पाँच मैथिली कविताएं ,अनुवाद सहित । 1,शहरी सभ्यता नित ऊपर उठै छै मचान , नै आँगन बांचल नै दलान । घर स गरबहिया दैत घर , ऊपर स नीचा ,घरे घर ।...
पाँच मैथिली कविताएं ,अनुवाद सहित ।
1,शहरी सभ्यता
नित ऊपर उठै छै मचान ,
नै आँगन बांचल नै दलान ।
घर स गरबहिया दैत घर ,
ऊपर स नीचा ,घरे घर ।
नै कत्तों कनिओ त जमीन ,
पातर देवार जंगला महीन ।
जौ सोर करै किओ ज़ोर ज़ोर ,
मन भ जायत अछि अति घोर ।
मन भ जायत अछि देखि विकल ,
सभ्यता के ई नव नागफास ।
केहन जुग अब आबी बसल ।
नहीं छै कनिओ उल्लास आब ।
धरती स ऊपर उठैत स्वप्न ,
नीचा पैरक बस परिताप ।
नै मर्यादा के बोल रहल ,
नै मधुर ,मीठ कल्लोल रहल ।
सब दिशा मे तीव्र स तीव्र सोर ,
बहिरा के गाम मे बसल लोक ।
नै आंखि मे पानी एक बूंद ,
नै धरती पर हहराति जल ।
सबटा परिभाषा बदली गेल ,
जुग ठाढ़ एतय ठीठीयाय रहल ।
ई नव नुकूत इतिहास गढ़त ,
शहरी सभ्यता के माया जाल ।।
हिन्दी अनुवाद
नित ऊपर उठता है मचान ,
नहीं आँगन बचा ,नहीं दालान ।
घर से गलबहिया देती घर ।
ऊपर से नीचे घर ही घर ।
यदि आवाज करे कोई ज़ोर ज़ोर ,
मन हो जाता है कटु अति ।
मन हो जाता है देख विकल ,
आधुनिकता का नव नागफास ।
धरती से ऊपर उठते स्वप्न ,
नीचे पाव के बस परिताप ।
ना मर्यादा का बोल रहा ,
न मधुर ,मधुर कल्लोल रहा ,।
सब दिशा मे तीव्र से तीव्र स्वर ,
बहरों के गाव मे बसे लोग ।
ना आँख मे पानी एक बूंद ,
ना धरती पर हहराती जल ।
सब परिभाषा बदल गए
युग खड़ा यहाँ ठहाका लगा रहा ।
यह नयी नवेली इतिहास गढ़ेगा ,
शहरी सभ्यता का माया जाल ।
2 लिखत के प्रेम गीत ?
कदंबक गाछ त कटि /
चुकल छल आब ,
कृशकाय /
एकसरि ठाढ़ राधा /
हेरे छली एखनहु कृष्णक बाट/
सखी सब पहिनहि संग छोड़ लेन्ह,
आब मुरारी सेहो निपता,
केहन घोर कलिकाल ,/
प्रेमक शाश्वत कुसुम कोना मुरुझा गेलै/
नहि रहलै आब ओ राग अनुराग /
पोखरिक घाट /गाछी /ईनार /
सब जेना वीरान ,उजाड़ भ गेलै /
चिड़े चुनमुन चुप्प /
चारहु कात अनहार घुप्प /
हिय के कर्पूर कोना उड़ी गेल /
कत्त ताकू ? कोन कुंज ? कोन बोन ?
सोचे छथी राधा भरल आंखि स /
की जखन ,प्रियतम नहि अनुरागी ,त
लिखत के प्रेम गीत /
के लिखत जौवन के मधुर मधुर प्रीत /
तकेत छथी व्याकुल भ ,धरती ,अकास के /
गाछ बिरिक्ष/लता ,कुंज ,लग पास के ,
बिलखैत पुछेत छथि/लिखत के प्रेम गीत /
लिखत के प्रेम गीत /
विद्यापति जबाव दौथ ।।
अनुवाद
कदंब का पेड़ /
तो कट चुका था अब /
अकेले खड़ी /
कृशकाय राधा /
निहार रही थी अभी भी कृष्ण की राह ।
सखियो ने पहले ही
तज दिया था साथ /
अब मुरारी भी लापता /
कैसा घोर कलिकाल /
प्रेम की शाश्वत कुसुम कैसे मुरझा गई /
नहीं बचा हृदय मे उद्वेग /
नहीं रहा अब वो राग अनुराग ।
पोखर का घाट ,बगीचा ,कुवां,/
सब जैसे वीरान हो गया /
पक्षिगण चुप्प/
चारो तरफ अंधकार घोर ।
प्रेम कहाँ उड़ गया कर्पूर जैसे /किधर ढूंढें / किस कुंज मे ,किस वन मे ।
सोचती है राधा भरी हुई आंखो से /
कि जब प्रियतम ही नहीं अपना /
तो लिखेगा कौन प्रेमगीत /
कौन लिखेगा यौवन का मधुर मधुर संगीत /
देखती है व्याकुल हो /धरती और आकास को /
पेड़ ,पौधे ,लता कुंज ,आस पास के /
पूछती है व्याकुल हो /लिखेगा कौन प्रेम गीत /
लिखेगा कौन प्रेम गीत /
विद्यापति जवाब दें ।
3 आतंकी गाम ।
हाथ पएर मोड़ने /
ओ सुतल सुतल सन गाम /
जतय एखनो किओ किओ /
गाबैत छल /पराती/झुमरि/आ कजरी /
जतय अखनों पीबैत छल /
विभेदक वावजूद /संग संग / पानि/एके घाट प
बाघ आ बकरी ।
खरिहान मे दूर दूर धरि पसरल धान /
हसैत –ठिठियाति लोक के / छलै भरि मुंह पान ।
नव नुकूत प्रेमक होईत छल चर्च /
नीक बेजाय मे /होईत छल बुद्धि खर्च ।
जतय एखनहु बांचल छल /
आंचरक लाज /
मन जांति क /जन्निजाति/
करैत छल अपन अपन काज ।
जतय एखनो भोर स साँझ धरि /
बनैत छल किसिम किसिम के भानस/
जीवन स तृप्त /सुखासन प बैस
ज्ञानी ध्यानी पढे छलाह मानस ।
जतय एखनों ठाढ़ छल पुआरक /
बड़का टाल/
आ किल्लोल करैत धिया पूता /
होय छल निहाल ।
ओहि सुतल /ओंघायल सन गाम मे /
पैसि गेल छल एक दिन /
किछू अंनचिन्हार /अजगुत /
जेकर बग्गे बानी सेहो कहने दन /
हाथ मे कड़गर/ हरियर हरियर नोट आ बंदूक ।
ओ सब बैसाहे आयल छल /शांति /पसारि क एक गोट भ्रांति /
खेत खरिहान मे उपजाबय लेल /
बारूद /आरडिएक्स।
छीटैत रहल पाय पर पाय /
आ देखैत देखैत /
भ गेलै विषाक्त /
गामक पोखरि/
बन्न भ गेले अजान ,कीर्तन आ पराती/
डेरा गेल बिहुसैत समाज /
ओतय आब काबिज अछि /
भयोंन /गरजैत/
लाल लाल आंखि/मुंह स बोकरेत/
आगि सन /
आतंकक घिनौन साम्राज्य ॥
॥ अनुवाद ॥
हाथ पाव मोड़े /
सोया सोया सा गाँव /
जहां अभी भी कोई कोई गाता था /
प्रभाती /भूमर /नचारी /
जहां अभी भी पीते थे /
विभेद के वावजूद /
पानि / एक ही घाट पर /
बाघ और बकरी ।
खेत /खरिहान मे /दूर दूर तक /फैला हुआ था धान /
हसते /खिलखिलाते लोग/
सबके मुंह मे भरे थे पान ।
नए प्रेम प्रसंगों की होती थी चर्चा /
अच्छी बुरी बातों मे/बुद्धि होती थी खर्च ।
जहां अभी भी बचा था आँचल का लाज /
स्त्रीगण मन मार कर भी /करती थी अपना काम ।
जहां अभी भी सुबह से शाम तक /
बनते थे किस्म किस्म के व्यंजन /
जीवन से संतुष्ट /सुखासन पर बैठ /
ज्ञानी /ध्यानी /बाँचते थे मानस ।
जहां अभी भी खड़ा था /पुआलों का टाल/
शोर मचाते बच्चे /होते रहते थे निहाल ।
उसी सोए सोए /उँघाते जैसे गाँव मे/
घुस गए थे एक दिन /
कुछ अपरचित /
जिनकी वेश भूषा /वाणी भी विचित्र ।
हाथ मे /हरे हरे /कड़े कड़े रुपए और बंदूक /
आए थे वे लोग खरीदने शांति /फैला कर भ्रांति /
उपजाने के लिए /
खेत खरिहान मे /
बारूद /आर डी एक्स /
फेंक रहे थे शब्दों के पिघलते हुए लावे /
और देखते देखते /गाँव का पोखर /हो गया विषाक्त /
बंद हो गए प्रभाती /झूमर /और अजान /
डर गया था समाज /
काबिज है अब वहाँ /
भयानक अट्ठास करता /
लाल लाल आँखें /और मुंह से आग उगलने वाला /
आतंक का /
घिनौना साम्राज्य ॥
4 अहिल्या ।
भेंट फेर भेल छल गौतम के /
अहिल्या स/वएह काया /वएह रूप /
आईयो धरि तरासल /
वएह जौवन /
नदी के धार सन सनसनाइत/
मुदा आंखिक भाखा एकदम भिन्न /
नहि कोनो लोच /नहिं कत्तों संकोच /
एक गोट नब ऊर्जा /नब तेज स भरल अवस्स /
चौंधिया गेला /ओ ओहि तेज स /
जुग कतय स कतय/चलि आयल /
आत्म दर्शन मे ओझरायल /
कोना अनभिज्ञ रहि गेला ओ /
अही भेद स ।धखाइत /घबड़ाइत /
कहुना अपन परिचय ल बढला /
मोंन पाड़ू/गौतम हम /परमेश्वर अहांक पहिला /
वाक जेना मुंह मे अटकि गेल/
आ जुबती आगा बढि क लपकि लेल /
फेर /सभरैत बजली /बड़ मृदु बोल/
हमरो /छल ई अभिलाषा अनमोल /
की कोनो जुग मे आहाँ के देखितौ /
आ आहाँ के कद स अपन काया नपितौ /
सरापक दुनिया मे कत्तेक बुलब टहलब /
की एखनि धरि अहाँ के किओ नहि बुझौलक /
हम त कहब ज्ञानी बनब त बनू/
अहंकार के परंच पचेनेओ सीखू /
जानू देह गेह के निर्धारित सीमा /
आ निर्दोख के माफ केना भी सीखू /
तखन जाके अहांक तप सब सफल हैत/
कएक जनमक उपरांत फेर हमरा स मिलन हैत /
आब हम वृथा कोनो जोड़ स नै बनहेब/
पाथरि बनि अपन जीबन नहिं गमायब /
बड़ पढेलहू धरम अधरमक पोथी /
जेकर थाह आय धरि नै किओ पायल /
फटकार सुनि हुनक ज्ञान जागल /
कएक जुगक अनहार भागल /
धड़ खसौने ऋषि जायत रहला /
पड़ल मों न केलहा सबटा पिछुलका ।
कलिजुग मे होबैत छै सबहक इंसाफ /
दोषी के दंड आ निर्दोख के खून माफ ।
॥ अनुवाद –॥
भेंट फिर से हुआ था /
गौतम का /अहिल्यासे /
वही काया /वही रूप /आज भी /तराशा हुआ वही यौवन /
नदी के धार सी हनहनाती हुई /
लेकिन आँखों की भाषा /एकदम भिन्न /
नहीं कोई शर्म /न हया /
एक नवीन ऊर्जा /
नए ओज से ओतप्रोत अवश्य/
चौंधिया गए वे उस तेज से /
युग कहाँ से कहाँ चला आया /
कैसे अनभिज्ञ रह गए वे इस भेद से /
शर्माते /घबड़ाते /अपना परिचय लिए बढ़े /
मैं गौतम /परमेश्वर तेरा प्रथम ।
शब्द जैसे मुंह मे ही रह गया /युवती आगे बढ़ कर लपकी/फिर बोली मृदु बोल /
मेरी भी थी परम अभिलाषा अनमोल /
कि किसी युग मे आप को देख सकती /
आप के कद से अपना काया नापती /
श्राप की दुनिया मे घूमेंगे कितना /
क्या अभी तक किसी ने आपको नहीं समझाया /
मैं तो कहूँगी की ज्ञानी बनना है तो बनिए /
अहंकार को जब्त करना भी सीखें /
जानिए देह गेह की निर्धारित सीमा /
और बेकसूर को क्षमा करना भी सीखें /
बहुत पढ़ाया धरम अधरम का पोथा /
जिसका थाह अबतक भी किसी ने न पाया ।
फटकार सुन कर उनका ज्ञान जागा /
कितने युगों का अंधकार भागा /
शरीर झुकाए ऋषि जा रहे थे /
याद आ रहा था सब कर्म पिछला /
कलियुग मे होता है सबका इंसाफ /
दोषी को दंड और मासूम को खून माफ ।
5
प्रलाप कंसक ।
कतेक रातिक जागल /
लाल टरेस आंखि/
जेना फटि क बाहरि निकसि आओत।
केहन भूख /के हन पियास/
खेनाय खाय छी/
मुदा क्षुधा त जेना बिला गेल होय /
ई सिंहासन /ई वस्त्राभूषन /ई रनिवास /
किछू सुख नहिं द रहल अछि उद्विग्न मोंन के /
सदिखन ,उठैत/बैसेत/चलैत/बुलईत/
ओकरे चिंतन /ओकरे धियान /
केवल ओ /ओ / ओ ।
लोक कहैत अछि/मक्खन सन /हमर गौर वर्ण /
अही आंच मे झरकि/
एकदम स्याह पड़ि गेल /कारी कचोर /
ओकरे सन एनमेन ।
आकास /पाताल /
दसो दिसा गवाह अछि /हमर व्यथा के /
ई हो लोकेक कहबी छै/
बड़ बेसी नृशंस भेल जा रहल छी हम /
परंच /हमरा त कनिओ अपन शरीरक नहि भान /
नहिं/मोने के /
बबूरक काँट/शरीरक रॉम रोंम बनि गेल /
कारी घुरमल घुरमल /माथक केस /
बरछी जका ठा ढ़ /जिबैत हम मौतक पुतरा/
मुदा कनिओ सुध हमरा कत्त/
हम त मातल चारो पहरि आठो याम /
ओकरे सोच मे ऊब डूब होईत/
भयग्रस्त भ मृत्यु स /
हदस पैसि गेल अछि /
/जेकर स्नेह मे /
कोचवान बनल /बिसरि गेल रहि अपन राजसी ठाट /
ओहि देवकी के आठम संतान /
राति दिन हमर डेरा रहल अछि /
हां /कंस हम /
कोना तड़पि तड़पि क जीबी रहल छी/नहि बूझल किओ हमर पीर /
ने जड़ि/नहिं चेतन /
नहि जानि/कहिया धरि/भटकैत रहब /
जीवन के अंत के पश्चातों //विराम करब वा नहिं / की/किओ / कहि सकैत अछि?
अनुवाद –
कितने रातों का जागा /
लाल सुर्ख आँखें /
फट कर जैसे /बाहर निकल जाएंगी /
कैसी भूख ? कैसी प्यास ?
खाता तो हूँ /
लेकिन भूख तो जैसे विलीन हो गई हो /
यह सिंहासन /ये वस्त्राभूषण /यह रनिवास /
कुछ भी सुख नहीं दे रहा है मन को /
हर पल /उठते /बैठते /
चलते /
फिरते /उसी का ध्यान /
बस वह /वह /केवल वह ।
लोग कहते हैं मक्खन जैसा मेरा गौर वर्ण /
इस आंच से झुलस कर /
एकदम स्याह पड़ गया हूँ /
काली स्याह /उसी के तरह /
अकास /पाताल /दसो दिशा /गवाह हैं /
मेरी व्यथा के ।
ये भी लोग ही कहते हैं कि/
बहुत ज्यादा नृशंस होता जा रहा हूँ मै/
लेकिन मुझे इसका तनिक भी भान नहीं /
बबुल के कांटे /मेरे शरीर का /रॉम रॉम बन गया /
काले /औठिया केश माथे के /
बर्छी कि तरह खड़े हो गए हैं /
मैं जीवित मौत का पुतला /
लेकिन मुझे जरा भी होश नहीं /
मै तो नशा मे मत्त /
रात दिन आठो पहर /
उसी के विषय मे/
गुपचुप पड़ा /
भयग्रस्त हो कर मृत्यु से /
आतंक प्रवेश हो गया है हृदय मे /
जिसके स्नेह मे कोचवान बना /
भूल गया अपना राजसी ठाठ /
उसी देवकी का आठवा संतान /
डरा रहा है मुझे रात दिन /
भोग से नहीं /भय से ग्रस्त /मैं कंस /
कैसे तड़प तड़प कर जी रहा हूँ /
नहीं समझ पाया कोई भी मेरा दर्द /
न ही जड़ /और न चेतन /
न जाने कब तक भटकता रहूँगा /
जीवन के अंत के बाद भी विराम कर सकूँगा ?
क्या इसका जवाब दे सकता है कोई ?
0 0 0 000 000 कामिनी कामायनी ॥
nice poem
जवाब देंहटाएंnice poem
जवाब देंहटाएंkavitaen bahut marmsparshi hai
जवाब देंहटाएंbahut bahut dhanyavad
बहुत अच्छी कविताएं और बहुत ही अच्छा अनुवाद
जवाब देंहटाएंआज के आज की सचाई-
ना मर्यादा का बोल रहा ,
न मधुर ,मधुर कल्लोल रहा ,।
सब दिशा मे तीव्र से तीव्र स्वर ,
बहरों के गाव मे बसे लोग ।
ना आँख मे पानी एक बूंद ,
वाह
बधाई
कविताएं काफी अच्छी हैं, कहीं कहीं पर कुछ शब्द, कुछ संकल्पनाएं समाज नहीं आयीं, पर कोई बात नहीं। ८० % भी समझ आ गया तो बहुत है. रोज रोज कहां यह पढने को मिलता है? इसे ही लिखती रहिये. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंकामिनी कामायिनी की कविताएं प्रभावी सार्थक और सराहनीय हैं| हार्दिक बधाई
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