लड़की जो राजकुमारी नहीं थी कैलास चन्द्र इस कि़स्से की शुरूआत एक लड़की से होती है जो राजकुमारी नहीं थी। पुराने कि़स्सों की शुरूआत एक था रा...
लड़की जो राजकुमारी नहीं थी
कैलास चन्द्र
इस कि़स्से की शुरूआत एक लड़की से होती है जो राजकुमारी नहीं थी। पुराने कि़स्सों की शुरूआत एक था राजा से होती थी। जि़न्दगी चाहे जिस ढर्रे पर चले परन्तु इन कि़स्सों का स्वरूप नहीं बदला। वही का वही। जि़न्दगी की कशमकश और पागल भागदौड़ में हालाँकि आज कि़स्सागो बहुत कम रह गये हैं और कि़स्सा सुनने वाले उनसे भी कम, फुरसत किसके पास है आज। यह सही है कि आज यथार्थ हद दरजे तक क्रूर और आतताई हो गया है। पर कि़स्सों का रस नहीं सूखा है, वही पुराना अंदाज आज भी कायम है और कि़स्सों की डुबो देने वाली तासीर वैसी की वैसी मौजूद है। तो जैसे किसी पुराने कि़स्से में एक राजकुमारी है- परम रूपवती और उसके सोने जैसे केश हैं और चन्द्रमा की तरह दमकता मुखड़ा है उसका․․․ और हमारे मुहल्ले में जो एक लड़की रहती है। पढ़ने-लिखने में जहीन है, मेकअप हीन, इसके बावजूद सुंदर-सलोनी। देखिये मैं कि़स्से के रस में यथार्थ या सच की कडुवाहट घोलने लग गया हूँ। पर करूँ क्या मुझे लिखनी है यथार्थ की कहानी। अब चाहे जैसा घालमेल हो। तो सबसे पहले कि़स्से की बात․․․
राजकुमारी सयानी हुई तो उसके रूप की सुगंध उड़ने लगी। यौवन की दहलीज पर धूप सी चढ़ती राजकुमारी के ब्याह कि चिन्ता राजा को सताने लगी। पर उसकी यह चिन्ता किसी मध्यमवर्गीय पिता की चिन्ता से एकदम अलग और विलक्षण है। इसके लिये राजा ने एक स्वयंवर रचाया। दूर-दूर तक स्वयंवर के न्यौते भेजे गये। राजा ने स्वयंवर में जो परीक्षा रखी वह बहुत कठोर थी और असम्भव की सीमा छूती थी। सात नर्तकियाँ सिर पर मटकियाँ लिये एक गोल दायरे में घूमती हैं, कंदुक के एक ही प्रहार से सातों मटकियों को फोड़ना है। परीक्षा में सफल होने की यही योग्यता है। पखवारे भर से चलते स्वयंवर में अभी तक परिणाम नहीं आया है। राजकुमारी वैसी ही बैठी है अनब्याही, अक्षत अपनी क्ंवारी कल्पनाओं और अनुभूतियों के साथ।
धरती पर एक दूसरा देश भी है जहाँ का राजकुमार परियों के सपने देखा करता है। वह परियों की राजकुमारी से ब्याह करना चाहता है। एक रात सपने में उसकी भेंट परियों की राजकुमारी से हो गई। उसे देखकर राजकुमार उससे ब्याह करने के लिये मचल गया। तब परियों की राजकुमारी ने उसे समझाया कि विधान के अनुसार कोई परी मनुष्य से ब्याह नहीं कर सकती। इस पर राजकुमार दुखी हो गया। परियों की राजकुमारी ने तब उस देश की राजकुमारी का पता बताया जिसका जि़क्र ऊपर किया गया है। उसने बताया कि उस देश की राजकुमारी उससे भी अधिक रूपवती है और इस समय उसका स्वयंवर वहाँ चल रहा है। परियों की राजकुमारी ने इतना बताने के बाद अपने इन्द्रधनुषी केशों से सात बाल तोड़े और उसी रंग की सात डिबियों में एक-एक बाल बंद कर दिया। उसे हिदायत दी कि एक डिबिया खोलकर एक रंग का बाल जला देना तो उसी रंग की पोशाक, उसी रंग का सजा-सजाया घोड़ा, म्यान-तलवार, कंदुक पल भर में हाजिर हो जायेंगे। सुबह जब राजकुमार जागा तो उसने अपने सिरहाने सात डिबियों को रखा पाया। उसे परियों की राजकुमारी की बातों पर विश्वास जम गया।
अगले ही दिन राजकुमार अपने सबसे तेज़ घोड़े पर सवार होकर सफ़र पर निकल पड़ा। पवन वेग से अपना घोड़ा दौड़ाते राजकुमार तीसरे दिन अभीष्ट राज्य में पहुँच गया। वहाँ सचमुच राजकुमारी का स्वयंवर चल रहा था। एक दिन राजकुमार ने विश्राम किया। अगले दिन उसने स्वयंवर में भाग लेने का निश्चय कर लिया।
दूसरे दिन राजकुमार ने हरे रंग का बाल डिबिया से निकाल कर जलाया। पल भर में हरे रंग का पूरा साजो-सामान हाजि़र हो गया। उसने देखा कि हरे रंग के उड़ने वाले घोड़े की पीठ पर छोटे-छोटे दो पंख उगे हुये हैं।
घोड़े पर बैठकर राजकुमार स्वयंवर-स्थल पर पहुँच गया। अपनी बारी आने पर उसने कंदुक हाथ में लेकर घोड़े को एड़ लगाई, घोड़ा हवा में लहराया और राजकुमार ने ताक कर कंदुक से प्रहार कर दिया। एक ही प्रहार में सातों मटकियाँ फूट गईं। यह कौतुक देखकर पूरे सभागार में तालियाँ गूँजने लगीं। राजकुमार को न जाने क्या सूझा वह तत्क्षण सभागार से अदृश्य हो गया।
राजा परेशान। पूरे राज्य में राजकुमार की खोज कराई गई, पर व्यर्थ। कोई राजकुमार को पहचानता तो था नहीं। एक दिन प्रतीक्षा करके निराश राजा ने अगले दिन फिर स्वयंवर का आयोजन प्रारम्भ कराया। राजकुमार ने फिर स्वयंवर में भाग लिया और इस तरह छः दिनों तक वह राजा को छकाता रहा। अब उसके पास आखिरी लाल रंग का बाल बचा था।
लाल पोशाक में लाल घोड़े पर बैठकर वह फिर स्वयंवर में पहुँच गया। उसने तय कर लिया था कि आज आखिरी दिन है और आज अदृश्य नहीं होना है। उधर राजा ने भी उस दिन अपने तीरंदाज आड़ में बैठा दिए थे कि जैसे ही वह राजकुमार कंदुक फेंककर मटकियों पर प्रहार करे उसके मर्मस्थल को छोड़कर उसे तीर से ऐसे बेध दें कि वह घायल भर हो।
उस दिन राजकुमार इस तरह पकड़ा गया। सधे हुये तीरंदाजों के तीर से आहत होकर राजकुमार वहीं रंगशाला में अपने घोड़े से गिर गया। राजा के सेवकों ने आदरपूर्वक राजकुमार को उठाया और आसन पर बैठा दिया। अपनी सखियों सहित राजकुमारी ने आकर राजकुमार के गले में वरमाला डाल दी। कुछ ही दिनों में राजकुमार का घाव ठीक हो गया। वह अपने देश लौटा। बारात लेकर वह आया और राजकुमारी को ब्याह कर ले गया।
इसके बाद सुखी जीवन का सिलसिला चल निकलता है जो यद्यपि कि़स्से में नहीं कहा जाता पर कल्पना यही होती है। राजकुमार शक्तिमान है, उसके पास सत्ता और अधिकार है। सब वस्तुयें उसके अधीन हैं। परीक्षा में जीत हासिल करना उसका धर्म है। सुखपूर्वक जीने का उसका अधिकार बनता है। वह सत्ता साधे जीयेगा।
पर हमारे बीच के यथार्थ के जो कि़स्से हैं वे इतने सरल नहीं होते। अपनी क्लिष्टता और उलझाव में वे बहुआयामी हो जाते हैं। उनकी श्रृंखला सी बन जाती है। मंजिलें तो दिखतीं हैं, पर उन तक पहुँचने की राहें उलझ जाती हैं। आशय स्पष्ट होते हैं लेकिन प्रयास भोथरे पड़ जाते हैं। नाकाम रह जाती हैं सब कोशिशें․․․
मुहल्ले की जिस लड़की का जि़क्र ऊपर किया गया है कि वह पढ़ने-लिखने में जहीन है, मेकअप हीन पर सुंदर दिखती है․․․ अभावों की राजकुमारी है। मुहल्ला छोटे-छोटे लोगों की छोटी आकांक्षाओं से भरा हुआ है- कामगार, छोटे दुकानदार, मुदर्रिस, रोज कमाकर खाने वाले मजदूर पेशा थोड़ा सोना चुराने वाले सुनार, धोबी, चाट का ठेला लगाने वाले बनिये, दूध बेचने वाले अहीर और तंबोली․․․ ऐसी प्रजा के बीच उस लड़की को राजकुमारी कहने में मुझे कोई अतिरंजना नहीं दिखती।
लड़की उर्फ़ राजकुमारी का नाम है- पार्वती और उसे पारो के नाम से भी बुला सकते हैं।
पारो के पिता कचहरी में अर्जीनवीसी करते थे। उनके थैले में एक रबर की मुहर, घिसा और लगभग सूखा हुआ स्टाम्प पैड, कुछ कोरे काग़ज़, चंद घिसे हुए कार्बन पेपर, काग़ज़ की पुडि़या में लपेटे ऑलपिन, लाल और नीले रंग के दो पेन, तम्बाकू की एक गोल लम्बी डिबिया, एक स्याही के दाग लगा फुटा, एक पेन्सिल, एक जर्जर हो गया रजिस्टर और लकड़ी की एक पुरानी तख्ती जिसपर रखकर वे अर्जियाँ लिखा करते थे। वे दस बजे से कुछ पहिले रास्ते में खरीदी कुछ सस्ती सब्जी अथवा किराना के फुटकर सामान के साथ घर लौट आते थे।
उनके पास दो जोड़ी पाजामा-कमीज़ थी। एक जोड़ी पहिनते और दूसरी जोड़ी धो-सुखाकर सलवटें हटाने की गरज से बिस्तर पर चादर के नीचे बिछा लेते थे और इस तरह उनके वस्त्रों पर लोहा फिर जाता था।
पारो के दो छोटे भाई भी हैं जो सबसे लाड़ले हैं। पिता पचास पार कर गये थे। इस कारण दोनों भाई बुढ़ापे की लाठी होने की पहिचान के साथ प्यार की चाशनी में डूबे रहते थे। पारो लड़की होने के कारण पराया धन थी, इसलिये उसको उस ढंग से पाला जा रहा है। पारो पढ़ने-लिखने में ठीक है और किसी परीक्षा में सेकेण्ड डिवीजन से कम नहीं आई है। उसने बीते साल बारहवीं की परीक्षा अव्वल नम्बरों में पास कर ली थी। इसके आगे की पढ़ाई का सुभीता कस्बे में नहीं है। अर्जीनवीस बाप की औकात उसे शहर में पढ़ाने की नहीं थी। वैसे भी उसकी पढ़ाई में वे व्यर्थ धन बहाने के पक्ष में नहीं थे। उनको उसकी कमाई तो खानी नहीं थी। लड़की की कमाई खाना वैसे भी आम बाप पाप समझता है। इन्हीं अभावों, क्षुद्र औकातों और कृपणताओं के बीच वह राजकुमारी बड़ी हो रही थी। ख़तरनाक बात यह थी कि वह चमकीले सपने देखने लगी थी। सपनों पर किसी की पाबंदी तो होती नहीं है। राजकुमारी चाहे असली हो या नकली वह सपने तो देख ही लेती है। मुहल्ले की वह राजकुमारी सपना देखती है कि दूर देश से न सही पास के ही किसी कस्बे-शहर से कोई राजकुमार आयेगा और धूम-धाम से उसे ब्याह कर ले जायेगा।
एक दिन अचानक पारो ने पाया कि उसे गली के छोर पर रहने वाले एक लड़के से प्रेम हो गया है। वह लड़का एकदम दुबला-पतला, मरियल विटामिन विहीन सा है। साँवला रंगत और उसके छोटे से चेहरे पर अपेक्षाकृत बड़ी नाक सजी थी। उसका नाम उपेन्द्र है। उसकी तुलना में पारो फकत लाजवाब दिखती है। वह लड़का अपनी शारीरिक अनगढ़ता और खुरदरेपन के बावजूद हर कक्षा में अव्वल आता है। हाईस्कूल में इलाहाबाद बोर्ड में उसको सातवीं पोजीशन मिली थी। इस वजह से उसे वजीफ़ा मिलता था। लड़के का बाप एक प्रायवेट स्कूल में मुदर्रिस है और उसकी हैसियत लड़के को शहर में पढ़ाने की नहीं बन रही थी। पर वजीफ़े ने उसकी मुश्किलें आसान कर दी थीं। पारो का उस लड़के से प्रेम का कारण शायद उसकी यही जहनियत थी।
वह लड़का उपेन्द्र बहुत झेंपू किस्म का है और आत्मलीन सा रहता है। पारो के तमाम उकसावों और पहलों के बावजूद उसकी झिझक बरकरार है। वह उस गली से ऐसे गुजर कर के जाता जैसे धीमी बहती हवा गुजर जाती है। पारो अपने घर के चबूतरे पर खड़े हो उसे आते देखती तो उपेन्द्र उसे देखकर संकुचित हो जाता। वह गली में बिना दायें-बायें देखे निकलने की फिराक में रहता था। पारो उसे टोक देती। वह घबड़ा जाता।
“उपेन्द्र! रोज कितनी देर तक पढ़ते हो जो हर कक्षा में प्रथम आ जाते हो?”
उपेन्द्र हकलाने लगता और पसीने से नहा जाता। किसी कदर कह पाता - “पाँच-छः घण्टे बस․․․”
“और तुम्हें सब याद हो जाता है, जितना पढ़ते हो?” पारो फिर पूछती। उसे तो इस झेंपू लड़के से बात करनी होती थी।
लड़का पारो के दरवाज़े से आगे खिसकने की कोशिश में रहता और इतना भर कह पाता- हाँ!
लड़की इतने में ही उसके प्रति प्रशंसा के भाव से भर जाती थी। यही उसका अनुराग है वरना ऐसा मरगिल्ला और झेंपू लड़का किसी लड़की के सपनों का राजकुमार नहीं बन सकता है। वैसे भी दोनों की जात-बिरादरी अलग-अलग है। उनका सामाजिक स्तर भी एक समान नहीं है। मुदर्रिस लड़के के बाप का सामाजिक स्तर लड़की के अर्जीनवीस बाप से बेहतर है। सामाजिक, रीति-रिवाज के मुताबिक दोनों का विवाह होना कठिन है। फिर कस्बे की जिंदगी में अभी इतने खुलेपन और साहस की बारूद नहीं घुली होती है कि लड़की उस झेंपू लड़के से शादी करने के लिये मना लेती और वे दोनों भागकर शादी रचा लेते और कहने को सुखी हो जाते।
लड़की के बाल इन्द्रधनुषी नहीं थे, अलबत्ता उसके जीवन में सात अभाव अवश्य थे। अभावों की इन सात-मटकियों को फोड़ने का साहस और उत्कंठा उपेन्द्र में फिलहाल नहीं है।
एक दिन अचानक पारो के पिता डाल में हिलगे पीले पात से झर गये। कचहरी से लौटकर उन्होंने सीने में दर्द की शिकायत की। खाट पर लेटे और लेटते ही उनकी हृदय गति रुक गई। वे किसी से कुछ कह तक नहीं पाये और अनंत यात्रा पर चले गये। अब लड़की अकेली रह गई थी। सिर पर कोई साया नहीं रह गया था। दो छोटे भाईयों का भार अचानक उसके अनुभवहीन कमजोर कंधों पर आकर टिक गया था। पढ़ाई तो उसकी पहले ही बंद हो गई थी। अब उसे परिवार भी चलाना था।
थोड़ी कोशिश करने पर एक कन्या पाठशाला में उसे दायी की नौकरी मिल गई। उसका काम था सबेरे मुहल्ले-मुहल्ले जाकर बालिकाओं को उनके घरों से निकाल कर पाठशाला पहुँचाना और शाम को छुट्टी के बाद उनको उनके घर भेज देना, पाठशाला की घण्टी नियमित समय पर बजाना, प्रार्थना के समय बाहर मेज पर हारमोनियम रख देना, कक्षाओं में बालिकाओं को पानी पिलाना, स्टाफ के लिये चाय-पान लाना, प्रधानाध्यापिका के घर पर काम करना और टीचर्स के घर काम पड़ने पर उसमें सहयोग देना आदि। पस्त करने भर काम। हाँ पेट की समस्या अवश्य हल हो गई थी।
लड़की इसके बावजूद हौसला रखे थी। अच्छे दिनों का सपना अपनी आँखों में फिर भी पाली थी। वह प्रायवेट बी․ए․ करने की इच्छा किये थी। परीक्षा का फार्म भी उसने भर दिया था। काम के बीच थोड़ी पढ़ाई भी वह किसी तरह कर लेती थी। साँझ के समय दो तीन ट्यूशनों का जुगाड़ उसने बैठा लिया था। बी․ए․ के बाद बी․टी․ करने का उसका इरादा था और फिर इसी पाठशाला की टीचर बन जाने का उसका सपना था। इसके बाद उसकी जि़ंदगी में कुछ सुकून आ जाता। वह भाईयों को पढ़ाना चाहती थी-भरपूर। उनको कुछ बना देने का इरादा था उसका।
राजकुमार आने का उसका सपना टूटा नहीं था। पिता तो थे नहीं जो उसके लिये किसी राजकुमार की खोज करते। वह खुद स्वयंवर रचा नहीं सकती थी। इसके अलावा वह इतनी तंगहाल थी कि कौन राजकुमार उसे ब्याहने आ जाता। भूले-भटके कोई आ जाता तो उसके दो छोटे भाईयों का बोझ उठाने से इन्कार कर देता। उपेन्द्र के प्रति पारो का अनुराग आज भी कायम है पर उनकी बिरादरी की दिशायें अलग-अलग खुलती हैं, वह तंबोली है और उपेन्द्र सुनार। स्वयंवर की परीक्षा है जात तोड़ना। यह परीक्षा उपेन्द्र के लिये बहुत मुश्किल पड़ रही है, भले ही वह हर कक्षा में अव्वल आता है और वह जो कुछ पढ़ता है उसे याद रह जाता है। उसमें हौसले की कमी है। वह जात, समाज, ऊँच-नीच, वर्ण, शिक्षा, हैसियत और अहं की सात-सात मटकियों को एक साथ नहीं फोड़ सकता।
उपेन्द्र कस्बा छोड़कर शहर पढ़ने चला गया है। गर्मी की छुट्टी में घर लौटता है और न जाने क्यों उसे अपना मुहल्ला बेगाना लगने लगता है। उसे पारो अभी भी दिख जाती है। पहले की अल्हड़ और खुशमिजाज़ पारो नहीं जो पूछती थी- उपेन्द्र रोज कितने घंटे पढ़ते हो․․․ अब जो पारो दिखती है वह जिंदगी की कशमकश में पिसती पारो है- तंगदस्ती से भरी एक संजीदा पारो। उपेन्द्र को देखकर अब भी उसकी आँखों में अनुराग झिलमिला आता है। उस अनुराग में निराशा और हताशा की एक लकीर खिंची भी दिख जाती है।
वैसे पूछने को पारो अब भी पूछ बैठती है- कैसे हो उपेन्द्र?
ठीक हूँ- कहते वह नजरें झुकाये है, जैसे गली के एक-एक कंकड़ को पहचानने की कोशिश कर रहा हो।
․․․ फिर बरसों गुजर गये․․․
पारो के लिये कोई राजकुमार नहीं आया। परीक्षा बहुत कठोर थी। किसी ने शायद कोशिश भी नहीं की। बिना किसी सरपरस्त के, पाठशाला की दायी जैसी तुच्छ नौकरी में लगी, भाईयों की परवरिश के बोझ तले दबी, कस्बाई मानसिकता में फँसी अकेली लड़की का प्रश्नवाची चरित्र, हीन आर्थिक स्तर, दहेज जुटाने में असमर्थ, अधूरी शिक्षा-की ये मटकियाँ अखण्डित ही रहीं। गृहकार्य में निपुणता का अर्थहीन वैभव, सौंदर्य का मेकअपहीन स्तर, मंथर गति से बढ़ता हुआ आयु का छकड़ा, भविष्य अनजाना और अनचाहा- किसी राजकुमार की दृष्टि नहीं पड़ती थी इस बियावान में।
एक दिन कस्बे में कहीं से एक यूनिट आई। उनके साथ एक लड़की थी। लड़की कमसिन और हसीन थी। वह साबुन का विज्ञापन फि़ल्माने आई टीम थी। विज्ञापन में साबुन को आम आदमी का बताया गया था। साबुन को नाम दिया गया था- ठण्डक। इसलिये आम लोगों के बीच उस लड़की को लेकर विज्ञापन फि़ल्माया जाना था। इसमें एक ही डायलॉग था जो इस प्रकार था- ‘अरे गनपत, तू जब तक ठण्डक नहीं देगा मैं तेरे से ब्याह नहीं रचाऊँगी। हाय! कैसी ताज़गी मिल जाती है, बदन फूल सा खिल उठता है। पूरे-पूरे दिन हवा में उड़ने का मन करता है। हाय! जालिम क्यों तरसाता है? ठण्डक क्यों नहीं देता?'
पर डायलॉग उस लड़की से ठीक से बोलते नहीं बन रहा था। वह डायलॉग भूल जाती अथवा इतने सपाट ढंग से बोलती कि वाक्य कोई प्रभाव नहीं छोड़ता। विज्ञापन फि़ल्म का डायरेक्टर उस अर्द्धवसना लड़की के टेक और री-टेक लेते झुँझला गया था। वहाँ काफ़ी कस्बाई भीड़ इकट्ठी हो गई थी। उस भीड़ में पारो भी आकर खड़ी हो गई थी। उस दिन स्कूल किसी नेता के मर जाने के पिण्ड छूटने के कारण जल्दी छूट गया था और पारो स्कूल के कामों से निवृत्त होकर घर लौट रही थी।
बार-बार के री-टेक से पारों के दिमाग में वह डायलॉग चस्पा हो गया था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह डायलॉग वह लड़की क्यों याद नहीं रख पा रही है और क्यों नहीं ठीक से बोल पा रही है। डायरेक्टर की परेशानी समझ पारो ने अपने हाथ उठा दिये और अपनी जगह से खड़े-खड़े ही उसने डायलॉग बोलना शुरू कर दिया। प्रोड्यूसर ने उठकर कस्बे की उस खाँटी लड़की को देखा। मेकअप हीन चेहरे पर कर्म की भाषा लिखी थी। अपने पैरों पर खड़े होने की जहमत में लड़की के चेहरे पर ऐसा कुछ था जो उसे भा गया। उसने इशारा किया और पारो भीड़ के घेरे के भीतर आ गई। डायरेक्टर ने पारो को डायलॉग फिर से बोलने के लिए कहा और पारो ने एक ही बार में डॉयलाग फिर बोल दिया और इतने सटीक ढंग से जिसके लिये प्रोड्यूसर और डायरेक्टर तरस रहे थे।
भीड़ ने तालियाँ बजाई कि पारो ने कस्बे की लाज रख ली। भीड़ हिप! हिप! हुर्रे करने लगी। प्रोड्यूसर और डायरेक्टर ने कहा-वेलडन! आपस में उन्होंने सलाह मशविरा किया कि साथ आई लड़की कैमरे के फ़ोकस में रहेगी और उसके पीछे से डायलॉग पारो बोलेगी। पारो ने साफ़ मना कर दिया। उसने कहा कि वह अपना डायलॉग तब बोलेगी जब वह फ़ोकस में रहेगी।
उन्होंने कुछ क्षण आपस में बात करते फिर बिताये। प्रोड्यूसर ने गहरी नज़रों से पारो के शरीर के भूगोल को नापा-जोखा और अंत में हाँ कह दी। भीड़ खुशी में पागल हो उठी। सब की आँखों में पारो के लिये प्रशंसा का भाव तैर रहा था। कस्बे की एक लड़की कैमरे के फ़ोकस में खड़ी हो गई थी। अब फ़ोकस में पारो थी और कुछ ही मिनटों में उस लड़की की जगह अल्प वस्त्रों में पारो खड़ी थी और फिर चंद मिनटों का वह सीन कैमरे में एक ही बार में कैद हो चुका था। एहतियात के लिये सीन का री-टेक लिया गया। पारो को पाँच हज़ार का चेक बतौर पारिश्रमिक मिला।
जब वह विज्ञापन फि़ल्म कुछ समय बाद टी․वी․ पर दिखाई गई तो हलचल मच गई। विज्ञापन जगत में उछाल आ गया। उस विज्ञापन ने एक गरम लहर फैला दी थी। साबुन के उस विज्ञापन ने पारो को ज़बर्दस्त पब्लिसिटी दी। देश के हर कस्बे और शहर में पारो की बड़ी बड़ी होर्डिंग लग गई थीं। इसके बाद तो क्रीम, तेल, लिपस्टिक, लिंगरी और ब्रेजियर्स, फेशियल के इतने विज्ञापन उसने किये कि उसके पास इन सबके लिये वक्त कम पड़ने लगा। उसमें सेक्स अपील इतनी ज़बर्दस्त साबित हुई कि विज्ञापन जगत में उतरी अधिकांश लड़कियाँ गुमनामी के अंधेरे में डूब गईं। उसके अर्द्धनग्न शरीर ने बाज़ार में भारी सौदा किया।
पारो के लिये पैसा अब कोई महत्व नहीं रखता था। उसकी आर्थिक परेशानियाँ कोसों दूर हो गई थीं। उसके दोनों छोटे भाई दून के स्कूल में पढ़ रहे थे। जब कोई उससे उसके सपने के बारे में पूछता तो वह मायूस होने के बजाय हँस पड़ती थी- सपने! जब कोई अभाव में होता है तब सपने देखता है। अब तो मेरे पास वह सब कुछ है जो किसी को चाहिये होता है।
और उपेन्द्र․․․ जिसके प्रति तुम्हारा अनुराग बहुत था उन दिनों-किसी ने पूछ लिया था।
वह फिर हँसी थी, एक आश्वस्त करती हँसी-उपेन्द्र! हाँ, मैंने उसे हासिल कर लिया है। वह मेरा सेक्रेटरी है इन दिनों। मेरे फायनेन्शियल और डेट्स के मामले वही देख रहा है।
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बाणसागर रोड,
फूलमती मंदिर के पास,
रीवा-1
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waah bahut khoob behtareen rachna
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