लोर्का का नाटक मोची की अनोखी बीवी अनुवादः सोमदत्त फेदेरीको गार्सीया लोर्का मैं ख़ुद जल्दी कर रहा हूँ। बाहर आने के लिये इतनी उतावली म...
लोर्का का नाटक
मोची की अनोखी बीवी
अनुवादः सोमदत्त
फेदेरीको गार्सीया लोर्का
मैं ख़ुद जल्दी कर रहा हूँ। बाहर आने के लिये इतनी उतावली मत होओ, तुम्हें कोई सलमें सितारों जड़ी बेशक़ीमती साड़ी नहीं पहननी है। तुम्हें पहननी है फटी साड़ी, सुन रही हो! ग़रीब मोचिन की पोशाक!
(मोचिन की आवाज़ सुनाई देती है) - मैं बाहर आना चाहती हूँ।
(ख़ामोशी)
(पर्दा गिरता है और मंच पर धुँधलका नज़र आता है।)
क़स्बों में हर दिन, हर रोज़ यही होता है- होता है और तेरे घर से सामना होते ही, ऐ मोची की अनोखी बीवी, दर्शक बाज़ारों की ओर जाती अपने सपनों की आधी दुनिया भूल जाते हैं।
(रौशनी बढ़ रही है।)
शुरू करें अपन! तुम सड़क तरफ़ से जाओ।
(परदे के पीछे से बहस की आवाज़ें आती हैंद्ध :- दर्शकों से नमस्कार!
(लेखक अपनी रेशमी-चोगे जैसी-फुँदनेदार रेशमी टोपी उतारता है- वह भीतर की हरी रोशनी से रोशन हो जाती है। लेखक उसे दबाता है तो पानी की एक धार फूटकर उस पर गिरती है।)
(लेखक झेंप से भरकर दर्शकों की ओर देखता है और व्यंग्य - बिडम्बना भरे भावों से - पीछे हटते हुए) -
क्षमा करें!
(ग़ायब)
बीवी :- ख़ामोश, बड़बोले, जलमुँहे! पर मैंने ये किया है, किया है ये मैंने- तो इसलिए कि मैं करना चाहती थी। ये मेरी मरजी थी अगर तुम अपने घर में न घुस गये होते तो तुम्हें घसीट मारती, नाबदान के कीड़े (गंदे संपोले) और ये सब मैं इसलिए कह रही हूँ ताकि खिड़कियों से कान सटाये तमाम लोग (मेरी बातें) सुन सकें। तुम्हारे जैसे एक आँख के कानों से ब्याह करने के बजाय किसी बूढ़े से ब्याह रचना ज्यादा अच्छा हैं। मैं तो सब से भर पाई, किसी से नहीं बोलना मुझे- न तुमसे, न तुमसे और न किसी से - क़िस्सी से भी नहीं।
(दरवाज़ा भड़काते अंदर आती है।)
अच्छी तरह से जानती थी मैं कि ऐसे लोगों से पल भर (को भी) बात करना मुश्किल है- लेकिन गुनाहगार तो मैं हूँ। मेरा-मेरा ख़ुद का - क्यों? मुझे अपने झोपड़े में रहना चाहिये था, साथ अपने- मैं यक़ीन नहीं करना चाहती - अपने - मर्द के साथ-ख़ाविंद केश․․․श․․․श․․․। किसी ने, किसी काले बालों, नीली आँखों वाले ने- अहा․․․ कैसा अनोखा मेल - इस बदन और उन ख़ूबसूरत रंगों का - मैं ब्याह रचाने जा रही थी उससे- उफ! मैं अपने ये केश। लहरा देती।
(सिसकती है। दरवाजे़ पर दस्तक होती है।)
कौन है?
(फिर दस्तक होती है। कोई आवाज़ नहीं। गुस्से से)
कौन है?
लड़का :- (डरा हुआ, बाहर से․․․) मैं
बीवी :- (दरवाज़ा खोलते)- अरे तुम हो?
(प्यार से लाड़ में भरके)
लड़का :- हाँ मोचिन काकी, क्या तुम रो रही थी?
बीवी :- नहीं, भुनगा था। वो जो होता है न, भुन-भुन करके आँखों में घुसने वाला, वहीं।
लड़का :- फूँका मार दूँ आँखों में।
बीवी :- बस, ना मेरे गुड्डे, हो गया। (उसको बस सहलाती है।) अरे हाँ तुम कैसे आए?
लड़का :- मैं ये जूते लाया हूँ, बढि़या वाले जूते, पचास रुपये के हैं, तुम्हारे मोची से सुधरवाने के लिए! मेरी दीदी के हैं- उसी के जिसका चेहरा फूल जैसा है और जो अलग-अलग रंग के फीते बाँधती है- अपनी चोटियों में नहीं, अपनी कमर में।
बीवी :- यहीं छोड़ दो इन्हें! सुधर जाएँगे।
लड़का :- मेरी माँ ने कहा है कि ये जूते ऊँची कम्पनी के हैं। ऊँची कम्पनी के जूतों का चमड़ा बहुत नरम होता है। इसलिए उन्हें ज़रा धीरे से पीटना ताकि चमड़ा ख़राब न हो।
बीवी :- बता देना अपनी माँ को, मेरा मर्द अपना काम बख़ूबी जानता है। उसे कहना कि वो अचार में, सही मिकदार में नमक और मिर्च डालना और झौकना उसी तरह कामयाबी से सीखे जैसे मेरा मर्द करता है- जूते सुधारना।
लड़का :- (पीला चेहरा) मुझ पर गुस्सा मत करो, मेरी कोई ग़लती नहीं! मैं अपने ग्रामर के पाठ रोज़ अच्छी तरह से याद करता हूँ।
बीवी :- (लाड़ से) - मेरे बच्चे। मेरे हीरे। मैं तुमसे, गुस्सा नहीं हूँ। (उसे चूमती है।)
लो, ये गुडि़या। अच्छी लगी? है न। ले लो।
लड़का :- मैं ले लेता हूँ, इसलिये कि तुम्हें तो कोई बच्चा होना ही नहीं-
बीवी :- ऐसा किसने कहा तुमसे?
लड़का :- एक दिन मेरी माँ कह रही थी। मोची की जोरू के बच्चे नहीं होंगे और उनकी सहेली राधा और मेरी बहन हँस रही थीं।
बीवी :- ․․․․․ बच्चे! हो सकता है कि मैं उन सबसे ज़्यादा सुन्दर बच्चे जनूं, और ज़्यादा बहादुरी और इज़्ज़त से- क्योंकि तुम्हारी माँ․․․ मैं सोचती हूँ, तुझे यह जान लेना चाहिए․․․।
लड़का :- तुम अपनी गुडि़या ले लो। मुझे नहीं चाहिए।
बीवी :- (बदलते हुये) नहीं, नहीं-तुम रख लो बेटे। इसका तुमसे कोई मतलब नहीं। (बाएँ से मोची आता दिखता है। वह रूपहले बटनों वाला मखमली वेल्वेट का जाकेट पहने है।)
(वह अपनी निहाई की ओर जाता है)
बीवी :- भगवान तुम्हारा भला करे!
लड़का :- (डरा हुआ) जाता हूँ काकी। (भागता हुआ जाता है।)
बीवी :- चुम्मी! चुम्मी गुड्डे! जन्मने से पहले ही मर जाती तो मुझे ये दिन, ये झंझटें न देखनी पड़तीं। उफ! सिक्का! जिस किसी ने भी तेरा चलन किया उसके दोनों हाथ काट देने चाहिए- फौड़ देनी चाहिए उसकी दोनों आँखें, निकाल लेनी चाहिये।
मोची :- (बोरे पे बैठा) ऐ औरत! क्या बक रही है?
बीवी :- कुछ ऐसा जिससे तुम्हारा कोई मतलब नहीं।
मोची :- मेरा तो किसी चीज़ से मतलब नहीं। जानता हूँ, खूब जानता हूँ कि मुझे खुद को काबू में रखना चाहिए।
बीवी :- मुझे भी अपने पे काबू रखना होगा․․․ ज़रा सोचो तो अठारा बरस की हूँ-
मोची :- और मैं त्रेपन का और इसलिए मैं चुप लगा जाता हूँ, तुम पर गु़स्सा नहीं करता। सब समझता हूँ मैं। इसीलिए तुम्हारी गु़लामी करता हूँ, शायद यही ईश्वर की मर्जी हो․․․
बीवी :- (पति की ओर पीठ किए, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता मुड़ती है और भावुक होकर, कोमल भाव लिए उसकी ओर बढ़ती है।) न․․․ न ऐसा नहीं मेरे बच्चे ऐसा मत कहो।
मोची :- काश मेरी उम्र चालीस बरस होती या पैंतालीस�ही कम से कम। (जूते को गुस्से से पीटता है।)
बीवी :- (उत्सुकता से) - तो मैं तुम्हारे पाँव धोकर पीती, है न? मेरे बारे में क्या ख़्याल है? क्या कोई मोल नहीं मेरा?
मोची :- ऐ औरत अपने पर काबू रख।
बीवी :- मेरी यह ताज़गी और मेरा ये चेहरा क्या दुनिया की मामूली दौलत है?
मोची :- अरी भागवान - पड़ोसी सुन लेंगे।
बीवी :- नास हो नास हो उस घड़ी का जब मैंने उस मोहने की बात मानी।
मोची :- तुम्हारे लिए चाय पानी बनाऊँ?
बीवी :- अरे बेवकू़फ, मूर्ख, घामड़। (अपना माथा ठोकती है) एक से एक अच्छे मंगेतरों के होते․․․
मोची :- (उसे पटाने की कोशिश में)- यही तो लोग कहते हैं।
बीवी :- लोग! हर कोई जानता है। इलाके में सबसे गबरू जवान। इनमें मुझे सबसे ज्यादा पसंद था। बसंता तुम जानते हो न उसे- बसंता को- वही काली फुँदनेदार आइने लगी जीन पहने, सफेद घोड़ी पर सवार होकर आता था हाथ में चाबुक लिए। कैसी चमकती थी उसकी ताँबे की एड़ा कितना ख़ूबसूरत लबादा था ठंड के लिए उसके पास। लम्बा चौड़ा रेशमी बूटे वाला।
मोची :- मेरे पास भी ऐसा ही एक था, सचमुच सुंदर है।
बीवी :- तुम! अरे तुम क्या रखोगे? क्यों बेवकू़फ बनाते हो अपने को। एक मोची अपनी जि़न्दगी में कभी ऐसे कपड़े नहीं पहन सकता?
मोची :- अरी भली मानस! जानती नहीं क्या तू․․․
बीवी :- (बात काटते हुये)- फिर मेरा एक नया मंगेतर आया․․․
(मोची जूते को बेहद गु़स्से से ठोकता है।)
जवानी में उसके कदम पड़े ही थे․․․ अठारा के आसपास उमर होगी उसकी। कितनी आसानी से कहा जा सकता है। अठारा बरस। (मोची बेचैनी से ऐंठता है।)
मोची :- मैं भी कभी अठारा का था।
बीवी :- तुम! तुम कभी अठारा बरस के नहीं रहे अपनी जि़न्दगी में, लेकिन वो था और कैसी-कैसी बातें कहता था वो मुझसे सोचो भला․․․․
मोची :- (जूते को ठोकते पीटते हुए गु़स्से से) - चुप भी रहोगी तुम? पसंद हो या नहीं तुम मेरी बीवी हो और मैं तुम्हारा पति, सड़ रही थी तुम घर और कपड़ों के बिना। क्या प्यार किया था मुझसे तूने? धोखेबाज! धोखेबाज! धोखेबाज कहीं की।
बीवी :- (उठते हुये) - बंद करो अपना थोबड़ा। ज़रूरत से ज़्यादा बोलूँ ऐसी नौबत मत लाओ धंधे से लगो अपने। मुझे तो यक़ीन नहीं होता।
(कपड़े से सिर ढँके दो पड़ोसी मुस्कुराते खिड़की के बाहर से गुज़रते हैं।)
भला कौन बताता मुझे बूढ़े खूसट किन्तु मुझसे ऐसा बर्ताव करेगा? जी चाहता है तो मार ले मुझे। शुरू हो जा, मार इसी हथोड़े से।
मोची :- अरी औरत, ऐसा टंटा मत खड़ा कर। देख लोग आ रहे हैं- हे भगवान! (दो पड़ोसी फिर गुज़रते हैं।)
बीवी :- मैं अपनी औकात से नीचे गिर रही हूँ बेवकू़फ, धामड़। नासपीटे मेरे उस दोस्त मोहना का। कीड़े पड़े पड़ोसियों के। बेवक़ूफ। बेवक़ूफ।
(अपना माथा ठोंकती जाती है।)
मोची :- (आइने में देख अपनी झुर्रियाँ गिनते हुए)
एक, दो, तीन, चार․․․ हजारों (आइना रख देता है।)
करनी का अच्छा फल भुगत रहा हूँ हाँ भाइयो! क्योंकि देखो, क्यों किया ब्याह मैंने? इतने सारे उपन्यास पढ़ने के बाद मुझे यह मालूम हो जाना चाहिए था कि मर्दों को तमाम औरतें अच्छी लगती हैं- लेकिन औरतें हर मर्द को पसंद नहीं करतीं। कितना सुखी था मैं। मेरी बहनें, मेरी बहन ही दोषी है। वो बार-बार कहती थी, तुम अकेले पड़ जाओगे तुम्हारा ऐसा होगा, वैसा होगा। यहीं मैं गच्चा खा गया। गाज गिरे मेरी बहन पर, भगवान उसकी आत्मा को शांति दे। (बाहर से आवाजें आती हैं) क्या हो सकता है।
(लाल कपड़ों वाला पड़ोसी खिड़की पर नज़र आता है, उसके साथ, इसी रंग के कपड़े पहने उसकी दो बेटियाँ हैं) कड़ी चुस्ती से कहता है - जै राम।
मोची :- (अपना सिर खुजाते हुए) जै राम!
लाल पड़ोसी :- अपनी बीवी से बोलो बाहर निकले, लड़कियों तुम रोना बंद करोगी? बोलो उसे वो बाहर निकल के यहाँ आए- फिर देखता हूँ।
मोची :- ओह, मेरे भले पड़ोसी, झगड़ा मत खड़ा करो, कसम भगवान की। बताओ कि मैं क्या करूँ? मेरी हालत समझो, जि़न्दगी भर शादी से डरता रहा․․․ क्योंकि शादी बेहद गहरी चीज़ है, और अंत देखो। देख ही रहे हो।
लाल पड़ोसी :- अरे भले मानस, कितने सुख से रहता पर तूने अपने जैसी किसी से ही ब्याह किया होता, मसलन इन लड़कियों से, या गाँव की किसी औरत से।
लाल पड़ोसी :- जी पैठता है तुम्हारे लिये। जि़न्दगी भर कितनी इज़्ज़त से रहे तुम।
मोची :- (यह देखने की कोशिश करते हुए कि कहीं उसकी बीवी तो नहीं आ रही) - परसों के दिन वह मावा निकाल लाई जो हमने परसों के लिए रक्खा था- हम पूरा साफ़ कर गये। कल हमने बस दलिया और दाल खाई, इसपे मैंने ज़रा सा ऐतराज किया तो जानते हैं उसने मुझे एक के बाद एक लगातार चार गिलास कच्चा दूध पीने पर मजबूर कर दिया।
लाल पड़ोसी :- ओह! कैसी बेवकू़फ औरत है तुम्हारी।
मोची :- इसलिए मेरे प्यारे पड़ोसी मैं आत्मा से आपको आसीसूँगा अगर आप यहाँ से चले जायें। लाल पड़ोसी काश तुम्हारी बहन जि़न्दा होती․․․ एश․․․
मोची :- और हाँ․․․ जाते जाते आप ये भी ले जा सकते हैं, बन गए हैं।
(मोची की बीवी, परदे के पीछे से चुपचाप, दरवाजे़ की ओर देखती है।)
लाल पड़ोसी :- (हल्के से घिघिघाते हुए) -कितने पैसे लोगे हमसे? महँगाई तो हर रोज़ बढ़ती है।
मोची :- जो चाहो। इतना दो कि हम दोनों चोट से बच जाएँ․․․
लाल पड़ोसी :- (दोनों लड़कियों को कोहनी से आगे ठेलते हुये) - दो रुपये ठीक होंगे?
मोची :- मैं आप पर छोड़ता हूँ
लाल पड़ोसी :- दो रुपए हैं सो मैं ये दे देता हूँ।
बीवी :- (गुस्से से भरी आती है) - चोट्टे! (लड़कियाँ डर कर चीखती हैं) क्या तुम इसी तरह लोगों को लूटते हो?
(अपने पति से) - और तुम अपने को इस तरह लुटने देते हो? लाओ वे जूते दो और जब तक तुम दस रुपए नहीं देते, जूते यहीं रहेंगे।
लाल पड़ोसी :- छिपकली! छिपकली!
बीवी :- सोच समझकर बोलना।
लड़कियाँ :- ओह चलो, चलो यहाँ से भगवान के लिए․․․
लाल पड़ोसी :- तुम्हें ऐसी बीवी मिली। तुम इसी लायक हो, उठा लो पूरा फायदा। उठा लो।
(वे तेजी से बाहर जाते हैं मोची दरवाज़ा और खिड़की बंद कर आता है।)
मोची :- ज़रा मेरी सुनो․․․
बीवी :- छिपकली․․․ छिपकली․․․ क्या? क्या? क्या․․․ बताओ चाहते हो तुम मुझे?
मोची :- देखो मेरी लाड़डो․․․ पूरी जि़न्दगी मैंने टंटों से दूर रहने की कोशिश की है। (मोची लगातार थूक गुटकता है)
बीवी :- यानी जब मैं तुम्हारे हक दिलाने के लिये बाहर आती हूँ तब मैं झंझट खड़ी करती हूँ यही न?
मोची :- मैं कुछ और नहीं कहता- मेरा मतलब तो ये है कि जि़न्दगी भर ही लड़ाई झगड़ों से मैंने उतना ही दूर रहने की कोशिश की जैसे पानी से बिल्ली।
बीवी :- (तेज़ी से)- बिल्ली! ओह कैसी भोंडी बात है।
मोची :- (धीरज से) - लोगों ने मुझे उकसाया। हाँ, कई बार तो लोगों ने मुझे बेइज़्ज़त तक किया और रत्त्ाी भर कायर न होने के बावजूद, बहस मुबाहसे की चीज़ बनने के डर से गपोडि़यों और बैठक बाजों के बीच अपना नाम उछाले जाने के डर से मैंने यह सब बर्दाश्त कर लिया।
बीवी :- तो, ये बात है। इस सबसे मुझे क्या फ़र्क पड़ता है? मैंने तुमसे ब्याह किया। तुम्हारा घर साफ़ नहीं रहता क्या? खाना मिलता है तुम्हें कि नहीं? क्या तुम ऐसे कुरते और गमछे नहीं पहन रहे जो जि़न्दगी में पहले कभी नहीं पहने थे? अपने हाथों में तुम ऐसी शानदार घड़ी नहीं बाँधे घूमते जिसमें रात चाबी मैं भरती हूँ? और क्या चाहते हो तुम? हाँ सब कुछ होने के बावजूद मैं गु़लाम नहीं हो सकती। हमेशा मैं वही करूँगी जो मेरा जी चाहेगा। (जो मैं चाहूँगी․․․)
मोची :- ये कोई बताने की बात है। तीन महीने हो गए हमारा ब्याह हुये। मैं तुम्हें प्यार कर रहा हूँ और तुम मेरा मज़ाक उड़ाती हो। समझ नहीं आता क्या तुम्हें कि ऐसे मज़ाक मुझसे बर्दाश्त नहीं होते?
बीवी :- (संजीदगी से, जैसे सपना देख रही हो) - प्यार कर रहे हो, प्यार कर रहे हो मुझे․․․ लेकिन (रूखेपन से) क्या क़िस्सा है ये- मुझे प्यार करने का? कहना क्या चाहते हो तुम- तुम्हें प्यार कर रही हूँ।
मोची :- तुम भले ही सोचो कि मैं अंधा हूँ, लेकिन नहीं मैं नहीं हूँ। मुझे मालूम है- तुम क्या करती हो, क्या नहीं करतीं, और अब मैं इस सबसे ऊब चुका हूँ- यहाँ तक․․․।
बीवी :- (बेहद गुस्से से) - मेरे लिए सब बरोब्वर है- तुम ऊब चुके हो या नहीं। क्योंकि मैं तुम्हारी अँगूठे बराबर फ़िकर नहीं करती जान गए ना।
(सिसकती है)
मोची :- कुछ धीरे नहीं बोल सकतीं क्या?
बीवी :- तुम इसी लायक हो- तुम तो ऐसे बेवकूफ़ हो- कि मुझे चीख़-चीख़ कर पूरी गली सर पे उठा लेनी चाहिये।
मोची :- भगवान ने चाहा, तो ये सब जल्द ख़त्म हो जाएगा, मैं नहीं जानता और कब तक सह पाऊँगा।
बीवी :- आज का खाना घर पे नहीं है- सो तुम अपने खाने की तलाश में कहीं भी जा सकते हो।
मोची :- (मुस्कराते हुए) - कल शायद तुम्हें भी उसकी करनी पड़े․․․।
(अपनी निहाई पे जाता है।)
(बीच के दरवाज़े से नीला सूट पहने, लबादा ओढ़े और चाँदी की नक्काशीदार मूठ लिये मेयर प्रवेश करता है। वह बहुत धीरे और सुस्त आवाज़ में बोलता है।)
मेयर :- जुटे हो।
मोची :- जुटा हूँ, मेयर साहब!
मेयर :- ख़ूब कमा लेते हो?
मोची :- ज़रूरत भर।
(मोची अपने काम में लगा रहता है, मेयर चारों और ख़ोजी निगाह से देखता है।)
मेयर :- लगता है कुछ गड़बड़ है?
मोची :- (सिर उठाये बिना) हाँ!
मेयर :- तुम्हारी बीवी!
मोची :- (सिर हिलाते हुए)- मेरी बीवी!
मेयर :- (बैठते हुये) - इस उमर में ब्याह करने से यही होता है। तुम्हारी उमर के तो आदमी को कम से कम एक बीवी का विधुर होना चाहिए। मैं तो चार निबटा चुका हूँ, राधा, मीरा, गौरा और प्रेमा, आखिरी कौन थी- सभी एक से एक ख़ूबसूरत- फूलों और ताजे पानी पर निछावर होने वालीं। सभी ने, बिना किसी भेदभाव के ये डंडा खाया है, कई बार। मेरे घर में तो ये है कि पियो और गुनगुनाओ।
मोची :- क्या कहूँ, आप तो ख़ुद ही जानते हैं कि मेरी क्या हालत है। मेरी बीवी․․․ मुझे नहीं चाहती। खिड़की से वह हर ऐरे गैरे से बतियाती है। यहाँ तक कि पलटू पहलवान से भी। मेरा तो ख़ून खौल उठता है।
मेयर :- (हँसते हुये) - सच तो ये है कि वो एक मस्त अल्हड़ लड़की है। ऐसा होना ही था।
मोची :- धन्य है! समझ गया․․․ मुझे लगता है कि यह सब वो मेरी नींद हराम करने के लिये करती है, क्योंकि मुझे यक़ीन है․․․ वो मुझसे नफ़रत करती है। सोचता था कि उसे अपने मीठे सुभाव और नकली मूँगे की कलाओं, चूडि़यों, कंघों- या रंगीन इजारबन्दों जैसी छोटे-मोटे नज़रानों से काबू में कर लूँगा। लेकिन वो तो हमेशा अपनी पे आई रहती है।
मेयर :- और तुम, हमेशा अपनी पर, भगवान भला करे। देखो, मेरी मानों मुझे तो भरोसा ही नहीं होता कि कोई ऐसा भी मर्द है जो अकेले अपने आप, एक नहीं अस्सी औरतों पर हावी न हो सके। अगर तुम्हारी बीवी खिड़की से हर ऐरे ग़ैरे से बात करती है, अगर तुमसे चिढ़ती है, तो इसलिए कि तुम चाहते हो कि वो- कि तुम उसे सलटा नहीं पाते। औरतों को कमर से निचोड़ना चाहिए, डट के सवारी गाँठनी चाहिए उनपे और उन्हें हमेशा-हमेशा फटकारते रहना चाहिए और इस सबके बावजूद अगर वे ना- नुच करने की कोशिश करें तो, डण्डा․․․ और कोई चारा नहीं। राधा, मीरा, गौरा और प्रेमा जो आिख़री थी स्वर्ग से, गर इत्तिफाकन वहाँ हों, तो इस बात की गवाही दे सकती हैं।
मोची :- लेकिन एक बात ऐसी है, जिसे आपको बताने की हिम्मत नहीं हो रही।
मेयर :- (हुक्म देने से ढंग से) - कह दो।
मोची :- मैं जानता हूँ कि ये जानवरपन है, लेकिन- मैं अपनी बीवी को प्यार नहीं करता।
मेयर :- शैतान!
मोची :- हाँ जी! शैतान!
मेयर :- अरे शैतान की आँत! फिर ब्याह क्यों किया?
मोची :- अब आपने पकड़ा। मुझे ख़ुद समझ में नहीं आता। मेरी बहन, मेरी बहन का दोष है। तुम अकेले पड़ जाओगे, तुम्हारा ऐसा होगा- वैसा होगा और जाने क्या-क्या? मेरे पास थोड़ी पूँजी और सेहत थी, तो मैंने कहा चलो ये भी सही। लेकिन ईश्वर ही जानता है․․․ गाज गिरे मेरी बहन पर- भगवान उसकी आत्मा को शांति दे।
मेयर :- लेकिन इसमें कोई शक़ नहीं कि तुम खासे बेवकूफ़ बने।
मोची :- जाहिर है साब! ज़ाहिर है कि मैंने ख़ुद को बेवकूफ़ बनाया और अब मैं ये पल भर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैं क्या जानता था कि औरत किसे कहते हैं। मेरी मानें और आप․․․ चार। इस सब तमाशे के लिये अब बुढ़ा चुका हूँ मैं․․․
बीवी :- (ललक और उमंग से)-
आओ नाचें गाएँ
खेलें धूम मचायें
बीत गए, दिन काम के
आओ झूमें नाचे गाएँ
खेले धूम मचाये
मोची :- सुना।
मेयर :- और तुम्हारी क्या मंशा है?
मोची :- (मुद्रा अपनाता है)
मेयर :- होश खो बैठे हो क्या?
मोची :- (उत्त्ाेजना से भरकर)- यह मोची का आिख़री साँस तक डँटे रहने वाला काम-खत्म हो गया मेरे लिए। मैं शांतिप्रिय आदमी हूँ। मैं इस चिल्लपों और अपने बारे में ऐसी कानाफ़ूसी का आदी नहीं हूँ।
मेयर :- (हँसते हुये) - अच्छी तरह सोच विचार लो कि तुम क्या कह रहे हो क्या करने जा रहे हो। क्योंकि तुममें कू़बत है- बेवकू़फ मत बनो शर्म की बात तो ये है कि तुम जैसे आदमी में ऐसी भीतरी मजबूती नहीं है जो होनी चाहिए।
(बाएँ दरवाज़े से मोची की बीवी प्रकट होती है, मुखड़े पे पाउडर लगाती, भौंहें सँभालती आती है। सिंगार करती व उसे खुले बालों में पटियों पाटते और ओंठ उभार कर उन पर ऊँगलियाँ फिराते दिखा सकते हैं।)
बीवी :- नमस्ते!
मेयर :- नमस्ते। (मोची से) कितनी ख़ूबसूरत है, कितनी प्यारी।
मोची :- आपको ऐसा लगता है।
मेयर :- कितने सलौने गुलाब लगा रखे हैं तुमने अपने केशों में, कितनी भीनी खुशबू हैं उनकी।
बीवी :- आपके घर की छत पे तो इससे कहीं ज़्यादा खिलते हैं।
मेयर :- बेशक! तुम्हें फूल अच्छे लगते हैं?
बीवी :- मुझे ओह कितने अच्छे लगते हैं मुझे? मेरा बस चले तो मैं तो छप्पर पर, दरवाज़ों पर, दीवालों के सभी जगह फूलों के गमले रख दूँ। लेकिन वो- उसे पसंद नहीं। ठीक ही तो है, दिन भर जूते गठने वाले से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?
(वह खिड़की से सट के बैठ जाती है) नमस्ते! (खिड़की के पार देखते हुए आँखें मटका के इशारा करती है।)
मोची :- देखा आपने?
मेयर :- बड़ी फूहड़- लेकिन है बेहद ख़ूबसूरत औरत। कैसी (जानलेवा) बढि़या कमर है।
मोची :- आप उसको अभी जानते नहीं।
मेयर :- हूँ․․ ह! (शान से जाता है।) कल मिलेंगे और देखूँ कल शाम तक तेरा नशा काफूर होता है या नहीं। लानत है! ऐसा बदन! औ․․․ (मोची की बीवी को घूरता, जाता है।)
ओह! ओह! कैसी बलखाती जुल्फें।
मोची :- (गाते हुए)
मिलना चाहे अम्मा तेरी राजा जी से
तो जंगल में एक किला है
उसमें है तहख़ाना बढि़या
मिलना चाहे अम्मा तेरी राजा जी से
(बीवी एक कुर्सी लेती है और उसे घुमाना शुरू करती है- हम मुउढे ले सकते हैं।)
मोची :- (दूसरी कुर्सी लेता है और उसकी विरोधी दिशा में घुमाना शुरू करता है) - देखो, ये मेरा अपशकुन हो सकता है। इससे बेहतर तो ये है कि तुम मेरा गला दबा दो। तुम ऐसा क्यों करती हो?
बीवी :- (कुर्सी छोड़ देती है) क्या किया है मैंने? कहा नहीं था मैंने तुमसे! कि तुम मुझे हिलने भी नहीं देना चाहते।
मोची :- मैं तो पक गया तुम्हें समझाते फिजूल है। (जाने लगता है, लेकिन तभी बीवी फिर मुउढा घुमाने लगती है और मोची भी दरवाज़े से लौटकर अपना मुउढा घुमाने लगता है।)
तुम मुझे जाने क्यों नहीं देतीं?
बीवी :- हे भगवान। यही तो चाह रही हूँ मैं कि कब तुमसे पिंड छूटे।
मोची :- तो मुझे!
बीवी :- (क्रोध से) - फूटो! (फूट लो।)
(बाहर से बाँसुरी और मटकी पर एक उत्त्ाेजक धुन सुनाई देती है- तेज- बीवी ताल में अपना सिर हिलाना शुरू करती है और मोची बाएँ दरवाज़े से बाहर चला जाता है।)
बीवी :- (गाते हुये)-
आना सखी जरूर आना जरूर,
पहाड़ शिखर शैला पानी आना सखी,
आना जरूर छोड़ा आवें, घोड़ा आवे,
पहाड़ से आवे ले केसर की लगाम लारा ला रा रा․․․
�शायद ये वजह हो कि मुझे बाँसुरी हमेशा बहुत पसंद रही हो, हमेशा पागल रही हूँ उसकी धुन पर! आँखें छलछला उठती हैं। कैसा अद्भुत सुखः हुँ हुँ हुँ सुनो, काश वह सुन पाता।
(वह उठती है और ऐसे नाचना शुरू करती है जैसे किसी मँगेतर के साथ नाच रही हो।) ओह․․․ अरे बसंता कितना सुन्दर कुरता पहना है तूने। न, न, मेरी ज़रा सी जान साँसत में पड़ जाएगी। लेकिन मोहना दिखा नहीं क्या तुझे कि बड़े सब मुझ पे आँखें गढ़ाये हैं। रूमाल निकाल, मैं नहीं चाहती कि तू मेरे कपड़े गंदे करे। तुझसे हाँ वो तुही है- मेरे मन का राजा। कल हाँ कल, जब तू वो सफेद घोड़ी लाएगी, मेरी मन पसन्द, तब․․․।
(खिलखिलाती है, संगीत बंद हो जाता है।)
अरे! क्या! ये तो वही हुआ जैसे कोई अमरत का प्याला ओठों से छुलाकर हटा ले․․․ उफ․․․
(खिड़की पर पलटू पहलवान नज़र आता है। वह सफेद चूड़ीदार पजामा और काला कुरता पहने है। उसकी आवाज़ काँपती है और वह कठपुतली जैसा सिर हिलाता है।)
पलटू पहलवान :- शी!
बीवी :- (बिना उसकी ओर देखे, खिड़की की ओर पीठ किए, कौए चिडि़या की आवाज़ निकालती है।) - काँव, काँव․․․
पलटू पहलवान :- (पास आते हुए) - शी․․․! मेरी नन्ही गोरी, लालपान․․․ की बेगम, थोड़ी मीठी थोड़ी तीखी, मेरी सुनहली परी मेरे सपनों की रानी।
बीवी :- कितनी ढेरों बातें, पलटू। नहीं मालुम था मुझे कि माँस के लोंदे भी बोल सकते हैं। यहाँ आसपास अगर कोई काला कौआ पंख फड़फड़ा रहा हो- काला और बूढ़ा- तो उसे समझ लेना चाहिए कि अभी मुझे उसका गाना सुनने की फुर्सत नहीं- काँव-काँव․․․
पलटू पहलवान :- शाम का धुँधलका जब अपनी छायाओं की भीनी चादर दुनिया पर फैलाता है और जब गलियाँ राहगीरों से खाली हो जाती हैं, मैं वापस आऊँगा।
(सुघनी सूँघकर- बीवी की पीठ पीछे छींकता है।)
बीवी :- (चिढ़कर पलटते और धरधराते पलटू पहलवान के गाल पर थप्पड़ जमाते हुए) - अशड़ड․․․! (चेहरे पर नफ़रत का भाव लिये) - और अगर तुम न लौटो तो भी चलेगा, गंदे कीड़े! काड़ के कउए! कलमुँहे! भाग, भाग यहाँ से। कभी ऐसा हुआ है। कैसी बढि़या छींक। भगवान तुझे ऊपर उठा ले। उफ कितनी नफ़रत होती है मुझे। (खिड़की पर गले में रूमाल बाँधे और माथे तक झुकी टोपी लगाये एक युवक नज़र आता है, उसके चेहरे पर आँख़ों में गहरी उदासी की झलक․․)
रूमाली ज्वान :- हवा ले रही हो, भौजी? और हमेशा अकेले। कैसा तरस आता है।
बीवी :- (बुरा मुँह बनाए हुए) - तरस आने की क्या बात है?
रूमाली ज्वान :- तुम जैसी औरत- ऐसे ख़ूबसूरत केशों, और जोबनों के बावजूद․․․
बीवी :- (ज़्यादा खटास से) - लेकिन, तरस क्यों?
रूमाली ज्वान :- क्योंकि तुम तो बैठा के चित्र बनाने लायक हो, यहाँ खिड़की पर खड़े होने के लिए नहीं बनी तुम!
बीवी :- हाँ मुझे चित्र अच्छे लगते हैं- ख़ासकर कहीं यात्रा पर जाने के लिए तैयार पे्रमिकाओं के․․․
(वे बातचीत जारी रखते हैं।)
मोची :- (घुसता है फिर कदम पीछे हटाता है) - तमाम दुनियाँ और इस वक़्त! मंदिर जाने वाले लोग क्या कहेंगे? क्या क्या कहेंगे, वे आपस में जाने कैसी बातें करेंगे वे मेरे बारे में! हर घर में मेरी चर्चा होगी- चड्डी, बनियान धोती सबके बारे में।
(मोची की बीवी हँसती है।)
हे भगवान! मुझे चलना चाहिए सुनूँ तो ज़रा कि मंदिर के माली की बीवी क्या कहती है और पुजारी, पुजारी जाने क्या कहेंगे। उनकी बातें तो मुझे सुननी ही चाहिये।
(गहरी परेशानी में भर कर जाता है।)
रूमाली ज्वान :- तुम्हें कैसे समझाऊँ? मैं तुम पर कु़र्बान हूँ, इतना प्यार करता हूँ तुम्हें जैसे․․․
बीवी :- सच, “मैं तुम पर क़ुर्बान हूँ․․․ इतना प्यार करता हूँ” सुनते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई बहुत नरम पंख से मेरे कान की लवें सहला रहा हो। “मैं तुम पर क़ुर्बान हूँ, इतना प्यार करता हूँ।”
रूमाली ज्वान :- सूरजमुखी फूल में कितने बीज होते हैं?
बीवी :- भला मैं कैसे जानूं?
रूमाली ज्वान :- (लगभग सहते हुए) - हर पल मैं उतनी ही बार तुम्हारा नाम जपता हूँ। तुम्हारा नाम!
बीवी :- (हैरानी से) रुक जाओ। मैं तुम्हारी बातें सुन सकती हूँ कि वे मुझे अच्छी लगती हैं। लेकिन, बस यहीं तक। समझे?
रूमाली ज्वान :- लेकिन ऐसा कैसे हो सकता। क्या तुमने किसी और को ज़बान दे रखी है।
बीवी :- बहुत हुआ, अब आप फूटिए।
रूमाली ज्वान :- मैं इस जगह से तब तक नहीं हिलूँगा जब तक तुम हाँ न कह दो। ओ मेरी नहीं मोचिन भौजी, वादा करो। (उसे बाहों में लेने की कोशिश करता है)
बीवी :- (गुस्से से खिड़की बंद करते हुए) - कैसा ढीठ आदमी है। कैसा वेबक़ूफ अगर मैंने तेरा दिमाग खराब कर दिया है तो तुझे सहना पड़ेगा। जैसे मैं यहाँ बस․․․ बस․․․ अजब है, इस शहर में क्या किसी से बात भी करना गुनाह है। इस गाँव के हालत देख मैं तो इसी नतीजे पर पहुँची हूँ कि यहाँ दो छोर हैं।
संन्यासिन या पतुरिया! यही जानना रह गया था मुझे!
(किसी महक को सूँघने का अभिनय करती भागती है।)
ओह सब्जी चढ़ा के आई थी चूल्हे पर! कैसी औरत हूँ!
(अंधेरा सा होता है। मोची एक बढि़या शाल ओढे़ और हाथ में कपड़ों का बंडल लिए आता है।)
मोची :- या तो मैं बदला हुआ आदमी हूँ या मैं खुद को जानता नहीं। ये मेरा झोपड़ा! ये मेरा ठीहा! मोम, चमड़ा․․ खैर!
(वह दरवाज़े की ओर बढ़ता है लेकिन उलटे पाँव वापस लौट पड़ता है क्योंकि उसका सामना दो अत्यंत पुण्यात्मा स्त्रियों से हो जाता है।)
प․अ․पु․स्त्री :- आराम कर रहे हो, है न?
दु․स․पु․ स्त्री :- आराम, करना तुम्हारे लिए ठीक भी है। तुम ठीक ही करते हो।
मोची :- (उखड़े-उखड़े अंदाज़ में) पाय लागूँ।
प․अ․पु․स्त्री :- आराम मालिक!
दु․अ․पु․स्त्री :- आराम, आराम।
(वे जाती हैं।)
मोची :- हाँ, आराम कर रहा हूँ- खिड़की की सेंघ से जैसे झाँक नहीं रही थी। चुड़ैल कहीं की। ख़बरदार जो आगे कभी ऐसे इशारे से बात की। पूरे गाँव में लोगों के पास जैसे और कोई बात ही नहीं कहने को।
-फलाँना ये कहता है, फलाँना ये, नौकर-चाकर अलग ही रट लगाये रहते हैं। कसम से! गाज गिरे मेरी बहन पर, भगवान उसकी आत्मा को शांति दे। लोगों की कानाफूसी, इशारेबाजी से तो कहीं बेहतर है अकेला रहना।
(दरवाज़ा खुला छोड़ वह तेजी से बाहर जाता है। बाएँ दरवाज़े से बीवी प्रकट होती है।)
बीवी :- खाना तैयार है। सुनते हो?
(दाइर्ं ओर - दरवाज़े की तरफ़ जाती है।)
सुनते हो कि नहीं! अरे क्या इतनी हिम्मत बढ़ गई कि दरवाज़ा खुला छोड़ होटल चला जाय․․․ और जूते सुधारे बिना? ठीक है आने दो, कैसी सुनाती हूँ। सुनना पड़ेगा उसे! कैसे होते हैं ये सारे मर्द, सब एक से। कैसे हेकड़ और कैसे․․․ कैसे․․․छोड़ो।
अहा कैसी सुहानी हवा है।
(वह लालटेन जलाती है, और बाहर से घर लौटते जानवरों की घंटियों की आवाज़ सुनाई देती है। बीवी खिड़की से बाहर झाँकती है।)
कैसे बढि़या झुण्ड हैं। मेमनों पर तो मैं फ़िदा हूँ। देखो, देखो उस मेमने को, उस सफेद से जिसको ठीक ठीक चलते भी नहीं बन रहा/ और․․․ अरे उसे देखो तो भोंडे मेढ़े को। उसे भेड़ों को तंग करने के अलावा कुछ आता नहीं․․․
(आवाज़ करती है।)
ऐ गडरिये सपने देख रहा है क्या, देख नहीं रहा कि वे दो दिन के मेमने को रौंदे दे रहे हैं?
(रुक कर)
बेशक, इससे मेरा मतलब है। आखिर क्यों नज़रअंदाज़ करूँ। जानवर कहीं का! ऐ!
(खिड़की से अलग हट जाती है।)
आप ही बताइये, भला कहाँ गया होगा वह घुमक्कड़? ठीक है, अगर वो दो मिनिट और देर करता है तो अकेली खाने बैठ जाऊँगी खाना-खाने, क्योंकि मैं कोई उसके भरोसे नहीं, हाँ, बिल्कुल नहीं। कितना बढि़या तो ख़ाना पकाया मैंने! ताज़े पहाड़ी आलुओं का रसा, हरी मिर्च और मक्के की रोटी, गोश्त और नीबू का अचार․․․ - क्योंकि मुझे उसकी सेहत का ख़्याल रखना है। इन हाथों मैं उसकी सेवा करती हूँ।
(यह मोनोलाग बोलते हुए वह लगातार व्यस्त रहती है- कभी एक चीज़ उठाती है, कभी दूसरी, कभी अपने कपड़ों की सलवट ठीक करती है कभी चीज़ों की धूल झाड़ती है।
लड़का :- (दरवाज़े पर) - क्या तुम अब भी गुस्सा हो?
बीवी :- मेरे लाड़ले नन्हें पड़ोसी, कहाँ जा रहे हो?
लड़का :- (दरवाज़े से) - तुम मुझे डाँटोगी तो नहीं? है न? मेरी माँ जो मुझे कभी-कभी मारती है उसे मैं इत्ता (दो हाथों से छोटा आकार बताते हुए) प्यार करता हूँ और तुम्हें इत्ता सारा (दोनों हाथों से सीने भर आकार बनाते हुए)
बीवी :- भला इतने प्यारे क्यों हो तुम?
(उसे अपनी गोद में बिठा लेती है)
लड़का :- जानती हो मैं तुम्हें वो बात बताने आया हूँ जो कोई और नहीं बताएगा। तुम जाओ, तुम जाओ, जाओ तुम- “लेकिन कोई नहीं उठा। फिर सबने कहा” ठीक है, बच्चे को जाने दो जानती हो वो बुरी खबर है और कोई नहीं लाना चाहता था।
बीवी :- तो बताओ, जल्दी बताओ मुझे क्या हुआ?
लड़का :- अरे डरो मत - मरे हुओं की ख़बर नहीं है।
बीवी :- बोलो․․․!
लड़का :- देखो, मोची काकी!
(खिड़की से एक तितली उड़कर अंदर आती है और लड़का गोद से कूदकर उसे पकड़ने की कोशिश करता है।)
तितली, तितली! तुम्हारे पास कोई टोपी नहीं है? पीली है, नीले और लाल बुंदोंवाली - और पता नहीं क्या क्या?
बीवी :- लेकिन, बच्चे, क्या तुम मुझे․․․?
लड़का :- (ज़रा कड़ाई से) - चुप रहो और ज़रा धीरे बोलो। देखती नहीं कि वो डर जायगी और तुम ऐसा करोगी, अच्छा मुझे अपना रूमाल देना।
बीवी :- (इस खेल में हिस्सा लेते हुए) - लो!
लड़का :- श् श् श्! पाँव मत पटको!
बीवी :- ऐसे में तो उड़ जायेगी।
लड़का :- (धीमी आवाज़ में जैसे तितली को पटा रहा हो, गाता है) -
खुली हवा की रानी तितली
कितनी प्यारी रानी तितली
खुली हवा की रानी तितली
प्यारी ख़ूब दुलारी तितली
ख़ूब हरी है, ख़ूब सुनहली
लौ जैसी, दिये की लौ सी
लेकिन तू तो फुदक रही है
रुकती एक न पल भर को भी
रुकना चाहे एक न पल को
खुली हवा की रानी तितली
खूब हरी है, खूब सुनहली
लौ जैसी, दिये की लौ जैसी
हाथ जोड़ता हूँ, बस रुक जा,
यहीं ठहर जा, यहीं ठहर जा।
हाथ जोड़ता यहीं ठहर जा।
तितली मेरी, प्यारी तितली, कहाँ गई तू!
बीवी :- तितली․․․․․
लड़का :- अच्छी बात नहीं।
(तितली उड़ती है।)
लड़का :- (मुट्ठी में भर, रूमाल ले दौड़ता हुआ) - रुको न! उड़ना बंद करो न!
बीवी :- (दूसरी ओर दौड़ते हुए) - उड़ जायेगी! अरे वो उड़ आएगी।
(लड़का तितली के पीछे दौड़ता बाहर निकल जाता है।)
बीवी :- (कड़ाई से) - कहाँ जा रहे हो?
लड़का :- (रुककर एकदम) - ये सच है! (तेज़ी से) लेकिन मेरी कोई गलती नहीं।
बीवी :- अब तो मुझे बता दो क्या हुआ, बताओगे न? जल्दी से।
लड़का :- मोची काका तुम्हें हमेशा के लिये छोड़कर चला गया है!
बीवी :- (आतंकित) - क्या?
लड़का :- हाँ, हाँ, ताँगे में बैठने से पहले उसने मेरे घर में ये कहा। मैंने ख़ुद देखा उसे- और उसने हमें कहा कि तुम्हें बता दे- सबको मालूम है, पूरे गाँव को।
बीवी :- (हताशा से, बैठते हुए) - नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। कभी नहीं हो सकता। मुझे विश्वास नहीं होता।
लड़का :- हाँ, ये सच है, मुझे डाँटना मत।
बीवी :- (तेज गुस्से से उठते, हुए फ़र्श पर पाँव पटकते हुए) - तो ये बदला दिया है उसने मुझे? इस तरह चुकाया है उसने मेरा कर्ज (लड़का डर के मारे टेबिल के पीछे छिप जाता है)
लड़का :- तुम्हारे बालों के काँटे गिर रहे हैं।
बीवी :- अब मेरा क्या होगा, अकेले जि़न्दगी भर। ओह․․․ ओह! ओह!
(लड़का भाग जाता है, खिड़कियाँ और दरवाज़े पड़ोसियों से भर गये हैं।)
हाँ, हाँ, आओ- देखो मुझे! बकवासियो, गपोडि़यो! ये सब तुम्हारा किया धरा है․․
प्रधान :- देखो, अब शांत रहो। तुम्हारा पति अगर तुम्हें छोड़ गया है तो इसलिए कि तुम उसे प्यार नहीं करती थी- क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता था।
बीवी :- लेकिन, क्या तुम समझते हो कि तुम मुझसे ज्यादा जानते हो? हाँ- मैं उसे प्यार करती थी। कितना प्यार करती थी। कैसे-कैसे एक से एक पैसे वाले और ख़ूबसूरत मंगेतर मेरे पास आये लेकिन मैंने उन्हें कभी हाँ नहीं कहा, उफ, मेरे बेचारे, जाने क्या क्या बताया इन लोगों ने तुम्हें।
मन्दिर के माली की बीवी :- ए महारानी! काबू कर अपने को।
बीवी :- मुझे भरोसा नहीं होता, भरोसा नहीं होता मुझे! अरे․․․
(चटक रंगों के कपड़े पहने हाथों में चाय के कप या खाने की चीजें़ लिए या और कुछ लिए पड़ोसी दरवाज़े से अंदर आना शुरू करते हैं। अंदर आते हैं, घूमते हैं, भागते हैं, आते-जाते हैं- तेजी से नृत्य की सी लय में बीवी के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। बीवी बैठी चीख़ रही है, रोती हुई। स्त्रियों की साडि़याँ का नृत्य पैटर्न बनता हैं हर आदमी तकलीफ़ का एक-एक अंदाज़ चेहरे पर ले आता है।)
पीले कपड़े वाला पड़ोसी :- चाय पियोगी?
लाल क․पड़ोसी :- कुछ लोगी ताज़गी के लिये?
हरा क․पड़ोसी :- ख़ून बढ़ाने के लिये।
काले क․पड़ोसी :- निब्बू पानी?
बैंगनी क․पड़ोसी :- छाछ!
लाल क․पड़ोसी :- पुदीना बेहतर रहेगा।
बै․ प․ :- पड़ोसी।
काला पड़ोसी :- मोचिन भौजी।
हरा पड़ोसी :- नन्हा पड़ोसी!
लाल पड़ोसी :- नन्ही मुन्नी मोचिन भौजी!
(पड़ोसी भारी उत्त्ाेजना का माहौल बनाते हैं। बीवी अपनी पूरी आवाज़ से रोती-कलपती रहती है।)
(पर्दा)
दृश्य एक
बीवी :- लारा ला रा रा․․․ प्याला ओठों से छुलाकर हटा ले।
प․ प․ :- शी․․․!
बीवी :- काँव-काँव․․․ की․․․ की․․․
प․ प․ :- मेरी नन्हीं गोरी, लालपान की बेग़म, थोड़ी मीठी थोड़ी तीख़ी, मेरी सुनहली परी, मेरे सपनों की रानी․․․
बीवी :- कितनी ढेरों बातें․․․․․ फु़र्सत नहीं। काँव-काँव, की․ की․
प․ प․ :- शाम का धुँधलका जब अपनी छायाओं की झीनी चादर दुनिया पर फैलाता है, और जब गलियाँ राहगीरों से सूनी हो जाती हैं, मैं वापस आऊँगा। (सुंघनी/छींक)
बीवी :- मुझे भरोसा नहीं होता․․․ अरे!
प․ प․ :- कुछ लोगी․․․?
ह․ प․ :- ख़ून बढ़ाने के लिये?․․․
का․ प․ :- निब्बू पानी?․․․
(बैं․प․/ला․प․/बैं․प․)
ह․ प․ :- नन्हा पड़ोसी!
का․ प․ :- मोचिन भौजी!
दृश्य दो
बीवी/रू․प․/बीवी/रू․प․/बीवी/रू․प․․․․․
रू․ प․ :- ऐं।
टो․ प․ :- ऐं।
का․ प․ :- ऐं।
बीवी :- कोई और है․․․ गली की राह दिखानी होगी।
का․ प․ :- वाह! क्या ख़ूब․․․ क्या ख़ूब!
(वही सेट। बाएँ मोची का सामान पड़ा है। दाएँ टेबिल कुर्सी भट्टी पतीले, केतली, जैसी चीजं़े हैं। टेबिल पर कप-बसी, कोल्ड-ड्रिंक्स रखे हैं। बीवी कप बसी धोती है। वह लाल सुर्ख साड़ी और बिना बाहों का ब्लाउज पहने हैं। सामने स्टेज पर तीन टेबिलें कुर्सियाँ लगी हैं। एक में प․ पहलवान (काला․ पड़ोसी) सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिए बैठा है, दूसरी पर टोपी पहने, अपनी टोपी माथे तक झुकाए जवान है।
बीवी बड़े उत्साह से कप-बसी गिलास धोकर टेबिल पर रखती है। दाएँ से गले में रूमाल बाँधे युवक ठीक उसी तरह प्रकट होता है जैसे पहले दृश्य में। वह दुखी है। उसकी बाहें बाजू में झूल रही हैं और वह बड़े ही कोमल भावों (सहृदयता-प्रेम) से बीवी को देखता है। अगर कोई अभिनेता इस दृश्य में ज़रा सा भी ओवर एक्टिंग करे तो डायरेक्टर को उसके सिर पर एक धौल जमा देना चाहिए। स्वाभाविकता स्वांग की पहली शर्त है। लेखक ने चरित्र गठा और मोची ने उसे कपड़े पहनाए। सादगी! रूमाल वाला युवक दरवाजे़ पर थमता है। पलटू पहलवान (काला पड़ोसी) और टोपी वाला युवक मुड़कर उसकी ओर देखते हैं। यह दृश्य बिल्कुल फ़िल्मी प्रभाव लिए है। देखने के उनके तरीके, आँखों और चेहरों के भाव यह प्रभाव पैदा करते हैं। बीवी बरतन धोना रोककर, रूमाल वाले युवक की ओर देखती है- टकटकी लगाकर। ख़ामोशी।)
बीवी :- अंदर आओ।
रूमाल यु․ :- तुम्हारी मर्जी हो तो!
बीवी :- (आश्चर्य से) - मेरी? तुम आओ या न आओ, मुझे कोई फ़क़र् नहीं पड़ता, लेकिन चूँकि तुम दरवाज़े पर खड़े हो․․․
रूमाल यु․ :- जैसा तुम कहो!
(वह काउन्टर टेबिल का सहारा लेकर झुकता है और शब्द चबाते कहता है।)
ये एक और इम्तहान है जिसमें मैं․․ मुझे․․
बीवी :- क्या लोगे?
रूमाल यु․ :- जो तुम कहोगी वही।
बीवी :- तो फूटो यहाँ से।
रूमाल यु․ :- हे भगवान वक़्त कैसे बदलता है।
बीवी :- ये मत समझो कि मैं रोने लगूँगी। छोड़ो तमाशा। क्या लोगे? काफ़ी? ठंडा? या और कुछ?
रूमाल यु․ :- ठंडा।
बीवी :- इस तरह आँखें गढ़ा के मत देखो मुझे, छलकवा दोगे ये शरबत।
रूमाल यु․ :- बात बस इतनी है कि मैं मर रहा हूँ। समझीं?
(खिड़की के बाजू से दो लड़कियाँ हाथों में बड़े पंखे लिए गुज़रती हैं। वे अंदर देखती हैं, सीने पर क्रॉस का निशान बनाती हैं, दृश्य देखकर जैसे भौंचक रह जाती हैं, अपनी आँखों पंखों से ढाँकती हैं और छोटे-छोटे क़दम उठाते गुज़र जाती हैं।
बीवी :- शरबत!
रूमाल यु․ :- (उसे देखते हुए) - एँ!
टोपी यु․ :- (फ़र्श पर नज़र गड़ाकर) - एँ!
का․ प․ :- (छत की ओर देखकर) - एँ!
बीवी :- (बारी-बारी से तीनो “एँ” की ओर सिर घुमाती है) - कोई और है “एँ” वाला। लेकिन ये है क्या कोई कलारी या अस्पताल। भड़ुवे कहीं के!
अपना पेट पालने के लिए मुझे ये दुकान क्यों लगानी पड़ती - अगर मैं अकेली न होती - अगर मेरा प्यारा बिचारा मर्द मुझे छोड़कर न चला गया होता - तुम लोगों की वजह से- तो क्यों ऐसी नौबत आती ये सच सुनने की? बोलो क्या कहना है तुम सबका? मुझे तुम सबको बाहर शानदार खुली हवा वाली गली की राह दिखानी होगी।
का․ पड़ोसी :- वाह, क्या ख़ूब, क्या ख़ूब।
टोपी यु․ :- तुमने होटल खोली है और हम जब तक चाहें यहाँ बैठ सकते हैं।
(रूमाल वाला युवक जाने लगता है, काला पड़ोसी मुस्कुराते अपनी जगह से उठता है और कुछ ऐसा भाव लाता है कि जैसे कोई साँठ-गाँठ हो और वह फिर लौटेगा।)
टोपी यु․ :- वही जो मैंने कहा।
बीवी :- तो ठीक है जो भी तुम कह सकते हो, मैं उससे ज़्यादा बता सकती हूँ, और ये तुम समझ लो, पूरा गाँव समझ ले, कि मेरे पति को गए चार महीने हो गए- लेकिन मैं किसी के आगे घुटने नहीं टेकूँगी- कभी नहीं। क्योंकि ब्याहता को अपना फ़र्ज निभाना चाहिए, और मुझे किसी का डर नहीं पड़ा, सुन रहे हो तुम लोग। मुझमें अपने बाबा का ख़ून है, भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। जंगली घोड़े साधते थे वे और सच्चे मर्द थे। खरी और पवित्र मैं थी और पवित्र मैं रहूँगी। वचन दिया था मैंने अपने पति को। आिख़री साँस तक। समझ लो।
(काला पड़ोसी (प․पं․) दरवाज़े तक जाकर कुछ ऐसा इशारा करता है जिससे जाहिर हो कि उसके और मोची की बीवी के बीच गुप्त संबंध हैं।)
टोपी यु․ :- (खड़े होते हुए) - मुझे गुस्सा आ रहा है। मैं साँड को सींग से पकड़ उसका सिर धरती से लगा सकता हूँ, दाँतों से उसका भेजा कच्चा चबा सकता हूँ बिना रत्ती भर थके।
(वह तेज क़दमों से जाता है और काले कपड़ों वाला पड़ोसी बायीं ओर भागता है।)
बीवी :- (सर पे हाथ रखते हुए) हे भगवान! हे ईश्वर! हे भगवान! (बैठ जाती है।)
(दरवाज़े से लड़का प्रवेश करता है। बीवी की ओर पीछे से जाकर उसकी आँखें मूँद लेता है।)
लड़का :- मैं कौन हूँ?
(वे एक दूसरे की चुम्मी लेते हैं।)
बीवी :- क्या तुम नाश्ता करने आए हो?
लड़का :- अगर तुम मुझे कुछ देना चाहो!
बीवी :- मेरे पास थोड़ी सी रेवडि़याँ हैं।
लड़का :- हाँ, मुझे तुम्हारे घर रहना बहुत अच्छा लगता है।
बीवी :- (उसे रेवडि़याँ थमाती हुई) - क्या तुम थोड़े मतलबी नहीं हो?
लड़का :- मतलबी? मेरे घुटने पर ये नीला काला धब्बा देख रही हो?
बीवी :- देखूँ तो।
(एक कुर्सी पर बैठ के लड़के को अपनी बाँहों में ले लेती है।)
लड़का :- ऐसा हुआ कि किसना तुम्हारे बारे में बनाए कुछ गाने गा रहा था, मैंने उसे मुँह पे एक घूँसा जमा दिया। फिर उसने मुझे खूब बड़ा पत्थर मारा और वहीं धड़ से यहाँ लगा। देखो!
बीवी :- ज़्यादा दुख रहा है क्या?
लड़का :- अब नहीं, लेकिन मुझे रोना आ गया था।
बीवी :- कहने दो, उनकी बातों पे ध्यान मत दो।
लड़का :- अरे, वे खूब गंदी बातें कह रहे थे। गंदी-गंदी बातें, मैं भी जानता हूँ कह सकता हूँ समझीं। लेकिन मैं नहीं कहना चाहता ऐसी बातें!
बीवी :- क्योंकि अगर तुमने ऐसी बातें कीं तो मैं चमींटा गरम करके तुम्हारी जीभ लाल कर दूँगी।
(वे हँसते हैं।)
लड़का :- लेकिन मोची काका तुम्हें छोड़ गया है तो वे तुम्हें क्यों बुरा कहते हैं?
बीवी :- वे ही झगड़े की जड़ हैं, उन्होंने मुझे दुखी किया है।
लड़का :- (दुखी होकर) ऐसा मत बोलो, मेरी अच्छी मोचिन काकी!
बीवी :- जब भी वो आता अपनी सफेद घोड़ी पे सवार․․․ उसकी आँखों में मैं खुद को देखा करती।
लड़का :- (टोकते हुए) - हाहा-हा-हा- तुम मुझे उल्लू बना रही हो, मोची काका के पास घोड़ी थी ही नहीं।
बीवी :- लड़के, तमीज से बात कर, थी उसके पास घोड़ी, बेशक थी- लेकिन तुम․․․ तब तुम पैदा नहीं हुये थे।
लड़का :- (अपने गाल पर चांटा मारता हुआ) - अच्छा! ये बात है?
बीवी :- बताऊँ तुम्हें, मेरी उससे पहली मुलाक़ात तब हुयी जब मैं नदी में कपड़े धो रही थी। दो हाथ पानी के नीचे तलहटी में हँसते छोटे-छोटे पत्थर दिखाई दे रहे थे․․․ हँसते थरथराते। वह काली शेरवानी और चूड़ीदार पजामा पहने था, उसके गले में इतना लम्बा, लाल रेशमी दुपट्टा था कि उसका एक छोर नदी के पानी तक पहुँच रहा था।
(बीवी लगभग रोने को है- सुबकने की हालत में, दूर कहीं गाने की आवाज़ सुनाई पड़ना शुरू होती है।) मैं तो इतनी घबरा गई कि दो रूमाल इत्त्ाे-इत्त्ाे मेरे हाथ से छूट धार में बह गये।
लड़का :- कैसी मज़ा आई!
बीवी :- फिर वह मुझसे बोला (गाने की आवाज़ पास आते-आते थम जाती है।) श् शु․․․।
लड़का :- (उठता है) - गाना․․․
बीवी :- गाना (ख़ामोश हो के दोनों सुनते हैं।)
मालूम है तुम्हें, वो क्या कह रहे हैं?
लड़का :- (हाथ के इशारे से) - ऐसेई कुछ!
बीवी :- तो मुझे गा के सुनाओ, जानना चाहती हूँ।
लड़का :- क्या करोगी?
बीवी :- ताकि मुझे हमेशा के लिये पता चल जाय कि वो लोग क्या कहते हैं।
लड़का :- अच्छा सुनो (गाता है)-
मोचिन, मोचिन, मोचिन, मोचिन
भाग गया उसका पति जब से
भाग गया उसका पति जब से
तब से उसने खोली होटल
बीवी :- वे इसका फल भुगतेंगे।
लड़का :- (टेबिल पर धुन बजाता है।)
किसने दिये तुझे ऐ मोचिन
इतने सुन्दर-सुन्दर कपड़े,
मलमल, कोसा और शिफान
देखो ये प्रधान का चक्कर
(आवाजें़ अब साफ-साफ सुनी जा सकती हैं, उसके साथ तम्बूरे और ढपली की भी आवाज़ आ रही है। बीवी, साड़ी का पल्ला कस के कमर के इर्दगिर्द बाँधती है।)
कहाँ जा रही हो? (डरा हुआ)
बीवी :- वे मुझे तमंचा खरीदने पर मजबूर कर रहे हैं।
(गाने की आवाज़ मद्दी होती है। वह दरवाज़े की ओर दौड़ती है, लेकिन प्रधान से टकरा जाती है, जो बड़ी शान से, हथेली पर अपना रूल ठोकता आता है।)
प्रधान :- कौन इंतज़ार कर रहा है यहाँ?
बीवी :- शैतान!
प्रधान :- लेकिन हुआ क्या?
बीवी :- वही जो आप हफ्तों से जानते हैं। ऐसी बात जो प्रधान होने के नाते आपको नहीं होने देनी चाहिये थी। लोग मेरे बारे में फूहड़ गाने गा रहे हैं, पड़ोसी अपने दरवाज़ों पर खड़े हो के खी खी खी करते हैं- इसीलिये न कि पत बचाने के लिए मेरा मर्द मेरे पास नहीं और - मुझे खुद लड़ना पड़ रहा है अपने को बचाने के लिये क्योंकि इस गाँव के सारे पंच प्रधान कद्दू है कद्दू, बिल्ली के गू․․․ न लीपने के न पोतले के, मिट्टी के माधो।
लड़का :- अहाहा!
प्रधान :- (कड़ाई से) - ऐ छोकरे। बहुत हुई चीख-पुकार! जानती हो क्या किया है अभी मैंने? दो या शायद तीन को सींखचों के पीछे भेज के आया हूँ, उनमें से जो गाते फिर रहे थे।
बीवी :- मैं देखना चाहूँगी।
स्त्री की आवाज़ :- (बाहर से) - मो․․․ नू․․․!
लड़का :- मेरी माँ मुझे बुला रही है।
(खिड़की की तरफ भागता है।)
क्या․․․, जाता हूँ। अगर तुम चाहो तो मैं अपने बाबा की लम्बी तलवार ला सकता हूँ - उनकी, जो युxx में गए थे। मुझसे नहीं उठती, लेकिन तुमसे उठ जाएगी।
बीवी :- (मुस्कुराते हुए) - जैसी तेरी मरजी।
लड़का :- (लगभग सड़क पर) - क्या․․․?
प्रधान :- मेरे ख्याल से, समय से पहले ही जवान हुआ यह अलौकिक लड़का ही अकेला है इस गाँव में जिससे तुम ढंग से पेश आती हो।
बीवी :- तुम लोग बिना बेइज़्ज़ती किये एक वाक्य नहीं बोल सकते, और ये तो बताइये भला आप श्रीमान हँस किस बात पर रहे हैं?
प्रधान :- तुम जैसी सुन्दरी को अकारथ जाते देख।
बीवी :- कुत्ता कहीं का!
(उसे शरबत या कोल्ड ड्रिंक्स देती है।)
प्रधान :- कैसी दुनिया है, मटिया मेट करने वाली। कैसी-कैसी औरतें देखी हैं मैंने - महकते गुलाब के फूलों सी- कमलों सी- साँवली औरतें जिनकी आँखों में लौ जगमगाती थी, औरतें जिनकी जुल्फों से सुगंधित तेलों की ख़ुशबू निकलती और जिनकी बाँहें हमेशा हर वक़्त गर्म रहती, औरतें जिनकी कमर तुम इन दो ऊँगलियों से घेर लो लेकिन तुम्हारे जैसी- कोई नहीं तुम्हारे जैसी परसों पूरे दिन मेरा जी न लगा क्योंकि मैंने घास पर सूख रहे, आसमानी नाड़ों वाले तुम्हारे दो पेटीकोट देख लिये थे- उन्हें देखना मानों तुम्हें देखना था। मेरी प्राण प्यारी मोचिन!
बीवी :- (गुस्से से भभकते हुए) - ज़बान बंद कर बूढ़े! ख़ामोश! जवान लड़कियों और इतने बड़े घर-परिवार के होते तुम्हें, यो बेशर्मी से लार-टपकाते नहीं घूमना चाहिये।
प्रधान :- मेरी बीवी मर चुकी है।
बीवी :- और मैं ब्याहता औरत हूँ।
प्रधान :- लेकिन तुम्हारा आदमी तुम्हें छोड़कर चला गया है और ये पक्का है कि अब वह कभी नहीं लौटेगा।
बीवी :- मैं तो ऐसे ही रहूँगी जैसे वो अब भी मेरा है।
प्रधान :- तो फिर, चूँकि उसने खुद मुझसे कहा था, मैं कसम से कह सकता हूँ कि वो तुमसे रत्ती भर भी प्यार नहीं करता था।
बीवी :- और मैं, गंगा उठाके कह सकती हूँ कि तेरी चारों औरतें-भगवान उन पर गाज गिराए मरते दम तक तुझसे नफ़रत करती थीं।
प्रधान :- (अपने रूल से, टेबिल या कुर्सी जो भी पास हो, ठोकते हुये) - बस, बस बहुत हुआ।
बीवी :- (गिलास पटकते हुए) - बस, बस, हद हो गई।
(वक्फा)
प्रधान :- (घुटते हुये दम के साथ - जैसे दाँत पीसते)- तुम्हें अगर मैं अपना बना पाता तो दिखा देता तुम्हें कैसे काबू में किया जाता है।
बीवी :- (शरमाते हुये) - आप क्या कह रहे थे?
प्रधान :- कुछ नहीं। मैं तो बस यही सोच रहा था कि अगर तुम उतनी भली होती जितना तुम्हें होना चाहिये तो तुम ये समझ लो कि मुझमें इतनी भलमनसाहत और उदारता है कि पक्के काग़ज़ पर अदालत में तुम्हारे नाम एक शानदार घर लिख दूँ।
बीवी :- इससे क्या?
प्रधान :- जिसकी बैठक में पाँच हजार रुपये का फर्नीचर, टेबिलों पर सजावट की चीज़ें, रेशमी पर्दे, आदमकद आइने लगे हैं।
बीवी :- और क्या है?
प्रधान :- (शान बघारते हुये) - घर में ताँबे की कमलनाल में फँसे डंडों वाली शानदार मसहरी से ढँका एक गद्देदार पलंग है, जामुन के छः पेड़ों और खूबसूरत फुहारे वाला एक बगीचा है, लेकिन रुको - खुशियाँ पाने के लिये - उसके लिये जो ये कमरे हासिल करना चाहे - मैं जानता हूँ, उसे कहाँ होना चाहिये, उस सुन्दरी को ․․․(सीधे-सीधे बीवी की ओर मुखातिब होकर) देखो! रानी जैसी रहोगी तुम।
बीवी :- (शर्म से पानी होते हुए) - मुझे तो ऐसे मज़ों की आदत नहीं। बैठक में बैठो- रेंग के पलंग में घुसो, आइना में देखो और जामुन के नीचे मुँह खोल कर लेटो, (इंतजार करते हुये टपकने वाली जामुनों का)- कितना मुश्किल है वे सब, क्योंकि मैं तो मोची की ही बीवी बनी रहना चाहती हूँ।
प्रधान :- (आहत अन्दाज और आवाज़ में) और न मैं प्रधानी छोड़ रहा हूँ। लेकिन तुम्हें ये समझ लेना चाहिए कि सुबह का सूरज सिर्फ हमारे नीचा दिखाने से जल्दी नहीं ऊग आयेगा।
बीवी :- और अब वक़्त आ गया है कि तुम ये जान लो कि मैं न तुम्हें और न इस गाँव के किसी आदमी को पसन्द करती हूँ। उस पर तुम जैसा बूढ़ा, खूसट!
प्रधान :- (चिढ़कर गुस्से में)- लगता है तुम्हें जेल में डलवाना होगा।
बीवी :- हिम्मत करो।
(बाहर तुरही की आवाज़ सुनाई देती है- रंजों भरी)
प्रधान :- क्या हो सकता है?
बीवी :- (खुशी से आँखें फैलाते हुए)- बहरूपिये!
(वह अपने घुटने बजाती है, दो औरतें खिड़की से गुजरती हैं)
लाल पड़ोसी :- बहरूपिये!
बैंगनी पड़ोसी :- बहरूपिये!
लड़का :- (खिड़की से) - क्या उनके साथ बन्दर भी होगा? चलो चलें अपन।
बीवी :- (प्रधान से)- मैं दुकान उठा रही हूँ।
लड़का :- वे तुम्हारे घर आ रहे हैं।
बीवी :- अच्छा?
(दरवाजे़ की ओर जाती है।)
लड़का :- देखो, देखो, वो रहे।
(दरवाज़े पर रूप धरे मोची)प्रकट होता है। वह तुरही और एक पोटली लादे है अपनी पीठ पर। लोग उसको घेरते हैं। बीवी भारी उत्सुकता से घटनाओं की प्रतीक्षा करती है और लड़का खिड़की से कूद, अंदर आ उसकी साड़ी का पल्ला पकड़ खड़ा हो जाता है।
मोची :- जुहार!
बीवी :- जुहार, बहरूपिये!
मोची :- आराम करने की जगह मिलेगी यहाँ?
बीवी :- और खाना-पानी भी, अगर कोई चाहे।
प्रधान :- पधारो, भले मनुष्य, पधारो और जो चाहो खाओ-पियो, पैसे मैं दूँगा।
(पड़ोसियों से) और तुम सब लोग, क्या कर रहे हो यहाँ?
लाल पड़ोसी :- चूँकि हम सड़क पर खड़े हैं- खासी अच्छी सड़क पर, इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि हम तुम्हें कोई अड़चन पैदा कर रहे हैं।
(मोची, सभी को शांति से देखता हुआ, पोथी टेबिल पे रख देता है।)
मोची :- रहने दें उन्हें प्रधान साब- क्योंकि मेरा ख़्याल है कि आप या वो- मुझे तो अपना गुजारा सभी के साथ करना है।
लड़का :- भला कहाँ सुना है मैंने इस आदमी को- बात करते हुये?
(इस पूरे दृश्य में लड़का कुछ उधेड़बुन से मोची पे गौर करता है) खेल दिखाओ न!
(पड़ोसी हँसते हैं।)
मोची :- पानी पी लूँ ज़रा।
बीवी :- क्या तुम ये खेल मेरे घर में दिखाओगे?
मोची :- अगर आप इजाज़त दें।
लाल पड़ोसी :- तो हम अंदर आ जायें?
बीवी :- (गंभीरता से) - आ सकते हो!
(मोची को गिलास में पानी देती है।)
लाल पड़ोसी :- (कुर्सी पे जमते हुये )- चलो थोड़ा मज़ा लूटें।
(प्रधान बैठता है।)
प्रधान :- क्या बहुत दूर से आये हो?
मोची :- बहुत दूर से
प्रधान :- सीकर से?
मोची :- और दूर से।
प्रधान :- मुम्बई से?
मोची :- और दूर से।
प्रधान :- मद्रास से?
मोची :- कालापानी से!
(प्रधान बेहद प्रभावित नज़रों से उसे देखता है। बीवी खुशी से भर जाती है।)
प्रधान :- तो तुमने विद्रोही देखें होंगे?
मोची :- वैसे ही जैसे अभी आप सबको देख रहा हूँ।
लड़का :- कैसे दिखते हैं वो लोग?
मोची :- असहनीय, ज़रा सोचो तो, सब के सब मोची․․․
(पड़ोसियों की नज़रें बीवी की ओर उठ जाती हैं।)
बीवी :- (शर्मसार होते हुए) - किसी और धंधे में नहीं लगा कोई भी?
मोची :- कोई नहीं, काले पानी में सभी मोची हैं!
बीवी :- हो सकता है कि काले पानी के सब मोची भोंदू हों लेकिन यहाँ तो कुछ ऐसे भी हैं जो तेज हैं- तेज तर्राट!
लाल पड़ोसी :- (खुशामद करते हुए) - क्या ख़ूब रही!
बीवी :- (रूखेपन से) - बीच में टपकने को तुम्हें किसने कहा?
लाल पड़ोसी :- लेकिन मेरी गुडि़या!
मोची :- (कड़ाई से टोकते हुए) - कैसा मीठा पानी है। (जोर से) कितना मीठा है यह पानी।
(ख़ामोशी)
पानी, मीठा पानी, वैसा जैसा कुछ औरतों के ओठों में होता है․․․
बीवी :- उनमें से किसी के शरीर में दिल भी था क्या?
प्रधान :- श्․․․ श्․․․ श․․․ और हाँ तुम करते क्या हो?
मोची :- (गिलास खाली करता है, ओठों पर जीभ फेरता है और अपनी बीवी की ओर देखता है) - कोई खास नहीं, लेकिन तमाशा है, भले ही छोटा लेकिन उसमें कमाल है, साइंस का कमाल! मैं जि़न्दगी पेश करता हूँ, अन्दरूनी तस्वीरें! गीत गाता हूँ, बीवे के गुलाम मोची के, कामरूप की काली के, आल्हा-ऊदल के, ख़ूबसूरत लैला- मंजनू के और इन सबसे बढ़ के ढीठ औरतों और कानाफूसी करने वालों के मुँह बंद करने के किस्से - गीतों भरे।
बीवी :- मेरा बेचारा मर्द सब जानता था।
मोची :- भगवान उसका भला करे।
बीवी :- सुनो तो जरा․․․
(पड़ोसी हँसते हैं।)
लड़का :- ऐ․․․!
प्रधान :- (घमंड से) चु․․․ प्प․․․ (दबंगपन से) - ख़ामोश। ये सारी सीखें सबपे लागू होती हैं।
(मोची से) जब तुम्हारी मर्जी हो।
(मोची पोथी खोलता है, पन्ने पलटते हुए उस हिस्से में पहुँचता है, जहाँ बहुत से काग़ज़ पन्नों के बीच दबे हुए हैं- काग़ज़ रंग-बिरंगे हैं। पड़ोसी, पास खिसकने लगते हैं और बीवी लड़के को अपने घुटनों पे बिठा लेती है।
मोची :- ध्यान दीजिए।
लड़का :- अहा! कितना बढि़या।
(बीवी के गले लिपट जाता है- काना फूसी गूँजती है)
बीवी :- अब ज़रा ध्यान दो, हो सकता है कोई बात मुझे समझ में न आये।
लड़का :- महाभारत से ज़्यादा कठिन नहीं होगी, ये पक्का है।
मोची :- योग्य मोची की! सुनो, सुनो गुलाबी, सुर्ख बीवी और गरीब, धीर जवान, सीधे-सादे मर्द की सच्ची कथा सुनो, सुनो ताकि वो इस मुल्क के, तमाम दुनिया के लोगों के लिये सीख और चेतावनी दोनों का काम कर सके।
(दुख, विषाद भरे अंदाज में) खड़े करो अपने कान और सुनो․․․ (पड़ोसी अपनी-गर्दन उठाते हैं और कुछ औरतें एक दूसरे के हाथ थाम लेती हैं।)
लड़का :- ये बहुरूपिया जब बात करता है तब तुम्हें अपने आदमी की याद नहीं आती?
बीवी :- उसकी आवाज़ ज़्यादा मीठी थी।
मोची :- तो सब तै․․․ या․․․ र?
बीवी :- मुझे थोड़ी कँपकँपी छूट रही है।
लड़का :- मुझको भी!
मोची :- (अपनी फूलदार․․․ या पंखदार घड़ी से इशारा करते हुए।)
एक शहर के एक गाँव में
हरे भरे पेड़ों के नीचे
(बने घरौंदे में रहते थे)
मेहँदी थी और फूल खिले थे
उस घर के आजू और बाजू
जिस घर में दोनों रहते थे
(किसी समय वे दोनों प्राणी)
किसी समय वे दोनों प्राणी
किसी समय वे दोनों प्राणी
मोची, मोचिन कहलाते थे
(लड़की बीस बरस से कम की)
मर्द मगर ऊपर पचास के
(किसी समय रहता था मोची)
मोची रहता था बीवी के संग
(रोक के उत्सुकता बढ़ा के)
थी, औरत जिद्दी मिज़ाज़ की-
मर्द मगर था सीधा-सादा
धीरज वाला-धीरज वाला
मोची था ठंडे मिजाज का
ईश्वर जाने․․․
ईश्वर जाने․․․
ईश्वर जाने कितनी झक करते थे दोनों आपस में․․․
देखो! देखो हँसती कैसे, वह औरत कैसे हँसती
उस बेचारे, जी के मारे, अपने ही पति- परमेश्वर पर
अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से
अपने लाल-लाल ओंठों से
(जादू की तरह अपनी पोथी के नीचे से पुट्ठे से बनी-ऐसी तस्वीर उठाके दिखाता है- जिसमें औरत- बचकानी और रूखी-सूखी दिखती है।)
बीवी :- कैसी पापिन औरत थी!
मोची :- इस मोची की मोचिन के थे
केश कि जैसे रानी के हों
लम्बे लम्बे, काले-काले
काले-लम्बे रेशम जैसे केश कि जैसे रानी के हों,
गोश्त कि जैसे झिलमिल जैसे पानी
(मान सरोवर के मोती का।)
चलती थी बसंत में जब वह
ख़ुशबू साथ चला करती थी
क़दम-क़दम पर उसके जैसे
बिछ जाते थे बाग-बगीचे
ऐसी-ऐसी महकें फूटें
फूटें थीं उसके अंगों से
फूटें थीं उसके कपड़ों से
जिन्हें सूंघ पागल होते थे
बौर आम के टेसू ला․․․ ल
कैसे, कैसे, बौर आम के
कैसे कैसे टेसू ला․․․ ल
कैसी महक, मस्त थी उसकी
उस नन्हीं मोचिन की ख़ुशबू (हँसना)
ख़ुशबू उस नन्हीं मोचिन की।
सुन ले, सुनें गुनीजन सुन लें!
कैसे बहकाया लोगों ने
कैसे बहकाया लोगों ने
बहकाया घोड़ों पर बैठे
ख़ूबसूरत जवान पट्ठों ने
पहन जोड़ कोसे, मखमल के
हो सवार घोड़ों पर आते थे
रेशम के रूमाल हिलाते,
ऐयाशी की लार गिराते
- सोने के सिक्के झन्नाते
(आते वे सब गबरू आते।)
मोचिन आगे-आगे बढ़कर
(बतियाने को थी तै․․․ यार)
इन छोरों, रई-सजादों से
(हँसी, ठिठोली की भरमार)
देखें सज्जन कैसे, कैसे,
करती यह नारी व्यौपार।
सजके, धजके, पार के पटियाँ,
रूप से पकाके सब ज्यौनार।
आँख में कजरा, लगा के बिंदी,
करती तरवारों के बार।
उधर बिचारा मोची ठोके अपना माथा अपरम्पार
चला-चला रांपी उसे बेचारे ने दी अपनी जाँघ उघार।
(बहुत नाटकीयता से, दोनों हथेलियाँ जोड़ते हुए)
बूढ़े- भले- मर्द मारे ने
ब्याही अठरा बरस की नार,
कहाँ से आया? भला कौन था?
जिसने रौंदी क्वाँरी सार
उसकी नार को दरवाज़े से
पटा ले गया कौन मतार।
(बीवी जो अब तक हँसी से आनंद ले रही थी, फूट पड़ती है आँसू बहाने लगती है।)
मोची :- (उसकी ओर मुड़के) - क्या हुआ, क्या हुआ तुम्हें?
प्रधान :- लेकिन, लड़का!
(अपनी छड़ी फर्श पर पटकता है।)
लाल पड़ोसी :- जिसे चुप रहना चाहिए वह हमेशा बीच में टपक पड़ता है।
बैंगनी पड़ोसी :- जारी रखो, ख़ुदा के लिए जारी रखो।
(पड़ोसी आपस में फुसफुसाते हैं, और ख़ामोश हो जाते हैं।)
बीवी :- कुछ नहीं, कुछ नहीं बस यही कि मुझे उस पर दया आ रही है, मैं क्या करूँ? मैं ख़ुद को रोक नहीं पाई।
(वह रोता है, अपने को नियंत्रित करने की कोशिश करता है, भोंडेपन से।)
प्रधान :- ख़ामोश!
लड़का :- देखा तुमने!
मोची :- मुझपे रहम करें, बीच में मुझे न टोंके। भला बताइए कि कोई कैसे ऐसा क़िस्सा बयान कर सकता है, ऐसे हालात में, जो उसके दिमाग के न हो, याद न हो उसे।
लड़का :- (साँस भरके) - हाँ, ठीक, बिल्कुल ठीक।
मोची :- (कुछ चिढ़के)
ऐसे, ऐसे, एक सुबह जब
सूरज ऊपर उठा नहीं था
हँसती हरियाली पर्वत पर,
झूम रहे थे पत्ते सर-सर
बिगड़ी बीवी पोस रही थी
पोस रही थी पानी देकर
फूल अनोखे जो दुनिया में
पाए आज नहीं जाते हैं
तभी वहाँ आया इक आशिक
आशिक घोड़ी पर सवार वो,
घोड़ी पर बैठा वह बोला
(घोड़ी दूध धुली ख़ूबसूरत
मानो वह मोती की मूरत)
(गा․․․ गा कर घुड़सवार वह वो․․․ला․․․)
मेरी प्यारी तुम चाहो तो,
बस तुम चाहो,
तुम चाहो तो आज शाम का,
खाना हम दोनों खाएँगे।
खाएँगे बस हम दोनों ही,
इस टेबिल पर
इसी गाँव के, इस कमरे में,
ठीक कहा बिल्कुल यह तुमने
पर मेरे पति का क्या होगा?
पति? जानेगा कैसे वह बोला।
जान गया तो फिर क्या होगा?
क्या कर लोगे?
हत्या कर दूँगा उसकी मैं?
(तेज बहुत वह मात तुम्हें गर दे दी उसने?
पिस्टल है क्या पास तुम्हारे? ठीक।
नाई का उस्तरा बहुत है,
ज़्यादा दुखता है क्या उससे?
पैना होता है यह?
हवा पूस की क्या उससे भी ज़्यादा?
(बीवी अपनी आँखें बंद कर लेती है, लड़के को भींचती है, सारे पड़ोसी तेज उत्सुकता से कहानी के अगले हिस्से की प्रतीक्षा करते हैं, यह उनके चेहरे से जाहिर है।)
झूठ तो नहीं बोल रहे तुम?
“नहीं, भरोसा मेरा रक्खो”
घोपूँगा उस्तरा निशाना साध दस जगह मैं दस बार
सचमुच काम कड़ा है लेकिन बतलाता हूँ सच्ची
वार पेट में चार करूँगा
एक करूँगा दिल के बाजू
एक और फिर वहीं कही पर
दो चूतड़ के आजू बाजू,
“इसी वक़्त कर दोगे बोलो क्या तुम उसका काम-तमाम?”
“आज रात जब लौटेगा वो․․․ इसी वक़्त कर दोगे बोलो क्या तुम उसका काम-तमाम?”
“आज रात जब लौटेगा वो
जूते बेच लिये कुछ जोड़ी
वहीं जहाँ नद्दी मुड़ती है
ख़त्म करूँगा उसकी शान”
(गीत की अंतिम पंक्ति ख़त्म होते न होते मंच के बाहर से बहुत तेज और दर्द भरी चीख़ सुनाई देती है। पड़ोसी उठ खड़े होते हैं। कुछ और करीब से फिर एक चीख़ सुनाई पड़ती है। मोची के हाथ से पोथी और छड़ी छूट जाती है। सभी बड़े हास्यास्पद ढंग से काँपते हैं।)
बीवी :- (फूट-फूट कर रोने लगती है) - मेरा खाबिन्द! अह बहरूपिये!
मोची :- क्या बात है?
बीवी :- मेरा मर्द मुझे छोड़कर चला गया, इन्हीं लोगों की वज़ह से और अब मैं अकेली हूँ बेसहारा।
मोची :- बेचारी लड़की!
बीवी :- कितना चाहती थी मैं उसे। उसपे जान देती थी।
मोची :- (चौंक कर) - ये सच नहीं है।
बीवी :- (तेजी से सिसकना रोक कर) - क्या कहा तुमने।
मोची :- मैंने कहा कि ये कुछ ऐसी समझ में न आने वाली बात है․․․ ये बात सच हो, मुझे तो नहीं लगता।
बीवी :- (परेशानी में) - तुम ठीक कहते हो, लेकिन उस घड़ी से मेरी भूख-प्यास, नींद, पूरी जि़न्दगी हराम हो गयी, क्योंकि उसी में मेरी ख़ुशी बसती थी, वही मेरा सबकुछ था।
मोची :- याने, तुम्हारे इतना चाहने के बाद भी वो तुम्हें छोड़ गया? यह सुनके तो मुझे लगता है कि तुम्हारा खाबिन्द कोई खास समझदार नहीं था।
बीवी :- ड्डपा कर अपनी चतुराई अपने पास रखो। किसी ने तुम्हारा मत नहीं पूछा यहाँ।
मोची :- मुझे माफ़ करो, मेरा मतलब․․․
बीवी :- ख्याल! वो, वह तो कितना चतुर था!
मोची :- मज़ाक के अन्दाज़ में - अच्छा․․ (या )- ऐ․․․ स्सा․․․।
बीवी :- (सख़्ती से) - हाँ, और तुम पोथी लिये, गाँव-गाँव घूम जो क़िस्से गाते फिरते हो न, वो कहीं नहीं लगते, उसके क़िस्सों के सामने। तीन गुने- हाँ तुमसे तीन गुने जानता था वो।
मोची :- (गंभीरता से) - ऐसा नहीं हो सकता।
बीवी :- चार गुने, तुमसे चार गुने और सारे के सारे क़िस्से वो मुझे सुनाता था जब हम बिस्तर होते। पुरानी कहानियाँ जो तुमने सपने में भी नहीं सुनी होंगी।
(शर्माते हुये) और मैं कितना डर जाती थी। तब वो कहता “मेरी प्यारी ये सब झूठी बातें हैं।”
मोची :- (अपमानित भाव से) - ये सच नहीं है।
बीवी :- (अचरज से) - अरे? तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है क्या?
मोची :- झूठ है!
बीवी :- (गुस्से से) - क्या मतलब है तुम्हारा, तुम शैतान बहरूपिये?
मोची :- (तनकर, खड़ा होता है) - हाँ तुम्हारा मर्द सही कहता था। ये कहानियाँ झूठी हैं- मनगढ़न्त, और कुछ नहीं।
बीवी :- (कड़वाहट से)- क्यों नहीं, साब तुम मुझे बिल्कुल ही बौड़म समझ रहे हो- लेकिन इससे तो तुम भी इंकार नहीं कर सकते कि ये कहानियाँ मन पे असर करती हैं।
मोची :- ये और बात है, लेकिन वे असर उन्हीं पर करती हैं जो भोले-भाले होते हैं।
बीवी :- दिल तो हर आदमी के होता है।
मोची :- जाकी रही भावना जैसी। मैंने कइयों ऐसे देखे हैं जिन पर किसी चीज का असर नहीं पड़ता मेरे क़स्बे में ही कभी ऐसी निष्ठुर औरत रहती थी कि वह अपने यारों से खिड़की पे खड़े हो गप्पे मारती जबकि उसका बेचारा मोची खाबिन्द वहीं दिन रात झख मारता रहता।
बीवी :- (उठ के -एक कुर्सी से टिकते हुये) - ये क्या तुम मुझे देख के कह रहे हो।
मोची :- क्या?
बीवी :- अगर तुम इसमें कुछ और जोड़ना चाहते हो तो जोड़ो, दिखाओ हिम्मत।
मोची :- (विनम्रता से) - देवी जी, ये आप क्या कह रही हैं? मैं भला कैसे जानूँगा कि आप कौन हैं? मैंने किसी तरह आपकी बेइज्जती नहीं की फिर आप मुझसे ऐसा सलूक क्यों कर रही हैं? छोडि़ये मुझे तो यही बदा है।
(रूआँसा हो जाता है।)
बीवी :- (कड़ाई से लेकिन भावुक होकर) - देखो भले मानस, मैंने तुमसे ऐसी बातें इसलिये की क्योंकि मैं खुद अंगारों पे सिक रही हूँ। हर आदमी मुझे घेरता है, हर कोई लानत-मलामत करता है मेरी! अपनी इज़्ज़त बचाने का कोई भी मौका भला कैसे छोड़ दूँ मैं? क्योंकि मैं अकेली हूँ, जवान हूँ फिर भी महज यादों के सहारे जीना पड़ रहा है मुझे․․․
(रोती है)
मोची :- (रूआँसी आवाज़ में) - मैं समझ रहा हूँ तेरी तकलीफ नन्हीं परी! जितना तू सोचती है उससे ज़्यादा समझ रहा हूँ- क्योंकि- तुमसे बता रहा हूँ ये राज- कि तुम्हारी हालत- हाँ इसमें कोई शक़ नहीं- बिल्कुल मेरी जैसी है।
बीवी :- (अविश्वास भाव से) - क्या ऐसा हो सकता है?
मोची :- (टेबिल पर पछाड़ खा के गिर पड़ता है) - मुझे मेरी बीवी ने छोड़ दिया।
बीवी :- उसके कीड़े पड़े।
मोची :- वह ऐसी दुनिया के सपने देखती थी जो मेरी नहीं थी। वह मनमौजी, चंचल और बेलगाम थी। उसे बातें करने में रस मिलता था, और मिठाईयाँ, जिन्हें खरीदना मेरे बूते के बाहर था उसे बेहद पसन्द थीं, और एक दिन जब ऐसी हवा चल रहीं थी जैसे कोई तूफान- वह मुझे हमेशा के लिए छोड़कर चली गयी।
बीवी :- और तुम दर-दर क्यों भटक रहे हो?
मोची :- मैं उसे खोज रहा हूँ ताकि उसे माफ़ कर सकूँ और अपनी जि़न्दगी के जो थोड़े दिन बचे हैं उसके साथ गुज़ार सकूँ। उमर के इस पड़ाव पर आदमी इस दुनिया में डरा-डरा महसूस करने लगता है।
बीवी :- (जल्दी से) - थोड़ी सी गर्म काफ़ी बनाती हूँ। इस सारे तमाशे के बाद वह तुम्हें फ़ायदा करेगी।
(टेबिल पर जाके काफ़ी तैयार करती है) - मोची की ओर पीठ किये।
मोची :- (आकाश की ओर हाथ जोड़ता, आँखें बंद करता, खोलता) - भगवान तुम्हारा भला करे मेरी नन्हीं लाल परी!
बीवी :- (उसे कप देती है, बसी अपने हाथ में रखती है, वह बड़े-बड़े घूँट पीता है) - ठीक है?
मोची :- (ख़ुशामदी टोन में) आप के हाथ की जो बनी है।
बीवी :- (मुस्कुराते हुए)- धन्यवाद,
मोची :- (आिख़री घूँट लेते हुये) - ओह! कितना रश्क हो रहा है मुझे तुम्हारे पति से।
बीवी :- क्यों?
मोची :- (बहादुरी से) - क्योंकि उसने दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत औरत से शादी की।
बीवी :- (पिघलते हुए) - कैसी-कैसी बातें करते हैं आप?
मोची :- और अब, मुझे खुशी है कि मेरे चलने का वक़्त हुआ, यहाँ तुम अकेली - मैं भी अकेला, तुम इतनी ख़ूबसूरत और मैं, ऐसी ज़ुबान पाई है मैंने कि सलाह दिये बिना वह रह नहीं पाती․․․․
बीवी :- (प्रभाव से उबरते हुये) - हे भगवान, बंद करो बकबास! आिख़र तुमने समझ क्या रक्खा है? मैंने अपना दिल उस घुमक्कड़ के लिये रख छोड़ा है, उसी अपने मर्द के लिये।
मोची :- (ख़ुशी से भरकर, सिर का चोंगा, या टोपी, जो भी है- जमीन पर फेंकता है) बहुत अच्छे, सच्ची औरत जैसी बात की तुमने क्या ख़ूब।
बीवी :- (हँसी उड़ाने के भाव से,अकबका कर)- लगता है जैसे तुम थोड़े․․․
(कनपटी तक हाथ उठाकर ऊँगली का इशारा करती है।)
मोची :- अब जो भी कहो। लेकिन ये जान लो कि मैं अपनी बीवी के अलावा कानून ब्याही स्त्री के अलावा किसी को प्यार नहीं करता।
बीवी :- और मैं अपने आदमी से, अपने पति के अलावा किसी से नहीं। इतनी बार कह चुकी हूँ मैं ये बात कि कोई बहरा भी सुन ले․․․
(अपने हाथ जोड़कर) ओह मेरी जान से प्यारे मोची।
मोची :- (जरा अलग हटकर) - ओह मेरी जान से प्यारी बीवी!
(दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़)
बीवी :- हे भगवान! लगातार मेरा जी धड़क रहा है जोरों से! कौन है?
लड़का :- खोलो!
बीवी :- ये क्या? तुम यहाँ कैसे पहुँचे?
लड़का :- मैं तो दौड़ता हुआ तुम्हें बताने आया हूँ।
बीवी :- क्या हुआ?
लड़का :- दो तीन लोगों ने एक दूसरे को छुरे मार दिये हैं - और सब कहते हैं झगड़े की जड़ तुम हो। ऐसे घाव हुये हैं सबको कि बस- ख़ूनाख़ून। सब औरतें तुम्हें गाँव से निकलवाने के लिये थाने गई हैं और सारे आदमी, माली से कह रहे थे कि वो मंदिर की घंटियाँ बजाए ताकि सब तुम्हारा वाला गाना गा सकें․․․
(लड़का हाँफता है, पसीने से तरबतर)
बीवी :- (मोची से) - देखा तुमने?
लड़का :- पूरा चौक भर गया है गाँव वालों से - मेला जैसा लगा है - और सब तुम्हारे खि़लाफ़ हैं।
मोची :- लुच्चे! मेरा मन तो कर रहा है कि वहाँ जाऊँ और तुम्हारी वकालत करूँ।
बीवी :- किस लिए? वे तुम्हीं को थाने में बंद कर देंगे। मुझी को अब कुछ न कुछ कड़ा कदम उठाना होगा।
लड़का :- अपनी खिड़की से तुम चौक का हो हल्ला देख सकती हो।
बीवी :- (जल्दी में) - आओ, मैं खुद देखना चाहती हूँ कितनी नफ़रत है उन लोगों में।
(तेज़ी से भागती है।)
मोची :- हाँ, हाँ लुच्चे। ख़लनायक साले! लेकिन मैं जल्दी ही इनसे हिसाब चुकता करूँगा और हरेक को जवाब देना होगा करतूतों का! उफ! मेरे प्यारे घर। कैसा अपनापन टपकता है तुम्हारे दरवाज़े, खिड़कियों से। उफ कैसे-फूटे खपरैलें, कैसा ख़राब खाना कितनी गंदी चादरें मिलीं चारों ओर․․․ और कैसा उल्लू था मैं जो ये न जान सका कि मेरी बीवी कैसा खरा सोना है।
दुनिया ऊपर! मेरा तो रोने को, सर पीट लेने को जी चाहता है।
लाल पड़ोसी :- (तेज़ी से घुसते हुए) - भले मानस!
पीला पड़ोसी :- (तेज़ी से) - भले मानस!
लाल पड़ोसी :- निकल जाओ इस घर से फ़ौरन तुम भले आदमी हो और तुम्हें यहाँ नहीं रहना चाहिये।
पीला पड़ोसी :- यह शेरनी का घर है, मादा लकड़बग्घे का।
लाल पड़ोसी :- मर्दों को दगा देने वाली शैतान की बच्ची का।
पीला पड़ोसी :- अब या तो वह ख़ुद कस्बा छोड़ेगी या हम उखाड़ कर फेंक देंगे उसे। पागल कर दिया है उसने हमें।
लाल पड़ोसी :- मर जाती तो अच्छा था।
पीला पड़ोसी :- कफ़न में लिपटती मौत को, प्यारी होती तो हम उसके सीने पे फूल चढ़ाते।
मोची :- (गहरी तकलीफ़ से) - बस, बस बहुत हुआ।
लाल पड़ोसी :- खून वहाँ है।
पीला पड़ोसी :- सफेद रूमाल बचे ही नहीं।
लाल पड़ोसी :- दो जवान जैसे दो सूरज।
पीला पड़ोसी :- छेद दिये गये घुरियों से।
मोची :- (ज़ोर से) - हद हो गई।
लाल पड़ोसी :- सब कुछ इसी की वजह से
पीला पड़ोसी :- इसी की, इसी की, इसी की।
लाल पड़ोसी :- हम तो तुम्हारे भले की कह रहे हैं।
पीला पड़ोसी :- हम तो तुम्हें समय रहते चेता रहे हैं।
मोची :- मक्कारो! शैतान के बच्चो! ढोंगियो! मैं तुम लोगों को बालों के बल घसीटूँगा․․․
लाल पड़ोसी :- (दूसरे से) - उसने इसे भी बस में कर लिया।
पीला पड़ोसी :- उसके चूमों का कमाल मालूम होता है।
मोची :- गिरगिटो! झूठी गंगा उठाने वालो, नरक में जाओगे।
काला पड़ोसी :- (खिड़की) - पड़ोसियो! भागो! (भागता हुआ जाता है, दूसरे दो पड़ोसी भी ऐसा ही करते हैं।)
लाल पड़ोसी :- एक और डसा गया।
पीला पड़ोसी :- एक और!
मोची :- कमीनो! हरामजादो! रांपी घुसेड़ दूँगा गुद्दी में! सपने में भी तुम्हारे रोंगटे खड़े होंगे मुझे देखकर।
लड़का :- (तेजी से अंदर घुसता) - कुछ लोगों का झुंड प्रधान के घर गया है। मैं जाता हूँ वहाँ सुनने, कि वो क्या कहते हैं।
(दौड़ते हुए बाहर जाता है)
बीवी :- (अंदर आती है, बहादुरी से) - लो मैं आ गयी, करे कोई हिम्मत पाँव रखने की, मैं देखती हूँ - ऐसे घुड़सवारों की बेटी हूँ जिनने एक नहीं अनेक बार बिना काठी के, घोड़ी की नंगी पीठ पर सवार हो जंगल पार किये हैं।
मोची :- तुम्हारी सहन शक्ति क्या कभी जवाब नहीं देगी? (क्या तुम ऐसे ही सदा डटी रहोगी।)
बीवी :- कभी नहीं, प्यार और आत्मसम्मान के सहारे जीने वाले लोग, कभी घुटने नहीं टेकते। मैं तब तक मोर्चा ले सकती हूँ जब तक मेरा हर केश सफेद न हो जाए।
मोची :- (भावुक होकर, उसकी ओर बढ़ते हुए) - उफ․․․
बीवी :- क्या हुआ तुम्हें?
मोची :- मैं․․․ मैं․․․
बीवी :- देखो, पूरा कस्बा मेरे पीछे पड़ा है, वे मेरा खून करने आ रहे हैं, फिर भी मुझे रत्ती भर ख़ौफ़ नहीं। चाकू का जवाब चाकू से, लाठी का लाठी से दिया जा सकता है। लेकिन रात में, जब मैं दरवाज़े बंद कर बिस्तर पर जाती हूँ- मेरा मन दुःख से भर उठता है- कैसे गहरे दुःख से। मेरा दम घुटने लगता है, कपड़े की आलमारी खड़के तो मैं चौंक उठती हूँ। बारिश की बौछारों से खिड़कियों की आवाज़ हो तो चौंक उठती हूँ पागलों की तरह मैं अपने पलंग की मसहरी हिलाने लगती हूँ और डर जाती हूँ और ये सब अकेलेपन के डर और उस भूत के अलावा कुछ नहीं जिसे मैंने नहीं देखा, क्योंकि मैंने उसे देखना नहीं चाहा, लेकिन जिसे मेरी माँ ने, नानी ने, दादी ने, मेरे घर की हर उस औरत ने देखा है जिसने आँखें पाई थीं।
मोची :- तो तुम अपनी जि़न्दगी के तौर तरीके क्यों नहीं बदलतीं?
बीवी :- सनक गये हो क्या? मैं कर ही क्या सकती हैं? कहाँ जा सकती हूँ, सो मैं यहाँ हूँ और जो ऊपरवाला चाहेगा- होगा (भुगतूँगी)!
(बाहर, कुछ दूर बातों का शोर और तालियाँ सुनाई देती हैं।)
मोची :- खैर! मुझे माफ़ करो, रात होने से पहले मुझे चल देना चाहिये। कितने पैसे हुये?
(पोथी उठाता है)
बीवी :- कुछ नहीं।
मोची :- ऐसा नहीं हो सकता।
बीवी :- वो मेरी तरफ़ से समझो।
मोची :- बहुत बहुत शुक्रिया!
(पीठ पर पोथी का थैला, दुःख में भरे-भरे लादता है।)
अच्छा, बिदा लेता हूँ, हमेशा के लिए- क्योंकि इस उमर में․․․।
(उसकी आवाज़ भर्रा उठती है।)
बीवी :- (भावना में बहकर) - ऐसे विदा देना मुझे भाता नहीं। अक्सर मैं ख़ूब ख़ुश रहती हूँ।
(साफ़ आवाज़ में)
ईश्वर चाहेगा तो तुम्हें अपनी बीवी मिल जायेगी और तुम एक बार फिर उसके साथ उसी आराम और सुख से रह सकोगे जिसके तुम आदी हो।
(फिर भावुक हो उठती है।)
मोची :- मैं भी तुम्हारे पति के लिए यही प्रार्थना करता हूँ। लेकिन, सुनो, ये दुनिया बहुत छोटी है और कभी धोखे से घूमते-घूमते वह मुझे मिल जाय तो क्या संदेशा देना चाहोगी अपने पति के लिये।
बीवी :- कहना उसे कि मैं उस पर जान छिड़कती हूँ।
मोची :- (पास आके) और कुछ?
बीवी :- कहना उससे, कि उसके पचास और कुछ ऊपर की उमर के बावजूद ईश्वर उसे लम्बी उम्र दे, मुझे वह दुनिया के तमाम मर्दों से ज़्यादा छरहरा और शानदार लगता है।
मोची :- बच्ची, तू कैसी अनोखी है! तू उसे उतना ही चाहती है जितना मैं अपनी बीवी को।
बीवी :- उससे भी ज़्यादा।
मोची :- यही नहीं हो सकता। मैं तो नन्हा खरगोश हूँ और मेरी बीवी गढ़ी पे राज करती है। करे वह राज! वह मुझसे कई गुना सयानी है। (वह उसके बहुत पास पहुँच गया है और लगता है जैसे उसकी प्रार्थना कर रहा हो।)
बीवी :- और उसे ये बताना मत भूलना कि मैं उसकी राह देख रही हूँ। (इन्तज़ार कर रही हूँ) क्योंकि ठंड की रातें बहुत लम्बी होती हैं।
मोची :- तो तुम उसका स्वागत करोगी?
बीवी :- ऐसे, जैसे वह राजा और रानी दोनों हों।
मोची :- (काँपते हुये) - और कहीं धोखे से वह इसी पल आ जाय?
बीवी :- मैं ख़ुशी से पागल हो जाऊँगी।
मोची :- क्या तुम उसकी गुस्ताखी माफ़ कर दोगी?
बीवी :- कब की कर चुकी हूँ! माफ़ उसे।
मोची :- क्या तुम चाहती हो कि वह इसी पल वापस आ जाए?
बीवी :- काश! वह आ जाता।
मोची :- (चिल्लाकर) तो लो वह आ गया!
बीवी :- क्या कह रहे हो तुम?
मोची :- (अपनी ऐनक और लबादा, दूसरा मेकअप उतारते हुये) अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकता। मेरे दिल की रानी!
(अपने दोनों हाथ पूरे फैलाए बीवी जैसे सुन्न हो गई हो। मोची उसे बाहों में ले लेता है, और वह उसे ध्यान मग्न, स्थिर आँखों से देखती है, बाहर गाने की साफ़ आवाज़ सुनाई देती है।)
आवाज़ :- (बाहर से) -
मोचिन, मोचिन, मोचिन, मोचिन
भाग गया उसका पति जबसे
भाग गया उसका पति जबसे
तबसे उसने खोली होटल
ये रखैल मर्दों को लूटे
ये रखैल मर्दों को लूटे
बारी काले पड़ोसी की अब
बीवी :- (जैसे जागते हुए) - लुच्चे, लफंगे, बदमाश! नीच! सुन रहा है तू! सब तेरे कारण।
(कुर्सियाँ उठाकर फेंकने लगती है।)
मोची :- (भावनाओं से ओत-प्रोत, बीवी की ओर बढ़ता है।) मेरी प्यारी रानी बीवी!
बीवी :- आवारा! ओह कितनी खुश हूँ मैं कि तू वापस लौट आया। देखना कैसी जि़न्दगी देती हूँ तुम्हें! नरक में भी ऐसी पूछताछ न होती होगी! न स्वर्ग में।
मोची :- (अपनी कुर्सी पर बैठके) - मेरी ख़ुशियों का घरौंदा। (गीत के बोल घर के और ज़्यादा पास आते हैं, पड़ोसी खिड़की से नज़र आते हैं।)
आवाज़ेःं- (बाहर से-गीत)
मोचिन भौजी, मोचिन भौजी,
मोचिन भौजी, मोचिन भौजी
भाग गया उसका पति जबसे
भाग गया उसका पति जबसे
तबसे उसने खोली होटल
तबसे उसने खोली होटल
ये रखैल मर्दों को लूटे,
लूटे ये रखैल मर्दों को -
लूटे ये रखैल मर्दों को
बीवी :- कितनी दुर्भागिन हूँ, इस मर्द के साथ जिससे मेरा जोड़ा भगवान ने बनाया है।
(दरवाज़े की ओर जाती है।)
ख़ामोश, लम्बी जीभ वालो, कमीनो! आओ अब, बढ़ो आगे अगर हिम्मत हो। अब हम दो हैं इस घर की रक्षा के लिये। दो-दो․․․ मेरा पति और मैं।
(अपने पति से)
ऊफ यह लुच्चा, यह सत्यानाशी!
(गाने की आवाज़ मंच में भर जाती है। कहीं दूर एक घंटी तेजी से टनाटन- टनाटन बजती है, जैसे कोई गुस्से में बज़ा रहा हो।)
पर्दा
----
----
COMMENTS