रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - हम हिन्दुस्तानियों की ट्रैफिक सेन्स

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व्यंग्य हम हिन्दुस्तानियों की ट्रैफिक सेन्स डॉ. रामवृक्ष सिंह इस आलेख में कुछ शब्द ठेठ चालू भाषा में यानी अंग्रेजी में हैं, ताकि पाठक को...

व्यंग्य

हम हिन्दुस्तानियों की ट्रैफिक सेन्स

डॉ. रामवृक्ष सिंह

इस आलेख में कुछ शब्द ठेठ चालू भाषा में यानी अंग्रेजी में हैं, ताकि पाठक को बिना जरा भी मेहनत किए पूरी बात समझ आ जाए। तो अपुन इन्डियन लोगों की ट्रैफिक सेन्स की बात कर रहे हैं। आप सबके मन में कभी न कभी यह बात जरूर आती होगी बल्कि अपने राष्ट्र के लोगों पर गर्व होता होगा कि हमारे महान राष्ट्र के लोगों का ट्रैफिक सेन्स ग़ज़ब का है। दुनिया के उन्नत राष्ट्रों का तो खैर पता नहीं, लेकिन इस उप महाद्वीप के बाकी देशों- पाकिस्तान, नेपाल, बांगलादेश आदि में भी कमोबेश यही स्थिति होगी, इसका हमें पक्का यकीन है, क्योंकि वे भी कहीं न कहीं इसी संस्कृति से जुड़े हैं और वहाँ के लोग भी इसी माटी में पले-बढ़े हैं।

सबसे पहले हम अपने देश की गाड़ियों के बाह्य रूपाकार को ही ले लें। हमारे देश की चौपहिया, दुपहिया सभी गाड़ियों के आगे-पीछे रजिस्ट्रेशन नम्बर चाहे न अंकित हो, किन्तु कुछ अतिरिक्त जानकारी जरूर अंकित रहती है। जैसे टैक्सी, ऑटो और किराए पर चलनेवाली बसों- ट्रकों आदि पर अकसर लिखा मिलेगा- सोनू ते मोनू दी गड्डी, पम्मी दी गड्डी आदि-आदि। ट्रकों पर तो ढेरों शेरो-शायरी के नमूने और दिल को छू जानेवाली ढेरों मर्मस्पर्शी उक्तियाँ लिखी दिख जाती हैं, जिनपर एक नहीं, कई-कई शोध-ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। बल्कि हम तो विश्वविद्यालयों के गुरु लोगों से अनुरोध करेंगे कि वे अपने होनहार और खोजी छात्रों को इन उक्तियों पर शोध करने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करें। यूजीसी भी इसके लिए शोध-वृत्ति निर्धारित कर दे, तो बहुत अच्छा रहेगा।

अतिरिक्त जानकारी वाली बात तो बीच में ही रह गई। तो चाहे भाड़े पर चलनेवाली हो या प्राइवेट हो, प्रायः हर गाड़ी पर रजिस्ट्रेशन नम्बर के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा रहता है, जिससे गाड़ी के सड़क पर आते ही आस-पास के लोगों और दूसरे वाहन-चालकों पर गाड़ी का रौब गालिब हो जाए। आगे से देखना शुरू करेंगे तो गाड़ी पर एक अदद झंडी या झंडा टँगा मिलेगा। आजकल अपने यूपी में साइकिल वाले हरे-लाल झंडों-झंडियों का प्रचलन जोरों पर है, दो साल पहले हाथी वाली नीली झंडियाँ ज्यादा दिखती थीं। गाड़ी के पीछे देखें तो किसी पर जिलाधीश कार्यालय, किसी पर डीएम ऑफिस, किसी पर हाई-कोर्ट, किसी पर अमुक-अमुक पंचायत, किसी पर अमुक-अमुक पार्टी के छात्र-नेता, किसी पर एडवोकेट, किसी पर पत्रकार, यानी तमाम जानकारी लिखी मिल जाएगी। भगवान जाने इससे सड़क के यातायात का क्या सम्बन्ध है। क्या यह सब लिखने-लिखवाने से गाड़ी की रफ्तार बढ़ जाती है, या वह पेट्रोल-डीज़ल कम पीने लगती है। यह भी हो सकता है कि ये सब इबारतें, यानी डीएम ऑफिस, हाई-कोर्ट आदि लिखी गाड़ियाँ (हम प्राइवेट गाड़ियों की बात कर रहे हैं) चलते-फिरते हाई-कोर्ट या डीएम ऑफिस ही हों। यदि हैं तो बहुत अच्छा, और यदि नहीं हैं, तो उन्हें होना चाहिए। या फिर इन इबारतों को उन पर से हटवा देना चाहिए। भारत सरकार, उत्तर प्रदेश शासन, मध्य प्रदेश शासन आदि लिखी गाड़ियाँ तो बहुत-सी दिखती हैं। इनमें से कितनी गाड़ियाँ इन सरकारों के नाम रजिस्टर्ड हैं, कितनी प्राइवेट हैं, यह खोजने व बताने का काम या तो पुलिस करे या संबंधित विभाग।

बहुत-से लोगों को बत्तियाँ और हूटर लगवाने और पूरे शहर, गाँव और देश को अपने वजूद से दहशतज़दा किए रहने का शौक है। शेर आ रहा है, गुर्रा रहा है, कुत्ते-बिल्ली-खरगोश, गाय-भैंस-गदहे सब रास्ता छोड़ो, वरना शेर तुम्हें खा जाएगा। उसके भेड़िए तुम्हारी बोटी-बोटी चीथ डालेंगे। हो सकता है, देश के कुछ लोगों को ऐसा करने का अधिकार हो। हमें नहीं मालूम, यदि ऐसा अधिकार किसी के पास है, तो बहुत अच्छी बात है। अपन के राम तो अपने बिल में दुबक जाएँगे, वह शान से निकल जाए। लेकिन यदि दूसरों का रक्त-चाप बढ़ाकर अपना रौब गालिब करने का अधिकार किसी के पास नहीं है, तो भइया हमें भी चैन से जीने दो यार, क्यों फालतू भौकाल बनाते हो?

अब बात करें, गाड़ियों के ह़ॉर्न व भोंपुओं की। हमने सुना है कि धरती के उन्नत राष्ट्रों में (जिनकी नकल करने में हम बड़ी शान समझते हैं) गाड़ी का हॉर्न बेवज़ह बजाना घोर असभ्यता समझा जाता है। अपने यहाँ तो बिना हॉर्न बजाए कोई गाड़ी चलती ही नहीं। जब देखो- पूँ-पूँ, पें-पें, भौं-भौं। लोग इतना हॉर्न बजाते हैं कि पूछिए मत। अपना तो यह मत है कि गाड़ी की वायरिंग में फैक्टरी से ही कुछ ऐसी व्यवस्था हो कि गाड़ी में चाभी लगाते ही हॉर्न बजना शुरू कर दे और जब तक गाड़ी चले, उसका हॉर्न लगातार बजता रहे। गाड़ी में बैठकर बार-बार हॉर्न बजाने का शौक पालनेवाले हमारे अति सभ्य वाहन-चालकों को हॉर्न बजाने के झंझट से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी। है न मस्त आइडिया!

भारत के अधिकतर राज्यों में पान और गुटका खाकर पीक उगलने की शानदार रवायत है। जो जितना बड़ा, रंगबाज टाइप का आदमी है, उसका यह शौक भी उतना ही अधिक मुखर और प्रकट है। इसलिए यह तो हो नहीं सकता कि वह सड़क पर अपनी बड़ी वाली लग्जरी गाड़ी या एसयूवी में चल रहा हो और थूके नहीं। थूकना तो उसकी शान-ओ-शौकत की निशानी है। अब वह कैसे थूकता है, यह उसके आस-पास चल रहे लोगों की किस्मत पर निर्भर करता है। वह चाहे तो गाड़ी का शीशा गिराकर पिच से बाहर थूक दे, चाहे तो अपनी ही गाड़ी के बाहरी हिस्से को धन्य कर दे और चाहे तो गाड़ी का दरवाज़ा खोले और सड़क की काली माँग को अपनी पीक के सिन्दूर से भरकर आपकी नगरिया व डगरिया को सुहागन बना दे। यह विशेषाधिकार तो उस रंगबाज हिन्दुस्तानी के पास ही है। हमें ऐसे भाई लोगों से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि शिकायत करके हम उनका कुछ बिगाड़ या उखाड़ तो सकते नहीं हैं। हमें तो बस सहना है, क्योंकि यही हमारे लिए शक्य है। हमारी तो ऐसी गाड़ियाँ बनानेवालों से बस एक छोटी-सी गुज़ारिश है। क्यों न गाड़ी कंपनियाँ ऐसे बड़े-बड़े पीकोत्पादक महानुभावों के पीक-संचयन अथवा पीक-उत्सर्जन के लिए गाड़ी में ही कोई इंतजाम कर देते? इतने शानदार-रौबदार लोगों को पीक उगलने के लिए इतनी मेहनत करनी पड़ती है, यह देखकर हमें अच्छा नहीं लगता। ऐसे लगता है, जैसे भगवान को अपनी बेशकीमती पीक अपने पूज्य मुखारविन्द से बाहर निकालने के लिए हम कीड़े-मकोड़ों जैसे आम आदमियों के लोक का रुख करना पड़ गया। बेहतर होगा कि ऐसे भगवान टाइप लोगों के लिए उनकी उस बैकुंठ-धाम टाइप गाड़ी में ही कोई व्यवस्था कर दी जाए। आशा है लग्ज़री गाड़ियाँ (और ऐसा शौक रखनेवाले लोगों द्वारा खरीदी जानेवाली गाड़ियाँ) बनानेवाली कंपनियाँ हमारी इस छोटी-सी प्रार्थना पर जरूर विचार करेंगी।

सड़क पर गाड़ी लेकर निकलिए तो जिन्दा, वन-पीस वापस लौट पाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं। ऐसा इसलिए नहीं कि आपकी वाहन-चालन शैली इतनी खराब है। ऐसा इसलिए कि बाकी के कुछ शोहदा-टाइप लोग जान हथेली पर लेकर और सिर पर कफन बाँधकर गाड़ी चलाते हैं। खासकर बाइक वाले नव-धनाढ्य घरों छोकरे। वे दुपहिया वाहनों को ऐसे दौड़ाते हैं, जैसे आज उनकी गाड़ी और उनकी खुद की जिन्दगी का आखिरी दिन है। इसके बाद पता नहीं मौका मिले या न मिले। अकसर छोकरों के पीछे नकाब बाँधे छोकरियाँ भी उनसे एकमेक हुई बैठी रहती हैं। तेज़ रफ्तार बाइकों पर हुईँ-शुईँ करते जब वे लहराते हुए, कट मारते हुए हमारे बगल से निकल जाते हैं, तो उन्हें चाहे जो अनुभूति होती हो, हमारी तो जान ही मुँह से बाहर निकल जाती है। फिर हम अपनी बाहर निकली हुई जान को धक्का मारके शरीर में वापस डालते हैं और शरीर का साथ छोड़ने पर आमादा आत्मा को समझाते हैं कि जमाना बहुत खराब आ गया है, चुपचाप अन्दर चलो, किसी तरह घर लौटो, वहाँ बीवी और बच्चे हमारे जिन्दा लौटने का इन्तजार कर रहे हैं। इन बाइक-धारी युवाओं के माँ-बाप से और खुद ऐसे युवाओं से कर-बद्ध निवेदन है कि ‘भइया, तुम मज़े लो। तुम्हारा तो इस मज़ा-लोक (जिसे पता नहीं किस पागल ने मृत्यु-लोक का नाम दे डाला है) अवतरण ही मज़े लेने के लिए हुआ है। हमें कब इनकार है इससे? पर हमें जी लेने दो यार, कुछ और दिन! हो सकता है तुम्हारे माँ-बाप गांधारी और धृतराष्ट्र की तरह सौ-सौ पुत्रों वाले हों। पर यार, हम तो अपनी पत्नी के अकेले ही पति और अपने दो बच्चों के अकेले ही बाप हैं। वे घर पर हमारा इन्तजार कर रहे हैं। कम से कम उनके लिए तो हमें अभी कुछ और दिन सही-सलामत, बिना अपाहिज हुए जीना और कमाना पड़ेगा। तुम अपनी छोकरी के साथ जाकर कहीं भी मौज करो, ऐश करो। पर हमारी जान बख्श दो। प्लीज... बड़ी मेहरबानी होगी तुम्हारी।‘

और एक आखिरी बात.. फिर से वाहन-निर्माताओं के लिए। हम देखते हैं कि गाड़ियों के बाह्याकार, यानी उनके रंग-रोगन, डेंटिंग-पेंटिंग पर गाड़ी-स्वामियों को काफी खर्चा करना पड़ता है। अपने लोगों को सड़क पर चलने की तमीज़ तो है नहीं। इसलिए लाख बचाइए, कहीं न कहीं चोट-खरोंच लग ही जाती है। ज़रा सी खरोंच लग गई तो हजारों रुपये खर्च हो जाएं, फिर भी गाड़ी की पहलेवाली चमक-दमक वापस नहीं आ पाती। जिन लोगों की औकात खूब चमकदार गाड़ियाँ मेनटेन करने की है, उनके लिए हमारा यह सुझाव नहीं है। वे तो भइया भगवान-टाइप लोग हैं, जो इच्छा करेंगे, वह पूरी हो जाएगी। बात है आम आदमी की, जो गाड़ी लोन लेकर खरीदे और मेनटेन करे तो अपना और बच्चों का पेट काटकर। ऐसे आम आदमी के लिए गाड़ी कंपनियों को डेंट-पेंट-फ्री गाड़ियों की रेंज निकालनी चाहिए। बाहर से चाहे जितनी चोटें पड़ी हों, चाहे रंग कैसा भी हो गया हो, चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं। न धोने का झंझट, न पोंछने और पॉलिश का चक्कर। बस, बैठो और चल पड़ो। सोचिए, यदि आपकी कार ऐसी हो तो कितना अच्छा रहे। कारें डिजाइन करने वाले भाई लोगो, ज़रा इस तरफ भी ध्यान दो न यार! अपुन का तो कार-कंपनी वालों को यह सुझाव है कि कारों पर रेड ऑक्साइट का प्राइमर लगाकर बेच डालो। उसके बाद जिसे पेंट कराना है, करा ले। नहीं कराना है, तो वैसे ही लेकर घूमे। कम से कम मेंटेनेन्स का एक खर्चा तो बचेगा।

अपने देश और बाकी की दुनिया में गरीबी व गरीबों पर चर्चा करना आजकल खूब फैशन में है। जिसे देखो गरीबों की बात करता है। बात करना आसान है, काम चाहे कुछ न करो। तो भाई लोग गरीबों पर बातें करके ही देश-दुनिया को धन्य करते रहते हैं। भारत में लगभग तीस-चालीस प्रतिशत आबादी गरीबों की है, जिसे दो जून की रोटी भी ठीक से मयस्सर नहीं होती। इन गरीबों के लिए ट्रैफिक सेन्स खुद में एक नॉन-सेन्स विषय है। इसलिए वे जब सड़क पर निकलते हैं, तो अपने अलावा उन्हें किसी दूसरे की सुध भी नहीं रहती। पैदल ही नहीं, अकसर ऐसे लोग साइकिल और रिक्शे पर भी सड़क पर चलते हैं। बल्कि अपने उप महाद्वीप के छोटे शहरों व कस्बों में तो सड़कों पर इन्हीं की बहुतायत होती है। इनके लिए ट्रैफिक सिगनल, लाल बत्ती, बड़ी गाड़ी, छोटी गाड़ी, चलती गाड़ी, खड़ी गाड़ी, किसी का कोई वज़ूद नहीं है। जहाँ चाहा, घुस गए, जिधर मन किया, मुड़ गए। रहने को घर नहीं है, सारा जहाँ हमारा। पैदल चलनेवालों, साइकिल व रिक्शा-चालकों से अधिक बलवान कोई भी व्यक्ति हमारी सड़कों पर नहीं है। यकीन न हो तो कभी आजमा कर देख लीजिए।

ट्रैफिक सेंस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। लेकिन नवरात्र के इन दिनों में, ज्यादा गरिष्ठ सामग्री परोसकर अपने प्यारे पाठकों के व्रत-जर्जर मन-मस्तिष्क पर ज्यादा बोझ डालना उचित नहीं होगा। ऐसा करके हम पाप के भागी नहीं बनना चाहते।

आशा है, हमारे प्रिय पाठक ऊपर दिए गए हमारे सुझाव सही जगह जरूर पहुँचा देंगे।

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रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - हम हिन्दुस्तानियों की ट्रैफिक सेन्स
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