आलेख यह ‘ दौड़ ’ कहाँ तक है ? लंबोधरन पिल्लै . बी ‘ दौ ड़ ’ श्रीमती ममता कालिया की एक चर्चित लघु उपन्यास है, जिसकी प्रकाशन 2000 ...
आलेख
यह ‘दौड़’ कहाँ तक है ?
लंबोधरन पिल्लै. बी
‘दौड़’ श्रीमती ममता कालिया की एक चर्चित लघु उपन्यास है, जिसकी प्रकाशन 2000 में हुई थी I
श्रीमती ममता कालिया आधुनिक हिन्दी के सशक्त आवाज़ है I उनकी जन्म 2 नवंबर 1940 में वृन्दावन पर हुई थी I छुटकारा, उसका यौवन, जाँच अभी जारी है, प्रतिदिन आदि कहानियाँ, बेघर, नरक दर नरक, प्रेम कहानी, एक पत्नी के नोट्स और ‘दौड़’ आदि ममताजी के प्रमुख रचनायें है I
‘दौड़’ हिन्दी का ऐसा एक उपन्यास है, जो कलेवर में छोटा- 88 पन्ने की यह लघु उपन्यास हमारे समक्ष कुछ मज़बूत समस्याओं और सवालों को उपस्थित करते है I इकीसवीं शती में
हमारे समाज में उठ खडा हुआ विषय, भूमंडलीकरण और औद्योगिकरण इस उपन्यास का विषय बन गया है I अन्य देशों के नयी पीढि को यह नया विचार धारा पहले आकर्षित किया था I भारत पर धीरे धीरे इसका आगमन हुआ I पैसा कमाने का आसान रास्ता विदेश के नौजवानों को हठाकर्षित करने के समान भारत के आधुनिक पीढि को भी खींच लिया I पशिचम देशों के व्यापार-मनस्क लोगों के मन-मस्तिष्क से उपज कर आया भूमंडलीकरण के पीछे यहाँ के युवक आँखें मूँदकर, तन-मन-धन को भूलकर अपना ‘दौड़’ शुरु किया I इस ‘दौड़’ का आँखों देखा वर्णन यह लघु उपन्यास को प्रौढ बना देता है I भूत तथा वर्तमान काल को पूर्ण रूप में त्यजकर शुरु किया गया यह ‘दौड़’ थोडी समय के भीतर हमारे युवकों में कुछ के आर्थिक स्थिति को सुधार कर दिया अवश्य, किन्तु इसने हमारी परंपरागत सभ्यता एवं संस्कृति पर बडा चोट भी पहुंचाया है I नये ढंग के रोज़गार का रास्ता युवकों के सामने खुल गये तो उसके आगे और पीछे के सब अच्छाइयाँ उनके पास से छिप भी गयी I
भूमंडलीकरण और औद्योगिकरण हमारे युवकों को कृषि के जैसे परंपरागत नौकरियों से हटाकर नया सपना देखने को प्रेरित कर दिया I एक ज़माना था तब युवकों को किसी प्रकार परीक्षा लिखकर डाक्टर, इंजिनीयर, कलक्टर, पुलीस अधिकारी या कम से कम सरकारी क्लार्क बन जाने का मोह था I भूमंडलीकरण ने इस आग्रह को निष्कासित कर भारतीय युवकों में अधिकाँशों को ‘मल्टी नॉशनल कंपनियों’ की पकड पर पहुँचा दिया I आर्थिक उदारीकरण ने संसार के बडे बडे बाज़ारों के समान भारतीय बाज़र को भी मज़बूत बनाया I आधुनिकता के लॉबल में भारत पर आया यह ‘दौड़’ इधर एक ज़बर्दस्त परिवर्तन को लाया है I इसका परिणाम यह हुआ है कि बच्चों को अपने माँ-बाप तक पराया लगने लगा I युव वर्ग सामाजिक, साँस्कृतिक, राजनैतिक, पारिवारिक और परंपरागत रीति-रिवाज़ों एवं संबंधों से अलग होकर आप और अपनी कंपनी तथा अपना कंप्यूटर के सीमा रेखा के भीतर नियंत्रित करा दिया I अपनी जीवन अपनी संपत्ति है जिस पर माँ हो या बाप, किसी को भी तनिक भी स्थान नहीं है- ऐसा एक चिंता युवकों के मन पर बढ गया I वह अपना जीवन अपनी इच्छा के अनुसार जीना चाहता है I ‘दौड़’ में पवन ऐसा एक कथापात्र है, जो भूमंडलीकरण और औद्योगिकरण के अनुसार स्व जीवन को परिवर्तित कर दिया भारतीय युवकों का प्रतिनिधि है I
‘दौड़’ का पवन हो या सघन, हमारी आदर्शनिष्ठ युवकों के नमूना नहीं बन सकते है I उनके बारे में उपन्यासकार की मत विचारणीय है-' पवन और सघन व्यवसायिकता और आजीविकतावाद के दौर के, जब अत्यंत कठिन हो गया, संवेदनशून्य और मूल्यहीन हो गया, उस दौर के चरित्र है और हिन्दी कथा साहित्य में ये नया चरित्र है I बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जुडे भारतीय चरित्र है ये I ध्यान देन की बात यह है कि इनके माता-पिता भी भारतीय समाज में कोई पुरातनपंथी और रूढिवादी चरित्र नहीं है, वे देहाती नहीं है I किसी ज़माने में पूर्व का आक्सफोर्ड समझे जाने वाले शहर इलाहाबाद में रहते है लेकिन इस दौर में इलाहाबाद पुराना पड चुका है I प्रेमचंद, नागार्जुन और रेणु के गाँव से तो तुलना का प्रसंग ही नहीं आता 'I यह सब घटनाएँ भूमंडलीकरण, औद्योगिकरण और बाज़ारवाद का आगमन का अच्छाई है या बुराई, यह चर्चा करके निर्णय लेने का दायित्व हमारे समाज को होता है I
पवन एक शिक्षित युवक है जो मल्टि नॉशनशल कंपनियों में स्व जीवन को पूर्ण रूपेण समर्पित किये गये भारतीय युवत्व की प्रतीक है I पवन आधुनिकता का प्रतिनिधि कथापात्र है I इस ज़माने का उपज, ‘दौड़’ में अपना भूमिका निभानेवाला युवक I रेखा और राकेश उनके माता-पिता है I हमारे यहाँ के माँ-बाप अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दे कर उसकी जीवन को सुख संपन्न व समृद्ध बना देती है I पवन के माँ-बाप भी बेटे को एं.बी.ए.पढाकर अपने शहर पर बिठाना चाहता है I किंतु वह तात्कालिक सुख-सुविधा की मायाजाल पर पडकर माँ-बाप के मोह-संकल्प से विरक्त इतने आगे दौड़ते है कि उन्हें पकडना उसे संभव नहीं हो सकता है ।
भूमंडलीकरण के जंजाल पर पडने वाले आदमियों में अधिकाँश हर प्रकार की सामाजिक संबंधों को अनावश्यक और अनर्थ समझने वाले है I उनका स्वर्ग या नरक कंपनी की सीमित कमरा व कार्यक्षेत्र पर जुड सकती है I जैसे मशीन हो, वैसे जीना पडता है I ‘दौड़’ की प्रथम भाग का दूसरा खंड देखिये- ' बिजली के रहता यह छोटा-सा कक्ष उस (पवन) का साम्राज्य होता है I थोडी देर में आँख अंधेरे की अभ्यस्त हुई तो मेज़ पर माउस भी नज़र आया I वह भी अचल था I पवन को हँसी आ गई, नाम के चूहे पर कोई चपलता नहीं I बिजली के बिना यह ल्पास्टिक का नन्हा-सा खिलौना है बस I बोलो चूहे कुछ भी तो करो, चूँ-चूँ ही सही,' उसने कहा I चूहा फिर भी बेजान पडा रहा 'I वस्तव में आजकल कंप्युटर का चूहा नहीं, उसके आगे घंटों तक बैठने वाले हमारे नयी पीढि भी बेजान पडा रहता है I कंप्यूटर मनुष्य निर्मित एक मशीन है, उसे जीवन नहीं, मनुष्य को जीवन है I अधिकाँश लोग इस सत्य को भूल सकता है I
आदमी चिडिया नहीं है I पंछियों को पंक होते है I यह सत्य जानकर भी हमारे नौजवान स्वप्न रूपी पंखों द्वारा उठता है I विद्यार्थी काल से वे अपने संकल्पों की पंखों द्वारा राज्य, राष्ट्र और अंतरराष्ट्र स्तर पर उठना चाहते है I इस उठान से उन्हें लाभ मिलता है या नष्ट, निर्णय करने केलिये उसे फुर्सत नहीं है I कम जीवन अनुभवियों की यह ‘दौड़’ अच्छा है या बुरा, भोगने वाला इसका निर्णय कर लें I उपन्यास की ओर देखिये-' यह ठीक है कि पवन घर से अठारह सौ किलोमीटर दूर आ गया है I पर एं.बी.ए.के बाद कहीं-न-कहीं तो उसे जाना ही था I उसके माता-पिता अवश्य चाहते थे कि वह वहीं उनके पास रहकर नौकरी करे । पर उसने कहा-' यहाँ मेरे लायक सर्विस कहाँ ? यह तो बेरोज़गारों का शहर है I ज़्यादा-से ज़्यादा नूरानी तेल की मार्केटिंग मिल जाएगी 'I माँ-बाप समझ गये थे कि उनका शिखरचुभ्बी बेटा कहीं और बसेगा 'I आजिविकावाद या कैरियऱिज़्म हमारे पारिवारिक संबंधों की आत्मीय भाव एवं कुडुम्ब जीवन की तालात्मकता को नष्ट भ्रष्ट कर दिया है I इसने पवन को कितना संवेदनहीन बना दिया कह नहीं सकता I यह अकस्मिक एक छोटा घटना नहीं है I
माँ-बाप बुढापे में अपनी संतानों की सामिप्य चाहती है I आधुनिक व्यवसायिक जीवन जगत् में बच्चे उनसे अलग होकर दूर-विदूर पर रहते समय उनके माता पिता कभी कभी अनाथालय पर रहना पडते है I वे अपनी विधि पर कोसती नहीं I भगवान से बच्चों के दीर्घायु का निवेदन करते हुए शेष जीवन व्यतीत करता है I वर्तमान काल तेज़ी से चल रही है I इधर किसी को भी समय नहीं है I इसलिए चारों ओर ‘दौड़’ दिखायी पडती है I सर्वप्रथम स्थान पाने की व्यग्रता में हम से सब प्रकार की नैतिक मूल्य छूट जाती है I दौड़ने वालों का ध्यान भूतकाल और वर्तमान काल पर नहीं पडता, हर दृष्टि भविष्य पर केन्द्रित है I
'बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के तीन जादुई अक्षरों ने बहुत से नौजवानों के जीवन और सोच का दशा ही बदल डाली थी I ये तीन अक्षर थे- एं.बी.ए.I नौकरियों में आरक्षण की आँधी से सकपकाए सवर्ण परिवार धडाधड अपने बेटे-बटियों को एम.बी.ए. में दाखिल होने की सलाह दे रहे थे' I यह व्यापार-व्यवसाय मनोभाव से हमें क्या मिला? हमारी साँस्कृतिक मूल्यों की अधःपतन की ओर ध्यान आकर्षित करती हुई पवन की माँ रेखा पूछती है -' पुन्नू यह सिलबिल-सी लडकी तुझे कहाँ मिल गई I …..मैंने तो कोई लडकी नहीं देखी जो शादी से पहले ही पति के घर में रहने लगे 'I वैवाहिक जीवन की निरर्थकता की ओर इशारा करने वाली ये बात श्रीमती ममता कालिया, रेखा के मुँह से कहलवाती है I ‘दौड़’ उपन्यास जिस समस्या प्रस्तुत करते है, उससे नौजवान सहमत नहीं होता है I यह लघु उपन्यास में भूमंडलीकरण, औद्योगिकरण और उदारीकरण की यथास्थिति वर्णन किया गया है I आदर्शहीनता के स्थान पर आदर्शनिष्ठा को प्रतिष्ठित करना साहित्यकारों का दायित्व है I
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लंबोधरन पिल्लै. बी
कॉयमबत्तूर करपगम विश्वविद्यालय में
प्रो.(डा.) के.पी.पद्मवती अम्मा के
मार्गदर्शन में पी.एच.डी. केलिए शोधरत
लंबोधरन पिल्लै.बी का जन्म 20 मई 1965 को कोट्टारकरा, कोल्लम, केरल में हुआ। पिता- कृष्ण पिल्लै एवं माता- भगीरथि अम्म। शिक्षा: एम.ए. हिन्दी, एम.फिल एवं करपगम विश्वविद्यालय (कोयम्बटूर) से पी.एच.डी (शोधरत)। सम्प्रति: प्रोफसर (हिंदी), एम.ए.एस. कालेज, मलप्पुरम, केरल। ई-मेल: blpillai987@gmail.com
Written by: Lembodharan Pillai. B, Research scholar, under the Guidance of Prof.(Dr.) K.P.Padmavathi Amma, Karpagam University, Coimbatore,
Tamil nadu, South India.
यह एक अच्छा आलेख है । लेखक और रचनाकार को हार्थिक शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएं- अमित शंकर,मु्ंबई