सुशील यादव का व्यंग्य - नन ऑफ़ द एबव्ह - नोटा (NOTA)

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  नन आफ द एबव्ह गनपत को विगत पच्चीस सालों से चुनाव का बेसब्री से इंतिजार करते देख रहा हूँ। शुरू –शुरू में वो दीवाल की पेंटिग करता था। कें...

 

नन आफ द एबव्ह

गनपत को विगत पच्चीस सालों से चुनाव का बेसब्री से इंतिजार करते देख रहा हूँ।

शुरू –शुरू में वो दीवाल की पेंटिग करता था। केंडिडेट, पर्चा बाद में दाखिल करते थे, मंदिर-देवालय के चक्कर लगाने की बाद में सोचते थे , पहले वे गनपत को बुक करने लाइन लगा लेते थे।

उसकी वाल पेन्टिंग के बिना मुहल्ले-शहर में चुनाव का माहौल ही नहीं बनता था। उसे मुहल्ले के हिसाब से कहाँ क्या लिखना है बखूबी ज्ञान था। ब्राम्हण-बनिया मुहल्ले में साफ-सफाई शहर चमकाने की बात ,सिविल लाइंस में जुझारू उम्मीदवार होने की वकालत ,स्लम में बस्ती वालो की ताकत ,उनके हक़ में तत्पर रहने की घोषणा बिना केंडीडेट के पूछे कर देता था।

गनपत की लिखी एक-आध वाल, जिनके मालिक की हैसियत, दस-बीस सालों से नहीं बदली ,इस शहर में आज भी मौजूद है। आपके शहर का सशक्त उम्मीदवार ......,छाप पर मुहर लगा कर विजयी बनावे। .....छाप पर अपना अमूल्य मत देकर,’दिनकर बाबू’ को जितायें। आपका कामरेड ,’हसिया-हथौड़ा’ लाल रंग से सचित्र ,लिख कर बरबस सबकी नजर खींच लेना ,गनपत की हुनर में शामिल था। उसका हंसिया –हथौड़े के साथ बोलता था,पंजा बना दे तो यूँ लगता था कोई आशीष दे रहा है ,कमल की पंखुड़ी तालाब से अभी-अभी खीच के लाई हुई सी लगती थी।

इलेक्शन-कमीशन वालों के नये नियम कानून और सख्ती ने वाल-पेंटिग के हुनरमंदों का काम न के बराबर कर दिया ।

गनपत की कमाई का जरिया जाता रहा।

इस शहर के एक-आध जर्जर दीवार पर मसलन , लक्खी शर्मा की दीवाल में तीन इलेक्शन हारे, पुराने केंडीडेट, जो चौथी मर्तबा किस्मत की घोड़ी की लगाम खींचने जा रहे हैं, बाकायदा अपने नाम का डंका पीटते नजर आ जाते हैं। वैसे उनका पिछला इलेक्शन गये इलेक्शन की पुरानी वाल पेंटिग के सहारे ही निकल गया। वे वाल पेंटिग पर खर्च का हिसाब कमीशन को देने की जहमत ही नहीं उठाते। पूछने पर, पिछले इलेक्शन का लिखा बता देते हैं। कट –आउट ,बेनर, बिल्ले , सब पुराना स्टाक निकाल देते हैं।

एक मुन्ना माइक वाला ,मशहूर शख्स हुआ करता था ,उसकी खासियत थी कि चुनाव लड़ने वाले केंडीडेट का गली –गली में यूँ कसीदा पढ़ना कि लोग वोट डालते वक्त बरबस उसकी बातों की गूंज में अपना वोट उसी केंडीडेट को ठोंक आये । बहनों और भाइयों ,आपका अपना प्यारा उम्मीदवार ,रामखिलावन .....|निशान है “बिना गाय का बछड़ा” ......| आपने बछड़े बहुत देखे,गाय के साथ देखे,एक बार बिना गाय के आजमाइश करें.....आपको निराशा नहीं होगी......।

उसकी तुकबंदी ,अमीन सयानवी स्टाइल, रिक्शे के पीछे ,बच्चों के झुण्ड के झुण्ड, हंसता –मुस्कुराता मुन्ना माईकवाला....| जहां उसे जो तुक बंदी सूझ जाए , वही पेल देता था।

याद रखिये ,यही वो निशान है,खेत है खलिहान है ,बछड़े की पहचान है ,जान है तो जहान है।

वो वोट देने का तर्क भी अजीब देता था ,बहनों और भाइयों,बछड़ा पांच सालों में बड़ा होके आपके खेत में हल जोतेगा ....|आपकी फसल लहलहाएगी। बछड़े के अनेक फायदे हैं ,वो मिडिल स्कूल स्तर के मिडिल-क्लास टाइप निबन्ध की भाषा लाग –लपेट के सूना देता। उम्मीदवार उसे स्लम बस्ती की तरफ जाने की ख़ास हिदायतें देकर भेजता।

मुन्ना की बात में बहुत से सीधे –साधे लोग जो उस जमाने में अक्सर ज्यादा हुआ करते थे ,आ जाते थे|

पिद्दू रामखिलावन जो बछडे से कम ताकत वाला दिखा करता था,मुन्ना की शायरी के भरोसे इलेक्शन निकाल ले गया। वो यकीनन पांच सालों में अपनी आधा-एकड को यूँ जोत लिया कि ‘घोषित’ पचास एकड़ के ऊपर उसकी जमीन पहुंच गई । (भाई साब ,सिर्फ घोषित को ध्यान में रखें ,ज्यादा सोचेंगे तो दिमाग खराब होने का खतरा है। )

कुछ गवैये,छक्के किस्म के आशु कवि को एक जीप दे दी जाती थी| वे चालू फिल्मी गानों की परोडी में अपने केंडीडेट को महान बनाने में लगे रहते थे। पैरोडी तो पल्ले नहीं पड़ती थी पर हाँ ओरिजनल गाने की धुन में वो सब क्या कहना चाहते हैं करीब-करीब समझ में आ जाता था।

पिछले हर इलेक्शन में ,हमारे शहर का कोई खम्बा बिना –पोस्टर बैनर के नहीं होता था। गली के कुत्ते लोग मजाक में कहते थे,क्या पंजा में ...?नहीं यार.... आज मूड हुआ कमल वाले खम्बे को जल चढाऊं।

कुछ कट-आउट इतने वीभत्स (बने) होते थे कि लगता था बेचारा अगर कट आउट नहीं लगवाता तो ज्यादा वोट खींच लेता। भारी-भरकम ,काला मुस्टण्ड ,मूंछ –दाढ़ी के बीच होंठ की एक हल्की सी लकीर ,हाथ में नंगी तलवार उठाये क्षत्रिय –छवी बनाने के फिराक में, उस केंडीडेट का ‘करेक्टर-एसिसिनेसन’आप ही आप हो जाता था ,ऊपर से कट-आउट के साथ कमेन्ट ,

”जीतने पर हमेशा आपके साथ ,ये ‘ठाकुर’ का वादा है”

अब ऐसे ‘ठाकुर’ को जीता कर ,बला कौन मोल ले भला ?.....बेचारे जमानत भी नहीं बचा सके ...वो इलेक्शन ,वो भी नहीं भूले ,हम भी नहीं भूले .....|

उन दिनों वीडियो शूट का चलन नहीं था,वरना प्रमाण दे देते|आठ-आठ ,दस –दस केंडीडेटस ,सौ-सौ ,पचास-पचास केंनवासिंग करने वालों के साथ घूमा करते थे।

आज की तरह भीड़ और कार्यकर्ता , ‘रोजी-भाड़े’ में नहीं बुलाये जाते थे।

स्वस्फूर्त आने का भाव उनके चेहरे से झलकता था।

बिना नाश्ता ,बिना नागा ,बिना नखरा दिखाए हाफ कप चाय में दिन-दिन भर जमे रहते थे वे लोग। केंडीडेट को वे लोग,आज की तरह , अर्थी के माफिक नहीं उठाये फिरते थे....|

उम्मीदवारों को भी अपने चाहने वालो का एक –एक का नाम, पता,ठिकाना मुंह जुबानी याद रहता था। इलेक्शन जीतने पर, खोज-ढूंढ़ के वे सबके काम भी करते थे। नल-बिजली लगवाने से लेकर नौकरी लगवाने तक सबको प्रसाद बंटता था। खादी को वे लोग झीनी होते तक पहनते थे। ”जस कि तस धर दीन्ही चदरिया” टाइप वे अगला इलेक्शन फटे कालर के साथ फिर लड़ लेते थे।

पार्टी वालो को पता नहीं क्या परहेज हुआ ?फटे कालर से ‘मीडिया-शूटिग-कव्हरेज ’ पार्टी-इमेज,कार्पोरेट-छवि धूमिल सी होने लगी ,यकायक ऐसे लोगों को टिकट मिलना बंद हो गया।

पुराने इलेक्शन बिना नोट, कम्बल –पौव्वे के खान निपटता था ?लोग बेसब्री से इंतिजार करते,पांच सालों की प्यास जी भर के बुझाते|

मतदान-दिन से पहली वाली रात का नाम ‘कतल की रात ‘ ही विख्यात हो गया।

नोट देकर ,गउ के पूछ पकड़ा के, कबूलवाये जाते ,वोट मुरारी को दूंगा /दूंगी ,मुरारी का चाचा भी आ जाए तो मना कर् दूंगा/दूंगी।

एक -दो घंटे बाद छुपते-छुपाते मुरारी का चाचा,किसी गली से जो आ जाता ,फिर से गौ माता लाई जाती ,फिर झूमते-झामते ,कसमों का दौर चलता। दूसरे दिन वे इतनी पी लेते कि चार बजाते तक उनको होश ही नहीं रहता कि रात क्या बात हुई ?

उन दिनों निर्दलीय खड़े होने का अलग सुख था। कम पैसे में खूब नाम उछल जाता था। छूट-भइये नेता बनना अपने –आप में पचीसों जगह आराम देता था। पुलिस थाने में धाक जमना –ज़माना हो जाता था। जुए –सट्टे के कारोबार में फजीहत नहीं होती थी। अपने आदमी को छुड़वाना ,दुश्मन को बंद करवाना सहज हो जाता था। जमानत होती ही कितनी थी ,जब्त हुए तो लुटिया कहाँ डूबने वाली, जैसी सोच रखते थे बिना दल वाले निरीह ?

इलेक्शन के वे मजे अब कहाँ ?”जाने कहाँ गए वो दिन” टाइप इलेक्शन बस याद में रखने-रखाने की चीज हो गई है ?भले पांच सालों में आता था मगर भाईचारे के साथ आता। अपोजिशन वाले भी खुल के मिलते थे,रास्ते में दुआ सलाम लिहाज वगैरा करते। सम्मान देते- लेते थे।

उन दिनों इलेक्शन का पूरा माहौल, जैनियों के क्षमा –पर्व की तरह होता था। झुक-झुक के अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगते उम्मीदवार। अपने लायक कोई सेवा होने का इसरार करते। हमेशा आपके काम आने का वादा करते ,नाली- सडक,साफ-सफाई का भर-पूर ध्यान रखने का वचन देते, वे लोग कमीशन के डर से यकायक लापता हो गए।

अब की बार के इलेक्शन में नजारा,ऊपर में बताये अच्छे चाल-चरित्र चेहरा से शून्य,माहौल के नाम पर “नन आफ द एबव्ह” वाला, फीका-फीका सा है।

सुशील यादव

न्यू आदर्श नगर

दुर्ग (छत्तिसगढ)

१४.११.१३

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. पुरानी यादों को झिंझोड़ता यह व्यंग्य बहुत ही मजा दे गया...बधाई..प्रमोद यादव

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रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - नन ऑफ़ द एबव्ह - नोटा (NOTA)
सुशील यादव का व्यंग्य - नन ऑफ़ द एबव्ह - नोटा (NOTA)
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