ब्रिटेन में हिन्दी ग़ज़ल सोहन राही 1 समन्दर पार करके अब परिन्दे घर नहीं आते। अगर वापस भी आते हैं तो लेकर पर नहीं आते। मिरी आँखों की...
ब्रिटेन में हिन्दी ग़ज़ल
सोहन राही
1
समन्दर पार करके अब परिन्दे घर नहीं आते।
अगर वापस भी आते हैं तो लेकर पर नहीं आते।
मिरी आँखों की दोनों खिड़कियाँ ख़ामोश रहती हैं
कि अब इन से सुख़न1 करने मिरे मंज़र नहीं आते।
मिरी चाहत ख़लाओं2 में धुआँ बन बन के उड़ती है
मगर इस ख़ाक के ज़र्रे मिरे दर पर नहीं आते।
सुनहरी धूप की चादर, वो पूरे चाँद की रातें
हम इनमें क़ैद रहते हैं, कभी बाहर नहीं आते।
मिरे आँगन की छतरी के कबूतर ख़ूब हैं, लेकिन
चले जाते हैं वापस, तो कभी मुड़कर नहीं आते।
तुम्हारे शहर के मौसम, हमारे शहर में ‘राही'
सुनहरी धूप की लेकर कभी चादर नहीं आते।
1․ सुखन ः बात 2․ खलाओं ः खाली स्थान, अंतरिक्ष
2․
परिन्दे पेड़ को पहचानते हैं।
वो हर इक शाख़ का दुख जानते हैं।
परेशां हैं हवाओं के हुनर1 से
नए पत्ते जो इतना काँपते हैं।
कहीं काटे कोई धरती के बंधन
दुआ इक यह सभी हम माँगते हैं।
अंधेरी रात में अब क्या करें हम
चलो अश्कों के जुगनू टाँकते हैं।
किनारे भी डुबो देते हैं कश्ती
किसी तूफ़ाँ से रिश्ता बाँधते हैं।
तिरे साए, तिरे पत्तों की छतरी
मिरा घर-बार सारा ढाँपते हैं।
न ढूँढ़ अब वक़्त के पावों में काँटे
तिरे तो हाथ ‘राही' काँपते हैं।
3․
सूरज को स्याही का शगुन हमने दिया है।
किरणों को अंधेरों का कफ़न हमने दिया है।
हमने ही दिये ज़ख्म बहारों की दुल्हन को
फूलों को भी शोलों का चमन हमने दिया है।
जंगल कहीं काटा कहीं हरियाली को नोचा
धरती को ख़ज़ाँ-रंग बदन हमने दिया है।
1․ हुनरः फ़न, कारीगरी
कितने यह अलमखेज़1 हैं तहज़ीब के धंधे
क्यों जीने को मरने का चलन हमने दिया है।
उसने जो दिये हम को हँसी चाँद सितारे
कोहरे से अटा नीलगगन हमने दिया है।
मुफ़लिस ही सही क़स्र-ए-शहनशाह2 ज़रा सुन
सज-धज को तिरी हीरा-रतन हमने दिया है।
तारीख़ गवाह अपनी है इस दुनियाँ को ‘राही'
ज़ीरो3 का रयाज़ी4 में चलन हमने दिया है।
4․
चाँद के पेड़ से बिछड़े हैं जो पत्तों की तरह।
ख़्वाहिशें5 उन के त्आकब6 में हैं ज़ख़्मों की तरह।
जि़न्दगी अपनी है टूटी हुई शाख़ों की तरह।
दर-ब-दर7 भटके हैं बे-रंग8 हवाओं की तरह।
अपनी आदत ने हमें खुल के भी रोने न दिया
लम्हों की राख में जीना पड़ा शोलों की तरह।
पानी मट्टी में जो भीगी हुई आँखें हैं गड़ी
वो तो पलकों पे है सावन की घटाओं की तरह।
रूह धड़कन के सराबों9 में किसी पल न रुके
रात-दिन रक़्स में रहती है बगूलों की तरह।
1․ अलमखेज़ः दुख दायक। 2․ कस्र-ए-शहनशाहः शाही महल। 3․ जीरोः शून्य। 4․ रयाजीः गिनती, हिसाब।
5․ ख़्वाहिशेः इच्छाएँ, चाहें। 6․ त्आक़बः पीछा करना। 7․ दर-ब-दर ः आवारा। 8․ बे-रंग ः बिना रंग। 9․ सराबः धोखा, मृगतृष्णा।
दूर परदेस में माँ-बाप, बहन, भाई क्या
रिश्तों के फूल भी चुभने लगे काँटों की तरह।
जिन के अश्कों पे था छलकाया कभी ख़ूँ ‘राही'
अब वो अपने भी मिले हम को न अपनों की तरह।
5․
बिजलियों में जो आशियाना है।
उसको किस आग से बचाना है।
कब तलक दिल की देखभाल करें
यह तो शीशा है टूट जाना है।
आइये बैठिये दो चार घड़ी
हर मुसाफि़र को दूर जाना है।
जि़न्दगी दो ही दिन की है तुहमत
इस में जीना है मुस्कराना है।
आदमी आदमी का है दुश्मन
क्या नया दौर क्या ज़माना है।
हम हैं मख़सूस1 वक़्त के क़ैदी
मौत ‘राही' तो इक बहाना है।
6․
याद ने तेरी जो पलकों पर बसेरा कर लिया।
जुगनुओं के वास्ते हमने अंधेरा कर लिया।
1․ मख़सूस ः ख़ास किया गया।
रात भर दोनों समंदर आग में डूबे रहे
हम ने पानी की हथेली पर सवेरा कर लिया।
क्यों अज़ाबों की विरासत1 में बटी है जि़न्दगी
हमने अपने साथ जब से नाम तेरा कर लिया।
धूप की चादर में कैसे ज़हर के पैबन्द हैं
दिन को हमने रात से भी और घनेरा कर लिया।
धुंध और धुएँ के बादल में है लिपटी क्या ज़मीं
हर स्याही ने मिरे आँगन में डेरा कर लिया।
एक ही ख़ालिक2 है ‘राही' हम सभी के वास्ते
बाँट कर टुकड़ों में जिस को तेरा मेरा कर लिया।
7․
वक़्त का क्या है कट ही जाएगा।
और फिर दिल बहुत दुखाएगा।
अपनी बाहों में आसमाँ लेकर
तेरा चेहरा मुझे रुलाएगा।
धड़कनें जब बुझी बुझी होंगी
वो मिरे ख़ाब बन के आएगा।
इश्क इक जां-कनी3 का मौसम है
यह मिरी जान ले के जाएगा।
दर्द को दिल बना दिया तूने
इसको तू और क्या बनाएगा।
वो तो हैं चाँद प्यास का ‘राही'
जो मिरी रौशनी पी जाएगा।
1․ विरासत ः मालकीयत, धरोहर। 2․ ख़ालिकः पैदा करने वाला। 3․ जां-कनी ः जान लेने वाला।
8․
माज़ी की गुफाओं में जो टूटे से पड़े हैं।
वो लम्हें तो अब भी मिरी आँखों में जड़े हैं।
मत देख मिरे प्यार को नफ़रत की नज़र से
माना की तिरे और तलबगार बड़े हैं।
हर शाख़-ए-गुल-ए-तर पे गुमाँ तेरे बदन का
हर चोट उभर आई है जब फूल झड़े हैं।
है अपनी हथेली पे नई सुब्ह का सूरज
गो काली रवायत के मक़तल1 में खड़े हैं।
दो और दुआएँ न हमें उम्र-ए-ख़िज़र2 की
माज़ी की दुआओं से परेशान बड़े हैं।
‘राही' न उठा मौत का ताबूत3 ज़रा देख
काँधे भी हैं कमज़ोर हवादिस4 भी कड़े हैं।
9․
मौत तो है ख़ामशी के बट्ठ की गहराइयाँ।
जि़ंदगी है रौशनी के ताक़ पर परछाइयाँ।
लुट गए ऐसे मिरे ख़ाबों के दिलकश कारवाँ
अब मिरे चारों तरफ़ हैं चीख़ती तन्हाइयाँ।
एक शब मेरी तमन्नाएँ भी थीं दुल्हन बनीं
हैं तआक़ुब5 में मिरे अब दर्द की शहनाइयाँ।
मैं चराग़-ए-रहगुज़र रौशन सदाओं का हुजूम
और मेरे साथ हैं रातों की सब रुस्वाइयाँ।
1․ मकतल ः कत्ल करने की जगह 2․ खि़ज़र ः एक पैगंबर जिनके लिए मशहूर है कि उन्होंने आब-ए-हयात ;अमृतद्ध पिया था और वह हमेशा जि़ंदा रहेंगे 3․ ताबूत ः मुर्दे का संदूक 4․ हवादिस ः हादसे 5․ तआकुबः पीछा करना
बस तुम्हारे नाम ही की शम्अ पर जलता रहूँ
जब तलक हैं साथ ‘राही' साँस की पुरवाइयाँ।
10․
कलियों में ताज़गी है न ख़ुश्बू गुलाब में।
पहले सी रौशनी कहाँ जाम-ए-शराब में।
पूछो न मुझ से इश्क़-ओ-मुहब्बत के सिलसिले
लज्ज़्ात सी मिल रही है मुझे हर अज़ाब में।
यह राज़ जानती न थी तारों की रौशनी
कितना हसीन चाँद छुपा था नक़ाब में।
दो काँपते लरज़ते लबों की नवाजि़शें
लहरा के ढल गईं मेरे जाम-ए-शराब में।
हम हैं गुनाहगार मगर इस क़दर नहीं
जितने गुनाह आए हैं अपने हिसाब में।
लिखी गई जो मेरे ही ख़्वाबों के ख़ून से
‘राही' मिरा ही नाम नहीं इस किताब में।
प्राण शर्मा
1․
तीज अच्छी लगती है, त्यौहार अच्छा लगता है।
आप अच्छे हैं, मुझे संसार अच्छा लगता है।
बस यही मुझको मेरी सरकार अच्छा लगता है।
फूलों से महका हुआ घरबार अच्छा लगता है।
आपकी तो बात ही कुछ और सरकार जी
आपका छोटा सा भी उपहार अच्छा लगता है।
कौन कहता है दही को खट्टा अपना दोस्तों
अपना-अपना सबको ही दिलदार अच्छा लगता है।
जन्मों-जन्मों तक रहे सम्बन्ध मेरा आपसे
मेरे मन को आपका व्यवहार अच्छा लगता है।
बैठे रहिये आप मेरी नज़रों के ही सामने
यार को बस यार का दीदार अच्छा लगता है।
“प्राण” माथे पर लिखा कुछ भी नहीं है आपके
फिर भी मुझको आपका आचार अच्छा लगता है।
2․
खु़शबुओं को मेरे घर में छोड़ जाना आपका।
कितना अच्छा लगता है हर रोज़ आना आपका।
जब से जाना काम है मुझको बनाना आपका।
चल न पाया कोई भी तब से बहाना आपका।
आते भी हैं आप तो बस मुँह दिखाने के लिए
कब तलक यूँ ही चलेगा दिल दुखाना आपका।
क्यों न भाये हर किसी को मुस्कराहट आपकी
एक बच्चे की तरह है मुस्कराना आपका।
क्यों न लाता महँगे-महँगे तोहफे मैं परदेस से
वर्ना पड़ता देखना फिर मुँह फुलाना आपका।
मान लेता हूँ चलो मैं बात हर एक आपकी
कुछ अजब सा लगता है सौगंध खाना आपका।
बरसों ही हमने बिताये हैं दो यारों की तरह
“प्राण” मुमकिन ही नहीं मुझको भुलाना आपका।
3․
पालकी में बैठ कर आया करो ए जि़न्दगी
हर किसी को हर घड़ी भाया करो ए जि़न्दगी
काला-काला टीका माथे पर तुम्हारे चाहिए
बन-सँवर कर जब कभी आया करो ए जि़न्दगी
सब से रिश्ता है तुम्हारा फिर ये पर्दा किसलिए
अपना असली रूप दिखलाया करो ए जि़न्दगी
बेवज़ह हर एक पल मायूस क्यों हो आदमी
साथ अपने हर खु़शी लाया करो ए जि़न्दगी।
गर्मियों की तेज़ तपती धूप सी छायी हो तुम
छाना है तो बदली सा छाया करो ए जि़न्दगी।
प्यार का जब राग गाती हो तो प्यारी लगती हो
प्यार का ही राग तुम गाया करो ए जि़न्दगी।
रोते-रोते आती हो संसार में माना मगर
हँसते-हँसते दुनिया से जाया करो ए जि़न्दगी।
4․
यारों की ओर से कोई गुणगान तो हुआ।
मरने के बाद ही चलो सम्मान तो हुआ।
क्यों न बसाऊँ मन में उसे गंध की तरह
वो शख्स मेरी नज़रों में इंसान तो हुआ।
माना, वो मुझसे प्यार से बोला नहीं मगर
हाथों से उसके मीठा-सा जलपान तो हुआ।
कोई बताये, मुझको क्यों न हो कोई खुशी
सुख मेरे घर में पल दो पल मेहमान तो हुआ।
यारों पे वो मिटा नहीं तो क्या हुआ जनाब
अपने वतन के वास्ते क़ुरबान तो हुआ ।
5․
गीली लकड़ी थी गीली थी दियासलाई।
हम ही जानें, हमने कैसे आग जलाई।
हो जाए कुछ हँसी-हँसाई मेरे भाई।
बात करेंगे कब तक दोनों पीड़ादाई।
ख़ुश रहने की आदत डालो, सुखी रहोगे
माना सुख थोड़े हैं दुःख ज़्यादा हैं भाई।
क्यों ना जकड़े घोर निराशा मन को किसी के
जीवन से जब-जब टकराती है कठिनाई।
कौन उधार नहीं लेता है एक-दूजे से
शख्स वही जो कर दे चुकता पाई-पाई ।
रिश्तों की जंज़ीरों से जकड़े थे हम तो
कैसे करते अपनों से हम हाथापाई।
बात तभी बनती है मन को छूने वाली
जैसा सुन्दर घर है वैसी हो पहुनाई।
अपना-अपना “प्राण” तजुर्बा है दुनिया का
कोई कहे आँखों देखी कोई सुनी सुनाई।
6․
माना कि आदमी को हँसाता है आदमी।
इतना नहीं कि जितना रुलाता है आदमी।
माना, गले से सबको लगाता है आदमी।
दिल में किसी-किसी को बिठाता है आदमी।
रातों को सब्ज़ बाग़ दिखाता है आदमी।
कैसा सुनहरा स्वाँग रचाता है आदमी।
सच्चाई उसकी सामने आये तो किस तरह
खामी को अपनी खूबी बताता है आदमी।
सुख में लिहाफ़ ओढ़ के सोता है चैन से
दुःख में हमेशा शोर मचाता है आदमी।
हर आदमी की ज़ात अजीब-ओ-गरीब है
कब आदमी को दोस्तो भाता है आदमी।
आक्रोश, प्यार, लालसा, नफ़रत, जलन, दया
क्या-क्या न जाने दिल में जगाता है आदमी।
ख़्वाबों को देखने का बड़ा शौक़ है उसे
ख़्वाबों से अपने मन को लुभाता है आदमी।
दिल का अमीर हो तो कभी देखिए उसे
क्या-क्या ख़जाने दिल के लुटाता है आदमी
पैरों पे अपने खुद ही खड़ा होना सीख तू
मुश्किल से आदमी को उठाता है आदमी।
दुनिया से खाली हाथ कभी लौटता नहीं
कुछ राज अपने साथ ले जाता है आदमी।
7․
दुश्मनी मुमकिन है लेकिन दोस्ती मुमकिन नहीं ।
दिलजलों से प्यार वाली बात ही मुमकिन नहीं ।
यूँ तो उगती हैं हज़ारों लकडि़याँ संदल के साथ
खु़शबुएँ हर एक की हो संदली मुमकिन नहीं।
भूल जाऊँ हर निशानी आपकी मुमकिन है पर
भूल जाऊँ मेहरबानी आपकी मुमकिन नहीं।
देखने में एक जैसे ही सही सारे मकाँ
हर मकाँ में एक जैसी रोशनी मुमकिन नहीं।
माना, ले के आया हूँ मैं एक विनती राम जी
ये मेरी विनती हो तुमसे आख़री मुमकिन नहीं।
पेड़ के ऊपर छिटकती है हमेशा चाँदनी
पेड़ के नीचे भी छिटके चाँदनी मुमकिन नहीं।
मुस्कराने वाली कोई बात तो हो दोस्तो
बेवज़ह ही मुस्कराऊँ हर घड़ी मुमकिन नहीं।
8․
ज़रा ये सोच मेरे दोस्त दुश्मनी क्या है।
दिलों में फूट जो डाले वो दोस्ती क्या है।
हज़ार बार ही उलझा हूँ इसके बारे में
कोई तो मुझको बताये कि जि़न्दगी क्या है।
ख़ुदा की बंदगी करना चलो ज़रूरी सही
मगर इंसान की ए दोस्त बंदगी क्या है।
किसी अमीर से पूछा तो तुमने क्या पूछा
किसी गरीब से पूछो कि जि़न्दगी क्या है।
कभी तो बेबसी से सामना तेरा होता
तुझे भी कुछ पता चलता कि बेबसी क्या है।
ये माना, आदमी की ज़ात है मगर तूने
कभी तो जाना ये होता कि आदमी क्या है।
नज़र में आदमी अपनी नवाब जैसा सही
नज़र में आदमी की “प्राण” आदमी क्या है।
9․
कितने हो नादान तुम पतझड़ के आ जाने के बाद।
ढूँढ़ते हो खु़शबुओं को फूल मुरझाने के बाद।
साँस कुछ सुख का लिया ये मन को समझाने के बाद।
वो भी तड़पे होंगे कुछ तो मुझको तड़पाने के बाद।
सब्र करने की कोई हद होती है, साहिबो
क्यों न मुँह खुलता हमारा गालियाँ खाने के बाद।
क्या बताऊँ, मन ही मन में मैं जला कितना जनाब
दोस्तों में आपके मुझ पर कसे ताने के बाद।
पाँव हर इक के रुके होंगे घड़ी भर के लिए
जिंदगानी के सफ़र में मुश्किलें आने के बाद
ये कभी मुमकिन नहीं मंजि़ल न आये सामने
रास्तों की ठोकरें ही ठोकरें खाने के बाद।
जंगलों से गाँवों तक और गाँवों से अब शहर तक
आदमी कितना चला है दुनिया में आने के बाद।
याद रखते आपको गर शहर को हम छोड़ते
याद कैसे रक्खेंगे हम दुनिया से जाने के बाद
चाहता है आदमी जीना हमेशा के लिए
नीयत उसकी देखिए संसार में आने के बाद।
“प्राण” तुम भी दोस्तों में कुछ तो मुस्काया करो
हर कोई मासूम सा दिखता है मुस्काने के बाद।
10․
घर वापस जाने की सुध-बुध बिसराता है मेले में।
लोगों की रौनक में जो भी रम जाता है मेले में।
किसको याद आते हैं घर के दुखड़े, झंझट और झगड़े
हर कोई खु़शियों में खोया मदमाता है मेले में।
नीले, पीले, लाल, गुलाबी पहनावे हैं लोगों के
इन्द्रधनुष का सागर जैसे लहराता है मेले में।
सजी-सजाई हाट-दुकानें, खेल-तमाशे और झूले
कैसा-कैसा रंग सभी का भरमाता है मेले में।
कहीं पकौड़े, कहीं समोसे, कहीं जलेबी की महकें
मुँह में पानी हर इक के ही भर आता है मेले में।
जेबें खाली कर जाते हैं क्या बच्चे और क्या बूढ़े
शायद ही कोई कंजूसी दिखलाता है मेले में।
तन तो क्या मन भी मस्ती में झूम उठता है हर इक का
जब बचपन का दोस्त अचानक मिल जाता है मेले में।
जाने-अनजाने लोगों में फ़क़र् नहीं दिखता कोई
जिससे बोलो वो अपनापन दिखलाता है मेले में।
डर कर हाथ पकड़ लेती है हर माँ अपने बच्चे का
ज्यों ही कोई बिछुड़ा बच्चा चिल्लाता है मेले में।
ये दुनिया और दुनियादारी एक तमाशा है भाई
हर बंजारा भेद जगत के समझाता है मेले में।
रब न करे कोई बेचारा मुँह लटकाए घर लौटे
जेब अपनी कटवाने वाला पछताता है मेले में।
राम करे हर गाँव-नगर में मेला हर दिन लगता हो
निर्धन और धनी का अंतर मिट जाता है मेले में।
महावीर शर्मा
1․
जवाँ जब वक़्त की दहलीज़ पर आँसू बहाता है।
बुढ़ापा थाम कर उसको सदा जीना सिखाता है।
पुराने ख़्वाब को फिर से नई इक जि़न्दगी देकर
बुढ़ापा हर अधूरा पल कहानी में सजाता है।
तजुर्बा उम्र भर का चेहरे की झुर्रियाँ बन कर
किताबे-जि़न्दगी में इक नया अंदाज़ लाता है
किसी के चश्म पुर-नम दामने-शब में अँधेरा हो
बुझे दिल के अंधेरे में कोई दीपक जलाता है।
क़दम जब भी किसी के बहक जाते हैं जवानी में
बुजुर्गों की दुआ से राह पर वो लौट आता है।
2․
इस जि़न्दगी से दूर, हर लम्हा बदलता जाए है।
जैसे किसी चट्टान से पत्थर फिसलता जाए है।
अपने ग़मों की ओट में यादें छुपा कर रो दिए
घुटता हुआ तन्हा क़फ़स में दम निकलता जाए है।
कोई नहीं अपना रहा जब, हसरतें घुटती रहीं
इन हसरतों के ही सहारे दिल बहलता जाए है।
तपती हुई सी धूप को हम चाँदनी समझे रहे
इस गर्मिए-हालात में दिल भी पिघलता जाए है।
जब आज वादा-ए-वफ़ा की दास्ताँ कहने लगे
ज्यूँ ही कहा ‘लफ्ज़े-वफ़ा', वो क्यूँ संभलता जाए है।
दौलत कि जब दीवार-सी होती खड़ी है प्यार में
रिश्ता वफ़ा का बेवफ़ाई में बदलता जाए है
3․
जब वतन छोड़ा सभी अपने पराए हो गए।
आँधी कुछ ऐसी चली नक़्शे क़दम भी खो गए।
खो गई वो सौंधी सौंधी देश की मिट्टी कहाँ?
वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो गए।
बचपना भी याद है जब माँ सुलाती प्यार से
आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए।
दोस्त लड़ते जब कभी तो फिर मनाते प्यार से
आज क्यूँ उन के बिना ये चश्म पुरनम हो गए।
किस क़दर तारीक है अपना जहाँ उन के बिना
दर्द फ़ुरक़त का लिए हम दिल ही दिल में रो गए।
था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए।
हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले शेरो-सुख़न
अजनबी इस भीड़ में फिर भी अकेले हो गए।
4․
ग़म की दिल से दोस्ती होने लगी।
जि़न्दगी से दिल्लगी होने लगी।
जब मिली उसकी निगाहों से मिरी
उसकी धड़कन भी मिरी होने लगी।
ज़ुल्फ़ की गहरी घटा की छाँव में
जि़न्दगी में ताज़गी होने लगी।
बेसबब जब वो हुआ मुझ से ख़फ़ा
जि़न्दगी में हर कमी होने लगी।
बह न जायें आँसू के सैलाब में
साँस दिल की आखि़री होने लगी।
आँसुओं से ही लिखी थी दासताँ
भीग कर क्यों धुन्धली होने लगी।
जाने क्यों मुझ को लगा कि चाँदनी
तुझ बिना शमशीर सी होने लगी।
आज दामन रो के क्यों गीला नहीं?
आँसुओं की भी कमी होने लगी
तिश्नगी बुझ जायेगी आँखों की कुछ
उसकी आँखों में नमी होने लगी।
डबडबायी आँखों से झाँको नहीं
इस नदी में बाढ़ सी होने लगी।
इश्क़ की तारीक़ गलियों में जहाँ
दिल जलाया, रौशनी होने लगी।
आ गया क्या वो तसव्वुर में मिरे?
दिल में कुछ तस्कीन सी होने लगी।
मरना हो, सर यार के काँधे पे हो
मौत में भी दिलकशी होने लगी।
5․
सोगवारों में मिरा क़ातिल सिसकने क्यूँ लगा।
दिल में ख़ंजर घोंप कर, ख़ुद ही सुबकने क्यूँ लगा।
आइना देकर मुझे, मुँह फेर लेता है तू क्यूँ
है ये बदसूरत मिरी, कह दे झिझकने क्यूँ लगा।
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आँखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूँ लगा।
गर ये अहसासे-वफ़ा जागा नहीं दिल में मिरे
नाम लेते ही तिरा, फिर दिल धड़कने क्यूँ लगा।
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूँ लगा।
छोड़ कर तू भी गया अब, मेरी क़िस्मत की तरह
तेरे संगे-आसताँ पर सर पटकने क्यूँ लगा।
खु़श्बुओं को रोक कर बादे-सबा ने यूँ कहा
उसके जाने पर चमन फिर भी महकने क्यूँ लगा।
6․
जि़न्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहाँ?
नाम लेकर प्यार से मुझ को बुलाया ही कहाँ?
टूट कर मेरा बिखरना, दर्द की हद से परे
दिल के आईने में ये मंज़र दिखाया ही कहाँ?
शीशा-ए-दिल तोड़ना है तेरे संगे-दर पे दोस्त
तेरे दामन पे लहू दिल का गिराया ही कहाँ?
ख़त लिखे थे खू़न से जो आँसुओं ने धो दिए
जो लिखा दिल के वरक़ पर, वो मिटाया ही कहाँ?
जो बनाई है तिरे काजल से तस्वीर-ए-जहाँ
पर अभी तो प्यार से उसको सजाया ही कहाँ?
देखता है वो मुझे अब दुश्मने-जाँ की तरह
दुश्मनी में भी मगर दिल से भुलाया ही कहाँ?
ग़ैर की बाहों में था वो और मैं ख़ामोश था
संग दिल तू ने अभी तो आज़माया ही कहाँ?
जाम टूटेंगे अभी तो, सर कटेंगे सैंकड़ों
उसके चहरे से अभी पर्दा हटाया ही कहाँ?
7․
तिरे साँसों की खु़श्बू से खज़ाँ की रुत बदल जाए।
जिधर को फैल जाए, आब-दीदा भी बहल जाए।
ज़माने को मुहब्बत की नज़र से देखने वाले,
किसी के प्यार की शम्आ तिरे दिल में भी जल जाए।
मिरे तुम पास ना आना मिरा दिल मोम जैसा है,
तिरे साँसों की गरमी से कहीं ये दिल पिघल जाए।
कभी कोई किसी की जि़न्दगी से प्यार ना छीने,
वो है किस काम का जिस फूल से खु़श्बू निकल जाए।
तमन्ना है कि मिल जाए कोई टूटे हुए दिल को,
बनफ़्शी हाथों से छू ले, किसी का दिल बहल जाए।
ज़रा बैठो, ग़मे-दिल का ये अफ़साना अधूरा है,
तुम्हीं अंज़ाम लिख देना, मिरा गर दम निकल जाए।
मिरी आँखें जुदा करके मिरी तुर्बत पे रख देना,
नज़र भर देख लूँ उसको, ये हसरत भी निकल जाए।
8․
कुछ अधूरी हसरतें अश्के-रवाँ में बह गये।
क्या कहें इस दिल की हालत, शिद्दते-ग़म सह गये।
गुफ़्तगू में फूल झड़ते थे किसी के होंठ से
याद उनकी ख़ार बन, दिल में चुभो के रह गये।
जब मिले हम से कभी, इक अजनबी की ही तरह
पर निगाहों से मिरे दिल की कहानी कह गये।
यूँ तो तेरा हर लम्हा यादों के नग़मे बन गये
वो ही नग़मे घुट के सोज़ो-साज़ दिल में रह गये।
दिल के आईने में उसका, सिर्फ़ उसका अक्स था
शीशा-ए-दिल तोड़ डाला, ये सितम भी सह गये।
दो क़दम ही दूर थे, मंजि़ल को जाने क्या हुआ
फ़ासले बढ़ते गये, नक़्शे-क़दम ही रह गये।
ख़्वाब में दीदार हो जाता तिरी तस्वीर का
नींद अब आती नहीं, ख़्वाबी-महल भी ढह गये।
9․
अदा देखो, नक़ाबे-चश्म वो कैसे उठाते हैं।
अभी तो पी नहीं फिर भी क़दम क्यों डगमगाते हैं?
ज़रा अन्दाज़ तो देखो, न है तलवार हाथों में,
हमारा दिल जि़बह कर, खू़न से मेहँदी रचाते हैं।
हमें मंज़ूर है गर, ग़ैर से भी प्यार हो जाए,
कमज़कम सीख जाएँगी कि दिल कैसे लगाते हैं।
सुना है आज वो हम से ख़फ़ा हैं, बेरुख़ी भी है,
नज़र से फिर नज़र हर बार क्यों हम से मिलाते हैं?
हमारी क्या ख़ता है, आज जो ऐसी सज़ा दी है,
ज़रा सा होश आता है मगर फिर भी पिलाते हैं।
ज़रा तिर्छी नज़र से आग कुछ ऐसी लगा दी है,
बुझे ना जि़न्दगी भर, रात दिन दिल को जलाते हैं।
10․
भूल कर ना भूल पाए, वो भुलाना याद है।
पास आये, फिर बिछड़ कर दूर जाना याद है।
हाथ ज़ख्मी हो गए, इक फूल पाने के लिए
प्यार से फिर फूल बालों में सजाना याद है।
ग़म लिए दर्दे-शमाँ जलती रही बुझती रही
रोशनी के नाम पर दिल को जलाना याद है।
सूने दिल में गूँजती थी, मदभरी मीठी सदा
धड़कनें जो गा रही थीं, वो तराना याद है।
रह गया क्या देखना, बीते सुनहरे ख़्वाब को
होंठ में आँचल दबा कर मुस्कुराना याद है।
जब मिले मुझ से मगर इक अजनबी की ही तरह
अब उम्मीदे-पुरसिशे-ग़म को भुलाना याद है।
रिफ़अत शमीम
1․
बीच दीवार है सो उस को गिरा देते हैं।
दिल को अब उन की गुज़रगाह बना देते हैं।
घर बनाते हैं जो आशाओं का दिल में अपने
दिल के अंदेशे ही फिर उस को गिरा देते हैं।
जीते रहते हैं यहाँ क़ैद में दीवारों की
बंद कमरे में ही दिन रात गँवा देते हैं।
शाम होती है तो यादों के शनासा चेहरे
दिल के वीराने में मेला सा लगा देते हैं।
इतनी शंकाओं के पर्दों में छुपे बैठे हैं।
कब वह दुनियाँ को हक़ीक़त का पता देते हैं।
2․
झूठा रूप बना के वह तो औरों की पहचान बने।
भूल के अपनी हस्ती ख़ुद ही अपने से अनजान बने।
जोबन जैसे कोमल कलियाँ काया जैसे पीपल पात
नन्ही सी इक बूँद अभी वह कैसे कोई तूफ़ान बने।
रूप बदल कर पापी जग के मंच पे देखो आए वह
झूठ का परदा बीच में डाले मानस से शैतान बने।
मन के बाहर निकले जो भी तन के रोचक मेले में
मन को रोये तन को खोये माटी का सामान बने।
जितने मंदिर उतनी ज़ातें जितने पत्थर उतनी घातें
एक ही रूप है सच्चा तो फिर इतने क्यों भगवान बने।
3․
बात निकली ही तो फिर बात का चर्चा होगा।
बात ही बात में यूँ कोई तो रुसवा होगा।
मुन्तजि़र कब से था मैं राहगुज़र पर दिल की
रास्ता अपना मगर उसने ही बदला होगा।
शायद पहचान भी अब वक़्त मिटादे उसकी
दिल में आँखों ने छुपा कर जिसे रक्खा होगा
भीड़ ख़्वाबों कि लगी रहने दो आँखों में ज़रा
वरना फिर रात का आलम बड़ा तनहा होगा।
4․
बिछड़ती रात है बुझते चराग़ों की।
कहाँ अब अंजुमन आँखों में ख़्वाबों की।
मिले बिछड़े हुए फिर आशना चेहरे
बिछा कर सो गया चादर जो यादों की।
रहीं कि यूँ उम्र भर अब फ़ासले बन के
कि नज़दीकियाँ कुछ तनहा रातों की।
किया बेघर बिना मौसम कि बारिश ने
छतें सब गिर गईं कच्चे सहारों की।
5․
समय कि धूप के डर से।
निकलता अब नहीं घर से।
मिरी तनहाई रोती है
लिपट कर रात बिस्तर से।
सलामत कब है कोई दिल
नज़र के तीरो खंजर से।
कभी तो आँख भर आए
मिलें मोती समंदर से।
किताब-ए-उम्र क्या देखूँ
भरी है काले अक्षर से।
6․
जल गईं डालियाँ दरख़्तों की ।
अब क़तारें कहाँ परिंदों की ।
शाख़-ए-गुल यूँ लगे हैं जैसे कि।
कोई पहने क़बा हो ज़ख्मों की।
उठ के देखा तो रात कमरे में
मैं ही आहट था अपने क़दमों की।
शहर-ए-दिल से कभी गुज़र जो हुआ
खुल गईं खिड़कियाँ उमीदों की।
एतमाद-व-वफ़ा के रिश्ते सब
दास्ताँ हैं ये दिल के सदमों की।
7․
जिस भरोसे पे अब के चलता हूँ ।
हर क़दम पर उसी से डरता हूँ ।
जाने क्या दिल को याद आता है
सूनी गलियों से जब गुज़रता हूँ।
अब कोई पाँव तक नहीं धरता
ऐसा सुनसान तनहा रस्ता हूँ ।
शाम होते ही घर में आँखों के
किस के आने की राह तकता हूँ ।
क़ज़र्-ए-हस्ती उतार दे या रब
कियूँ यह बढ़ता है जितना भरता हूँ ।
8․
वोह जो बहोत थे आगे आगे
वक़्त पड़ा तो खौफ़ से भागे।
सुब्ह हुई तो टूट गए सब
शब् की सोच के उलझे धागे।
सूरज काला धूप अँधेरी
कोइ यहाँ फिर कैसे जागे।
लौट के खु़द ही वापस आए
क़ैद से अपनी जब भी भागे।
चाक है कब से दिल का दामन
माँगने वाला कियूँ कर माँगे।
परवेज़ मुज़फ्फ़र
1․
ये जि़क्र प्यार का है।
मौसम बहार का है।
चिंगारियों से रूठा
पौधा चिनार का है।
खंजर हैं ख़ू़बसूरत
ये मेरे यार का है।
मुट्टी में बंद रखना
मोती जो प्यार का है।
तन पर सजा है जो भी
सब कुछ उधार का है।
2․
तेरी बन्दूक मेरे शाने पर।
और मैं ही तेरे निशाने पर।
फिर किसी और व़क्त मिलना तू
दिल नहीं है, अभी ठिकाने पर।
अब मेरी जि़न्दगी का दारोमदार
है तेरे आने, या न आने पर।
तितलियों का कसूर बख़्शा जाये
ग़ुंचे खिलते हैं, चूमे जाने पर।
रात फिर धोखा खा गए ‘परवेज़'
उठ गए चाँद के जगाने पर।
3․
फूल सारे वह तोड़ लाया है।
किस तरीके से घर सजाया है।
मेरा अहसास-ए-ग़म समंदर से
कितने मोती बटोर लाया है।
आज का दिन भी हो गया ज़ाया
जाल में न धूप है, न साया है।
हमने टुकड़ों में बाँट दी दुनिया
कोई अपना, कोई पराया है।
आप गुलशन पर हक़ जताते हैं
क्या कोई फूल भी खिलाया है?
4․
मेरे घर आज आ रहा है कोई।
दिल की घंटी बजा रहा है कोई।
व़क्त है दुश्मनों से लड़ने का
और आँसू बहा रहा है कोई।
है तो जु़ल्मत में कोई जुगनू सा
फूल में मुस्कुरा रहा है कोई।
तेरी महफ़िल से जा रहे हैं हम
जान से जैसे, जा रहा है कोई।
शेर कहने में रात मेरी गयी
अब उन्हें गुनगुना रहा है कोई।
5․
काले बादल हटे नहीं।
हम रस्ते से हटे नहीं।
कोशिश की थी नेता ने
दंगों में सिर फटे नहीं।
मिल्लत सा वाबिस्ता है
हम फिरक़ों में बँटे नहीं।
फूले-फले वतन से दूर
जो मिट्टी से कटे नहीं।
6․
हवा को कुछ बहाना चाहिए था।
के फूलों का ख़जाना चाहिए था।
नयी रुत आ गयी गुलशन में अब तो
तुम्हें भी मुस्कुराना चाहिए था।
यहाँ लगता नहीं है दिल हमारा
तो अपने मुल्क़ जाना चाहिए था।
अकेले में बहारें बे-मज़ा हैं
किसी को साथ लाना चाहिए था।
तुम्हारे शेर तो फीके हैं ‘परवेज़'
इन्हें कुछ गुनगुनाना चाहिए था।
7․
जिसके दिल में भी लगन होती है।
उसके कब्ज़े में किरण होती है।
हम ये आँसू नहीं बहने देते
क्यों ये सीने में जलन होती है।
दूर मैं उनसे अगर रहता हूँ
दिल में हर वक़्त चुभन होती है।
हम को आता है मज़ा, चलने में
और मंजि़ल में थकन होती है।
वाकई उसके बदन की खुशबू
बास-ए-रश्क-ए-चमन होती है।
खिड़कियाँ खोलनी होंगी ‘परवेज़'
बंद कमरे में घुटन होती है।
8․
दोस्त है वो पीठ पर आएगा नेज़ा तान कर।
भाई है तू जा मेरी रुसवाई का सामान कर।
वरना सीधे से अदा कर दे शराफ़त का खि़राज
और आज़ादी की ख़्वाइश है तो बढ़, एलान कर।
आ गले मिल, दर्द का रिश्ता है अपने दरमियाँ
इतने ज़ोरों से न हिन्दुस्तान-पाकिस्तान कर।
रोशनी रहती है तेरी शीश-महलों में सदा
चाँद-प्यारे मेरी कुटिया पर, कभी एहसान कर
उसने पूछा तक नहीं ‘परवेज़' है किस हाल में
मैं तो उसके पास आ बैठा था अपना जान कर।
9․
आईये तीर चलाने के लिए।
हम भी हाजि़र हैं निशाने के लिए।
ख़ास हिकमत से बना है मेरा दिल
आप के नाज़ उठाने के लिए।
तुम मेरे क्या हो, बता दो सबको
फूल हो सारे ज़माने के लिए।
हमने आँखों में जला रक्खा है
दीप दरिया में बहाने के लिए।
आप साहिल पे खड़े हो जाएँ
नाव को पार लगाने के लिए।
ज़ख्म को होठ मिले हैं ‘परवेज़'
यार को शेर सुनाने के लिए।
10․
चमन में कहाँ तक हवा कीजिये।
शगूफ़ों के हक़ में दुआ कीजिये।
बियाबाँ ने इक दिन बिगड़कर कहा
कभी अपने घर भी रहा कीजिये।
कोई याद आया, तो आता गया
मज़े से मियाँ रतजगा कीजिये ।
उतर जायेगा आईने से ग़ुबार
कभी अपने ऊपर हँसा कीजिये।
ज़रूरी नहीं है, गले भी मिले
मगर दोस्तों से मिला कीजिये ।
सताती है ‘परवेज़' दुनिया हमें
ग़ज़ल भी न कहिये, तो क्या कीजिये।
नीना पॉल
1․
सागर मेरे जज़्बात का छलका गया कोई।
पल में वफ़ाओं की सज़ा सुना गया कोई।
जब उनसे किया जि़क्र उनकी जफ़ाओं का
हौले से मुस्कुरा के तड़पा गया कोई।
ना रुक सकीं जो आँधियाँ ना बाज़ बिजलियाँ
तंग आके खु़द ही आशियाँ जला गया कोई।
आया था इक मुक़ाम यूँ उल्फ़त की राह में
हम चुप वो ख़ामोश संग रुला गया कोई।
जब जीस्त के अंधेरों से घबरा गई नीना
बन कर चराग़ राहों को सजा गया कोई।
2․
उनसे यूँ ही मुलाक़ात होती रही।
आँख झुकती रही बात होती रही।
शब की बारीकियाँ भी थीं ख़्वाबों भरी
वस्ल की हर रात शबेरात होती रही।
नज़रों के मिलन से जब शुरू गुफ़्तगू
तो पलकों की क़रामात होती रही।
पंख सोचों के ले बादलों की उड़ान
गिर्द शबनम की बरसात होती रही।
जुल्फ़ पहले भी खुलती थी सहराओं में
अब सहर से ही रात होती रही।
आहट धड़कन की नीना ना सुन ले कोई
हर क़दम पे ऐहतियात होती रही।
3․
उड़ती सोचों के परिंदे बेपर नहीं होते।
खुली आँखों के सपने बेअसर नहीं होते।
सच कहा बुजुर्गों ने गया वक़्त हाथ आये ना
वो जि़ंदगी क्या जिसमें ज़ेर ज़बर नहीं होते।
आशियाँ ना ठहरे कभी चिटकती डालों पर
जो बचा ना पायें तूफ़ानों से वो घर नहीं होते।
नाकामियों का अपनी है ऐहतराफ़ मुझको भी
हर किसी के मुकद्दर में चमकते गुहर नहीं होते।
यूँ रेज़ा रेज़ा हो कर ज़मीं पर बिखर गया
आईने भी हक़ीकत से बेख़बर नहीं होते।
ना तो ये थकता है ना रुकता है कहने पर
कभी ख़त्म वक़्त ऐ ताईर के सफ़र नहीं होते।
ज़हन यादों को छोड़े ना तसव्वुर ख़्यालों को
कुछ ख़्वाब नींदों पर नीना निर्भर नहीं होते।
4․
पूछो न उनका हाल बहारों के सामने।
जो फूल टिक सके नहीं ख़ारों के सामने।
छलनी हुए कलेजे गुलों के सबेरे शाम
कुछ बस न चला उनका बयारों के सामने।
तुझको न कर दे रुसवा ये दीवानगी मेरी
तोहमत उठा के चलना हज़ारों के सामने।
ऊँची सी उठती लहरों ने तोड़े सभी हैं बाँध
किस मुँह से जाएगा तू किनारों के सामने।
जो आज कभी कल रहे नज़रों में गैरों की
कुछ तो वो कहता उन्हीं बंजारों के सामने।
5․
कौन मेरी चुप्पियों में गुनगुनाना चाहता है।
इक झलक दिखला के तन्हाई बढ़ाना चाहता है।
अंजुमन यादों की सजाता है सारी रात को वो
दे के दस्तक पलकों पे दिल में समाना चाहता है।
कद्र करती हूँ मैं उसकी उसके आने के लिए पर
वो कभी मेहमान था, अब हक़ जताना चाहता है।
नज़रों ने जब कर दिया इज़हार उल्फ़त का खु़दाया
जाने क्या मुँह से मेरे वो कहलवाना चाहता है।
चुप सा बैठा है वो मेरे सामने कब से ही लेकिन
उसकी नज़रें कहती हैं वो कुछ बताना चाहता है।
डॉ․ अजय त्रिपाठी
1․
औरों के दुख में रोया कर।
कभी तू भूखा सोया कर।
ग़ैरों के ग़म की ख़ातिर
अपनी खुशियाँ खोया कर।
कभी दोपहरी में चल कर
ग़ैर का बोझा ढोया कर।
दिल पर जितना मैल चढ़ा है
आँसू से बस धोया कर।
नफ़रत बोता थक जाएगा
कभी तो खुशियाँ बोया कर।
2․
जीना कैसे नए साल में ये सोचा है।
दिल में दिल की बातें रखेंगे सोचा है।
बोल के सच्ची बातें हासिल रुसवाई की
सच से अब हम दूर रहेंगे ये सोचा है।
लोगों पर न जाने कितना वक़्त लुटाया
कुछ पल अपने साथ रहेंगे ये सोचा है।
बुरा लगा तो कड़वे बोल कहे लोगों से
अब चुपके से ज़हर पियेंगे ये सोचा है।
प्यार में अपने दिल को रोग लगा बैठे थे
इसका कोई इलाज करेंगे ये सोचा है।
3․
देता दिल पर दस्तक़ कौन।
आया मेरे घर तक कौन।
छोटी बस्ती में रहता हूँ
पहुँचा है ये मुझ तक कौन।
जब तक तेरी आँख खुलेगी
सब्र करेगा तब तक कौन।
तू तो सचमुच पत्थर निकला
होगा अब नत-मस्तक कौन।
सब को इक दिन जाना होगा
सदा रहा है अब तक कौन।
4․
नींद न आती अगर तो ख़्वाब भी आते नहीं।
बेवजह दिल टूटने के सबब बन पाते नहीं।
चुप थे क्यों हम ब़ज्म में ये राज़ किस पे खोलते
तुम नहीं तो महफ़िलों में गीत हम गाते नहीं।
जो पता होता कि क़ातिल ही है अब क़ासिब यहाँ
सच कहें फ़रियाद अपनी हम यहाँ लाते नहीं।
तुम तो क्या हो हम खु़दा को भी यही कहते चले
जो हमें इज़्ज़त न बख़्शे उसके घर जाते नहीं।
है अगर दौलत तो रिश्ते खु़द-ब-खु़द बन जाएँगे
इस फ़रेबी जि़न्दगी में सच्चे अब नाते नहीं।
गर वो उसके प्यार की कीमत समझते जो ज़रा
तोड़ते मन्दिर न यूँ और मस्जिदें ढहाते नहीं।
5․
महफ़िल में इक शमा जला दे।
थोड़ी तो खलबली मचा दे।
बैठे बैठे ऊँघ रहे हैं
इन लोगों को ज़रा जगा दे।
बहरों की दुनिया है ये तो
ऊँची इक आवाज़ लगा दे।
पत्थर बन के बैठा है वो
तू घंटे घडि़याल बजा दे।
सर्द लहू फिर उफ़न पड़े
ऐसी तू अब आग लगा दे।
जो जनता का भला न सोचे
उसकी सत्त्ाा आज गिरा दे।
मैं शैतान का क़त्ल करूँगा
मुझको उसका नाम पता दे।
6․
रात को तारे गिना करो।
ख़्वाब सुनहरी बुना करो।
अपनी ही कहते रहते हो
औरों की भी सुना करो।
दुश्मन अब तक चुने हैं तुमने
दोस्त कभी तो चुना करो।
सोचो कुछ कहने से पहले
बाद में सिर न धुना करो।
औरों से जो जलन है तुमको
सूरज जैसे जला करो।
7․
रिश्तों में गरमी आने में वक़्त लगेगा।
गुत्थी ये सुलझा पाने में वक़्त लगेगा।
आँखों में तो अक़्स उतर आएगा इकदम
दिल तक पर तुमको आने में वक़्त लगेगा।
सोच समझ के कहना जो कहना चाहो
उलझी बात तो सुलझाने में वक़्त लगेगा।
प्यार के कच्चे धागे झट से तोड़ दिए तो
प्रीत की रीत को अपनाने में वक़्त लगेगा।
नफ़रत की रातें इतनी लंबी आईं
सूरज को अब दिन लाने में वक़्त लगेगा।
8․
वक़्त के दरिया में बह जाना ठीक नहीं।
चुपके-चुपके सब सह जाना ठीक नहीं।
आए हो तो साथ रहो हरदम मेरे
मेहमानों सा आना जाना ठीक नहीं।
एक इरादा एक लगन आवश्यक है
रुक-रुक कर यूँ कदम बढ़ाना ठीक नहीं।
दिल ही मेरा दुश्मन है अब तो यारों
दिल को दिल की बात बताना ठीक नहीं।
बोलो उतना ही जितना तुम कर पाओ
सबको झूठे ख़्वाब दिखाना ठीक नहीं।
वैसे तो सब कुछ चलता है दुनिया में
राजनीति में धर्म का आना ठीक नहीं।
जीते हो मरने की धमकी दे दे कर
दुनिया पर एहसान जताना ठीक नहीं।
वक़्त गँवाया तुमने मंजि़ल खो बैठे
किस्मत पर इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं।
9․
वो अगर धोखा मुझे देकर गया तो।
और सदमा खा के मैं फिर मर गया तो।
सोचता हूँ आइना देखूँ न देखूँ
अक़्स से अपने अगर मैं डर गया तो।
तेरी महफ़िल में मुझे ख़तरा बहुत है
काम कोई ऐसा वैसा कर गया तो।
मैक़दे से उठ तो जाऊँ मैं भी लेकिन
साक़ी मेरा जाम फिर से भर गया तो।
वो मिली रुसवाई कि मर जाऊँगा मैं
भूल से भी मैं जो उसके दर गया तो।
आज क्यों मैं होश में हूँ ए खु़दाया
हों सभी हैराँ मैं दिन में घर गया तो।
10․
सारे लोग सयाने थे।
बस हम ही दीवाने थे।
पत्थर दिल लोगों में यारों
हम नाजुक दिल वाले थे।
लोगों की तब आँख खुली
जब हम मरने वाले थे।
और कमाई क्या थी अपनी
हाथों में बस छाले थे।
जिसको प्यार किया था हमने
उसके रंग निराले थे।
दोस्त बनाए हर पल हमने
धोखे तो फिर खाने थे।
पैमानों में खू़न भरा था
झूठे वो मयख़ाने थे।
डॉ․ कृष्ण कन्हैया
1․
आपसे आग़ाज में जो मिला था।
जु़ल्म का अब तक वही सिलसिला था।
खौलकर है टूटता जल सतह पर
आप कहते हैं, महज़ बुलबुला था।
मत जलाओ क़ब्र पर अब चिराग़ाँ
दिल मिरा पहले ये क्या कम जला था।
ज़लज़ले को रोक कर, क्या मिलेगा
राहतों में लाभ का मामला था।
आँधियों में पेड़ बस वो गिरे हैं
जिस किसी भी डाल पर घोंसला था।
2․
जो बेहिचक खरा बोलता है।
वो बोल भी कड़ा बोलता है।
छोटे मिजाज़ वाला ही अक़सर
खु़द को बहुत बड़ा बोलता है।
बस ज़ोरदार हल्ला मचाकर
औंधा मुँहा घड़ा बोलता है।
महफ़ूज़ खु़शनुमा है चमन तो
पंछी ज़रा- ज़रा बोलता है।
जिसने लुटा दिया जान, उसको
इतिहास मसखरा बोलता है।
3․
यादें, बेवफ़ाई देती हैं।
भूलूँ, तो दिखाई देती हैं।
मैं तो रोक लूँ अंदर की जलन
मन ही मन सुनाई देती है।
चढ़ना चाहता हूँ जब ऊपर
दुनिया खेल, खाई देती है।
करना कौन चाहेगा मेहनत
जब धोक़ा क़माई देती है।
है अभिशाप गुरबत में जीना
घर-घर में बुराई देती है।
डाका जगहँसाई था पहले
अब दुनिया बधाई देती है।
4․
बस अल्ला के रहमत जैसी।
भर दे जज़्बा शिद्दत जैसी।
सूरत-मूरत दोनों मौला
दे दो अपनी फ़ितरत जैसी।
आधा जीवन सपनों जैसा
आधी जीना दहशत जैसी।
अंगारों से लड़ना होगा
पानी तेरे हिम्मत जैसी।
आँखों को वैसा दिखता है
जिसकी होगी सूरत जैसी।
दिल में डर का आना-जाना
डर जाने की आदत जैसी।
मेरे अंदर बुझता जज़्बा
मजदूरों के कि़स्मत जैसी।
5․
क्षण-क्षण बदलाव से डरने लगा हूँ।
अब तो अलगाव से डरने लगा हूँ।
इन्सानी झील में पत्थर गिराओ
जाहिल ठहराव से डरने लगा हूँ।
खु़द्दारी के लहू का रंग फीका
खू़नी पथराव से डरने लगा हूँ।
रोज़ाना भीड़ बढ़ती है शहर में
गु़म होते गाँव से डरने लगा हूँ।
मज़हब का ढोल जो हरदम बजायें
उनके बर्ताव से डरने लगा हूँ।
कैसे कल्याण पर पैसे लगेंगे।
हर रोज़ चुनाव से डरने लगा हूँ।
आत्म-सम्मान को कैसे बचायें
सस्ते सद्भाव से डरने लगा हूँ।
--
रवि जी
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक
किस किस लफ्ज की तारीफ करें.
दिल और दिमाग की चकरघन्नी बन गई है--इतने रुप इतने रंग एक साथ-- जैसे पेटू की भाषा में कहूं तो छप्पन भोग....बहुत समय लगेगा एक-एक को समझने में
सभी रचनाकारों को मेरा उनकी जन्मभूमि की ओर से नमन एवं शुभेच्छा..... ऐसे ही लिखते रहें और हमें अच्छी अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलती रहेगीं-ऐसी आशा है..... रवि जी आपका और रचनाकार का बहुत- बहुत आभार - इस भागीरथ रुप के लिए.. जिस भागीरथी में हमें भी आचमन करने के सुअवसर मिल जाते हैं.....सभी को हमारा प्रणाम अवश्य प्रेषित करना जी. सादर
बेहतरीन हिंदी ग़ज़ल पढने को मिली :)
जवाब देंहटाएंभई वाह, काफी आनंदित पंक्तियाँ हैं।
जवाब देंहटाएं