निर्मला सिंह गौर उम्र भर अनुभवों की धार ने हमको तराशा उम्र भर हमने हर्जाना चुकाया अच्छा खासा उम्र भर हमको जिनकी धीरता गम्भीरता पर ग...
निर्मला सिंह गौर
उम्र भर
अनुभवों की धार ने हमको तराशा उम्र भर
हमने हर्जाना चुकाया अच्छा खासा उम्र भर
हमको जिनकी धीरता गम्भीरता पर गर्व था
वो हमे देते रहे झूंठी दिलासा उम्र भर|
दूसरों के दर्द में हम खुद हवन होते रहे
बाँट कर तकलीफ सबकी साथ में रोते रहे
हमने जिसके आंसुओं को अपने कंधे पर रखा
हाय!किस्मत उसने हमको खूब कोसा उम्र भर |
हम सयानो में सदा नादाँन कहलाते रहे
दोस्ती में हम नफा–नुक्सान झुठलाते रहे
इस भरी दुनिया में किसका कौन करता है लिहाज़
वो तो हम थे ,जो नहीं तोड़ा भरोसा उम्र भर |
कागजों के महल भी हमने बनाये शौक से
और उन पर रंग रोगन भी कराये शौक से
एक चिन्गारी से उसकी खैरियत क्या पूछ ली
फिर वहां हर एक ने देखा तमाशा उम्र भर |
निर्मला सिंह गौर ,(९.११.२०१३)१६:३०:
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कल्याणी कबीर
एक आह मेरी सुन के जो हो जाते थे बेचैन .......
मुंसिफ जो था उसे भी गुनहगार देखकर ,
हम खुद उठा रहे हैं अपनी राह का पत्थर .
कोई रखता हो छुपा के ज्यों जीवन की कमाई ,
माँ रखती है छुपा के यूँ अश्कों का समंदर .
एक आह मेरी सुन के जो हो जाते थे बेचैन ,
हर ज़ख़्म से मेरे हैं आजकल वो बे-खबर .
कानों में गूंज उठाते हैं वेदों के मीठे बोल ,
जब चहचहाती हैं हमारी बेटियाँ घर पर .
नाज़ों से जिसने सींचा था भारत की नींव को
वो रहनुमा वतन के भटकते हैं दर- ब- दर .
kalyani kabir /
नीरज कुमार ‘नीर’
अगर तुम पढ़ पाते
मन की भाषा तो
जान पाते
मेरे अंतर के भाव को
तुम समझ पाते
उस बात को
जो मैं कह न सका
तुम देखते हो काला रंग
पर नहीं देख पाते
उसमें छुपे रंगों के इन्द्रधनुष को
जो काला है, उसमें
समाहित है सभी रंग
कभी परदे हटाकर देखो
दिखेगा सत्य
सत्य चमकीला होता है
चुंधियाता हुआ ..
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संजय कुमार गिरि
**गौरैया **
रोज सुबह को जब तुम मेरे ,
घर में चली आती हो ?
मेरी बंद आँखें तब तुम्हें ,
सुन कर जल्दी से खुल जाती हैं ,
सुबह सवेरे माँ मेरी जब ,
मुझे उठाने आती है ,
तब तुम जल्दी से फिर
फुर्र से उड़ जाती हो ,
मैं उनको तब तुम्हें दिखाने .
को , छत पर चला आता हूँ ,
और तुम्हारी चीं-चीं से
बहुत मंगन हो जाता हूँ ,
प्यारी सी तुम छोटी सी तुम ,
मेरे घर में रोज चली आती हो ,
अपनी चीं चीं कर के तुम मेरा
दिल रोज खूब बहलाती हो ,
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बाल कवि हंस
हंस के दोहे
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१. मानव पहुंचा चाँद पर, गया ख़ुशी में फूल
धरती पर चलना मगर, आज गया है भूल ।
२. दुश्मन, आग, रोग नष्ट हों, हंसा चुके उधार
तभी चैन से बैठिये, ये हैं दुश्मन चार ।
३. दोहा अति प्राचीन है, जितने पीपल, नीम
दोहे लिख कर अमर हैं, तुलसी और रहीम ।
४. भोजन, निद्रा, काम-भय, नर पशु में है एक
हंस एक नर में अधिक, कहते उसे विवेक ।
५. चोर,जुआरी, लालची, इनका है इतिहास
कभी न करना चाहिए, हंस भूल विश्वास ।
पता-- 50, अस्पताल रोड
कदमा, जमशेदपुर-५
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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
बाल गीत
सच्चा मित्र
झगड़ू बंदर ने रगडू,
भालू से हाथ मिलाया|
बोला तुमसे मिलकर तो,
प्रिय बहुत मज़ा है आया|
रगड़ू बोला हाथ मिले ,
तो दिल भी तो मिल जाते|
अच्छे मित्र वही होते,
जो काम समय पर आते|
कठिन समय में काम नहीं,
जो कभी मित्र के आता|
मित्र कहां ?अवसरवादी,
वह तो गद्दार कहाता
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चन्द्र कान्त बन्सल
काफी है
फनकार यहाँ कम है और कलाकार काफी है
ऐसी बज़्म के खाक होने के आसार काफी है
हर शख्स यहाँ समझता है उसी से जिन्दा है ये मुल्क
इस फिक्र के इस देश में बीमार काफी है
जब एक ही उल्लू से मिट जाये गुलिस्ताँ तो क्या होगा
यहाँ संसद में मुशर्रफ हिटलर बुश औ’ जार काफी है
मत भूलो मीरजाफर और जयचंद को कभी भी
हिंदुस्तान मिटाने को ये दो ही गद्दार काफी है
होंठ चिबुक रुख्सार और शाने पर मौजूद तिल
एक खजाने की रक्षा को ये चारों पहरेदार काफी है
माना हाथों में दम नहीं पर आँखों में तो है
तेरी ताजपोशी को ए साकी अभी ये खाकसार काफी है
पता हमें भी है कि तेरी भी जिंदगी सिर्फ चार दिन की है
फिर भी मेरे जनाज़े को तेरा इंतज़ार काफी है
यूँ तो आता नहीं इस दिल को किसी भी तरह से करार
अगर उसका भी है मुझसा हाल ये समाचार काफी है
तमाम दुनिया करे मेरी खिलाफत कोई गम नहीं
अगर है मेरी तरफ मेरा खुदा मेरा पैरोकार मेरा मददगार काफी है
रहने दो अपनी तमाम कोशिशे हमारी तहज़ीब बचाने की
बस कलमे रही जिन्दा तो ये तमाम कलमकार काफी है
सीएम नारी स्पीकर नारी और जब एक्सेलेंसी भी नारी है
फिर भी देश में कन्या की हत्याए वाकई हम गुनाहगार काफी है
राजनीति शिक्षा पुलिस न्याय सभी भ्रष्ट है इस वतन में
अब आखिरी आसरा फौज वो भी हो गई दागदार काफी है
तुम्हारी इस सोच को गन्दा न कहे तो क्या कहे
बेरोजगार सौ है और कहते हो काम का एक अनार काफी है
मत पुछो दिल्ली में क्यों हम अनशन पर बैठे है
कश्मीर से कन्याकुमारी तक यहाँ फैला भ्रष्टाचार काफी है
ना समझाओ हमें अपने ही देश की संसदीय बारीकियां
कुछ न कहकर सब कुछ समझाता ये सरदार काफी है
अगर है हिम्मत तो आओ मैदान में सभी के सामने
समझाओ अपना लोकपाल हम भी समझदार काफी है
बीते चौसठ साल एक सुरंग की मानिंद रहे जिसमे
दिखी अन्ना की एक मशाल जो मिटाने को अन्धकार काफी है
न सोचो की अन्ना बुढा है कुछ नहीं कर पायेगा
हम डूबतों को मिल जाये तिनका या एक पतवार काफी है
खौफज़दा न हो तू उजड़ जायेगा ए गुलशन
तेरी हिफाज़त को यहाँ एक एक सिपहसालार काफी है
जब सुपुर्दगे ख़ाक ही होना है चार हाथ की कब्र में आखिर
तो ‘रवि’ को ये महल ये शान सब की सब बेकार काफी है
चन्द्र कान्त बन्सल
निकट विद्या भवन, कृष्णा नगर कानपूर रोड लखनऊ
ईमेल पता chandrakantbansal@gmail.com
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नन्द लाल भारती
आसमान/कविता
पीछे डर आगे विरान है,
वंचित का कैद आसमान है
जातीय भेद की,
दीवारों में कैद होकर
सच ये दीवारे जो खड़ी है
आदमियत से बड़ी है । .
कमजोर आदमी त्रस्त है
गले में आवाज़ फंस रही है
मेहनत और
योग्यता दफ़न हो रही है ,
वर्णवाद का शोर मच रहा है
ये कैसा कुचक्र चल रहा है।
साजिशे रच रहा आदमी
फंसा रहे भ्रम में ,
दबा रहे दरिद्रता और
जातीय निम्नता के दलदल में ,
बना रहे श्रेष्ठता का साम्राज्य
अट्ठहास करती रहे ऊचता।
जातिवाद साजिशो का खेल है
अहा आदमियत फेल है ,
जमीदार कोई साहूकार बन गया है
शोषित शोषण का शिकार हो गया है।
व्यवस्था में दमन की छूट है
कमजोर के हक़ की लूट है।
कोई पूजा का तो
कोई नफ़रत का पात्र है
कोई पवित्र कोई अछूत है
यही तो जातिवाद का भूत है।
ये भूत अपनी जहा में जब तक
खैर नहीं शोषितो की
आज़ादी जो अभी दूर है ,
अगर उसके द्वार पहुचना है
पाहा है छुटकारा
जीना है सम्मानजनक जीवन
बढ़ना है तरक्की की राह
गाड़ना है
आदमियत की पताका तो
तलाशना होगा और
आसमान कोई .
मौत/ कविता
जमीन पर अवतरित होते ही ,
बंद मिठिया भी भींच जाती हैं ,
रुदन के साथ ,
गूंज उठता है संगीत ,
जमीन पर अवतरित होते ही।
आँख खुलते ,होश में आते,
मौत का डर बैठ जाता है ,
वह भी ढ़ीठ जुट जाती है ,
मकसद में।
जीवन भर रखती है ,
डर में ,
स्वपन में भी ,
भय पभारी रहता है ,
हर मोढ़ पर खड़ी रहती है
मौके की तलाश में।
ढीठ पीछा करती है ,
भागे-भागे ,
आदमी चाहता है ,
निकलना आगे
भूल जाता है,
पीछे लगी है मौत ,
अभिमान सिर होता है
दौलत का ,
रुतबे की आग में कमजोर को
जलाने की जिद भी।
अंततः खुले हाथ समा जाता है ,
मौत के मुंह में,
छोड़ जाता है ,
नफ़रत से सना खुद का नाम।
कुछ लोग जीवन-मरन के
पार उतर जाते हैं
आदमी से देवता बन जाते है ,
दरिद्रनारायण की सेवा कर।
मौत सच्चाई है ,
अगर अमर है होना ,
ये जग वालो ,
नेकी के बीज ही होगा बोना।
साथ/कविता
जीवन क्या……?
जो जी लिया वही अपना
लोग पाये दुनिया परायी,
सच है कहना।
जीवन में कैसे -कैसे धोखे ,
मोह ने लूटे ,
मतलब बस संग ,
डग भरते लोग खोटे।
मतलबी औरो को बर्बाद कर ,
शौक में जीते ,
आदमियत की छाती में ,
नस्तर घोप देते है।
भेद के पुजारी ,
चोट गहरा कर देते है।
गरीब के भाग्य का
ना हुआ उदय सितारा ,
गैरो की क्या .......?
अपनो ने हक़ है मारा।
बदनेकी पर नेकी की
चादर दाल देते है ,
स्वार्थ में क्या मरना…?
सब साथ हो लेते है।
डॉ नन्द लाल भारती
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उमेश मौर्य
देश सेवा
ठेका लेते हैं जो त्याग की भावना से देश चलाने का
क्या उन्हें पता होता है
अपने वजन से ज्यादा बोझ ढोने का दर्द,
क्या उन्हें सुनाई देती है महलों के नीचे
चीत्कारती हुई ईंटों की मौन पुकार,
क्या उन्हें पता होता है चिलचिलाती धूप में कुदाली से
धरती को कुरेदते हुए पसीने से सनी काली कलूटी
शक्ल के पीछे की पीड़ा
क्या उन्हें पता है हजारों की भीड़ में गुम हो जानें का खेल
क्या उन्हें पता है गरीबों की पहचान
जिनके पास उनसे भी अधिक प्रतिभा थी
सब्जी और समोसे बेचते हैं
क्या उन्हें पता है सड़े हुए टमाटर की चटनी का स्वाद
क्या उन्हें पता है गरीबी रेखा के नीचे की भी रेखा की शक्ल
जहाँ कोई कार्ड नहीं पहुंचते न पीले, न काले, न सफेद
क्या उन्हें पता है न्यूनतम वेतन के परिवार की किल्लत
जो उतारते है महंगाई का बोझ बीबी और बच्चों पर,
आत्महत्या भी करते है।
क्या उन्हें पता है सच्ची देश सेवा की परिभाषा,
जो किसानों के पसीने से बहकर माटी को सोना बनाती है,
जिन्हें सेवा और विकाश का नाम भी नहीं पता होता,
क्या उन्हें पता है बाजार में पंक्ति से बैठे बुजुर्ग किसानों के
चमड़े की सिलवट के पीछे की बंजर घरती का रूप
करना है सेवा तो गुम हो जाओ इस भीड़
तब जानोगे की सेवा फिर कैसे करनी है।
-उमेश मौर्य
सराय, भाईं
सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश
भारत
achhi rachana hai Kalyani ji, Badhai
जवाब देंहटाएंManoj 'Aajiz'
Jamshedpur