पुनीत बिसारिया का आलेख - स्त्री विमर्श के सुलगते सवाल

SHARE:

स्त्री विमर्श के सुलगते सवाल (डॉ0 पुनीत बिसारिया)‘ ‘प्राचीन और आधुनिक नारी की स्थिति में जो अंतर नज़र आता है, वो ऐसा जैसे किसी पुरानी किताब...

स्त्री विमर्श के सुलगते सवाल

(डॉ0 पुनीत बिसारिया)‘

image

‘प्राचीन और आधुनिक नारी की स्थिति में जो अंतर नज़र आता है, वो ऐसा जैसे किसी पुरानी किताब पर नया कवर चढ़ा दिया गया हो....’’

पूनम सिंह की फेसबुक वाल से ( दिनांक 09.11.2012)

समाज सामाजिक सम्बन्धों का जटिल जाल होता है और इन सम्बन्धों का निर्माता स्वयं मनुष्य है। सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य ही समाज में संगठन एवं व्यवस्था स्थापित करते हुए इसे प्रगति एवं गतिशीलता की दिशा में ले जाने हेतु सदैव प्रयत्नशील रहा है, किन्तु पुरूष मनुष्य का अर्थ पुरूषत्व मान लिया गया और स्त्री को इस कोटि से बहिष्कृत कर दिया गया। इसलिए पुरूष स्वभावतः अहंकारी हो गया और वह सामाजिक परिवेश में अपनी स्थिति सर्वोच्च स्तर पर रखने हेतु उत्सुक हो गया। यही मनोभाव पुरूष को पुरूष वर्चस्ववाद की ओर ले गया। फलतः यदि उसने स्त्री को अधिक पढ़ी लिखी, जागरूक, तर्कशील तथा बुद्धिमान पाया तो उसने उससे अपने लिए अन्दर ही अन्दर खतरा महसूस किया। यही सर्वोच्चता के बनावटी सिंहासन पर खतरे को हर एक झूठे अहंकारवाद का शिकार व्यक्ति बर्दाश्त नहीं कर पाया, क्योंकि पुरूष स्वभावतः अहंकारी है। वह अपनी सामाजिक स्थिति को सर्वोच्चतम स्तर पर रखकर देखता है, और स्त्री को न्यूनतम स्तर पर रखना पसन्द करता है। यदि स्त्री अधिक पढ़ी लिखी, जागरूक, तर्कशील, बुद्धिमान है तो उसकी सर्वोच्चता को शायद खतरा पैदा हो जायेगा और झूठे अहंकारवाद का शिकार व्यक्ति यह सब कैसे सहन कर लेगा कि एक स्त्री की सामाजिक आर्थिक स्थिति उससे उच्च हो जाये या उसके बराबर हो। आज तक यही होता आया है और आज भी उसके भीतर यही सोलहवीं शताब्दी की ग्रंथि काम कर रही है कि स्त्री उसकी ‘निजी सम्पत्ति‘ है, लेकिन इस सम्पत्ति की गुणवत्ता को वह कतई बढ़ाना नहीं चाहता। उसे कमजोर करके रखने में ही वह अपनी सुरक्षा समझता है। पुरूष के मन में यह भय, असुरक्षा की भावना और स्त्री को दबाकर कुचलकर नियन्त्रण में रखने की स्त्री विरोधी दृष्टि सदियों से काम कर रही है। कल का राजतंत्र का राजा अपने हरम के लिये हजारों रानियाँ जुटा सकता था और आज का प्रजातंत्र का क्लिंटन व्हाइट हाउस में मोनिका लेविंस्की से यौनाचार कर सकता है। आज का मध्य और निम्न वर्ग भी कोई अपवाद नहीं है। वह कभी सौतन, कभी सहेली, कभी कजिन, कभी क्लाइंट, कभी कुलीग, कभी कुछ और बहाने बनाकर औरत के दिल में लगातार छेद करता आया है। अब विद्धत्जनों को ‘सौतियाडाह‘ एवं ‘‘फीमेल जेलिसी‘ के पुर्लिंगों ‘रकीबी-डाह‘ एवं ‘मेल-जेलिसी‘ को शब्दकोशीय मान्यता दे देनी चाहिये।

आज शिक्षित-कामकाजी, अधिकार-सजग, बौद्धिक, अर्थस्वतंत्र पत्नियों ने पुरूषों के लिए अनेक तथाकथित समस्याएँ खड़ी कर दी हैं। शिक्षा, राजनीति, खेल, धर्म, फिल्म, सेना, साहित्य, प्रशासन, मीडिया, संविधान और विज्ञान ने पत्नियों के लिए नए क्षितिज खोल दिये हैं। यह पति अनुगामिनी एक दिन सहगामिनी बन जाएगी, ‘आदम की पसली‘ से जन्म लेने वाली उसके सम्मुख हकूक की बात करेगी, पौराणिक कथाओं का अध्ययन करने वाली विश्वविद्यालयों में लाॅ क्लासेज लगाएगी अथवा नारीवादी नारे उछालेगी, नाखूनों से लेकर सिर के बालों तक अपने को ढँककर तीर्थयात्राएँ करने वाली के प्राण ब्यूटी पाॅर्लर में बस जायेंगे, बालाएँ अन्तरिक्ष को मुट्ठी में भर लेंगी, ऐसा तथाकथित पति परमेश्वरों ने कभी नहीं सोचा था।

जैसे-जैसे समाज में नारी की निरीह स्थिति में बदलाव आया है और वह अबला से सबला बनने की तरफ अग्रसर हुई है, वैसे-वैसे वह अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत भी हुई है। परिणामस्वरूप पुरूष प्रधान समाज के बंधनों के खिलाफ उसने विद्रोह किया है। स्त्री के क्रांतिवीर तेवरों से परिवार की बुनियादें हिल गयी हैं और पारिवारिक विघटन भिन्न-भिन रूपों में समाज में पसरता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि पुरूष का परम्परागत मध्ययुगीन मानस स्त्री के मौलिक अधिकारों को स्वीकार नहीं कर पाता। वह उसे दबाना चाहता है और स्त्री अपनी गुलाम मानसिकता वाली सती-साध्वी, प्रेयसी या पति-परमेश्वरी छवि को तोड़कर अपना स्वतंत्र वजूद बनाना चाहती है। सामंती समाज में स्त्री माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, दासी आदि के रूप में थी-उसका अपना अलग वजूद नहीं था। आधुनिकता और बौद्धिकता के कारण वह अपने निजी स्वरूप और अपनी भावनों एवं इच्छाओं के प्रति सचेत हुई है। इस सजगता से उसकी आकांक्षाओं एवं पुरूष के वर्चस्ववादी अहं में टकराहट हुई है और यहीं से उनके सम्बन्धों में दरार पड़नी शुरू हो गयी है। अभी भी पुरूष स्त्री में परम्परागत कुललक्ष्मी/कुलवधू वाले स्वरूप को ही ढूँढता है, वह उसी का आकंाक्षी है। स्त्री का आधुनिक होना उसे बर्दाश्त नहीं है, ऐसी स्त्री को वह कुलटा और परिवार तोड़ने वाली आदि विशेषणों से नवाजने लगता है तथा उस पर चरित्रहीनता और स्वैराचार का आरोप लगाना शुरू कर देता है।

‘समर्पण लो सेवा का सार‘ कहकर सम्भवतः प्रसाद जी नारी के उसी सामंती वर्चस्व को प्रिय लगने वाले रूप को प्रोत्साहित करते हैं जो अपनी सारी आकंक्षाओं को पुरूष के चरणों में समर्पित कर देती है। अपने व्यक्तित्व को पुरूष के ‘महान‘ व्यक्तित्व में गला-घुला देती है, किन्तु आधुनिक स्त्री नर-नारी समता में विश्वास करती है। आज की नारी मानती है कि पुरूषों से वह किसी मायने में कम नहीं है। इस तथ्य को डाॅ0 रमेश कुन्तल ‘मेघ‘ भी स्वीकार करते हैं - ‘‘आजकल नारी की ऐतिहासिक कर्म भूमिकाएँ (गृहिणी, धात्री, जननी, उपचारिका, सेविका, दासी आदि) जो शय्या और रसोई की धुरी में केन्द्रित थीं, अब बदल रही हैं। वह गृह के बाहर के काम-धन्धों को अपना रही हैं और गृह के अन्दर की नीरस मजदूरी से स्वतंत्र हो रही हैं। गृह की धुरी के ढीला होने के साथ ही विवाह की संस्था के अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहे हैं अर्थात श्रम के विभाजन (घरे और बाहिरे) के सामंती आधार टूट रहे हैं और नई स्त्री ‘एक-यौनता की धारणा को स्वीकार कर रही है।‘‘

नारी जागरण का इतिहास

पूँजीवाद के उदय के साथ जीवन में आधुनिकता, बौद्धिकता का प्रवेश होता है, वैज्ञानिक दृष्टि का विकास होता है, स्त्री-पुरूष के समान अधिकारों की घोषणा होती है। इसके साथ ही हजारों सालों की बेडि़यां एक झटके के साथ टूट जाती हैं और स्त्री के कदम आत्मसम्मान की दिशा में बढ़ चलते हैं। स्त्री को कानूनी अधिकार मिलते हैं। सन् 1956 ई0 के पहले स्त्री का कानूनी अधिकार शून्य था। धीरे-धीरे अब उसमें बढ़ोत्तरी हो रही है और यहां से स्त्री की अपनी स्वतंत्र पहचान बननी शुरू होती है। स्त्री विमर्श की व्यापक जानकारी पाने के लिए विश्व स्तर पर घटने वाली चार महत्वपूर्ण घटनाओं को रेखांकित करना बेहद जरूरी हैः-

ऽ प्रथम, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, जिसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी चिरवांछित मानवीय आकांक्षाओं को नैसर्गिक मानवीय अधिकार की गरिमा देकर राजतंत्र और साम्राज्यवाद के बरक्स लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के स्वस्थ और अभीप्सित विकल्प को प्रतिष्ठित किया।

ऽ द्वितीय, भारत में राजा राममोहन राय की लम्बी जद्दोजहद के बाद सन् 1829 में सतीप्रथा का कानूनी विरोध हुआ, जिसने पहली बार स्त्री के अस्तित्व को एक मनुष्य के रूप में स्वीकारा।

ऽ तृतीय, सन् 1848 ई0 में सिनेका फालस न्यूयार्क में ग्रिम बहनों की रहनुमाई में आयोजित तीन सौ स्त्री-पुरूषों की सभा, जिसने स्त्री दासत्व की लम्बी श्रंृखला को चुनौती देते हुए स्त्री मुक्ति आन्दोलन की नींव रखी।

ऽ चतुर्थ, सन् 1867 में प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक और चिंतक जाॅन स्टुअर्ट मिल द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में स्त्री के वयस्क मताधिकार के लिए प्रस्ताव रखा जाना, जिसने स्त्री-पुरूष के बीच स्वीकारी जाने वाली अनिवार्य कानूनी और संवैधानिक समानता की अवधारणा को बल दिया।

संयुक्त रूप से ये चारों घटनायें एक तरह से विभाजक रेखाएँ हैं, जिनके एक ओर पूरे विश्व में स्त्री उत्पीड़न की लगभग एक सी सार्वभौमिक परम्परा है तो दूसरी ओर इससे मुक्ति की लगभग एक सी तड़प और अकुलाहट भरी संघर्ष कथा है।

भारतीय सन्दर्भ में स्त्री-विमर्श दो विपरीत धु्रवों पर टिका है। एक ओर परम्परागत भारतीय नारी की छवि है, जो सीता और सावित्री जैसे मिथकों में अपना मूर्त रूप पाती है, जिसे पश्चिम ‘होम मेकर‘ का नाम देता है, तो दूसरी ओर घर परिवार तोड़ने वाली स्वार्थी और कुलटा रूप में विख्यात तथाकथित आधुनिका एवं पाश्चात्य नारी की छवि है जो अक्सर सातवें-आठवें दशक की पुरानी फिल्मों में खलनायिका के रूप में उकेरी जाती है, और जिसे पाश्चात्य शब्दावली में ‘होम ब्रेकर‘ कहा जा सकता है।

साहित्य-जीवन की भावनात्मक अभिव्यक्ति होते हुए भी भावनाओं द्वारा अनुशासित नहीं होता। मूलतः वह बीज रूप में विचार से बंधा होता है, जिसका पल्लवन-पुष्पन भविष्य में होता है तो जड़ों का जटिल जाल सुदूर अतीत तक चला जाता है। अपने भौतिक अस्तित्व से ऊपर उठकर विराट को महसूसने की क्षमता ही लेखक के ज्ञान और संवेदना को उन्मुक्त और धनीभूत करते हुए विजन का रूप दे डालती है। यह विजन ही मुक्तिबोध के शब्दों में ज्ञान को ‘संवेदनात्मक ज्ञान‘ और संवेदना को ‘ज्ञानात्मक संवेदन‘ का रूप दे रचना में वांछित बौद्धिक संयम और अनुशासन बनाए रखता है। आलोचक को धड़कते जीवन से सीधे मुखातिब होना है, एक हाथ जीवन की नब्ज पर रखकर दूसरे हाथ से जीवन को प्रतिबिम्बित करती रचनाओं की नब्ज को टटोलना है। उसका दायित्व दोहरा और चुनौती भरा है।

विमर्श का अर्थ है ‘जीवन्त बहस‘। साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसे ‘विचार का गहन विचार‘ और ‘सर्वस्व की प्राप्ति की आकांक्षा‘ कहा जा सकता है। अंग्रेजी में इसके लिये ‘डिस्कोर्स‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है, अर्थात किसी भी समस्या या स्थिति को एक कोण से न देखकर भिन्न मानसिकताओं, दृष्टियों, संस्कारों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं का समाहार करते हुए उलट-पलट कर देखना, उसे समग्रता से समझने की कोशिश करना और फिर मानवीय संदर्भों में निष्कर्ष प्राप्ति की चेष्टा करना या दूसरे शब्दों में किसी विषय पर अभी तक जो लेखन या विचार होता आया है, उस पर पुनः विचार कर उसकी दशा का मूल्यांकन करना ही विमर्श के अन्तर्गत आता है।

हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श की जड़ें हम अत्यन्त प्राचीन काल से पाते हैं। ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी‘ अद्र्धाली लिखने वाले बाबा तुलसीदास को भी कुछ स्त्रियों की प्रशंसा करनी पड़ी थी।

नारी विमर्श की भोर की खुमार भरी नींद तोड़ने के लिए ‘देवरानी जेठानी की कहानी‘ और ‘भाग्यवती‘ सरीखी-रचनाओं को निश्शंक भाव से प्रभात फेरियों का दर्जा दिया जा सकता है। समाज सुधार के सजग और सायास गढ़े उद्देश्य, पात्र, कथानक और घटनाओं से बुनी इन रचनाओं में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, रानाडे, महर्षि कर्वे, महर्षि दयानन्द तक के समाज सुधार आंदोलन की परम्परा, अनुगूंज और छाप साफ दिखाई पड़ती है। बाल विवाह विरोध, विधवा विवाह समर्थन, स्त्री शिक्षा आदि इनके प्रमुख विषय थे।

सन् 1760 ई0 में विद्यासागर बहुत ही मशक्कत के बाद कानूनी तौर पर लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु दस वर्ष करा पाये थे। सन् 1829 ई0 में बहुतेरे प्रयासों के बाद यह आयु बढ़ाकर तेरह वर्ष ही हो पाई थी। अठारह वर्ष न्यूनतम आयु का प्रावधान शारदा ऐक्ट 1856 ई0 के बाद ही सम्भव हो पाया था, जबकि ‘भाग्यवती‘ में श्रद्धाराम फिल्लौरी पं. उमादत्त के जरिये लड़के और लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः अठारह और ग्यारह वर्ष का संदेश देकर वक्त से थोड़ा आगे चलने का संकेत देते हैं।

सदी का वर्क बदलने का हिन्दी साहित्य में उभर कर आने वाला स्त्री-विमर्श इतना जड़, उपदेशात्मक और इकहरा नहीं रह गया था। लेकिन यह भी तय है कि उसका रेखांकन अब भी पुरूष और परिवार के सन्दर्भ में ही किया जाता था। इसकी प्रमुख वजह थी सामाजिक-राजनीतिक जीवन में पुरूष नायकों के साथ स्त्रियों की प्रत्यक्ष भागीदारी। प्रारम्भ में समाज सुधारकों के परिवारों की स्त्रियाँ प्रादेशिक स्तर पर आम जनता के उद्बोधन का मंत्र फूंकने हेतु आगे बढ़ाई गई थीं, वक्त के साथ उन्होंने दो उल्लेखनीय कार्य किये। प्रथम, उन्होंने वैयक्तिक तौर पर परिवार के पुरूष अनुशासन, दिशा निर्देशन से मुक्त हो स्वायत्त सत्ता महसूस की। दूसरे, अपनी आवाज को संगठित कर उसे अखिल भारतीय पहचान देने की कोशिश की। सन् 1897 ई0 में ‘वीमेंस इंडियन एसोसियेशन‘ की स्थापना, सन् 1925 ई0 में ‘नेशनल काउंसिल आॅफ वीमेन इन इंडिया‘ की स्थापना और सन् 1927 ई0 में ‘अखिल भारतीय महिला परिषद‘ का अस्तित्व में आना अपने आप में ऐतिहासिक और क्रान्तिकारी घटनायें थीं, जिनकी अनुगूंज आज भी स्वतंत्र भारत के संविधान और कानून में सुनी जा सकती है। सन् 1946 ई0 में ‘अखिल भारतीय महिला परिषद्‘ द्वारा प्रस्तुत अधिकारों और कर्तव्यों के चार्टर में वर्णित कुछ मांगों को भारतीय संविधान में ज्यों का त्यों स्थान दिया गया। जैसे धारा 44 के अन्तर्गत लिंग, जाति धर्म के आधार पर सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र में भेदभाव न किया जाना। धारा 16 के अन्तर्गत लिंग, जाति, धर्म के आधार पर सरकारी नौकरियों और दफ्तरों में भेदभाव न किया जाना। इसने स्त्री को अपनी चिरपोषित ‘अबला‘ छवि को तोड़कर एक नये जुझारू व्यक्तित्व और रचनाशील भूमिका में आविर्भूत होने के लिये प्रेरित किया। सामाजिक उथल-पुथल के इस दौर में हिन्दी कथा साहित्य भी नारी स्वायत्तता और स्वतंत्र चेतना को शिद्दत से चित्रित करता रहा। लेकिन विडम्बना यह रही कि इस बिन्दु पर आकर लेखक निर्वैयक्तिक नहीं रह पाया। उसका पुरूष अहं या संस्कार, जो भी कहें स्त्री की इस आत्मनिर्भर विचारवान संघर्षशील छवि को स्वीकार नहीं पाया।

हिन्दी के अति आरम्भिक उपन्यासों का उद्भव स्त्री-चेतना से ही हुआ, यह एक अटल सत्य है। स्त्री चेतना के बीज मन्त्र से हिन्दी के अति आरम्भिक उपन्यास अनुप्राणित रहे हैं, और इनका प्रारम्भिक उद्देश्य स्त्री चेतना की सर्वप्रथम प्राथमिकता में स्त्री शिक्षा निहित है। प्रथम गद्य रचना ‘देवरानी जेठानी की कहानी‘ से स्पष्ट है कि अशिक्षिता और मूर्ख महिलाएं परिवार के जीवन को अत्यन्त दुःखद और शिक्षित महिलाएं नरक तुल्य घर को स्वर्ग जैसा सुखद बना देती है। ‘‘हिन्दी में उपन्यास की रचना का श्रीगणेश स्त्री शिक्षा के निमित्त ही हुआ था। इस स्त्री शिक्षा के मूल में स्त्री चेतना ही है। ‘देवरानी जेठानी की कहानी‘, वामा शिक्षक‘, ‘भाग्यवती‘, सुन्दर शीर्षक, परीक्षागुरू आदि पूर्व के उपन्यासों में स्त्री चेतना ही मूलाधार है। आधुनिक काल में प्रेमचन्द की निर्मला में कितनी पच्चीकारी करके सामाजिक कुरीतियों की पृष्ठभूमि में नायिका निर्मला के जरिये औसत भारतीय स्त्री की आंसू भरी अनूठी तस्वीर गढ़ने की कोशिश की गई है। लेकिन उसे तोड़कर सुधा के रूप-रंग-रेखा विहीन चरित्र की आउटलाइंस दिलोदिमाग पर हावी हो जाती हंै। निर्मला की पीड़ा और दीनता के सेलीबे्रशन से सुधा के चरित्र का आकस्मिक एवं अविश्वसनीय टर्न कहीं ज़्यादा ज़रूरी लगता है। दूसरा उदाहरण ‘गोदान‘ की मालती के रूप में लिया जा सकता है जिसके पर कतरने के प्रयास में बेचारे प्रेमचन्द पसीने-पसीने हो गये हैं। मालती यानी सुशिक्षित, स्वतंत्रचेता आत्मनिर्भर प्रोफेशनल युवती जो पुत्र की तरह घर के दायित्वों को संभाले है और मित्र की तरह पुरूष मंडली में घूमती है, वर्जनाओं और कुण्ठाओं से मुक्त एक स्वस्थ व्यक्ति की तरह। उसकी यह पारदर्शी उन्मुक्तता ‘मेहतानुमा‘ पुरूषों के लिये खतरा है। इसलिये वे खिसियाकर फतवेबाजी करने लग जाते हैं- ‘स्त्री में जब पुरूष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है।‘‘

प्रेमचंद जो भी हों (मेहता या पुरूष) सर्जक के रूप में समाज को ‘कुलटाओं‘ का रोल माॅडल अपनी रचनाओं के जरिये नहीं दे सकते थे। इसलिये मालती की ऊर्जा और तेजस्विता को ‘चैनेलाइज‘ करते हुये वे उसे समाज सेवा और राष्ट्र सेवा के वृहत्तर आयामों से जोड़कर विपरीत दिशा की ओर मोड़ देते हैं।

महादेवी वर्मा के अनुसार- ‘‘हमें न किसी पर जय चाहिये न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुत्व चाहिये, न किसी पर प्रभुता। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिये जिनका पुरूषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी।‘‘ (श्रंखला की कडि़याँ, अपनी बात से-महादेवी वर्मा)। अपनी सीमाओं के चलते प्रेमचंद भले ही युगानुरूप स्त्री की बदलती छवि अपनी रचनाओं में नहीं उकेर सके, लेकिन उन्हीं के समकालीन जैनेन्द्र ने निर्भीकतापूर्वक उसे मानवीय अस्मिता से दीप्त अवश्य किया, असल में हिन्दी कथा-साहित्य में यहीं से पहली बार स्त्री-विमर्श एक गम्भीर मानवीय-चिंता के रूप में नये आयाम और ऊँचाइयां लेने लगता है। कभी-कभी लगता है वह इंग्लैण्ड रिटन्र्ड मालती ही थी जो मेहता और प्रेमचन्द द्वारा थोपे गये कानूनों, वर्जनाओं, अनुशासनों के बीच भी अपने वजूद को पूरी ऊँचाई और फैलाव दे पाई। कोई सामान्य स्त्री होती तो शायद कल्याणी (उपन्यास-कल्याणी) की तरह स्वतन्त्रता और वर्जना, अस्मिता और पति सापेक्ष पत्नी की परतंत्र भूमिका के निरंतर द्वंद्व तले पिसे आत्मपीड़न और हिस्टीरिया की शिकार हो जाती। यह ठीक है कि प्रेमचन्द की तरह जैनेन्द्र के यहाँ सामाजिक सरोकार अपनी तमाम स्थूलता और व्यापकता में उपस्थित नहीं है, लेकिन ‘पत्नी‘ कहानी की सुनंदा और ‘त्यागपत्र‘ की मृणाल, अज्ञेय रचित ‘रोज‘ की मालती‘ और ‘नदी के द्वीप‘ की रेखा भी क्या बहुत गहराई से उस व्यवस्था को प्रश्न चिन्हित नहीं कर देतीं जो स्त्री को तिल भर भी स्पेस देने को तैयार नहीं है ?

स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास में बाधक होने के कारण विवाह संस्था के प्रति पूर्णतया अनास्थावान होते हुये भी विवाह द्वारा मिलने वाली सामाजिक, मानसिक, आर्थिक सुरक्षा ने स्त्री कोे हमेशा निर्णायक रूप से दुर्बल बनाया। फलतः गालियों और आँसुओं के जरिये अपने आवेश और आक्रोश की ‘पनीली‘ अभिव्यक्ति और फिर पुरूषों तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के समक्ष विकल्पहीन समर्पण। उदाहरण के लिये शशिप्रभा शास्त्री के ‘नावें‘, एवं ‘सीढि़याँ‘ उपन्यास, मृदुला गर्ग का ‘उसके हिस्से की धूप‘, मंजुल भगत का ‘अनारो‘, कुसुम अंसल का ‘उसकी पंचवटी’, उषा प्रियंवदा का पचपन खंभे लाल दीवारें’ और रूकोगी नहीं राधिका’, मन्नू भण्डारी का ‘आपका बन्टी‘। आज अमृता प्रीतम (रसीदी टिकट), इस्मत चुगताई (लिहाफ), कृष्णा सोबती (सूरजमुखी अंधेरे के, मित्रों मरजानी) ममता कालिया (बेघर) प्रभा खेतान (छिन्नमस्ता, पीली आंधी), राजी सेठ (तत्सम), मेहरून्निसा परवेज (अकेला पलाश) कुसुम अंसल (अपनी अपनी यात्रा) मृणाल पाण्डेय (लड़कियां), अलका सरावगी कलिकथा-वाया बाइपास), नासिरा शर्मा (ठीकरे की मंगनी, शाल्मली), दीप्ति खण्डेलवाल (प्रतिध्वनियां, देह की सीता) आदि लेखिकायें स्त्री विमर्श को सुविचारित रूप में कथा साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत कर रही हैं। स्त्रियों के बहुआयामी जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं को कतरा-दरकतरा निचोड़ता हुआ रेशा-दर-रेशा बुनता हुआ यह कथात्मक साहित्य उनकी जिन्दगी के अंधेरे कोनों में सूर्य रश्मियों की भाँति घुसकर आर-पार देखने का जोखिम उठा रहा है।

कृष्णा सोबती की नारी स्थूल दृष्टि में देखने पर कामनाओं द्वारा संचालित विशुद्ध देह के स्तर पर जीवन जीती नारी है, लेकिर जरा सी गहराई में उतरते ही वह स्त्री अस्मिता की ऊँचाइयों को छूने के प्रयास में जिन मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था व्यक्त करती हैं वह अन्यत्र दुर्लभ हैं। मित्रों और रत्ती के जरिये वर्जनात्मक स्त्री को उन्होंने पहले-पहल हिन्दी कथा साहित्य में इंट्रोड्यूस किया, वह पूरी ऊर्जा और उत्साह के साथ नब्बे के दशक में कर्मक्षेत्र में उतरी हैं। मैत्रेयी पुष्पा की नारी बनी-बनाई कसौटियों को तोड़ने या उन पर स्वयं कसने के तनाव भरे द्वन्द्व से मुक्त होकर समाज में अपनी पुख्ता पहचान बनाने के लिये विशेष रूप से आग्रहशील हुई है। मंदा (इदन्नमम), सारंग (चाक) और कदम बाई (अल्मा कबूतरी) इसकी उदाहरण हैं। आखिरी दशक के हिन्दी कथा साहित्य की स्त्री तमाम कोशिशों के बाद सहचर पुरूष को उतना मानवीय नहीं बना सकी, लेकिन अपने लिये आत्मसम्मानपूर्वक जीवन जीने का रास्ता अवश्य तलाश सकी है। मेहरून्निसा परवेज ने निश्चित रूप से स्त्री लेखन की जरूरत को स्पष्ट किया है कि नारी के मौन को शब्द नारी ही दे सकती है, उसके दुःख को औरत ही समझ सकती है। वह ही पहचान सकती है, औरत के शरीर पर अंकित घावों के निशानों को। पुरूष के लिये अब तक वह क्या थी ? ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो‘, रमणी, प्रेयसी, रुमानी ख्याल, यादों की सुन्दरी! लेकिन स्त्री ने देह पर अंकित खूनी घावों के निशानों को दिखाया है कि किस प्रकार वह उत्पीडि़त, उपेक्षित है।

निजी सुखों की झोंक में क्या व्यक्ति समाज को बदरंग भविष्य नहीं देगा ? ये कल्चर स्पर्म बैंक, सरोगेटेड मदर, ह्यूमन क्लोनिंग की सम्भावनाएं, समलिंगी सम्बन्धों के प्रति बढ़ती आसक्ति। इन पर गम्भीरतापूर्वक पहली बार दो टूक राय उठाने का जोखिम उठाया गया है मृदुला गर्ग ने अपने ‘कठगुलाब‘ उपन्यास में। मृदुला गर्ग मानती हैं कि पुरूष अनादिकाल से प्रकृति का अनवरत दोहन और स्त्री का मानसिक शोषण करता आया है जिसके चलते आज धरती और स्त्री दोनों बंजर हो गई हैं। दुलार और स्नेहिल स्पर्श से दोनों लहलहा सकती हैं। बशर्ते पुरूष डूबकर उनकी परिचर्या में जुट जाएं। आने वाला समय यदि बीहड़ और बंजर है तो हुआ करे, उर्वर सम्भावनाओं के बीज तो मुट्ठी में बंद हैं। उपन्यास का आस्थावादी स्वर तमाम वैज्ञानिक पेचीदगियों से मुठभेड़ कर अंततः मनुष्यता का जयघोष करता है। इक्कीसवीं सदी के स्त्री-विमर्श का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी‘ में देखा जा सकता है। विपिन के समरूप यहाँ रघुवर है और पत्नी सोनाली के आने से वह कार्य अपने स्तर पर तथा सोनाली के उपयोग के आधार पर करता है और सम्पूर्ण सृष्टि जैसे उसकी अभ्यर्थना में व्यस्त और नत हो जाती है।

डाॅ0 निर्मला अग्रवाल की मानंे तो यह कथा लेखन मुक्ति का मार्ग खोजती हुई आधुनिक स्त्री के जीवन के विविध पहलुओं को परत-दर-परत बड़ी ताकत के साथ उजागर करता है। यौन सम्बन्धों को लेकर स्त्री देह की शुचिता का प्रश्न हो, अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता स्थापित करने की छटपटाहट हो, पुरूष की हवस का शिकार होती हुई स्त्री का प्रतिक्रियावादी आक्रोश हो, विवाहेतर या विवाहपूर्व पर पुरूष से दैहिक सम्बन्ध बनाने की बात हो या फिर स्वेच्छाचारी पति से किनारा करने का साहस हो, गरज यह है कि बहुत से मिथक जो समाज ने स्त्री के लिये रचे हैं, स्वच्छन्द और स्वायत्त होती हुई महानगरीय स्त्री के बिना किसी अपराध बोध के वे किस प्रकार टूट रहे हैं, यह देखने लायक है।

इसलिये आज ज़रूरी हो उठा है कि जो कुछ भी उपलब्ध हैः- समाज या परम्परा के रूप में, संस्थाओं, इतिहास और संस्कार के रूप में- उसका बेबाक भाव से मूल्यांकन किया जाये, वर्ग-वर्ण आदि लौकिक भेदों से ऊपर उठकर व्यक्ति को समाज तथा समाज को व्यक्ति के सन्दर्भ में पढ़-सुनकर उन्हें निरंतर ग्रो करने के लिये भरपूर स्पेस दिया जाये। स्त्री लेखिकाओं के लेखन के केन्द्र में स्त्री की भयावह समस्यायें हैं। पितृसत्तात्मक मर्यादाओं की तीखी आलोचना है जिसने स्त्री समाज का खुला दमन किया है। पाश्चात्य स्त्री लेखन की बात करें तो मेरीबाॅल स्टोनक्राफ्ट, बेट्टी फ्राउडन, सिमोन दी बोउवा, जर्मेन गियर, ब्लारा जेट किंग की कलमें स्त्री विमर्श पर अजीब शक्लें अख्तियार कर रही हैं, वहीं भारतीय स्त्री लेखन में कृष्णा सोबती का लेखन हो अथवा महाश्वेता देवी का, मन्नू भण्डारी का लेखन हो अथवा आशापूर्णा देवी या इस्मत चुगताई का अथवा गगन गिल का, चित्रा मुद्गल का लेखन हो अथवा मेहरून्निसा परवेज का, उसमें स्त्री मुक्ति के लिये जो फीडबैक आ रही है वह स्त्री समाज की चेतना का विकास कर सकेगी। हालाँकि इस दिशा में एक लम्बी, बीहड़ यात्रा तय करनी है।

स्त्री चेतना का सीधा सम्बन्ध संस्कारों, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से है। अक्सर यह देखने में आता है कि आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच साहित्य के मुख्य सरोकार पीछे छूट जाते हैं। स्त्रियों की समस्या समूचे राष्ट्र की समस्या है, जिसने विकास की प्रक्रिया को बाधित ही नहीं किया है बल्कि उसे अवरूद्ध भी किया है क्योंकि भारतीय समाज में लिंग असमानता के आधार पर जो विभाजन/बंटवारा हुआ उसकी ही देन है, स्त्रियों को हाशिए में कर देना। पुरूष अभी भी स्त्री की प्रगति को पचा नहीं पाता है और उसकी प्रगति के पथ को सीमित करने की चेष्टा करता रहता है। यही सोच उसे संकीर्णता के दायरे में ला देती है। इन मत/मतान्तरों को लेकर साहित्य जगत दो खेमों में बंटता स्पष्ट नजर आ रहा है। हिन्दी साहित्य में स्त्री लेखन/चिंतन पर लगातार बहस चल रही है। इस पर तरह-तरह के आरोप/प्रत्यारोप लगाये जा रहे हैं, और स्त्री लेखिकायें उसका सम्यक उत्तर भी दे रही हैं लेकिन स्त्री साहित्य पर लगाये जा रहे आरोपों का सबसे बड़ा उत्तर स्त्री लेखन साहित्य का रचनात्मक उत्थान ही सिद्ध हो रहा है।

किसी भी समय व समाज की वास्तविक स्थिति जाननी हो तो उसमें स्त्री की स्थिति पर विचार करना लाजमी/प्रासंगिक होगा। दलित प्रश्न की तरह ही नारी प्रश्न आज ज्वलंत विषय है। वास्तविकता यह है कि ये दोनों दलित वर्ग आज अपने अस्तित्व और अस्मिता पर स्वयं विचार करने के लिये जागे हैं। इनकी समस्त बेचैनी मनुष्य को और अधिक मनुष्य अर्थात मानवीय बनाने के प्रयत्न हैं। जब स्त्री को लगा कि उसका अस्तित्व, स्थान, अधिकार और आज़ादी संकट में है ऐसे समय में उसे अपने विचारों को अभिव्यक्ति देनी पड़ी। इसलिये स्त्री-विमर्श का मूल स्वर प्रतिरोध का रहा। उसका विचार लोक स्वाभाविक रूप से विकास नहीं पाता क्योंकि छवि के बने बनाये चैखटों को तोड़कर बाहर निकलने की छटपटाहट स्त्री के अन्दर युगों से चल रही है। हकीकत यह है कि जब नारीवाद नाम का ब्रांड बिकाऊ नहीं बना था तब भी मुक्ति और परिवर्तन की कामना स्त्री की चेतना में गहरे बैठी थी।

स्त्री लेखन पर यह आरोप कि यह संभावनापूर्ण नहीं है, यह सीमित यथार्थ को लेकर चलना है या चहारदीवारियों के बीच ही घुमड़ते रहना है, उसे और उसके यथार्थ को लेकर बेजा प्रश्न उपस्थित करना है। सिद्धान्त के स्तर पर यद्यपि यह बात बहुत प्रीतकर नहीं लगती कि लेखन के क्षेत्र में लेखकों या लेखिकाओं में भेद किया जाये, क्योंकि सृजन जिस प्रकार की मानसिक सक्रियता का परिणाम है, वह दोनों में एक-सी है और सृजन-परिणाम भी रचना में निहित अर्थवत्ता के अनुपात से नापा जाता है, जातिगत विशिष्टताओं से नहीं, फिर भी भेद का प्रश्न यदि उठता है तो मुख्यतः रचनात्मक प्रतिभा की मूल प्रकृति को जानने के लिये, जो अपनी क्रियाशीलता में उन दोनों के लेखन में प्रायः किन्हीं तत्वों की भिन्नता के रूप में प्रकट होती है। उदाहरण के लिये कथ्य का चुनाव किन्हीं चीजों के प्रति भिन्न प्रकार की एकाग्रता या उदासीनता, कुछ पूर्वाग्रह, चिंतायें और सरोकार इसका तात्कालिक सम्बन्ध अपने-अपने अनुभव वृत्तों से जुड़ा रहता ही है परन्तु इसका मुख्य और महत्वपूर्ण आधार एक सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश भी है जो दोनों को भिन्न करता है जैसे कि परिवेश के प्राथमिक भिन्न-भिन्न दबाव और तनाव के केन्द्र अलग-अलग, स्वीकृति के स्थल और संस्कार अलग-अलग, अधिकारों-कत्र्तव्यों का विधान अलग-अलग, परिणाम में व्यक्तित्व की बनावट अलग-अलग और अंततः तो जहाँ पहुँचना है उसका संघर्ष भी जुदा-जुदा, पुरूष स्वीकृत हो चुका है और स्त्री स्वीकृति के लिये संघर्षरत है। यहां हमारे अन्वेषण का यह विषय होगा कि दोनों के व्यक्तित्व के घटकों को कैसे एक दूसरे के समक्ष रखा जाये ? जो दोनों के जीवन को देखने और समझने के रवैये को भिन्न कर देते हैं साथ ही उसी अनुपात में लेखन के भेद को भी रेखांकित करता है, यहीं से/इसी बिन्दु से उस भेद को समझा जा सकता है जो स्त्री-लेखन और पुरूष-लेखन के मूल में है।

साहित्य की रचना प्रक्रिया में सहानुभूति और स्वानुभूति में वैसा फर्क नहीं रह जाता, जैसा कि विचारों के स्तर पर हम समझते हैं। वहाँ सब रचनाकार की आत्मानुभूति का अंग/भाग बन जाता है क्योंकि रचना प्रक्रिया में सहानुभूति और आभ्यंतरीकरण के साथ-साथ अंगीकरण भी होता है। यही कारण है कि रचनाकार की चेतना में रच-बसकर रचनाकार की संवेदनशीलता का अंग बन जाता है। रचनाकार रचना करता है/सृजन करता है। वह अपने विस्तृत/अपार काव्य संसार का प्रजापति होता है। रचना के जरिये दूसरों को जगाता है, नई चेतना/नये मूल्य/नये सम्बन्ध का निर्माण करना चाहता है। रचनाशीलता की इस विकास यात्रा ने कई सदियों का लम्बा सफर तय किया है। इस महासफर में कई धाराओं, मत मतान्तरों से गुजरकर हिन्दी साहित्य अपने रूप में आया है। साहित्य में अनेक धारायें विकसित होना उसकी गौरवशाली परम्परा/समृद्धता और उसके उत्कर्ष की निशानी है परन्तु इस उत्कर्ष में समय-समय पर इस मत/मतान्तरों और धाराओं को लेकर रचनाकारों में मतभेद उठना स्वाभाविक/सहज है।

वैसे देखा जाये तो स्त्री के अधिकारों एवं उसकी विडम्बनाजन्य/त्रासदीपूर्ण स्थिति को लेकर संघर्ष का इतिहास काफी पुराना है। परन्तु पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में इस स्थिति में कुछ अंतर अवश्य आया है क्योंकि आज यह विमर्श की शक्ल में परिणत हो चुका है। इस विमर्श/चिंतन की सबसे बड़ी सार्थकता इस अर्थ में भी है कि सदियों से पुरूषत्ववादी ‘गुलामी एवं शोषण‘ के विरूद्ध अपनी सामाजिक-अस्मिता, स्वतन्त्रता, समानता, मुक्ति एवं अधिकारों के सन्दर्भ में वैश्विक स्तर पर सभी वर्ग की स्त्रियों में एकजुटता दिखलाई पड़ती है। यह ध्रुव सत्य है कि किसी भी समाज का अस्तित्व स्त्री-पुरूष दोनों के पारम्परिक सम्बन्धों के सन्तुलन पर निर्भर करता है क्योंकि समाज को बनाये रखने में यदि बाह्य स्तर पर पुरूष का योगदान है तो वहीं समाज के महत्त्वपूर्ण हिस्से परिवार को आधार प्रदान करने का श्रेय स्त्रियों के खाते में जाता है। फिर इन मर्यादाओं का बंधन स्त्री के ही ऊपर ही क्यों ? समाज में स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति क्यों ? वर्तमान समय में इन्हीं प्रश्नों की मूल में रखकर स्त्री चिंतन/लेखन आन्दोलन का एक नया आयाम ग्रहण कर चुका है। स्त्री के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थितियों से जुड़े हुये वे सभी प्रश्न इन विमर्शों के मूल में हैं। इस पर व्यापक विमर्श/चिंतन अपेक्षित है एवं इस पर विवेकपूर्ण अन्वेषण/अनुसंधान की आवश्यकता है।

COMMENTS

BLOGGER: 2
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: पुनीत बिसारिया का आलेख - स्त्री विमर्श के सुलगते सवाल
पुनीत बिसारिया का आलेख - स्त्री विमर्श के सुलगते सवाल
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlgkNFkpvr-ZtjsyZovu3UkGZ_JII4SWCI1JhyphenhyphenN8WHBStE4XEuUBKSUeEKkP4lnOO4R-Jb2vtOhptg6PWl_i7-zG5ZeJw4mCAbTYQCBLKk4PL1C0M9EeI3Wqy2CvEjoLAqPmRE/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlgkNFkpvr-ZtjsyZovu3UkGZ_JII4SWCI1JhyphenhyphenN8WHBStE4XEuUBKSUeEKkP4lnOO4R-Jb2vtOhptg6PWl_i7-zG5ZeJw4mCAbTYQCBLKk4PL1C0M9EeI3Wqy2CvEjoLAqPmRE/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2013/10/blog-post_3894.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2013/10/blog-post_3894.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content