(व्यंग्य) दुम लगवाने की कोशिश -राम नरेश'उज्ज्वल' मेरी समझ से दो जून की रोटी ईमानदारी पूर्वक कमाना और खाना सब...
(व्यंग्य)
दुम लगवाने की कोशिश
-राम नरेश'उज्ज्वल'
मेरी समझ से दो जून की रोटी ईमानदारी पूर्वक कमाना और खाना सबसे बड़ा एवं पुरस्कृत करने वाला अर्थात सम्मानयुक्त कार्य है। जो इस काम में सफल हो जायेगा, वह दूनिया में कभी भी मात नहीं खायेगा। बड़े-बड़े काम करने वाले लोग दो जून की रोटी के लिए कभी काम नहीं करते। वे काम करते हैं नाम कमाने के लिए अपना स्टेट्स बनाने के लिए। स्टेट्स बनाना बहुत मुश्किल काम है,उसे मेनटेन रखना, उससे भी मुश्किल काम है। आदमी अपने स्टेट्स को ऊपर उठाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है और कभी भी उसे पर्याप्त ऊंचाई तक पहुँचा नहीं पाता है।
ऊंचाई पर पहुँचना सबके वश की बात भी नहीं है। कुछ लोग ऊंचाई पर पहुँच तो जाते हैं,पर उस स्थिति में बने नहीं रह पाते हैं। मुँह के बल नीचे गिर जाते हैं। जब पंछी थकता है, तो भूमि की ओर ही आता है। आसमान में ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं। यह पृथ्वी ही है, जो सभी को अपने हृदय में स्थान देती है और हम उसे महाभारत करके लहू-लुहान करते हैं।
चोरी-मक्कारी का हर जगह बोलबाला है। सुविधा शुल्क हर जगह चल रहा है। नौकरी-चाकरी,पढ़ाई-लिखाई,चुनाव-उनाव हर जगह गड़बड़ घोटाला है। संत-महात्मा भी धर्म,जाति,उपजाति,व प्रजाति आदि इत्यादि के आधार पर गड़गड़ कर रहे हैं। मान-सम्मान भी सुविधा शुल्क व सिफारिश से ही हथियाये जाते हैं। इसलिए कुछ कलाकारों के आगे पुरस्कारों और सम्मानों की लम्बी दुम लगी होती है और कुछ कलाकार दुम लगवाने की फिराक में लगे रहते हैं और कुछ बेवकूफ 'कर्मण्येवाधिकास्ते मा फलेषु कदाचन' की तर्ज पर सिर्फ कर्म करते हैं और बिना पूँछ के ही पुँछकटे पिल्ले की तरह जीवन भर निरीह जीवन व्यतीत करते हुए समय काटते रहते हैं।
दुम सम्मान का प्रतीक है, इज्जत का मानक है, इसलिए समाज में दुम लगवाना अति आवश्यक है। आवश्यकता ही विज्ञान की जननी है। विज्ञान ही उन्नति का रास्ता दिखाती है। अतः रास्ता ऐसा होना चाहिए जिसमें चलते हुए तकलीफ न हो। हो तो पता न चले, जैसे प्यार होता है तो पता ही नहीं चलता कि कब-कैसे,क्या हो गया है। कुछ काम बिना चाहे हो जाते हैं। जैसे सचिन को संन्यास न चाहते हुए भी लेना पड़ा या यूँ कहें कि उन्हें जबरदस्ती संन्यास दिलवाया गया। कभी कभी जबरदस्ती के काम में भी फायदा हो जाता है। जैसे सचिन का हो गया। बिना चाहे ही 'भारत रत्न' मिल गया,इसलिए तो कहते हैं, कि 'बिन माँगे मोती मिले माँगे मिले न भीख'। अब भीख मिले या न मिले पर माँगने वाले तो 'भारत रत्न' ही माँग रहे हैं।
रहीम ने कहा है 'माँगन वाले मर गये जिहिं घर माँगन जाहिं,उनते पहिले वे मुए जिहिं मुँह निकषे नाहिं।' अब देने वाले मरते हैं या जीते हैं। यह तो समय ही बतायेगा। समय के आगे किसी की नहीं चलती। समय बड़ा बलशाली होता है। वह अपने अनुसार स्वयं परिर्वतन करता रहता है क्योंकि परिर्वतन प्रकृति का नियम है। नियम के अनुसार ही कायदे से चलना चाहिए, पर कायदे से भला चलता ही कौन है? सब लँगड़ा रहे हैं, हमारे देश की तरह जिसे सहारा देने वाला भी कोई नहीं है। जो सहारा देने के लिए कुर्सी पर बैठाए जाते हैं, वे खुद अपनी इच्छा पूर्ति हेतु उसे अपाहिज बना देते हैं। अपाहिज देश भला क्या तरक्की करेगा? तरक्की के लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है।
तरक्की के बिना किसी की पूँछ नहीं होती है। इसलिए भगवान ने जानवरों को पूँछ दुम के रूप में दी, किन्तु इंसान को दुम नहीं दी, उसे दिमाग दिया,क्योंकि वह दुम के बिना भी अपना मान सम्मान प्राप्त कर सकता है। पर कुछ लोग आवार्ड रूपी दुम के पीछे भागते ही रहते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि दुम के बिना तो जानवरों की भी इज्जत नहीं होती है। फिर आदमी की क्या विसात? पूछ और मूँछ दोनों गर्लफ्रेंड की तरह जरूरी हैं ।
दुम को बेवकूफ टाइप कलाकर जरूरी नहीं मानते हैं। इसलिए पूँछ की कोशिश भी नहीं करते। हमें लगता है ऐसे कलाकारों व फनकारों को पूँछ जरूर लगा देनी चाहिए ताकि वे पूँछ वालों की निन्दा न सकें। निन्दा बहुत ही आनन्दप्रदाई विषय है। निन्दा की निन्दा कभी नहीं करनी चाहिए। पर आदमी है निन्दा न करे तो करे भी क्या? निन्दा के कारण ही हरिशंकर परसाई की पूँछ बनी। नामवर सिंह तो इसी की रोटियाँ तोड़ रहे हैं और अपने कई साथियों को भी तुड़वा रहे हैं। इसी के कारण राम लीला भी चर्चा में आ गई है। अब चर्चा में आ गई है तो नाम में परिवर्तन करने से क्या फायदा?
हर इंसान फायदे के लिए ही काम करता है,जो काम करता है,उसकी पूँछ होती है। हनुमान जी राम का काम करते थे,उनकी पूँछ थी। 'अटल' की शायद अब पूछ नहीं है,इसलिए कुछ लोग पूँछ लगवाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं। आन्दोलन करने से अन्ना जैसा फायदा बहुत कम लोगों का ही होता है। हॉकी के खिलाड़ी ध्यान चन्द का ध्यान सम्माननीय लोगों ने नहीं रखा तो क्या हुआ? मान-सम्मान या अवार्ड की लालसा भी उनमें न थी। थी केवल जीत की इच्छा, देश की तरक्की की अभिलाषा। सो वो भी डूब गयी है। अब अवार्ड लेकर भी क्या होगा? हॉकी राष्ट्रीय खेल तो बन सकता है पर प्रिय खेल नहीं बन सकता। जनता व सरकार में अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग है। सबकी खिचड़ी अलग पक रही है।
साहित्यकारों में साहित्य कुमार 'साहित्य-प्रेमी' जब से पैदा हुए हैं, लिखे जा रहे हैं और छपे जा रहे हैं। हजारों रचनाओं को जन्म देने वाले रचनाकार न प्रकाशन के लिए लालायित होते हैं और न ही दुम के लिए कोशिश करते हैं। कोकिल सी मधुर तान होने के बावजूद मंच पर नहीं जाते। आकाशवाणी वाले बुलाते हैं पर इन्हें भाँग खा कर लिखने से ही फुर्सत नहीं है। भगवान जाने कब तक ये बिना दुम के रहेंगे?
बिना दुम वाले बड़े ही खतरनाक किस्म के होते हैं,इनसे सदा होशियार रहना चाहिए। इनके पास तो पूँछ होती नहीं इसलिए औरों की पूँछ काटने पर आमादा रहते हैं। नालायक कुमार 'लायक' एक ऐसे ही खूँखार सहित्यकार हैं, जिन पर किसी भी चोट का असर नहीं पड़ता। सैकड़ों पुस्तकों का सम्पादन कर चुके हैं। पाठ्य पुस्तक तक तैयार कराई। आकाशवाणी से अपनी कर्कश वाणी का प्रसारण किया। अब 'पैदावार' में लगे हैं। पैदावार बढ़ाने से कुछ नहीं होगा। आप लिखते रहिये, कहते रहिए सुनने वाला कोई नहीं। व्यंग्य लिखकर दूसरों के फटे में टाँग अँड़ाना किसी भले मानस को शोभा नहीं देता। अतः दुम लगवाने की कोशिश करिए। इससे नाम और दाम दोनों मिलता है। जोड़-तोड़, होड़ में जरूरी है। भारत रत्न के महाभारत में हर सपूत को जुड़ कर खुद को 'भारत रत्न' साबित करना चाहिए।
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राम नरेश 'उज्ज्वल'
मुंशी खेड़ा,
पो0-अमौसी एयरपोर्ट,
लखनऊ
(आलेख में दर्शित नाम व स्थान पूर्णतः काल्पनिक हैं व लेखक के दिमाग की उपज हैं)
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