स्मृति : राजेन्द्र यादव, केपी सक्सेना, अली सरदार जाफरी प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव अब हमारे बीच नहीं रहे. 28 अक्टूबर की रात दि...
स्मृति : राजेन्द्र यादव, केपी सक्सेना, अली सरदार जाफरी
प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव अब हमारे बीच नहीं रहे. 28 अक्टूबर की रात दिल्ली में उन्होंने अंतिम सांसें ली. ‘विचार की फफूंद है अभिव्यक्ति' को मानने वाले राजेन्द्र यादव जी के प्रशंसक और विरोधी दोनों ही संख्या में कम नहीं है यद्यपि समकालीन हिन्दी साहित्य में राजेन्द्र यादव जी से निरपेक्ष रहना संभव नहीं है.
सारा आकाश नामक उपन्यास से साहित्यिक फलक पर छा जाने वाले राजेन्द्र यादव जी प्रेमचंद की पत्रिका ‘हंस' को पुनः शुरू किया जिसके माध्यम से उन्होंने प्रभावशाली तरीके से नये साहित्यकारों के लिए जमीन तैयार करते रहे वहीं हाशिए के लोगों यानी दलित, पिछड़े अल्पसंख्यक एवं स्त्रियों को एक मंच दिया.
नई कहानी की चर्चित तिकड़ी के अंतिम स्तंभ राजेन्द्र यादव जी हिन्दी में एमए प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर हासिल किया था अगर 1954 में अपनी पीएचडी करने के साथ व्याख्यता की नौकरी नहीं ठुकराये होते तो शायद हिन्दी साहित्य में इतना बड़ा लेखक उभर कर सामने न आया होता. राजेन्द्र यादव जी ने प्रेत बोलते है नामक पहला उपन्यास लिखा जो सारा आकाश नाम से प्रकाशित होकर चर्चित और प्रशंसित हुआ. इसी उपन्यास पर बासु चटर्जी ने फिल्म बनायी जो वालीवुड में समांतर सिनेमा की शुरूआत मानी जाती है. उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात आपने ज्ञानोदय में कार्य करते हुए लिखा और प्रकाशित करवाया. कोलकाता में ही उनका विवाह कथाकार मन्नू भंडारी जी के साथ हुआ तथा 1960-61 में मन्नू भंडारी जी के साथ उनका उपन्यास एक इंच मुस्कान प्रकाशित हुआ जो काफी चर्चित हुआ.
लेखकीय स्वतंत्रता के पक्षधर रहे राजेन्द्र यादव जी अपने पंसदीदा लेखक चेखव की काल्पनिक साक्षात्कार लेने वाले शायद पहले और आखिरी साहित्यकार थे. दरियागंज की एक गली में स्थित अक्षर प्रकाशन वाला वह पुराना कार्यालय नए कथाकारों के लिए गंगाघाट से कम न था जहां उनकी प्रशंसा और भर्त्सना दोनों ही की जाती थी और राजेन्द्र यादव जी वहां एक आनंदित दुनिया में नजर आते थे. आप आलोचना के आतंक से मुक्ति दिलाने वाले पहले संपादक और लेखक थे.
सारी दुनिया घूम कर आने के बाद भी उन्होंने अपने अंदर आगरा को हमेशा बनाए रखा, वे कहा करते थे, हकीर कहो फकीर कहो, आगरे का हॅूं.
भगवान सिंह ने ठीक कहा है कि राजेन्द्र यादव मुझे फ्रांसीसी विचारक वाल्टेयर का स्मरण करा देते है जिनका कहना था कि ‘‘ मैं तुम्हारे विचारों से पूर्णतः असहमत हॅूं फिर भी मैं अंतिम सांस तक तुम्हारे कहने की स्वतंत्रता के लिए लड़ता रहूंगा.'' पूरी तरह तो नहीं फिर भी बहुत हद तक वाल्टेयर का यह तेवर राजेन्द्र जी में मुझे दिखायी देता था.
सारा आकाश, उखड़े हुए लोग, शह और मात, कुलटा, अनदेखे अनजान पुल अथवा मंत्रविद्ध जैसे उपन्यास रहें हो या जहां लक्ष्मी कैद है, छोटे-छोटे ताजमहल, देवताओं की मूर्तियां, खेल खिलौने, ढोल अथवा वहां तक पहुंचने की दौड़, किनारे से किनारे तक जैसे कहानी संग्रह या कहानीः स्वरूप और सवेदना, कहानीः अनुभव और अभिव्यक्ति, एक दुनियाः समानान्तर, उपन्यासः स्वरूप और संवेदना, औरों के बहाने या कांटे की बात के अनेक खंड़ या उनकी आत्मकथा मुड़-मुड़ के देखता हॅूं, जब भी छपे प्राय चर्चित रहे.
विवादों से अंत तक घिरे राजेन्द्र यादव जी के जाने से साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के एक युग का अंत हो गया. उन्हें हमारी सादर श्रद्धांजलि.
राजेन्द्र यादव जी के गुजर जाने के गम से उबर भी नहीं पाया था कि 31 अक्टूबर को प्रसिद्ध व्यंग्यकार केपी सक्सेना हमारे बीच नहीं रहे. लंबे समय से कैंसर की बीमारी से जूझते हुए 31 अक्टूबर की सुबह लखनऊ में उन्होंने अंतिम सांसें ली. आश्चर्य की बात तो यह है कि अखबारों के किसी भी पन्ने पर इन्हें श्रद्धांजलि तक नहीं दी गयी. स्थानीय अखबारों में केपी सक्सेना के नहीं रहने की खबर मात्र से अखबारों ने अपनी इतिश्री मान लिया.
केपी सक्सेना जी ने व्यंग्य को एक नई पहचान दी हालांकि शुरूआती दौर में उन्हें प्रकाशकों ने अस्वीकारा पर बाद में अपने लेखनी के बल पर वे फिल्म फेयर तक गये. लखनऊ में स्टेशन मास्टर रह चुके केपी सक्सेना स्वदेश, हलचल, जोधा अकबर और लगान जैसी फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखा. केपी सक्सेना लिखित फिल्म लगान आस्कर के लिए नॉमिनेट हुई थी.
स्टेशन मास्टर के पोस्ट से वॉलेंटरी रिटारमेंन्ट लेने के बाद लखनउ के गलियों में घूमते गोलागंज का भगवती पान भंड़ार और बबन कश्मीरी की पतंग की दुकान पर वे रोज जाया करते थे. बरेली में 1934 में जन्मे कालिका प्रसाद सक्सेना अपने चाहनेवालों के बीच केपी के नाम से लोकप्रिय हुए. उन्होंने ग्रेजुएट क्लासेज के लिए बॉटनी विषय पर एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिखी. आकाशवाणी, दूरदर्शन और मंच के लिए उन्होंने ‘बाप रे बाप', ‘गज फुट इंच' नामक नाटकों के अलावे दूरदर्शन के लिए ‘बीबी नातियों वाली' विशेष रूप से उल्लेखनीय है. इस सीरियल को देश का पहला हिन्दी का सोप ओपेरा होने का गौरव हासिल है. यह सीरियल इतना लोकप्रिय हुआ कि पब्लिक डिमांड पर इसके आगे के एपीसोड भी केपी को लिखने पड़े थे.
लखनवी तहजीब में अपनी बात कुछ इस अंदाज में शुरू करते थे केपी सक्सेना, ‘ अमा मिंया आप भी कमाल है'. अपनी एक व्यंग्य रचना ‘बैंक लॉकर' से केपी सक्सेना ने काफी चर्चा और प्रशंसा बटोरा जब वे कहते थे, ‘लॉकर समझते है न, जिसमें ला, ला कर रखा जाए.'' अफसरों पर महीन तंज कसते हुए उन्होंने लिखा था, ‘अफसरों के लॉकर खोले गए तो करोड़ों रूपयों का देशप्रेम बरामद हुआ.'' व्यंग्य साहित्य में हरिशंकर पारसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल के शिल्प में गंगा-जमुनी तहजीब को जोड़कर एक नया आयाम दिया केपी सक्सेना ने. आपके व्यंग्य को दिए गए अप्रितम योगदान को लगभग दो दर्जन पुस्तकों तथा बालहास्य नाटकों जैसे, दस पैसे के तानसेन, फकनूस गोज टू स्कूल, चोंचू नवाब, अपने-अपने छक्के में देखा जा सकता है. अपनी तंजात्मक शैली, शिल्प और कटाक्ष के माध्यम से आपने जो पुस्तकें, नाटक व सीरियल लिखे वे साहित्य के अमूल्य धरोहर रहेंगे.
केपी सक्सेना जी के लिए लेखन धन अर्जित करने का माध्यम कभी नहीं रहा बल्कि उनकी लेखनी में मन ही प्रधान बना रहा. आपका व्यंग्य जहां समसामयिक होता था वहीं उसमें सच्चाई का तंज पाठकों के मन को झकझोरता भी था और आनंदित भी करता था. केपी सक्सेना जी लखनउ संस्कृति के ऐसे पुरोधा थे जिनकी कलम से निकली व्यंग्य की चुभन देर तक बनी रहती थी.
समग्र लेखन के लिए भारत सरकार द्वारा पद्यश्री सम्मान के अलावा केपी सक्सेनाजी को चक्कलस सम्मान, काका हाथरसी सम्मान, नरगिस दत सम्मान, बलराज साहनी सम्मान, थाइलैंड का टीवी सम्मान तथा हरियाणा साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजा गया था. उनके नहीं रहने पर खालीपन तो जरूर महसूस हो रहा है पर केपी जिंदा रहेंगे अपनी लेखनी के बल पर हमलोगों के बीच. मिंया केपी सक्सेना अखबारों में श्रद्धांजलि नहीं छपी तो गम न कर आप हम जैसे चाहनेवालों के दिलों में छपे रहेंगे. एक सफल रचनाकार वही होता है जो आम आदमी से जुड़कर आम आदमी बना रहता है, राजेन्द्र यादव और केपी सक्सेना ताउम्र आम आदमी बने रहे. सादर श्रद्धांजलि.
वर्ष 2013 अली सरदार जाफरी का जन्म शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है. उूर्द के प्रख्यात शायर अली सरदार जाफरी न सिर्फ शायर थे बल्कि संपादक, लेखक, स्वतंत्रता सेनानी और एक भले आदमी थे.
जोश मलिहावादी, जिगर मोरादावादी तथा फिराक गोरखपूरी से प्रभावित अली सरदार जाफरी को अपनी वामपंथी रूझान की वजह से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से सून 1936 में निकाल दिया गया था. जाफरी साहब ने 1938 ई. में जाकिर हुसै कॉलेज, दिल्ली से स्नातक किया तथा स्नातोकोतर की पढ़ाई को बीच में ही छोड़ना पड़ा क्योंकि आपको 1940-41 में युद्ध के विरूद्ध लिखी कविताओं के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था.
‘‘ ऐ वतन खाके वतन वो भी तुझे दे देंगे
बच रहा है जो लहू अबके फसादात के बाद''
अवध की खाक-ए-हसीन में संकलित जाफरी साहब के अशआर आपको धर्मनिरपेक्षता का मिशाल सिद्ध करते है. साम्प्रदायिकता के उस दौर में उन्होंने कुछ यूं लिखा था,
‘‘ गरीब सीता के घर पे कब तक रहेगी रावण की हुक्मरानी
द्रोपदी का लिबास उसके बदन से कब तक छिना जायेगा
शकुन्तला कबतक अंधी तकदीर के भंवर में फंसी रहेगी
ये लखनऊ की शिगुफतगी मकबरों में कब तक दबी रहेगी ? ''
सन 1938 में अपनी लधुकथाओं के संग्रह ‘मंजिल' से अपना साहित्यिक सफर शुरू करने वाले अली सरदार जाफरी देश के स्वाधीनता संग्राम में अपना अप्रतिम योगदान दिया, कई बार जेल गए. आपका पहला कविता संग्रह ‘परवाज' सन 1944 में प्रकाशित हुआ. प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन को समर्पित साहित्यिक पत्रिका ‘नया अदब' के जाफरी साहब 1939 में सहसंपादक बनाए गए तथा आपके अथक प्रयास और मेहनत से पत्रिका 1949 तक बेरोकटोक प्रकाशित होती रही. उर्दू साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू' के आप ताउम्र संपादक और प्रकाशक रहे तथा उर्दू पत्रकारिता को फलने-फलने में अपना अपूर्व योगदान दिया.
उर्दू शायरी को एक नये फिक्र और सोच के साथ पेश करने वाले जाफरी साहब ने कई पुस्तकें जैसे धरती के लाल, परदेशी, नयी दुनिया को सलाम, खून की लकीर, अमन का सितारा, एशिया जाग उठा, पत्थर की दीवार, एक ख्वाब और, पैरहन-ए-शरारा, लहू पुकारता है, अवध की खाक-ए-हसीन, सूबहे फरदा और मेरा सफर लिखा. इप्टा के लिए आपने दो नाटक लिखे तथा एक डाक्यूमेन्टरी फिल्म ‘कबीर, इकबाल और आजादी' बनायी. आपने दो प्रसिद्ध टीवी सीरियल यथा, कहकंशा जो 18 भागों में सात प्रसिद्ध उर्दू शायरों क्रमशः फेज अहमद फेज, फिराक गोरखपूरी, मजाज, जोश मलिहावादी, हसरत मोहानी, जीगर मोरादावादी तथा मकदूम मोइउद्दीन के जीवन और अशआरों को प्रसारित करवाया तथा महफिल-ए-यारां जिसमें जाफरी साहब ने विभिन्न लोगों के साक्षात्कार लिए और प्रसारित करवाया. दोनों ही टीवी सीरियल काफी मशहूर हुआ.
फिराक गोरोखपूरी और कुर्तुलन हैदर के बाद उर्दू के तीसरे शायर अली सरदार जाफरी ही हुए जिन्हें ज्ञानपीठ अवार्ड से सन 1997 में नवाजा गया. समग्र लेखनी के लिए भारत सरकार ने 1967 में आपको पद्यश्री सम्मान दिया, इसके अतिरिक्त कविता के लिए उतर प्रदेश उर्दू अकादमी अवार्ड, फैज अहमद फैज अवार्ड, मकदूम अवार्ड, मध्यप्रदेश सरकार का इकबाल सम्मान, महाराष्द्र सरकार का संत ज्ञानेश्वर अवार्ड से भी नवाजा गया.
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राजीव आनंद
सेल फोन - 9471765417
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