिष्क में अभी-भी भारतभूमि पर ही रह रहा हूँ। और मेरे चारों तरफ मेरे मम्मी-पापा, भाई-बहन ओर उनकी सारी बातें हर समय अभी-भी उतनी ही व्यग्रता के साथ फैली रहती हैं।
पर मुझसे ज़्यादा शायद अनुपस्थिति जैसी चीज़ को वहाँ वो लोग महसूस करते हैं। इस कहानी के ‘माँ-पिता' मेरे मम्मी-पापा हैं।
कहानी की ‘ऋचा' मेरी बड़ी बहन जिनका नाम ‘ऋचा' है, वो हैं और कहानी के ‘प्रतीक' मेरे जीजा जी हैं। कहानी में ऋचा अपने पति प्रतीक के साथ अमेरिका चली आयी हैं और वर्षों से वहीं रह रही हैं।
माता-पिता भारत में अकेले रह रहे हैं और उनका सारा समय ऋचा की बातों को याद करके बीतता है। दोनों के अकेले होने के कारण उनके सम्बन्धों में एक बहुत मधुर-सा विकास हुआ है। माँ-पिता एक-दूसरे के लड़ैते हो गये है।
पूरी कहानी उनके इसी सम्बन्ध को कुछ दिनों के अन्तराल में हुए सम्वादों के माध्यम से कहती है कहानी के एक-दो प्रसंग पत्नी मालविका के बचपन के किस्से हैं। ऋचा दीदी को हमेशा से ये शिकायत थी कि मेरी किसी भी कविता में उनका नाम नहीं आया है जबकि दादी-बाबा, नानी-नाना, मम्मी-पापा और छोटा भाई मोनू सबके बारे में मैंने कुछ ना कुछ लिखा है। सो इस कहानी के माध्यम से मैं उनकी यह शिकायत भी पूरी कर रहा हूँ। यह कहानी मुझे बहुत प्रिय है। ईश्वर हमारे परिवार पर दयादृष्टि बनाये रखे। मम्मी-पापा हमेशा खूब स्वस्थ्य और प्रसन्नचित रहें।
-सौमित्र सक्सेना
रहो!
‘गोद में! किसकी गोद में?'
‘मेरी और क्या पड़ोसी की?'
‘क्या बोल रहे हैं आप! मैं कब आपकी गोद में आयी। अब बुढ़ापे में यही सब रह गया है मुझे करने को।
‘हाँ! और नहीं कुछ! ये ढलती हुई खाल देखती है। ये आँखों का चश्मा देखा है। ठीक से साड़ी-कपड़ा न पहनूं तो पक्की दादी-अम्मा लगूँ।'
पिता खुद बिस्तर पर आ गए। सिरहाने तकिया लगाया और माँ का सिर अपनी गोद में रख लिया। माँ भी गुड़-मुड़ाई, घुटने समेट के पेट की तरफ मोड़ लिए। दोनों हाथों को छाती में मसेट के पेट की तरफ मोड़ लिए। दोनों हाथों को छाती में समेट लिया और वहीं पति की गोद में दुबक गई। पिता ने माँ के सिर पे हाथ फेरा- ‘अब बोल! कौन बच्चा है यहाँ?'
माँ ने कुछ नहीं कहा हँसी और आँखें बंद कर लीं।
‘तुम्हें याद है, कैसे चुहिया-सी हुई थी ये बोड़े की फली-सी पहली-पतली उँगलियाँ थीं इसकी। नन्हीं-नन्हीं आँखें। एक हथेली में पूरी समा गयी थी इसकी देह। फिर सात दिन वेण्टीलेटर पर रखा था। मुझे भी देखने नहीं देते थे किसी-किसी दिन तो। मैं, कमज़ोरी से आधी देह, बाहर शीशे से इसको देखती थी। रोज़ बोलती थी- ‘आई हो तो रुक जाना, इतनी जल्दी क्या है लौटने की?'
अम्मा आती थीं तो बोलती थीं- ‘मरोगी तो नाय?' और ये हँस देती थी।
‘उस ज़माने की औरतें लडकियों को ऐसे क्यों खिलाती थीं?'
‘अरे जाने दो। तुम भी बीसियों साल पुरानी बातें लेके बैठ गयीं। वो जमाना ही ऐसा था।'
‘तुम्हें याद है इसको होने पर तुम कितना रोए थे।' ‘मैं रोया था! कब?'
दिन-1
‘वो तो अपने मियाँ लड़ैती है।'
माँ ने मुस्कान के साथ, चद्दर झाड़ते हुए कहा।
‘लड़ैती बाप की होती है- लड़की या पति की?'
पिता पास में चलते हुए गये और शयन कक्ष की एक कुर्सी पर पसर गये।
‘जो लाड़ करे, वो उसकी लड़ैती। इसमें बाप-पति कहाँ से आ गये? क्या मैं आपकी लड़ैती नहीं हूँ?'
माँ को अपने पुराने दिन याद आ गये, जैसे। वो नज़रें तिरछी करके और प्यारी उम्मीद में उनकी तरफ देखने लगीं।
‘सही बात है।' पिता ने माँ की बात का कोई विरोध नहीं किया।
‘याद करूँ तो, मैं जब ब्याह के आयी तो कुल सत्रह की थी। बी․ए․ फस्ट ईयर के इम्तमान भी पूरे नहीं किये थे कि बाबूजी ने कहा ‘तुझे लड़के वाले देखने आ रहे हैं?' मुझे लगा था कि मेरा सारा जीवन किसी अनजानी राह पर निकले वाला है। पर देखो, बाद में सब ठीक हो गया। बचपन तो जैसे हवा की तरह छूने आया और चल गया।'
माँ की आँखों में किसी बात की हरियाली दिखी और वो बिस्तर पर तकिये के सहारे बैठ गयीं।
पिता ने उठायी किताब रैक पर वापस रख दी। वो माँ की तरफ स्नेह भरी दृष्टि से देखने लगे।
‘कौन कहता है कि तुम्हारा बचपना चला गया? वो तो अड़ोस-पड़ोस के नाती-पोते दौड़े रहते हैं इसलिए बड़प्पन बनाए रहती हो। वरना तुम्हारा बस चले तो तुम गोद में ही छिपी
‘चलो बनो मत।'
‘मनों पानी पड़ रहा था उस दिन और तुम बारिश में लतर-पतर आए थे जाने कहाँ से। सारे शरीर से पानी चू रहा था। मैं तो आँखें भी ठीक से नहीं खोल पा रही थी। तुम्हें देख के घबरा गई थी। फिर जब तुम्हें उसे देखने की इज़ाज़त नहीं मिली तो तुम फूट-फूट के रोए थे।'
पिता के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान दिखाई दी। आँखें शून्य में स्थिर हो गयीं।
उन्हें उस दिन अपने भावुक होने का पहली बार पता चला था।
‘क्या करता? एक तो अचानक तुम अस्पताल में भरती, ऊपर से तार से सूचना मिली मुझे। मैं तो घबरा के कानुपर से भाग था।'
माँ थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गई। अट्ठारह की उम्र में पहली लड़की�अपनी ऋचा। क्या भयानक दर्द था। साल भर पहले तक कॉलेज़ की नई-नवेली सहेलियों के साथ चाट-पकौड़ी खाया करती थी। कहाँ अब ये गर्भ और जन्म? कैसे सम्हाला था मैंने ये सब ईश्वर ही जानता हैं माँ की आँखें झपकीं, विचारों का प्रवाह दूसरी दिशा में हो गया।
‘इसका ब्याह भी क्या खूब हुआ? कितनी सुन्दर लग रही थी ये उस दिन।'
पिता ने ऊँ हूँ किया।
‘मैंने लहँगा पसंद किया था। वो साड़ी वाला तो पता नहीं क्या-क्या दिखा रहा था? हरे -नीले रंग। शादी में कोई दुल्हन हरे-नीले कपड़े पहनती है क्या? ऊपर चुन्नी में काली धारियाँ। काली धारी वाले कपड़े तो वैसे ही सुहागिनों को नहीं पहनने चाहिए और यहाँ तो शादी-ब्याह का मामला।'
‘तुमने भी उस दिन हद कर दी थी।' पिता शाबाशी की लिपि में मुस्कुराए।
‘सौ-डेढ़ सौ लहँगे-चोली देख डालीं। शहर की इतनी बड़ी दुकान के मालिक से लेकर पानी पिलाने वाले छोकरों तक, सब तुम्हारी ख़ातिर तवज्जो में जुटे थे। ये कपड़ा दिखाओ, वो सिल्क, ये ज़री, वो गोटा, ये बार्डर! न जाने क्या-क्या? शुक्र मना रहे होंगे हमारे जाने पर।'
‘शुक्र! और नहीं तो! इतने सब कपड़े खरीद डाले उसका क्या?'
‘सच में! खरीद डाले थे या देख डाले थे।'
‘तो क्या खरीदे नहीं थे? पर ऋचा को जो पसंद आया उसके शेड भी नहीं मिले उसके यहाँ। छोटे शहरों की यही कमी है अभी लखनऊ�दिल्ली हो तो देखो क्या एक से एक वैरायटी दिखाते हैं।'
‘सही बात है।'
माँ को शादी के दृश्य याद आने लगे। उन्हें अपनी पसंद वाला लाल लहँगा याद आया। कितनी प्यारी लग रही थी ऋचा उसमें। फिर उन्हें याद आए फेरों के दृश्य, जिनमें ऋचा पीली रेशमी साड़ी में अग्नि के सामने पति के साथ बैठी थी। फिर उन्हें याद आयी विदा। लाल साड़ी में लिपटी ऋचा ने रो-रो के सारा सिन्दूर माथे पर लिपटा लिया था। ‘मैं भी कैसे बिखर के रोई थी उस दिन।' माँ की आँखों में आँसू आ गए।
पिता ने माँ की आँखों को टटोला। उनमें लबालब भरी हुई बूँदें थीं। उनकी उँगलियाँ गीली हो गयीं।
‘तुम माँ-बेटी की ये रोने की खूब आदत है। अभी क्यों रो रही हो?'
‘कुछ नहीं, ऐसे ही।'
पिता को कुछ ध्यान आया, वो हँसे। याद है उस दिन ड्राइंग रूम में बैठी तुम दोनों कैसे रो रही थीं।
‘किस दिन?'
‘अरे! उस दिन ही, जब ऋचा ने पहली बार प्रतीक के बारे में तुमसे कहा था।'
‘हाँ! मेरी तो छाती धक्क से हो गई थी। लगा था प्रलय हो गई। कैसे-कैसे पाल-पोस के बड़ा किया और लड़की अपनी शादी खुद करने को तैयार! मैंने उससे कह दिया था, तुम्हारे पिता जान दे देंगे अगर उसके लड़के का नाम लिया तो। वो चुप हो गई थी। तुम्हारे अचानक आ जाने पर जाने क्या बहाना किया था हमनें?'
‘मैं सब समझ गया था उसी वक़्त पर थोड़ा - बहुत तो मैं भी घबरा गया था।'
‘बेटी की ऐसी बात से कौन नहीं घबरा जायेगा।'
‘नहीं ऐसा नहीं हैं। बच्चों को ठीक से पढ़ा-लिखा दो ये हमारा काम है, बाकी वो जानें।'
‘तुम्हारी ऐसी बातों से मुझे डर लगता है। अब ऋचा की लड़की तो उससे भी एक ज़माना आगे निकलेगी। वो तो पता नहीं क्या-क्या करेगी?'
दिन-2
माँ सबेरे सो के उठी तो पाया पिता पहले से ही उठ चुके थे। पिता को सैर की आदत थी। मुँह अंधेरे निकल गए थे। इन गलियों में बरसों बरस बीत गए हैं उनके जीवन के। सब परिचित लोग। लोगों की पीढि़याँ उनके सामने बड़ी हुई हैं। सामने की हलवाई की दुकान से गरमा-गरम जलेबी तुलवायीं, दही लिया और घर की तरफ चल दिए। जलेबी और तर माल के क्या शौकीन रहे हैं वो! पर आजकल सब कम हो गया है। कभी-कभार मुँह में चटकार आने पर ले आते हैं वरना सेहत के कारण सब मना है। बहुत पहले ऋचा के साथ आते थे इसी दुकान पर। पैयाँ-पैयाँ दौड़ती थी ऋचा सड़क पर, दलेबी-दलेबी करती हुई दुकान पे पहुँच के ऐसी मचलती थी कि सँभालना भारी पड़ जाता था। कल माँ के साथ ऋचा की खूब बातें हुई हैं। सो मन में उसका ध्यान कुछ ज़्यादा गीला है। वो आते-आते यही सोच रहे हैं कि अब कितने महीने हो गए हैं उसे देखे, और कितने महीने और हैं उसके आने में। पिता, माँ को आवाज़ देते हुए घर के अन्दर घुसे। माँ नहा-धो के तैयार बैठी थी। पिता के हाथों में जलेबी और दही देख के एकदम बोली-
‘ये आप क्या ले आए?'
‘कुछ नहीं ऐसे ही मन कर रहा था।'
‘आप भी जैसे मन की सब पढ़ लेते हैं। मैंने सुबह-सुबह एक सपना देखा है।'
‘कैसा सपना?'
‘बताती हूँ-ऋचा यहाँ आयी हुई है प्रतीक के साथ। भूखी है। हम लोग कहीं और हैं। किसी दूसरे शहर में रिश्तेदारों के साथ, पता नहीं कौन-कोन से लोग हैं? अम्मा बाबूजी, दीदी और न जाने कौन-कौन बच्चे? सब सुबह-सुबह ढेर सारा नाश्ता खा रहे हैं। अपनी-अपनी प्लेट लगाए घूम रहे हैं।
ऋचा आयी है और उसने ब्रश भी नहीं किया है तब तक। वहाँ लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। वहाँ कुछ गोल-गोल सफेद रंग की कोई बड़ी सुन्दर-सी चीज़ है जो बड़ी तेज़ी से ख़त्म होती जा रही है। उसने मुझसे कहा कि माँ ये आप मेरे लिए बचा के अपनी प्लेट में रख लो तब तक मैं ब्रश करके आती हूँ।'
माँ अपने सपने में पूरी तरह डूब गयीं। ख़ामोश सुनने लगे।
‘मैंने उस चीज़ को अपनी प्लेट में रख लिया, पर एक टुकड़ा तोड़ के खा लिया। ऋचा को मुझ पर गुस्सा आ गया। बोली ‘मैंने इसे आपके पास बचाने के लिए रखा था पर आप तो इसे खुद खाने लगीं। जाओ! मैं अपनी प्लेट अलग लगा लेती हूँ। ऋचा ने बिना कुल्ला किये खाना शुरू कर दिया है पर प्रतीक भूखे हैं। मैं रोने लगी हूँ। इतने में आप गरमा-गरमा पूडि़याँ ले के आ गये। वहाँ इतने लोग हैं कि टे्र में पूडि़याँ आते ही ख़त्म हो जाती हैं। आपने चार पूडि़याँ कहीं से झपट ली हैं और ऋचा को दे दीं और कहा कि प्रतीक को खिला दो। ऋचा पूडि़याँ प्रतीक को देने बाहर गई तो वो उसके हाथ से छूट गईं। वो फिर रोने लगी। तभी किसी ने बताया कि रोने की कोई बात नहीं है। यहाँ एक हलवाई है वो खूब अच्छी पूडि़याँ बनाता है। ऋचा उसके पास गई है और बोल रही है- ‘भइया हम अमरीका में रहते हैं और हमें अच्छा खाना खाने को नहीं मिल पाता है। बहुत दिन हो गए हैं हमें पूड़ी खाए।' तभी मैं उसे ढूँढ़ती हुई उसी हलवाई की दुकान में पहुँच गई हूँ। मेरे हाथ में थाली है उसमें जलेबियाँ हैं। ऋचा खुशी से बोली- ‘अरे वाह जलेबी' और झट से एक जलेबी उसने उठा ली है। मैंने बोला है- ‘ध्यान से बेटा! गरम है। वो थाली ले के चली गई है। बोल रही है कि प्रतीक भूखे हैं।'
माँ चुप हो गई। सारी कथा एक साँस में बोल शान्त हो गई। पिता के चेहरे का भाव उस सपने के प्रति शुरू में मज़ाक से होता हुआ गम्भीर मुस्कान में बदल गया। उन्होंने माँ को थपथपाया।
‘चलो प्लेट ले के आओ। ऋचा को वहाँ ज़रूर कुछ खाने का जी किया होगा। इसलिए हमें तुम्हें उसका ध्यान आया।'
माँ विचारशून्य अवस्था में रसोई की तरफ मुड़ गई।
दिन 3
आज शनिवार है। आज के दिन ऋचा का फ़ोन ज़रूर आता है। माँ-पिता के पास। रात के दस बज गए हैं। माँ फ़ोन के पास बैठी इंतज़ार कर रही हैं। सामने टी․वी․ चल रहा है। पिता जो दुपहरी भर सोते रहे, अब एकदम तरोताजा हैं।'
‘ऋचा का फ़ोन क्या नहीं आया अभी तक।'
‘जरा देर से सो के उठी होगी। उनकी छुट्टी का दिन है ना।'
अभी क्या बज रहा होगा वहाँ?
‘कुल साढ़े दस घंटे का अन्तर है। रात का दिन कर दो और दिन का रात।'
‘ऐसे कैसे वहाँ जा के वक़्त बदल जाता है?'
‘पृथ्वी घूमती है तो जहाँ सूर्योदय पहले होता है, वहाँ का समय आगे रहता है।'
अमरीका पश्चिम में है तो वहाँ सूरज देर से निकलता है।'
माँ ये बात अनगिनत बार पूछ चुकी हैं पर फिर भी अचानक पूछ लेती हैं। पिता भी हर बार इस तथ्य का खुलासा करते हैं। वो भी भूल जाते हैं कि माँ को ऐसा सब वो पहले भी समझा चुके हैं।
‘ये फ़ोन में आवाज़ कैसे आती है?' ये बात माँ ने आज पहली बार पूछी। पूछते वक़्त माँ की दृष्टि टेलीफ़ोन के तार तक गई। जो तार रिसीवर से होता हुआ सेट में घुस गया था और फिर उससे होता हुआ दीवार में एक गोल प्लास्टिक के ढक्कन के भीतर गुम हो गया था।
पिता सोच में पड़ गये। कैसे बताएँ! साइन्स का मामला है। ‘ये आवाज़ अंतरिक्ष से आती है।'
माँ का दिल धक्क से हो गया। उन्हें अंदेशा था कि ज़रूर कोई बहुत बड़ी चीज़ होगी-जैसे समुद्र के नीचे का तार। पर अंतरिक्ष तो उन्होंने नहीं सोचा था।
‘अरबों-खरबों आवाज़ें जो हम बोलते हैं। वो सब टेलीफ़ोन एक्चेंज से अंतरिक्ष में चली जाती हैं। वहाँ से उपग्रह उनको वापस अमरीका के एक्सचेन्ज में भेज देता है। वहाँ तार से वो घर-घर पहुँचती है।'
माँ को बहुत आश्चर्य हुआ। इतनी सारी आवाज़ें एक साथ ऊपर जाती हैं। वो आपस में मिलती-जुलती नहीं हैं।
‘इतनी बातें, इतनी संवेदनाएँ हमारे बीच से उठ रही हैं और अपनों तक पहुँच रही हैं। तो सारा आकाश हमारी बातों से भरा हुआ है। क्या?'
‘हूँ! सोचने पर अचम्भा होता है पर ये सच है।'
‘कैसे होता होगा? मैंने फ़ोन पे ऋचा का नाम लिया। मेरी आवाज! मेरी ऋचा शब्द से भरी आवाज़! उस क्षण एक तार से होती हुई एक्सचेंज की छतरी से हवा में चली गई। वो शब्द हवाओं में मुड़ा होगा। बारिशों में भीगा होगा। चिडि़यों में पंजों से टकराया होगा फिर अंतरिक्ष के अनंत अंधेरे में उपग्रह के पास पहुँचा होगा।'
पिता हँसने लगे। उन्होंने माँ का सिर अपनी गोद में रख दिया। माँ खिड़की से बाहर देखने लगी। वहाँ काला आकाश था। चाँद, तारे और बादल। वो उस उपग्रह को खोजने की कोशिश करने लगीं, जिससे होकर ऋचा की आवाज़ आने वाली है।
‘चलो अब खाना खा लेते हैं।'
‘मैं सोच रही थी कि एक बार उसका फ़ोन आ जाए तो फिर आराम से रोटियाँ सेंक दूँ। सेंकते वक़्त फ़ोन आता है तो बहुत हड़बड़ी हो जाती है।'
‘बात तो ठीक है, थोड़ी देर और देख लो। सब्जी क्या है?'
‘लौकी की तरकन वाली सब्जी है और ज़ीरा छुकी दाल है।'
‘ऋचा को लौकी बिल्कुल पसंद नहीं, तभी उसका फोन नहीं आया है।'
‘हाँ! ज़रा भी हाथ नहीं लगाती थी। लौकी के नाम से एकदम भन्न जाती थी।'
‘तुम्हें याद है जब ये 6-7 साल की थी तो नई-नई हिन्दी सीख रही थी। हम सब मेज़ पर बैठे थे और खाना लग रहा था। ये तन्न से बोली थी- ‘पापू आज से हमने लौकी का बहिष्कार को बलात्कार बोल दिया था। हम लोग न हँसने के, न कुछ बोलने के। अम्मा ने क्या आँखें दिखाई थीं इसको।' पिता की आँखों में बहुत पुराना एक चित्र घूम गया। ऋचा डर के उनकी गोद में आ के छिप गई थी।
माँ जैसे ही रसोई को जाने को उठी कि ट्रिंग-ट्रिंग करके फ़ोन की घंटी बजने लगी।
‘लो! जैसे ही उठने का नाम लिया और इसका फ़ोन आया। इससे तो पहले ही उठ जाती।'
पिता ने फ़ोन उठाया- ‘हैलो'।
दिन 7
‘उनकी आँखें अब तक खुली होंगी।' माँ ने ना जाने किसको याद करके ये कहा।
‘क्या हुआ है नींद नहीं आ रही क्या?'
‘हूँ।'
पानी पियोगी?
‘नहीं।'
‘थोड़ी देर टहल लो।'
‘नहीं बस ऐसे ही लेटे रहने को मन हो रहा है।'
‘तबियत तो ठीक है?'
‘पता नहीं।'
माँ ने मुँह के ऊपर चादर उठा दी और बिस्तर पर औंधी लेट गयीं।
‘वृन्दा भाभी की सोच रही हो क्या?'
‘नहीं, उनकी क्यों सोचूँगी! उन्हें तो गये हुए हफ़्ते से ऊपर हो गया है।'
‘हूँ! इसका मतलब उनकी ही सोच रही हो? माँ ने पिता की ओर करवट ली और पिता के कंधे पर सिर रख लिया।'
‘जिसका वक़्त आ गया, आ गया।'
‘पर आख़िरी वक़्त कैसे कोई भी नहीं था उनके पास।'
‘कोई क्यों नहीं था। सब तो थे।'
‘पर उनके बच्चे तो नहीं पहुँच पाए। एक महीना अस्पताल में रही। क्या इतना वक़्त काफी नहीं था दोनों लड़कों के लिए?'
‘दूसरा देश, दूसरा होता है। वो बम्बई-कलकत्ता जैसा दूर नहीं है कि टिकिट कटाओ और चल दो घर।'
बताते हैं, दोनों रोज़ फ़ोन करते थे घण्टों-घण्टों। उनका मन यहीं रखा हुआ था।'
‘देखा ना! कोई भूल थोड़े ही गये थे माँ को, पर परिस्थिति ने आने नहीं दिया होगा।'
‘सही बात है। माँ तो माँ है। बच्चों के दिल पे क्या बीत रही होगी ये किसी को क्या पता।'
माँ फिर सीधी हो के लेट गयी। अब पिता ने करवट ली। माँ को लगा शायद अब वो उनका कंधा माँग रहे हैं सिर रखने को। उन्होंने हाथ सीधा खींच दिया। पिता बहुत दिन बाद, शायद बहुत वर्षों बाद माँ के कंधे पर सिर टिकाने के बाद चुप हो गये। माँ ने इस बात को सोचा तो उनका ध्यान बंटा।
‘क्या बात है? आपकी तबियत ठीक है न।'
‘क्यों! मेरी तबियत को क्या हुआ।' पिता ने शीघ्रता से अपना सिर वहाँ से हटा लिया।
‘क्या बेचैनी हो रही है?'
‘नहीं तो।'
‘तो फिर आप ऐसे अलग से क्यों लग रहे है?'
‘अलग से?'
माँ ने पिता के माथे पर हाथ फेरा। उस पर पसीने की बूँदें छलकी हुई थीं और वो बर्फ की तरह ठण्डा हो रहा था।
‘चलो उठो! मुझे आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही।
‘अरे! मैं बिल्कुल ठीक हूँ। थोड़ा शरीर में दर्द है बस।'
‘कैसा दर्द है? ये पसीना क्यों आ रहा है?'
कुछ बात नहीं है, बस ज़रा-सा पानी दे दो, थोड़ी देर सोफे पे बैठ जाता हूँ।
‘चलो उठो! मैं कुन्दन भैया को फ़ोन करती हूँ।'
‘फ़ोन से क्या होगा! वैसे भी कुन्दन शहर से बाहर है।'
‘मैं डॉ․ आशी․․․' पिता की बात बीच में अधूरी छूट गयी। उनका चेहरा पसीने में पूरा भीग गया और हाथ छूटने लगे।
‘क्या हुआ है आपको?' माँ हड़बड़ाई। उन्हें अँधेरे में ठीक से कुछ नहीं सूझा। कपड़े समेटती हुई पलंग से उतरी। उनके हाथ लपक कर दीवार पर लगे, बिजली के स्विचों के ओर पड़े। एक बार में पाँच-छः स्विचों के कड़कने की ध्वनि हुई। पता नहीं कौन-कौन से उपकरण आवाज़ करने लगे। टेलीफ़ेान का चोग कान से सटा के वो डायरी में नम्बर ढूँढ़ने लगीं।
पिता सोफे पे बैठ गए। छाती में भीषण दर्द उठा और शरीर ने उन्हें कई दफ़े जोर से उछाला। माँ ने इससे भयानक चित्र अपने जीवन में नहीं देखा था। उन्हें लगा कि वो अभी पछाड़ खा के गिर जायेंगी। पर ऐसा हुआ नहीं। वो भाग के पिता के पास आयीं तो फ़ोन ज़मीन पर जा गिरा। वो तार खींचती हुईं सोफे पे लपकीं। पिता निढाल हो चुके थे। उनका हाथ छाती पर जा टिका। बदहवासी में उन्हें समझ नहीं आया कि वो बायीं ओर धड़कन सुने या दायीं तरफ। इतने में फ़ोन के चोगे से धीमी-सी आवाज़ आई। माँ ने अपनी सारी हिम्मत बटोरी। फ़ोन पे दूसरी एक बच्चे का स्वर था-
‘आप कौन?'
‘डॉ․ आशीष! डॉ․ आशी․․․ बोल रहे हैं।'
‘पापा तो घर में नहीं हैं। रात से लौटे नहीं हैं। आप कौन?'
माँ के लिए क्षण स्थिर हो गया।
‘आप कौन?'
‘मैं ऋचा की माँ बोल रही हूँ।'
फ़ोन हाथ में जड़ हो गया।
‘अच्छा! मैं मम्मी को बुलाता हुँ।'
‘बुला दो बेटा!'
दूसरी तरफ से एक औरत का स्वर उभरा।
दिन 10
अस्पताल में माँ, पिता के साथ बात कर रहीं थीं।
‘जूस पीने को बता दिया है अब।'
‘पता नहीं और कितने दिन भूखा रखेंगे।'
‘दो-तीन दिन की और बात है।'
‘ऋचा कब आ रही है?'
‘अगले रविवार को दोनों आ रहे हैं।'
‘तुम्हें उन्हें बताना नहीं चाहिए था नाहक परेशान किया।'
‘उसे नहीं बताती तो क्या उसे पता नहीं चलता।'
‘बता देते, पहले ठीक तो हो जाता।'
‘कितने दिन से नहीं सोई हो?'
‘सोने का क्या है?'
‘आँखें लाल हो रही हैं तुम्हारी।'
‘सब ठीक है। ईश्वर की कृपा है।'
‘पूरे दो साल बाद।'
‘अगर वो ऐसे ही बीमारी पे आने लगे तो मैं हर छः महीने में अस्पताल जाने लगूँ।'
माँ को मज़ाक पसंद नहीं आया।
‘अगली बार अस्पताल मेरी अर्थी उठवा के जाना।'
‘अरे शुभ - शुभ बोला।'
‘आओ! बगल में बैठा जाओ।'
‘मैं नहीं बैठती।'
‘नाराज़ जो गयी।'
‘नहीं बहुत खुश हूँ।'
‘आओ तुम्हारा भी लाड़ कर लूँ।'
‘लड़ैती तो मैं अपने बाबूजी की थी।'
तुम मेरी भी हो।'
‘और तुम्हारी नहीं! तुम्हारी अम्मा की․․․।'
‘देखो अम्मा को बीच में मत लाओ।'
माँ ने जैसे अपनी आँखों की ज्योति समेटी। वो एकटक पिता को देखती रहीं कुछ देर तक उसके बाद।
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