00000000000 जसबीर चावला संतो की आचार संहिता ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं 'संतन को कहा सीकरी सो काम' व्यथित हुए /...
00000000000जसबीर चावला
संतो की आचार संहिता
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
'संतन को कहा सीकरी सो काम'
व्यथित हुए / संत कुंभनदास
लिखा
सीकरी से लौट कर
अकबर के बुलावे पर
०
अब बहसों से लगता है
जरुरत है संतो को
आचार संहिता की
बना जो कोड आफ कण्डक्ट / संहिता
शामिल होंगे हर धर्म / आस्था / सम्प्रदाय के संत
फादर / ज्ञानी / ग्रंथी / मौलाना / मौलवी / महाप्रज्ञ
बंगाली बाबा / तांत्रिक / वशिकरण / महासिद्ध
०
सब लिखा जायेगा
ताकि वक्त जरुरत पर काम आये
कोई छूट न जाये
संतों के थाने / नैतिक पुलीस / खुदाई ख़िदमतगार
देखी जायेंगी लंगोट / नियत में खोट
नार्को / एच आई वी टेस्ट होंगे
०
डेरों / मठों / आश्रमों / खानाकाहों से
दूर होंगी दुकानें
शिलाजीत / सिद्ध मकरध्वज / कुश्ते / दारू / चरस की
दूर होंगे वर्किंग गर्ल्स / स्कूल / हॉस्टल
नीली फ़िल्मे / गरम साहित्य
बंधेंगे सदाचार के तावीज़ / गण्डे
कड़े होंगे नियम / क़ायदे / क़ानून
०
यक्ष प्रश्न
घंटियाँ कम हैं बजने के लिये
बिल्लियाँ अनेक
बांधेगा कौन
उनके गले--विवेकानंद राॅक
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
कन्याकुमारी में देख
विवेकानंद रॉक / मूर्ति
लगा
कुछ कहना चाहती हैं
उनकी आंखें
याद हो आई वह लंबी मुलाकात
जब मिले थे दो ध्रूव
युवा सन्यासी नरेन्द्र नाथ दत्त / खेतड़ी नरेश अजीत सिंह
दो मित्र / गुरू चेला
कोई एक सौ बीस साल पहले
आध्यात्म / विश्व धर्म पर बतियाए
मित्र ने ही रूपांतरण किया उनका
बांध दिया राजस्थानी पग्गड़ सिर पर
हँसे होंगे दोनों
नाम धरा विवेकानंद
मित्र ने वित्त / प्रबंध किया यात्रा का
शिकागो विश्व धर्म संसद मे जाने से पहले
निराश नहीं किया
तीस वर्षीय नरेन्द्र से विवेकानंद बने ने भी
झंडे गाड़ दिये भारतीयता के
चौंका दिया सबको
अपने गंभीर भाषण से
अमेरिकन बहनों और भाईयों कहकर
धार्मिक अलगाववादिता / वैचारिक संकीर्णता / असहिष्णुता
हिंसा / का विरोध कर
सर्वधर्म समभाव की बात कही
मदद / मिलाप / विश्व सौहार्द को जीवन मूल्य माना
विरत किया
फ़साद / विध्वंस / पूर्वाग्रह / घृणा से सबको
अब अपहरित हो गया है वह जीवन दर्शन
क़ैदी / बंधुआ
टकटकी बाँधे देख रही यह मूर्ति
कैसे दे प्रेरणा
वह विश्व धरोहर शिकागो भाषण
अब नहीं जगाता संवेदना स्पंदन
राजनीति के हाथों जाकर
लौटा सको तो लौटा लो
मुक्त करा लो
उसके विचार / आत्मा / दर्शन / अास्था
और अपना युवा नरेन्द्र
अपना विवेकानंद
000विकास
ंंंंंंंंंंंंंंं
बहुत विकास हुआ है
बिना किसी रोक
टाऊनशिप / माल / भव्य अट्टालिकाएं
मल्टीप्लेक्स
शहर में पहले होता था
एक मजदूर चौक
कारीगर बैठते
कूची / गेती / आरी / हथोड़ी / औजार लेकर
अब मजदूरों की मण्डी / पचासों ठीये
पशू हाट समान
थोक के थोक
भिनभिनाते / ताकते मजदूर
मोलभाव करता ठेकेदार
सब्जी की तरह छांटता
मजदूरनों को सटाकर बिठाता
मोटरसायकल
बेरोक टोक
तेजी से हो रहा विकास
बढ़ रही गंदी बस्तीयां / झुग्गीयां
गगनचुंबी इमारतें
बढ़ रहे मजदूर
बढ़ रहे चौक------
हरि और नरहरि
.....
'क्षमा बढ़िन को चाहिये
छोटन को उत्पात
का हरि को घटि गयो
जो भृगु मारी लात'
हरि बड़े हैं / भूल चूक माफ
बड़प्पन / क्षमाशीलता भरे
वे हरि हैं
बदले संदर्भ में
सत्ता में हो नर हरि(?)
मद में चूर / मगरूर
दोहे के उलट
रघु को लाितयाए / गरियाए
तो बेचारा आम रघु
कहां जाये
सावन जो आग लगाए
उसे कौन बुझाए
०००
वे जा रहे वे आ रहे
''''''''''''''''''''''''''''''
बरसों झेला
सहते रहे
उनकी चालाकियां / नादानियाँ /लफ़्फ़ाज़ीयां
दुख नहीं
वे अब जा रहे
०
दुख है
आ रहे वे
कसनें के लिये
मुश्कें / बेड़ी डंडा
विभाजन के लिये
ज़रीब / खसरा
इतिहास के सुप्त कंकाल
गोरखपुरी पता / पुरोगामी विचार
लाव लश्कर / वानर सेेना
छुपा एजेंडा
बापू / बाबा
चिलम / चिमटे / धुँआ
करकट / दमनक
हुआ हुआ
०
क्षितिज धंुधला / गर्द गुबार
राम भली करे
०००
रामलीला मैदान
''''''''''''''''''''''''''
रामलीला मैदान में
अब
नहीं होती क्रांति
जो दिखता है
शोर शराबा
आभास / छलावा है
भ्रम / भ्रांति
वहां रामजी की 'लीला' कम
राजनैतिक नोटंकी
ज़्यादा
लंबा मौन / विश्रांति
०००
जंतर मंतर
'''''''''''''''
जंतर मंतर
परजातंतर
धरना / अनशन
लाठी / गोली
दना-दन
टन-टन
क ख ग संघर्ष करो
हम तुम्हारे साथ हैं
इधर देखो
गिली गिली
छूमंतर
०००
सख्त जरूरत है
''''''''''''''''''''''''''''
उन्हें चाहिये
खाली दिमाग
और
लिफाफे
भरने के लिये
और हाँ
बंदे
फ़साद में काम आएँ
मरने के लिये
००
हंगामा है क्यों बरपा
'''''''''''''''''''''''''''''''''
प्रकाशित होते ही
नाम / सूची
हंगामेदार सदस्यों की
सदन में
फिर हो गया
जोरदार
हंगामा
०००
पैसे की नियति
''''''''''''''''''''''''''
गड्ढों का
पैसा
गड्ढे में
नाली का
बहे
नाली में
०००
00000000
रामवृक्ष सिंह की तीन गजलें
(1)
दर्द उसकी उदास आँखों का, मेरे सीने में उतरता क्यों है।
मेरी पलकें खुलें या बंद रहें, इक वही अक़्स उभरता क्यों है।।
दूर जाना तो उसका था लाज़िम, और हमको भी इल्म था पूरा।
इक तसव्वुर भी उससे दूरी का, दिल को बेचैन-सा करता क्यों है।।
यूं तो हर शै ये आनी-जानी है, हमको यह इल्मो-यकीं, दोनों है।
उसके आने औ चले जाने पर, दिल में दरिया-सा उमड़ता क्यों है।।
प्यार होना ग़ुनाह है बेशक, पर नहीं है कोई बरी इससे।
औ अगर है नहीं कोई ऐसा, बेसबब दिल मेरा डरता क्यों है।।
इक तेरा नाम प्यार था तो फिर, ऐ ख़ुदा, ये बता ज़रा मुझको,
एवज़-ए-इश्क तेरे बन्दों पर, सानहा रोज़ गुज़रता क्यों है।।
अपना ही अक़्स दिया था तूने, अपना ही नूर सबको बख्शा था।
कोई जँचता है बहुत दिल को क्यों, कोई आँखों को अख़रता क्यों है।
(2)
कहाँ ले जाएँगे ये मुल्क को यूँ ग़ाम ब ग़ाम।
ये बेज़मीर सियासत, ये अंधेरों के निज़ाम।।
हम तो क़ैदी हैं शिकस्ता, और सरापा लाचार।
हमपे लादे गए हैं हुक्म निज़ामत के तमाम।।
हम नहीं बोलते, महसूसते तो हैं बेशक।
हम जो दहकान-ओ-मजूर और ज़हालत के ग़ुलाम।।
हमको बतलाया गया है कि न उम्मीद करें।
उन्हें सब नेमतें हासिल, अपना जीना भी हराम।।
(3)
रोज़-ओ-शब बस अम्न का चर्चा किया।
किन्तु मौका ताड़कर बलवा किया।।
अंजुमन थी तो शरीफों की मगर।
डाकुओं ने बा-अदब कब्ज़ा किया।।
या इलाही, ये सितम कैसा तेरा।
सीमो-ज़र को दीन से ऊँचा किया।।
भूख के दोज़ख में था जब मुल्क ये।
ज़न्नतों के ख्वाब तू बाँटा किया।।
डॉ. रामवृक्ष सिंह
0000000
बलबीर राणा “अडिग”
नाद
स्वतंत्र भारत में जीने का अर्थ दे दो
भारत का आम आदमी हूँ मेरा हक़ दे दो
मुझे मुक्ति चाहिए मुक्ति दे दो,
दोगुले नेताओं से
प्रपंची कटाक्ष से
दो धारी राजनीति से
भ्रष्टाचार रुपी दानव से
घूसखोर अधिकारी से
दो मुंहें व्यवहार से
धार्मिक भटकाव से
सांप्रदायिक टकराव से
स्वतंत्र भारत में जीने का अर्थ चाहिए
मै अपने ही देश में असुरक्षित हूँ सुरक्षा चाहिए
बोली में राष्ट्र भाषा की
सड़क पर नारी की
संस्कृति में संस्कारों की
भूके गरीब के लिए रोटी की
प्रकृति में पर्यावरण की
विश्व की बृहद संसद क्या गांधी के सपनो का भारत दे सकोगे ?
या कुरसी पर बैठ अनाचरण की चरमता पार करोगे ?
२ अगस्त २०१३
© सर्वाधिकार सुरक्षित
... बलबीर राणा “अडिग”
0000000
मोहसिन खान
ग़ज़ल-1
हमने ख़ुद ही आफ़त की,
जब भी नई उलफ़त की ।
औरों की तरह शाद होते,
अपने हाथों ये हालत की ।
बेगुनाहों का गुनहगार हूँ,
किसी से न अदावत की ।
न हूँ मैं संगदिल ऐ दोस्त,
ग़लती है मेरी आदत की ।
मैं ख़ाक, तुम रहो बुलंद,
फ़िक्र नहीं शोहरत की ।
छीनकर सब बख़्श दी जाँ,
क्या मिसाल दी रहमत की ।
सज़ा-ए-बुतपरसती बेखोफ़
हर शै में तेरी इबादत की ।
मैं हूँ बादाख़्वार, न मुसलमां
क्यों उठाने की ज़हमत की ।
दिल मेरा सामने तोड़ देते,
कर गए बात मोहलत की ।
‘तन्हा’ मुंतज़िर है सदियों से,
बात नहीं कहते क़यामत की ।
ग़ज़ल-2
तुझको मेरी अब ख़बर कहाँ ।
एक राह का अब सफ़र कहाँ ।
जिसकी ख़ामोशी गुनगुनाती थी,
बातों में उसकी अब असर कहाँ ।
मैं न देखकर भी देख लेता हूँ,
उसकी ऐसी अब नज़र कहाँ ।
की अदावत सारी दुनिया से,
मेरी उसको अब क़दर कहाँ ।
‘तन्हा’ उताश ही रहता है सदा,
पहली सी अब अज़हर कहाँ ।
000
ग़ज़ल-१
आज मौसम में कितनी तन्हाई है ।
शायद हो रही कोई रुसवाई है ।
वो गर्म झोंका बनाकर गुज़र गए,
चल रही अब ख़ुशनुमा पुरवाई है ।
हर किसी को अपनों में गीनते रहे,
जब परखा तो हर चीज़ पराई है ।
वो बात जो बीत गई वक़्त के साथ,
क्या कहें अपनी कम ज़्यादा पराई है ।
पूछते हैं ‘तन्हा’ से जिनका ईमाँ नहीं,
ऐ गुनाहगार तेरी कहाँ ख़ुदाई है ।
ग़ज़ल-२
वो कमज़ोर करता है अपनी नज़र को ।
देखना नहीं चाहता अपने घर को ।
अदब का माहिर है, लिखता - पढ़ता है,
उसकी क़ाबलियत नहीं पता शहर को ।
उसका ज़हन कई दिनों रहता है बेचैन,
बादे दुआ देखता है बीवी की क़बर को ।
पढ़ता है नमाज़ नियत का है ख़राब,
करेगा निकाह देखता नहीं उमर को ।
आसरा है कई परिंदों की शब का,
तुम गिरने न देना इस शाजर को ।
निकल पड़ता है शाम ही से ‘तन्हा’,
कहाँ जाता है, लौटता है सहर को ।
ग़ज़ल-३
इक उम्र बीत गई तुमको पाने के लिए ।
अब तो जाँ बची है मेरी गँवाने के लिए ।
पढ़कर हथेलियाँ मेरी नजूमी कहता है,
लकीरें नहीं तुम्हारे उसे पाने के लिए ।
करदो हवाले लाश मेरी अपनी क़ौम के,
करलो दिखावा तुम भी ज़माने के लिए ।
‘तन्हा’ यह कहता है रोज़ सरपरस्तों से,
कोई तो वजह दो उसे भुलाने के लिए ।
ग़ज़ल-४
इक उम्र लगी है ख़ुद को बनाने में ।
तुम लगे हो क्यों मुझको मिटाने में ।
मैं लौट भी आता पास तेरे लेकिन,
अभी लगे हैं कुछ रिश्ते निबाहने में ।
न रश्क़ करो, न इज़्ज़त अफ़जाई,
बड़े बदनाम थे पिछले ज़माने में ।
आवारगियों ने कुछ तो सिला दिया,
मस्जिद की जगह बैठे हैं मैख़ाने में ।
होता है उजाला तो तन ढँक लेते हैं,
एक ही चादर है औढ़ने-बिछाने में ।
बच्चों का देखकर मुँह ढीठ हो जाता हूँ,
वरना आती है शर्म हाथ फैलाने में ।
‘तन्हा’ घर से चला था नमक लेकर,
राह में लुट गए झोलियाँ दिखाने में ।
ग़ज़ल-५
झूटों के बीच नाकाम हो गए ।
कइयों के सच्चे नाम हो गए ।
की ख़िलाफ़त तो हुए बेसहारा,
मेरे सिर कई इल्ज़ाम हो गए ।
जो देखा बेतक़ल्लुफ़ कह दिया,
कहते ही हम बदनाम हो गए ।
देखते ही बुतख़ाना सिर झुका,
सबने कहा हम हराम हो गए ।
सच कहा तो मिल गए ख़ाक में,
ऊँचे उनके मक़ाम हो गए ।
ग़ज़ल-६
चुप रहिये कुछ न कहिये मुस्कराते जाइए ।
ये दौर है ज़ुल्मों का बस सहते जाइए ।
कोई जौहर न दिखाए और न चिल्लाए,
वक़्त की धार के सहारे बहते जाइए ।
अब पाएदान औंधा है और रास्ते उल्टे,
चलिये तहख़ानों में उतरते जाइए ।
न हो कोई मज़हब और न ही कोई नाम,
जब भी लगे ख़तरा तो बदलते जाइए ।
काट ली जीने की सज़ा तो इक काम कीजे,
जो जी रहे हैं उनको तसल्ली देते जाइए ।
बढ़ रहे हैं मौत की तरफ़ हम भी तुम भी,
शमा की तरह जलते, पिघलते जाइए ।
--
ग़ज़ल ( श्रद्धेय नरेंद्र दाभोलकर जी को भीगी आँखों से सादरांजलि )
ये उसके क़त्ल का ही बयान है ।
हमारे बीच अब भी शैतान है ।
झूँटे अक़ीदों की खिलाफ़ते जंग में,
सदा क्यों हारता रहा ईमान है ।
ये ख़ून जो घुला हुआ है मिट्टी में,
उसकी शहादत का निशान है ।
सुनकर तेरी जाँबाज़ी के क़िस्से,
रश्क कर रहा हिंदुस्तान है ।
राह दिखाती रहेगी रोशनाई,
‘साधना’ तेरी एक ज़ुबान है ।
क़ातिल क्यों मुँह छुपता है,
तुझपर थूक रहा इंसान है ।
दहशतों से न दहलेगा दिल,
ये बुझदिली की पहचान है ।
तू हुआ शहीद हम हुए ‘तन्हा’
जाएँ कहाँ हर तरफ़ ढलान है ।
डॉ.मोहसिन 'तन्हा'
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलिबाग – जिला – रायगढ़
महाराष्ट्र – पिन - ४०२ २०१
दूरध्वनि+९१९८६०६५७९७०
ई – मेल : Khanhind01@gmail.com
मंजुल भटनागर
!. किताबें जिन्दगी सी लगती हैं
उदासी के शेल्फ पर सजी
धूल खाती ,कभी
अपलक निहारती सी कभी
बुलाती ,मानों सुनाती व्यथा बुझी सी .
कभी देर गए
में इनके टाइटल्स में
खुद को ढूँढती ,झाड़ देती धूल
लोकार्पण में मिली थी कल भेंट
कभी अधुरी पढ़, फिर जाती हूँ भूल
पर किताबें ही
जीवन का शब्द चित्र उकेरती हैं
सामाजिक प्रतिबद्धता को ढोती
चरितार्थ करती अनुभूति
आस्था को परिपक्वता देती
मंदिर औ मस्जिद से मिलाती
नई पीढ़ी के विचारों का संगुफन
बाजारवाद की चुनौती से जूझती
मीडिया को ललकारती सी
रिमोट को दुतकारती
रखी रहती तरतीब से
महीनों बिन छुए…यह किताबें …
पर पढों तो जानो
जिन्दगी से मिलाती हैं किताबें .
कुछ हंसाती ,कुछ रुलाती हैं किताबें
कुछ कहती बातें रूहानी
बातें नयी पुरानी ,बातो में कहानी
कही सिखाती जीवन का सच
पल पल गिरने से बचाती हमें
सच से मिलाती किताबे ही हमें ------.
किताबें पढ़ो तो जानों
इनकी बहुमूल्य सी बातें
0000
सीमा स्मृति
सम्मेलन
यमराज हो रहे थे बोर
सोचने लगे क्या किया जाए
क्यों ना, यमपुरी में
विभिन्न संस्थानों के क्लर्कों का
सम्मेलन ही बुला लिया जाए ।
मंत्रालयों, बैंकों, फैक्टरी एवं प्राइवेट
संस्थानों के र्क्लकों को
सुबह दस बजे यमपुरी बुलाया गया।
फैक्टरी वाला क्लर्क
टिफिन साथ लिए
ठीक दस बजे तशरीफ ले आया,
चेहरे से मालिक की डांट का खौफ
कभी सिमट पाता नहीं
इसी कारण समय की पाबन्दी को
वह भूल पाता नहीं।
मंत्रालयों वालों को डर कोई सताता नहीं
नौकरी में समय का महत्व
उनकी समझ में आता नहीं ।
फाइलों के ढ़ेर में ही तो बैठना है,
चाय, बीड़ी, सिगरेट और पान
का सहारा लिए दस से पांच तक
समय ही तो बिताना है ।
वेतन के अतिरिक्त------
कुछ मिलने का मोह काम करने की ऊर्जा
दे जाता है।
प्राइवेट संस्थान के क्लर्क
शब्दों का इस्तेमाल कम करते हैं
बोनस और ओवर टाइम के नाम पर
इतवार भी आफिस के नाम करते हैं।
बॉस को हर रोज एक टिकी मक्खन
लगाने में विश्वास करते हैं,
जो जितना मक्खन सप्लाई करेगा
परमोशन का लैटर इस पर डिपैन्ड करेगा ।
इसी कारण ये भी समय पर आएं है,
यमपुरी में जाने कौन सा बरॉन्ड मक्खन
जरूरत पड़ जाए,
यही सोच हर क्वालिटी लाएं हैं।
क्लर्क बैंक का, नोटों की गर्मी से उछला करता है
नित नये लिबासों में
कस्टमरों से कैंटेक्ट बनाया करता है,
कौन सा करंट एकांउट वाला कस्टमर कब काम जाए
हर पल यही सोचा करता है।
रूपयों में बहुत ताकत है,
बैंक में हर स्वर मधुरिमा लिए जड़ा है,
कभी कभी स्वरों में कडुवाहट भी आ जाती है
जब अपनी जरूरत ग्राहक से
टैली नहीं हो पाती है ।
यमपुरी में सभी क्लर्क सम्मिलित है,
यमराज यह सोच सोच
अचम्भित है,
क्लर्क एक योनी बनाई थी
धरती पर र्क्लकों की
क्लोनिंग करने वाले क्लर्क को
ढूढ़ कर लाओ
उसकी की मिस्टेक का, सबक उसे सीखाओ।
00000
विनय कुमार सिंह
“फुरसत”
किसे फुरसत है,जमाने में लगी आग बुझाने को ,
तमाम रिश्ते तार-तार हो गए, जिन्दगी रह गयी बस दिखाने को,
आदर, सत्कार, सम्मान सब खो गए,प्रणाम करते हैं लोग बस दिखाने को,
अंतःकलह की आग में जल रहा हर कोई,किसे फुरसत है बुझाने को,
खामोशी टूटती है, तो सिर्फ अपना दम दिखाने को ।
बेवस और लाचार हो गए हैं लोग, अपनों को समझाने में,
रूसवा करना बन गयी है आदत,बोला-चाली बस भरमाने को,
बिखरते जा रहे हैं रिश्ते, यादें ही बची दिल बहलाने को ।
आसान नहीं किसी को मना लेना,क्षमा भी अग्नि बाण बन गया है,
रास्ते तो आज भी वही हैं, बस कारवां बदल गया है।
नफरत लालच की आग में जल रहा हर कोई,किसे फुरसत है बुझाने को,
अब तो छोड़ दो ये बेबसी लाचारी,लालच को कहीं खो जाने दो,
बस यही है मेरी नसीहत,इससे ज्यादा कुछ और नहीं मेरे पास तुम्हें समझाने को ।
000
ये कौन चला ह़ै
ये कौन है ,जो दुनिया में लगी आग बुझाने चला है
सुलगती इन चिंगारियों में खुद को जलाने चला है
शामत आ गई है किसकी,कौन है जो खुद को आजमाने चला है
ये कौन है,जो दुनिया में लगी आग बुझाने चला है
परवान चढ़ती जा रही हैं जिसकी कोशिशें, वो खुद को लाम्बद करने चला है
आवाज सुनता नहीं आज कोई फिर भी, वो यूं ही गुनगुनाने चला है
खामोशियाँ भी जिसको गंवारा नहीं,वो खुद को शहंशाह कहलाने चला है
हिलती जा रही हैं जिसकी जड़ें ,वो अब मजबूत नींव कहलाने चला है
आत्मीयता का बोध नहीं जिसे,वो खुद को परवरद्गिार कहलाने चला है
यूं ही मिटता जा रहा है जिसका वजूद,वो खुद को नील कहलाने चला है
समरूपता का समन्वय है जहां ,धर्म की ज्योति जलाने चला है
पिरोयी जा रहीं है धागों में दुःखों की गोलियां,सहनशीलता की अलख जलाने चला है ।
आत्मज्ञान ज्ञान का बोध है वो ,मैत्री भाव का पैगाम पहुंचाने चला है
ले क्षमा की गागर में जल, अपने विचारों से दुनिया में लगी बुझाने चला है
विनय के विनम्र भावों से , दुनिया को यूं ही बचाने चला है
विनय कुमार सिंह
ग्राम पोस्ट- कबिलासपुर
थाना -दुर्गावती
जिला- कैमूर भभुआ
बिहार-821105
---
000000000000
डॉक्टर चंद जैन "अंकुर"
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
गर विसर्जन लक्ष्य है सुन.…। सृजन के द्वार पर
ये कर्म तेरा पाप है मातृ के अपमान का
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
ये अनुभूति ईश्वर ने दिया तब ही तू पैदा हुआ
जब प्रार्थना हो राम से उज्ज्वल सृजन के काम का
तब युगल के घर खिले पुष्प पौरुष राम सा
मातृ भू पुकारती है जन्म हो ऐसे दिव्य अवतार का
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
यौन शोषण विश्व में इक कलंकित काम है
नन्ही कली के साथ ये जघन्य अपराध है
माँ भारती के वक्ष में ये गहरा आघात है
क्या मनुज रचने लगा ऐसा जहां ,पशुता के विश्व ग्राम का
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
मैं नहीं ये जानता सत्य क्या है संत का
यदि उसे विश्वास है विधि ,राम ,और भगवंत का
उस बालिका के सामने बोल दे सुन मातृजा
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
भ्रूण हत्या गर्भ में नारी का अपमान है
जननी कृपा के साथ ये गहरा आघात है
क्या?यंत्र नारी के गर्भ से अब जन्म लेगी मनुष्यता
या क्लोन के गुणसूत्र से अब वंश होगा विज्ञानं का
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
हो सके तू शून्य के मदहोश में तू होश ला
अब भीड़ जनना बंद कर कौरवी संतान सा
है विश्वास"अंकुर " अब भी जन्म भूमि पर
ये रत्न भी पैदा करे ये दर्श है इतिहास का
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
देह से आनंद का सृजन दुर्लभ है मनुज
देह से कर्तव्य का हो सके तो काम ला
काम भी कर्तव्य है मातृत्व का पुकार ला
सर्वज्ञ से तू गर्भ में कृष्ण को ही मांग ला
गन्दगी के बीच मैं गीत लिखता राम का
मैं सृजन के द्वार पर बात कहता काम का
(मनुष्य की वासना से आज विश्व त्राहिमाम है । लेकिन सबसे बड़ा दुर्भाग्य विश्व गुरु कहे जाने वाले इस देश में यौन उत्पीड़न ,शोषण और सामोहिक बलात्कार जैसे घटनाओं को लेकर है । सच कहा जाये तो अध्यात्मिक धरा कहे जाने वाले भूमि आज काम रोग से ग्रसित कैसे हो गया ।आज संत के दामन में भी ऐसे दाग लगने लगा है सत्य तो वे ही जानते है ।मेरी ये कविता जागरण गीत है जो मातृत्व और शिवत्व का योग है |)
डाक्टर चंद जैन "अंकुर "
रायपुर छ ग ९ ८ २ ६ १ १ ६ ९ ४ ६
000000000
नीतेश जैन
अहसास
दूर होना चाह लेकिन दूरी न बना सका
साथ रहना चाह पर पास न जा सका
दिल में एक आशियाना तो बसा लिया
पर अपना बना कर भी उसका न हो सका
वो रंग सी मेरी आदतों में घुल गई
इन हवाओं सी मेरी सांसों में मिल गई
में तो था धूल में पडे पत्थरों की तरह
वो मुझे फूलों की तरह कोमल कर गई
आज भी दिल में एक गहराई है
आंखों में सिर्फ उसकी परछाई है
कुछ नजदीकियां, कुछ दूरियां
चेहरे पे है झलकती है खामोशियां
लफ़्जों में है दबी दबी आवाज
और एक अहसास
00000000
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
हवा और पानी बदल दो
ये हवायें हैं पुरानी,
और पानी भी पुराना|
हैं जड़ें मजबूत इतनी,
है कठिन इनको हटाना|
जल विवादों से घिरा है|
हो गया अब सरफिरा है|
बीतने पर कई बरस भी,
एक गढ्ढे में भरा है|
उस जगह पर जिदगी भर,
हक जमाया मालकाना|
वह न आगे बढ़ रहा है|
बस वहीं पर सड़ रहा है|
विरत होकर दूसरों से,
निज हितों को लड़ रहा है|
चाहता है उस जगह से,
कोई न पाये हटाना|
यह हवा भी आजकल की,
किस तरह दूषित प्रदूषित|
झूठ छल मक्कारियां ही,
हर तरफ हर ओर संचित|
बहुत मुश्किल हो रहा है,
इस कहर से अब बचाना|
है समय की मांग यह अब,
कि हवा पानी बदल दो|
नव पवन नव नीर लाना,
जो सबल सुंदर विमल हो|
शुद्ध जल निर्मल मलय अब,
चाहता हर कोई पाना|
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बाल-गीत
चुना जायेगा नेता मच्छर
मच्छरजी ने जन्म दिवस पर,किया खूब हो हल्ला|
बोला मित्रों के कानों में हँसकर चिल्ला चिल्ला|
आज हमारा जन्म दिवस है,तोहफा लेकर आना|
बदले में मैं खिलवाऊंगा,अच्छा मँहगा खाना|
कई दिनों तक नेताओं का, खून पिया है मैंनें|
जमा किया स्विस बैंकों में, जाकर पिछले महीने|
अगर गिफ्ट अच्छा लाये, तो वही खून पिलवाऊँ|
काले धन को इसी तरह से, मैं सफेद करवाऊँ|
अगर विरोधी चिल्लाये तो, उन्हें काट खाऊँगा|
अपनी ही मन मरजी से मैं,,सत्ता चलवाऊँगा|
मच्छर की खातिर मच्छर को,औ मच्छर के द्वारा|
चुना जायेगा मच्छर मुखिया,देखेगा जग सारा|
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राजीव आनंद
इतिहास से नहीं सीखता आदमी
ईश्वर ने भेजा
मैं आ गया
अगर पूछता तो
मैं कतिपय नहीं आता
क्या है दुनिया में
न चैन न शांति
फैली हुई है चारों ओर
सिर्फ और सिर्फ भ्रांति
परिस्थितियों ने मुझे मारा
जिसे मैंने सहा है हंसकर
लोग देख सकते है
मैं झूठ बोल सकता हॅूं, परिस्थितियां नहीं
कानून पढ़ा, कानून की बात की
कानून की लड़ाई लड़ा, गलत किया
लड़ना ही गलत है
आदमी-आदमी से क्यों लड़ेगा ?
आदमी ने खोया क्या है
जो लड़कर पाएगा
इतिहास से क्या कभी भी आदमी
कुछ नहीं सीख पाएगा ?
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याद आता है.......
याद आता है मुझे आज भी
दीवार से लिपट कर तेरा
भावनाओं पे काबू पाना
धड़कते दिल की सदा को
छाती पर मेरे हाथ को रखकर
एहसास दिलाना
याद आता है मुझे मेरी हर सदा पे
तेरा दौड़े चले आना
आकर लिपटना फिर रो पड़ना
याद आता है मुझे आज भी
तेरा शहर छोड़ कर जाना
कितनी तन्हा उस रहगुजर का हो जाना
शहर के नक्शे से उस रहगुजर
को मेरा हटाना
आज तक उस रहगुजर पर
मेरा लौट कर न जाना
याद आता है मुझे आज भी
राजीव आनंद
सेल फोन - 9471765417
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विकास कटारिया
“ बीता कल “
सफ़र के साथ वक़्त
भी बदल जाएगा !
जो छुट गया आज वो
कल नहीं आएगा !
खो जायेगा वो कल
हज़ारों “ कल ” में
जैसे आटे में नमक घुल जायेगा
रह जायेगा तू इंतज़ार करता
वह न जाने कब
निकल जायेगा
बच जायेगे वही पछतावे के पल
पर वो बीता कल नहीं आयेगा !!
रह जाएगी सिर्फ यादे जीने को
और हल भी जीने
का मिल ही जाएगा !
बीत जाने पर भी हज़ारों कल
पर वो बीता कल नहीं आएगा !!
सिसक-सिसक के रोना खुशियों में
बदल ही जाएगा !
पत्थर दिल वाला इन्सान
भी एक दिन पिघल जायेगा !
जो चाहे तू...सब कुछ
तुझे मिल जायेगा !
खुशियाँ मिलेगी
तुझे आने वाले कल में
पर वो बीता कल नहीं आयेगा !!
इंतजार करता रह जायेगा !
हिचकियाँ लेता सो जायेगा
खत्म होने पर वो मनहूस रात
फिर चिड़ियाँ की आवाज़
के साथ सवेरा हो जायेगा
जब सूर्य पूर्व से निकल जायेगा
रौशनी से अपनी
रोशन समहा बनेगा
शाम ढले सूरज भी जब ढल जायेगा
रह जायेगा तू आँखे मसलता
पर वो बीता कल नहीं आयेगा !!
वक़्त के झोले में ए “ विकास “
तू भी खो जायेगा
कोई नहीं होगा साथ जब
तू वक़्त के साथ खड़ा पायेगा
तब तू अपने और पराए का
मतलब समझ पायेगा
याद करेगा तू वो कल
पर वो बीता कल नहीं आएगा !!
____विकास कटारिया____
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
हो गया मुज़फ्फरनगर में दंगा और
हो गया भारतीय समाज
विश्व के सामने नंगा
हमने दिखा दिया कि जरा से
उकसावे या बहाने से हम
झपट पड़ते हैं एक दूसरे पर
हिंसक जानवरों की मानिंद
मारते काटते घरों को जलाते
बट कर समूहों में पागलों की तरह
जहाँ न कोई समझ होती है न तर्क
जहाँ कोई रुकना सोचना
या समझना नहीं चाहता
बस आफ्वाहें होती है जो सुनियोजित और प्रायोजित होती हैं
और निज या राजनीतिक हित
या स्वार्थ की देन होती है
अक्सर इसका लाभ मिलता है
इस या उस पार्टी को
या दोनों की मिली भगत से मिलता दोनों को
इसी लिए तो ये नूरा कुश्ती खेली जाती है
और इन मौतों और बर्बादी पर
सियासी रोटियाँ सेंकी जाती है
इधर हम आपस में लड़ते मरते हैं
उधर साजिशकर्ता लोग मज़ा करते हैं
हमारी मूर्खताओं पर दिल खोलकर हँसते हैं
हमारी बर्बादी का जश्न मनाते हैं
हमारी लाशों पर नाचते और
जले घरों में दीवाली मनाते हैं
अब सवाल ये है कि क्या हम
वाक्ई इतने मूर्ख और जाहिल है
कि बिना सोचे समझे इस कुचक्र में
फंस अपना नुकसान करते हैं
सभ्य समाजों में ऐसा नहीं होता
ये तो कबीलाई जंगली तरीका है
जो आज के समय में न
तो स्वीकार है न ही न्यायोचित
आइये हम भारतवासी प्रण करें
कि अपने प्यारे देश को
इस कुचक्र से बाहर निकाल
उन चेहरों को बेनकाब कर
उन्हें उनकी हरकतों की सजा देंगे
और विश्व को जतायेंगे कि
भारत एक सभ्य सुसंस्कृत देश है
कबीलों का हिंसक देश नहीं
शुक्रिया कविता को एक स्थान देने के लिए !!
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