बाल- कविता सेवा धर्म ----------- -- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल' रात चाँदनी छत पर भोला चंदा मामा से यूँ बोला लेकर तारों कि...
बाल- कविता
सेवा धर्म
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-- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
रात चाँदनी छत पर भोला
चंदा मामा से यूँ बोला
लेकर तारों कि बारात
कहाँ निकल जाते हो तात ।
चंदा बोले मेरा काम
सुन लो प्यारे भोला राम
सूरज दिन भर करते काम
थक कर फिर करते विश्राम ।
सरिता, पथ, वन और पहाड़
सब पर छाता अंधकार
मैं अपना धर्म निभाता हूँ
पथिकों को राह दिखाता हूँ ।
दिन की तपन मिटाता हूँ
शीतल लेप लगाता हूँ
भोला बोला--तुम महान हो
तेरी सेवा का सदा गान हो ।
मैं भी जब पढ़ जाऊँगा
सेवा धर्म निभाऊँगा ।
पता-- आदित्यपुर-, जमशेदपुर, झारखण्ड
फोन- 0657 / 2370892
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(बाल दिवस पर बाल कविता)
हाथी का संवाद
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-- मनोज 'आजिज़'
बच्चों का सच्चा साथी हूँ
मैं धरती का हाथी हूँ
मुझको कहते हैं गजराज
मुझसे डरता है वन राज
भार वहन मैं करता हूँ
जंगल को नंदन करता हूँ
श्री गणेश जी मेरे रूप
देव लोक में बने अनुप
बच्चों दो शरीर पर ध्यान
हो जा मुझ सा ही बलवान ।
एक अच्छा नागरिक बनो
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--प्रो मनोज 'आजिज़'
भारत देश बड़ा, महान है
विश्व-गुरु है सब का
हम हैं वासी उस देश के
जो महत अंग है जग का ।
ऋषि, मुनि, संत, ज्ञानी सब
इसी धरती में जन्मे
और अगर जरुरत पड़ी
जवाब दिया है रण में ।
योग- तप और ज्ञान - ध्यान की
यहाँ है तूती बोली
बारह माह में तेरह पर्व
जैसे ईद, दिवाली, होली ।
इस देश में जन्म लिया जो
भाग्य वान वह व्यक्ति
एक अच्छा नागरिक बनो और
देश को दो शक्ति ।
यह सत्य है भ्रष्टाचार अब
देश को खोखला कर रहा
अनाचार, दुर्नीति मिल कर
पाप की घड़ा भर रहा ।
आस रखें हम फिर भारत को
महत्व पुराना मिलेगा
हम सब मिलकर प्रयत्न करेंगे
और यश-कुसुम खिल उठेगा ।
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बच्चों के मशीनीकरण
राजीव आनंद
तेज रफ्तार से बदलती दुनिया में
दादा-दादी की अपार्टमेंट में जगह नहीं है शेष
एकल परिवार में बदल गए है माता-पिता
प्रशिक्षक की तरह बच्चों से बाते है पेश
परिवार का पहले सा नहीं रहा ताना-बाना
रिश्ते भावना पर नहीं जरूरतों पर है टिके
खुशियां अब माँ से लिपट जाने में नहीं होती
खुशियां जानने में है कि सोना-हीरे कितने में बिके
बचपन की फुलवारी संवारने की फुर्सत किसे
माँ-बाप तो मल्टीनेशनल एक्सक्यूटिव हुए
डॉरीमोन औ बैनटेन से खेलते बच्चे
समय से पहले जीवन के आपाधापी से जा भिड़े
बचपन की कोमलता सारी
हो जाती है गायब बेचारी
असमय जीवन संघर्षों में जुते
अहम औ द्वेष से हो जाती है यारी
माँ-बाप अपने बच्चों में
अपनी महत्वाकांक्षाओं के कांटे बो दिए
मशीनों की तरह बच्चों को प्रशिक्षित कर
आह, मशीन तो पा लिया पर बच्चे खो दिए
आधुनिकता की है यह विड़ंबना
फूलों के बगीचे गंधहीन हो गए
बचपन की इस फुलवारी में
बच्चे तो हैं पर सौरभ कहीं खो गए
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा
गिरिडीह-815301
झारखंड़
9471765417
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(बाल कहानी)
बीड़ी का धुँआ
राम नरेश‘उज्ज्वल'
एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ था। उस पर दर्जनों बन्दर रहते थे। वे बड़े ही नकलची और शरारती थे।
एक दिन की बात है। धूप बड़ी तेज थी। उधर से एक राही आ रहा था। उसका गंजा सिर चाँद-सा झलक रहा था। सिर पर चुचुहाता हुआ तेल रेगिस्तान में पानी की तरह लग रहा था। उसका कद लम्बा तथा मूँछे बड़ी-बड़ी थीं।शरीर बिल्कुल दुबला-पतला, सींक-सलाई हो रहा था। उसके सिर पर झोटइया खड़ी लहरा रही थी।
वह गर्मी से परेशान पेड़ के नीचे आ गया। अँगौछा बिछाया और बैठ गया। कुछ देर बाद जेब से बीड़ी-माचिस निकाली। सुलगा कर पीने लगा। हवा बड़ी अच्छी चल रही थी। वह लेट कर टकला सहलाते हुए झोटइया उमेठने लगा। इसी तरह खिलवाड़ करते हुए वह सो गया।
बन्दर ऊपर से सारा तमाशा देख रहे थे। उसके सोते ही एक बन्दर नीचे उतर आया। बीड़ी-माचिस अँगौछे पर ही रखी थी। वह उसे उठाकर ऊपर चला गया। अब क्या था ? सारे बन्दरों ने आपस में एक-एक बीड़ी बाँट ली। फिर फुक्क-फुक्क कर सुलगा लिया। सबने बड़े शान से चार-पाँच कस खींचा। अचानक खाँसी आ गई। सब खों-खों करने लगे। धुँआ अन्दर तक भर गया। आँखें लाल हो गईं , मुँह और गला कड़ुआने लगा। वे कहने लगे-‘‘ये बड़ी बेकार चीज़ है। इसमें तो ज़हर ही ज़हर है। यह बेवकूफ आदमी पता नहीं कैसे इतनी खराब चीज़ पीता है ?''
सारे बन्दरों ने जलती हुई बीड़ियाँ नीचे फेेंक दीं। नीचे आदमी सो रहा था। बीड़ियाँ उसके ऊपर गिरीं। वह तिलमिला कर उठ गया। जगह-जगह पर जल भी गया था। उसने अपना अँगौछा समेटा और इधर-उधर देखने लगा। तभी उसे गुर्राने की आवाज सुनाई दी। ऊपर देखा , तो सारे बन्दर उसी पर खौखिया रहे थे। आदमी को इस बात का पता न था। वह बन्दरों की करतूत समझ गया। खों-खों करके गुर्राते हुए बन्दर उसी की तरफ आ रहे थे। वह डर कर भागने लगा। लेकिन बन्दर उसे कब छोड़ने वाले थे। दौड़ा कर घेर लिया। आदमी को घेरते ही उन्होंने उसकी टकली खोपड़ी ठोकना बजाना शुरू कर दिया। कुछ बन्दर उसकी झोटइया भी खींच रहे थे। वह आदमी परेशान हो गया। उसकी हालत खराब थी। उसने सोचा-‘बीड़ी के कड़वे स्वाद के कारण ही ये बन्दर उसके पीछे पड़े हैं।' इसलिए उसने कान पकड़ कर कहा-‘‘भाइयों मैैं वचन देता हूँ, अब से बीड़ी को हाथ तक नहीं लगाऊँगा। मुझे माफ कर दो।''यह कह कर उसने दो-तीन उठक-बैठक लगाई।
बन्दर अब शान्त हो गये। यह देखकर आदमी बड़ा खुश हुआ। वह आगे बढ़ा, अरे..ये क्या ? बन्दरों के सरदार ने उसे रोक लिया। उसने आदमी के गंजे सिर पर हाथ फेरा। उसके गाल चूमे और खों-खों करके अलग हट गया। दरअसल वह अपना प्यार जता रहा था। अब सारे बन्दर उसकी टकली पर हाथ फेरते। गाल चूमते और ‘खों-खों' इस तरह करते जैसे नमस्ते करके उसे विदाई दे रहे हों।
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सम्पर्क : उज्ज्वल सदन, मुंशी खेड़ा, पो0- अमौसी हवाई
अड्डा, लखनऊ-226009
मोबाइलः 09616586495
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