कुबेर Mo- 9407685557 1 दांत निपोरना भी एक कला है बत्तीसी विहीन सुंदरता की कल्पना बेमानी है। दूध के दांतों के झड़ने और अकल के दांतों (दाढ़ों) क...
कुबेर
Mo- 9407685557
1
दांत निपोरना भी एक कला है
बत्तीसी विहीन सुंदरता की कल्पना बेमानी है।
दूध के दांतों के झड़ने और अकल के दांतों (दाढ़ों) के निकलने का रिवाज यदि
नहीं होता तो बड़े-बुजुर्ग छोटों पर अपनी महानता का रौब भला कैसे जमा
पाते?
अन्य जानवरों के (यदि आदमी को जानवर न माना जाय) बड़े-बड़े घिनौने दांतों
से अपने छोटे-छोटे सुंदर दांतों की तुलना करते ही मनुष्य स्वयं को औरों
से सभ्य और श्रेष्ठ होने का भ्रम पालने लगता है। अगर जानवर कह पाते कि
’अरे मनुष्यों! हमारे दांत बड़े और बेडौल जरूर हैं, पर तुम लोगों के
दांतों के समान हिंस्र और खतरनाक नहीं हैं। दांत खट्टा करने और दांत
निपोरने की आधुनिक कला भी तुम्हीं लोगों को मुबारक हो,’ तो भला इनकी क्या
रह जाती?
कभी न कभी आपने भी दांत निपोरा होगा। यदि कोई अपनी बत्तीसी का प्रदर्शन
हें...हें...हें...की लय बद्ध स्वर के साथ इस प्रकार करे कि हालाकि उसमें
प्रदर्शन की भावना हो या न हो, सामने वाले व्यक्ति के तमतमाए हुए तमाम
तेवर क्षण भर में ही पानी-पानी हो जाए तो इस कला को दांत निपोरना समझिए।
ऐसा करके वे किसी टूथ-पेस्ट या मंजन-पावडर का विज्ञापन नहीं करते, बल्कि
अपनी श्रेष्ठता, महानता और सफलता की आभा से आपको चमत्कृत कर रहे होते
हैं। ऐसे लोगों को यद्यपि दांत निपोरू कह सकते हैं पर उनके सामने ही
उन्हें दांत निपोरू कहने की भूल आप हरगिज न करें। पीठ पीछे चाहे जितनी
बार कह लें, जैसे कि मैं कह रहा हूँ।
दांत निपोरुओं की पहचान एकदम आसान है। इनके दांतों का चमकीला होना हरगिज
जरूरी नहीं है। बल्कि जिन दांत निपोरुओं के दांत चमकीले हों, समझिये वे
इस कला के नये साधक हैं।
दांत निपोरुओं के दांतों का अर्थात बत्तीसी का सही सलामत होना भी जरूरी
नहीं है। बल्कि बत्तीसीविहीन निपोरू ही वेटरन निपोरू होते हैं।
महान दांत निपोरुओं की दांतों और साँसों से किसी टूथ-पेस्ट की चमक और महक
नहीं आती, बल्कि दांतों के ऊपर पान और खैनी की मोटी परत और साँसों से
धूर्तता और मक्कारी की असहनीय गंध आती है। इसी से तो उनकी महानता प्रगट
होती है।
दांत निपोरने की कला एक महान कला है। यह हर किसी के बस की बात नहीं है।
अन्य कलाओं की भांति इस कला में भी महारत हासिल करने के लिए सतत् अभ्यास
और चिर साधना की जरूरत होती है। यदि किसी में यह कला जन्मजात है तो अच्छा
है, नहीं है तो कोई बात नहीं। थोड़े ही दिनों की साधना से (इच्छा हो तो
लगन आ ही जाएगी) इस कला में निपुण हुआ जा सकता है। आपको बस इतना ही करना
है कि यदि आपका कोई प्रतिपक्षी या तलबगार आपके प्रति नाराजगी व्यक्त करे
या आप स्वयं सामने वाले के प्रति अपराध-बोध महसूस करें, तो बिना समय
गँवाए, बिना कुछ सोंचे समझे, अपनी सारी बत्तीसी निकाल कर
हें...हें...हें...की विशेष निपोरू राग के साथ अपना पूरा वाल्यूम कंट्रोल
खोल दीजिए।
यदि प्रथम प्रयास में काम न बने तो दोबारा प्रयास करें। फिर भी काम न बने
तो एक अंतिम प्रयास और करें। (यदि आप इस कला में माहिर हैं तो चैंथे
प्रयास की जरूरत नहीं पड़ेगी) विश्वास रखिए, सामने वाला शर्म से पानी-पानी
हो जाएगा। उसके दांत इतने खट्टे हो जाएंगे कि वह कुछ बोलने लायक नहीं
रहेगा।
दांत निपोरू सर्वव्यापी होते हैं; फिर भी दुकानों, दफ्तरों और मंत्रालयों
में ये थोक के भाव पाए जाते हैं। बाबुओं का बाबू अर्थात बड़ा बाबू वही हो
सकता है जो इस कला में सर्वाधिक दक्ष हो। इस कला में माहिर नेता मंत्री
पद के प्रबल दावेदार होते हैं।
दुकानदारों और व्यापारियों को अपनी दुकानदारी चमकाने के लिए इसी कला में
दक्ष होना पड़ता है। मिस्त्रियों का तो यह अनिवार्य गुण है। घड़ीसाज हो,
रेडियो मेकेनिक हो, सायकल मिस्त्री हो या कार मेकेनिक, जब तक ये इस कला
का सम्मिश्रण अपनी तकनीकी कला के साथ नहीं करेगें, किसी यंत्र का दुरुस्त
हो पाना नामुमकिन होता है।
लोग कहते हैं, सफलता के लिए कठोर परीश्रम जरूरी होता है। मैं कहता हूं,
ऐसा कहना इस महान कला का सरासर अपमान है। परिश्रम करें आपके दुश्मन। आपको
यदि दांत निपोरना आता है, तो सफलता आपके कदम चूमेगी। मंत्रों में
महामंत्र, चाबियों में मास्टर चाबी और सोलह कलाओं में महानतम है यह कला।
इस कला में हें...हें...हें...की जो अनुनासिक स्वरधारा प्रवाहित होती है,
जिसे इनके साधक निपोरू राग बताते हैं, अवश्य किसी शास्त्रीय राग पर
आधारित होगी वर्ना इसमें इतनी ऊर्जा संभव होती?
दांत निपोरने की कला की व्यापकता, दांत निपोरुओं की संख्या और इसकी सफलता
को देखते हुए इस कला को देश की राष्ट्रीय कला तथा ऐसे कलाकारों के चरित्र
को देश का राष्ट्रीय चरित्र मान लेना चाहिये। हें...हें...हें...।
000
2
पेट के दांत
दांत विषयक इस लेख का उद्देश्य आयुर्विज्ञान के दंत चिकित्सा विज्ञान को
चुनौती देना नहीं है अपितु दांतों की चमत्कारिक शक्तियों को प्रकाशित
करना है।
दांत की शक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं - लौकिक और अलौकिक। ईश्वर के
साकार और निराकार स्वरूप की अवधारणा शायद यहीं से प्राप्त हुई होगी। दांत
की इन शक्तियों से संबंधित यह मत दंतयोगवादियों के द्वारा प्रतिपादित है।
इस पर शंका न करें।
संसारी व्यक्तियों के दांत लौकिक होते हैं जबकि सरकारी लोगों के दांत
अलौकिक। लौकिक दांत साकार होते हैं और ये मुंह में पाए जाते हैं। अलौकिक
दांत निराकार होते हैं। लोग कहते हैं, ये पेट में पाए जाते हैं।
दुनिया के सारे कर्म-कुकर्म के कर्ता-धर्ता सिर्फ निराकार दांत ही होते
हैं। बाबा तुलसी इन दांतो के विषय में जानते होते तो इनकी महिमा में कुछ
इस प्रकार की चैपाइयाँ लिखते-
बिनु पद चलहिं,सुनहिं बिनु काना।
दिखत नहीं, पर खावहिं नाना।।
भोगवादियों ने अलौकिक दांतों के तीन प्रकार बताए हैं। दिखाने के दांत,
खाने के दांत और पेट के दांत। धन्य हैं वे, जिन्हें ईश्वर ने ये तीनों
दांत बख्शे हैं। दुनिया में इन्हीं लोगों का बोलबाला है। चारों ओर इन्हीं
लोगों की जय-जयकार हो रही है। दुनिया में पहले ऐसे लोग बिरले होते थे, अब
दिन दूनी रात चैगुनी इनकी आबादी बढ़ रही है।
मुँह में जो दंतावलियाँ होती हैं और जिसे हम बत्तीसी कहते हैं, लौकिक
गुणों से युक्त साकार दांत होते हैं। आम लोग भ्रम वश इसे ही दिखाने, खाने
और पेट के दांत समझ बैठते हैं। लिहाजा न तो वे कुछ खा पाते हैं और न ही
तृप्त हो पाते हैं। फिर तो इनकी अतृप्त आत्माएँ जन्म जन्मांतर तक स्वाद
के भवसागर में भटकती रहती है। जनता नामक योनी में बार-बार जन्म लेती रहती
है। रो-धो कर जिन्दगी बिताती है। बीमारी और लाचारी में जीती है। शाक-भाजी
खा-खा कर आंतों का रोगी हो जाती है।
बत्तीसी के भरोसे न तो कुछ खाया जा सकता है और न खाए हुए को पचाया ही जा सकता है।
खाना और पचाना भी एक कला है। मैं तो कहता हूँ, यह कला ही नहीं,
कला-श्रेष्ठतम है। जिसके पास यह कला होती है वह अन्य सभी पर भारी पड़ता
हैं। ऐसे लोगों पर ऊपर वालों की सदैंव कृपा बनी रहती है। ऊपर वालों की एक
स्थापित, अटूट और मजबूत श्रृँखला होती है। हर ऊपर वाला अपने नीचे वाले का
पालन-कर्ता होता है।
खाने के दांत न सिर्फ खाने के अपितु कुतरने के भी काम आते हैं। एक बार
यदि ये खाने और कुतरने पर आमादा हो जाए तो चूहे भी इनके सामने पानी भरते
नजर आते हैं। दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसे ये खा और पचा न सके।
जीने और खाने का भरपूर और वास्तविक आनंद तो ऐसे दांत वाले ही लिया करते
हैं। संभवतः हमारे नेताओं, अधिकारियों और कर्मचारियों को ईश्वर ने ऐसे ही
दांत नवाजें हों? इनके पूर्वज बंदर तो कतई नहीं हो सकते, हां! चूहे जरूर
हो सकते हैं।
दिखाने के दांतों को साधारण दांत समझने की भूल कदापि न करें। इन्हीं के
पीछे काटने के दांत छिपे होते हैं। जिनके पास ऐसे दांत होते हैं, दुनिया
के सबसे जहरीले प्राणी होते हैं। साँप का काटा तो फिर भी जी जाए, इसका
काटा मजाल है कि पानी भी मांग ले। व्यापारियों, महाजनों-साहूकारों के
दांत जरूर इसी प्रकार के होते होंगे।
पेट के दांतधारी तो साक्षात अवतारी ही होते हैं। जहाँ-जहाँ ईश्वर पाया
जाता है वहाँ-वहाँ ये भी पाये जाते हैं। धर्म-कर्म का ठेका इन्हीं लोगों
के पास होता है। ये स्वयं को ईश्वर की ही औलाद मानते हैं। मजाल है कि ऐसे
दांत वालों से ईश्वर भी बच जाए?
अलौकिक दांतधारियों से ईश्वर इस देश की रक्षा करे।
000
3
आओ पूंछ विकसित करें
पूंछ के ऊपर की बिन्दी हटा लेने से पूछ बन जाता है। पूंछ विकसित करने का
यह सबसे बढ़िया, आसान और फूलप्रूफ तरीका है। आजकल वे सब, जिनके पूंछ उग आए
हैं, इसे छिपाने और पूंछ विकसित करने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल कर रहे
हैं। पूंछ पशुता की निशानी जो ठहरी।
जिस प्रकार बिना पूंछ का कुत्ता, कुत्ता नहीं उसी प्रकार बिना पूंछ का
आदमी आदमी नहीं। आजकल पूंछ का होना निहायत जरूरी है, कुत्ते के लिए भी और
आदमी के लिए भी। पूंछ हो तो नाक की जरूरत नहीं पड़ती। जैसे-जैसे पूंछ विकसित
होती है, नाक कटती जाती है। पहले सबके पास नाक हुआ करती थी, आजकल यह
दुर्लभ होती जा रही है। भविष्य में केवल इसके जीवाश्म ही मिलेंगे। तब
साहित्य और विज्ञान के स्नातक इस पर शोध करके पी. एच. डी. की उपाधि
प्राप्त कर रहे होंगे।
लोग अब नाक की चिंता कम और पूंछ की चिंता ज्यादा करने लगे हैं। हमारे
पूर्वज पूंछ की चिंता कम और नाक की चिंता अधिक करते थे। जमाना नाक का था,
मजाल है कि नाक पर एक मक्खी भी बैठ जाए। नाक की वजह से ही राम को रावण से
लड़ाई लड़नी पड़ी थी। अब नाक के दिन लद गए हैं। जमाना पूंछ का है। नाक वाला
कुत्ता भले ही मिल जाए, नाक वाला आदमी ढ़ूँढ़ कर तो बताओ!
पूंछ और पूंछ, दोनों में असीमित और अक्षय ऊर्जा नीहित होती है। इसी कारण
जहाँ कुत्ते अपनी पूंछ को संभालने में लगे रहते हैं वहीं आदमी अपने पूंछ
की चिंता में रात-दिन घुलते रहता है।
कुत्ते की पूंछ का ऐतिहासिक महत्व है। इसका हिलना परम आनंद-दायी होता है।
हिलती हुई पूंछ कहती है, - ’’तलवे चाटूँगी, लात खाऊँगी, तिरस्कार सहूँगी,
पर नमक हरामी कभी नहीं करूँगी।’’
पूंछ विकसित करता हुआ आदमी भी यही कहता है।
कुत्ते की पूंछ की ऐतिहासिकता पर अभी अमरिकी पेटेंट वालों की नजर शायद
नहीं पड़ी है वरना नीम और हल्दी के समान इसके भी पेटेंट का लफड़ा शुरू हो
चुका होता।
राज हठ, बाल हठ और त्रिया हठ की तरह पूंछ और पूंछ की भी अपनी हठ होती है -
ये सीधी कभी नहीं होतीं।
पूंछ और पूंछ का रिस्ता अटूट है। पूंछ वालों में उनकी ही गिनती होती है
जिसके आसपास हमेशा दो-चार पूंछ वाले पूंछ हिलाते हुए पाए जाते हैं।
कुत्ते की तुलना आदमी से करने की भला है किसी में हिम्मत? पर आदमी की
तुलना कुत्ते से करने में किसी को हिचक नहीं होती। आदमी झगड़ते हुए एक
दूसरे को कुत्ते की औलाद ही कहता है। अब तो अपने आप को कुत्ता कहलवा कर
आदमी गर्वित भी होने लगा है। कुत्ते आपस में झगड़ते वक्त कदाचित ही एक
दूसरे को आदमी की औलाद कहते होंगे। वे इतने गए गुजरे नहीं हैं। कोई आदमी
किसी कुत्ते को आदमी की औलाद कह दे तो कुत्ता शायद उसे कांट ले। नाक के
मामले में कुत्ते निश्चित ही आदमी पर भारी हैं। इतनी ऐतिहासिक पूंछ पाकर
भी उन्होंने अपनी नाक का महत्व कम नहीं होने दिया।
डार्विन अपने प्रसिद्ध विकासवाद के सिद्धांत को आज लिख रहा होता, तो यह
कभी नहीं लिखता कि विकास-क्रम में आदमी की पूंछ लुप्त हो गई है।
जैसे कुत्ते की पहचान उसकी पूंछ से होती है, उसी प्रकार आदमी की पहचान
पूंछ से होती है। दफ्तर में जिस आदमी की पूंछ सबसे ज्यादा होती है, वह बड़ा
बाबू होता है। समाज में जिसकी पूंछ अधिक होती है वह नेता होता है और
नेताओं में सर्वाधिक पूंछ वाला व्यक्ति प्रधान नेता होता है।
समझ-समझ का फेर है। पूंछ और पूंछ में बहुत ज्यादा बुनियादी अंतर नहीं
समझना चहिये। केवल बिंदी ही का तो अंतर है। इसी तरह पूंछ वालों और पूंछ
वालों में भी अंतर नहीं समझना चहिये।
पूंछ विकसित करना बड़ा सरल कार्य है। शायद इसीलिए आज पूंछ वालों की कोई कमी
नहीं है। हर गली-नुक्कड़ पर अपनी पूंछों का प्रदर्शन करते सैकड़ों लोग मिल
जएँगे; पूंछ हिलाते हुए जैसे कुत्ते मिल जाते हैं। चाहें तो आप भी अपनी
पूंछ विकसित कर सकते हैं। विधि बड़ी सरल है, आपको अपनी नाक थोड़ी सी कटवानी
पड़ेगी, बस। कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है। फिर आजकल नाक कटवाने
से कोई फर्क भी तो पड़ने वाला नहीं है न। विश्व के सारे सुदर्शन लोग आज
नकटे ही हैं। रैंप पर थिरकने वाली सुंदरियों की नाक आपने देखी है? फिर भी
यदि आप अपनी नाक न कटवाना चाहें तो कोई बात नहीं, चूने से भी काम चल सकता
है। जैसे कोई चंदन लगाता है, आप थोड़ा सा चूना अपनी नाक पर लगवा लें। बस
फिर क्या, आपकी भी पूंछ विकसित होनी शुरू हो जाएगी। बीच-बीच में धो-रि-भ्र
नामक उर्वरक का छिड़काव करते रहें।
घो-रि-भ्र अर्थात घोटाला, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार। यह हर जगह मुफ्त
में मिलता है। यदि जान-पहचान वालों को चूना लगाना आ जाय तो सोने पर
सुहागा समझो।
पूंछ विकसित करना हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। आओ पूंछ विकसित करें।
000
COMMENTS