भारतीय समाज में महिलाएं (लेखिका- नीरा देसाई एवं उषा ठक्कर, अनुवाद- सुभी धुसिया, प्रकाशन- एनबीटी, 2008) पुस्तक समीक्षा स्त्री का संघर्ष अप...
भारतीय समाज में महिलाएं
(लेखिका- नीरा देसाई एवं उषा ठक्कर, अनुवाद- सुभी धुसिया, प्रकाशन- एनबीटी, 2008)
पुस्तक समीक्षा
स्त्री का संघर्ष अपनी निरंतरता में प्रत्येक युग में विद्यमान रहा है। ऐसे समय में जब सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों जगह महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा, भेदभाव इत्यादि में दिनप्रतिदिन वृद्धि हो रही है, तब यह जरूरी हो जाता है कि हम बीते हुए वर्षों से लेकर अब तक के महिला आंदोलनों और महिला सशक्तिकरण के लिए होने वाले प्रयासों की पड़ताल करें। इसी सन्दर्भ में नीरा देसाई और ऊषा ठक्कर की लिखित पुस्तक “भारतीय समाज में महिलाएं” जिसका अनुवाद डॉ सुभी धुसिया ने किया है कि समीक्षा आवश्यक प्रतीत होती है। यह पुस्तक सिर्फ बुद्धिजिवियों तक ही अपनी बात नहीं पहुँचाती वरन सामान्य पाठक वर्ग को भी अपनी बात सरलता से समझाने का प्रयास करती है। यह भारतीय समाज में स्त्रियों की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति के साथ-साथ बदलते वैश्वीकरण के प्रभावों की तरफ भी ध्यान आकृष्ट करती है। इसमें संविधान द्वारा प्रदत अधिकारों के तहत विभिन्न विद्वानों के विचार को समाहित करते हुए, आज़ादी से पूर्व और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात छ: दशकों की विभिन्न घटनाओं को रेखांकित करते हुए नारी के अतीत, वर्तमान, भविष्य को पारिवारिक और सामाजिक स्थिति में परखते हुए भारतीय नारीवाद के संघर्ष के इतिहास को दर्ज करने की कोशिश की है।
19वी सदी में पहली बार महिलाओं से संबंधित प्रश्न उठने शुरू हुए। अंग्रेजों के आगमन के साथ ही नए विचारों का प्रादुर्भाव हुआ जिसमें महिलाओं से जुड़े मुद्दे पर विचार की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके साथ ही साथ भारतीय विद्वानों को भी ये अहसास होना शुरू हो गया की जिस परम्परागत ढांचे का वे अभी तक निर्वाह कर रहे हैं जिसे महान समझ रहे है दरअसल वह कितना पिछड़ा हुआ है। अंग्रेजों के आने के पश्चात् देश में महिलाओं के प्रति फैली हुई कुरीतियों का विरोध होना शुरू हुआ । इन प्रयासों के चलते महिलाएं सामने आने लगी और महिला संगठनों का निर्माण हुआ जिन्हें खुद महिलाएं संचालित करती थी, और इनका पहला एजेंडा था महिला शिक्षा। अब मताधिकार के लिए भी महिलाओं ने संघर्ष करना शुरू कर किया। सरोजनी नायडू के नेतृत्व में 1917 में महिलाओं का एक दल भारत मंत्री एडविन मांटेग्यू से मिला और महिलाओं को मत देने के अधिकार की मांग की। बम्बई और मद्रास पहले प्रान्त थे जिन्होंने 1919 में महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया । इससे पहले सभी प्रान्तों द्वारा इसकी उपेक्षा की गई। स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की सहभागिता ने महिलाओं को यह अवसर प्रदान किया की वे अपने समानता के आन्दोलन को और मुखर कर सकें। 1917 में एनी बेसेंट का कांग्रेस का प्रथम महिला अध्यक्ष बनना 1925 में सरोजनी नायडू ,1935 में नलिनी सेन गुप्ता का अध्यक्ष बनना समानता की एक शुरुआत थी। इन्ही प्रयासों के फलस्वरूप स्वतंत्रता पश्चात् जब भारत का संविधान निर्मित होने लगा तब महिलाओं को बहुत सारे अधिकार मिले। यह महज संयोग है कि वर्ष 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित करने और उसके एक दशक तक विस्तार की घोषणा के साथ ही देश आपातकाल की स्थिति में फंस गया। उस समय की सरकार द्वारा उठाये गए इस कदम ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को आघात पहुँचाया और देश में उभरते हुए महिला आन्दोलन को अवरूद्ध कर दिया। 1981 में देश में नारी अध्ययन पर प्रथम राष्ट्रीय सम्मलेन हुआ था जिसने इस बात को साफ़ कर दिया कि नारी विषयक शोध सिर्फ नारी विषयक सूचनाओं तक ही सीमित नहीं होने चाहिए बल्कि इसका सामाजिक और शैक्षणिक सरोकार भी होना चाहिए।
ऐसा माना जाता है की घर के काम करना बच्चे संभालना यह एक महिला की जिम्मेदारी है इसलिए इस कार्य को परिभाषित कार्य के अंतर्गत नहीं रखते। एक लम्बी बहस के बाद महिलाओं द्वारा किये जाने वाले कार्य को श्रम के अंतर्गत माना गया और इसका श्रेय स्वतंत्रता पूर्व की राष्ट्रीय नियोजन समिति की उप समितियों को जाता है जिन्होंने महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल बनाने और घरेलूकामों की आर्थिक मूल्य की सार्थकता पर बल दिया। स्वतंत्रता के बाद प्रस्तुत रिपोर्ट “समानता की और “ एक ऐतिहासिक रिपोर्ट थी, जिसमें आर्थिक कार्यों विशेषकर असंगठित क्षेत्रों में, महिलाओं की उपेक्षा की तरफ ध्यान दिलाया गया था। संगठित तथा असंगठित कार्य क्षेत्रों में द्वारा किये गए कार्य को सांख्यिकी अदृश्यता में रखने की वजह, दरअसल महिलाओं के खिलाफ सामाजिक पूर्वाग्रहों की गहरी जड़ों का होना है। महिलाओं द्वारा किया गया कार्य ज्यादातर अवैतनिक होता है जैसे घर-परिवार के लिए या फिर कृषि से संबंधित कार्य इत्यादि। इसलिए उनका कार्य, श्रम की जो प्रस्तुत परिभाषा है, से बाहर होता है (जिस कार्य के लिए भुगतान होता है वह कार्य, श्रम की परिभाषा के अंतर्गत आता है) महिलाओं को बहुत सारे जटिल कार्य करने पड़ते हैं जैसे मीलों चलकर पानी लाना, ईधन एकत्र करना, जो महिलाएं बहुधा मजदूरी के काम करती हैं उनकी स्थिति और भी दयनीय है वो ज्यादातर अपने शारीरिक शक्ति से ज्यादा भार उठाती हैं, यहाँ तक की गर्भावस्था में और बच्चे के जन्म के तुरंत बाद अधिक भारी काम करने की वजह से उनके गर्भपात, मासिक गड़बड़ी और रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। आधुनिक आर्थिक नीतियों का भी महिलाओं पर प्रभाव वर्ग, जाति, लिंग और धर्म के जटिल अंतर्संबंधों के कारण प्रभावित होता है। किन्तु इतनी विकट परिस्थितियों के बावजूद भी बदलते आर्थिक परिदृश्य के साथ महिलाओं की स्थिति में भी बदलाव हो रहे हैं। विपरीत परिस्थिति में भी महिलाएं काम कर रही हैं , संगठित होकर अन्याय के विरूद्ध आवाज़ उठा रही हैं और सफलता के नए प्रतिमान को गढ़ने का प्रयास कर रही हैं।
ऐसा समाज जहाँ लैंगिकता के आधार पर भेदभाव जैसी बुराई उपलब्ध है वहां लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता मिलने की संभावना कम ही है। और यह विषमता शहरों की अपेक्षा ग्रामीण अंचलों और गरीब परिवारों में ज्यादा है आजादी के पूर्व गठित आयोगों ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसमें महिला शिक्षा की तरफ सबसे पहला ध्यान राधाकृष्णन कमेटी ने दिया, किन्तु इस आयोग ने भी महिलाओं की शिक्षा को सिर्फ इसी हद तक रखने की वकालत की जिससे की वे एक अच्छी गृहणी बन सकें और अपने परिवार का पालन-पोषण बेहतर तरीके से कर सकें। आज़ादी के बाद भारत ने सम्पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य तक पहुँचने का निश्चय किया तथा भारत के संविधान ने 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी दी और साथ ही इसके लक्ष्य को पूरा करने का जो समय निर्धारित किया वो दस वर्ष का था। ये अलग बात है की इसे अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है और यह अभी भी बड़ी बहस का मुद्दा है। इस मुद्ददे (शिक्षा) पर आगे लिखते हुए लेखिकाओं ने लिखा है की “ 19वीं सदी में हम महिलाओं को अपने पति की बेहतर सहयोगी बनाने के लिए महिला शिक्षा की वकालत करते थे, बीती सदी में शिक्षा महिला को सशक्त बनाने के लिए थी, आज हम महिला द्वारा भारत की नागरिक होने के कारण शिक्षा के अधिकार की वकालत करते हैं। गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओं.) ने भी सरकार के साथ मिल कर सम्पूर्ण साक्षरता के लिए बड़े ही जिम्मेदार तरीके से कोशिश की है। लड़कियों की शिक्षा में आने वाली दिक्कतों को पहचान कर और उनके समाधान के साथ साथ लड़कियों की शिक्षा की निरंतरता को बनाये रखने का एक अतुलनीय प्रयास गैर सरकारी संगठनों द्वारा किया जा रहा है।
परिवार एवं महिला में बात को आगे बढ़ाते हुए लेखिकाएं लिखती हैं की परिवार के बिना किसी समाज की कल्पना बेमानी है। एक तरफ तो परिवार महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने का सबसे बड़ा केंद्र है तो वहीँ परिवार महिलाओं के लिए संकटकालीन संस्था भी है। अमर्त्य सेन इस संस्था की समस्याओं का जिक्र करते हुए कहते हैं कि परिवार में ‘मतैक्य और संघर्ष’ का सह –अस्तित्व होता है। दक्षिण एशिया में परिवार के दो प्रकार हैं पहला मातृसत्तात्मक और दूसरा पितृसत्तात्मक। परिवार में महिला की स्थिति परिवार के प्रकार और पारिवारिक संरचना पर निर्भर करती है । मातृवंशीय व्यवस्था में पैदा होने वाली संतानों को माँ के वंश द्वारा स्थायी सदस्यता मिलती है इसमें संपत्ति का अधिकार महिलाओं को मिलता है। विवाह के बाद महिला अपने पति के घर नहीं जाती अपितु पति, पत्नी के घर आता है। इस प्रकार मातृसत्तात्मक परिवार ,परिवार संस्था का ऐसा प्रकार है जिसमें महिला अधिकार और समाज में उसकी भूमिका पर ध्यान दिया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज में बच्चे अपने पिता की वंशावली से जाने जाते हैं। इसमें लड़के वंश माने जाते हैं और बेटियां पराया धन जिनका सामाजिक रूप से संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। विवाह के पश्चात् लड़की अपने पति के घर चली जाती है, जो उसका अपना घर माना जाता है। अपने घर में भी वो पूर्णतया तभी सम्मिलित हो पाती है जब की वह बेटे को जन्म देती है। इतना ही नहीं उसकी कमाई पर भी ससुराल का हक़ होता है। इधर बीच बहुत सारे अधिनियम ऐसे आये जिन्होंने मातृसत्तात्मक समाज पर प्रतिकूल प्रभाव डाले और आधुनिक ताकतों ने इन फैसलों के जरिये पितृसत्ता का पक्ष लिया इनमें एक फैसला मेघालय का उत्तराधिकार अधिनियम जिसने खासियों के समाज को भी बदल दिया। मातृसत्ता का सबसे बड़ा नुकसान उस समय हुआ जब कानून ने पुरुष वंशावली में संपत्ति के हस्तांतरण को वैधता प्रदान कर दी। महिलाओं को कानून ने कुछ बड़े अधिकार दिए हैं पर उनकी सामाजिक वैधता पर अभी भी सवाल है । इन कानूनों में संपत्ति का अधिकार तलाक का अधिकार इत्यादि हैं। किन्तु तलाक के बाद महिला का अपने ससुराल की संपत्ति में अधिकार अभी भी विवाद का विषय है। परिवार में लड़कियों का सामाजीकरण किया जाता है ताकि उन्हें महिला बनाया जा सके। शुरू से लड़के और लड़कियों में भेदभाव किया जाता है, लड़कियों को हमेशा यह कहा जाता है की तुम तो पराया धन हो। बदलते परिदृश्य में कार्यक्षेत्र, सार्वजनिक स्थल पर या निजी स्थानों पर महिला के साथ हिंसा अब व्यक्तिगत न होकर नारी विमर्श का विषय बनने लगा और इसने विकासवादी नीति के यथार्थ पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया । एक स्त्री का सम्पूर्ण जीवन अपने परिवार को हर स्तर से परिपूर्ण बनाने में खर्च हो जाता है पर इसी परिवार से जब एक महिला अपने हक़ की मांग करती है तो परिवार का अन्यायपूर्ण रूप उभर कर सामने आता है।
भारत में महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता के बहुत सारे आयाम हैं । एक पक्ष जो महिला को लिंग के आधार पर देखता है जो यह प्रयास करता है कि वह भारत के सम्पूर्ण महिला समुदाय को साथ लेकर चलना चाहता है । परन्तु महिलाओं से जुड़ी वास्तविक समस्याओं को देखने पर पता चलता है कि महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता भी पुरुषवाद के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए किया गया एक प्रयास है । हम कुछ महिलाओं को छोड़ दें तो तस्वीर कुछ साफ़ हो करके उभरती है जिससे यह पता चलता है की महिलाओं की सहभागिता भी मात्र महिला वोट बैंक को छलने का एक प्रयास है । बदलते राजनीतिक परिदृश्य में राजनीति का स्वभाव और रूप दोनों बदला है ऐसे में अब पार्टियाँ उन प्रत्याशियों को भी टिकट देने से नहीं हिचकिचाती जो की महिला मुद्दों को लेकर असम्वेदनशील हैं और उनकी दृष्टि में महिला अभी भी दोयम दर्जे की नागरिक है । अब जब की चुनाव पैसे और शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बन गया है ऐसे में उसी महिला को पार्टियाँ टिकट देना चाहती हैं जो चुनावी खर्चे का इंतजाम कर सकें और जीत सकें। अक्सर महिलाओं को ऐसे निर्वाचन क्षेत्र से खड़ा किया जाता है जहाँ से उनके जीतने की संभावना कम हो । इस तरह से उनके दोनों स्वार्थ सिद्ध होते हैं । वो यह भी दर्शाने में कामयाब होते हैं कि महिलाओं की भागीदारी को लेकर वो कितने सचेत हैं परन्तु महिलाएं राजनीति में कमतर हैं ।
महिलाओं के लिए बनाये गए कानून का यदि एक अवलोकन करें तो हमें पता चलता है कि इसकी शुरुआत सबसे पहले लिंग समानता की नहीं बल्कि उनके ऊपर हो रहे अत्याचार हैं । इस परिपेक्ष्य में अगर हम न्यायालयों के फैसलों को देखें तो वो भी कहीं न कहीं पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित एवं महिला विरोधी ही दीखते हैं इसके विपरीत जो ऐतिहासिक फैसले महिलाओं के पक्ष में आये हैं उनके पीछे महिला संगठनों और नारी विमर्श से सरोकार रखने वाली संस्थाओं और जनमानस का लम्बा संघर्ष दीखता है । महिलाओं की सुरक्षा एवं समानता के लिए बनाये गए कानून देखने में तो अच्छे लगते हैं परन्तु इसका संचालन एवं इसे स्थापित करना यह समाज पर निर्भर करता है । वह समाज जो अभी तक धर्म ,जाति ,भाषा एवं क्षेत्र की बंदिशों में बंधा हुआ है । उससे यह उम्मीद करना की वो इन कानूनी उपायों को समाज में स्थापित कर पायेगा मुश्किल है किन्तु स्त्री विमर्श के संघर्ष की यह लड़ाई अनवरत जारी है ।
70 और 80 के दशकों में महिला आंदोलनों को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। महिलाओं के लिए बनती नीतियों और सतह पर उनके अदृश्य प्रभावों ने यह साफ़ कर दिया था की अब महिला आंदोलनों को अपने तरीकों में परिवर्तन की आवश्यकता है, और इसे अपनाया भी गया पहले जहाँ एक माहिला संगठन महिलाओं से जुड़ी तमाम समस्याओं को उठाता था अब उसने अपने आंदोलनों को कुछ मुद्दों तक सीमित कर लिया और उनके लिए अपने संघर्ष को तेज किया । अस्सी के दशक का अंतिम वर्ष एवं नब्बे के दशक में कुछ घटनाओं ने जैसे रूपकुंवर का सती होना, शाहबानो का गुजाराभत्ता पाने का मुकदमा, बाबरी मस्जिद का विध्वंस, राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों में महिलाओं की दस्तक, वैश्वीकरण में भारतीय नारियों की भूमिका, लेखिकाओं द्वारा लिखी गई कथाएं तथा आत्मकथाएं, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा थोपी गई बाजारू शक्तियों ने अर्थव्यवस्था, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति एवं नागरिक समाज के क्षेत्र में होने वाले महिला आंदोलनों के संघर्ष के स्वरुप को बदल दिया । अब इन संघर्षों के द्वारा उनका जो सरोकार था वह था स्त्री अस्मिता की पहचान । इस दौरान इस बात की भी समझ एवं सहमती बन गई थी की अब महिला आंदोलनों को पीड़िता के दृष्टिकोण से समझना एवं चलाना आवश्यक है । क्योंकि यही एक ऐसा उपाय है जो महिला को समूह एवं व्यक्ति दोनों ही रूपों में समाज में स्थापित करता है ।
बीते पांच दशकों की अगर पड़ताल करें तो एक मिला जुला चित्र उभर कर हमारे सामने आता है इस चित्र में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं । आजादी के पश्चात् विभाजन के जिस दंश से सभी को गुजरना पड़ा उसका सबसे स्याह हिस्सा शायद महिलाओं के ही खाते में आया । आज भी साम्प्रदायिकता की गहरी जड़ों का दंश महिलाओं को झेलना पड़ रहा है । जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र, भाषा में असमानता होने के बावजूद पितृसत्तात्मक धरातल पर सभी महिलाओं की समस्याएं समान हैं । हिंसा के बढ़ते हुए प्रभाव में महिला लिंग अनुपात की कमी, किशोरी से दुष्कर्म, घरेलू हिंसा, बलात्कार जैसी घटनाओं को देखते हुए प्रतीत होता है की महिला आंदोलनों ने अपने शुरूआती दौर में जितना पाया था अंतिम कुछ वर्षों में उतना खो दिया । इसके साथ ही साथ महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति भी भयावह है । गिरता हुआ लिंग अनुपात, कन्या भ्रूण हत्या इत्यादि । मीडिया में भी जिस तरह से महिलाओं को पेश किया जा रहा है वह भी चिंता का विषय है । किन्तु महिला अपने सामर्थ्य, सामूहिक संघर्ष, संवेदनशील मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की मदद से नई इबारत लिखने की चाह में सफलता की तरफ नित्यप्रतिदिन अपने कदम बढ़ाती जा रही है ।
श्वेता यादव (yasweta@gmail.com)
sahi kaha shweta ji
जवाब देंहटाएंsahi kaha shweta ji aapne
जवाब देंहटाएंभारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति हालांकि पहले से काफी बेहतर हुई है लेकिन इस बेहतरी का लाभ उठाने से अभी भी एक आम भारतीय महिला वंचित है। जो सुधार हुए हैं उनका लाभ हर वर्ग की महिलाओं तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है कि हम जमीनी स्तर पर खुद को रख कर और सोच कर उनके लिए काम करें।
जवाब देंहटाएंबहरहाल आपकी बेहतरीन समीक्षा पुस्तक को पढ़ने की अभिरुचि को जागृत करने वाली है।
यदि संभव हो तो पुस्तक के आवरण को भी इस समीक्षा का हिस्सा बना दें।
सादर
कल 06/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
भारतीय समाज में महिलाएं, नीरा देसाई और उषा ठक्कर जी की लिखी यह पुस्तक मैंने पढ़ी है| यह पुस्तक अपने-आप में लगभग उन तमाम सभी विषयों को अपने में समाहित कर रखा है जिसकी उम्मीद हम एक अच्छी पुस्तक से करते है| आप ने अपनी समीक्षा में उन सभी विषयो को बड़ी ही सरलता के साथ उजागर किया है, मुझे आप की समीक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पहलु यही लगा| वैसे पुस्तक का हिंदी अनुवाद जो की सुभी धुसिया जी ने किया है वह भी अपने आप में बहुत कठिन प्रतीत होता है|
जवाब देंहटाएंभारतीय समाज में महिलाएं, नीरा देसाई और उषा ठक्कर जी की लिखी यह पुस्तक मैंने पढ़ी है| यह पुस्तक अपने-आप में लगभग उन तमाम सभी विषयों को अपने में समाहित कर रखा है जिसकी उम्मीद हम एक अच्छी पुस्तक से करते है| आप ने अपनी समीक्षा में उन सभी विषयो को बड़ी ही सरलता के साथ उजागर किया है, मुझे आप की समीक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पहलु यही लगा| वैसे पुस्तक का हिंदी अनुवाद जो की सुभी धुसिया जी ने किया है वह भी अपने आप में बहुत कठिन प्रतीत होता है|
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत आभार
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा लिखी है .पुस्तक पढने को प्रेरित हुई . आपमें एक अच्छा समीक्षक होने की सलाहियत है
जवाब देंहटाएंहौसलाअफजाई के लिए आपका बहुत बहुत आभार राइमा जी ....यह जानकार अच्छा लगा की समीक्षा इस लायक बन पाई है की आप पुस्तक पढने को प्रेरित हुई | पुस्तक वाकई बहुत अच्छी है समय मिले तो जरुर पढ़ें एक बार फिर आबार के साथ ...श्वेता
हटाएंटिपण्णी के मॉडरेशन के नाम पर टिप्पणियां गायब कर देने का अच्छा बहाना है .अफ़सोस मैंने इस पर आधे घंटे बर्बाद किये .
जवाब देंहटाएंराइमा जी,
हटाएंदुख है कि आपको अफसोस हुआ.
परंतु आपको यह बताना आवश्यक है कि स्पैम तथा कुछ लोगों की अवांछित अप्रिय भाषा युक्त टिप्पणियों से बचने के लिए यह सुविधा है, और इसका उपयोग सभी को करना चाहिए, ताकि किसी भी अप्रिय स्थिति से बचा जा सके. टिप्पणी आमतौर पर 24 घंटे के भीतर मॉडरेट कर दी जाती है.
इस बात में कोई दोराए नहीं सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों जगह महिलाओं के प्रति हिंसा में बढ़ोतरी हुई है ! ये भी सच है की महिलायों को बहुत से करने पड़ते हैं !! लेकिन एक बात और बीते पांच दशकों की अगर पड़ताल करें तो एक मिला जुला चित्र उभर कर हमारे सामने आता है इस चित्र में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू है!
जवाब देंहटाएंपुस्तक समीक्षा के इस पहले प्रयास को आपका बेहद सफल प्रयास कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी !!
जी आपने सही कहा महिलाओं के लिए दोनों ही जगह अभी बहुत से संघर्ष बाकी है पर बदलाव भी हुए हैं ये भी सच है | किन्त बदलाव की दिशा में अभी बहुत से कदम उठने बाकी हैं | मैं बहुत शुक्रगुजार हूँ आपकी कि आपने अपने बहुमूल्य समय से थोड़ा वक्त निकाल कर इस समीक्षा को पढ़ा और मेरा उत्साहवर्धन किया आपका आभार !!!
जवाब देंहटाएंShweta ji
जवाब देंहटाएंbadi hi paini nazar se Chayan karke aapne anubhooti ko abhivyakt kiya hai.
Aurat ke manobhav aurat se zyada aur kaun jan sakata hai. Badhai v shubhkamnayein
Sweta ji
जवाब देंहटाएंNeera Desai ki anudit samgrah par sateek sameeksha karne ke liye aapko Daad hai
आपने समय निकाल कर समीक्षा को पढ़ा और उस पर अपनी बेशकीमती राय दी उसके लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया देवी जी
जवाब देंहटाएं