अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास : जनविकासोन्मुख परिदृश्य डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण E-mail - drsatappachavan@gmail.com भारतीय सामाजिक विकास म...
अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास : जनविकासोन्मुख परिदृश्य
डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण
E-mail - drsatappachavan@gmail.com
भारतीय सामाजिक विकास में हिंदी उपन्यास साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है. संपूर्ण हिंदी उपन्यास साहित्य में केंद्रीय स्थान मानव समाज के कष्टदायक जीवन को प्राप्त हुआ परिलक्षित होता है. मानव−समाज के प्रगति का अध्ययन करने के लिए हिंदी उपन्यास साहित्य का आधार रूप में उपयोग हो रहा है. “भारतीय उपन्यास भले ही भिन्न−भिन्न भाषाओं में लिखा गया हो,उसकी अंतर्धारा एक है. उसकी दर्शनिक, सांस्कृतिक और सामजिक पृष्ठभूमि एक है. रंग−बिरंगे रूपाकारों में फल−फूल रही उसकी आत्मा एक है. यद्यपि प्रत्येक भाषा के उपन्यास−साहित्य की अपनी अलग पहचान है, अपना अलग व्यक्तित्व और वैशिष्टय भी है, फिर भी सब में कुछ ऐसी मौलिक समानताएँ हैं जो मिलकर उसे भारतीय उपन्यास का रूप देती है.”1
भारतीय उपन्यासकारों ने जनविकासोन्मुख परिदृश्य को हमारे सामने रखा है.वर्ग विभाजित समाज,सामंतीवादी समाज,दासमूलक समाज, पूँजीवादी समाज, श्रम बेचता अभिशप्त मजदूर समाज आदि सभी का चित्रण हिंदी उपन्यास साहित्य में हुआ है. अंतिम दशक के हिंदी उपन्यासों में जनविकासोन्मुख बदलाव अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होते हैं.आम आदमी का विकास ही संपूर्ण मानव समाज का विकास माननेवाला हिंदी उपन्यास साहित्य अंतिम दशक में प्रकाशित हुआ.
सर्वहारा वर्ग का चित्रण करनेवाले अनेक हिंदी उपन्यास अंतिम दशक की ही देन है. “प्रगतिशील उपन्यासकारों ने समजवाद में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्ष किया.ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए किसान−मजदूरों की एकता पर बल दिया और सामंती पूँजीवादी आर्थिक सामाजिक शोषण के खिलाफ किसान−मजदूरों के संघर्ष को अभिव्यक्ति दी. क्रांतिकारी चेतना के विकास में अपना योगदान दिया.सामाजिक−धार्मिक रूढियों−कुरीतियों पर तीखा प्रहार करते हुए जनता के जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष किया. सामाजिक आर्थिक समानता का नारा बुलंद किया”2 कहना सही होगा कि सभी प्रगतिशील उपन्यासकारों ने जनविकास की बात अपने उपन्यास साहित्य में की है. भारतीय विकासनीति में उपन्यास साहित्य केंद्र में रहा है. विकास वह भी सिर्फ जनविकास ही हिंदी उपन्यास साहित्य का आधार रहा है. जनविकास की परिभाषा देकर उपन्यासकार चुप नहीं बैठते,वह विकास की मूल संकलपना को पाठकों के सामने रखतें है.
बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों पर अंतिम दशक में लंबी बहस चली, हंस पत्रिका ने बीसवीं शताब्दी के चुने हुए पच्चीस उपन्यासों की सूची प्रकाशित कर इस सूची को बढाने−घटाने का अधिकार पाठकों को दे दिया.“1.गोदान−प्रेमचंद(1936), 2.त्यागपत्र−जैनेंद्र कुमार(1937),3.शेखर एक जीवनी−अज्ञेय(भाग दो 1941−44),4.झूठा सच−यशपाल(1958), 5.बाणभट्ट की आत्मकथा−हजारीप्रसाद द्विवेदी(1946),6.मैला आंचल−फणिश्वरनाथ रेणु (1954),7.बूँद और समुद्र−अमृतलाल नागर(1956),8.जहाज का पंछी−इलाचंद्र जोशी− (1956),9.चित्रलेखा−भगवतीचरण वर्मा(1934),10.राग दरबारी−श्रीलाल शुक्ल(1968), 11. आधा गांव−राही मासूम रजा(1968),12.उसका बचपन−कृष्ण बलदेव वैद(1957),13.सूरज का सातवाँ घोडा−धर्मवीर भारती(1952),14.गिरती दिवारें−उपेंद्रनाथ अश्क(1952), 15.मित्रों मरजानी−कृष्णा सोबती(1967), 16.सूखा बरगद−मंजूर एहतेशाम(1986), 17.धरती धन न अपना−जगदीशचंद्र(1972),18.नौकर की कमीज−विनोद कुमार शुक्ल(1979),19.कुरू कुरू स्वाह मनोहरश्याम जोशी(1980),20.गडकुण्डार−वृंदावनलाल वर्मा(1929),21.मुर्दों का टीला− रांगेय राघव(1957),22.आपका बंटी−मन्नू भंडारी(1968),23.मुर्दाघर−जगदंबा प्रसाद दीक्षित (1974),24. सारा आकाश−राजेंद्र यादव(1952),25.डूब−वीरेंद्र जैन(1991)”3 ‘हिंदी उपन्यास: एक सदी’शीर्षक से प्रकाशित ‘हंस’ के विशेषांक में छ्पी उपर्युक्त सूची विवेकशील अध्ययन का उदाहरण है.बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक दशक का एकमात्र उपन्यास‘डूब’ (वीरेंद्र जैन) का विचार प्रस्तुत सूची में हुआ है.अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि जनविकासोन्मुख परिदृश्य का चित्रण करनेवाले चर्चित उपन्यासों में डूब− वीरेंद्र जैन,शहर में कर्फ्यू−विभूतिनारायण राय, एक जमीन अपनी,आवाँ−चित्रा मुदगल,पाहीघर−कमलाकांत त्रिपाठी,गगन घटा घहरानी−मनमोहन पाठक, जिंदा मुहावरें−नासिरा शर्मा,मुझे चाँद चाहिए−सुरेंद्र वर्मा,इदन्न्मम्−मैत्रेयी पुष्पा, सात आसमान−असगर वजाहत, कलिकथा:वाया बाइपास−अलका सरावगी,ऐलान गली जिंदा है−चंद्रकांता,छिन्नमस्ता,पिली आँधी−प्रभा खेतान, एक टुकडा धुप−उषा यादव आदि प्रमुख हैं.आलोच्य उपन्यासों में जनविकास का वैचारिक पक्ष प्रस्तुत हुआ है.उद्योगपति,साहूकार, व्यवसायिक,आधुनिक पूँजीपति,आधुनिक मजदूर,सर्वहारा वर्ग निर्माण की प्रक्रिया,पंडे पुजारी, किसान जीवन अंतिम दशक के उपन्यासों में बहुलता से प्रस्तुत हुआ है.
ग्रामीण एवं नगरीय समाज का विकास प्रस्तुत करते समय अंतिम दशक के उपन्यासकारों ने किसानों,मजदूरों के दरिद्र−दारूणमय जीवन को प्रमुखता से रेखांकित किया है.आम आदमी के जीवन का विकासोन्मुख चित्र आलोच्य उपन्यासों में रहा है.“ ‘एक जमीन अपनी’ मध्यवर्गीय नजरिये से मध्यवर्गीय यथार्थ की प्रस्तुतिहै.बीच के मरेल पर जीते−रहने वालों की सोच और संवेदना की तमाम सीमाएँ और संभावनाएँ यहाँ मौजूद है. ”4 उपन्यास की नायिका अंकिता का जीवन अपेक्षाकृत अधिक सहानुभूति के साथ प्रस्तुत हुआ है.अंकिता के व्यक्तिगत जीवन को प्रस्तुति देने के साथ विज्ञापन संस्कृति पर प्रहार,सामाजिक संबंधों में बिखराव,कला के प्रति लोगों में आस्था का भाव न रहना आदि का चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में चित्रा मुदगलजी ने किया है.नीता का अपनी बेटी मानसी को अंकिता को सौंपना उपन्यास में समाज विकासोन्मुख बात लगती है.“बीसवीं शती का अंतिम चरण भारतीय इतिहास का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मोड है. इस उथल−पुथल के हम स्वयं साक्षी है. राजनीतिक अस्थिरता के झोंके से देश के जन−मन में हाल में मिली आजादी के प्रति नया उत्साह जगा है. क्या विविध वर्ग और क्या व्यक्ति सभी अपने−अपने अस्तित्व की पहचान स्थापित करने के लिए व्यग्र हैं.... इस युग में वैज्ञानिक शोधों का प्रतिफल, तकनीकी प्रगति की चारों ओर धूम है. जिस प्रगति की चारों ओर धूम है. जिस प्रगति की हम आगामी एक शताब्दी में कठिनाई से कल्पना कर पाते,वह कुछ ही दशकों में साक्षात हमारे द्वार पर बिना खटखटाए,चारों ओर छा गई है. अदभुत चमत्कार ! इस के साथ मीडिया−संचार−साधनों ने पूरे जीवन पर दखल कर लिया है−रेडियो, फोन, टी.वी.,इंटरनेट,पत्र−पत्रिकाओं आदि सभी हमारें जीवन के सहज अंग हो चलें है. औद्योगीकरण और व्यवसाय ने नई करवट ली है. देश की चहारदीवारियों को लाँघकर आज भूमंडलीकरण की धूम है. इस बदलाव से समाज के एक वर्ग में नव−संपन्नता का दौरदौरा आया है, और दूसरी ओर जो गरीबी और आर्थिक पिछडेपन की जद में हैं, वहीं घिरें मार खा रहें हैं”5 अंतिम दशक के विवेच्य उपन्यासों में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का चित्रण हुआ है. किसानों−मजदूरों की आर्थिक विपन्नता,शहरी मजदूरों की स्थिति, मूलतः गाँव से भागकर शहर में आए श्रमिकों का जीवन,बेगार जिंदगी का चित्रण करने में अंतिम दशक के उपन्यासकार सफल हुए दृष्टिगोचर होते है.
बदलता सामाजिक परिदृश्य,दुख,जोखिम,संघर्ष और टकराव की स्थिति तकनीकी विकास के कारण बढ रही है. तकनीकी विकास आम जनता को अपना विकास लगने लगा. घर−परिवार की बातें लुप्त हुई.दबावजन्य राजनैतिक परिस्थिति का जन्म अंतिम दशक की ही देन है. मीडिया का प्रभाव गंभीर रचनाकारों पर भी पडा जो दृश्य−श्रव्य मीडिया के लिए लिखे साहित्य में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है.
विवेच्य उपन्यासों में वर्तमान मानवी जीवन के विकासोन्मुख परिदृश्य को चित्रित किया है.फिर भी विकास के साथ−साथ आनेवाली अनेक त्रासदीपूर्ण परिस्थितियों को प्रस्तुत करने में उपन्यासकार सफल हुए परिलक्षित होते है.“वीरेंद्र जैन का उपन्यास ‘डूब’ सर्वाधिक उल्लेखनीय है. इसमें एक गाँव के बसने तथा वहाँ के प्रमुख चरित्रों का सजीव इतिहास है. प्रदेश की सरकार की बाँध बनाने की योजना से गाँव किस प्रकार ‘डूब’ क्षेत्र में आकर लुटता और नष्ट−भ्रष्ट होता है.आज की योजनाओं के अँधेरे पक्ष को उपन्यास खूबी से उभारता है.”6 ग्रामीण विकास की अनेक योजनाएँ ग्रामीण समाज को विस्थापित करती नजर आती है.अतः ग्रामीण समाज विस्थापन नहीं चाहता. ‘डूब’ उपन्यास में बिजली परियोजना का विरोध करता ग्रामीण समाज वैज्ञानिक विकास चाहता है लेकिन विस्थापन के साथ आनेवाला विकास वह नहीं चाहता.“उपन्यास जिस में विस्थापन से डरा और शोषण के विभिन्न रूपों से आतंकित ग्रामीण समाज,बिजली परियोजना जैसे वैज्ञानिक विकास का विरोध करने को बाध्य हो जाता है. इसका कारण कहीं यह तो नहीं कि हमने एक−दूसरे की संवेदना, उनके मर्म,उनकी बात आदि को सुनना,समझना और स्पर्श को महसूस करना भूला दिया है ? ”7 कहना सही होगा कि विकास के नाम पर हो रही कुंठाजन्य त्रासदी को‘डूब’ में प्रस्तुति मिली है.
प्रभा खेतान का उपन्यास‘छिन्नमस्ता’ स्त्री जीवन का दुख प्रस्तुत करता है. नायिका प्रिया के जीवन का सत्य प्रस्तुत करता यह उपन्यास विषयवस्तु की दृष्टि से सशक्त नजर आता है. शो−पीस बनती स्त्री का चित्रण‘छिन्नमस्ता’ में दृष्टिगोचर होता है. नारी विकास को संपूर्ण समाज आवश्यक मानता है. फिर भी घर−परिवार,सार्वजनिक स्थान पर नारी के साथ न्यायोचित व्यवहार नहीं होता.अपने बलबूते पर आगे बढनेवाली नारी को कटु अनुभवों से गुजरना पडता है.“एकदम बंद मारवाडी समाज की कुंठित−प्रताडित लडकी सिर्फ अपने बूते पर कैसे बुद्धि−मन विकसित करती हैं,बाद में अपना अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और स्वतंत्र व्यक्तित्व भी−‘अप्पदीपोभव’ की परंपरा की यह कथा इसी का दार्शनिक ग्राफखींचती है.”8 प्रभा खेतान का ‘पीली आँधी’उपन्यास अंतिम दशक का ही उपन्यास है.‘पीली आँधी’उपन्यास सामंती व्यवस्था के खिलाफ महिलाओं द्वारा किया विरोध दर्शाता है. दकियानूसी रूढ−परंपरओं का विरोध करती सोमा नई पीढी का प्रतिनिधित्व करती है. संयुक्त परिवार का विघटन,विधवा−जीवन,महिलाओं का चारदीवारीवाला जीवन‘पीली आँधी’उपन्यास में चित्रित हुआ है. बणियों की जीवन पद्धति,उनकी रहन−सहन,सामाजिक रूढ−परंपराएँ आदि सभी का चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में दृष्टिगोचर होता है. मारवाडी बणियों की विकास की दृष्टि सिर्फ धन कमाने की रही है. वे धन के बुते मिल रही सुख−सुविधाओं को ही विकास मानते है.नियति से संघर्ष करती विकासनीति का चित्रण बखुबी नजर आता है. “यह न आत्मकथा है और न परकथा.इस उपन्यास में कोई एक परिवार नहीं,इस में कुल है, कबीला है... संयुक्त परिवार है... मगर सब कुछ टूटता हुआ,उडती हुई रेत के ढूहे जैसे स्त्री−पुरूष और उनकी किरकिराती रेतीले क्षण... मगर एक चीख जो सबको जिंदा रखती है...वह है प्रेम.”9 अंतिम दशक में ‘हंस’ पत्रिका में मैत्रेयी पुष्पा का‘इदन्नमम्’ उपन्यास अंश के रूप में प्रकशित हुआ.बाद में संपूर्ण उपन्यास अंतिम दशक में ही प्रकशित हुआ. मैत्रेयी पुष्पा ने इस उपन्यास के माध्यम से हवन की वैदिक परंपरा को प्रस्तुति दी है. मठाधीशों की दुनिया का पर्दाफाश करता यह उपन्यास मंदाकिनी जैसी साहसी नारी का जीवन−चरित्र पाठकों के सामने रखता है.“हवन हो रहा है... हाँ, महराज का स्वर गुँज रहा है. भृगुदेव महाराज हर मंत्र के बाद‘इदन्नमम्’ बोलते हैं.क्या अर्थ है इसका ?... यह मेरा नहीं.जो कुछ मैं अर्पण कर रहा हूँ यह मेरा नहीं. भृगुदेव ऋषि वाणी में बोले.”10 कहना आवश्यक नहीं कि मैत्रेयी पुष्पा ने प्राचीन साधु−संतों की विकासशील दृष्टि को पाठकों के सामने रखा है. ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास ‘नरकयात्रा’अस्पताल के वातावरण पर व्यंग्य कसता है. डॉ.चौबे के माध्यम से पैसे को भगवान माननेवाले डॉक्टरों का पर्दाफाश करने में ज्ञान चतुर्वेदी जी सफल हुए दृष्टिगोचर होते है. विकास के लिए अस्पताल का वातावरण भ्रष्टाचार मुक्त रखने की माँग उपन्यास करता है.
सुरेंद्र वर्मा का‘मुझे चांद चाहिए’उपन्यास कलाजगत के संपूर्ण विश्व को पाठकों के सम्मुख रखता है.उपन्यास की नायिका वर्षा वशिष्ठ रंगमंचीय अनुभवों को अपने जीवन से जुडता देख परेशान थी.वर्णनात्मक शैली में लिखे गये इस उपन्यास में विकासोन्मुख कलाजगत का चित्रण किया है.शाहजहांपुर से बंबई(चित्रनगरी)तक वर्षा वशिष्ठ का सफर,मास्टर की बेटी वर्षा से कलाकार वर्षा,सर्वाधिक जीवंत पात्र के रूप में पाठकों से संवाद करती है. फिल्म पत्रकारिता का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते कलाकारों पर तिखा प्रहार करता यह उपन्यास भाषा विकास की दृष्टि से सफल रहा है.“वर्षा चमत्कृत हुई कि किसी व्यक्ति की इच्छा ऐसी सुविचारित हो सकती है, कोई अपनी दी गयी भौगोलिक सीमाओं के भीतर उपलब्ध स्रोतों के साथ इस तरह अपनी इच्छाओं का यथासंभव समन्वय कर सकता है. ऐसा व्यक्ति किस तरह संदेह एवं अश्चिय को परें हटाकर खुशियों की न्यूनतम गारंटी ले लेता है.”11 कहना उचित होगा कि ‘मुझे चांद चाहिए’उपन्यास कलाजगत का जनविकासोन्मुख नया रूप है. उपन्यासकार क्षितिज शर्मा का उपन्यास‘उकाव’ नायिका श्यामा के जीवन को चित्रित करते समय पर्वतीय महिलाओं की संघर्षगाथा को भी उजागर करता है.नारी संघर्ष की विकासभूमि की आत्मीय पडताल करता यह उपन्यास नव समाज निर्माण करने की माँग करता है.
विनोदकुमार शुक्ल−‘खिलेगा तो देखेंगे’,कृष्ण बलदेव वैद−‘नर−नारी’,अब्दुल बिस्मिलाह−‘मुखडा क्या देखे’,असगर वजाहत−‘सात आसमान’ जनचेतना का विकासात्मक रूप प्रमुखता से प्रस्तुत करते हैं.आदिवासियों में सामाजिक परिवर्तन की संभावनाएँ जगाता संजीव का उपन्यास ‘पांव तले की दूब’महत्त्वपूर्ण माना गया है. झारखंड पर अनेक उपन्यास लिखे गए परंतु आंदोलन और वह भी विकास की ओर बढता आंदोलन चित्रित करने में संजीव सफल हुए दृष्टिगोचर होते है.अलका सरवगी का उपन्यास‘कलि−कथा :वाया बाइपास’मारवाडी समाज की विकास यात्रा का कालचक्र प्रस्तुत करते समय किशोर बाबू के माध्यम से भारतीय मानसिकता की वास्तविक चित्र पाठकों के सामने रखता है. किशोर बाबू की कथा मारवाडी समाज की प्रचलित प्रथाओं को विरोध करती है, गांधीजी का विचार देती है.“इस धरती पर कहानियाँ अनंत हैं क्योंकि हर आदमी के अंदर उसकी दुनिया की बिलकुल अपनी एक कहानी हैं”12 नमिता सिंह का उपन्यास ‘अपनी सलीबें’विकसनशील मानवीय संवेदना प्रस्तुत करता है. साहित्यकारों का सच,साहित्यकार जो आदर्श बातें लिखते है, ठिक उसी तरह अपने जीवन में वह आदर्श बातें नहीं चाहते.साहित्यिक माफिया विश्व को प्रकाश मनु का उपन्यास‘कथा सर्कस’प्रस्तुत करता है.‘नरककुण्ड में बास’ जगदीश चंद्र जी का महत्त्वपूर्ण उपन्यास अंतिम दशक में ही प्रकाशित हुआ.
भूमिहीन मजदूरों के जीवन का परिदृश्य चित्रित करते समय एकदम उपेक्षित लोगों को विकास की राह पर लेकर आनेवाला यह उपन्यास अनमोल दस्तावेज के रूप में पाठकों से संवाद करता है.‘खिलेगा तो देखेंगे’ विनोदकुमार शुक्ल जी के उपन्यास में गुरूजी,मुन्नी−मुन्ना,कोटवार,थानेदार,जिवराखन सभी पात्र यथार्थ रूप में पाठकों से विचार−गोष्ठी करते है. पात्रों को सरलता से प्रस्तुत कर उपन्यास शैली में नवविकास की संकल्पना को शुक्लजी उजागर किया है.शिवप्रसाद सिंह जी के ‘शैलूष’ और ‘औरत’उपन्यास अंतिम दशक के प्रारंभ में ही चर्चित हुए थे. शिवप्रसाद सिंह की भाषा सशक्त रही है. विकासोन्मुख जीवन−मूल्यों की स्थापना करना सिंहजी का प्रमुख उद्देश्य रहा दृष्टिगोचार होता है. स्त्री मुक्ति को भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में पस्तुत करता कृष्णबलदेव वैद जी का उपन्यास ‘नर−नारी’ स्त्री−पुरूष संबंधों पर भाष्य करता है.उपन्यास का पात्र सागर प्रेम के बदलते स्वरूप की व्याख्या करता परिलक्षित होता है.अंतिम दशक के उपन्यासों में यथार्थ स्पष्टता से सामने आता है.भारतीय जनमानस का आर्थिक पक्ष अधिकता से आलोच्य हिंदी उपन्यासों में चित्रित हुआ है.
निष्कर्ष:–
अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास$ साहित्य में चित्रित जनविकासोन्मुख परिदृश्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि भारतीय सामाजिक विकास में हिंदी उपन्यास साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है. संपूर्ण हिंदी उपन्यास साहित्य में केंद्रीय स्थान मानव समाज के कष्टदायक जीवन को प्राप्त हुआ है. मानव−समाज के प्रगति का अध्ययन करने के लिए हिंदी उपन्यास साहित्य का आधार रूप में उपयोग हो रहा है.भविष्योन्मुखी भारतीय समाज हिंदी उपन्यास साहित्य का मुख्य कथारूप रहा दृष्टिगोचर होता है. वर्ग विभाजित समाज,सामंतीवादी समाज,दासमूलक समाज, पूँजीवादी समाज, श्रम बेचता अभिशप्त मजदूर समाज आदि सभी का चित्रण हिंदी उपन्यास साहित्य में हुआ है. अंतिम दशक के हिंदी उपन्यासों में जनविकासोन्मुख बदलाव अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होते हैं.
आम आदमी का विकास ही संपूर्ण मानव समाज का विकास माननेवाला हिंदी उपन्यास साहित्य अंतिम दशक में प्रकाशित हुआ.सर्वहारा वर्ग का चित्रण करनेवाले अनेक हिंदी उपन्यास अंतिम दशक की ही देन है. इसे मानना होगा.अंतिम दशक के उपन्यासकार जनविकास की परिभाषा देकर चुप नहीं बैठते,वह विकास की मूल संकलपना को पाठकों के सामने रखतें है. अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि जनविकासोन्मुख परिदृश्य का चित्रण करनेवाले चर्चित उपन्यासों में डूब− वीरेंद्र जैन,शहर में कर्फ्यू−विभूतिनारायण राय, एक जमीन अपनी,आवाँ−चित्रा मुदगल,पाहीघर−कमलाकांत त्रिपाठी,गगन घटा घहरानी−मनमोहन पाठक, जिंदा मुहावरें−नासिरा शर्मा,मुझे चाँद चाहिए−सुरेंद्र वर्मा,इदन्न्मम्−मैत्रेयी पुष्पा, सात आसमान−असगर वजाहत, कलिकथा:वाया बाइपास−अलका सरावगी,ऐलान गली जिंदा है−चंद्रकांता,छिन्नमस्ता,पिली आँधी−प्रभा खेतान, एक टुकडा धुप−उषा यादव आदि प्रमुख हैं.आलोच्य उपन्यासों में जनविकास का वैचारिक पक्ष प्रस्तुत हुआ है.उद्योगपति,साहूकार, व्यवसायिक,आधुनिक पूँजीपति,आधुनिक मजदूर,सर्वहारा वर्ग निर्माण की प्रक्रिया,पंडे पुजारी, किसान जीवन अंतिम दशक के उपन्यासों में बहुलता से प्रस्तुत हुआ है. आलोच्य उपन्यासों में आत्ममंथन की भावना का निर्वाह नजर आता है. इक्कीसवीं सदी की ओर बढते भारतीय समाज की सामाजिक, राजनैतिक.आर्थिक समस्याओं को हल करने के अनेक उपायों पर प्रकाश डालकर उपन्यासकार जनविकासोन्मुख परिदृश्य को पाठकों के सामने गुणात्मक रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए हुए परिलक्षित होते है.
संदर्भ – निदेश $Á−
1.डॉ.रणवीर रांग्रा− भारतीय उपन्यास, पृष्ठ−43
2.डॉ.तेज सिंह –राष्ट्रीय आंदोलन और हिंदी उपन्यास, पृष्ठ−243
3. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ जनवरी 1999, पृष्ठ−138
4. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ जनवरी 1991, पृष्ठ−80
5. संपादक मीरा गौतम−अंतिम दो दशकों का हिंदी−साहित्य, पृष्ठ−89
6. वही, पृष्ठ−95
7. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ जनवरी 1999, पृष्ठ−139
8. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ सितंबर 1993, पृष्ठ−78
9. प्रभा खेतान−पीली आँधी, फ्लैप से उधृत
10. मैत्रेयी पुष्पा−इदन्नमम्, पृष्ठ−91
11. सुरेंद्र वर्मा−मुझे चांद चाहिए, पृष्ठ−216
12. अलका सरावगी – कलि−कथा: वाया बाइपास,, , पृष्ठ−207
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डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण
सहायक प्राध्यापक
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
अहमदनगर महाविद्यालय,
अहमदनगर−414001 (महाराष्ट्र)
दूरभाष – 09850619074
E-mail - drsatappachavan@gmail.com
डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण
E-mail - drsatappachavan@gmail.com
भारतीय सामाजिक विकास में हिंदी उपन्यास साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है. संपूर्ण हिंदी उपन्यास साहित्य में केंद्रीय स्थान मानव समाज के कष्टदायक जीवन को प्राप्त हुआ परिलक्षित होता है. मानव−समाज के प्रगति का अध्ययन करने के लिए हिंदी उपन्यास साहित्य का आधार रूप में उपयोग हो रहा है. “भारतीय उपन्यास भले ही भिन्न−भिन्न भाषाओं में लिखा गया हो,उसकी अंतर्धारा एक है. उसकी दर्शनिक, सांस्कृतिक और सामजिक पृष्ठभूमि एक है. रंग−बिरंगे रूपाकारों में फल−फूल रही उसकी आत्मा एक है. यद्यपि प्रत्येक भाषा के उपन्यास−साहित्य की अपनी अलग पहचान है, अपना अलग व्यक्तित्व और वैशिष्टय भी है, फिर भी सब में कुछ ऐसी मौलिक समानताएँ हैं जो मिलकर उसे भारतीय उपन्यास का रूप देती है.”1
भारतीय उपन्यासकारों ने जनविकासोन्मुख परिदृश्य को हमारे सामने रखा है.वर्ग विभाजित समाज,सामंतीवादी समाज,दासमूलक समाज, पूँजीवादी समाज, श्रम बेचता अभिशप्त मजदूर समाज आदि सभी का चित्रण हिंदी उपन्यास साहित्य में हुआ है. अंतिम दशक के हिंदी उपन्यासों में जनविकासोन्मुख बदलाव अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होते हैं.आम आदमी का विकास ही संपूर्ण मानव समाज का विकास माननेवाला हिंदी उपन्यास साहित्य अंतिम दशक में प्रकाशित हुआ.
सर्वहारा वर्ग का चित्रण करनेवाले अनेक हिंदी उपन्यास अंतिम दशक की ही देन है. “प्रगतिशील उपन्यासकारों ने समजवाद में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्ष किया.ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए किसान−मजदूरों की एकता पर बल दिया और सामंती पूँजीवादी आर्थिक सामाजिक शोषण के खिलाफ किसान−मजदूरों के संघर्ष को अभिव्यक्ति दी. क्रांतिकारी चेतना के विकास में अपना योगदान दिया.सामाजिक−धार्मिक रूढियों−कुरीतियों पर तीखा प्रहार करते हुए जनता के जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष किया. सामाजिक आर्थिक समानता का नारा बुलंद किया”2 कहना सही होगा कि सभी प्रगतिशील उपन्यासकारों ने जनविकास की बात अपने उपन्यास साहित्य में की है. भारतीय विकासनीति में उपन्यास साहित्य केंद्र में रहा है. विकास वह भी सिर्फ जनविकास ही हिंदी उपन्यास साहित्य का आधार रहा है. जनविकास की परिभाषा देकर उपन्यासकार चुप नहीं बैठते,वह विकास की मूल संकलपना को पाठकों के सामने रखतें है.
बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों पर अंतिम दशक में लंबी बहस चली, हंस पत्रिका ने बीसवीं शताब्दी के चुने हुए पच्चीस उपन्यासों की सूची प्रकाशित कर इस सूची को बढाने−घटाने का अधिकार पाठकों को दे दिया.“1.गोदान−प्रेमचंद(1936), 2.त्यागपत्र−जैनेंद्र कुमार(1937),3.शेखर एक जीवनी−अज्ञेय(भाग दो 1941−44),4.झूठा सच−यशपाल(1958), 5.बाणभट्ट की आत्मकथा−हजारीप्रसाद द्विवेदी(1946),6.मैला आंचल−फणिश्वरनाथ रेणु (1954),7.बूँद और समुद्र−अमृतलाल नागर(1956),8.जहाज का पंछी−इलाचंद्र जोशी− (1956),9.चित्रलेखा−भगवतीचरण वर्मा(1934),10.राग दरबारी−श्रीलाल शुक्ल(1968), 11. आधा गांव−राही मासूम रजा(1968),12.उसका बचपन−कृष्ण बलदेव वैद(1957),13.सूरज का सातवाँ घोडा−धर्मवीर भारती(1952),14.गिरती दिवारें−उपेंद्रनाथ अश्क(1952), 15.मित्रों मरजानी−कृष्णा सोबती(1967), 16.सूखा बरगद−मंजूर एहतेशाम(1986), 17.धरती धन न अपना−जगदीशचंद्र(1972),18.नौकर की कमीज−विनोद कुमार शुक्ल(1979),19.कुरू कुरू स्वाह मनोहरश्याम जोशी(1980),20.गडकुण्डार−वृंदावनलाल वर्मा(1929),21.मुर्दों का टीला− रांगेय राघव(1957),22.आपका बंटी−मन्नू भंडारी(1968),23.मुर्दाघर−जगदंबा प्रसाद दीक्षित (1974),24. सारा आकाश−राजेंद्र यादव(1952),25.डूब−वीरेंद्र जैन(1991)”3 ‘हिंदी उपन्यास: एक सदी’शीर्षक से प्रकाशित ‘हंस’ के विशेषांक में छ्पी उपर्युक्त सूची विवेकशील अध्ययन का उदाहरण है.बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक दशक का एकमात्र उपन्यास‘डूब’ (वीरेंद्र जैन) का विचार प्रस्तुत सूची में हुआ है.अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि जनविकासोन्मुख परिदृश्य का चित्रण करनेवाले चर्चित उपन्यासों में डूब− वीरेंद्र जैन,शहर में कर्फ्यू−विभूतिनारायण राय, एक जमीन अपनी,आवाँ−चित्रा मुदगल,पाहीघर−कमलाकांत त्रिपाठी,गगन घटा घहरानी−मनमोहन पाठक, जिंदा मुहावरें−नासिरा शर्मा,मुझे चाँद चाहिए−सुरेंद्र वर्मा,इदन्न्मम्−मैत्रेयी पुष्पा, सात आसमान−असगर वजाहत, कलिकथा:वाया बाइपास−अलका सरावगी,ऐलान गली जिंदा है−चंद्रकांता,छिन्नमस्ता,पिली आँधी−प्रभा खेतान, एक टुकडा धुप−उषा यादव आदि प्रमुख हैं.आलोच्य उपन्यासों में जनविकास का वैचारिक पक्ष प्रस्तुत हुआ है.उद्योगपति,साहूकार, व्यवसायिक,आधुनिक पूँजीपति,आधुनिक मजदूर,सर्वहारा वर्ग निर्माण की प्रक्रिया,पंडे पुजारी, किसान जीवन अंतिम दशक के उपन्यासों में बहुलता से प्रस्तुत हुआ है.
ग्रामीण एवं नगरीय समाज का विकास प्रस्तुत करते समय अंतिम दशक के उपन्यासकारों ने किसानों,मजदूरों के दरिद्र−दारूणमय जीवन को प्रमुखता से रेखांकित किया है.आम आदमी के जीवन का विकासोन्मुख चित्र आलोच्य उपन्यासों में रहा है.“ ‘एक जमीन अपनी’ मध्यवर्गीय नजरिये से मध्यवर्गीय यथार्थ की प्रस्तुतिहै.बीच के मरेल पर जीते−रहने वालों की सोच और संवेदना की तमाम सीमाएँ और संभावनाएँ यहाँ मौजूद है. ”4 उपन्यास की नायिका अंकिता का जीवन अपेक्षाकृत अधिक सहानुभूति के साथ प्रस्तुत हुआ है.अंकिता के व्यक्तिगत जीवन को प्रस्तुति देने के साथ विज्ञापन संस्कृति पर प्रहार,सामाजिक संबंधों में बिखराव,कला के प्रति लोगों में आस्था का भाव न रहना आदि का चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में चित्रा मुदगलजी ने किया है.नीता का अपनी बेटी मानसी को अंकिता को सौंपना उपन्यास में समाज विकासोन्मुख बात लगती है.“बीसवीं शती का अंतिम चरण भारतीय इतिहास का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मोड है. इस उथल−पुथल के हम स्वयं साक्षी है. राजनीतिक अस्थिरता के झोंके से देश के जन−मन में हाल में मिली आजादी के प्रति नया उत्साह जगा है. क्या विविध वर्ग और क्या व्यक्ति सभी अपने−अपने अस्तित्व की पहचान स्थापित करने के लिए व्यग्र हैं.... इस युग में वैज्ञानिक शोधों का प्रतिफल, तकनीकी प्रगति की चारों ओर धूम है. जिस प्रगति की चारों ओर धूम है. जिस प्रगति की हम आगामी एक शताब्दी में कठिनाई से कल्पना कर पाते,वह कुछ ही दशकों में साक्षात हमारे द्वार पर बिना खटखटाए,चारों ओर छा गई है. अदभुत चमत्कार ! इस के साथ मीडिया−संचार−साधनों ने पूरे जीवन पर दखल कर लिया है−रेडियो, फोन, टी.वी.,इंटरनेट,पत्र−पत्रिकाओं आदि सभी हमारें जीवन के सहज अंग हो चलें है. औद्योगीकरण और व्यवसाय ने नई करवट ली है. देश की चहारदीवारियों को लाँघकर आज भूमंडलीकरण की धूम है. इस बदलाव से समाज के एक वर्ग में नव−संपन्नता का दौरदौरा आया है, और दूसरी ओर जो गरीबी और आर्थिक पिछडेपन की जद में हैं, वहीं घिरें मार खा रहें हैं”5 अंतिम दशक के विवेच्य उपन्यासों में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का चित्रण हुआ है. किसानों−मजदूरों की आर्थिक विपन्नता,शहरी मजदूरों की स्थिति, मूलतः गाँव से भागकर शहर में आए श्रमिकों का जीवन,बेगार जिंदगी का चित्रण करने में अंतिम दशक के उपन्यासकार सफल हुए दृष्टिगोचर होते है.
बदलता सामाजिक परिदृश्य,दुख,जोखिम,संघर्ष और टकराव की स्थिति तकनीकी विकास के कारण बढ रही है. तकनीकी विकास आम जनता को अपना विकास लगने लगा. घर−परिवार की बातें लुप्त हुई.दबावजन्य राजनैतिक परिस्थिति का जन्म अंतिम दशक की ही देन है. मीडिया का प्रभाव गंभीर रचनाकारों पर भी पडा जो दृश्य−श्रव्य मीडिया के लिए लिखे साहित्य में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है.
विवेच्य उपन्यासों में वर्तमान मानवी जीवन के विकासोन्मुख परिदृश्य को चित्रित किया है.फिर भी विकास के साथ−साथ आनेवाली अनेक त्रासदीपूर्ण परिस्थितियों को प्रस्तुत करने में उपन्यासकार सफल हुए परिलक्षित होते है.“वीरेंद्र जैन का उपन्यास ‘डूब’ सर्वाधिक उल्लेखनीय है. इसमें एक गाँव के बसने तथा वहाँ के प्रमुख चरित्रों का सजीव इतिहास है. प्रदेश की सरकार की बाँध बनाने की योजना से गाँव किस प्रकार ‘डूब’ क्षेत्र में आकर लुटता और नष्ट−भ्रष्ट होता है.आज की योजनाओं के अँधेरे पक्ष को उपन्यास खूबी से उभारता है.”6 ग्रामीण विकास की अनेक योजनाएँ ग्रामीण समाज को विस्थापित करती नजर आती है.अतः ग्रामीण समाज विस्थापन नहीं चाहता. ‘डूब’ उपन्यास में बिजली परियोजना का विरोध करता ग्रामीण समाज वैज्ञानिक विकास चाहता है लेकिन विस्थापन के साथ आनेवाला विकास वह नहीं चाहता.“उपन्यास जिस में विस्थापन से डरा और शोषण के विभिन्न रूपों से आतंकित ग्रामीण समाज,बिजली परियोजना जैसे वैज्ञानिक विकास का विरोध करने को बाध्य हो जाता है. इसका कारण कहीं यह तो नहीं कि हमने एक−दूसरे की संवेदना, उनके मर्म,उनकी बात आदि को सुनना,समझना और स्पर्श को महसूस करना भूला दिया है ? ”7 कहना सही होगा कि विकास के नाम पर हो रही कुंठाजन्य त्रासदी को‘डूब’ में प्रस्तुति मिली है.
प्रभा खेतान का उपन्यास‘छिन्नमस्ता’ स्त्री जीवन का दुख प्रस्तुत करता है. नायिका प्रिया के जीवन का सत्य प्रस्तुत करता यह उपन्यास विषयवस्तु की दृष्टि से सशक्त नजर आता है. शो−पीस बनती स्त्री का चित्रण‘छिन्नमस्ता’ में दृष्टिगोचर होता है. नारी विकास को संपूर्ण समाज आवश्यक मानता है. फिर भी घर−परिवार,सार्वजनिक स्थान पर नारी के साथ न्यायोचित व्यवहार नहीं होता.अपने बलबूते पर आगे बढनेवाली नारी को कटु अनुभवों से गुजरना पडता है.“एकदम बंद मारवाडी समाज की कुंठित−प्रताडित लडकी सिर्फ अपने बूते पर कैसे बुद्धि−मन विकसित करती हैं,बाद में अपना अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और स्वतंत्र व्यक्तित्व भी−‘अप्पदीपोभव’ की परंपरा की यह कथा इसी का दार्शनिक ग्राफखींचती है.”8 प्रभा खेतान का ‘पीली आँधी’उपन्यास अंतिम दशक का ही उपन्यास है.‘पीली आँधी’उपन्यास सामंती व्यवस्था के खिलाफ महिलाओं द्वारा किया विरोध दर्शाता है. दकियानूसी रूढ−परंपरओं का विरोध करती सोमा नई पीढी का प्रतिनिधित्व करती है. संयुक्त परिवार का विघटन,विधवा−जीवन,महिलाओं का चारदीवारीवाला जीवन‘पीली आँधी’उपन्यास में चित्रित हुआ है. बणियों की जीवन पद्धति,उनकी रहन−सहन,सामाजिक रूढ−परंपराएँ आदि सभी का चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में दृष्टिगोचर होता है. मारवाडी बणियों की विकास की दृष्टि सिर्फ धन कमाने की रही है. वे धन के बुते मिल रही सुख−सुविधाओं को ही विकास मानते है.नियति से संघर्ष करती विकासनीति का चित्रण बखुबी नजर आता है. “यह न आत्मकथा है और न परकथा.इस उपन्यास में कोई एक परिवार नहीं,इस में कुल है, कबीला है... संयुक्त परिवार है... मगर सब कुछ टूटता हुआ,उडती हुई रेत के ढूहे जैसे स्त्री−पुरूष और उनकी किरकिराती रेतीले क्षण... मगर एक चीख जो सबको जिंदा रखती है...वह है प्रेम.”9 अंतिम दशक में ‘हंस’ पत्रिका में मैत्रेयी पुष्पा का‘इदन्नमम्’ उपन्यास अंश के रूप में प्रकशित हुआ.बाद में संपूर्ण उपन्यास अंतिम दशक में ही प्रकशित हुआ. मैत्रेयी पुष्पा ने इस उपन्यास के माध्यम से हवन की वैदिक परंपरा को प्रस्तुति दी है. मठाधीशों की दुनिया का पर्दाफाश करता यह उपन्यास मंदाकिनी जैसी साहसी नारी का जीवन−चरित्र पाठकों के सामने रखता है.“हवन हो रहा है... हाँ, महराज का स्वर गुँज रहा है. भृगुदेव महाराज हर मंत्र के बाद‘इदन्नमम्’ बोलते हैं.क्या अर्थ है इसका ?... यह मेरा नहीं.जो कुछ मैं अर्पण कर रहा हूँ यह मेरा नहीं. भृगुदेव ऋषि वाणी में बोले.”10 कहना आवश्यक नहीं कि मैत्रेयी पुष्पा ने प्राचीन साधु−संतों की विकासशील दृष्टि को पाठकों के सामने रखा है. ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास ‘नरकयात्रा’अस्पताल के वातावरण पर व्यंग्य कसता है. डॉ.चौबे के माध्यम से पैसे को भगवान माननेवाले डॉक्टरों का पर्दाफाश करने में ज्ञान चतुर्वेदी जी सफल हुए दृष्टिगोचर होते है. विकास के लिए अस्पताल का वातावरण भ्रष्टाचार मुक्त रखने की माँग उपन्यास करता है.
सुरेंद्र वर्मा का‘मुझे चांद चाहिए’उपन्यास कलाजगत के संपूर्ण विश्व को पाठकों के सम्मुख रखता है.उपन्यास की नायिका वर्षा वशिष्ठ रंगमंचीय अनुभवों को अपने जीवन से जुडता देख परेशान थी.वर्णनात्मक शैली में लिखे गये इस उपन्यास में विकासोन्मुख कलाजगत का चित्रण किया है.शाहजहांपुर से बंबई(चित्रनगरी)तक वर्षा वशिष्ठ का सफर,मास्टर की बेटी वर्षा से कलाकार वर्षा,सर्वाधिक जीवंत पात्र के रूप में पाठकों से संवाद करती है. फिल्म पत्रकारिता का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते कलाकारों पर तिखा प्रहार करता यह उपन्यास भाषा विकास की दृष्टि से सफल रहा है.“वर्षा चमत्कृत हुई कि किसी व्यक्ति की इच्छा ऐसी सुविचारित हो सकती है, कोई अपनी दी गयी भौगोलिक सीमाओं के भीतर उपलब्ध स्रोतों के साथ इस तरह अपनी इच्छाओं का यथासंभव समन्वय कर सकता है. ऐसा व्यक्ति किस तरह संदेह एवं अश्चिय को परें हटाकर खुशियों की न्यूनतम गारंटी ले लेता है.”11 कहना उचित होगा कि ‘मुझे चांद चाहिए’उपन्यास कलाजगत का जनविकासोन्मुख नया रूप है. उपन्यासकार क्षितिज शर्मा का उपन्यास‘उकाव’ नायिका श्यामा के जीवन को चित्रित करते समय पर्वतीय महिलाओं की संघर्षगाथा को भी उजागर करता है.नारी संघर्ष की विकासभूमि की आत्मीय पडताल करता यह उपन्यास नव समाज निर्माण करने की माँग करता है.
विनोदकुमार शुक्ल−‘खिलेगा तो देखेंगे’,कृष्ण बलदेव वैद−‘नर−नारी’,अब्दुल बिस्मिलाह−‘मुखडा क्या देखे’,असगर वजाहत−‘सात आसमान’ जनचेतना का विकासात्मक रूप प्रमुखता से प्रस्तुत करते हैं.आदिवासियों में सामाजिक परिवर्तन की संभावनाएँ जगाता संजीव का उपन्यास ‘पांव तले की दूब’महत्त्वपूर्ण माना गया है. झारखंड पर अनेक उपन्यास लिखे गए परंतु आंदोलन और वह भी विकास की ओर बढता आंदोलन चित्रित करने में संजीव सफल हुए दृष्टिगोचर होते है.अलका सरवगी का उपन्यास‘कलि−कथा :वाया बाइपास’मारवाडी समाज की विकास यात्रा का कालचक्र प्रस्तुत करते समय किशोर बाबू के माध्यम से भारतीय मानसिकता की वास्तविक चित्र पाठकों के सामने रखता है. किशोर बाबू की कथा मारवाडी समाज की प्रचलित प्रथाओं को विरोध करती है, गांधीजी का विचार देती है.“इस धरती पर कहानियाँ अनंत हैं क्योंकि हर आदमी के अंदर उसकी दुनिया की बिलकुल अपनी एक कहानी हैं”12 नमिता सिंह का उपन्यास ‘अपनी सलीबें’विकसनशील मानवीय संवेदना प्रस्तुत करता है. साहित्यकारों का सच,साहित्यकार जो आदर्श बातें लिखते है, ठिक उसी तरह अपने जीवन में वह आदर्श बातें नहीं चाहते.साहित्यिक माफिया विश्व को प्रकाश मनु का उपन्यास‘कथा सर्कस’प्रस्तुत करता है.‘नरककुण्ड में बास’ जगदीश चंद्र जी का महत्त्वपूर्ण उपन्यास अंतिम दशक में ही प्रकाशित हुआ.
भूमिहीन मजदूरों के जीवन का परिदृश्य चित्रित करते समय एकदम उपेक्षित लोगों को विकास की राह पर लेकर आनेवाला यह उपन्यास अनमोल दस्तावेज के रूप में पाठकों से संवाद करता है.‘खिलेगा तो देखेंगे’ विनोदकुमार शुक्ल जी के उपन्यास में गुरूजी,मुन्नी−मुन्ना,कोटवार,थानेदार,जिवराखन सभी पात्र यथार्थ रूप में पाठकों से विचार−गोष्ठी करते है. पात्रों को सरलता से प्रस्तुत कर उपन्यास शैली में नवविकास की संकल्पना को शुक्लजी उजागर किया है.शिवप्रसाद सिंह जी के ‘शैलूष’ और ‘औरत’उपन्यास अंतिम दशक के प्रारंभ में ही चर्चित हुए थे. शिवप्रसाद सिंह की भाषा सशक्त रही है. विकासोन्मुख जीवन−मूल्यों की स्थापना करना सिंहजी का प्रमुख उद्देश्य रहा दृष्टिगोचार होता है. स्त्री मुक्ति को भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में पस्तुत करता कृष्णबलदेव वैद जी का उपन्यास ‘नर−नारी’ स्त्री−पुरूष संबंधों पर भाष्य करता है.उपन्यास का पात्र सागर प्रेम के बदलते स्वरूप की व्याख्या करता परिलक्षित होता है.अंतिम दशक के उपन्यासों में यथार्थ स्पष्टता से सामने आता है.भारतीय जनमानस का आर्थिक पक्ष अधिकता से आलोच्य हिंदी उपन्यासों में चित्रित हुआ है.
निष्कर्ष:–
अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास$ साहित्य में चित्रित जनविकासोन्मुख परिदृश्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि भारतीय सामाजिक विकास में हिंदी उपन्यास साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है. संपूर्ण हिंदी उपन्यास साहित्य में केंद्रीय स्थान मानव समाज के कष्टदायक जीवन को प्राप्त हुआ है. मानव−समाज के प्रगति का अध्ययन करने के लिए हिंदी उपन्यास साहित्य का आधार रूप में उपयोग हो रहा है.भविष्योन्मुखी भारतीय समाज हिंदी उपन्यास साहित्य का मुख्य कथारूप रहा दृष्टिगोचर होता है. वर्ग विभाजित समाज,सामंतीवादी समाज,दासमूलक समाज, पूँजीवादी समाज, श्रम बेचता अभिशप्त मजदूर समाज आदि सभी का चित्रण हिंदी उपन्यास साहित्य में हुआ है. अंतिम दशक के हिंदी उपन्यासों में जनविकासोन्मुख बदलाव अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होते हैं.
आम आदमी का विकास ही संपूर्ण मानव समाज का विकास माननेवाला हिंदी उपन्यास साहित्य अंतिम दशक में प्रकाशित हुआ.सर्वहारा वर्ग का चित्रण करनेवाले अनेक हिंदी उपन्यास अंतिम दशक की ही देन है. इसे मानना होगा.अंतिम दशक के उपन्यासकार जनविकास की परिभाषा देकर चुप नहीं बैठते,वह विकास की मूल संकलपना को पाठकों के सामने रखतें है. अंतिम दशक के हिंदी उपन्यास साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि जनविकासोन्मुख परिदृश्य का चित्रण करनेवाले चर्चित उपन्यासों में डूब− वीरेंद्र जैन,शहर में कर्फ्यू−विभूतिनारायण राय, एक जमीन अपनी,आवाँ−चित्रा मुदगल,पाहीघर−कमलाकांत त्रिपाठी,गगन घटा घहरानी−मनमोहन पाठक, जिंदा मुहावरें−नासिरा शर्मा,मुझे चाँद चाहिए−सुरेंद्र वर्मा,इदन्न्मम्−मैत्रेयी पुष्पा, सात आसमान−असगर वजाहत, कलिकथा:वाया बाइपास−अलका सरावगी,ऐलान गली जिंदा है−चंद्रकांता,छिन्नमस्ता,पिली आँधी−प्रभा खेतान, एक टुकडा धुप−उषा यादव आदि प्रमुख हैं.आलोच्य उपन्यासों में जनविकास का वैचारिक पक्ष प्रस्तुत हुआ है.उद्योगपति,साहूकार, व्यवसायिक,आधुनिक पूँजीपति,आधुनिक मजदूर,सर्वहारा वर्ग निर्माण की प्रक्रिया,पंडे पुजारी, किसान जीवन अंतिम दशक के उपन्यासों में बहुलता से प्रस्तुत हुआ है. आलोच्य उपन्यासों में आत्ममंथन की भावना का निर्वाह नजर आता है. इक्कीसवीं सदी की ओर बढते भारतीय समाज की सामाजिक, राजनैतिक.आर्थिक समस्याओं को हल करने के अनेक उपायों पर प्रकाश डालकर उपन्यासकार जनविकासोन्मुख परिदृश्य को पाठकों के सामने गुणात्मक रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए हुए परिलक्षित होते है.
संदर्भ – निदेश $Á−
1.डॉ.रणवीर रांग्रा− भारतीय उपन्यास, पृष्ठ−43
2.डॉ.तेज सिंह –राष्ट्रीय आंदोलन और हिंदी उपन्यास, पृष्ठ−243
3. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ जनवरी 1999, पृष्ठ−138
4. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ जनवरी 1991, पृष्ठ−80
5. संपादक मीरा गौतम−अंतिम दो दशकों का हिंदी−साहित्य, पृष्ठ−89
6. वही, पृष्ठ−95
7. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ जनवरी 1999, पृष्ठ−139
8. संपादक राजेंद्र यादव−‘हंस’ सितंबर 1993, पृष्ठ−78
9. प्रभा खेतान−पीली आँधी, फ्लैप से उधृत
10. मैत्रेयी पुष्पा−इदन्नमम्, पृष्ठ−91
11. सुरेंद्र वर्मा−मुझे चांद चाहिए, पृष्ठ−216
12. अलका सरावगी – कलि−कथा: वाया बाइपास,, , पृष्ठ−207
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डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण
सहायक प्राध्यापक
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
अहमदनगर महाविद्यालय,
अहमदनगर−414001 (महाराष्ट्र)
दूरभाष – 09850619074
E-mail - drsatappachavan@gmail.com
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